रविवार, 7 अगस्त 2011

आधुनिक बहुसंस्कृतिवाद और बढ़ता मजहबी उन्माद

कुछ भी हो नार्वेजियन अभी भी शांति और प्रेम के पुजारी हैं।
किंतु क्या मजहबी उन्मादी इसे समझेंगे ?

नार्वे की राजधानी ओस्लो में गत 22 जुलाई शुक्रवार को एक कट्टर ईसाई युवक ऐंडर्स बेहरिंग ब्रीविक /32/ ने प्रधानमंत्री कार्यालय के निकट कार बम विस्फोट के बाद शहर के नजदीक स्थित एक द्वीप पर ग्रीष्मकालीन शिविर में एकत्र सत्तारूढ़ लेबर पार्टी की युवा शाखा के किशोरों पर अंधाधुंध गोली चलाकर कुल 86 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। उसका कहना है कि यह दिल दहलाने वाला कांड उसने यूरोप के देशों को जगाने के लिए अंजाम दिया है, जो सो रहे हैं और जिहादी इस्लामी उनकी जमीन पर अपना आधिपत्य जमाते जा रहे हैं। यह शायद पहला अवसर है, जब किसी ईसाई ने अपने ही लोगों को निशाना बनाया है। ब्रीविक का कहना है कि ये सांस्कृतिक मार्क्सवाद के अनुयायी बहुलतावादी राजनीतिक दल तथा उनकी सरकारें हमारी राष्ट्रीय संस्कृति के सबसे बड़े शत्रु हैं, क्योंकि वे उसे नष्ट करने वाली शक्तियों को बढ़ावा दे रहे हैं।

एंडर्स बेहरिंग ब्रीविक (32) इन दिनों यूरोप का ही नहीं, शायद दुनिया का सर्वाधिक चर्चित नाम है। 22 जुलाई शुक्रवार को नार्वे के शहर ओस्लो में जो कुछ हुआ, वह कल्पनातीत था। नार्वे यूरोप का शायद सर्वाधिक शांतिप्रिय देश है। यहां की पुलिस बिना हथियार के काम करती है। वहां शायद कहीं भी सुरक्षा जांच की चौकियां नहीं है। प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रवेश द्वार पर भी कोई मेटल डिटेक्टर नहीं है। कहीं किसी के बैग की तलाशी नहीं। इस 22 जुलाई की घटना के बाद वहां पहुंचे यूरोपीय देशों व अमेरिका के पत्रकार भी यह देखकर चकित थे कि कहीं भी उनकी न तो तलाशी ली गयी और न उन्हें ‘मेटल डिटेक्टरों‘ से गुजरना पड़ा। कईयों ने अपने देश में आकर अपनी जो रिपोर्टें लिखीं, उसमें उन्होंने वहां की पुलिस को निकम्मा तथा देश को सर्वाधिक असुरक्षित ठहरा दिया। भला, आज ऐसे भी कोई देश चलता है। इससे भी ज्यादा आश्चर्य उन्हें तब हुआ, जब इतने बड़े हत्याकांड के बाद भी कहीं गुस्से या बदले की भावना का इजहार नहीं, कोई नारेबाजी नहीं, कोई आरोप-प्रत्यारोप नहीं। लोग गमगीन थे, उनकी आंखों में आंसू थे, लेकिन कोई भी पुलिस या सरकार को कोसता हुआ नजर नहीं आ रहा था। कोई उस युवक को फांसी चढ़ाने या मार डालने की बात नहीं कर रहा थ, जिसने प्रधानमंत्री कार्यालय के समक्ष बम विस्फोट किया तथा राजधानी ओस्लो के निकट चल रहे युवाओं के एक शिविर पर अंधधुंध गोलियों की वर्षा कर करीब 87 लोगों को मार डाला। बम विस्फोट में भी कम से कम 7 लोग मारे गये। यह सही है कि नार्वे में मौत की सजा पर प्रतिबंध है और बड़े से बड़े अपराध के लिए अधिकतम केवल 23 साल के कारावास की सजा हो सकती है,फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि इतने बड़े हत्याकांड के बाद भी उसे मौत की सजा देने की कोई मांग कहीं से नहीं उठी। नार्वे मूल के एक ब्रिटिश लेखक ने यह सवाल जरूर उठाया है कि क्या इतनी ही तटस्थता तब भी बरती जाती, यदि हमलावर एक ईसाई न होकर कोई मुस्लिम होताऋ। फिर भी नार्वे वासियों की शालीनता, सहिष्णुता तथा अत्युच्चस्तरीय मनुष्यता की प्रशंसा करनी होगी कि उसने अपनी जीवनशैली तथा सिद्धांतों को पूर्ववत् बनाये रखने का संकल्प दोहराया है। वहां के लोगों ने हिंसा की प्रतिक्रिया में प्रेम तथा खून के जवाब फूलों से देने का प्रयास किया है। इस हिंसक वारदात के जवाब में नार्वेवासियों ने पूरे ओस्लो को फूलों से पाट दिया। हर गली, चौराहे, मकान, दीवाल पर फूल ही फूल। लोगों ने ओस्लो की गलियों में ऐसी तख्तियों को लेकर प्रदर्शन किया, जिस पर प्रेम का संदेश था। तख्तियों पर ‘ओस्लो‘ की जगह ‘ओस्लव‘ लिखा हुआ था और इस शब्द के बीच में आए ‘ओ‘ को गुलाबी दिल का आकार दिया गया था। अगल-बगल में भी इसी तरह दिल के निशान बनाये गये थे। प्रधानमंत्री व लेबर पार्टी के नेता जेन्स स्टाल्टेन बर्ग ने बार-बार अपनी इस घोषणा को दोहराया कि ऐसे हमले हमारी शांत और सहिष्णु जीवनशैली को नहीं बदल सकते। हम इससे डर कर अपनी परंपरा को तोड़ नहीं सकते। निश्चय ही यह अद्भुत साहस का प्रदर्शन है, लेकिन सवाल है कि दुनिया में बढ़ रही धार्मिक या सांस्कृतिक ‘युयुत्सा‘ की भावना इस शांति और प्रेम की जीवनशैली को जीवित रहने देगी।

