बुधवार, 26 जून 2013




भारतीय जनता पार्टी के नेता तथा राज्य सभा सदस्य राम जेठमलानी ऐसे अकेले व्यक्ति नहीं हैं जो शुद्ध अज्ञानतावश इतिहास पुरुषों या सांस्कृतिक परंपरा के स्थापित प्रतीकों के विरुद्ध आए दिन ऐसी बेतुकी  और अनर्गल प्रतिक्रिया करते रहते हैं जिससे उन पुरुषों और प्रतीकों का तो कुछ नहीं बिगड़ता किंतु संबंधित समाज में नाहक ऐसा क्षोभ उत्पन्न होता है, जिससे अशांति पैदा होने की संभावना रहती है|
गुरुवार ८ नवंबर को स्त्री-पुरुष संबंधों पर आधारित एक पुस्तक का अनावरण करते हुए जेठमलानी ने टिप्पणी की कि ‘राम अच्छे पति नहीं थे| मैं बिल्कुल उन्हें पसंद नहीं करता| बस एक मछुआरे ने कुछ कह दिया और उन्होंने उस बेचारी औरत को वनवास दे दिया|’ उन्होंने लक्ष्मण पर भी टिप्पणी की और कहा कि वह तो ‘और बुरे थे|’ जब सीता का अपहरण हुआ और राम ने उनसे उसे ढूँढ़ने के लिए कहा तो उन्होंने कहा कि वह उनकी भौजाई है और उन्होंने कभी उनका चेहरा नहीं देखा इसलिए वह उन्हें पहचान नहीं सकते|फ मतलब जेठमलानी की दृष्टि में लक्ष्मण ने सीता की खोज में जाने से इनकार कर दिया|
अब उनकी इस टिप्पणी से साफ जाहिर है कि उन्हें रामकथा का कुछ भी पता नहीं है और उन्होंने सुनी सुनाई बातों को लेकर अपने ढंग से उस पर टिप्पणी कर दी| ये तो बेचारे तथाकथित हिंदू इतने सीधे सादे और सहिष्णु होते हैं कि उन्होंने मुस्कराकर टाल दिया, केवल थोड़ी सी प्रतिक्रिया इधर-उधर अखबारों में सामने आई| किसी दूसरे मजहबी समुदाय के शीर्ष पुरुष पर उन्होंने ऐसी टिप्पणी की होती तो अब तक लेने के देने पड़ जाते| शायद इस तरह की सहिष्णुता का ही यह परिणाम है कि जेठमलानी जैसे लोग बिना जाने समझे हुए भी जबान चलाने में कोई परहेज नहीं करते|
यह जरूरी नहीं कि वाल्मीकि या तुलसी के महाकाव्यों में वर्णित राम के जीवनादर्श आज के जीवन के भी आदर्श हों, किंतु यदि आपको उनके आदर्शों पर कोई टिप्पणी करनी हो तो पहले उन काव्यों को ठीक से पढ़ना  और उसके चरित्रों को ठीक से समझना चाहिए, उसके बाद भी उस पर कोई तार्किक टिप्पणी तभी करनी चाहिए जब वह लोकहित में आवश्यक हो| अन्यथा केवल ज्ञान प्रदर्शन या आधुनिकता के मिथ्या दंभ में कोई विरोधी टिप्पणी नहीं करना चाहिए| जेठमलानी बड़े वकील हो सकते हैं किंतु इसका मतलब यह नहीं कि वह इतिहास, संस्कृति, पुरा कथाओं या प्राचीन महाकाव्यों के चरित्रों पर टिप्पणी करने के अधिकारी बन गए| उन्हें जब कथासूत्र तक का पता नहीं है फिर वह कैसे कोई टिप्पणी कर सकते हैं| उन्हें इतना तो सोचना चाहिए था कि उनके पिता ने उनका नाम राम जेठमलानी क्यों रखा| यदि राम उन्हें इतने ज्यादा नापसंद है तो उन्हें पहले अपना नाम बदल लेना चाहिए|
खबर है कि कानपुर में एक सूचनाधिकार कार्यकर्ता (आरटीआई एक्टिविस्ट) संदीप शुक्ल ने कानपुर के चीफ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत में भारतीय दंडसंहिता की धारा २९५ ए तथा २४८ के अंतर्गत मुकदमा दायर किया है कि जेठमलानी ने उनकी तथा और बहुत से लोगों की धार्मिक भावनाओं को आहत किया है| यहॉं यह उल्लेखनीय है कि देश के कानून में धार्मिक (मजहबी) भावना को आहत करना तो दंडनीय अपराध है कि  किंतु