अयोध्या विवाद में फैसले की घड़ी
अयोध्या के मंदिर-मस्जिद मामले में वर्तमान कानूनी विवाद भले मात्र 60 साल का है, लेकिन वास्तविक विवाद 482 वर्ष पुराना है, जब पहली बार मंदिर तोड़कर वहां मस्जिद तामिर की गयी थी। इतने लंबे संघर्ष के बाद पहली बार ऐसा अवसर आया है, जब एक उंूची अदालत ने घोषणा की है कि 24 सितंबर 2010 को अपराह्न 3 बजकर 30 मिनट पर अपना फैसला सुना देगी कि उस विवादित स्थल पर वास्तविक मालिकाना हक किसका है। हिन्दू निश्चय ही इससे बहुत आशान्वित हैं, क्योंकि प्रायः सारे ऐतिहासिक प्रमाण उसके पक्ष में हैं, लेकिन यदि फैसला विपरीत दिशा में भी जाता है, तो स्थिति में केवल इतना बदलाव आएगा कि देश के हिन्दू समाज का वर्तमान न्यायपालिका की न्याय करने की क्षमता पर से विश्वास उठ जाएगा। इस विवाद में आगे का अध्याय अब 24 सितंबर के बाद लिखा जाएगा। देखना है उस अध्याय की इबारतें किस तरह की स्याही से लिखी जाती हैं।
अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद में पहली बार कोई न्यायिक फैसला आने जा रहा है। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनउू पीठ ने लंबी सुनवाई के बाद घोषणा की है कि वह 24 सितंबर को अपराह्न 3 बजकर 30 मिनट पर अपना फैसला सुना देगी। फैसला क्या आएगा, यह अनुमान लगाना कठिन है, क्योंकि विवाद इतना उलझा हुआ है कि इस मामले में कानूनों से अधिक न्यायाधीशों का विवेक महत्वपूर्ण हो गया है।
इस मामले की सुनवाई के लिए गठित त्रिसदस्यीय विशेष पीठ में न्यायमूर्ति एस.यू. खान, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल एवं न्यायमूर्ति डी.वी. शर्मा शामिल हैं। प्रायः पूरा देश अब उनके फैसले की प्रतीक्षा में है। हिन्दू पक्ष यद्यपि यह नहीं मानता कि अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद का फैसला किसी अदालत द्वारा वर्तमान मालिकाना हक वाले कानूनों के अंतर्गत नहीं हो सकता, फिर भी उसे भरोसा है कि यदि विवेक सम्मत न्याय होगा, तो फैसला उसके पक्ष में ही जाएगा, इसलिए वह भी फैसले की प्रतीक्षा में है। दूसरी तरफ मुस्लिम पक्ष भी बहुत कुछ आश्वस्त है कि फैसला उसके हक में जाएगा। क्योंकि यह अकाट्य तथ्य है कि मौके पर मस्जिद बनी हुई थी, जो बाबरी मस्जिद के नाम पर विख्यात थी। 1949 में कुछ हिन्दुओं ने यदि उसमें प्रतिमा स्थापित कर दी, तो मालिकाना हक उनके पक्ष में नहीं जा सकता। मस्जिद का बना होना ही उनके मालिकाना हक का प्रमाण है। इसलिए प्रायः सभी मुस्लिम संगठन एक स्वर में कह रहे हैं कि अदालत का जो भी फैसला आएगा, वह उन्हें मान्य होगा।
फैसला जो भी होगा, लेकिन वह किसी एक के ही पक्ष में जाएगा और दूसरा पक्ष निराश होगा। वैसे ऐसा भी फैसला आ सकता है, जिससे कोई भी संतुष्ट न हो। जो भी हो, लेकिन फैसला जिसके विरोध में जाएगा, उसके लिए सर्वोच्च न्यायालय में जाने का खुला अवसर रहेगा। इसलिए यह तय है कि 24 सितंबर को आने वाले फैसले से विवाद का अंत होने वाला नहीं है, कानूनी लड़ाई का अंतिम मुकाबला निश्चय ही सर्वोच्च न्यायालय में होगा।
