कोई भी न्याय व्यवस्था सर्वथ दोषमुक्त नहीं हो सकती, फिर भी किसी भी समाज में उसे सर्वोच्च सम्मान दिया जाता है, क्योंकि उसके बिना कोई भी सामाजिक व्यवस्था चल ही नहीं सकती। लेकिन अपने देश में न्याय दोयम स्थान पर चला गया है, पहला स्थान राजनीति ने ले लिया है। आज देश के तमाम राजनेताओं का मानना है कि संसद भवन पर हमले दोषी पाए गए अफजल गुरु को दी गयी फांसी की सजा न्याय व प्रशासन की दृष्टि से भले ही सही हो, लेकिन राजनीति की दृष्टि से सही नहीं है। राजनेता ही नहीं, इस देश में ऐसे बुद्धिजीवियों की भी बड़ी फौज खड़ी हो गयी है, जो अपने निहित स्वार्थवश अपराधियों व राष्ट्र्द्रोहियों के दलाल बन गये हैं।
नवंबर 2008 के मुंबई हमले के अभियुक्त अजमल आमिर कसाब को मिली फांसी की सजा ने एकाएक दिसंबर 2001 में संसद भवन पर हुए हमले के एक अभियुक्त अफजल गुरु को मिली फांसी की सजा के मामले को उभार दिया है। कश्मीर के सोपोर निवासी अफजल गुरु को दिल्ली की सुनवाई अदालत ने संसद भवन पर हुए हमले का मुख्य सूत्रधार (मास्टर माइंड) माना था तथा 18 दिसंबर 2002 को उसे मौत की सजा सुनाई थी। 13 दिसंबर 2001 को हुए इस हमले को अदालत ने देश के खिलाफ युद्ध माना था तथा इसका षड्यंत्र करने के लिए अफजल गुरु को मुख्य अपराधी करार दिया था। दिल्ली हाईकोर्ट ने 29 अक्टूबर 2003 के फैसले में अफजल गुरु की मौत की सजा बरकरार रखी। 4 अगस्त 2005 को सर्वोच्च न्यायालय ने भी हाईकोर्ट के फैसले की समीक्षा करने के बाद अफजल गुरु की अपील खारिज कर दी और मौत की सजा बरकरार रखी। इसके बाद सत्र न्यायालय ने उसकी फांसी के लिए 20 अक्टूबर 2006 की तिथि निर्धारित कर दी। इस बीच अफजल गुरु की पत्नी की तरफ से राष्ट्र्पति के पास दया याचिका (मर्सी पिटीशन) भेजी गयी। राष्ट्र्पति भवन कार्यालय ने वह याचिका आवश्यक टिप्पणी के लिए केंद्र सरकार के गृहमंत्रालय को भेज दी। गृहमंत्रालय ने उसे दिल्ली सरकार के पास भेज दिया और दिल्ली सरकार उस पर कुंडली मारकर बैठ गयी।
बताया गया गृहमंत्रालय ने दिल्ली सरकार को रिमाडंडर पर रिमाइंडर भेजा, लेकिन दिल्ली सरकार ने सांस नहीं ली। अभी जब कसाब की सजा घोषित हुई, तो गृहमंत्रालय ने 16वां रिमाइंडर दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार को भेजा। पिछले हफ्ते शीला जी से जब पत्रकारों ने इसके बारे में पूछा, तो उन्होंने साफ मना कर दिया कि उन्हें केंद्रीय गृहमंत्रालय से कोई रिमाइंडर मिला है। उनका कहना था कि ऐसा कोयी पत्र आया होगा, तो वह उनकी सरकार के गृहविभाग के पास आया होगा। अब यहां यह ध्यातव्य है कि दिल्ली राज्य सरकार का गृहविभाग भी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के ही पास है।
इस सारी कहानी से ऐसा लगता है कि मानो अफजल गुरु की फांसी मं विलंब के लिए ‘शीला दीक्षित की सरकार ही दोषी है। यदि उसने समय से या तत्काल अपनी टिप्पणी भेज दी होती, तो अफजल की ‘दया याचिका’ का अब से चार साल पहले ही निपटारा हो गया होता, लेकिन ऐसा नहीं है। शीला दीक्षित का उस याचिका को अपनेपास दबाए रखना और केंद्रीय गृहविभाग के रिमाइंडरों की अनदेखी करना कांग्रेस की अपनी रणनीति का ही अंग रहा है। केंद्र और दिल्ली राज्य दोनों ही जगह 2006 से अब तक कांग्रेस का ही शासन है। यदि केंद्र सरकार को अफजल गुरु को फांसी देने या माफी देने की जल्दी होती, तो शीला दीक्षित फटाफट अपनी रिपोर्ट भेज देतीं। 1984 में कश्मीरी अलगाववादी मकबूल भट्ट को एक सिपाही की हत्या के अपराध में फांसी की सजा दी गयी थंी। उसकी भी माफी नामे की याचिका आयी थी, लेकिन मात्र एक दिन में ही रिपोर्ट की सारी कार्रवाई पूरी हो गयी थी और तिहाड़ जेल में उसे फटाफट फांसी पर चढ़ा दिया गया था। जाहिर है अफजल गुरुके मामले में जान बूझकर फांसी देने या न देने के फेसले को टालने की रणनीति अपनायी गयी। इसके लिए इससे बेहतर और क्या तरीका था कि दिल्ली की दीक्षित सरकार दया याचिका को अपने दफ्तर में दबाए रखे। गृहमंत्रालय रिमाइंडर भेजकर अपने कर्तव्य की खानापूरी करता रहे और दिल्ली सरकार यथास्थिति बनाए रखे। यदि केंद्रयी गृहमंत्रालय को वास्तव में दिल्ली सरकार की रिपोर्ट पाने की जल्दी होती, तो एक फोन कॉल पर यह काम हो जाता।
कसाब की सजा घोषित हो जाने के बाद दोनों ही सरकारों को लगा कि अब अफजल का मसला अवश्य उठेगा, तो केंद्रीय गृहमंत्रालय ने एक रिमाइंडर और भेजा तथा दिल्ली सरकार भी अपनी रिपोर्ट देने के लिए सक्रिय हुई। उसने संबंधित फाइल निकलवाई, उसकी धूल झाड़ी और इस पर अपनी टिप्पणी लिखी। लेकिन इसमें भ्ी राजनीति करने से बाज नहीं आयी। शीला दीक्षित की सरकार ने उस पर टिप्पणी लिखी कि उसे अफजल गुरु को फांसी दिये जाने पर कोई आपत्ति नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने उसे जो सजा दी है, उसका वह समर्थन करती है, लेकिन साथ ही यह भी लिखा कि यदि अफजल गुरु को फांसी दी जाती है, तो उसका कानून व्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस पर भी गंभीरता से विचार कर लिया जाए।
दिल्ली की कानून-व्यवस्था दिल्ली की राज्य सरकार के हाथा में नहीं है, वह केंद्र सरकार के पास है। इसलिए फांसी दिये जाने से कानून-व्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों की उन्हें कोई चिंता नहीं होनी चाहिए थी, फिर भी उन्होंने ऐसी टिप्पणी की। सरकार ने फाइल उपराज्यपाल तेजेंद्र खन्ना के पास भेजी। खन्ना ने कानून-व्यवस्था संबंधी टिप्पणी का स्पष्टीकरण मांगते हुए फाइल फिर सरकार को लौटा दी। खन्ना का कहना था कि कानून-व्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों से उनका क्या आशय है। शीला दीक्षित सरकार ने अपना कुछ स्पष्टीकरण देते हुए फाइल फिर उपराज्यपाल के पास भेज दी है। उनकी सरकार के सूत्रों के अनुसार मुख्यमंत्री नहीं चाहती थीं कि राष्ट्र्मंडल खेलों के पूर्व अफजल गुरु की फांसी का मामला उठे। अंतर्राष्ट्रीय खेल का यह प्रतिष्ठापूर्ण आयोजन शांति से निपट जाए, फिर जो कुछ हो उसके लिए सरकार कुछ अधिक चिंतित नहीं है। यहां यह उल्लेखनीय है कि अफजल गुरु को फांसी देने की बात पहले इस बहाने टाली गयी थी कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। चुनाव हुए भी, साल गुजर गये, फिर भी कुछ नहीं हुआ। अब राष्ट्र्कुल खेलों को बहाना बनाया जा रहा है।
यहां यह विशेष रूप् से उल्लेखनीय है कि अफजल गुरु की फांसी का मामला अब केवल कानूनी या प्रशासनिक नहीं, बल्कि राजनीतिक बन गया है। यही कारण है कि फांसी दिये जाने के सवाल पर स्वयं कांग्रेस पार्टी के नेता दो खेमों में बंटे नजर आ रहे हैं। पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह कहते हैं कि अफजल गुरु को फांसी देने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। यथाशीघ्र यह काम हो जाना चाहिए। लेकिन पार्टी के कई अन्य वरिष्ठ नेता इस राय से सहमत नहीं हैं। उनकी राय में अफजल गुरु को फांसी देना न्यास और प्रशासन की दृष्टि से सही हो सकता है, राजनीतिक दृष्टि से यह सही नहीं है। यदि अफजल गुरु को आजीवन कारावास की सजा दे दी जाए, तो इसमें भला क्यों आपत्ति होनी चाहिए।
