बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

विजयदशमी के संदर्भ में
सार्वभौम मानवीय आदर्शों के प्रतीक पुरुष हैं श्रीराम



भगवान श्रीराम इस धरती पर पैदा हुए या नहीं या कब पैदा हुए, यह सब हम नहीं जानते। कोई इतिहासकार भी नहीं जानता। लेकिन उनकी ऐतिहासिकता प्रमाणित करने के लिए क्या इतना काफी नहीं कि प्राचीन विश्व साहित्य का कम से कम आधे से अधिक भाग केवल राम या रामकथा पर आधारित है? क्या आदिकवि वाल्मीकि से लेकर तुलसी तक के रामकथा गायकों पर अकारण अविश्वास करने का कोई औचित्य है। फिर ऐतिहासिक राम जैसे भी रहे हों, वे हुए हों या न हुए हों, इससे हमें लेना-देना ही क्या है। हम तो वाल्मीकि के राम को या उनसे भी अधिक तुलसीदास के राम को जानते हैं, जिनका धरती पर जन्म संपूर्ण मनुष्यता की या संपूर्ण मानवीय आचरण के आदर्शों की रक्षा के लिए हुआ। वह भारत के सार्वभौम मानवीय संस्कृति के एक आदर्श प्रतीक हैं। उन्हें हिन्दू-मुस्लिम या देशी-विदेशी में विभक्त नहीं किया जा सकता। तो फिर इसे स्वीकार करने में इस देश की सरकारों, राजनेताओं, बुद्धिजीवियों तथा धर्माधिकारियों को आखिर क्यों आपत्ति है।


तमाम अन्य वार्षिक पर्वों-त्यौहारों की तरह दशहरा भी हर वर्ष आता रहता है। इस बार भी आया है। आज नवरात्रि पर्यंत पूजित दुर्गा प्रतिमाओं का विसर्जन हो जाएगा। शाम को रावण के पुतले जलाएं जाएंगे और असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की और अधर्म पर धर्म के विजय स्वरूप राम के विजय की एक बार और घोषणा हो जाएगी। लेकिन यह पारंपरिक भारत की कथा है, आधुनिक भारत यानी 'इंडिया'  के लिए यह हिन्दुओं का एक पुराना नाटकीय उत्सव है, जो हिन्दू 'माइथलॉजी' से जुड़ा है और हिन्दू आस्थ वाले लोग इसे हर साल मनाते हैं। राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री इस अवसर पर उसी तरह बधाई संदेश जारी कर देते हैं, जिस तरह ईद या क्रिसमस पर जारी किया करते हैं। कल तक जो एक राष्ट्रीय, सामाजिक व सांस्कृतिक चेतना जागृत करने वाला समारोह था, वह आज एक धर्म विशेष (हिन्दू) का एक वार्षिक नाट्योत्सव बनकर रह गया है।

राम और रामकथा को लेकर इस देश में आम लोगों, बुद्धिजीवियों, राजनेताओं तथा न्यायविदों की कैसी-कैसी और क्या-क्या धारणाएं हैं, उसको जानने समझने का एक बहुत अच्छा माध्यम है अयोध्या का राम जन्मभूमि व बाबरी मस्जिद विवाद। एक विवाद को लेकर इस देश् में जितना कुछ लिखा या कहा गया है या जितने लेख व पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, उतनी शायद ही किसी दूसरे विषय को लेकर प्रकाशित हुई हों। न्यायालय में चलने वाला तो यह देश् का सबसे लंबा विवाद है ही।

