बुधवार, 2 मार्च 2011

किधर जा रहा है अरब जगत का यह आंदोलन ?

उत्तरी अफ्रीका से पश्चिम एशिया तक फैला  
अरबी संसार (पीले रंग से प्रदर्शित)
इस समय प्रायः पूरा अरब जगत आंदोलित है। दशकों से जमी तानाशाही के खिलाफ प्रायः पूरे अरब जगत की आम जनता उठ खड़ी हुई है। उसमें भी अग्रणी भूमिका युवा पीढ़ी की है। प्रायः हर देश में इस आंदोलन का नेतृत्व नई पीढ़ी के युवाओं के हाथ में है। वह अपनी सरकार खुद चुनने और पसंद न आए, तो उसे बदलने का अधिकार चाहती है। इसके लिए वह कोई भी कुर्बानी देने के लिए तैयार है। ज्यादातर देशों की तानाशाहियां अब भी अड़ी हैं, लेकिन उनका जाना अवश्यम्भवी है। लेकिन सवाल है उनकी जगह लेने के लिए आने वाले लोकतंत्र कैसा होगा ? उसका चरित्र क्या होगा ? क्या वास्तव में उसे लोकतंत्र कहा जा सकेगा?

 
इन दिनों प्रायः पूरा अरबिस्तान यानी अरबी संसार (अरब वर्ल्ड) उत्तरी अफ्रीका से पश्चिमी एशिया तक- आंदोलित है। एकाएक वहां एक ऐसी युवा क्रांति भड़क उठी है कि शेखों, शाहों, अमीरों तथा तानाशाह राष्ट्रपतियों की गद्दियां डांवाडोल हो गयी हैं। ट्यूनीशिया और मिस्र जैसे दो ताकतवर देशों के राष्ट्रपतियों को इस आंदोलन के दबाव में देश छोड़कर भागना पड़ा है, बाकी में भी दबाव की हवा लागातार तेज होती जा रही है। लीबिया, यमन व बहरीन जैसे देशों में अब इस हवा ने आंधी का रूप धारण कर लिया है, लेकिन इन देशों के शासक ट्यूनीशिया या मिस्र का अनुकरण करने के लिए तैयार नहीं हैं। लीबिया के राष्ट्रपति कर्नल मुआम्मर अल गद्दाफी ने तो अपनी गद्दी बचाने के लिए क्रूर दमनचक्र चलाना शुरू कर दिया है। यद्यपि इसका विरोध पूरे अरब जगत में हो रहा है, अमेरिका भी चेतावनी दे रहा है, लेकिन गद्दाफी झुकने के लिए तैयार नहीं है। गद्दाफी अरब जगत के अनूठे नेता हैं। वह न तो अरबी शाही खानदान के प्रतिनिधि हैं, न किसी राजनीतिक बदलाव की देन। वह सैनिक तख्ता पलट करके सत्ता में आने वाले सैनिक अधिकारी हैं। इसीलिए उन्होंने अपने देश की सेना का संगठन ऐसा नहीं किया, जो कभी तख्ता पलट कर सके। उनकी नियमित सेना न तो ठीक से प्रशिक्षित है और न उसके पास अच्छे हथियार ही हैं। उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिए कई और तरह की सेनाएं बना रखी हैं, जो निजी तौर पर केवल उनके प्रति वफादार हों, देश के प्रति नहीं। इसलिए उनकी यह निजी सेना ही उनका बचाव करने और विद्रोहियों पर हमला करने में लगी है। इस निजी सेना के नियोजित हमलों के कारण् ही लीबिया में अब तक 400 से अधिक आंदोलनकारी मारे जा चुके हैं। यह बात अलग है कि ऐसे हमलों के बावजूद विद्रोह और उग्रतर होता जा रहा है तथा गद्दाफी स्वयं कमजोर पड़ते दिखायी दे रहे हैं। वे अपने हठवश कुछ दिन और टिके भले रह जाएं, लेकिन आगे अधिक समय तक सत्ता में बने रह पाना उनके लिए असंभव है। उनकी 42 वर्ष की सत्ता का अंत अब निकट ही है। अन्य देशों के शासक भी अपने को बचाने की कोशिश में लगे हैं, लेकिन कब तक बचाये रख सकेंगे, यह कहना कठिन है।

