गुरुवार, 18 अगस्त 2011

लंदन का दंगा, दुनिया के लिए एक चेतावनी !

भयावह आगजनी
लंदन में गत 6 अगस्त को एकाएक भड़क उठा दंगा, केवल ब्रिटिश शासकों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के आधुनिक लोकतांत्रिक देशों के लिए एक चेतावनी है। यह ब्रिटिश शैली की लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था को भी एक चुनौती है, किंतु सेवा केवल धनी और ताकतवर समुदाय की ही करती है। इस व्यवस्था से यही संदेश मिल रहा है कि केवल कठोर परिश्रम व नियमों के अनुसार करम करके न तो समृद्धि हासिल की जा सकती है और न सम्मानित भविष्य ही सुनिश्चित किया जा सकता है। वास्तव में लोकतंत्र और विधि का शासन एक धोखे की टट्टी है, जिसकी ओट लेकर दबंग और शक्तिशाली वर्ग सारी आर्थिक शक्तियों पर कब्जा जमाए हुए हैं।

ब्रिटेन में भड़के बीते हफते के देश्व्यापी दंगों से ब्रिटेन ही नहीं, शायद पूरे यूरोप के लोग हतप्रभ हैं। शनिवार 6 अगस्त को एकाएक भड़का दंगा कैसे विकराल हो उठा, यह लोगों की समझ में नहीं आ रहा है। टीवी पर देखकर इस घटना का विश्लेषण करने वाले पंडित भी चकित हैं, क्योंकि इस घटना के कारणों को कोई तर्कसंगत व्याख्या नहीं सूझ रही है। मीडिया में आ रही सारी खबरें इस घटना से शुरू हो रही हैं कि पुलिस गोली से मारे गये युवक मार्ग दुग्गन के लिए न्याय मांगने के लिए करीब 300 लोगों की भीड़ उत्तरी लंदन के टोटनेहम पुलिस थाने पर एकत्र हुई थी। मार्ग दुग्गन क्यों मारा गया, यह ठीक-ठीक पता नहीं है, लेकिन शनिवार को उसके लिए न्याय मांगने आयी भीड़ एकाएक इतनी उग्र हो गयी कि वह सीधे तोड़फोड़, आगजनी, हिंसा व लूटपाट पर आमादा हो गयी। कुछ ही समय में यह दंगा पूरे लंदन में फैल गया और फिर देश के अन्य शहरों मैनचेस्टर, बर्मिंघम, लिवरपूल, सैलफर्ड, लैस्टरा, नाटिंघम, बुलवर हैफ्टन, ब्रिस्टल आदि में फैल गया। इन दंगाइयों में ज्यादातर किशोर शामिल थे, बाद में बड़ी उम्र वाले भी शामिल हो गये। लोग टीवी पर यह देखकर चकित थे कि बमुश्किल 10-11 साल तक के बच्चे इस आगजनी व लूट में शामिल थे। वे मकानों व दुकानों में आग लगा रहे थे। लूटने लायक हर सामान लूट रहे थे। शराब व बियर की बोतलें, गहने, बिजली के उपकरण, इलेक्ट्र्ॉनिक सामान, डिजाइनर कपड़े -जो जिसके हाथ लग रहा थ, ले के भागने या बाकी में आग लगाने में जुटा था। सड़क चलते लोगों को भी लूटने की घटनाएं हुईं। सड़क चलते हमले के शिकार ज्यादातर प्रवासी एशियायी थे। हमला करने वालों में काले, गोरे, भूरे हर तरह के लोग थे। खुदरा दुकानदार शायद सबसे ज्यादा लूटे गये। ज्यादातर लुटेरे अपना चेहरा छिपाए हुए थे, जिससे सड़कों व दुकानों में लगे सी.सी. टीवी के कैमरे व पुलिस के वीडियो कैमरों से उनकी पहचान न हो पाए।

