प्रकाश का सार्वभौम उत्सव
दीपावली
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दीपावली की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं पौराणिक परंपरा जो भी हो, लेकिन प्रकाशोत्सव और लक्ष्मी पूजन के रूप में अब यह एक सार्वभौम उत्सव है। दुनिया में कौन ऐसा व्यक्ति है, जो प्रकाश नहीं चाहता, समृद्धि नहीं चाहता, ज्ञान नहीं चाहता, ऐश्वर्य नहीं चाहता। यदि इस सब की चाहता है, तो दीपोत्सव मनाना चाहिए। लक्ष्मी एक देवी के रूप में मात्र एक प्रतीक हैं, असली उपासना तो ऐश्ïवर्य एवं धन-धान्य की है। पूरी दुनिया से दारिद्र्ïय मिटे, कुरूपता मिटे, अज्ञान मिटे, अनाचार मिटे, कुंठा एवं वैरभाव मिटे और उसकी जगह समृद्धि, ज्ञान, सदाचार, स्वास्थ्य, भ्रातृत्व एवं आनंद की स्थापना हो, यही तो संदेश है दीपावली का। और इसी कई उपासना में सार्थकता है दीपावली की।***
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भारत के अधिकांश त्यौहारोत्सव ऐतिहासिक ऋतुचक्र की विशिष्ट स्थितियों एवं दार्शानिक परिकल्पनाओं तथा विश्वासों पर आधारित हैं। इन त्यौहारों का मूल तत्व आंतरिक एवं बाह्य सुख एवं आनंद की प्राप्ति है, लेकिन यह सुख या आनंद बिना पराक्रम, सत्संकल्प, धर्मनिष्ठा (कर्तव्यनिष्ठा ) तथा वैश्विक तादात्म्य के संभव नहीं है, इसलिए प्राय: प्रत्येक ऐसे उत्सव के साथ ये तत्व भी जुड़ जाते हैं।रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, मकर संक्रांति, दशहरा, शरदपूर्णिमा, होली, दीपावली ऐसे ही त्यौहार हैं।इनमें भी दीपावली शायद इन सबमें विशिष्ट है। यह धार्मिक व आध्यात्मिक से अधिक एक भौतिक उत्सव है। इसके आयोजन में ऋतुचक्र की तो अपनी भूमिका है ही, लेकिन इसका मुख्य प्राप्तव्यहै उन्नत स्वास्थ्य, समृद्धि एवं शाश्वत सुख की प्राप्ति तथा अज्ञान, दारिद्र्य , मृत्युभय आदि स आत्यंतिक मुक्ति और संपूर्ण पृथ्वी पर आनंद के आह्लादकारी प्रकाश का विस्तार। इसीलिए इसे कौमुदी महोत्सव की संज्ञा दी गयी है। ऐसा उत्सव जिसमें पूरी पृथ्वी (कु- पृथ्वी, मोद- आनंद) सुख से खिल उठे और आनंद के प्रकाश से भर उठे।वस्तुत: यह कोई एक त्यौहार नहीं, बल्कि पांच त्यौहारों का समुच्चय है, जो परस्पर ऐतिहासिक व पौराणिक गाथाओं से परस्पर गुथे हुए हैं। कार्तिक (दक्षिण में आश्विन ) कृष्ण त्रयोदशी को स्वास्थ्य के देवता भगवान धनवंतरी की पूजा की जाती है और उत्तम स्वास्थ्य की कामना की जाती है। इस तिथि को धन के देवता के साथ भी जोड़ दिया गया है। लोग इसदिन मूल्यवान धातुएं- स्वर्ण, रजत तथा रत्नों की खरीदारी करते हैं। अगले दिन यानी चतुदर्शी को मृत्युके देवता यम की आराधना की जाती है और उनसे अकाल मृत्यु से मुक्ति की कामना की जाती है। इसदिन यम के नाम पर दो दीप जलाने का विधान है। पुराणों के अनुसार नरक से बचने के लिए चतुदर्शी के प्रात:काल सूर्योदय के समय तेल की मालिश करके स्नान करना चाहिए और फिर तेल युक्त जल से यमको तर्पण करना चाहिए। नरक में न जाना पड़े, इसलिए सायंकाल यम के नाम पर एक दीप जलाना चाहिए और उसी