सांस्कृतिक भावनाओं एवं संस्कृति के पात्रों को कोई भी कहीं भी बेधड़क चोट पहुँचा सकता है| इसलिए यदि राम के विरुद्ध टिप्पणी के लिए अदालत में जाना है तो मजहबी भावनाओं का सहारा लेना ही पड़ेगा| वास्तव में राम कोई मजहबी देवता नहीं है| वाल्मीकि रामायण में उन्हें ङ्गविग्रहवान धर्मफ (रामोविग्रहवान धर्मः) कहा गया है| यहॉं धर्म का अर्थ है आचार व व्यवहार के श्रेष्ठ नियम| इतिहास पुरुष राम राजा हैं, साधारण नागरिक नहीं| राम का राज्य (भले वह कल्पित हो) आज तक एक आदर्श राज्य (आइडियल स्टेट) के रूप में इसीलिए प्रतिष्ठित है कि वहॉं कानून या न्याय का राज्य था और राजा के लिए प्रजा उसके परिवार से ऊपर थी| धोबी का प्रकरण काव्य का सत्य है, इतिहास का नहीं| सीता के विरुद्ध प्रवाद का प्रकरण तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के एक सबसे निचले वर्ग के माध्यम से इसलिए उठाया गया कि एक राजा को अपनी प्रजा के सबसे अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति की भावनाओं को अपने परिवार तो क्या अपनी प्रियपत्नी और अपने बच्चों के ऊपर भी तरजीह देना चाहिए| आज के अपराधशास्त्र के पंडितों को यह बात जरा मुश्किल से समझ में आएगी या शायद कभी समझ में न आए| इसलिए समाज को चाहिए कि ऐसे अज्ञानियों की किसी टिप्पणी को अधिक तूल न दे और उन्हें माफ कर दे|
अंग्रेजी का भूत झाड़ने की जरूरत

आश्‍चर्य होता है कि हिंदी की बात उठाने या अंग्रेजी के वर्चस्व से बाहर निकलने की बात करते ही कुछ लोग भड़क उठते हैं| क्यों उनको इससे चोट लगती है यह समझ में नहीं आता| अभी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ‘दत्तोपंत ठेंगड़ी रिसर्च आर्गनाइजेशन’ द्वारा आयोजित एक समारोह (११ नवंबर) में अंग्रेजी के वर्चस्व का विरोध करते हुए कहा कि अब समय आ गया है कि हम अंग्रेजी के भूत को उतार फेंके| उनका कहना था कि देश के केवल मुट्ठी भर लोग अंग्रेजी बोलते हैं, लेकिन उन्होंने कुछ ऐसा वातावरण बना रखा है कि इस भाषा के बिना कुछ नहीं हो सकता| उन्होंने यह भी कहा कि यह अंग्रेजी बोलने वाला वर्ग कभी नहीं चाहता कि अंग्रेजी की बाध्यता समाप्त हो, क्योंकि उन्हें डर है कि यदि ऐसा हुआ तो सुदूरवर्ती गांवों तक के लोग आई.ए.एस. और आई.पी.एस. की नौकरियों पर कब्जा जमा लेंगे|
उनके इस कथन में कोई आपत्तिजनक बात नहीं थी, लेकिन राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता कांग्रेस के विधायक अजय सिंह भड़क उठे| उन्होंने अगले ही दिन चौहान के वक्तव्य का विरोध करते हुए कहा कि यदि मुख्यमंत्री वास्तव में हिंदी के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शन करना चाहते हैं, तो उन्हें सबसे पहले अपने बेटों को अंगे्रजी माध्यम स्कूलों से निकाल कर हिंदी माध्यम स्कूलों में भर्ती कराना चाहिए| उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री, अन्य मंत्रियों तथा भाजपा एवं संघ के नेताओं के सारे बच्चे अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ते हैं और कुछ तो विदेशों में भी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं| इससे एक वर्ग संघर्ष की स्थिति पैदा हो गई है, क्योंकि केवल आम लोगों के बच्चे हिंदी माध्यम स्कूलों में पढ़ने के लिए बाध्य होते हैं|