दो महाद्वीपों में फैले इस अरबी संसार में करीब 22 देश आते हैं, जिनकी कुल आबादी लगभग 36 करोड़ है। इन अरब देशों की पहचान किसी एक नस्ल या रेस से नहीं, बल्कि एक भाषा ‘अरबी‘ से है। दुनिया के कुल करीब डेढ़ अरब मुसलमानों में से चौथाई से भी कम अरबी भाषी हैं या अरब क्षेत्र के निवासी हैं, लेकिन इस्लाम धर्म /मजहब/ की भाषा या कुरान की भाषा अरबी होने के कारण प्रायः पूरे इस्लामी विश्व पर अरबों का वर्चस्व है। इनके बीच अरबी राष्ट्रवाद का उदय 19वीं शताब्दी में ओटोमान साम्राज्य के पतन के साथ शुरू हुआ। 1945 में अरब लीग का गठन हुआ, जिसका लक्ष्य अरबी हितों के सरंक्षण के लिए अरबी विश्व का एकीकरण था। इसके साथ ही ‘इस्लामी विश्व' (पैन-इस्लामिज्म) की आधुनिक अवधारणा ने जन्म लिया। इसके समानान्तर ही अरब जगत में वहाबी आंदोलन भी शुरू हुआ, जिसका विस्तार दक्षिण् एशिया यानी हिन्दुस्तान तक हुआ।

इस पूरे अरब जगत का मुख्य धर्म (मजहब) इस्लाम है, इसलिए अरबी शक्ति, इस्लामी शक्ति का पर्याय है। इस्लाम इनमें से कई अरब राष्ट्रों का घोषित धर्म है और उनकी कानून व्यवस्था में भी सुन्नी इस्लाम का वर्चस्व है। केवल इराक और बहरीन दो ऐसे देश हैं, जहां शिया मुसलमानों का बहुमत है। किन्तु अभी अमेरिकी हमले के समय तक इराक में शासन सुन्नियों का ही चल रहा था। बहरीन में भी सत्ता सुन्नियों के ही हाथ में है। लेबनान, यमन व कुवैत में भी शिया काफी बड़ी संख्या में हैं, लेकिन अल्पमत होने के कारण उनका राजनीति में कोई स्थान नहीं है। मिस्र, सीरिया, लेबनान, इराक, जार्डन, फिलिस्तीन व सूडान में थोड़े ईसाई भी निवास करते हैं। पहले थोड़े यहूदी भी इन क्षेत्रों में रहते थे, लेकिन इजरायल की स्थापना के बाद कुछ स्वयं भग कर वहां चले गये, तो कुछ को वहां से मारपीट कर भगा दिये गये।

ओटोमान साम्राज्य के पतन के बाद यह पूरा अरब क्षेत्र यूरोपीय देशों का उपनिवेश बन गया, किंतु द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब इस उपनिवेशवाद के पांव उखड़ने लगे, तो ये औपेनिवेशिक इकाइयां स्थानीय अभीरों या यूरोपीय साम्राज्यवाद के पिट्ठुओं के नेतृत्व में अलग-अलग राष्ट्रों के रूप में सामने आ गयीं। इनके अरबी साम्राज्यवाद (पैन अरबिज्म) के सपने ने भी 1980 के दशक में बदलकर इस्लामी साम्राज्यवाद (पैन इस्लामिज्म) का रूप ले लिया, लेकिन वह आगे नहीं बढ़ पाया, क्योंकि इनके शासकों ने अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए अमेरिका की शरण ले रखी थी। इस बीच पीढ़ियां बदलीं, लेकिन अमेरिका ने अपनी पुरानी नीति बदलने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। उसने यह नहीं देखा कि नई पीढ़ी में नया इस्लामी जोश आने के साथ-साथ अपने शासकों की संवेदनहीनता, ऐय्याशी व भ्रष्टाचार के विरुद्ध आक्रोश भी पनप रहा है।

कहने को वर्तमान आंदोलन ट्यूनिश के एक शिक्षित किंतु बेरोजगार नवयुवक की आत्महत्या पर फूट पड़े आक्रोश का विस्तार है, किंतु उक्त आत्महत्या तो एक बहाना थी। आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार थी। बस उसे एक चिंगारी की जरूरत थी और फिर आंदोलनों का एक श्रृंखलाबद्ध विस्फोट शुरू हो गया। दुनिया इस विराट आंदोलन के मूल कारण को नहीं समझ पा रही है। समझना कठिन भी है, क्योंकि इसके पीछे कोई एक अकेला कारण नहीं है। अनेक कारणों के सम्मिलित प्रभाव से यह विस्फोट संभव हुआ है। शासकों की दीर्घकालिक तानाशाही तो एक कारण है ही, लेकिन इसके साथ ही ‘पैन इस्लामिक' भावना का विस्तार, अमेरिका का धीरे-धीरे अरब जगत से अपना हाथ खींचना, संसार की नई टेक्नोलॉजी की उपलब्धता (एस.एम.एस., फेसबुक, सहित पूरा इंटरनेट का संचार तंत्र, जिस पर किसी सरकार का नियंत्रण नहीं है) तथा औद्योगिक विकास आदि की भी इसमें बड़ी भूमिका है।