संध्या में ब्रह्मा , विष्णु, शिव आदि के मंदिरों में, मठों, अस्त्रागारों, चैत्यों, सभाभवनों , नदियों, भवन प्राकारों (चाहरदिवारी) उद्यानों, कूपों, राजपथों, अंतपुरों तथा सिद्धों, अर्हतों, बुद्ध, चामुंडा व भैरव के मंदिरों तथा अश्व व गजशालाओं में दीप जलाने चाहिए। यह विवरण भविष्योत्तर पुराण मेंदिया गया है। कई पुराणों में यह भी कहा गया है कि चतुदर्शी के अवसर पर भगवती लक्ष्मी तेल में तथाभगवती गंगा सभी प्रकार के जल में निवास करने आ जाती हैं और पूरे दीपोत्सव भर वहां बनी रहती हैं।इसलिए कहा जाता है कि इन दिनों में जो व्यक्ति प्रात:काल शरीर पर तेल मर्दन करके जल में स्नानकरता है, वह यमलोक नहीं जाता और ऐश्वर्यवान बनता है। इसके साथ बाद में नरकासुर की येक कहानी भी जुड़ गयी है, इसलिए इसे नरक चतुर्दशी की भी संज्ञा दी गयी है। मूलत: इस दिन अकाल मृत्युके साथ नरक से मुक्ति की अभिलाषा की जाती है, लेकिन नरकासुर का वध करके उसके संत्रास से संसारको बचाने के लिए भगवान विष्णु या कृष्ण की पूजा भी इस तिथि से जुड़ गयी।इसका अगला दिन दीपावली का होता है। एक पुराण (भविष्योत्तर) में 'दीपालिका शब्द भी आया है। इस रात्रि को सुखारात्री या 'सुखसुप्तिकाभी कहा गया है। वात्स्यायन के कामसूत्र में इसे 'यक्षरात्रि कहा गया है।यक्षों को धन्य-धान्य संपन्न और विलासी, सदा आनंदोत्सव में लीन माना जाता है, शायद इसीलिए इसे यक्ष -रात्रि की भी संज्ञा दी गयी है। यक्षों के राजा कुबेर भी देवताओं में धन के देवता हैं, इसलिए प्राचीनकाल में इस रात्रि में यक्ष राज कुबेर की उपासना तथा उनके लिए दीपादान का विधान था। कालांतर मेंइसे ऐश्वर्य , सौंदर्य, सौभाग्य और धन -धान्य की देवी लक्ष्मी का जन्मदिन भी माना जाने लगा ओर मुख्य रूप से उनकी पूजा होने लगी। प्राचीन ऋषियों ने इसके साथ ही शायद यह भी सोचा की बिना ज्ञान या बुद्धि के देवता गणेश के लक्ष्मी स्थिर ही नहीं रह सकती, इसलिए उनके साथ गणेश की पूजा भीजुड़ गयी। वैष्ण्व मत व रामकथा के प्रचार के बाद इस दीपावली की तिथि का संबंध भगवान राम कीलंका से अयोध्या वापसी के साथ भी जुड़ गयी। दीपोत्सव राक्षसत्व पर रामत्व के विजय के स्वागत का प्रतीक पर्व बन गया। संयोगवश इसी तिथि को 24वें जैन तीर्थंकर स्वामी महावीर का परिनिर्वाण होगया। उनके भक्तों, अनुयायियों व प्रेमियों ने इस अवसर पर दीपमालिका का आयोजन किया। कल्पनाथी की धरती पर जीवित प्रकाश स्वरूप जिनेंद्र महावीर के न रहने से धरती पर जो अज्ञान रूपी अंधकारपसर गया है, उसे मिटाने के लिए हजारों हजार दीप जलाए जाएं। इस रात्रि में आकाशदीप जलाने का भी विधान है। प्राचीन काल में लोग आकाश की ओर उल्काएं (जलती मशालें)फेंकते थे या उसे हाथ मे ऊंचा उठाकर दौड़ते थे। यह पितरों को प्रकाश दिखाने का प्रतीक था, जिससे वे सुखपूर्वक अपने लोक मेंचले जाएं। अभी कुछ दशक पहले तक लोग घरों के सबसे ऊंचे स्थानों पर या बांस के खंबे लगाकर उसकेसिर पर कदीलें जलाया करते थे। उत्तर भारत में इसे आकाशदीप कहा जाता था। यह भी पितरों के निमित्तअर्पित था। असल