'स्लट वॉक' : नारी मुक्ति का नया आयाम

'स्लट वाक' फेमिनिस्ट आंदोलन के तीसरे चरण का सर्वाधिक चर्चित अभियान रहा है| यह स्त्री की पारंपरिक, सती सावित्री छवि तथा प्रतिष्ठा के विरुद्ध नई स्त्री की नवस्वतंत्रता का उद्घोष है| आश्चर्य है कि अब स्त्री स्वतंत्रता का एक ही अर्थ रह गया है- उसकी यौन स्वतंत्रता| समाज से अपेक्षा है कि वह न केवल इसका सम्मान करे, बल्कि इसे सुरक्षा भी प्रदान करे|
'स्लट वाक' फेमिनिस्ट आंदोलन के तीसरे चरण का सर्वाधिक चर्चित अभियान रहा है| यह स्त्री की पारंपरिक, सती सावित्री छवि तथा प्रतिष्ठा के विरुद्ध नई स्त्री की नवस्वतंत्रता का उद्घोष है| आश्चर्य है कि अब स्त्री स्वतंत्रता का एक ही अर्थ रह गया है- उसकी यौन स्वतंत्रता| समाज से अपेक्षा है कि वह न केवल इसका सम्मान करे, बल्कि इसे सुरक्षा भी प्रदान करे|
अभी करीब दो वर्ष पहले २४ जनवरी २०११ को कनाडा की 'योर्क यूनिवर्सिटी' में अपराध नियंत्रण पर आयोजित एक गोष्ठी में पुलिस के एक अधिकारी कांस्टेबल माइकेल सैग्विनेटीन ने स्त्रियों के विरुद्ध अपराधों की चर्चा करते हुए कहा कि 'मुझसे यह कहा गया है कि मुझे यह नहीं कहना चाहिए (फिर भी कह रहा हूँ) कि स्त्रियों को (अपनी सुरक्षा के लिए) किसी 'स्लट' की तरह कपड़े नहीं पहनने चाहिए| यह पूरी सदाशयता के साथ तथा बड़े संकोच के साथ दिया गया वक्तव्य था| 'स्लट' का आशय अपना शरीर प्रदर्शन करके पुरुषों को सेक्स के लिए आकर्षित करने वाली, चरित्रहीन या गंदी औरत है| ऐसी स्त्री, जिसके लिए 'सेक्स' की कोई वर्जना नहीं, विवाह की कोई मर्यादा नहीं तथा जो किसी के लिए कभी भी सेक्स के लिए उपलब्ध हो, उसे अंगे्रजी में 'स्लट', 'व्होर' आदि की संज्ञा दी गई है| भारतीय भाषा में इसका अनुवाद 'रंडी' के रूप में किया जा सकता है|
सैग्विनेटीन की इस टिप्पणी पर तत्काल स्त्रीवादी समूह की तर' से बड़ी उग्र प्रतिक्रिया हुई| इसके विरुद्ध ३ अप्रैल २०११ को टोरंटो के क्वींस पार्क में लोग एकत्र हुए और टोरंटो के पुलिस मुख्यालय तक जुलूस निकाल कर प्रदर्शन किया| इस जुलूस को 'स्लट वॉक' की संज्ञा दी गई| इसमें शामिल स्त्रियॉं अपने हाथ में तख्तियॉं लिए हुए थीं| 'हॉं मैं स्लट हूँ' (यस आई एम अ स्लट)| यह विरोध प्रदर्शन तेजी से बाहर फैला और लंदन, मास्को, पेरिस, न्यूयार्क जैसे अमेरिकी एवं यूरोपीय शहरों में ही नहीं, आस्टे्रलिया व एशिया, सिडनी, सिंगापुर, क्वालालंपुर, हांगकांग आदि में भी स्त्रियों ने 'स्लट वॉक' किया| इन प्रदर्शनों में बहुत-सी स्त्रियों ने वास्तव में 'स्लट' जैसे वस्त्र पहन कर अपना विरोध व्यक्त किया| भारत में दिल्ली, भोपाल, लखनऊ तथा मुंबई में ऐसे प्रदर्शन हुए| यहॉं की स्त्रियों ने 'स्लट' का हिंदी में अनुवाद करने का प्रयास किया, जिसे उसकी अपील अधिक से अधिक स्त्रियों तक पहुँच सके| बहुत सोच-विचार के बाद इसे 'बेशर्मी मोर्चा' नाम दिया गया| स्त्रीवादी लेखिका जेसिका वैलेंटी के अनुसार 'स्लट वॉक' गत २० वर्षों में स्त्रीवादी आंदोलन की सबसे सफल कार्रवाई सिद्ध हुआ| स्त्रीवाद के तृतीय चरण के आंदोलन के विश्वव्यापी विस्तार में इस कार्रवाई की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही| जेसिका (२९) का 'फेमिनिस्टिंग ब्लॉग' बहुत चर्चित है| उनकी चार किताबें 'फुल फ्रंटल फेमेनिज्म' (२००७), 'ही इज ए स्टड', 'शी इज ए स्लट' (२००८) तथा 'प्योरिटी मिथ' (२००९) भी स्त्रीवादी आंदोलन का धर्मग्रंथ बनी हुई हैं|