अभी करीब 6 दशकों की लंबी प्रतीक्षा के बाद इस मामले में उत्तर प्रदेश के हाईकोर्ट का एक फैसला सामने आया। करीब पांच सौ वर्षपुराने विवाद में आया यह पहला न्यायिक फैसला है। इस फैसले में यद्यपि बहुत सी विसंगतियां भी हैं   लेकिन एक बात निर्विवाद रूप से प्रमाणित की गयी है कि अयोध्या का विवादित स्थल राम जन्मभूमि के रूप में जाना जाता था। वहां पर एक मंदिर थ, जिसके कस्बे के उपर 1528 में एक मस्जिद का निर्माण कराया गया। चूंकि मस्जिद के निर्माण के पूर्व वहां एक मंदिर थ, इसलिए उस पर हिन्दुओं का अधिकार है। अब इसका क्या प्रमाण है कि वह स्थान राम का जन्मस्थान ही था, इसके लिए न्यायपीठ के तीनों न्यायाधीशों ने हिन्दुओं के पारंपरिक विश्वास को ही प्रमाण माना है और कहा कि मस्जिद निर्माण के पूर्व अज्ञात काल से हिन्दू उसे राम का जन्म स्थान मानते आए हैं, इसलिए उसे राम का जन्म स्थान ही माना जाना चाहिए और उस पर हिन्दुओं का अधिकार स्वीकार किया जाना चाहिए, क्योंकि राम को हिन्दू ही अपना भगवान मानते हैं। आश्चर्य है कि यह फैसला आने के बाद न्यायालय में पूर्ण आस्था का दावा करने वाले तथा न्यायिक फैसले की खिल्ली उड़ा रहे हैं और न्यायाधीशों पर आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने तथ्यों व प्रमाणों की अनदेखी करके विश्वास के आधार पर फैसला दिया है। न्यायालय, न्याय के नियमों, कानूनों व सबूतों के आधार पर काम करता है, विश्वास के आधार पर नहीं। देश कानून के सहारे चलेगा, विश्वास के सहारे नहीं। मुस्लिम पक्ष एवं वामपंथी बुद्धिजीवी, पत्रकार एवं इतिहासकार न्यायाधीशें पर यह भी आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने इतिहास के तथ्यों की भी अनदेखी की है। उन्होंने 1949 व 1992 में किये गये अपराधों की तरफ से भी आंखें बंद रखी हैं। वे किसी 'टाइटिल सूट'  (मालिकाना हक निर्धारित करने वाले मुकदम) का फैसला पारंपरिक विश्वासों के आधार पर नहीं कर सकते। सत्ताधरी वर्ग के लोग चुप हैं। लोग चाहे आपस में लड़ लें या न्यायालय में लड़ लें, जब तक उनके अपने राजनीतिक हितों के लिए कोई समस्या नहीं खड़ी होती, तब तक वे क्यों जबान खोलें। अभी तो बीच में सर्वोच्च न्यायालय की एक दीवार खड़ी है। जब यह मसला उसे भी पार करके आगे आएगा, तब देखा जाएगा। देश के तमाम बुद्धिजीवी, पत्रकार व इतिहासकार जब यों ही उसका काम करने लगे हों, तो उसे नाहक अभी बीच में पड़ने की क्या जरूरत।

अब इन बुद्धिजीवियों को कौन समझाए कि इस देश में जिस संविधान, जिस लोकतंत्र और जिस न्याय परंपरा को स्वीकार किया गया है, उसमें 'फेथ' या विश्वास को ही सर्वोच्च स्थान दिया गया है। यदि ऐसा न होता, तो राजनीति और समाज व्यवस्था का प्रधान तत्व धर्म (रिलीजन) न बनता। यहां 'रिलीजन' या 'फेथ' का जितना सम्मान है, उतना और किसी चीज का नहीं। कहने को यह व्यवस्था 'सेकुलर' (धर्मनिरपेक्ष) है, लेकिन व्यवहार में यह 'सर्वधर्मवादी' यानी सभी धर्मों व विश्वासों के आगे सिर झुकाने वाली है, फिर वह धर्म या विश्वास चाहे गलत हो या सही। किसी भी 'धर्म' या उसके विश्वास पर उंगली उठाना कानूनन अपराध् है। समाज और राजनीति में ही नहीं, कानून और न्याय में भी ‘धर्म‘ और ‘विश्वास‘ (फेथ) को प्रमुखता दे दी गयी है। इसलिए यदि किसी को सत्ता, राजनीति व न्याय व्यवस्था का लाभ उठाना है, तो उसके लिए ‘धर्म‘ और ‘विश्वास‘ का रास्ता सबसे आसान बना दिया गया है। और यहां का बुद्धिजीवी समाज अपनी सुविधानुसार कभी उसका समर्थन करता है, तो कभी आलोचना। और दोनों के लिए ही उसके पास यथेष्ठ तर्क होते हैं। अयोध्या की समस्या वस्तुतः राजनीतिक है, धार्मिक नहीं, लेकिन राजनीतिक स्तर पर समाधान न हो पाने के कारण उसे धार्मिक रूप देना पड़ा, क्योंकि देश् की वर्तमान व्यवस्था राजनीति व समाज से अधिक धर्म से डरती है, उसके आगे झुकती है। न्याय व्यवस्था भी इतिहास व संस्कृति को कम महत्व देती है, धर्म को अधिक। यह एक ऐतिहासिक व पुरातात्विक सत्य है कि मुस्लिम आक्रमणकर्ताओं ने यहां के अधिकांश मंदिरों को तोड़ा और उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण कराया। यत्र-तत्र जहां भी मूर्तियां दिखायी पड़ीं, उन्हें अंग-भंग किया। किसी भी देश या जाति को रौंदने का सबसे आसान तरीका होता है उसकी संस्कृति व उसके विश्वास को रौंदना। भारत में हजारों वर्षों तक यही होता रहा। आक्रमणकर्ताओं ने अपना राजनीतिक वर्चस्व कायम करने के लिए तलवार के साथ अपने रिलीजन का भी इस्तेमाल किया।