भारतीय जनता पार्टी शयद देश की अकेली ऐसी राजनीतिक पार्टी है, जिसकी एक स्वर से मांग है कि अफजल गुरु को जल्द से जल्द फांसी पर लटकाया जाए। बाकी प्रायः सारी पार्टियां गोलमोल राय व्यक्त कर रही हैं। कांग्रेस ने तो बड़ी चतुराई से इस फेसले से अपना पल्ला झाड़ लिया है। पार्टी के प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा है कि अफजल गुरु की फांसी के बोर में राष्ट्र्पति, केंद्र सरकार तथा दिल्ली सरकार को फेसला लेना है। इस मामले से संबद्ध सारे तथ्य उनके पास हैं। पार्टी का इससे कोई लेना-देना नहीं है। यह सभी जानते हैं कि केंद्र में व दिल्ली राज्य में कांग्रेस की ही सरकार है और सरकार के नेतागण ही पार्टी के भी नेता हैं, फिर भी अभिषेक ने बड़ी मासूमियत के साथ पार्टी को इस फेसले से अलग कर लिया। दिल्ली सरकार की तरफ से भी यह कह दिया गया है कि किसी मौत की सजा प्राप्त अपराधी को माफी दिये जाने के संबंध में राज्य सरकार की राय अनिवार्य नहीं है, केंद्रीय गृहमंत्रालय स्वतंत्र रूप से इस पर निर्णय ले सकता है।
यहां एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि आखिर अफजल गुरु को फांसी की सजा दिये जाने का निर्णय इतना ऊहा पोह में क्यों है। शीला दीक्षित को कानून-व्यवस्था की चिंता क्यों सता रही है। कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए ही तो न्यायालय और दंड विधान बनाए गये हैं। कानून-व्यवस्था बनी रहे, इसके लिए ही तो न्यायालय अपराधी को सजा देते हैं। फिर ऐसी क्या बात है कि जिस व्यक्ति को तीनों स्तर की अदालतों ने अपराधी पाया है और उसके लिए मौत की सजा का प्रावधान किया है, उसे वह सजा देने में सरकार डांवाडोल हो रही है। यदि इससे कानून-व्यवस्था के बिगड़ने का खतरा है, तो वे कौन से लोग हैं, जो कानून व्यवस्था को खतरे में डालने का प्रयास करेंगे और क्यों।
क्या देश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्था संसद भवन पर हमला करना ऐसा कोई अपराध नहीं है, जिसके लिए हमले की साजिश रचने वाले को ऐसी कड़ी सजा दी जाए। आखिर वे कौन लोग हैं, जिनकी हमलावर के प्रति इतनी सहानुभूति है, किंतु संसद भवन की सुरक्षा के प्रति कोई लगाव नहीं। यह तो संयोग ही था कि हमलावरों की गोली से केवल 8 सुरक्षा कर्मी और एक माली ही मारा गया। अन्यथा उनकी योजना तो पूरा संसद भवन उड़ा देने की थी, जिसमें देश के प्रधानमंत्री से लेकर पूरा राजनीतिक नेतृत्व काल का ग्रास बन सकता था। हमलावरों ने इस हमले के लिए जिस कार का इस्तेमाल किया था, उसमें इतना विस्फोटक था, जिससे पूरा संसद भवन उड़ाया जा सकता था।
शायद कानून-व्यवस्था बिगड़ने की आशंका करने वालों का ख्याल है कि देश का मुस्लिम समुदाय इस पर अपनी उग्र प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकता है। जम्मू-कश्मीर में शायद सर्वाधिक उग्र प्रतिक्रिया का भय है। सर्वोच्च न्यायालय ने जब फांसी की सजा की पुष्टि की थी, उस समय जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री व कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद (इस समय केंद्रीय मंत्री), नेशलन कांफ्रेंस के नेता व राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला तथा पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की नेता महबूबा मुफ्ती ने अफजल गुरु के लिए माफी की अपील की थंी। फारुख अब्दुल्ला ने तो परोक्षतः यहां तक चेतावनी दे डाली थी कि अफजल गुरु को यदि फांसी दी गयी, तो कश्मीर में आग लग जाएगी और पूरा देश फिर एक बार हिन्दू-मुस्लिम खेमे में विभाजित हो जाएगा। उन्होंने यह आशंका भी व्यक्त की थी कि यदि फांसी दी गयी, तो उन जजों के लिए जान का खतरा भी पैदा हो सकता है, जिन्होंने अफजल गुरु को फांसी की सजा सुनायी है या उसकी पुष्टि की है।
1984 में मकबूल भट्ट को जब तिहाड़ में फांसी की सजा दी गयी थी, उस समय भी कश्मीर में व्यापक हिंसक उपद्रव हुए थे। कोई पूछ सकता है कि इसका कारण क्या है, तो इसका सीधा सा कारण है कि कश्मीरी अलगाववादी भारत सरकार की न्याय व्यवस्था में कोई विश्वास नहीं रखते। अफजल गुरु के बारे में भी कश्मीरियों में यह आम धरणा है कि वह निर्दोष है। उसका संसद पर हुए हमले से कोई लेना-देना नहीं है। पुलिस ने जान बूझकर उसे इस मामले में बलि का बकरा बनाया है। देश के कुछ वामपंथी बुद्धिजीवी व लेखकों ने पूरे देश के स्तर पर यह वातावरण बनाने की कोशिश की है कि अफजल गुरु के खिलाफ झूठा मामला गढ़कर उसे फांसी के फंदे तक पहुंचा दिया है। कई लेखकों का तो यहां तक आरोप है कि तत्कालीन भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने संसद भवन पर हुए इस हमले को पाकिस्तान पर हमला करने का बहाना बनाया था और 5 लाख सेना को पाकिस्तानी सेना पर ला खड़ा किया था। अरुंधती राय व प्रफुल्ल बिदवई जैसे लेखकों का कहना है कि अफजल गुरु को प्राकृतिक न्याय नहीं मिला है। न्यायालय ने भी उसके खिलाफ दिल्ली की भ्रष्ट व अक्षम पुलिस द्वारा गढ़ी गयी कहानी पर विश्वास करके फेसला सुना दिया।
अफजल गुरु की फांसी को टालने के लिए अभी कुछ बुद्धिजीवियों ने राष्ट्र्पति को एक आवेदन पत्र भेजकर उनसे संसद भवन पर हमले की दुबारा जांच कराने और अफजल गुरु को न्याय दिलाने की मांग की है। राष्ट्र्पति को भेजे गये इस पत्र पर अरुंधती राय, प्रफुल्ल बिदवई, आनंद पटवर्धन, नोआमा चोम्सकी, सिस्टर हेलेन फ्रेजियर, हर्षमंदार, एस.ए.आर. गिलानी, संदीप पांडेय, असगर अली इंजीनियर, जस्टिस सुरेश, गौतम नवलखा, वेद भसीन, जिया उद्दीन सरदार, राम पुनियानी, डायोन ब्रुंशा, ज्योति पुनवानी व अम्मू अब्राहम आदि के हस्ताक्षर हैं।
इन लेखकों व बुद्धिजीवियों का कहना है कि यदि अफजल गुरु को फांसी दी गयी, तो इससे अलगाववादी और मजबूत होंगे। इन लोगों ने उपर्युक्त कांड में पुलिस द्वारा की गयी जांच तथा एकत्रित सबूतों को सिरे से नकार दिया है। उनका कहना है कि यह अकेला ऐसा इतना बड़ा कांड है, जिसकी सम्यक रूप् से जांच नहीं करायी गयी। संसद पर हमला करने वाले कौन थे, उन्होंने ऐसा क्यों किया, इन सवालों का अब तक कोई विश्वसनीय जवाब नहीं दिया जा सकाहै। इस बात की भी प्रामाणिक ढंग से पुष्टि नहीं हो सकी कि हमला करने वाले पाकिस्तानी ही थे। वस्तुतः कुछ ढंके-छुपे ‘ाब्दों में वे वही करना चाहते, जो उस समय पाकिस्तान के कुछ अखबारों ने लिखा था कि यह हमला भाजपा के लोगों ने स्वयं कराया था, जिससे कि पाकिस्तान पर हमला करने का बहाना मिल सके।