इस सारी घटना का एक रोचक पक्ष यह भी रहा कि प्रारंभिक दौर में इस लूटपाट व आगजनी में पुलिस ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। वह मूक दर्शक बनी रही। भीड़ खुलेआम आग लगा रही थी, दुकानों को लूट रही थी, लेकिन पुलिस खड़ी थी। अव्वल तो शहर में इतनी पुलिस ही नहीं थी कि इतने व्यापक उपद्रव को रोक सके। दूसरे जहां वह थी भी, वहां वह तटस्थ दर्शक बनी रही। प्रशासन भी पूरी तरह किंकर्तव्यविमूढ़ नजर आ रहा था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। प्रधानमंत्री इस समय छुट्टी मनाने के लिए इटली गये हुए थे। अनियंत्रित दंगे की खबर सुनकर वह छुट्टी बीच में ही छोड़कर लंदन भागे। उनके आने पर अवश्य प्रशासन में हरकत नजर आई। लंदन में अतिरिक्त पुलिस फोर्स मंगाई गई। शहर की गश्त में लगी करीब 6000 पुलिस की संख्या बढ़ाकर 16,000 की गयी। तीन दिन की आगजनी व लूटपाट के बाद लंदन में तो शांति वापस आ गयी, लेकिन अन्य शहरों में यथेष्ट पुलिस बल के अभाव में यह हिंसा बुधवार तक चलती रही।

प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने दंगों पर उतरी इस भीड़ को उद्दंड अपराधियों की संज्ञा दी है और उनकी इस प्रवृत्ति के लिए उनके पालकों को जिम्मेदार ठहराया है। उन्होंने हर कीमत पर शांति व कानून व्यवस्था कायम करने का आश्वासन दिया है, तथा उन सबको उचित सजा देने की बात की है, जो इस हिंसा व उपद्रव में शामिल थे। उनके अनुसार सी.सी. टीवी कैमरों द्वारा लिये गये चित्रों का विश्लेषण किया जा रहा है तथा हमलावरों की पहचान की जा रही है। पुलिस इन वीडिया फुटेज को आम जनता के लिए भी जारी कर रहे हैं, जिससे दंगाइयों की पहचान की जा सके। दंगों के दौरान पुलिस तथा फौजदारी की अदालतें दिन रात चौबीसों घंटों काम करती रहीं। करीब साढ़े सात सौ से अधिक गिरफ्तारियां की गयीं, जिनके विरुद्ध अदालती मामले दर्ज करने की तैयारी चल रही है।

दुनिया इन दंगों व लूटपाट की बात देख सुनकर इसलिए चकित है कि उसकी नजर में ऐसी घटनाएं तो गरीब, पिछड़े, विकासशील देशों में हुआ करती है। दंगे फसाद करना और छोटी-छोटी उपभोग वस्तुओं की लूटपाट करना तो असभ्य, कुसंस्कृत और गरीब समाज के लक्षण है। ब्रिटेन तो दुनिया के समृद्धतम देशों में गिना जाता है और आधुनिक सभ्यता व संस्कृति का तो वह गुरु समझा जाता है। माना जाता है कि आधुनिक मनुष्यता के सारे आदर्श और आचरण के श्रेष्ठतम नियम वहीं से दुनिया में फैले हैं। फिर ये क्या हो गया। कहां गये सभ्यता के उंूचे संस्कार, कहां गयी औद्योगिक समृद्धि की गर्वोन्नत श्रेष्ठता! ऐसा नहीं कि इन दंगों के दौरान ब्रिटेन का उन्नत संस्कारों वाला सामाजिक चेहरा नहीं दिखायी पड़ा। दंगों की तोड़फोड़ व हिंसा की वारदातों के बीच ऐसे लोग भी घरों से बाहर आये, जो हाथों में झाड़ू व ब्रश लिए हुए थे और फौरन दुकानेां के टूटे कांच तथा सड़कों पर बिखरे मलबे को साफ करने में लग गये। नागरिक कर्तव्य तथा सामुदायिकता की भावना का ऐसा प्रदर्शन भी कम देखने को मिलता है, लेकिन पूरे ब्रिटेन में हिंसा का जैसा दृश्य देखा गया, उसे ढकने में यह सामाजिक प्रदर्शन नाकामयाब रहा। ऐसे भले लोग थोड़ी संख्या में तो हर देश व हर समाज का चारित्रिक प्रतिनिधित्व नहीं करते। प्रतिनिधित्व करने वाला तो वह वर्ग था, जो पांच दिन तक ब्रिटेन की सारी उदात्त पहचान को रौंदता रहा।