पारंपरिक भारतीय समाज 'जिसे आज हिन्दू कहा जाता है' 1528 से अब तक यदि अयोध्या की राम जन्मभूमि के लिए लड़ता आ रहा है, तो उसका लक्ष्य न तो धर्म है न कोई जमीन का टुकड़ा, वह वास्तव में अपना वह सांस्कृतिक सम्मान वापस पाना चाहता है, जिसे एक विदेशी हमलावर ने पांच सौ साल पहले रौंद डाला था। मसला शुद्ध राजनीतिक है। भारत का पारंपरिक समाज वस्तुतः आज तक अपनी सांस्कृतिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर सका है। इस्लामी शसन के बाद अंग्रेजी शासन आ गया और जब इन दोनों से स्वतंत्रता पाने का अवसर आया तो भी उसे अपनी सांस्कृतिक स्वतंत्रता हासिल नहीं हो सकी। वह आज भी उसके लिए तड़प रहा है।

वास्तव में भारतीय दार्शनिक परंपरा विश्वास (फेथ) पर नहीं तर्क पर आधारित रही है, फिर भी उसे विदेशियों से अपना अधिकार पाने के लिए विश्वास को अपना हथियार बनाना पड़ा। इस्लामी काल में भारतीय राजे-रजवाड़े अयोध्या के राम मंदिर के लिए लड़ रहे थे, तो उसके लिए उन्हें किसी तर्क का सहारा लेने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि तब कोई उसका तर्क सुनने वाला नहीं था। उसके हमले सीधे उस राम मंदिर स्थल पर कब्जे के लिए हो रहे थे। अंग्रेजों के शासनकाल में स्थिति बदल गयी। राजे-रजवाड़े या तो लड़-भिड़कर हार गये या अंग्रेजों के भक्त बन गये। तब अंग्रेजों के सामने आम भारतीयों ने अपने विश्वास को लेकर फरियाद शुरू की और लगातार अपने पिछले संघर्ष का हवाला दिया। मुस्लिम भी उनके सामने अपने विश्वास की दुहाई दे रहे थे और हिन्दू भी। तो अंग्रेजों ने मस्जिद परिसर के बीच एक दीवार खड़ी करके बाहरी हिस्से में हिन्दुओं को पूजा करने का अधिकार दे दिया। वे एक चबूतरा बनाकर वहां पूजा करने लगे। कहा जाता है कि अंग्रेजों के जमाने में उनके डर से शेर-बकरी दोनों एक घाट पर पानी पीते थे, तो यही हाल अयोध्या के हिन्दू-मुसलमानों का रहा। यहां से आगे के इतिहास की कहानी प्रायः सबको पता है, इसलिए विस्तार में जाने की जरूरत नहीं, लेकिन मुख्य कथ्य यह है कि हिन्दुओं ने केवल अपना सांस्कृतिक सम्मान वापस पाने के लिए विश्वास का सहारा लिया। क्या आज के हिन्दू को पता नहीं है कि वास्तव में भगवान राम कहां पैदा हुए थ्े, उस जमीन की पहचान का कोई अर्थ नहीं है। उसे यह भी पता है कि उसका धर्म किसी एक मंदिर या एक जमीन के टुकड़े पर नहीं टिका है। मंदिर के स्थान पर मस्जिद बन जाने से कोई हिन्दू धर्म नहीं नष्ट हुआ जा रहा है। वहां शौचालय बन जाए, तो भी धर्म को कोई क्षति नहीं पहुंचने जा रही है, लेकिन उससे हिन्दू समाज का सामूहिक स्वाभिमान जरूर आहत होगा। बाबर के या औरंगजेब के हमलों में अयोध्या, काशी या मथुरा के राम, शिव व कृष्ण मंदिरों के ध्वस्त कर दिये जाने से राम, कृष्ण या शिव का कुछ नहीं बिगड़ गया, लेकिन भरतीय समाज जब उन्हें अपने वर्तमान स्वरूप में देखता है, तो उसका चित्त अवश्य आहत होता है।