उस शुक्रवार की सुबह ओस्लो की जिस बिल्डिंग में बम विस्फोट हुआ, उसमें नार्वे सरकार के प्रधानमंत्री व वित्त मंत्री के कार्यालय के अलावा वहां के प्रमुख दैनिक ‘वेड्रेंस गे‘ का मुख्यालय भी था। कई अन्य मंत्रालयों व मीडिया कंपनियों के दफ्तर भी उसके आस-पास ही हैं। इस विस्फोट के कुछ समय बाद ही ओस्लो से केवल 40 कि.मी. दूर एक द्वीप ‘यूतोया‘ में गोलीबारी की खबर मिली। इस द्वीप पर सत्तारूढ़ लेबर पार्टी की ‘युवा शाखा‘ का एक शिविर चल रहा था। हमलावर ने वहां उन युवाओं पर करीब डेढ़ घंटे तक अंधाधुंध गोलियां चलायी, जिसमें कुल 87 लोग मारे गये और सैकड़ों घायल हुए। ओस्लो में हुए विस्फोट में यद्यपि मौत तो केवल 7 लोगों की हुई, लेकिन घायलों की संख्या यहां भी सौ से उपर थी।

करीब 50 लाख की आबादी वाले इस शहर में इस तरह की यह पहली घटना थी। स्वाभाविक था कि पहला अनुमान यही लगाया जाता कि यह किसी इस्लामी आतंकवादी संगठन की ही कारगुजारी है। अफगानिस्तान में ‘नाटो‘ की सेना के साथ ‘नार्वे‘ के सैनिक भी ‘अलकायदा‘ व ‘तालिबान‘ जैसे जिहादी संगठनों से लड़ रहे हैं। इसलिए संभव है किसी जिहादी संगठन ने यह हमला किया हो। नार्वे बहुत आसान ‘टार्गेट‘ था। आतंकवादी तो ऐसे निशाने ढूंढ़ते ही हैं, जहां कम से कम प्रतिरोध का सामना करना पड़े और अधिक से अधिक खून-खराबा किया जा सके। मीडिया में एक ऐसी खबर भी आ गयी कि ‘अलकायदा‘ से सम्बद्ध एक जिहादी संगठन ‘अबू सुलेमान अल नसीर‘ ने इसकी जिम्मेदारी भी ले ली है, लेकिन बाद में पता चला कि यह दावा गलत था। आखिरकार जब यह पता चला कि हमलावर युवक कट्टर ईसाई है, तो लोगों को एकाएक विश्वास ही नहीं हुआ कि उसने क्यों अपने ही लोगों पर इस तरह का नृशंस हमला किया।

