क्रिसमस: एक गैर ईसाई उत्सव का ईसाईकरण
प्राचीन रोम में इस उत्सव को 'सैटर्नेलिया' के नाम से मनाया जाता था, जो सात दिनों तक चलता था और इसका समापन उसी दिन होता था, जिस दिन २५ दिसंबर पड़ता था| यह भारतीय होली की तरह का मौजमस्ती एवं निर्बाध आनंद का उत्सव था| इन दिनों वहॉं कानून भी स्थगित रहता था और हर तरह की उच्छृंखल मनमानी की छूट थी| यों सैटर्नेलिया का त्यौहार शनि देवता के नाम पर मनाया जाता था, लेकिन शनि को चूँकि सूर्य का पुत्र माना जाता है, इसलिए सूर्योपासना के साथ इसका भी साहचर्य कुछ असंगत नहीं था|
ईसा का अपना लिखा कोई एक शब्द भी आज प्राप्त नहीं है| उनके जीवन काल का किसी दूसरे का भी कोई लेख प्राप्त नहीं है| किसी समकालीन इतिहास में भी उनका उल्लेख नहीं है| आज उनके बारे में जो कुछ भी जानकारी उपलब्ध है, उसका एकमात्र स्रोत ईसाइयों की पारंपरिक कथाएँ (गास्पेल्स) हैं, जो बाइबिल (न्यू टेस्टामेंट) में संकलित हैं| इस बाइबिल की पहली किताब अथवा पहली कथा ६०-८०ए.डी. के बीच कभी लिखी गई| यह ईसा की पहली जीवनी थी, जो उनके शिष्य मार्क ने लिखी| इसे मार्क की कथा (मार्क्स गास्पेल) के नाम से जाना जाता है| इसके आधार पर ही संभवतः मैथ्यू और ल्यूक के गास्पेल लिखे गए| मार्क के जीवनी लेखन के करीब तीन दशक पूर्व (संभवतः ३३ ए.डी.) ही ईसा को सूली पर चढ़ा दिया गया था| स्पष्ट है कि ईसा की आज जो भी कहानियॉं या उनके जो भी उपदेश प्राप्त हैं, वे उनके शिष्यों द्वारा स्मृति के आधार पर संकलित किए गए हैं|
ईसा (जीसस ऑफ नजारेथ) शुरू में एक यहूदी धर्म प्रचारक थे| संभवतः २७-२८ ए.डी. में जॉन नामक एक धर्मगुरु ने ईसा को दीक्षा दी (वपतिस्मा कराया)| उसके बाद वह विधिवत प्रचार करने लगे| लेकिन वह सुधारवादी थे| उन्होंने यहूदी धर्म की रूढ़ियों को स्वीकार नहीं किया| वह उसमें बदलाव की बातें करने लगे| उन्होंने कुछ अपने अनुभव व चिंतन की बातें भी जोड़ीं, जो अद्भुत थीं| जैसे कि उन्होंने कहा कि 'अपने शत्रु को भी प्यार करो', 'सर्दी से कोई कॉंप रहा हो, तो अपना कंबल उसे दे दो', 'जो कमजोर हैं, उन्हें उच्च पद प्राप्त होगा' अथवा 'धनी व्यक्तियों के लिए स्वर्ग में जगह नहीं है'| उनका शुभ समाचार तेजी से फैलने लगा| उनका संदेश था कि विश्वास और प्रेम से मुक्ति प्राप्त हो सकती है| वह रोमन साम्राज्य के बाहरी हिस्से में एक छोटी सी जगह पर अपना प्रचार कर रहे थे| लेकिन गरीब और कमजोर वर्ग में उनकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी| चरवाहे, गड़रिये, मछुआरे बड़ी संख्या में उनके अनुयायी बन रहे थे| यहूदी धर्म में राजा ही ईश्वर का प्रतिनिधि था, लेकिन ईसा राजा या सम्राट को कोई महत्व नहीं देते थे| धनी और शक्तिशाली यहूदी भी उनसे नाराज थे| इसलिए सम्राट को जब इसकी जानकारी मिली, तो उन्होंने इस नए धर्म संदेश को कुचलने के लिए उसके प्रचारक ईसा को ही सूली पर चढ़वा दिया| उस सूली पर से वह कैसे बचे और फिर कहॉं गए, यह अभी भी विवाद का विषय बना हुआ है| किंतु उसके बाद वह शायद भारत की तरफ चले आए और यहॉं कश्मीर में रहने लगे| संभवतः यहीं उनका निधन भी हुआ|
वास्तव में ईसा के जन्म के बाद उनके बपतिस्मा लेने (३०-३५ वर्ष की आयु तक) तक और फिर क्रॉस पर चढ़ाए जाने (क्रूसिफिकेशन) के बाद मृत्यु पर्यंत तक के उनके जीवन की कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है| यह अनुमान किया जाता है कि वह अपने प्रारंभिक युवाकाल में भारत की तरफ आ गए थे| (उनके किसी समय गंगा के तट पर आने की पुष्टि बाइबिल कथाओं से भी होती है) | उनके दर्शन और संदेश पर भारत के बौद्ध और जैनमत का भारी प्रभाव है| प्रारंभिक ईसाई संतों का जीवन भी जैन मुनियों की तरह का कठोर तप वाला रहा है| इससे भारतीय संतों के साथ उनके संपर्क का अनुमान सत्य के काफी निकट प्रतीत होता है|
आज दुनिया में करीब दो अरब लोग अपने को ईसा का अनुयायी मानते हैं और ईसाई मत के करीब २० हजार संप्रदाय दुनिया में सक्रिय हैं| ये सभी लोग २५ दिसंबर को ईसा के जन्मदिन के रूप में मनाते हैं| सवाल उठता है कि यह २५ दिसंबर ईसा का जन्मदिन कैसे बन गया और प्रायः पूरी दुनिया में एक वार्षिक समारोह के रूप में मनाया जाने लगा|