पूरे आंदोलन में युवा शक्ति के निर्भीकतापूर्वक आगे रहने के कारण ही इस आंदोलन का चरित्र समझ पाना कठिन हो रहा है। इसे नेतृत्व देने में न कोई राजनीतिक नेता सामने है, न मजहबी नेता। जुलूसों में ‘अल्लाहो अकबर' (ईश्वर महान है) के नारे अवश्य लग रहे हैं, लेकिन युवाओं को संबोधित करने वाले कोई मुल्ला मौलवी नहीं हैं। भाषणों में कुरानों की आयतें नहीं, बल्कि ट्यूनीशिया के कवि द्वारा रचित ‘रईस लेबलेड‘ शीर्षक गीत की पंक्तियां गायी जा रही हैं (मि. राष्ट्रपति तुम्हारी जनता मर रही है/ लोग कचरा खा रहे हैं/ देखो क्या हो रहा है/ चारों तरफ दुख ही दुख है/ मि. प्रेसीडेंट/ मुझे बोलने में डर नहीं है/ यद्यपि जातना हूं कि इससे मैं मुसीबत में पड़ सकता हूं/ लेकिन मैं देखता हूं/ चारों तरफ अन्याय फैला हुआ है)। ट्यूनीशिया से बहरीन तक सारा विद्रोह स्वतः स्फूर्त लगता है। हर जगह युवा स्त्री-पुरुषों का समूह उसे नेतृत्व दे रहा है। वे सभी आंदोलन के विस्तार के लिए आधुनिक उपकरण इस्तेमाल कर रहे हैैं। वे आंदोलन के विस्तार के लिए इंटरनेट के ‘सोशल नेटवर्किंग साइट्स‘ तथा मोबाइल की एस.एम.एस. सुविधा का इस्तेमाल कर रहे हैं। और इन सारे युवक युवतियों की एक ही मांग है- अपना शासन चुनने या उसे बदलने का अधिकार, भ्रष्टाचार का अंत और रोजगार के अवसरों का विस्तार। इसका अर्थ है, उन सबकी मांग है लोकतंत्र। मीडिया के साथ संपर्क में प्रायः हर देश के आंदोलनकारी युवा वर्ग का कहना है कि हमें केवल इतना चाहिए कि हम जिसे नापसंद करते हैं, उसे बदल सकते हैं।

इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह पूरा आंदोलन लोकतंत्र का समर्थक है। दुनियाभर के लोकतंत्रवादी इससे प्रसन्न हो सकते हैं कि इस्लामी अरब जगत में भी लोकतंत्र की हवा फैल रही है। वहां यदि लोकतंत्र आ गया, तब फिर दुनिया संस्कृतियों के बीच युद्ध के भय से मुक्त हो जाएगी, इस्लामी आतंकवाद का अंत हो जाएगा और जगत पर चलने वाली अमेरिकी दादागिरी का भी अंत हो जाएगा।