इन स्थलों का राजनीतिक आधार पर फैसला कर दिया जाना चाहिए था। इनके लिए कोई प्रमाण ढूंढ़ने की जरूरत नहीं थी। उपर्युक्त स्थलों पर खड़ी इमारतें स्वयं अपने इतिहास की प्रमाण थी। जरूरत केवल इस बात की थी कि उनके सत्य को स्वीकार किया जाता। भारतीय समाज ने स्वातंत्र्य आंदोलन काल में स्वतंत्रता के संघर्ष पर ध्यान केंद्रित किया। 1857 में बाबरी मस्जिद परिसर के बंटवारे और उसके बाहरी आंगन में राम की मूर्ति पूजा के लिए चबूतरे की स्थापना के बाद हिन्दू पूरे समय शांत रहा। उसने कोई हिंसक कार्रवाई नहीं की। 1885 में निर्मोही अखाड़े की तरफ से कानूनी स्तर पर मांग की गयी कि उसे चबूतरे पर एक पक्का मंदिर बनाने की इजाजत दे दी जाए (क्योंकि वहां केवल घास-फूस की टट्टी लगाकर- जो 5 फुट से अधिक उंची न हो- मूर्ति पूजा की इजाजत मिली थी), लेकिन शसन ने इस मांग को अस्वीकृत कर दिया। हिन्दू फिर चुप हो गये। शायद वे देश के स्वतंत्र होने की प्रतीक्षा में लग गये। उन्होंने मस्जिद पर अधिकार करने या घास फूस की छोटी-सी झोपड़ी (जिसमें सीधे खड़ा भी नहीं हुआ जा सकता था) को पक्का करने की भी कोशिश नहीं की। 1912 और 1936 में अयोध्या में जो दंगे हुए, वे भी मस्जिद पर कब्जे के लिए नहीं हुए, बल्कि रामनवमी के अवसर पर पड़ी बकरीद के अवसर पर वहां के डिप्टी कमिश्नर द्वारा मुसलमानों को गाय की कुर्बानी देने की इजाजत के विरोध में हुए। हां उसमें हमले का निशाना मस्जिद जरूर बनी। लेकिन इसकी सजा पूरी अयोध्या के हिन्दुओं को मिली। उनसे दंडात्मक कर वसूल कर मस्जिद के क्षतिग्रस्त गुम्बदों की मरम्मत करायी गयी।

हिन्दू समाज ने 15 अगस्त 1947 तक प्रतीक्षा की। मजहब के नाम पर देश बंटवारा हो गया। इसके बाद तो उसे पूरा भरोसा था कि अब तो उसका पुराना मंदिर स्थल अवश्य मिल जाएगा। लेकिन कुछ नहीं हुआ। अब उसका धैर्य जवाब देने लगा। अयोध्या के हिन्दुओं ने एक नितांत शांतिपूर्ण आंदोलन शुरू किया। मस्जिद में जाने वाले मुस्लिम मबूतरे वाले मंदिर के सामने से जूता पहनकर निकलते थे। तो सबसे पहले इसके खिलाफ आंदोलन श्ुरू हुआ। प्रशासन ने इस पर जूते बाहर उतारे जाने की व्यवस्था की। इसके बाद शासन का ध्यान आकृष्ट करने के लिए अयोध्या के साधु संत व गृहस्थ सबने सामूहिक रामचरित मानस पाठ का आयोजन श्ुरू किया। इस शांतिपूर्ण आंदोलन को किसी ने नोटिस नहीं किया। निर्मोही अखाड़े के रामचरण दास नाम के एक साधु ने मस्जिद को बम से उड़ा देने की योजना बनायी, लेकिन वह बम बनाते समय ही फट गया, जिससे न केवल वह योजना विफल हो गयी, बल्कि वह साध्ु भी अंधे हो गये। प्रशासन ने इसके बाद भी इस विवाद की ओर कोई ध्यान नहीं दिया, तो एक रात (22/23 दिसंबर 1949) को कुछ लोगों ने मिलकर राम की छोटी सी प्रतिमा मस्जिद के बीच वाले गुम्बद के नीचे स्थापित कर दी। मध्यरात्रि में वहां घंटा, घड़ियाल व शंख बजने लगे। -भये प्रगट कृपाला- की स्तुति होने लगी। कहा गया कि वहां मध्य रात्रि में 'रामलला' (बाल रूप भगवान राम) स्वयं प्रगट हो गये।