नार्वे की विशेष पुलिस /जो हथियार भी रखती है/ जब यूतोया द्वीप पहुंची और हमलावर को काबू में किया, तब पता चला कि 32 वर्षीय एंडर्स बेहरिंग ब्रीविक नार्वे का ही नागरिक है और उसने बहुत सोच विचार और लंबी तैयारी के बाद यह हमला किया। उसने अकेले ही विस्फोट और गोलीबारी दोनों ही घटनाओं को अंजाम दिया। विस्फोट कराने के बाद वह नौका लेकर सीधे यूतोया द्वीप पहुंचा। नार्वे का यह बहुत ही खूबसूरत रिसोर्ट हैं, जहां लोग सप्ताहांत की छुट्टियां मनाने या मौज मस्ती के लिए पहुंचते हैं। ब्रीविक को पता था कि उस दिन वहां सत्तारूढ़ लेबर पार्टी की युवा शाखा का कैंप चल रहा है। उसने वहां पहुंचते समय नार्वे पुलिस का जैकेट पहन लिया था, जिससे कोई उस पर भूलकर भी संदेह न करे। उसके पास एक स्वचालित टेलिस्कोपिक रायफल तथा एक पिस्तौल थी। पकड़े जाने पर उसने बताया कि प्रधानमंत्री कार्यालय के पास बम रखने का काम भी उसने ही किया है।

आम तौर पर यह कहा जा रहा है कि वह कोई पागल या सिरफिरा युवक है, जिसने इस तरह की भयावह कार्रवाई कर डाली, लेकिन ऐसे भी बहुत से लोग हैं, जो यह मानते हैं कि वह न तो पागल है, न सिरफिरा। उसके साथ पूछताछ करने वाले पुलिस अधिकारी भी मानते हैं कि वह कोई विकृत मस्तिष्क का व्यक्ति नहीं है। वह गहरी सोच का एक विवेकशील व्यक्ति है। उसने जो हिंसा फैलाई है, उसे वह खुद भी अच्छा नहीं मानता। उसने इस सारी कार्रवाई पर गहरा अफसोस व्यक्त किया है, लेकिन इसके साथ ही उसका यह भी कहना है कि इसके अलावा उसके पास कोई और रास्ता भी नहीं था। वह इसे यूरोप को जगाने का शंखनाद (वेक अपकॉल) कहता है। उसका कहना है कि मुस्लिम जिहादी ताकतें यूरोप पर कब्जा करती जा रही हैं और पूरे यूरोपवासी सोए हुए हैं।

जैसी खबरें मिल रही हैं, उसके अनुसार नार्वे में दो तरह की भावनाएं उभरती दिखायी दे रही हैं। एक तो करीब 86 लोगों की मौत /जिसमें अधिकांश किशोर हैं/से दुखी और भावाकुल है। वह समझता है कि यह किसी स्वस्थ दिमाग वाले विवेकशील व्यक्ति का काम तो नहीं हो सकता। निश्चय ही यह किसी शैतानी दिमाग वाले या विवेकहीन पागल और नृशंस व्यक्ति का काम है। तो दूसरी तरफ ऐसे भी लोग हैं- जो उसे पागल नहीं समझते और अपने निजी दुःख के बावजूद उसके राजनीतिक विचारों से सहमत होते नजर आ रहे हैं। ऐसी घटनाओं का अध्ययन करने वालों की राय में भी ऐसे लोग पागल नहीं होते। वाशिंगटन में ‘जेन्स टेररिज्म एंड इंसर्जेंसी सेंटर‘ के संपादक विल हर्टले का कहना है कि आतंकी हमले करने वाले ऐसे ‘अकेले भेड़िये‘ भी पागल या कोई मनोरोगी नहीं होते, बल्कि ‘आतंकवादी‘ तो अन्य लोगों की अपेक्षा कुछ अधिक बुद्धिमान और मानसिक दृष्टि से दृढ़ व्यक्ति होते हैं। उनमें ऐसे गुण भी होते हैं, जिनके लिए वे समाज में अत्यंत सम्मानित व्यक्ति भ्ी बन सकते हैं। उदाहरण के लिए लंदन में 7/7 के बमकांड में पकड़ा गया एक व्यक्ति एक प्रशंसित सामाजिक कार्यकर्ता था, जो बच्चों के कल्याण के लिए काम करता था।