आजकल यह तर्क बहुत आम हो गया है कि जो लोग अंग्रेजी का वर्चस्व हटाने और उसकी जगह भारतीय भाषाओं या हिंदी को लाने की बात करते हैं, उन्हें यह कहने के पहले अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों से हटाकर हिंदी माध्यम स्कूलों में भर्ती करा देना चाहिए| यह बात बड़ी तर्कसंगत लगती है कि हिंदी की वकालत करने वाले अपने बच्चों को अ्रंगेजी माध्यम स्कूलों में क्यों पढ़ने के लिए भेजते हैं, वे उन्हें हिंदी माध्यम स्कूलों में क्यों नहीं भेजते| लेकिन इस तरह का तर्क करने वाले यह भूल जाते हैं कि यह परिस्थिति इन अंग्रेजी समर्थकों विशेषकर कांग्रेस पार्टी ने ही खड़ी की है| उन्होंने ही अंग्रेजी को शासन की भाषा बनाया है और हिंदी को केवल उन लोगों के लिए छोड़ दिया है, जो अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में प्रवेश नहीं ले सकते| जब देश का राजकाज अंग्रेजी में चलेगा, संसद का कामकाज अंग्रेजी में होगा, उच्चतर न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी रहेगी, उच्च शिक्षा अंग्रेजी बिना संभव नहीं रहेगी, तब निश्‍चय ही देशवासियों की मजबूरी रहेगी कि यदि वे ऊंची नौकरियां चाहते हैं, राजनीति में आगे बढ़ना चाहते हैं, न्यायाधीश, वकील या प्राध्यापक बनना चाहते हैं, तो वे अंग्रेजी सीखें और इसके लिए अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की शरण लें| सत्ताधारियों ने जानबूझकर हिंदी या अन्य भारतीय भाषा माध्यम वाली शिक्षा का स्तर गिरा रखा है| उनमें आज उन्हीं परिवारों के बच्चे शिक्षा प्राप्त करने जाते हैं, जो आर्थिक रूप से विपन्न हैं तथा अंग्रेजी माध्यम की महंगी शिक्षा हासिल करने में असमर्थ हैं| यदि उच्च स्तरीय राजनीति से, विश्‍वविद्यालयों से, संसद से तथा न्यायपालिकाओं से अंग्रेजी का वर्चस्व समाप्त हो जाए, तो अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों का मोह भी समाप्त हो जाएगा| लोग अंग्रेजी सीखेंगे लेकिन एक भाषा की तरह, वे अपने देश के इतिहास, भूगोल और साहित्य की जानकारी के लिए अंगे्रजी जानने के लिए बाध्य नहीं होंगे| अजय सिंह जैसे लोगों को जानना चाहिए कि यह उनकी पार्टी के नेताओं की ही कारगुजारी रही है कि उन्होंने पार्टी के शीर्ष नेता महात्मा गांधी तक की अनसुनी करके अंग्रेजी को राजकाज की भाषा बनाए रखा और उसे ही उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में स्थापित किया| उनके वक्तव्य से तो ऐसा लगता है कि हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के प्रचार प्रसार की जिम्मेदारी केवल भाजपा व संघ के लोगों के पास है और वे तथा उनकी पार्टी के नेताओं ने केवल अंग्रेजी का ठेका ले रखा है|