में प्राचीन काल में प्राय: हर पर्व, त्यौहार, उत्सव, विवाह आदि के अवसर पर पितरोंका अवश्य स्मरण किया जाता था और उन्हें पिंड दान किया जाता था। यह कृत्य इस दीपावली की सुखरात्रि में भी किया जाता था। चूंकि अमावस्या की रात्रि घोर अंधकारमय होती है, इसलिए आकाश मार्ग सेवापस जाने वाले पितरों के लिए इस प्रकाश दीप की व्यवस्था की गयी। ग्राम्यांचल में लक्ष्मी-गणेशादिके पूजनोपरांत नृत्य-गीत, खान-पान, उपहार वितरणादि के बाद अब पुरुषवर्ग निद्रालस शयनोन्मुख होजाता था, स्त्रियां ढोल, डफ, सूप आदि बजाते हुए तथा कंठ से भी शोर करते हुए अलक्ष्मी या दारिद्र्य लक्ष्मी को गांव-नगर से बाहर भगाने का यत्न करती थीं। और उन्हें गांव-कस्बे की सीमा से बाहर करकेऔर पुरानी वस्तुओं सूप, झाडू आदि वहीं फेंककर वापस आ जातीं। कई इलाकों में यह कृत्य इस अमावस्या के बजाए कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी (देवोत्थानी एकादशी) की रात्रि में किया जाता है औरढोल, डफ, सूप आदि बजाने के लिए गन्ने के टुकड़े का इस्तेमाल किया जाता है। दशहरा की दशमी तिथिकी तरह यह अमावस्या की तिथि भी अत्यंत पवित्र और शुभ मानी जाती है, इसलिए इस रात्रि में तंत्र-मंत्र की साधना करने वाले अनेक प्रकार का अनुष्ठान भी करते हैं। बंगाल में इस रात्रि लक्ष्मी के बजाये मुख्यत: काली की पूजा की जाती है। यह भी मूलत: तांत्रिक अनुष्ठान से संबद्ध पूजा थी। बंगप्रदेश को (जिसमें उड़ीसा से लेकर असम तक का क्षेत्र आ जाता है) प्राचीन काल में तंत्र साधना की मुख्य भूमि माना जाता था ।भविष्योत्तर पुराण में अमावस्या को क्या करना चाहिए, यह विस्तार से बताया गया है।संक्षेप में उसका उल्लेख रोचक होगा। प्रात:काल सूर्योदय के समय तैलमर्दन के साथ स्नान (अभ्यंगस्नान), देव पितरों की पूजा, दही-दूध-घृत से पितरों का श्राद्ध तथा विविध व्यंजनों के साथ ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए। अपराह्न राजा को अपनी राजधानी में ऐसी घोषणा करनी चाहिए कि आज बलि का आधिपत्य है, हे लोगों, आनंद मनाओ। लोगों को अपने-अपने घरों में नृत्य-संगीत का अयोजन करना चाहिए, एक-दूसरे को ताम्बूल देना चाहिए, कुंकुम लगाना चाहिए, रेशमी वस्त्र धारण करनाचाहिए, सोने और रत्नों के आभूषण पहनने चाहिए। स्त्रियों को सजधज कर समूह में निकलना चाहिए।रूपवती कुमारियों को इधर-उधर आनंद के प्रतीक चावल बिखेरने चाहिए। राजा को चाहिए कि वहअर्धरात्रि में निकलकर राजधानी में भ्रमण करे और लोगों के आनंदोत्सव को देखे। यह दिन वैश्य-व्यापारियों के लिए तो अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि लक्ष्मी की असली आराधना तो उनके उद्यम से हीहोती है। इसीलिए कहा भी गया है कि 'व्यापारे वसति लक्ष्मी। वे इस रात्रि अपने बही-खातों की पूजाकरते हैं। पुराने बही-खाते बंद करते हैं, नये का प्रारंभ करते हैं। परंपरा से इस अवसर पर वे अपने मित्रों, ग्राहकों एवं अन्य व्यापारियों को आमंत्रित करते हैं और उनका ताम्बूल एवं मिठाइयों से सत्कार करते हैं।