इसमें दो राय नहीं कि ब्रीविक जैसे युवक जिहादी आतंकवाद की प्रतिक्रिया में पैदा हो रहे हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि इस्लामी आतंकवादी एकतरफा पूरी दुनिया को रौंदते चले जाएं और उनकी प्रतिक्रिया में उनके जैसा ही कोई संगठन न खड़ा हो। सांस्कृतिक बहुलतावादी केसे यह सोच पा रहे हैं कि कैसे एक समुदाय हमले पर हमले करता जाएगा और बाकी समुदाय के लोग चुपचाप मार झेलते रहें और उन सरकारों और राजनीतिक दलों की भी वाहवाही करते रहेंगे, जो उन जिहादियों के खिलाफ भी कठोर कार्रवाई से इसलिए बचते रहते हैं कि इससे उनका बहुलतावाद का सिद्धांत टूटेगा और उनके मतदाताओं की संख्या घट जायेगी। इसलिए यह बढ़ते इस्लामी आतंकवाद को रोकने में तमाम लोकतांत्रिक, खसकर वामपंथी झुकाव वाली सरकारों की विफलता का भी परिणाम है।

ब्रीविक न तो बर्बर है न संवेदनशून्य। उसने इंटरनेट पर अपनी 15 पृष्ठों की जो डायरी पेश की है (जिसे उसका घोषणा पत्र कहा जा रहा है) उसका उल्लेख करते हुए ‘नार्वेजियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन अफेयर्स‘ के आतंकवाद विशेषज्ञ हेल्गे लुरास ने कहा है कि उसने अपनी आक्रामकता बढ़ाने के लिए ढेरों स्टोरायड की गोलियां खा रखी थी और लोगों की चीख या दया की भीख उसके कानों तक नहीं पहुंचे, इसके लिए उसने ‘इयरफोन‘ से तेज संगीत सुनने की तैयारी कर रखी थी। यह ‘मैनीफेस्टो‘ उसने ओस्लो पर हमले के कुछ घंटे पहले ही नेट पर डाला था। इसका मतलब है कि न तो वह मानसिक रोगी है, न राक्षस। अपने ‘मैनीफेस्टो‘ में वह कहता है कि उसके लिए उन लोगों को मारना कितना मुश्किल है, जिनके प्रति उसे गहरी सहानुभूति है। कोई मनोरोगी इस तरह के संघर्ष से नहीं गुजरता।

22 जुलाई का यह हमला ब्रीविक की 9 वर्षों की सोच और योजना का परिणाम है। उसने अपनी बात कहने या यूरोप को जगाने का जो तरीका अपनाया, निश्चय ही कोई भी व्यक्ति उसका समर्थन नहीं कर सकता। लेकिन जब तक कोई दहलाने वाली घटना न हो, तब तक सरकारों या राजनीतिक दलों के कानों पर कहां कोई जूं रेंगती है। ‘इक्सट्रीम राइट‘ यानी दक्षिणपंथी अतिवादियों के मामले में विशेषज्ञ समझे जाने वाले मैथ्यू फील्डमैन (यूनिवर्सिटी ऑफ नार्थएन में इतिहास के प्रवक्ता) का कहना है कि इस तरह की सामूहिक हत्या करके ब्रीविक केवल दक्षिणपंथी कट्टरपंथियों के लिए जनसंपर्क का काम कर रहा है। उन्हें इसका पक्का विश्वास है कि इस तरह का हमला उसने अपने ऑनलाइन ‘मैनीफेस्टो‘ तथा ‘वीडियो‘ के प्रचार के लिए किया। उसने हमले के ठीक पहले उन्हें नेट पर डाला। यदि वह इस घटना के दो-चार हफ्ते पहले से उसे डाल देता, तो कोई उस पर ध्यान ही न देता और वह नेट के जंगल में खो जाता। उन्होंने ‘हेरल्ड‘ के साथ बातचीत में बताया कि यह ‘जिहादी इस्लामिज्म‘ का ईसाई जवाब ‘क्रुसेडिंग क्रिश्चियनिज्म‘ है।