कितने आश्‍चर्य की बात है कि रायटर जैसी अंग्रेजी की संवाद एजेंसी के संपादक व स्तंभकार राबर्ट मैकमिलन अपने स्तंभ में लिखते हैं- मुख्यमंत्री चौहान की बात में वजन है| भारत को जरूर अंग्रेजी के भूत को उतार देना चाहिए, लेकिन यहां भारत के अपने राजनेता उनकी बात के विरोध में ताल ठोंक कर खड़े नजर आ रहे है| राबर्ट मैकमिलन ने लिखा है कि विकीपीडिया पर दिए गए आंकड़ों के अनुसार केवल २ लाख २६ हजार के लगभग लोग भारत में अंग्रेजी भाषी हैं| इनमें दस साढ़े दस करोड़ उन लोगों को जोड़ लें, जो अपनी भाषा के अतिरिक्त अंगे्रजी भी बोलते हैं| इनमें आप चाहें तो उन लोगों को भी जोड़ लें, जो प्रवाहपूर्ण तो नहीं, लेकिन थोड़ी बहुत अंग्रेजी बोल लेते हैं| लेकिन कुल मिलाकर भी इस १ अरब २१ करोड़ जनसंख्या वाले देश का केवल एक छोटा टुकड़ा ही ऐसा है, जो अंग्रेजी वाला है| बाकी बहुसंख्य समुदाय हिंदी, बंगला, तेलुगु, मराठी, तमिल आदि बोलता है| यही नहीं, अंगे्रजी वास्तव में इस देश का दमन करने वालों की ऐतिहासिक भाषा है| यह अभी भी दमन और शोषण की प्रतीक है| ब्रिटेन ने इसी भाषा के बल पर इस देश का शताब्दियों तक शोषण किया, यहॉं के लोगों को गुलाम बनाया और स्वतंत्रता के मात्र ६५ वर्षों के बाद अभी उसने घोषणा की है कि अब वह भारत को दी जाने वाली सहायता बंद करने जा रहा है, क्योंकि अब तक वह उसे काफी सहायता दे चुका है|
मैकमिलन आगे यह भी सवाल उठाते हैं कि जरा सोचिए कि अंगे्रजी ने यहॉं के लोगों के लिए क्या किया| आज आलम यह है कि आप यह पक्के तौर पर नहीं बता सकते कि जो व्यक्ति आपके बगल में बैठा काम कर रहा है, वह आपकी भाषा बोल सकता है| देश के ज्यादातर हिस्से में आप हिंदी से काम चला सकते हैं| यह अधिकृत राष्ट्रीय भाषा है, किंतु हिंदी के साथ समस्या यह है कि हिंदी की अनिवार्य शिक्षा होने तथा हिंदी जानने के बावजूद लाखों लोग ऐसे हैं, जो हिंदी नहीं बोलते या हिंदी बोलने से इनकार करते हैं| जैसा कि मैंने समझा है इसका मुख्य कारण है क्षेत्रीय अभिमान या जातीय अहंकार विशेषकर तमिल तथा कुछ भारतीय वर्गों के लोगों की धारणा है कि उत्तर के निहित स्वार्थियों द्वारा हिंदी उन पर थोपी जा रही है| तो फिर और कौन सी भाषा बचती है, जिसमें विभिन्न राज्यों तथा सांस्कृतिक सीमाओं के आर-पार संपर्क किया जा सकता है| जाहिर है कि इसका एक ही जवाब है अंग्रेजी| यह सही है कि अंगे्रजी से आर्थिक समृद्धि के द्वार खुलते हैं| यदि आप अपने यहॉं विदेशी निवेश को बढ़ावा देना चाहते हैं, तो आपको अंगे्रजी बोलने और समझने में सक्षम होना चाहिए| इससे किसी को कहीं इनकार नहीं हो सकता| एक भाषा के रूप में हमें अंगे्रजी पढ़ना ही चाहिए| जो महत्वाकांक्षी हों उन्हें उसमें ही नहीं अन्य विदेशी भाषाओं में भी विशेषज्ञता हासिल करनी चाहिए, लेकिन इसके लिए यह कहॉं जरूरी है कि हमारी संसद का कामकाज अंग्रेजी में हो, हमारी न्यायपालिकाएँ अंग्रेजी में विवादों का फैसला करें या हम अपने देश का इतिहास, भूगोल, धर्म-दर्शन आदि भी अंग्रेजी में ही पढ़ें| हमें अपने सिर पर चढ़े अंगे्रजी के भूत को झाड़ने की जरूरत है, अंगे्रजी भाषा को दूर फेंकने की नहीं| लेकिन अंगे्रजी को हम रोजमर्रा की आम जिंदगी से बाहर तभी कर सकते हैं, जब हम उसके स्थान पर हिंदी को स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त कर सकें|
गोरक्षा के लिए
कृष्ण जैसे पराक्रमी की प्रतीक्षा
 