हमले की जांच करने वाले पुलिस दल ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि हमला लश्कर-ए-तैयबा व जैश-ए-मोहम्मद ने मिलकर कराया था, जिसमें 8 सुरक्षा कर्मचारी (एक महिला कांस्टेबल सहित) तथा 5 हमलावर मारे गये। हमलावरों की पहचान स्पष्ट नहीं हो सकी, लेकिन उन्हें पाकिस्तानी माना गया। अफजल गुरु का सेलफोन नंबर सभी हमलावरों के पास पाया गया।
अफजल गुरु और कुछ हो चाहे न हो, लेकिन उसके कश्मीरी जिहादी होने में तो कोई संदेह नहीं है। वह पहले यासीन मलिक के अलगाववादी कश्मीरी संगठन जे.के.एल.एफ. (जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ) का सदस्य बना, फिर आतंकवाद का विधिवत प्रशिक्षा प्राप्त करने के लिए सीमा पार करके पाकस्तिान गया। वहां कुछ दिन रहने के बाद वह घुसपैठियों के एक दल के साथ फिर भारतीय कश्मीर क्षेत्र में आ गया। उसका आरोप है कि स्थानीय पुलिस उसे परेशान करती रही, इसलिए वह दिल्ली में अपने संबंधी अफसान गुरु के पास आ गया। यहीं उसका संपर्क एस.ए.आर. गिलानी से हुआ, जो जामिया इस्लामिया में अरबी का अध्यापक है। संसद पर हमले के मामले में सुनवाई अदालत ने अफजल के साथ एस.ए.आर. गिलानी तथा अफसान गुरु को भी मौत की सजा सुनायी थी, किंतु हाईकोर्ट ने गिलानी और अफसान गुरु को बरी कर दिया था। अब बहुत से राजनीतिक नेताओं का कहना है कि न्यायालय के एक फेसले को कार्यान्वित करने की अपेक्षा देश में शांति बनाए रखना ज्यादा जरूरी है। आज की स्थिति में यदि अफजल को फांसी दी जाती है, तो कश्मीर में जो सामान्य स्थिति पैदा हो रही है, वह फिर बिगड़ जाएगी और पाकिस्तान से दुबारा शुरू हुई शांति वार्ता भी खटाई में पड़ सकती है। इसलिए अफजल गुरु को फांसी देना इस समय राजनीतिक दृष्टि से उचित नहीं है।
अब यहां सवाल उठता है कि क्या देश की न्याय व्यवस्था भी अब राजनीति से संचालित होगी ? क्या न्यायाधीश कोई फेसला देते समय पहले यह निर्धारित करेंगे कि इसका राजनीतिक प्रभाव क्या पड़ेगा ? क्या किसी घोर अपराधी को भी मौत की सजा इसीलिए नहीं दी जा सकेगी कि इस पर उसकी जाति या धर्म के लोग हिंसक उपद्रव ‘ाुरू कर देंगे? क्या देश की राज्य व्यवस्था को लागू करने के आड़े आने वाली कानून-व्यवस्था की समस्या का मुकाबला नहीं कर सकती? क्या ऐसी किसी सरकार को देश पर शासन करने का अधिकार है ?
कुछ नेता, बुद्धिजीवी व संगठन इस आधार पर अफजल गुरु को क्षमादान किये जाने का समर्थन कर रहे हैं कि आज के सभ्य समाज में जान के बदले जान लेने की मध्यकालीन न्याय की अवधारणा का कोई औचित्य नहीं रह गया है। ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि न्याय व्यवस्था में किसी हत्यारे को मौत की सजा हत्या का बदला लेने के लिए नहीं दी जाती है, बल्कि यह सजा इसलिए दी जाती है कि लोग हत्या जैसा गंभीर अपराध करने से डरें, उससे बचने की कोशिश करें। सजा केवल अपराधी को सबक सिखाने के लिए नहीं दी जाती, बल्कि वह बाकी समाज के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए भी दी जाती है। उद्देश्य होता है अपराध के प्रति डर पैदा करना।
अफजल गुरु जैसे अपराधी किसी एक व्यक्ति की हत्या के दोषी नहीं हैं। उनकी कार्रवाई से कितनी मौतें हो सकती थीं, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। इस हमले द्वारा उन्होंने दो परमाणु शक्ति संपन्न देशों को युद्ध के मुहाने पर ला खड़ा किया था। अफजल गुरु जैसे लोगों के लिए क्षमादान की अपील वही कर सकता है, जो इतना संवेदनशून्य हो कि उसे संसद भवन की गरिमा तथा लोकतंत्र व राष्ट्र् की सुरक्षा का भी कोई बोध न हो।
सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत पहले से ही यह व्यवस्था दे रखी है कि हत्या के सामान्य अपराधों में मौत की सजा न दी जाए। हत्या की विरल में भी विरल स्थितियों में ही मौत की सजा दी जाए।
संसद भवन पर हमला विरलतम घटनाओं में से एक है, जिसमें 9 लोग तो मारे गये, लेकिन सैकड़ों ‘ाीर्ष राजनेताओं के मरने की संभावना थी। ऐसे मामले में भी यदि मौत की सजा दी जाएगी, तो फिर किस मामले में ऐसी सजा का इस्तेमाल होगा।
आमिर कसाब को फांसी की सजा देते हुए मुमबई विशेष न्यायाधीश तहलियानी ने लिखा था कि ऐसे व्यक्ति का जिंदा रहना देश के लिए खतरनाक है, क्योंकि आतंकवादी ऐसे व्यक्ति को छुड़ाने के लिए कंधार विमान अपहरण जैसा कांड कर सकते हैं। अफजल का जीवित रहना, कसाब से कम खतरनाक नहीं है।
यहाँ इस मुद्दे की भी एक कानूनी समीक्षा कर ली जानी चाहिए कि क्या राष्ट्र्पति अफजल गुरु जैसे अपराधी को क्षमादान दे सकती हैं। अभी हाल में ही आंध्र प्रदेश के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने एक फेसला दिया था (यहां यह उल्लेखनीय है कि राष्ट्र्पति की तरह राज्यपाल को भी किसी अपराधी को क्षमा करने या उसकी सजा कम करने का अधिकार है)। मामला था तत्कालीन राज्यपाल सुशील कुमार शिंदे का, जिन्होंने कांग्रेस के एक सजायाफ्ता अपराधी की सजा 10 वर्ष से घटाकर 5 वर्ष कर दी थी। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी टिप्पणी में लिखा था कि राष्ट्र्पति व राज्यपालों को मिले क्षमादान का अधिकार इसलिए नहीं है कि वे राजनीति के लिए या अन्य किसी मनमाने उद्देश्य के लिए इसका इस्तेमाल करें। राष्ट्र्पति या राज्यपालों के ऐसे निर्णयों की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।
शायद इन्हीं सारी कानूनी स्थितियों को देखते हुए अफजल गुरु की दया याचिका पर बिना कोई निर्णय लिए उन्हें जेल में पडे़ रहने देने की नीति अपनायी गयी थी। सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी का इसीलिए यह कहना है कि किसी अपराधी की क्षमादान याचिका पर निर्णय लेने के लिए संविधान में कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गयी है। इसलिए राष्ट्र्पति को किसी ऐसी याचिका पर शीघ्र निर्णय लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
राष्ट्र्पति के पास फिलहाल करीब 50 क्षमादान याचिकाएं विचाराधीन हैं। अफजल की याचिका 30वें नंबर पर है। यद्यपि ऐसा भी कोई नियम नहीं है कि इन याचिकाओं पर तिथिक्रम से ही निर्णय लिया जाए, लेकिन क्रम संख्या का आदर करना भी न्याय का एक तकाजा है, लेकिन कठिनाई यह है कि मुंबई हमले के अभियुक्त अजमल कसाब को फौरन फांसी पर चढ़ाने की मांग की जा रही है और यदि क्रम का आदर किया गया, तो 50 फांसियां होने के बाद उसका नंबर आएगा। कुछ राजनीतिक नेताओं का कहना है कि अफजल और अजमल की तुलना नहीं की जानी चाहिए। अजमल पाकिस्तानी है, यानी विदेशी है और अफजल अपने देश का है। लेकिन सवालहै कि क्या न्याय में भी देशी-विदेशी का भेदभाव किया जाना चाहिए।