अब असली समस्या यह है कि क्या जो भी फैसला आएगा, उसे दोनों पक्ष शांतिपूर्वक स्वीकार कर लेंगे और यदि पराजित पक्ष सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जाता है, तो विजेता पक्ष भी बिना कोई हंगामा किये आगे की लड़ाई सर्वोच्च न्यायालय में लड़ेगा और फिर उसके फैसले की प्रतीक्षा करेगा। अभी तो दोनों ही पक्ष यह कह रहे हैं कि 24 तारीख के फैसले पर हंगामा नहीं होगा। राष्ट्र्ीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि हम तो यही चाहते हैं कि रामजन्म भूमि स्थल पर राम का मंदिर ही बने लेकिन 24 तारीख का जो भी फैसला आता है, उस पर देश के कानून, संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत ही अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेताओं ने भी शांति बनाए रखने का वायदा किया है और कहा है कि फैसला यदि उनके खिलाफ जाता है, तो वे उसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील करेंगे। देश के तमाम मुस्लिम संगठनों ने भी अपने समाज से अपील की है कि फैसला जो भी आए, लेकिन शांति बनाए रखें। इसलिए यदि दोनों पक्ष विवेकपूर्ण संयम बनाए रखें, तो शांति भंग की कोई आशंका नहीं पैदा हो सकती, लेकिन सामाजिक प्रतिक्रियाएं प्रायः इस तरह की अपीलों के अनुसार नहीं होतीं, इसलिए सरकार को किसी भी स्थिति से निपटने के लिए सचेत रहना पड़ता है।
फैसला यदि मान लें हिन्दुओं के पक्ष में जाता है, तो फौरन मंदिर निर्माण कराये जाने की मांग उठने लगेगी। कोई भी इसकी प्रतीक्षा नहीं करेगा कि अभी आगे सुप्रीम कोर्ट भी है, उसका फैसला ही अंतिम होगा, इसलिए मंदिर निर्माण के लिए उसका फैसला आने तक प्रतीक्षा करनी होगी। और यदि फैसला मुस्लिमों के पक्ष में हुआ, तो फौरन उनकी तरफ से बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण की आवाज उठने लगेगी, जबकि हिन्दू पक्ष अदालती प्रक्रिया में ही अविश्वास व्यक्त करने लगेगा। हिन्दू पक्ष की बात इस फैसले से पुष्ट हो जाएगी कि न्यायालय इस मामले में कोई फैसला नहीं कर सकता। हिन्दुओं की तरफ से कोई व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने जा सकता है, लेकिन व्यापक हिन्दू समाज, सड़कों पर उतरने का ही फैसला करेगा। बड़ी संख्या में लोगों का सड़कों पर उतरना लोकतांत्रिक अधिकार तो कहा जा सकता है, लेकिन इससे शांति भंग का खतरा तो अवश्य रहेगा।
न्यायालय के सामने जो ‘टाइटिल सूट’ पेश है, उसमें उसे यही फैसला करना है कि उस जमीन पर मालिकाना हक किसका है, जिस पर तथाकथित बाबरी मस्जिद खड़ी थी। इस क्रम में उसे 2-3 और प्रश्नों का जवाब देना होगा, जैसे क्या यह राम का जन्म स्थान है ? क्या उस स्थान पर मस्जिद निर्माण के पूर्व कोई मंदिर था? क्या उस मंदिर को तोड़कर बाबर ने उस मस्जिद का निर्माण कराया था? इत्यादि। इसमें से पहले प्रश्न का उत्तर तो लगभग असंभव है। कोई न्यायालय कोई इतिहासविद, कोई पुरातत्वज्ञ यह नहीं बता सकता कि राम का जन्म उसी स्थल पर हुआ था या कहीं अन्यत्र। तीसरे प्रश्न का उत्तर देना भी आसान नहीं है। यह प्रमाणित करना अत्यंत दुश्कर है कि बाबर ने ही मंदिर तुड़वाकर मस्जिद बनवाया।