ईसा पहले मात्र एक सदुपदेशक थे| क्रूसिफिकेशन के समय भी वह साधारण मनुष्यों में से ही एक थे, किंतु जब वह एक धर्मप्रवर्तक के रूप में स्थापित हो गए और उनका धर्म संगठित रूप ले चुका, तब उनका ईश्वर के साथ विशेष संबंध जोड़ दिया गया| कहा गया कि वह ईश्वर के अपने बेटे थे, जो मनुष्यों के उद्धार के लिए धरती पर पैदा हुए| ईसाई तिथिक्रम के अनुसार ३२५ ए.डी. सम्राट कोंस्टैंटाइन (जिन्होंने सर्वप्रथम ईसा के धर्म को रोम का राजधर्म बनाया और स्वयं भी उसकी दीक्षा ली) के मंत्रियों की परिषद ने ईश्वर के साथ उनके संंबंधों को परिभाषित किया| इसके भी करीब एक शताब्दी बाद मेरी का विधिवत देवीकरण हुआ और उनकी भी उपासना शुरू हो गई| ईसाइयों के अपने ही इतिहास के अनुसार चर्च ने ४४० ए.डी. में योजना बनाकर पश्चिम एशिया तथा मध्य यूरोप में प्रचलित शारदीय उत्सव को ईसा का जन्मदिन घोषित कर दिया| २२ दिसंबर की तिथि ऐसी होती है, जब पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में दिन सबसे छोटा और रात सबसे बड़ी होती है| इसका अर्थ यह कि इस दिन सूर्य भूमध्य रेखा के दक्षिण में सर्वाधिक दूरी पर होता है| इसके बाद वह उत्तर की ओर खिसकने लगता है और उत्तरी गोलार्ध में दिन धीरे-धीरे बढ़ने लगता है और रात छोटी होने लगती है| दिन का बड़ा होना वसंत के आगमन का परिचायक है, इसलिए धरती के प्रायः पूरे उत्तरी भाग में इस अवसर पर विशेष भोज और उत्सव का आयोजन किया जाता रहा है| इस उत्सव का किसी धर्म विशेष या देवता विशेष से संबंध नहीं था| हॉं, चूँकि यह सूर्य से संबंधित उत्सव था इसलिए मित्र (सूर्य) देव की उपासना की जाती थी| ईसाई चर्च तथा राजाओं ने इस स्वाभाविक उत्सव को ईसा के जन्म से जोड़कर एक धार्मिक उत्सव बना दिया| यह युक्ति ईसाई धर्म के प्रचार में बहुत सहायक बनी| धीरे-धीरे इस उत्सव में ईसाई धर्म के अन्य प्रतीक शामिल होते चले गए| सूर्य के उत्तर की ओर आगमन का उत्सव ईसा के जन्मदिन के उत्सव में बदल गया| यह दुनिया की अपने ढँग की अनूठी घटना है कि एक पारंपरिक उत्सव को किसी धर्म विशेष का उत्सव बना लिया जाए|
ईसा की करुणा और दया की ओट लेकर दुनिया भर में ईसाइयों ने क्या-क्या किया है, यह प्रत्यक्ष इतिहास की वस्तु है, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि आज भी विश्व में न केवल ईसाई मत स्थिर है, बल्कि वह और मजबूत भी होता जा रहा है| बीसवीं सदी को ईसाई धर्म के लिए सबसे बड़ा खतरा समझा जाता रहा है, क्योंकि वह वैज्ञानिक उत्कर्ष की सदी रही है| ईसाई धर्म की, सृष्टि उत्पत्ति से लेकर पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म तथा मुक्ति आदि की सारी अवधारणा अवैज्ञानिक सिद्ध होती है| लोकतांत्रिक विचारधारा के युग में धार्मिक ऊँच-नीच की ईसाई भावना टिक सकेगी, इसका विश्वास ही नहीं किया जा सकता है| ईसाई धर्मगुरु आज २१वीं शदी में भी यह कह रहे हैं कि ईसाई धर्म और उसमें भी रोमन कैथोलिक धर्म ही दुनिया के सभी धर्मों में श्रेष्ठ है| दुनिया के सारे अन्य धर्म उससे हीन या छोटे हैं| मानव की मुक्ति केवल ईसाई धर्म से ही संभव है| बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि इस शताब्दी के अंत में या उसके बाद भी कभी कोई पोप इस तरह की बात कहेगा और लोग बिना किसी प्रतिक्रिया के उसे स्वीकार कर लेंगे|
वास्तव में यह ईसा के करुणामय व्यक्तित्व का ही प्रभाव है कि उनके अनुयायियों के तमाम विपरीत कर्मों के बावजूद ईसाई धर्म फल-फूल रहा है| करुणा, दया एवं भ्रातृत्व की मनुष्यता को सदैव आवश्यकता रहेगी, इसलिए इन उदात्त मानवीय मूल्यों के प्रतीक बने ईसा सदैव पूजनीय बने रहेंगे| उनका जन्मदिन कुछ भी हो, लेकिन कमजोर को सहारा देकर उसके लिए स्वर्ग में स्थान सुरक्षित रखने वाले नजारेथ के इस महात्मा को दुनिया शायद कभी भी भूल नहीं सकेगी| हॉं उनके अनुयायियों को चाहिए कि क्रिसमस के इस आनंदोत्सव पर अपनी संकीर्णता के परित्याग का संकल्प लें तथा अन्य धर्मों, उनके महापुरुषों तथा देवी-देवताओं का भी आदर करना सीखें|
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