लेकिन ऐसा नहीं है। यह लोकतंत्र की मांग इस्लामी राष्ट्रों के आंतरिक लोकतंत्र की मांग है, जिसमें कोई एक व्यक्ति या कोई शाही परिवार सेना के बल पर अपनी तानाशाही न चला सके। यह लोकतंत्र केवल अपनी मर्जी का नेता चुनने तक सीमित है। इस लोकतंत्र में मानवाधिकारों, आधुनिक न्याय प्रणाली, सांस्कृतिक सहिष्णुता, बहुसांस्कृतिक राजनीतिक व्यवस्था तथा मजहबी रुढ़ियों से मुक्ति का कोई अवसर नहीं है। जो आंदोलनकारी युवा इस समय सड़कों पर नारे लगा रहा है, वह किसी भी तरह संगठित नहीं है, न वैचारिक तौर पर, न राजनीतिक तौर पर। जाहिर है जब चुनाव होंगे, तो वर्तमान संगठित शक्तियां ही इसका लाभ उठाएंगी। असंगठित वर्ग स्वतः उन्हीं के बीच ध्रुवीकृत हो जाएगा। अभी प्रायः इन सारे देशों में सत्ता पाने की ताक में बैठी शक्ति इस्लामी राजनीति में विश्वास करने वाली है। जिस तरह पूरे अरब जगत में एक साथ यह आंदोलन उठ खड़ा हुआ है, उसके पीछे निश्चय ही कोई न कोई सूत्रधार हैं, अन्यथा स्वतः स्फूर्त आंदोलन इतना व्यापक कभी नहीं हो सकता। यदि प्रत्येक देश के आंदोलन पर गहरायी से दृष्टि डाली जाए, तो यह आसानी से पता चल जाएगा कि यह आंदोलन अपने परिणाम में कौनसा स्वरूप ग्रहण करने वाला है। उदाहरण के लिए फारस की खाड़ी के छोटे से देश बहरीन को ले सकते हैं। मुस्लिम देशों में यह शायद सर्वाधिक आधुनिक देश है। यहां खुलापन है, समृद्धि है, जीवन तथा शिक्षा का स्तर उंचा है। क्षेत्रीय बैंकिंग प्रणाली का गढ़ भी बहरीन ही है। बहरीन में चिकित्सा मुफ्त है या बहुत कम कीमत पर उपलब्ध है। बेरोजगारी 4 प्रतिशत से भी कम है। बहरीन में अब संसदीय राजशाही है। यद्यपि यहां गत 2 शताब्दियों से सुन्नी-अल खलीफा वंश् का शासन चला आ रहा है, लेकिन अब वह केवल प्रतीकात्मक रह गया है। वर्तमान शाह हमद ने एक दशक पूर्व जब शासन संभाला, तो उन्होंने महिलाओं को न केवल वोट देने, बल्कि राजनीतिक पद ग्रहण करने का भी अधिकार दिया। सवाल है कि फिर ऐसे देश में उस तरह का आंदोलन क्यों भड़क उठा, जैसा लीबिया व मिस्र में भड़क उठा था। लीबिया के लोग बहरीन में ही मारे गये हैं।

अब यदि हाल के दशकों की राजनीति को देखें, तो पता चलेगा कि बहरीन की समस्या लोकतंत्र से ही पैदा हो गयी है। बहरीन में राजनीतिक सुधारों की मांग 1990 से ही चल रही है, किंतु 1999 में जब शाह हमद ने अपने पिता के बाद सत्ता संभाली, तो उन्होंने अनेक लोकतांत्रिक सुधार किये। उन्होंने करीब 27 सालों से प्रतिबंधित संसद को बहाल किया, गिरफ्तार शिया नेताओं को रिहा किया (बहरीन में 70 प्रतिशत शिया आबादी है, लेकिन शासन सुन्नी राजवंश के हाथ में है) तथा संवैधानिक सुधार भी किये। इस सबका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि एक ताकतवर शिया राजनीतिक पार्टी ‘अल वफाक' का जन्म हुआ। 2006 में यह पार्टी संसद की 40 में से 18 सीटें जीतकर सबसे बड़ी इस्लामी पार्टी के रूप में सामने आयी। जबसे यह पार्टी सत्ता में आयी, तो इसने पहले तो बहरीन में रह रहे दक्षिण एशियायी लोगों के साथ भेदभाव शुरू किया। बहरीनी उन्हें परेशान करने लगे। देश में इस्लामी कट्टरपन लागू करने की प्रक्रिया शुरू हुई। यहां तक कि अल वफाक के एक नेता ने संसद से यह प्रस्ताव पारित कराने की कोशिश की कि बहरीनी एपार्टमेंट्स में खिड़कियां ऐसी बनायी जाएं, जिससे बाहर न देखा जा सके। अल वफाक चाहता है कि औरतों और परिवार की भूमिका के बारे में नियम बनाने का अधिकार मजहबी नेताओं को सौंपा जाए, क्योंकि ये मजहब से जुड़े मसले हैं। इसने सेकुलर महिला अधिकार आंदोलन के खिलाफ एक देशव्यापी अभियान की शुरुआत की। अभी 2009 में पार्टी ने उस कानून को अस्वीकार कर दिया, जिसमें लड़की के विवाह की न्यूनतम आयु 15 वर्ष निर्धारित की गयी थी। तर्क यह था कि यह कानून इस्लाम के खिलाफ है।