राजनीति व समाज शास्त्र के पंडित इन घटनाओं की तरह-तरह से व्याख्या कर रहे हैं। एक सर्वाधिक तर्कसंगत लगने वाली व्याख्या आर्थिक है। लगभग पूरा यूरोप पिछले कुछ वर्षों से जिस आर्थिक संकट से जूझ रहा है, यह उसका परिणाम है। मंदी के दौर में ब्रिटिश सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य तथा जनसेवाओं के मद में भारी आर्थिक कटौती की। जन कल्याणकारी योजनाओं में कटौती के कारण पिछड़े व गरीब तबके में उफन रहा असंतोष इस दंगे के रूप में फूट पड़ा। आंकड़े बताते हैं कि इस समय देश का हर पांचवां युवक बेरोजगार है। लेकिन केवल इस सिद्धांत से उपर्युक्त लूटपाट, हिंसा व आगजनी की व्याख्या नहीं हो सकती। दुकानों में लूटपाट करते जो युवक पकड़े गये हैं, उनमें सब बेरोजगार ही नहीं हैं। उनमें नियमित रोजगार वाले नौकरीपेशा शिक्षक, होटलों के शेफ तथा छोटे कर्मचारी भी हैं। एक तर्क यह दिया जा रहा है कि ब्रिटेन में बड़ी संख्या में आ बसे अफ्रीकी व एशियायी मूल के लोगों ने यह दंगा किया। पुलिस द्वारा की गयी एक युवक की हत्या से बस उन्हें एक मौका मिल गया और उन्होंने मनमाना उपद्रव शुरू कर दिया, लेकिन यह भी पूरी तरह सही नहीं है, क्योंकि टीवी पर आ रही दंगों की रिपोर्टों में साफ दिखायी दे रहा है था कि लूटपाट करने वालों में काले या भूरे लोगों के मुकाबले गोरों की संख्या ज्यादा थी। दंगे की जो रिपोर्टें मिल रही हैं, उनके अनुसार जिन खुदरा दुकानों को लूट व आगजनी का शिकार बनाया गया, उनमें ज्यादातर एशियायी मूल के लोगों की हैं। यह निश्चय ही ब्रिटिश युवकों के बीच एशियायियों की बढ़ती समृद्धि के प्रति उग्र होती ईर्ष्या का परिणाम है। उन्हें लग रहा है कि उनके रोजगार के अवसर ये बाहर से आए प्रवासी हड़प ले रहे हैं। इन दंगों में एक चौथा कारण नस्ली व मजहबी घृणा का भी देखा जा सकता है। दंगे के दौरान केवल तीन मौतों की खबर है। ये तीनों ही मुस्लिम हैं। वे तीनों अपने धार्मिक व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को दंगाइयों के हमलों से बचाने के लिए सड़क की पटरी -पेवमेंट- पर आ गये थे। तभी एक तेज रफ्तार कार उन तीनों को कुचलती निकल गयी। यह कोई अजनाने हुई दुर्घटना नहीं, बल्कि जानबूझकर की गयी हत्या थी। इसके अलावा सड़कों पर हुई लूट का शिकार भी ज्यादातर मुस्लिम प्रवासियों को बनाया गया। ’यू ट्यूब‘ पर डाले गये एक चित्र में मुहम्मद अशरफ हाजिक नामक एक छात्र को दिखाया गया है। उसे कम उम्र गोरे लड़कों ने मिलकर बुरी तरह पीटा और उसका सामान छीन लिया। उसके किसी दोस्त ने अस्पताल में पहंुंचकर उससे बात की और बातचीत का कुछ उसमा चित्र ‘यू ट्यूब‘ पर डाल दिया। इस बातचीत में हाजिक बताता है कि किस तरह कुछ कम उम्र के गोरे लड़कों ने उस पर हमला किया और किस तरह करीब 11 वर्ष के एक गोरे लड़के ने उसे चाकू मार देने की धमकी दी। अभी मात्र एक महीने पहले वह एक छात्रवृत्ति जीतकर मलेशिया से यहां पढ़ने आया था। उसका जबड़ा टूट गया है और रायल लंदन अस्पताल में उसका इलाज चल रहा है।