वैसे सच यह है कि अजमल आमिर कसाब हो या अफजल गुरु। येसब भारत विरोधी जिहादी आतंकवाद के वटवृक्ष के पत्ते मात्र हैं। इन्हें कोई सी भी सजा देकर इस आतंकवाद को कमजोर नहीं कर सकते। लेकिन यह न्याय का तकाजा है कि इन्हें उचित सजा दी जाए, जिससे ऐसे दुस्साहस को हतोत्साहित किया जा सके। कसाब की तरह ही अफजल भी क्षमादान का पात्र नहीं है, क्योंकि उसे भी अपने किये का कोई पछतावा नहीं है। अफजल ने तो भारत के राष्ट्र्पति को क्षमादान की याचिका देने से भी इनकार कर दिया था, क्योंकि वह उनके अधिकारों को कोई मान्यता ही नहीं देता। इसलिए उसकी पत्नी की तरफ से यह याचिका भेजी गयी। क्षमा उसे दी जा सकती है, जो अपने किये पर पश्चाताप करता हो और जिसके सुधरने की कोई गुंजाइश हो। अफजल व अजमल जैसे लोगों के लिए इसका कोई औचित्य नहीं है।
सोमवार, 24 मई 2010
राजनीतिक बदलाव की राह पर ब्रिटेन
2010 के संसदीय चुनाव ने ब्रिटिश राजनीति में एक नये युग का सूत्रपात किया है। कल तक जिसकी कल्पना भी कठिन थी, उसका व्यवहार में अवतरण हुआ है। सिद्धांततः दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ी राजनीतिक पार्टियों कंजर्वेटिव व लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टियों के युवा नेताओं डेविड कैमरन तथा निक क्लेग (दोनों की आयु 43 वर्ष) ने देश साझा सरकार बनाकर एक नई तरह की राजनीति की शुरुआत की है। कहना कठिन है कि यह सरकार कब तक चलेगी। चल भी पाएगी या नहीं। लेकिन दोनों ने प्रारंभिक दौर में जिस तरह की समझदारी का प्रदर्शन किया है, उससे ऐसी आशा बंधती है कि शायद न केवल यह सरकार पूरे पांच वर्ष चले, बल्कि एक नई राजनीतिक संस्कृति का भी विकास करे, जो न केवल ब्रिटेन के कायापलट में सहायक हो, बल्कि उसके राजनीतिक अनुयायी अन्य लोकतांत्रिक देशों के लिए भी प्रेरणादायक सिद्ध हो सके।
अपने देश भारत की राजनीतिक स्थिति तो सबके सामने है। लोग स्वयं उसका अनुभव कर रहे हैं। मगर अब देख रहे हैं कि जिस महान देश से हमने अपनी राजनीतिक प्रणाली उधार ली है, वहां भी हालात ठीक नहीं है। 6 मई 2010 को हुए ब्रिटिश संसद के चुनाव में किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका। त्रिशंकु संसद की स्थिति बनी, दो परस्पर विरोधी विचारधारा वाले दल निकट आए और उन्होंने राजनीतिक स्थिरता के लिए एक साझा सरकार कायम करने का निश्चय किया। दोनों ने अपने सिद्धांतों और लक्ष्यों से कुछ समझौता किया- कुछ अपना छोड़ा, कुछ दूसरे का अपनाया और 11 मई को, करीब 65 वर्षों के बाद डेविड कैमरून के नेतृत्व में कंजर्वेटिव और लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी की एक साझा सरकार अस्तित्व में आयी। इसके बारे में अभी से संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि क्या यह सरकार चल पाएगी। यद्यपि प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने दावा किया है कि यह सरकार पूरे पांच साल चलेगी, किंतु राजनीतिक विश्लेषकों को उनके दावे पर भरोसा नहीं है। कई की तो राय है कि यह सरकार एक साल भी चल जाए, तो बहुत है। कुछ और भी दिन चल जाए तो भी इसके पूरे पांच साल खिंचने की तो उम्मीद नहीं है, यानी अगला आम चुनाव समय से पहले ही हो सकता है। और यदि यह सरकार पूरे पांच साल चल गयी, तो आज की ब्रिटिश राजनीति में यह एक चमत्कार होगा।
ब्रिटेन में गत 13 वर्षों से लेबर पार्टी का शासन था। टोनी ब्लेयर ने वर्षों से हाशिए में पड़ी लेबर पार्टी की नीतियों में सुधार करके उसे ब्रिटिश् मध्यवर्ग की आकांक्षाओं के अनुकूल बनाया, जिसका परिणाम हुआ कि 1997 के चुनाव में कंंजर्वेटिव पार्टी की जगह लेबर पार्टी की सत्ता कायम हुई और ब्लेयर एक चमत्कारी लेबर नेता के तौर पर प्रधानमंत्री बने। लेकिन इराक पर हुए हमले में अमेरिका का साथ देने के निर्णय ने उनकी लोकप्रियता कम कर दी और उन्हें अभी तीन साल पहले सत्ता से हटना पड़ा और गार्डन ब्राउन सत्ता में आए। किंतु ब्राउन भी लेबर सरकार की छवि संभाल नहीं सके और 2010 के इस चुनाव में इस पार्टी को 1918 के बाद सबसे कम सीटें मिली हैं। उसे 90 सीटों का घाटा हुआ और केवल 258 सीटों पर संतोष करना पड़ा।
चुनाव में पराजित होने के बाद भी ब्राउन अभी कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ साझेदारी की बात चलायी, लेकिन बात बन नहीं सकी। लिबरल डेमोक्रेट नेता दोनों तरफ संपर्क साधे हुए थे। एक तरफ वे लेबर नेताओं से बातचीत कर रहे थे, दूसरी तरफ कंजर्वेटिव पार्टी के कर्णधरों से भी सौदेबाजी चल रही थी। अंत में कजर्वेटिव और लिबरल डेमोक्रेट्स के बीच पटरी बैठ गयी। शायद इसमें इन दोनों पार्टियों के युवा नेताओं की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका थी। कंजर्वेटिव नेता डेविड कैमरून और लिबरल डेमोके्रटिक पार्टी के निक क्लेग दोनों की पार्टियों की राजनीतिक विचारधारा में कितना भी फर्क क्यों न हो, लेकिन दोनों की पारिवारिक पृष्ठभूमि व शिक्षा दीक्षा लगभग समान है। दोनों ही अभिजात वर्ग से आते हैं और संयोग से दोनों की आयु भी समान 43 वर्ष है। यों ब्रिटिश कानून के अनुसार वहां कंजर्वेटिव की अल्पमत सरकार भी चल सकती थी, किंतु राजनीतिक स्थिरता के लिए यह साझेदारी का प्रयोग अपनाया गया। ब्रिटेन की कंजर्वेटिव पार्टी दक्षिण पंथी (सेंटर राइट) झुकाव वाली पार्टी मानी जाती है। लेबर पार्टी तो वामपंथी झुकाव वाली पार्टी है ही। इधर यूरोप में कुछ ऐसी हवा चल रही है कि वामपंथी झुकाव वाली पार्टियां कूड़े में फेंक दी जा रही हैं। ब्रिटेन के साथ फ्रांस, जर्मनी व इटली में भी यह रुख देखा जा सकता है। फ्रांस में सरकोजी, जर्मनी में मर्केल तथा इटली में बर्लुस्कोनी का सत्ता में आना इसका प्रमाण है। ये सभी दक्षिणपंथी झुकाव वाले नेता है। लेकिन साथ ही यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अर्थव्यवस्था की खराब स्थिति को लेकर पूरे यूरोप में असंतोष बढ़ रहा है, जिसका स्वाद सरकोजी और मर्केल को भी क्षेत्रीय चुनावों में चखना पड़ा है। इससे यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पार्टियों की विचारधारा अब बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह गयी है। महत्वपूर्ण यह है कि कौनसी पार्टी जनता का जीवन स्तर बेहतर बना सकती है या कौनसी वैसा करने में विफल रहती है। 