अदालत यह प्रमाणित भी कर दे कि मस्जिद का निर्माण जिस भूमि पर हुआ था, वहां पहले कोई मंदिर था, तो भी यह प्रमाणित करना प्रायः असंभव होगा कि उस मंदिर को तोड़वाया भी बाबर ने ही था। यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि मंदिर तोड़वाने का काम किसी और ने किया होगा या वह स्वयं गिर गया होगा और बाबर ने वहां एक उूंची व अच्छी जगह देखकर मस्जिद बनवा दी होगी।
मस्जिद स्थल पर मंदिर होने के पुरातात्विक प्रमाणों को इसी तरह के तर्कों से मुस्लिम पक्ष पहले ही खारिज कर चुका है। तब सवाल उठता है कि आखिर फिर अदालत के फैसले का मुख्य आधार क्या होगा। यदि वह साहित्यिक व पुरातात्विक तथ्यों तथा पारंपरिक विश्वासों को प्रमाण नहीं मानता, तो क्या वह केवल इस आधार पर मुस्लिम पक्ष में फैसला दे देगा कि चूंकि वहां मस्जिद खड़ी थी और मस्जिद 400 साल से अधिक पुरानी थी, इसलिए उस स्थल का मालिकाना हक मुस्लिम समुदाय के पक्ष में जाता है।
यहां यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि हिन्दू पक्ष उस स्थल पर अपना दावा नहीं छोड़ सकता। अदालत के निर्णयकी प्रतीक्षा केवल इसलिए है कि शायद वह उस अन्याय को मिटा दे, जो अब तक हिन्दुओं के साथ होता आ रहा है, लेकिन यदि इस फैसले में भी हिन्दुओं को न्याय नहीं मिला, तो फिर कम से कम इस मामले में तो न्यायालय की न्याय करने की क्षमता से उसका विश्वास उठ जाएगा।
सच्चाई यह है कि तथाकथित बाबरी मस्जिद स्वयं इस बात की प्रमाण थी कि उसे किसी मंदिर को तोड़कर बनवाया गया है। और मंदिर तोड़ने वाला व्यक्ति भी वही था, जिसने मस्जिद का निर्माण कराया। क्योंकि मंदिर के कुछ अंश ‘विजय दर्प’ की निशानी के तौर पर उस मस्जिद में लगवाये गये। कंकड़, रोड़ों व चूने-गारे से बनी उस मस्जिद में लगे काले पत्थर के स्तंभ उस मंदिर की कहानी कहते थे, जिसे तोड़कर मस्जिद का निर्माण हुआ था। मस्जिद के काले पत्थर के ऐसे 14 स्तंभ लगे थे, जिन पर मूर्तियां उत्कीर्ण थी और जिनकी मस्जिद की संरचना से कोई मेल नहीं था। ये निश्चय ही हिन्दुओं को लगातार उनके पराजय का बोध कराने के लिए लगाये गये थे।