उसका यह 1500 पेजों का ‘मैनिफेस्टो‘ ‘इधर-उधर‘ से इकट्ठा किये गये विचारों को जोड़कर तैयार किया गया है। ब्रीविक का विश्वास है कि यूरोप की वामपंथी झुकाव वाली सरकारें जिहादी इस्लामियों को यूरोप पर कब्जा करने दे रही हैं, इसलिए यदि ‘क्रिश्चियनिटी‘ को ‘इस्लाम‘ से बचाना है, तो पहले इन दुश्मनों से लोहा लेना है, जो जाने अनजाने ‘जिहादियों‘ की मदद कर रहे हैं। उसका कहना है कि ‘विचार मानव जिंदगी से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।‘ इसलिए हमें ‘अपनी विचार व अपनी संस्कृति‘ को बचाने के लिए अपने जीवन या प्राणों की आहुति देने के लिए तैयार रहना चाहिए।‘ उसने अपने घोषणा पत्र में यह साफ संकेत दिया है कि उसने ‘यूतोया‘ द्वीप में सत्तारूढ़ लेबर पार्टी के युवाओं को क्यों मारा। उसने लिखा है, लेबर पार्टी अपनी ‘बहुसांस्कृतिक नीतियों तथा मुस्लिमों को देश में आने की खुली छूट देने के कारण स्वतः ‘मृत्युदंड‘ की अधिकारी है। यह वास्तव में यूरोप के साथ विश्वासघात है।

ब्रीविक ने प्राचीन ईसाई इतिहास लड़ाकू पात्रों को खोजकर अपने आदर्श के रूप में स्थापित किया है। मध्यकाल में मुस्लिम आधिपत्य से अपनी पवित्र भूमि छुड़ाने के लिए ईसाई लड़ाकों ने जो संगठन बनाया था, उसे ‘नाइट्स टेम्पलर‘ की संज्ञा दी गयी थी। ब्रीविक व उसके जैसे अन्य युवक अब ताजा मुस्लिम आक्रमण का मुकाबला करने के लिए उसी ‘नाइट्स टेम्पलर‘ को पुनर्जीवित कर रहे हैं।

ब्रीविक को यदि आतंकवादी कहें, तो वह एक असाधारण आतंकवादी है। आतंकवादी प्रायः समूह में काम करते हैं, लेकिन अब तक की जांच पड़ताल में पता चला है कि ब्रीविक ने अकेले ही इतने बड़े हमले की योजना बनायी, उसका सैद्धांतिक आधार तैयार किया और फिर उसे कर दिखाया। यद्यपि उसने पुलिस के समक्ष दावा किया है कि अभी भी देश में दो और ईसाई कट्टरपंथी ‘सेल‘ हैं, जिनका संबंध ब्रिटिश दक्षिण पंथी ईसाई संगठन ‘इंग्लिश डिफेंस लीग‘ के साथ संबंध है, लेकिन इनका कोई पता नहीं चल सका है। लीग ने भी इस बात से इनकार किया है। जाहिर है यह भयावह हमला अकेले उसकी ही कारस्तानी है।

अब इस हमले के बाद इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उसने दुनिया के हर कोने में ‘जिहादी इस्लाम‘ के खिलाफ एक अनुगूंज तो पहुंचा ही दी है। उसने अपने 1500 पेजों के मैनीफेस्टों में करीब 102 पेज भारत की स्थिति पर खर्च किये हैं और यहां पैदा हो रही जिहादी चुनौतियों और हिन्दुओं की दुर्दशा का उल्लेख किया है। इस उल्लेख के आधार पर यहां इस देश के वामपंथी व वामपंथी झुकाव वाले मध्यमार्गी राजनेताओं व बुद्धिजीवियों ने उसे यहां के ‘हिन्दू कट्टरपंथियों‘ के साथ भी जोड़ने की कोशिश की है।