2010 के इस चुनाव में प्रचार के दौरान लेबर पार्टी के नेताओं का कंजर्वेटिव पार्टी के नेता पर सबसे बड़ा हमला यही था कि वे ब्रिटिश अभिजात वर्ग से आते हैं, वे देश की आम जनता की समस्याओं को क्या जाने। उनका कभी आम आदमी से संपर्क तक नहीं हुआ। यद्यपि यही बात लिबरल डेमोक्रेट नेता निक क्लेग के बारे में भी कही जा सकती है, लेकिन उनकी पार्टी की छवि आम आदमी से जुड़ी है। कैररून एक ‘स्टॉक ब्रोकर‘ (शेयर दलाल) के बेटे हैं और यदि उनकी वंश परंपरा को देखें, तो वह सीधे ब्रिटिश राजवंश की श्रंृखला से जुड़े हुए हैं। उनके ग्रेटx५ ग्रैंडफादर‘ किंग विलियम चतुर्थ थे, जो महारानी विक्टोरिया के चाचा थे। रानी डोरोथिया जार्डन (जिनकी वंश परंपरा में डेविड कैमरून आते हैं) उनकी वैध पत्नी नहीं थीं, इसलिए उनके वंशज गद्दी के हकदार नहीं हुए, लेकिन रक्त परंपरा से वह ब्रिटिश राजवंश के ही प्रतिनिधि माने जाते हैं। कैमरून की शिक्षा-दीक्षा भी एटॉन व आक्सफोर्ड जैसे प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में हुई। आक्सफोर्ड में उन्होंने दर्शन राजनीति एवं अर्थशास्त्र का अध्ययन किया तथा प्रथम श्रेणी आनर्स की स्नातक उपाधि प्राप्त की। क्लेग भी एक बैंकर के बेटे हैं। रईस बाप के बेटों की तरह उन्हें भी प्रारंभिक शिक्षा प्राइवेट ट्यूशन द्वारा घर पर ही मिली, लेकिन बाद में उच्च शिक्षा कैम्ब्रिज जैसे प्रतिष्ठान से प्राप्त की। इस तरह की सामाजिक व पारिवारिक पृष्ठभूमि तथा आयु की समानता के कारण बहुत से लोगों का अनुमान है कि कैमरून तथा क्लेग एक अच्छी राजनीतिक जोड़ी के रूप में प्रतिष्ठित हो सकते हैं।
कैमरून ब्रिटेन के इतिहास में पिछले 198 वर्षों में अब तक के सबसे युवा प्रधानमंत्री हैं। 11 मई को प्रधानमंत्री का पद ग्रहण करने के बाद गुरुवार 14 मई को जब वह प्रधानमंत्री निवास (10 डाउनिंग स्ट्र्ीट) के ‘कैबिनेट रूम‘ में पहंचे, तो उन्होंने उस क्षण के ऐतिहासिक महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि इस कक्ष में 65 वर्षों के बाद किसी साझा सरकार की कैबिनेट बैठक होने जा रही है। द्वितीय विश्वयुद्धकाल में ब्रिटेन में सभी दलों की मिली जुली राष्ट्र्ीय सरकार (नेशनल यूनिटी गवर्नमेंट) स्थापित की गयी थी, जिसके प्रधानमंत्री विस्टन चर्चिल थे। 1945 में एटली के नेतृत्व में लेबर पार्टी की नई सरकार कायम हुई थी। तब से अब तक किसी एक पार्टी की एकल सरकार ही बनती आयी थी, वह चाहे कंजर्वेटिव पार्टी की हो या लेबर पार्टी की। लिबरल डेमोक्रेट्स को अब तक कभी सत्ता सुख चखने का मौका नहीं मिला था। 1988 में अपने वर्तमान रूप में (लिबरल पार्टी तथा सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के विलय से बनी) आने के बाद यह पहला अवसर है, जब उसे सत्ता मेंे भागीदारी का अवसर मिल रहा है। ब्रिटेन में 1918 तक किसी तीसरी पार्टी की मान्यता नहीं थी। बाद में प्रसिद्ध व्यक्ति स्वातंत्र्यवादी दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल के विचारों की प्रेरणा से लिबरल पार्टी का जन्म हुआ। इसका मूल लक्ष्य व्यक्ति के अपने व्यक्तिक अधिकारों की रक्षा का था। मिल की किताब ‘आॅन लिबर्टी‘ इस पार्टी का एक तरह से धर्मगं्रथ ही रहा। 1980 में लेबर पार्टी से टूटकर निकले एक धड़े ने ‘सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी‘ के नाम से एक पार्टी बनायी। लेकिन बाद में लिबरल पार्टी व सोशल डेमोक्रेटिक नेताओं ने अनुभव किया कि देश में चैथी राजनीतिक पार्टी के लिए जगह नहीं है, तो दोनों ने परस्पर गठबंधन कर लिया। और अंततः उन्होंने 1988 में परस्पर विलय करके लिबरल डेमोक्रेटिक (लिब-डेम) पार्टी बनायी।
ब्रिटेन के दीर्घकालिक लोकतांत्रिक राजनीति में सचमुच यह एक अपूर्व राजनीतिक अवसर है, जब देश की राजनीति के विपरीत ध्रुवों पर खड़ी राजनीतिक पार्टियों ने हाथ मिलाया हो। कैमरून शायद इसीलिए यह बार-बार दोहरा रहे हैं कि ‘यह एक नई तरह की सरकार होगी‘, ब्रिटेन में यह ‘एक नई राजनीति‘ की शुरुआत है। शुक्रवार को जब वह नवगठित कैबिनेट की पहली बैठक में पहुंचे, तो वह उत्साह व उत्तेजना से लबरेज थे। उनका आह्वान था कि अब हमें अपने सभी पुराने सैद्धांतिक मतभेदों को भुलाकर आगे की राजनीति को देखना चाहिए। हमें छूट देने और समझौता करने (कंसेशंस एंड कंप्रोमाइज) की रजानीति पर आगे बढ़ना है।
नवगठित कैबिनेट में कंजर्वेटिव पार्टी के 18 तथा लिब-डेम के 5 सदस्य हैं। 5 कैबिनेट सीटें लिब-डेम के पास चले जाने पर कंजर्वेटिव नेताओं के सीने पर सांप लोटना स्वाभाविक है, लेकिन समझौते के लिए कुछ तो त्याग करना ही पड़ेगा। कंजर्वेटिव नेताओं को इससे भी जलन हो रही है कि लिब-डेम के नेता क्लेग को भी उनके अपने नेता कैमरून के लगभग समकक्ष दर्जा प्राप्त है। क्लेग को उपप्रधानमंत्री का दर्जा दिया गया है और समान आयु के नाते दोनों ही एक-दूसरे को उनके प्रथम नाम से ही पुकारते हैं।
खैर, अब सरकार तो बन गयी है, लेकिन उसे अब उन चुनौतियों का मुकाबला करना है, जो उनके सामने मुंह फैलाए खड़ी है। कैमरून ने इस चुनौती के मुकाबले की शुरुआत कैबिनेट की अपनी पहली बैठक से ही कर दी है। देश के सामने सबसे गंभीर समस्या भारी बजट घाटे की है। वर्तमान समय में यह घाटा 250 अबर डॉलर से अधिक का है। यह शायद देश के कुल बजट के 13 प्रतिशत से भी अधिक है। इस घाटे को कम करने के लिए जरूरी है कि सरकारी खर्चे कम किये जाएं तथा आमदनी बढ़ाने के उपाय किये जाएं। खर्चे में कटौती कल्याण योजनाओं में कमी करके ही हो सकती है और आमदनी बढ़ाने के लिये नये कर लगाना पड़ेगा। कैबिनेट ने खर्चे कम करने की प्रतीकात्मकम शुरुआत मंत्रियों के वेतन में 5 प्रतिशत की कटौती का निर्णय लेकर की। इस कटौती से प्रधानमंत्री के वेतन में करीब 2,10,000 डॉलर की कमी आएगी। कैबिनेट की राय में 2014 तक इस बजट घाटे में कम से कम 60 से 70 अरब डॉलर की कमी किये जाने की जरूरत है। दिक्कत यही है कि सारी कल्याणकारी योजनाओं में एक साथ कटौती नहीं की जा सकती। बल्कि ‘राष्ट्र्ीय स्वास्थ्य सेवा‘ योजना का बजट बढ़ाये जाने की जरूरत है।आर्थिक के बाद दूसरी सबसे बड़ी चुनौती बीमार राजनीतिक प्रणाली में सुधार की है। राजनीतिक प्रणाली में कई तरह के सुधारों के प्रस्ताव हैं। लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी का एक बड़ा चुनावी वायदा चुनाव प्रणाली में सुधर का है। राजनीतिक स्थिरता के लिए संसद का कार्यकाल स्थिर करने का भी प्रस्ताव है। अपने देश में भी जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहली साझा सरकार कायम हुई थी, तो संविधान व चुनाव प्रणाली में सुधार के अनेक प्रस्ताव सामने आए थे। संसद का कार्यकाल स्थिर करने का भी एक सुझाव था। लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ पांच वर्ष के नियमित अंतराल पर कराये जाने के मामले को लेकर मीडिया में काफी बहसें भी हुईं। अमेरिकी शैली की राष्ट्र्पतीय शासन प्रणाली अपनाने के सुझाव भी सामने आये। लेकिन ये सारे प्रस्ताव और सुझाव धीरे-धीरे डूब गये, क्योंकि बहुदलीय शासन प्रणाली में उभरे तमाम छोटे-छोटे दलों के लिए वर्तमान स्थिति ही सर्वाधिक हितकर लगती है। अब तो कोई चुनाव प्रणाली में सुधार तक की बात नहीं करता, लेकिन ब्रिटेन में इस समय यह चर्चा काफी गर्म है। चुनाव खर्चों पर नियंत्रण की बात भी तेजी से उठायी जा रही है। उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया को लेकर भी मंथन चल रहा है। इस मामले पर कंजर्वेटिव व लिबरल डेमोक्रेट्स के बीच सीधी टक्कर की स्थिति पैदा हो सकती है।