आखिर ऐसा क्यों करना पड़ा ? कारण स्पष्ट था। सरकार किसी तर्क, किसी इतिहास, किसी सांस्कृतिक भवना को मानने के लिए तैयार नहीं थी, किंतु आस्था के आगे झुकने को मजबूर थी। हिन्दू जानता है कि इस तरह कहीं मूर्तियां प्रकट नहीं होतीं। हिन्दू परंपरा स्वयं यह कहती आ रही हैं कि राम के बाद उनकी अयोध्या अब तक जाने कितनी बार उजड़ चुकी है। अयोध्या की पुनर्स्थापना की उसकी कहानी भी यही बताती है कि उसे नहीं पता था कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम कहां पैदा हुए थे, अयोध्या कहां थी। वह राजा विक्रमादित्य को इसका श्रेय देती है कि उन्होंने अयोध्या की खोज की और वहां 'शारंगिन विष्णु' (क्योंकि उस समय धनुर्धारी राम को विष्णु का अवतार माना जाता था) का मंदिर बनवाया। जाहिर है कि वह मंदिर स्थल भगवान राम के जन्म स्थान का माद्ध प्रतीक था, लेकिन हजारों साल पहले जो प्रतीक स्थापित हुआ था, उसका यदि आज भी सम्मान किया जाए, तो उसमें गलत क्या है।

1949 की इस घटना के बाद के सारे प्रशासनिक पत्राचार इसके प्रमाण हैं कि स्वतंत्र भारत की भी केंद्र व राज्य की सरकार जो इतिहास व जातीय स्वाभिमान के तर्क को नकारती आ रही थी- वह आस्था के दांव के आगे झुक गयी। उसने स्वयं वहां जबरिया चोरी से रात्रि में स्थापित प्रतिमा की पूजा अर्चना की व्यवस्था की और पूरे स्थल की सुरक्षा का भी प्रबंध किया। 1949 में जो कुछ हुआ वह कोई राजनीतिक षड्यंत्र नहीं था। वह शताब्दियों से आहत और पराजित हिन्दू मानस की एक अहिंसक प्रतिक्रिया थी। शासन को इधर ध्यान देना चाहिए था, लेकिन उसने इसकी उपेक्षा की, जिसकी स्वाभाविक परिणति दिसंबर 1992 में हुई। वह कभी न कभी होनी ही थी। संयोगवश वह 1992 में हो गयी।

अभी कुछ दिन पहले ही कानून व इतिहास के पंडित ए.जी. नूरानी द्वारा संपादित एक किताब 'बाबरी मस्जिद' प्रकाशित हुई। इसमें इस विवाद से जुड़ी घटनाओं तथा दस्तावेजों का बड़ा ही ब्यौरेवार संकलन दिया गया है। उनके निष्कर्षों को छोड़ दें, तो तथ्यों का इतना विस्तृत संकलन अन्यत्र दुर्लभ है। इसके अनुसार 1949 में मस्जिद में मूर्ति स्थापित किये जाने की घटना के बाद प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने उप प्रधानमंत्री व गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल, गवर्नर जनरल सी. राजगोपालचारी, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत तथ अपने नजदीकी दोस्त के.जी. मशरूवाला सहित कई लोगों को लिखे अपने पत्र में इस घटना पर अपना गहरा क्षोभ व्यक्त किया था। दिसंबर 29, 1949 को पंत के नाम भेजे गये अपने एक टेलीग्राम में उन्होंने उसे एक 'खतरनाक उदाहरण' (डेंजरस इक्जाम्पल) बताया था, जिसके बड़े बुरे परिणाम (बैड कांसिक्वेंस ) होंगे। 5 मार्च 1950 को मशरूवाला को लिखे गये पत्र में नेहरू ने स्वीकार किया कि फैजाबाद जिले के अधिकारियों ने ठीक व्यवहार नहीं किया (मिस बिहैव्ड)। उन्होंने आगे यह भी लिखा कि यद्यपि पं. पंत ने बाद में कई अवसरों पर इस घटना की निंदा की, लेकिन उन्होंने इस पर कोई पक्की कार्रवाई करने से परहेज किया (हि रिफ्रेंड फ्राम टेकिंग डेफिनिट एक्शन)। 17 अप्रैल 1950 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम लिखे गये अपने पत्र में उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी नाराजगी व्यक्त की। उन्होंने लिखा कि -उत्तर प्रदेश मेरे लिए एक विदेशी भूमि होता जा रहा है। मैं देख रहा हूं कि जो लोग कभी कांग्रेस के स्तंभ थे, उनके भी दिलो