भारत की राजनीतिक व सामाजिक सोच भी कमोबेश यूरोप जैसी ही है। यहां भी जिहादी कट्टरवाद को बढ़ावा देने में ‘सांस्कृतिक मार्क्सवाद‘ की अहम भूमिका रही है। यह इसी विचारधारा का परिणाम है कि हमारे देश का गृहमंत्री ‘इस्लामी कट्टरतावाद‘ और ‘हिन्दू कट्टरतावाद‘ को एक ही तराजू पर तौल रहा है। यहां के वामपंथी राजनेता व बुद्धिजीवी ही नहीं, कांग्रेस जैसी मध्यमार्गी पार्टी के नेता भी इस्लामी कट्टरतावाद यानी अल्पसंख्यक कट्टरतावाद के मुकाबले हिन्दू कट्टरतावाद या बहुसंख्यक कट्टरतावाद को अधिक बड़ा खतरा बताते आ रहे हैं। वे यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि छिटपुट दिखायी देने वाला हिन्दू कट्टरतावाद केवल इस्लामी कट्टरतावाद की प्रतिक्रिया में पैदा हुआ कट्टरतावाद है। तथाकथित हिन्दू कट्टरतावादी हो ही नहीं सकता, क्योंकि यदि ऐसा होता तो दिल्ली में सेकुलर सरकार नहीं बन सकती थी। कट्टरपंथी मुसलमानों ने हिंसा के बल पर अपना मजहबी देश पाकिस्तान बना लिया, लेकिन यहां के हिन्दू बहुसंख्यकों ने हिन्दुओं को हिन्दुस्तान नहीं बनाया, बल्कि यहां एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष शासन की स्थापना की, जहां अल्पसंख्यक यानी मुसलमानों को बहुसंख्यकों यानी हिन्दुओं से भी अधिक अधिकार प्राप्त हैं। इसी तरह से यूरोप व अमेरिका के ईसाइयों ने भी मध्यकालीन ‘क्रूसेड‘ को इतिहास में ही दफन करके एक बहुलतावादी राजनीतिक व सामाजिक संस्कृति को स्वीकार किया। अब इस बहुलतावाद को तोड़ने का काम ‘जिहादी‘ कर रहे हैं ‘क्रुसेडवादी‘ नहीं। ‘क्रुसेडवाद‘ इस जिहादी आक्रामकता की प्रतिक्रिया में पैदा हो रहा है और तथाकथित सेकुलर सरकारें जिहादी आक्रामकता पर तो कोई अंकुश लगा नहीं पा रही हैं, उल्टे उसकी प्रतिक्रिया में फिर से खड़े हो रहे ‘नाइट्स टेम्पलर‘ को ‘जिहादी इस्लाम‘ से भी अधिक खतरनाक बता रहे हैं।

ब्रीविक ने पहली बार सीधे इस्लामी कट्टरतावाद पर हमला न करके उसको पोषित करने वाली राजनीतिक व्यवस्था पर हमला किया है। आज दुनिया की ‘बहुलतावादी संस्कृति‘ में विश्वास करने वाली सरकारों को समझ लेना चाहिए कि यदि उन्होंने मिलकर ‘जिहादी कट्टरवाद‘ को पराजित न किया, तो ‘नाइट्स टेम्पलर‘ के पुनरोदय को भी रोका नहीं जा सकेगा। इसका सीधा परिणाम होगा लगभग विश्वव्यापी गृहयुद्ध। ब्रीविक ने यूरोप को ही नहीं भारत को भी एक संदेश दिया हे, जिस पर यहां के सही सोच वाले राष्ट्रवादियों को ही नहीं, तथाकथित सेकुलरवादी मध्यमार्गियों को भी विचार करना चाहिए। यदि भविष्य का गृहयुद्ध बचाना है, तो जिहादी मानसिकता को पराजित करने के लिए स्वयं राज्य सत्ता (स्टेट) को आगे आना होगा। और यदि वह इसमें असफल रही, तो भवितव्य को कोई रोक नहीं सकेगा और आने वाली पीढ़ियों को मध्यकालीन संघर्षों के दौर से गुजरना पड़ेगा।

07/08/2011

2 टिप्‍पणियां:

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

गहन चिन्तनयुक्त प्रासंगिक लेख....

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

जब तक इस्लामी कट्टरवाद चल रहा था, कांग्रेसी सरकार कह रही थी कि आतंकवाद का कोई मज़हब नहीं होता और जब कोई हिंदू कट्टरवाद के लक्षण मिले तो कह दिया भगवा आतंकवाद जो देश के लिए खतरा बन रहा है ॥