एक तीसरी बड़ी चुनौती यूरोपीय संघ से संबंधों को लेकर है। कंजर्वेटिव पार्टी हमेशा ही ब्रिटेन की स्वतंत्र सत्ता की हिमायती रही है। वह ब्रिटेन को यूरोपीय संघ में विलीन करने के सख्त खिलाफ है। अंतर्राष्ट्र्ीय संबंधों में इसीलिए ब्रिटेन यूरोपीय देशों के बजाए अमेरिका के अधिक निकट रहता है। ब्रिटेन अपनी मुद्रा, अपनी राजनीतिक सत्ता तथा अपनी स्वतंत्र पहचान को बनाए रखने के प्रति अधिक आग्रही है। वह युरोपीय संघ का सदस्य होकर भी व्यवहार में उससे बाहर ही है। ब्रिटेन की यह मानसिकता वास्तव में उस ब्रिटिश अभिजात वर्ग की मानसिकता है, जिसका प्रतिनिधित्व कंजर्वेटिव पार्टी करती है। यह वर्ग अभी भी मानसिक स्तर पर उसी ब्रिटिश साम्राज्यवादी युग में जी रहा है, जब उसकी साम्राज्य सीमा में सूर्य कभी अस्त नहीं होता था। लिबरल डेमोके्रटिक पार्टी का नेतृत्व यूरोप के साथ अधिक घनिष्ठता कायम करने का पक्षधर है। उसकी राय में ब्रिटेन को अमेरिका का पिछलग्गू बनने के बजाए यूरोपीय देशों के साथ रहना चाहिए।
लगता है डेविड कैमरून यूरोप के मामले में अपनी पार्टी की पुरानी नीति त्यागकर लिबरल डेमोक्रेट्स की नीति अपनाना चाहते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री पद ग्रहण करने के तुरंत बाद तमाम यूरोपीय राष्ट्र्ाध्यक्षों से फोन पर बात की। उन्होंने अभी सरकार गठित करने का काम पूरा करने के पहले ही जर्मनी की चांसलर एजेंला मार्केल को फोन किया और साझा सरकार के गठन के बारे में उनकी सलाह मांगी। बुधवार के उन्होंने फ्रांस के राष्ट्र्पति निकोलस सरकोजी से फोन पर बात की और फ्रांस के प्रसिद्ध नेता चाल्र्स दे गाल के 1940 में दिये गये ऐतिहासिक भाषण के वार्षिक स्मृति समारोह के अवसर पर उन्हें लंदन आने का निमंत्रण दिया। कैमरून की निश्चय ही यह एक अच्छी पहल थी। इससे लिबरल डेमोक्रेट्स का विश्वास जितने में मदद मिल सकती है। किंतु आर्थिक व राजनीतिक विशेषकर, चुनावी सुधारों को लेकर दोनों पार्टियों के बीच टकराव पैदा होने की पूरी संभावना है।
आर्थिक मसले ऐसे हैं, जहां समृद्ध अभिजात वर्ग के हित आम आदमी के हितों से टकराते हैं। जैसे कैमरून ने अपने मतदाताओं से वायदा किया था कि संपत्ति के उत्तराधिकार पर लगने वाला कर कम करेंगे, लेकिन लिबरल डेमोक्रेट्स इसके खिलाफ हैं। इस रियायत से केवल समृद्ध वर्ग लाभान्वित होगा, जिसको वर्तमान आर्थिक संकट के समय कोई रियायत देने की जरूरत नहीं है। इसी तरह क्लेग को बड़ी-बड़ी संपत्तियों पर कर (मैनसन टैक्स) लगाने की अपनी योजना को छोड़ना पड़ा, क्योंकि इससे कंजर्वेटिव पार्टी के बहुत से समर्थक नाराज हो जाते।
इस रविवार को लिबरल डेमोक्रेट्स का एक सम्मेलन होने जा रहा है। इसमें निक क्लेग नई सरकार की नीतियों को स्पष्ट करेंगे। कई ब्रिटिश राजनीतिक समीक्षकों ने इसके संदर्भ में 2006 के उनके सम्मेलन को याद किया है। उस सम्मेलन में जब किसी ने यह सवाल उठाया था कि क्या कभी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी का कंजर्वेटिव पार्टी के साथ समझौता हो सकता है, तो कहा गया था यह एक काल्पनिक प्रश्न है, जिसका व्यावहारिक राजनीति से कोई संबंध नहीं है। लेकिन आज यह काल्पनिक प्रश्न यथार्थ में बदल चुका है। दोनों पार्टियां न केवल साझा सरकार बना रही हैं, बल्कि वे अपने नीतियों और सिद्धांतों का भी संलयन कर रहे हैं।
यहां भारत के संदर्भ में सवाल उठाया जा सकता है कि क्या भारत आज की स्थिति में ब्रिटेन से कुछ सीखने की कोशिश कर सकता है। एक छोटे से देश में मात्र तीन पार्टियों की राजनीतिक व्यवस्था ने अस्थिरता की स्थिति खड़ी कर दी, किंतु आज परस्पर विरोधी सिद्धांतों वाली पार्टियां भी राष्ट्र््ीय हत को केंद्र में रखकर अपने सिद्धांतों में बदलाव का चिंतन कर रहे हैं। वे चुनाव प्रणाली तथा संवैधानिक व्यवस्था में आमूल बदलाव लाने के लिए सन्नद्ध है। क्या हमारे नेताओं को अपनी राष्ट्र्ीय जरूरतों के अनुसार राजनीतिक प्रणाली में बदलाव की कोई पहल नहीं करनी चाहिए। (16-5-2010)
अपने देश भारत की राजनीतिक स्थिति तो सबके सामने है। लोग स्वयं उसका अनुभव कर रहे हैं। मगर अब देख रहे हैं कि जिस महान देश से हमने अपनी राजनीतिक प्रणाली उधार ली है, वहां भी हालात ठीक नहीं है। 6 मई 2010 को हुए ब्रिटिश संसद के चुनाव में किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका। त्रिशंकु संसद की स्थिति बनी, दो परस्पर विरोधी विचारधारा वाले दल निकट आए और उन्होंने राजनीतिक स्थिरता के लिए एक साझा सरकार कायम करने का निश्चय किया। दोनों ने अपने सिद्धांतों और लक्ष्यों से कुछ समझौता किया- कुछ अपना छोड़ा, कुछ दूसरे का अपनाया और 11 मई को, करीब 65 वर्षों के बाद डेविड कैमरून के नेतृत्व में कंजर्वेटिव और लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी की एक साझा सरकार अस्तित्व में आयी। इसके बारे में अभी से संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि क्या यह सरकार चल पाएगी। यद्यपि प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने दावा किया है कि यह सरकार पूरे पांच साल चलेगी, किंतु राजनीतिक विश्लेषकों को उनके दावे पर भरोसा नहीं है। कई की तो राय है कि यह सरकार एक साल भी चल जाए, तो बहुत है। कुछ और भी दिन चल जाए तो भी इसके पूरे पांच साल खिंचने की तो उम्मीद नहीं है, यानी अगला आम चुनाव समय से पहले ही हो सकता है। और यदि यह सरकार पूरे पांच साल चल गयी, तो आज की ब्रिटिश राजनीति में यह एक चमत्कार होगा।
ब्रिटेन में गत 13 वर्षों से लेबर पार्टी का शासन था। टोनी ब्लेयर ने वर्षों से हाशिए में पड़ी लेबर पार्टी की नीतियों में सुधार करके उसे ब्रिटिश् मध्यवर्ग की आकांक्षाओं के अनुकूल बनाया, जिसका परिणाम हुआ कि 1997 के चुनाव में कंंजर्वेटिव पार्टी की जगह लेबर पार्टी की सत्ता कायम हुई और ब्लेयर एक चमत्कारी लेबर नेता के तौर पर प्रधानमंत्री बने। लेकिन इराक पर हुए हमले में अमेरिका का साथ देने के निर्णय ने उनकी लोकप्रियता कम कर दी और उन्हें अभी तीन साल पहले सत्ता से हटना पड़ा और गार्डन ब्राउन सत्ता में आए। किंतु ब्राउन भी लेबर सरकार की छवि संभाल नहीं सके और 2010 के इस चुनाव में इस पार्टी को 1918 के बाद सबसे कम सीटें मिली हैं। उसे 90 सीटों का घाटा हुआ और केवल 258 सीटों पर संतोष करना पड़ा।