दिसंबर 1992 में जब तथाकथित उस बाबरी ढांचे का ध्वंस हुआ, तो उसके मलबे में से एक अभिलेख भी मिला, जो 11वीं शती का है। बलुए पत्थर के एक शिलापट पर अंकित इस अभिलेख के अनुसार गहड़वाल नरेश गोविंद चंद्र के राजयकाल (1114-1154ईसवी) में यहां एक विष्णु हरि के मंदिर का निर्माण कराया गया। इसके पूर्व 1990 में जमीन के समतलीकरण के दौरान करीब 39 पुरावशेष ऐसे मिले, जो किसी मंदिर के टुकड़े हो सकते हैं। अदालत के आदेश पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा गराये गये वैज्ञानिक उत्खनन से भी यह प्रमाणित हो चुका है कि उपर्युक्त मस्जिद के नीचे किसी पुराने भवन के फर्श के कम से कम दो स्तर और मौजूद थे। वह फर्श किसी मंदिर की थी या नहीं, इस पर तो विवाद हो सकता है, किंतु इससे इतना तो प्रमाणित हो ही जाता है कि मस्जिद का निर्माण किसी खाली जमीन पर नहीं हुआ था।
अब तक इस मंदिर-मस्जिद विवाद पर असंख्य शब्द लिखे जा रहे हैं। मंदिर के पक्ष में अनगिनत प्रमाण दिये जा चुके हैं। स्वयं अनेक मुस्लिम लेखकों की पुस्तकों के पृष्ठ उद्घृत किये जा चुके हैं, जिसमें गर्वपूर्वक उल्लेख किया गया है कि बाबर ने या उसके कहने पर किसी और ने वहां स्थित मंदिर को ध्वस्त करके मस्जिद का निर्माण कराया। फिर भी यदि अदालत सच्चाई को अपने फैसले का विषय नहीं बना सकती, तो यही मानना पड़ेगा कि सत्ता की राजनीति के साथ अदालतों का भी गठजोड़ हो गया है।
हिन्दू पक्ष को निश्चय ही 24 सितंबर के फैसले की शांतिपूर्वक प्रतीक्षा करनी चाहिए, लेकिन यदि फैसले में सत्य की उपेक्षा होती है, तो उसे सर्वोच्च न्यायालय में न्याय की भीख मांगने कतई नहीं जाना चाहिए। उसे सरकार पर राजनीतिक दबाव बनाने का यत्न करना चाहिए कि वह स्वयं राजनीतिक स्तर पर इस विवाद का फैसला करे।
सच कहा जाए तो इसमें विवाद जैसा कुछ है ही नहीं। सारा मामला आइने की तरह साफ है। अयोध्या, काशी और मथुरा के मंदिर तोड़कर बनायी गयी मस्जिदें अपनी कहानी स्वयं चिल्ला चिल्ला कर बयान कर रही हैं। जरूरत केवल उस चिल्लाहट को सुनने वाले कानों और देख सकने वाली आंखें की है। अयोध्या की तथाकथित मस्जिद अब नहीं है, लेकिन उसके चित्र और विवरण अभी भी विद्यमान हैं। पारिस्थितिक साक्ष्य भी यही बयान करते हैं कि मस्जिद के स्थल पर पहले मंदिर था।
आज का सवाल यह नहीं है कि राम कभी पैदा हुए थे या नहीं, और यदि पैदा हुए थे तो कहां ? और यदि अयोध्या में पैदा हुए थे, तो क्या उसी स्थल पर, जहां कि वह मस्जिद बनी थी। सवाल यह भी नहीं है कि मंदिर को किसने तोड़ा या मस्जिद को किसने बनवाया। बनवाने वाला बाबर था, मीर बांकी था या मूसा आसिकान अथवा कोई अन्य। सवाल केवल यह है कि विवादित स्थल पर एक मंदिर था, जिसे तोड़कर वहां मस्जिद बनायी गयी। मंदिर से जुड़ा हिन्दू समाज तब से लगातार उस मंदिर स्थल को पाने के लिए संघर्ष करता आ रहा है, लेकिन उसे न्याय अब तक नहीं मिल पा रहा है।
पहली बार एक अवसर आया है, जब एक उची अदालत ने इस बारे में फैसला देने की घोषणा की है। अगर उसका फैसला हिन्दुओं के पक्ष में आता है, तो अच्छी बात है, लेकिन यदि फैसला विपरीत दिश में जाता है, तो भी उसका पक्ष बदलने वाला नहीं है। कानून का हर फैसला न्यायपूर्ण हो यह जरूरी नहीं। हिन्दुओं को कानूनी फैसला नहीं, बल्कि वह न्याय चाहिए, जो उससे छीन लिया गया है।