आजकल इसकी जगह दीपावली-मिलन के आयोजन होने लगे हैं और त्यौहार के अवसर पर मिठाइयों व मेवे के पैकेट भेजे जाने लगे हैं।अगले दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा की तिथि आती है। इस दीन प्राचीनकाल में राजा बलि की पूजा की जाती थी। इस दिन भी प्रात:काल तैलाभ्यंग के साथ स्नान केउपरांत पूजा और तदनंतर आनंदोत्सव की परंपरा थी। विश्वास था कि इस दिन किये दान का कईगुना अधिक और अक्षय फल मिलता है। वामन और बलि की कथा भी इस तिथि से जुड़ी है। यज्ञ मेंवामनरूप विष्णु द्वारा बलि से तीन पग भूमि मांगने की कथा बहुत प्रचलित है। इस दिन भी सायंकालदीपदान की प्रथा है। बलिराज्य के दिन दीपदान से लक्ष्मी स्थिर होती हैं।वैष्णव काल में कृष्ण द्वारा कीगयी गोवर्धन पूजा का कृत्य इस दिन जुड़ गया। संभवत: कृष्ण ने बलि या इंद्र की पूजा बंद करवाकेगोवर्धन पूजा का प्रारंभ किया। इस दिन परंपरया गायों और बैलों की पूजा की जाती है। गायों को दुहानहीं जाता और बैलों से कोई काम नहीं कराया जाता। आजकल इस दिन विष्णु, राम व कृष्ण मंदिरों मेंभोग के आयोजन किये जाते हैं। अन्न (भोजन) का कूट (पर्वत) बनाया जाता है, फिर उसे वितरितकर दिया जाता है, इसलिए इसे 'अन्नकूट भी कहा जाने लगा।कार्तिक शुक्ल द्वितीया का उत्सव भी अनूठा है। इसे भ्रात्रि द्वितीया (भाईदूज) के रूप में जाना जाता है। भविष्य पुराण की कथा है कि इस तिथि को यमुना ने अपने भाई यम को अपने घर भोजन के लिए आमंत्रित किया था। इसलिए इस तिथि को यम द्वितीया नाम मिल गया। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि इस दिन व्यक्ति को दोपहर का भोजन अपने घर में नहीं, बल्कि बहन के घर में जाकर करना चाहिए। बहन को भेंट-उपहार देना चाहिए। यदि सहोदरा बहन न हो, तो चाचा या मौसी की पुत्री या अपने मित्र की बहन के यहां जाकर भोजन करना चाहिए और उपहार देना चाहिए।दीपावली उत्सव का मूल कृत्य केवल तीन दिन का होता है, लेकिन एक दिन पहल धनतेरस और एक दिन बाद की यम द्वितीया ने इसे पञ्च दिवसीय बना दिया है। भाई-बहन के स्नेह संबंध के जुड़ जाने से इस उत्सव को एक अनूठा सामाजिक विस्तार मिल गया है, जो प्राचीन काल में स्त्री केमहत्व और पुरुषों के उसके प्रति दायित्व को भी रेखांकित करती है, क्योंकि प्रत्येक स्त्री किसी न किसीकी बहन भी होती ही है। इसलिए आज भी यह उत्सव अत्यंत प्रासंगिक है।दीपोत्सव के तमाम धार्मिककृत्य तो अब काल के गाल में लुप्त हो गये हैं, उन्हें केवल पुराणों व धर्मशास्त्रों में देखा जा सकता है, लेकिन प्रकाशोत्सव और लक्ष्मीपूजन उत्सव के रूप में इसकी अंतर्राष्ट्रीय व्याप्ति हो गयी है। दुनियामें जहां-जहां भारतवंशी गये, वहां-वहां भारतीय संस्कृति भी पहुंची। यह क्रम हजारों साल से चला आरहा है। आज दुनिया का शायद ही कोई एकाध देश ऐसा हो, जहां भारतीय न बसे हों। और दुनिया में जहां कहीं भी कोई भारतीय है, वह दीपावली का उत्सव अवश्य मनाता है। हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध सभी दीपोत्सव में समान रूप से भाग लेते हैं। सिखों के छठे गुरु हरगोविंद जी को मुगल जहांगीर ने कैद करवालिया था। वह 52 अन्य राजाओं के साथ ग्वालियर के किले में कैद थे। जहांगीर से गुरु को मुक्त करने केलिए कहा गया, वह राजी हो गये, लेकिन गुरु ने अन्य 52 राजाओं की रिहाई का भी आग्रह किया। अपनीयुक्ति से गुरु जी ने उन्हें भी मुक्त कर लिया। वे सब दीपावली के दिन ही जेल से रिहा हुए, इसलिए सिखें नेइस दिन विशेष रूप से उत्सव मनाया और इसे 'बंदी छोड़ दिवस की संज्ञा दी।