'दिमाग पर सांप्रदायिकता हावी होती जा रही है। यह पैरालिसस जैसा रोग है, जो फैलता जा रहा है, लेकिन (विडंबना यह है कि) रोगी इसे महसूस भी नहीं कर पा रहा है। मुझे ऐसा लग रहा है कि कारण जो भी हों, या हो सकता है मात्र राजनीतिक कारणों से हम लोग इस बीमारी के प्रति बहुत अधिक नरमी बरत रहे हैं।'
कांग्रेस में वास्तव में सभी नेहरू नहीं थे। अयोध्या में मस्जिद के भीतर मूर्ति स्थापित किये जाने की खबर जब नेहरू को मिली, तो उनकी पहली प्रतिक्रिया यही थी कि उसे वहां से हटाकर बाहर फेंक दिया जाए। उन्होंने गोविंद वल्लभ पंत को इसके लिए कहा भी और लिखा भी। पंत जी ने नेहरू के निर्देशों के अनुपालन में फैजाबाद के डिप्टी कमिश्नर को उस तरह का पत्र भी लिखा। जवाब में डिप्टी कमिश्नर के.के. नैयर ने भी पत्र लिखकर अपनी असमर्थता व्यक्त की। उन्होंने हिन्दू भावनाओं का हवाला देते हुए यथास्थिति बनाये रखने का समर्थन किया। पंत जी ने भी उसे मान लिया। केंद्रीय गृहमंत्री पटेल ने भी पंत को पत्र लिखा। मतलब यह कि कागजी खानापूरी हर स्तर पर हुई, किंतु मूर्ति हटाने की कार्रवाई किसी ने नहीं की। नेहरू खुद तो आकर उसे हटा नहीं सकते थे। इससे स्पष्ट है कि भले ही उस घटना के लिए अयोध्या के कुछ साधुओं और डिप्टी कमिश्नर के.के. नैयर को दोषी ठहरा दिया जाए, लेकिन सच्चाई यह थी कि कांग्रेस में भी नेहरू के अलावा और कोई नहीं था, जो मूर्ति हटाने का समर्थन करता।

इससे क्या अर्थ निकलता है ? क्या वे सब किसी राजनीतिक षड्यंत्र में शामिल थे? जी नहीं। के.के. नैयर के बाद में जनसंघ में शामिल हो जाने मात्र से यह प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि यह जनसंघ का षड्यंत्र था। यह वह व्यापक हिन्दू मानसिकता थी, जो मस्जिद पर खुद जाकर कब्जा करने का साहस तो नहीं कर सकती थी, लेकिन जैसे भी यदि किसी समूहने यह साहस कर दिखाया, तो फिर यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में स्थानीय ही नहीं, दिल्ली तक के प्रशासनिक नेता खड़े हो गये।

इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले में तो न्यायमूर्ति अग्रवाल ने यहां तक लिखा है कि -इस मामले के फैसले में उपर्युक्त मूर्तिस्थापना की कोई कानूनी प्रासंगिता नहीं है। क्योंकि भगवान राम की 'जन्मभूमि' स्वयं में एक 'पूजाई प्रतिमा' (डीटी) के रूप में सारे न्यायिक अधिकारों से संपन्न है, क्योंकि हिन्दू विश्वास के अनुसार अज्ञातकाल से अनवरत निर्बाध उस स्थल पर पूजा होती आ रही है।'