चुनाव में पराजित होने के बाद भी ब्राउन अभी कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ साझेदारी की बात चलायी, लेकिन बात बन नहीं सकी। लिबरल डेमोक्रेट नेता दोनों तरफ संपर्क साधे हुए थे। एक तरफ वे लेबर नेताओं से बातचीत कर रहे थे, दूसरी तरफ कंजर्वेटिव पार्टी के कर्णधरों से भी सौदेबाजी चल रही थी। अंत में कजर्वेटिव और लिबरल डेमोक्रेट्स के बीच पटरी बैठ गयी। शायद इसमें इन दोनों पार्टियों के युवा नेताओं की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका थी। कंजर्वेटिव नेता डेविड कैमरून और लिबरल डेमोके्रटिक पार्टी के निक क्लेग दोनों की पार्टियों की राजनीतिक विचारधारा में कितना भी फर्क क्यों न हो, लेकिन दोनों की पारिवारिक पृष्ठभूमि व शिक्षा दीक्षा लगभग समान है। दोनों ही अभिजात वर्ग से आते हैं और संयोग से दोनों की आयु भी समान 43 वर्ष है। यों ब्रिटिश कानून के अनुसार वहां कंजर्वेटिव की अल्पमत सरकार भी चल सकती थी, किंतु राजनीतिक स्थिरता के लिए यह साझेदारी का प्रयोग अपनाया गया। ब्रिटेन की कंजर्वेटिव पार्टी दक्षिण पंथी (सेंटर राइट) झुकाव वाली पार्टी मानी जाती है। लेबर पार्टी तो वामपंथी झुकाव वाली पार्टी है ही। इधर यूरोप में कुछ ऐसी हवा चल रही है कि वामपंथी झुकाव वाली पार्टियां कूड़े में फेंक दी जा रही हैं। ब्रिटेन के साथ फ्रांस, जर्मनी व इटली में भी यह रुख देखा जा सकता है। फ्रांस में सरकोजी, जर्मनी में मर्केल तथा इटली में बर्लुस्कोनी का सत्ता में आना इसका प्रमाण है। ये सभी दक्षिणपंथी झुकाव वाले नेता है। लेकिन साथ ही यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अर्थव्यवस्था की खराब स्थिति को लेकर पूरे यूरोप में असंतोष बढ़ रहा है, जिसका स्वाद सरकोजी और मर्केल को भी क्षेत्रीय चुनावों में चखना पड़ा है। इससे यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पार्टियों की विचारधारा अब बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह गयी है। महत्वपूर्ण यह है कि कौनसी पार्टी जनता का जीवन स्तर बेहतर बना सकती है या कौनसी वैसा करने में विफल रहती है। 2010 के इस चुनाव में प्रचार के दौरान लेबर पार्टी के नेताओं का कंजर्वेटिव पार्टी के नेता पर सबसे बड़ा हमला यही था कि वे ब्रिटिश अभिजात वर्ग से आते हैं, वे देश की आम जनता की समस्याओं को क्या जाने। उनका कभी आम आदमी से संपर्क तक नहीं हुआ। यद्यपि यही बात लिबरल डेमोक्रेट नेता निक क्लेग के बारे में भी कही जा सकती है, लेकिन उनकी पार्टी की छवि आम आदमी से जुड़ी है। कैररून एक ‘स्टॉक ब्रोकर‘ (शेयर दलाल) के बेटे हैं और यदि उनकी वंश परंपरा को देखें, तो वह सीधे ब्रिटिश राजवंश की श्रंृखला से जुड़े हुए हैं। उनके ग्रेटx५ ग्रैंडफादर‘ किंग विलियम चतुर्थ थे, जो महारानी विक्टोरिया के चाचा थे। रानी डोरोथिया जार्डन (जिनकी वंश परंपरा में डेविड कैमरून आते हैं) उनकी वैध पत्नी नहीं थीं, इसलिए उनके वंशज गद्दी के हकदार नहीं हुए, लेकिन रक्त परंपरा से वह ब्रिटिश राजवंश के ही प्रतिनिधि माने जाते हैं। कैमरून की शिक्षा-दीक्षा भी एटॉन व आक्सफोर्ड जैसे प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में हुई। आक्सफोर्ड में उन्होंने दर्शन राजनीति एवं अर्थशास्त्र का अध्ययन किया तथा प्रथम श्रेणी आनर्स की स्नातक उपाधि प्राप्त की। क्लेग भी एक बैंकर के बेटे हैं। रईस बाप के बेटों की तरह उन्हें भी प्रारंभिक शिक्षा प्राइवेट ट्यूशन द्वारा घर पर ही मिली, लेकिन बाद में उच्च शिक्षा कैम्ब्रिज जैसे प्रतिष्ठान से प्राप्त की। इस तरह की सामाजिक व पारिवारिक पृष्ठभूमि तथा आयु की समानता के कारण बहुत से लोगों का अनुमान है कि कैमरून तथा क्लेग एक अच्छी राजनीतिक जोड़ी के रूप में प्रतिष्ठित हो सकते हैं।
कैमरून ब्रिटेन के इतिहास में पिछले 198 वर्षों में अब तक के सबसे युवा प्रधानमंत्री हैं। 11 मई को प्रधानमंत्री का पद ग्रहण करने के बाद गुरुवार 14 मई को जब वह प्रधानमंत्री निवास (10 डाउनिंग स्ट्र्ीट) के ‘कैबिनेट रूम‘ में पहंचे, तो उन्होंने उस क्षण के ऐतिहासिक महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि इस कक्ष में 65 वर्षों के बाद किसी साझा सरकार की कैबिनेट बैठक होने जा रही है। द्वितीय विश्वयुद्धकाल में ब्रिटेन में सभी दलों की मिली जुली राष्ट्र्ीय सरकार (नेशनल यूनिटी गवर्नमेंट) स्थापित की गयी थी, जिसके प्रधानमंत्री विस्टन चर्चिल थे। 1945 में एटली के नेतृत्व में लेबर पार्टी की नई सरकार कायम हुई थी। तब से अब तक किसी एक पार्टी की एकल सरकार ही बनती आयी थी, वह चाहे कंजर्वेटिव पार्टी की हो या लेबर पार्टी की। लिबरल डेमोक्रेट्स को अब तक कभी सत्ता सुख चखने का मौका नहीं मिला था। 1988 में अपने वर्तमान रूप में (लिबरल पार्टी तथा सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के विलय से बनी) आने के बाद यह पहला अवसर है, जब उसे सत्ता मेंे भागीदारी का अवसर मिल रहा है। ब्रिटेन में 1918 तक किसी तीसरी पार्टी की मान्यता नहीं थी। बाद में प्रसिद्ध व्यक्ति स्वातंत्र्यवादी दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल के विचारों की प्रेरणा से लिबरल पार्टी का जन्म हुआ। इसका मूल लक्ष्य व्यक्ति के अपने व्यक्तिक अधिकारों की रक्षा का था। मिल की किताब ‘आॅन लिबर्टी‘ इस पार्टी का एक तरह से धर्मगं्रथ ही रहा। 1980 में लेबर पार्टी से टूटकर निकले एक धड़े ने ‘सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी‘ के नाम से एक पार्टी बनायी। लेकिन बाद में लिबरल पार्टी व सोशल डेमोक्रेटिक नेताओं ने अनुभव किया कि देश में चैथी राजनीतिक पार्टी के लिए जगह नहीं है, तो दोनों ने परस्पर गठबंधन कर लिया। और अंततः उन्होंने 1988 में परस्पर विलय करके लिबरल डेमोक्रेटिक (लिब-डेम) पार्टी बनायी।
ब्रिटेन के दीर्घकालिक लोकतांत्रिक राजनीति में सचमुच यह एक अपूर्व राजनीतिक अवसर है, जब देश की राजनीति के विपरीत ध्रुवों पर खड़ी राजनीतिक पार्टियों ने हाथ मिलाया हो। कैमरून शायद इसीलिए यह बार-बार दोहरा रहे हैं कि ‘यह एक नई तरह की सरकार होगी‘, ब्रिटेन में यह ‘एक नई राजनीति‘ की शुरुआत है। शुक्रवार को जब वह नवगठित कैबिनेट की पहली बैठक में पहुंचे, तो वह उत्साह व उत्तेजना से लबरेज थे। उनका आह्वान था कि अब हमें अपने सभी पुराने सैद्धांतिक मतभेदों को भुलाकर आगे की राजनीति को देखना चाहिए। हमें छूट देने और समझौता करने (कंसेशंस एंड कंप्रोमाइज) की रजानीति पर आगे बढ़ना है।
नवगठित कैबिनेट में कंजर्वेटिव पार्टी के 18 तथा लिब-डेम के 5 सदस्य हैं। 5 कैबिनेट सीटें लिब-डेम के पास चले जाने पर कंजर्वेटिव नेताओं के सीने पर सांप लोटना स्वाभाविक है, लेकिन समझौते के लिए कुछ तो त्याग करना ही पड़ेगा। कंजर्वेटिव नेताओं को इससे भी जलन हो रही है कि लिब-डेम के नेता क्लेग को भी उनके अपने नेता कैमरून के लगभग समकक्ष दर्जा प्राप्त है। क्लेग को उपप्रधानमंत्री का दर्जा दिया गया है और समान आयु के नाते दोनों ही एक-दूसरे को उनके प्रथम नाम से ही पुकारते हैं।