वास्तव में इस समय ब्रिटेन, अमेरिका व यूरोप के अन्य देश् ही नहीं, बल्कि दुनिया के प्रायः सभी तथाकथित सभ्य व लोकतांत्रिक देश एक भारी सैद्धांतिक विसंगति, सामाजिक विखंडन तथा नैतिक पतन के दौर से गुजर रहे हैं। इनमें भारत भी शामिल हैं। क्योंकि उसन भी पश्चिम के उन्हीं आर्थिक सामाजिक राजनीतिक व नैतिक मूल्यों को अपना रखा है, जिनकी स्थापना इन पश्चिमी देशों द्वारा की गयी है। अब पश्चिम के ये सैद्धांतिक आधार बुरी तरह बिखरने लगे हैं। सिद्धांततः लोकतंत्र, बहुसंस्कृतिवाद, धार्मिक व नस्ली समानता आदि के सिद्धांत बड़े आकर्षक तथा मनुष्यता के आदर्श प्रतीत होते हैं, लेकिन व्यवहार में धनी व ताकतवर लोग ही इस स्थिति का लाभ उठा रहे हैं। मजहबी व नस्ली फासिस्ट ताकतें विस्तार करने में लगी हैं। समाज के धनी व ताकतवर लोगों ने राजनीति सत्ता तथा आर्थिक संसाधनों पर इस तरह कब्जा कर लिया है कि बाकी का जन समुदाय मात्र उनकी दया का मोहताज बनकर रह गया है। लोकतंत्रीक व्यवस्था में यह आशा की गयी थी कि देश के आथर््िाक व औद्योबिक विकास का लाभ देश के प्रत्येक नागरिक को मिल सकेगा, शिक्षा के प्रसार व राजनीतिक व सामाजिक अवसर की समानता से मजहबी अधिनायकवाद का तंत्र टूटेगा। मानवीय समता की भावना का विस्तार होगा, आर्थिक विकास से विषमताओं का गढ़ ढहेगा, लेकिन अब देखा जा रहा है कि यह सपना भारत जैसे विकासशील देश में ही नहीं, ब्रिटेन जैसे विकसित व समृद्ध देश में भी टूट रहा है। ब्रिटेन में हुए इस दंगे ने तो वहां की सामाजिक असलियत को दुनिया के सामने उजागर कर दिया, लेकिन यूरोप के अन्य देशों तथा अमेरिका आदि की स्थिति भी इससे भिन्न नहीं है। पिछली आर्थिक मंदी ने इन सभी देशों का मुलम्मा झाड़ दिया है।

लोकतंत्र केवल कहने को लोकतंत्र है। धनी और ताकतवर वर्ग आम आदमी की कीमत पर अपनी सुख-समृद्धि को बढ़ाने में लगा है। आर्थिक मंदि के दौर में घाटे शिकार बैंगों को तो अरबों डॉलर का पैकेज देकर बचाया जा रहा है, किंतु आम आदमी की कल्याण योजनाओं पर खर्च होने वाले धन में कटौती की जा रही है।ब्रिटेन के शासकों को अगले वर्ष होने जा रही ओलंपिक खेलों की अधिक चिंता है, देश के संकटग्रस्त लोगों की चिंता कम। जैसे अपने देश में राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी के नाम पर अरबों रुपये की लूट चल रही थी और दिल्ली के गरीबों को उजाड़ा जा रहा था। दिल्ली सरकार गरीबों के लिए निर्धारित धन को खेलों के आयोजन पर खर्च कर रही थी।