भारतीय परंपरा में गाय संपूर्ण प्रकृति की प्रतीक है और प्रकृति का सबसे बड़ा आश्रय यह अपनी पृथ्वी है| जब कोई भारतीय गाय की पूजा करता है, तो वस्तुतः वह संपूर्ण पृथ्वी या कि संपूर्ण प्रकृति की पूजा करता है| इस प्रकृति  में जड़चेतन सभी आ जाते हैं| गाय प्रकृति रूपा है, इसलिए प्रकृति के सारे देवी-देवता भी उस गोरूप में समाहित हो जाते हैं| गाय एक पशु के रूप में भी पूज्य है और एक प्रतीक के रूप में भी| पशु उसका स्थूल रूप है और उसमें निहित प्रतीक उसके सूक्ष्म आयाम है|
भगवान कृष्ण गोपालक है, इसका सीधा आशय है कि वे संपूर्ण प्रकृति के पालक हैं, उसके संरक्षक हैं| वे इस प्रकृति या जीव मंडल के बाहर किसी देवी-देवता का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते| इसीलिए वह ब्रज क्षेत्र में प्रचलित इंद्र की पूजा बंद करवाकर गोवर्धन पर्वत की पूजा परंपरा शुरू करते हैं| गोवर्धन पूजा भी प्रतीकात्मक है| उसकी पूजा का अर्थ है उस पर स्थित वृक्षों, झाड़ियों, लता, गुल्मों, पशु-पक्षियों एवं कीट पतंगांें की पूजा, उनका संरक्षण, उनका संवर्धन| उसके नाम से ही स्पष्ट है कि उसकी प्राकृतिक संपदा से गोकुल का गौसंवर्धन होता था|
अपने देश में गाय-बैल-बछड़ों के माध्यम से प्रकृति के सम्मान और संरक्षण की परंपरा बहुत पुरानी है| भाद्रपद में पड़ने वाला हलषष्ठी व्रत बैलों के सम्मान में किया जाता है| इस दिन ग्राम स्त्रियां जो व्रत रहती हैं, उसमें बैलों के श्रम से उत्पन्न अन्न का आहार नहीं किया जाता| उस दिन उनसे कोई काम नहीं लिया जाता और उनको नहला-धुला कर, अच्छा आहार देकर पूरा आराम करने का अवसर दिया जाता है| इसी तरह कार्तिक कृष्णपक्ष में गोवत्स द्वादशी का व्रत होता है, जो बछड़ों को समर्पित है| कार्तिक शुक्ल पक्ष अष्टमी को होने वाला गोपाष्टमी व्रतोत्सव तो पूरे देश में प्रसिद्ध है, क्योंकि इस दिन वासुदेव कृष्ण पूर्ण गोपालक बन गये थे|
शुक्लाष्टमी कार्तिकेतु
स्मृता गोपाष्टमी बुधैः
ताद्दनाद वासुदेवा भूद्
गोपः पूर्णम तु वत्सपः
पौराणिक परंपरा के अनुसार इस दिन गोपाल कृष्ण कुमार से पौगंड (किशोर) आयु में प्रवेश करते हैं और उन्हें अब वन में गायों को चराने और उनकी रक्षा का अधिकार दिया जाता है| अब तक वे केवल छोटे बछड़ों की देखभाल करते थे, किंतु अब पूरे गोपालक बन गए थे, इसलिए इस समारोह को उनकी स्मृति में हर वर्ष मनाने की परंपरा चल पड़ी| पुराण तो विविध कथाओं से भरे हैं| इसलिए उसकी ऐसी एक कथा के अनुसार इस दिन कृष्ण ने वत्सासुर नामक एक राक्षस को मारा था, जो गायों के बीच बछड़ा बनकर आ छिपा था और कृष्ण को मारने की घात में था| गायों में छिपे इस असुर को पहचान कर मारने का पराक्रम करने के कारण यह मान लिया गया कि कृष्ण अब स्वतंत्र रूप से गायों की रक्षा करने में समर्थ हैं, इसलिए उन्हें इस दिन गायों की रखवाली का पूर्ण अधिकार मिल गया| एक अन्य परंपरा के अनुसार अपनी पूजा बंद किए जाने से नाराज इंद्र ने जब भारी वर्षा करके गोकुल को डुबा देने का प्रयास किया, तो कृष्ण ने गोवर्धन को उंगलियों पर उठाकर उसकी छाया में संपूर्ण गोकुल के मनुष्यों और पशुओं की रक्षा की थी| सात दिनों की अनवरत वर्षा के बाद हार कर जब इंद्र ने वर्षा बंद की और क्षमायाचना की मुद्रा में कृष्ण के समक्ष उपस्थित हुए, तब कृष्ण ने उस पर्वत को यथास्थान स्थापित किया| उनके इस चमत्कारी साहस और संकल्प के सम्मान में सबने मिलकर कृष्ण की पूजा की और कृष्ण ने गो रूपा प्रकृति और गोवर्धन के माध्यम से पृथ्वी की पूजा की| इसी समय से उनका एक नाम गगोविंदा’ भी पड़ गया|