भारत में इस 'स्लट वॉक' या 'बेशर्मी मोर्चा' की प्रेरक तथा संयोजक रीता बनर्जी रहीं, जो 'वूमन ऐज इंडिविजुअल' की चर्चित लेखिका हैं| रीता का नारा है कि 'सुरक्षा और निजी पसंद (चॉइस)' स्त्रियों का मूल अधिकार है, जिसमें कोई भी -यानी कि परिवार भी- हस्तक्षेप नहीं कर सकता | निजी चॉइस का आशय है कि शरीर मेरा है, तो उसके उपयोग का अधिकार भी मेरा है| समाज को इसमें इस्तक्षेप नहीं, बल्कि इसकी सुरक्षा की गारंटी देनी चाहिए|
भारत में पहला 'बेशर्मी मोर्चा' १७ जुलाई २०११ को भोपाल में आयोजित हुआ| दिल्ली का नंबर बाद में ३१ जुलाई को आया| उसके बाद २३ अगस्त को लखनऊ की आधुनिकाओं ने अपना 'बेशर्मी मोर्चा' खोला| बैंगलोर में भी इसके आयोजन की घोषणा की गई, लेकिन पुलिस के हस्तक्षेप के कारण वह रुक गया| यह रोचक है कि 'टोरंटो' की हवा लंदन से भी पहले भारत और वह भी भोपाल पहुँची, जिसे बहुत आधुनिक नहीं माना जाता| लंदन में पहला 'स्लट वॉक' २ सितंबर को हो सका|
इन सभी प्रदर्शनों में पुलिस के खिलाफ सर्वाधिक नारेबाजी हुई| कहा गया कि पुलिस को स्त्रियों को सलाह देने के बजाए रेपिस्टों से कहना चाहिए कि वे संयम बरतें, नहीं तो जेल की हवा खानी पड़ेगी|
ऐसा नहीं कि इन प्रदर्शनों की प्रतिक्रिया में चर्चाएँ नहीं हुईं, लेकिन मीडिया में उन्हें कोई मुखर अभिव्यक्ति नहीं मिली| 'स्लट वॉक' में शामिल स्त्रियों का कहना है कि हमारे कम या पारदर्शी कपड़े कोई बलात्कार का निमंत्रण तो नहीं| कपड़ों की आलोचना करना तो बलात्कार की शिकार 'स्त्री' को ही दोषी सिद्ध करना है| क्या हमारे कम कपड़े पहनने से बलात्कार का अपराध हल्का हो जाता है| इसकी प्रतिकिया में एक ब्रिटिश पत्रकार ने लिखा कि 'हमें इसका पूरा अधिकार है कि हम अपने घर की खिड़की खुली छोड़कर बाजार चले जाएँ| ऐसा करने का यह भी अर्थ नहीं कि मैं चाहता हूँ कि मेरे घर में चोरी हो जाए, या कि मैं चोरों को निमंत्रित कर रहा हूँ कि आओ यहॉं चोरी करो| इसका यह भी अर्थ नहीं कि खुली खिड़की देखकर यदि कोई व्यक्ति अंदर घुसकर चोरी करता है, तो चोरी का उसका अपराध कम हो जाता है| खुली खिड़की देखकर वह चोरी के लिए प्रेरित हुआ, यह कहकर वह अपनी सजा में किसी रियायत की मॉंग नहीं कर सकता| फिर भी क्या चोरी से बचने के लिए यह सलाह देना गलत है कि घर से बाहर जाएँ तो दरवाजा खिड़की बंद करके जाएँ| क्या किसी राज्य में इस स्तर की पुलिस व्यवस्था हो सकती है कि वह हर घर की हर खिड़की-दरवाजे की रखवाली कर सके|'