केवल बहरीन ही नहीं, अन्य देश भी इसके उदाहरण है कि लोकतंत्र को इन देशों में कट्टरपंथी इस्लामी ताकतों द्वारा एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। मिस्र में होस्नी मुबारक ने 2005 में बहुदलीय चुनावों की शुरुआत की। इसका परिणाम हुआ कि मिस्री संसद में ‘मुस्लिम ब्रदरहुड' पार्टी की सदस्य संख्या शून्य से बढ़कर 88 पर पहुंच गयी और वह देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन गयी। अन्य सुधारवादी संगठनों को उसकी आधी सीटें ही मिल पायीं। बहरीन में लोकतंत्र लागू होने पर वास्तविक सुधारवादी पार्टियां जैसे पुरानी बाथ पार्टी, पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी, मुकाबले में पिछड़ गयीं और अल वफाक सबसे आगे निकल गयी, क्योंकि यह शिया मजहब की पार्टी थी, जिसकी जनसंख्या वहां करीब 70 प्रतिशत है। लेबनान व गाजा पट्टी में हुए लोकतांत्रिक चुनावों के परिणाम इससे भिन्न नहीं हैं। आज के समय गाजा पट्टी में हमाज जैसी कट्टरपंथी संगठन का बहुमत है, तो लेबनान में हिजबुल्ला का, जो कट्टरपंथी शिया संगठन है। अभी ट्यूनीशिया का उदाहरण भी सामने आ गया है। वहां अभी गत 20 फरवरी को लोग यह देखकर चकित रह गये कि राष्ट्रपति आबेदीन बेन अली के भाग जाने के बाद भी आंदोलन शांत नहीं हुआ है और हमलावर भीड़ को नियंत्रित करने के लिए सेना के हेलीकॉप्टर व सुरक्षा बलों को आमंत्रित करना पड़ा। न्यूयार्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसारयह भीड़ राजधानी ट्यूनिस के वेश्यालयों पर हमला करने जा रही थी। भीड़ ‘अल्लाहो अकबर' का नारा लगाते हुए यह नारा भी लगा रही थी कि इस्लाम में वेश्यालयों के लिए कोई जगह नहीं है। ट्यूनीशिया भी अरब जगत का एक आधुनिक शहर है, जहां बहुविवाह पर रोक है, गर्भपात को कानूनी मान्यता है, औरतें समुद्र तट पर बिकनी पहनकर घूमती हैं तथा सुपर मार्केट में शराब खुले आम बिकती है। अब यहां जब भी चुनाव होंगे, तो तय है कि कोई कट्टरपंथी इस्लामी पार्टी ही सत्ता में आएगी।

ये मामूली उदाहरण हैं। प्रायः पूरे अरब जगत में कट्टरपंथी शक्तियां ही आंदोलनों को बढ़ावा देने में लगी हैं। वहां युवाओं में तानाशाही के प्रति आक्रोश अवश्य है, लेकिन वह आक्रोश इसलिए अधिक है कि ये तानाशाह इस्लामी राजनीति के आगे आने में बाधक हैं और अमेरिका के हाथ की कठपुतली बने हुए हैं, जो मुस्लिम देशों पर हमला कर रहा है। अरब देशों के शासनाध्यक्षों के अमेरिका परस्त होने के कारण ही अब इस्लामी जगत का नेतृत्व उनके हाथ से खिसककर ईरान के हाथ में आ रहा है। इस्लामी कट्टरपंथी जमातों में अब शियाओं का वर्चस्व बढ़ रहा है। इसलिए जाहिर है अरब जगत में उठ रही लोकतंत्र की मांग मात्र से अरबी राजनीति का चरित्र नहीं बदलने जा रहा है। बल्कि इससे सहिष्णु, बहुसंस्कृतिवादी तथा मानवीय वैयक्तिक स्वतंत्रता व न्याय के समर्थक आधुनिक लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा ही खड़ा होने वाला है। केवल चुनाव प्रणाली का लागू हो जाना ही लोकतंत्र नहीं है। जहां न्याय, सहिष्णुता, समानता तथा वैयक्तिक व वैचारिक स्वतंत्रता उपलब्ध हो, वह राजशाही अच्छी है, लेकिन यदि इन सबका निषेध हो, तो उस लोकतंत्र का किसी भी तरह स्वागत नहीं किया जा सकता।

27/03/11

2 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

‘इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह पूरा आंदोलन लोकतंत्र का समर्थक है। ’

क्या ऐसा सम्भव है कि सारे अरब देशों पर यह आज़ादी का भूत एक साथ तारी हुआ या फिर इसमें धर्मावलम्बियों की कोई चाल है? इन देशों में ऐसा कोई नेता भी नहीं दिखाई देता जो जनता का मार्गदर्शन करे, तो फिर....???

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

लेख बहुत अच्छा है....विचारणीय है।
आगे-आगे देखिए होता है क्या.....