वास्तव में कहानियॉं जो भी हों, वे कवि की कल्पनाएँ भी हो सकती हैं, लेकिन इन कहानियों और इस व्रतोत्सव का स्पष्ट संदेश यही है कि हमें प्रकृति की रक्षा करनी चाहिए| अपने पोषण और उपभोग में इतना संयम बरतना चाहिए कि प्रकृति को किसी तरह कोई क्षति न पहुँचे| उसकी संपूर्ण पादप व जीव संपदा का निरंतर संरक्षण हो, संवर्धन हो|
अपने देश में बहुत पुराने समय में हो सकता है कभी गोमांस का भक्षण किया जाता रहा हो, किंतु सभ्यता के विकासक्रम में सभी जीवों के प्रति दया एवं करुणा का भाव विकसित हो गया| और गाय तो पहले से सम्मानित थी, इसलिए वह न केवल पूजनीय हो गई, बल्कि भारतीय संस्कृति की आत्मा बन गई| वह भारतीयता या भारतीय संस्कृति से इस तरह जुड़ गई कि विदेशी आक्रमणकारियों ने भारतीयों को अपमानित करने तथा उन पर अपनी ताकत का सिक्का कायम करने के लिए गायों को निशाना बनाना शुरू कर दिया| इन लोगों द्वारा कुरबानी के नाम पर गोकशी करना एक परंपरा बन गई| इतना ही नहीं, अंग्रेजों के शासनकाल में गोमांस का व्यापार भी शुरू हो गया|
भारतीय परंपरा में आस्था रखने वालों को भरोसा था कि जब देश स्वतंत्र होगा, तो गोवध पर पूर्ण प्रतिबंध लग जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ| बल्कि स्वतंत्रता के बाद इसमें और वृद्धि हो गई| इस प्रवृत्ति से आहत भारतीयों ने ७ दिसंबर १९५२ को दिल्ली में पहली अखिल भारतीय गोहत्या विरेाधी रैली का आयोजन किया| इसमें देश भर के संस्कृतिप्रेमी गोभक्त प्रतिनिधियों ने भाग लिया और सरकार से गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने की पुरजोर मॉंग की, लेकिन तत्कालीन पंडित नेहरू की सरकार ने इस तरफ तनिक भी ध्यान नहीं दिया| इसके बाद दूसरी रैली १३-१४ दिसंबर १९५८ को फिर दिल्ली में आयोजित हुई, किंतु वह भी विफल रही| इसके बाद ७ नवंबर १९६६ को दिल्ली में गोरक्षा के निमित्त पुनः एक विराट प्रदर्शन हुआ, जिसका आयोजन अखिल भारतीय गोरक्षा महाभियान समिति द्वारा किया गया था और नेतृत्व कर रहे थे प्रसिद्ध संत करपात्री जी| प्रशासन ने इस प्रदर्शन को विफल करने के लिए जिस तरह का बल प्रयोग किया उसकी किसी को आशंका न थी| गोभक्त आंदोलनकारियों पर लाठियॉं ही नहीं बरसाई गई, आँसू गैस के गोले और गोलियॉं भी चलाई| इसके बाद आज तक गोरक्षा के लिए दिल्ली में कोई बड़ा प्रदर्शन करने का किसी को साहस नहीं हुआ| यों देश में यत्र तत्र अनगिनत गोरक्षा समितियॉं काम कर रही हैं| छिटपुट आंदोलन भी चलाए जा रहे हैं, लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर किसी संगठित प्रयास की अभी भी प्रतीक्षा है|
गोपाष्टमी पर गो पूजा के आयोजन तो होते हैं, लेकिन कृष्ण की तरह कोई ऐसा साहसी अभी सामने नहीं आ रहा है, जो गायों के लिए, वन,  पर्वतों तथा पर्यावरण के लिए देवराज इंद्र जैसे हठी एवं अहंकारी सत्ताधीशों  से टकराने की घोषणा कर सके और ऐसा पराक्रम कर सके कि कोई भी सत्ताधीश क्यों न हो, उसे झुकना पड़े|