खैर, अब सरकार तो बन गयी है, लेकिन उसे अब उन चुनौतियों का मुकाबला करना है, जो उनके सामने मुंह फैलाए खड़ी है। कैमरून ने इस चुनौती के मुकाबले की शुरुआत कैबिनेट की अपनी पहली बैठक से ही कर दी है। देश के सामने सबसे गंभीर समस्या भारी बजट घाटे की है। वर्तमान समय में यह घाटा 250 अबर डॉलर से अधिक का है। यह शायद देश के कुल बजट के 13 प्रतिशत से भी अधिक है। इस घाटे को कम करने के लिए जरूरी है कि सरकारी खर्चे कम किये जाएं तथा आमदनी बढ़ाने के उपाय किये जाएं। खर्चे में कटौती कल्याण योजनाओं में कमी करके ही हो सकती है और आमदनी बढ़ाने के लिये नये कर लगाना पड़ेगा। कैबिनेट ने खर्चे कम करने की प्रतीकात्मकम शुरुआत मंत्रियों के वेतन में 5 प्रतिशत की कटौती का निर्णय लेकर की। इस कटौती से प्रधानमंत्री के वेतन में करीब 2,10,000 डॉलर की कमी आएगी। कैबिनेट की राय में 2014 तक इस बजट घाटे में कम से कम 60 से 70 अरब डॉलर की कमी किये जाने की जरूरत है। दिक्कत यही है कि सारी कल्याणकारी योजनाओं में एक साथ कटौती नहीं की जा सकती। बल्कि ‘राष्ट्र्ीय स्वास्थ्य सेवा‘ योजना का बजट बढ़ाये जाने की जरूरत है।आर्थिक के बाद दूसरी सबसे बड़ी चुनौती बीमार राजनीतिक प्रणाली में सुधार की है। राजनीतिक प्रणाली में कई तरह के सुधारों के प्रस्ताव हैं। लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी का एक बड़ा चुनावी वायदा चुनाव प्रणाली में सुधर का है। राजनीतिक स्थिरता के लिए संसद का कार्यकाल स्थिर करने का भी प्रस्ताव है। अपने देश में भी जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहली साझा सरकार कायम हुई थी, तो संविधान व चुनाव प्रणाली में सुधार के अनेक प्रस्ताव सामने आए थे। संसद का कार्यकाल स्थिर करने का भी एक सुझाव था। लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव एक साथ पांच वर्ष के नियमित अंतराल पर कराये जाने के मामले को लेकर मीडिया में काफी बहसें भी हुईं। अमेरिकी शैली की राष्ट्र्पतीय शासन प्रणाली अपनाने के सुझाव भी सामने आये। लेकिन ये सारे प्रस्ताव और सुझाव धीरे-धीरे डूब गये, क्योंकि बहुदलीय शासन प्रणाली में उभरे तमाम छोटे-छोटे दलों के लिए वर्तमान स्थिति ही सर्वाधिक हितकर लगती है। अब तो कोई चुनाव प्रणाली में सुधार तक की बात नहीं करता, लेकिन ब्रिटेन में इस समय यह चर्चा काफी गर्म है। चुनाव खर्चों पर नियंत्रण की बात भी तेजी से उठायी जा रही है। उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया को लेकर भी मंथन चल रहा है। इस मामले पर कंजर्वेटिव व लिबरल डेमोक्रेट्स के बीच सीधी टक्कर की स्थिति पैदा हो सकती है।
एक तीसरी बड़ी चुनौती यूरोपीय संघ से संबंधों को लेकर है। कंजर्वेटिव पार्टी हमेशा ही ब्रिटेन की स्वतंत्र सत्ता की हिमायती रही है। वह ब्रिटेन को यूरोपीय संघ में विलीन करने के सख्त खिलाफ है। अंतर्राष्ट्र्ीय संबंधों में इसीलिए ब्रिटेन यूरोपीय देशों के बजाए अमेरिका के अधिक निकट रहता है। ब्रिटेन अपनी मुद्रा, अपनी राजनीतिक सत्ता तथा अपनी स्वतंत्र पहचान को बनाए रखने के प्रति अधिक आग्रही है। वह युरोपीय संघ का सदस्य होकर भी व्यवहार में उससे बाहर ही है। ब्रिटेन की यह मानसिकता वास्तव में उस ब्रिटिश अभिजात वर्ग की मानसिकता है, जिसका प्रतिनिधित्व कंजर्वेटिव पार्टी करती है। यह वर्ग अभी भी मानसिक स्तर पर उसी ब्रिटिश साम्राज्यवादी युग में जी रहा है, जब उसकी साम्राज्य सीमा में सूर्य कभी अस्त नहीं होता था। लिबरल डेमोके्रटिक पार्टी का नेतृत्व यूरोप के साथ अधिक घनिष्ठता कायम करने का पक्षधर है। उसकी राय में ब्रिटेन को अमेरिका का पिछलग्गू बनने के बजाए यूरोपीय देशों के साथ रहना चाहिए।
लगता है डेविड कैमरून यूरोप के मामले में अपनी पार्टी की पुरानी नीति त्यागकर लिबरल डेमोक्रेट्स की नीति अपनाना चाहते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री पद ग्रहण करने के तुरंत बाद तमाम यूरोपीय राष्ट्र्ाध्यक्षों से फोन पर बात की। उन्होंने अभी सरकार गठित करने का काम पूरा करने के पहले ही जर्मनी की चांसलर एजेंला मार्केल को फोन किया और साझा सरकार के गठन के बारे में उनकी सलाह मांगी। बुधवार के उन्होंने फ्रांस के राष्ट्र्पति निकोलस सरकोजी से फोन पर बात की और फ्रांस के प्रसिद्ध नेता चाल्र्स दे गाल के 1940 में दिये गये ऐतिहासिक भाषण के वार्षिक स्मृति समारोह के अवसर पर उन्हें लंदन आने का निमंत्रण दिया। कैमरून की निश्चय ही यह एक अच्छी पहल थी। इससे लिबरल डेमोक्रेट्स का विश्वास जितने में मदद मिल सकती है। किंतु आर्थिक व राजनीतिक विशेषकर, चुनावी सुधारों को लेकर दोनों पार्टियों के बीच टकराव पैदा होने की पूरी संभावना है।
आर्थिक मसले ऐसे हैं, जहां समृद्ध अभिजात वर्ग के हित आम आदमी के हितों से टकराते हैं। जैसे कैमरून ने अपने मतदाताओं से वायदा किया था कि संपत्ति के उत्तराधिकार पर लगने वाला कर कम करेंगे, लेकिन लिबरल डेमोक्रेट्स इसके खिलाफ हैं। इस रियायत से केवल समृद्ध वर्ग लाभान्वित होगा, जिसको वर्तमान आर्थिक संकट के समय कोई रियायत देने की जरूरत नहीं है। इसी तरह क्लेग को बड़ी-बड़ी संपत्तियों पर कर (मैनसन टैक्स) लगाने की अपनी योजना को छोड़ना पड़ा, क्योंकि इससे कंजर्वेटिव पार्टी के बहुत से समर्थक नाराज हो जाते।
इस रविवार को लिबरल डेमोक्रेट्स का एक सम्मेलन होने जा रहा है। इसमें निक क्लेग नई सरकार की नीतियों को स्पष्ट करेंगे। कई ब्रिटिश राजनीतिक समीक्षकों ने इसके संदर्भ में 2006 के उनके सम्मेलन को याद किया है। उस सम्मेलन में जब किसी ने यह सवाल उठाया था कि क्या कभी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी का कंजर्वेटिव पार्टी के साथ समझौता हो सकता है, तो कहा गया था यह एक काल्पनिक प्रश्न है, जिसका व्यावहारिक राजनीति से कोई संबंध नहीं है। लेकिन आज यह काल्पनिक प्रश्न यथार्थ में बदल चुका है। दोनों पार्टियां न केवल साझा सरकार बना रही हैं, बल्कि वे अपने नीतियों और सिद्धांतों का भी संलयन कर रहे हैं।
यहां भारत के संदर्भ में सवाल उठाया जा सकता है कि क्या भारत आज की स्थिति में ब्रिटेन से कुछ सीखने की कोशिश कर सकता है। एक छोटे से देश में मात्र तीन पार्टियों की राजनीतिक व्यवस्था ने अस्थिरता की स्थिति खड़ी कर दी, किंतु आज परस्पर विरोधी सिद्धांतों वाली पार्टियां भी राष्ट्र््ीय हत को केंद्र में रखकर अपने सिद्धांतों में बदलाव का चिंतन कर रहे हैं। वे चुनाव प्रणाली तथा संवैधानिक व्यवस्था में आमूल बदलाव लाने के लिए सन्नद्ध है। क्या हमारे नेताओं को अपनी राष्ट्र्ीय जरूरतों के अनुसार राजनीतिक प्रणाली में बदलाव की कोई पहल नहीं करनी चाहिए। (16-5-2010)
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