ब्रिटेन में 6 अगस्त को भड़का यह दंगा आकस्मिक नहीं था। यह एक साल पहले से खदबदा रहा था। गत वर्ष नवंबर महीने में जब कैमरन की कंजरवेटिव सरकार ने शिक्षा व्यय में कटौती की घोषणा की थी, तो लाखों छात्र पुलिस से भिड़े थे। अभी इस वर्ष के मार्च महीने में भी करीब 5 लाख ब्रितानी सड़कों पर उतरे थे। छोटे-छोटे कई गुटों की पुलिस से मुठभेड़ भी हुई थी। आगे और भी आंदोलन हो सकते हैं, क्योंकि शिक्षा, स्वास्थ्य तथा जनकल्याण की योजनाओं में की गयी कटौती के खिलाफ आक्रोश क्रमशः बढ़ रहा है। गत 6 अगस्त को पुलिस द्वारा एक युवक की हत्या निश्चय ही मात्र एक बहाना था। उसे लेकर जो दंगा भडका वह महीनों से जमा हो रहे तरह-तरह के जनाक्रोश का परिणाम था।

लोग इस पर चकित हैं कि कानून का सम्मान करने वाला शांतिप्रिय समुदाय क्यों हिंसा, लूटपाट और आगजनी पर उतर आया, लेकिन वे इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि आज का युवक व शांतिप्रिय नागरिक भी भीतर से कितने गुस्से में उबल रहा है। आम आदमी की मामूली सी लूट तो घोर अपराध जैसी दिखायी देती है। किंतु बैंकर, राजनेता, बड़े व्यवसायी तथा अन्य ताकतवर लोग देश की आम जनता को किस तरह लूट रहे हैं, यह किसी को नहीं दिखायी देता।

आज का शिक्षित युवा वर्ग साफ देख रहा है कि औद्योगिक दृष्टि से विकासशील तथा समृद्ध पश्चिम के देशों में भी केवल कठोर परिश्रम व कानून के रास्ते पर चलकर न तो समृद्धि हासिल की जा सकती है और न अपना भविष्य ही सुरक्षित किया जा सकता है। सत्ताधारी समुदाय अपनी शक्तियों का उपयोग धनी व शक्तिशाली लोगों की रक्षा में करता है, आम आदमी के लिए नहीं। पश्चिम के विफल हुए बैंकों के अधिकारी भी करोड़ों में वेतन ले रहे हैं। उनके लिए सरकार भी पैकेज देने के लिए तैयार रहती है और वह भी आम आदमी के जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं में कटौती करके। ब्रिटिश प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि देश के युवकों में गैरजिम्मेदारी की संस्कृति /कल्चर ऑफ इर्रेस्पांसिबिलिटी/ बढ़ रही है। लेकिन शायद वे यह नहीं समझ पा रहे हैं कि यह गैर जिम्मेदारी युवकों में नहीं, बल्कि उनकी राजनीतिक व सत्ता संस्कृति में बढ़ रही है।

अभी पिछले दिनों नार्वे में एक युवक द्वारा प्रधानमंत्री के कार्यालय के पास कार बम विस्फोट करने तथा सत्तारूढ़ लेबर पार्टी की युवा शाखा के शिविर पर अंधाधुंध गोली चलाने की घटना घटी थी, जिसमें 87 लोग मारे गये थे और कई सौ घायल हुए थे। वह अकेले एक आदमी की करतूत थी। यहां ब्रिटेन में एक साथ हजारों युवकों द्वारा आगजनी, लूटपाट तथा राजजनी जैसी वारदातें की गयीं। दोनों का चरित्र अलग-अलग हो सकता है, उद्देश्य अलग हो सकता है, किंतु एक समानता दोनों में है। दोनों ही अपनी राजनीतिक प्रणाली से असंतुष्ट हैं और उसके खिलाफ हैं।