यह इस देश की न्यायिक व्यवस्था का परिणाम है कि न्याय चाहने वाले व्यक्ति को कानूनी जरूरतें पूरी करने के लिए अनिवार्यतः झूठ बोलना पड़ता है। जिस देवकीनंदन अग्रवाल ने रामलला के 'मित्र' (नेक्स्ट फ्रेंड) के रूप में याचिका दायर की, उन्होंने देश के कानून का इस्तेमाल करने के लिए ही अपने को इस तरह प्रस्तुत किया। हाईकोर्ट में उनकी याचिका और उनके तर्क सर्वाधिक भारी पड़े, जिसके आधार पर रामलला को विवादित स्थल का एकमात्र केंद्रीय अधिकारी माना गया।

यहां कहने का आशय यह है कि उपलब्ध कानून के सहारे न्यायालय से न्याय प्राप्त करने के लिए इस तरह के झूठ और विश्वास का सहारा लेना पड़ता है। अब इस पर न्यायालय पर आरोप लगाया जा रहा है कि वह एक राजनीतिक मसले को विश्वास का जामा पहनाकर फैसला लिख रहा है।

सच्चाई यह है कि अपवादों को छोड़कर यह पूरा देश दोहरे चरित्र वाला बन गया है और दोहरा जीवन जी रहा है। इसके लिए उसे मजबूर किया है इस देश् के संविधान व इस देश के कानून व इस देश की राजनीतिक व्यवस्था ने, जो केवल कहने को सेकुलर है, अन्यथा पूरी तरह धर्माश्रयी (रिलीजन पर आधारित) बन गयी।

आज जरूरत वास्तव में इस बात की थी कि इस मामले में सरकार स्वयं सामने आती और सभी धार्मिक (रिलीजन) व सांप्रदायिक पक्षकारों को अलग करके यह घोषित करती कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम भारत ही नहीं, पूरे सभ्य संसार के सर्वाधिक सम्मानित इतिहास पुरुष हैं। यदि वह कल्पित पुरुष हैं, तो भी उनके जैसा दूसरा चरित्र दुनिया में कोई नहीं। विश्व साहित्य में रामकथा जैसी व्यापकता दूसरे किसी मानवीय, दैवी या कल्पित पात्र को नहीं मिल सकती है। राम भरतीय संस्कृति के मूर्तमान स्वरूप हैं। उन्हें बाहर करके भरतीय संस्कृति का कोई मूल्य ही शेष नहीं बचता। ऐसे व्यक्तित्व को यदि सरकार भारत के राष्ट्र पुरुष के रूप में स्वीकार कर ले, तो इसमें दोष क्या है। राम किसी सांप्रदायिक नेता का तो नाम नहीं। वह तो पूरे विश्व की मनुष्यता के आदर्श पुरुष हो सकते हैं। इसलिए अयोध्या की विवादित भूमि जो इस समय सरकार के ही कब्जे में है, उस पर राम का ऐसा स्मारक बनवाती, जो किसी धर्म संप्रदाय के लिए वर्जित क्षेत्र न होता। राम के नाम पर होने वाली राजनीति यदि बंद करनी है, तो राम का सार्वभैमीकरण कर लिया जाना चाहिए और अयोध्या में उनका स्मारक बनाने का काम स्वयं अपने हाथ में ले लेना चाहिए।

हर वर्ष दशहरा या विजयदशमी को असत्यपर सत्य, अन्याय पर न्याय व अधर्म पर धर्म की जीत के रूप में मनाया जाता है, क्या इस बार यह संकल्प नहीं लिया जा सकता कि इस दशहरा के पूर्व इलाहाबाद हाईकोर्ट का जो फैसला आया है, उसके परिप्रेक्ष्य में संकीर्ण सांप्रदायिकता व दलीय स्वाथर्् को पराजित करके अयोध्या में एक सार्वभौम श्रीराम स्मारक का निर्माण किया जाए, जो पूरी विश्व मानवता के लिए आदर्श और भविष्य का पथप्रदर्शक हो।


17/10/2010

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

बढिया और चिंतनपरक लेख के बधाई। आज की राजनीति कहने को सेक्युलर है पर है धर्म [रिलिजन] आधारित क्योंकि कौन इलाके में कितने यादव है, कितने ब्राह्मण है... के गणित पर ही लोकतंत्र की नींव टिकी हुई है :)

अब तो राम ही नहीं महिसासुर, रावण और भस्मासुर भी देवता बनाए जा रहे हैं। राम ही राखै ॥