नेपाल सांस्कृतिक रूप से भारत का ही अंग है, इसलिए प्राय: सभी भारतीय त्यौहार वहां भी पूरे उत्साह से मनाए जाते हैं।दीपावली भी वैसे ही मनायी जाती है, लेकिन कृत्यों में कुछ भेद है। जैसे यहां पांच दिन के त्यौहार का पहला दिन 'कागतिहार कहा जाता है और उस दिन कौवों को खिलाया जाता है। कौवा शुभ संदेश लानेवाला पक्षी माना जाता है, इसलिए उसे यह सम्मान दिया जाता है। अगला दिन 'कूकुरतिहार कहाजाता है। उस दिन कुत्तों को उनकी वफादारी के लिए खिलाया-पिलाया जाता है तथा सम्मान दिया जाताहै। तीसरे दिन लक्ष्मी पूजा होती है और इस दिन गाय की भी पूजा की जाती है। जाहिर है यहां त्यौहार पर पशुओं को अधिक महत्व दिया जाता है। लक्ष्मी पूजा का दिन नेपाली संवत् का अंतिम दीन भी होता है। अगला दिन नेपालियों का नववर्ष दिवस होता है। इस दिन शरीर की आराधना की जाती है।यानी अगले पूरे वर्ष के लिए स्वस्थ होने की कामना की जाती है। इसे वहां 'म्हा पूजा कहा जाता है।अगला दिन भरत की तरह ही 'भाई टीका- का होता है, जिसमें भाई-बहन मिलते हैं। बहन-भाई को टीकाकरती है, भोजन कराती है और भाई उसे उपहार देता है।आज दुनिया के तमाम अन्य देशों, ब्रिटेन, नीदरलैंड, न्यूजीलैंड, सूरीनाम, कनाडा, गुयाना, केन्या, मॉरिशस, फिजी, जापान, इंडोनेशिया, मलेशिया, म्यांमार, सिंगापुर, श्रीलंका, दक्षिण अफ्रीका, तंजानियां, ट्रिनीडाड, टोबैगो, जमैका, थाईलैंड, आस्ट्रेलिया, संयुक्त अरब अमीरात तथा अमेरिका आदि में बड़े उत्साह से दीपोत्सव मनाया जाता है, जिसमें स्थानीय मूल के लोग भी भाग लेते हैं। अमेरिका में तो इस बार राष्टï्रपति ओबामा ने पहली बारव्हाइट हाउस में दीपावली का आयोजन किया और भारतीय पुरोहित के मंत्रोच्चार के बीच दीपक जलाया।वास्तव में यह एक सार्वभौम त्यौहार है, जो अज्ञान, अनैतिकता, अन्याय, अनाचार, अन्धकार एवं मृत्यु के विरुद्ध ज्ञान, नैतिकता, न्याय, सदाचार, प्रकाश एवं अमरता की विजय का उत्सव है।इसीलिए इस त्यौहार का महामंत्र है- असतो मा सदगमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योमां अमृतंगमय
दारिद्रयात समृद्धिंगमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योमां अमृतंगमय
दारिद्रयात समृद्धिंगमय
5 टिप्पणियां:
पढ़ने में असुबिधा हो रही है। कृपया फ़ाँट बड़ा करें:)
इतने विस्तार से किसी जाने पहचाने विषय को पढ़्ना बहुत अच्छा लगा.
दीपावली के बारे में देर से ही सही .. पर बढिया विश्लेषण करने के लिए धन्यवाद
शुक्ला सर , दीपावली का विश्लेषण पहली बार पढ़ा विस्तार से मजा आया
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