ब्रिटेन के इस दंगे के संदर्भ में एक आम शिकायत की जा रही है कि आखिर लंदन की पुलिस इतनी तटस्थ क्यों बनी रही। पुलिस सख्ती बरतती है, तो तथाकथित मानवाधिकारवादी उसके पीछे पड़ जाते हैं। जो हालत अपने देश में है, वही ब्रिटेन में भी है। तमाम लंदनवासियों को घोर शिकायत है कि पुलिस वालों ने उनके जानमाल की रक्षा क्यों नहीं की, उन्होंने क्यों उपद्रवियों को नंगा नाच नाचने दिया, किंतु इन पुलिस वालों की पीड़ा कोई समझने के लिए तैयार नहीं है। यदि वे सख्ती बरतते हैं, तो न्यायालय उल्टे उन्हें ही सजा सुनाते हैं, मीडिया भी उनकी निंदा करता है और राजनीतिक चिंतक भी उन्हें अधिक मानवीय व्यवहार का उपदेश झाड़ते हैं। अपने यहां अभी ताजा-ताजा लोगों ने सुना होगा, जब सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि फर्जी मुठभेड़ के दोषी पाये गये पुलिस वालों को फांसी की सजा दे देनी चाहिए। कश्मीर व उत्तर पूर्व में तैनात पुलिस व सेना के जवानों पर मानवाधिकार हनन के आरोप आये दिन लगते रहते हैं और उन्हें इसकी सजा भी झेलनी पड़ती है। ब्रिटेन में पुलिस को ऐसी आलोचनाओं और सजा की स्थितियों से गुजरना पड़ता है। इस दंगे की शुरुआत करने वाले ज्यादातर कम उम्र किशोर थे, इनके विरुद्ध कठोरता बरतना तो पुलिस के लिए और महंगा पड़ सकता था। किसे अनुमान था कि दंगा इस स्तर तक फैल जायेगा, इसलिए प्रारंभिक घटनाओं को पुलिस ने यों ही जाने दिया। बाद में उसी पुलिस ने दंगे पर नियंत्रण भी कायम किया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि ब्रिटेन में अब स्थई शांति कायम हो गयी है। इस तरह का दंगा भले न दोहराया जाए, लेकिन सरकारी नीतियों के खिलाफ आंदोलन-प्रदर्शन आगे भी हो सकता है। और यदि सरकार ने अपनी नीतियां न बदली तो उसका हिंसक रूप भी सामने आ सकता है।

आज प्रायः पूरी दुनिया का युवा वर्ग असंतोष का शिकार है और बेहद क्षुब्ध है, किंतु इसके लिए दोषी यह युवा वर्ग नहीं, बल्कि वह सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था है, जिसमें वह जी रहा है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन अभी स्वयं युवा हैं और वह इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि ब्रिटेन ने जिस आधुनिक राजनीतिक प्रणाली को स्वीकार किया है, उसमें सैद्धांतिक खामियां हैं। तो जरूरत इस बात की है कि उन खामियों को दूर किया जाए। यदि वे खामियां नहीं दूर की जातीं, तो यह युवा असंतोष व हिंसा एक देशीय नहीं रह जायेगी। इसे यदि हर देश् ने अपने-अपने स्तर पर संभालने की कोशिश नहीं की, तो यह एक विश्वव्यापी समस्या बन सकती है।


 

2 टिप्‍पणियां:

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

जैसे अपने देश में राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी के नाम पर अरबों रुपये की लूट चल रही थी और दिल्ली के गरीबों को उजाड़ा जा रहा था। दिल्ली सरकार गरीबों के लिए निर्धारित धन को खेलों के आयोजन पर खर्च कर रही थी।
ब्रिटेन में 6 अगस्त को भड़का यह दंगा आकस्मिक नहीं था। यह एक साल पहले से खदबदा रहा था।


बहुत सही लिखा है अपने...इस दिशा में सभी को विचार करना चाहिए.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

cचले हवा तो किवाडों को बंद कर लेना
ये गर्म राख शरारों में ढल न जाए कहीं - दुष्यंत

जब गरीब के पेट की आग लावा बन कर उबलती है तो इन्किलाब आता है। पर यह इन्किलाब था या लूट , इसे अभी कहना जल्दबाज़ी होगी।