कानून निर्माताओं के साथ स्त्रियों को भी यह समझना चाहिए कि प्रकृति से ही पुरुष की मानसिकता इस तरह बनाई गई है कि वह स्त्री की तरफ आकर्षित हो| यह उसकी आंतरिक रासायनिक प्रतिक्रिया तथा जेनेटिक प्रोग्रामिंग से नियंत्रित है| यह किसी में अधिक हो सकती है, किसी में कम| किंतु कामेच्छा किसी पुरुष की सर्वाधिक शक्तिशाली आकांक्षा या अति उत्कट मनोवृत्ति है| शिक्षा, संस्कारों, साधना तथा कानून या समाज के भय से वह इस पर संयम कर सकता है, लेकिन समाज के सारे पुरुषों से इस संयम की अपेक्षा नहीं की जा सकती| सारी पुरुष जनसंख्या का सभ्यता का स्तर इतना ऊँचा नहीं हो सकता कि वह हर समय अपना संयम बनाए रख सके| भारतीय शास्त्रों, पुराणों तथा काव्यों में काम को मनुष्य के संयम का सबसे बड़ा शत्रु कहा गया है, जिसके आगे भगवान शिव जैसे महायोगी भी अपने संयम की रक्षा नहीं कर सके| हर तरह के प्रलोभनों को जीत लेने वाले तपस्वियों का तप भंग करने के लिए देवता्रगण कामशक्ति यानी स्त्री का प्रयोग किया करते थे| और प्रायः हर स्थिति में यह अस्त्र कारगर होता ही था| कुल मिलाकर आशय यह है कि पुरुष के संयम और पुलिस की सुरक्षा व्यवस्था के सहारे संपूर्ण स्त्री समुदाय को हर जगह, हर समय सुरक्षा प्राप्त नहीं हो सकती|
यहॉं यह कहने का कतई यह आशय नहीं है कि पुरुष को संयमी नहीं होना चाहिए या कानून को कठोर नहीं होना चाहिए या कि पुलिस को पूर्ण सुरक्षा की गारंटी देने के लिए आगे नहीं आना चाहिए, बल्कि आशय यह है कि स्त्रियों को अपनी सुरक्षा के प्रति स्वयं भी सावधान रहना चाहिए| पूरी दुनिया की पुलिस अपनी वेबसाइटों पर स्त्रियों को इसी तरह की सलाह दे रही हैं| यद्यपि 'फेमिनिस्ट' वर्ग इसे भी स्त्रियों के विरुद्ध पुरुषों की साजिश करार दे रहा है, किंतु समाज की स्त्रियों का बड़ा वर्ग भी इन 'स्लट वॉक' वाली स्त्रियों का समर्थक नहीं है|
यह सही है कि 'सेक्स' या 'यौन संबंध' के मामलों में 'चरित्रहीनता' का कोई अर्थ नहीं रह गया| 'चरित्र' की पुरानी परिभाषा अर्थहीन हो गई है| कम से कम 'सेक्स' के मामले में तो अवश्य उसकी नई परिभाषा गढ़ी जानी चाहिए| आज 'सेक्स' के लिए विवाह के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं रह गई है| 'स्त्रियॉं' भी 'मल्टीपार्टनर सेक्स' की मांग कर रही हैं| यह भी मांग उठ रही है कि संतान के लिए पिता के नाम की आवश्यकता समाप्त की जाए| दो बूँद वीर्य तो कहीं से हासिल हो सकता है| संतान को अपना रक्त मॉंस देकर पैदा करने और पालने का काम तो स्त्री ही करती है, फिर वंशानुक्रम के लिए माता का नाम ही काफी क्यों नहीं| संतानोत्पत्ति से अलग सेक्स यदि केवल आनंद का साधन है, तो उसमें वैविध्य को शामिल करने से परहेज क्यों|
जाहिर है यौन मामलों में चरित्र का महत्व तभी तक था, जब तक सेक्स और प्रजनन 'विवाह संस्था' के भीतर ही स्वीकार्य था| जो स्त्री या पुरुष इसका अनुपालन नहीं करता था, उसे चरित्रहीन कहा जाता था| किंतु यदि यह प्रतिबद्धता निरर्थक मान ली जाए, तो फिर चरित्र का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता| पहले चरित्रवान को सम्मानित माना जाता था और चरित्रहीन को निंदित| किंतु यदि निंदा का भाव समाप्त कर दिया जाता है, तो सम्मान का भाव भी अपने आप समाप्त हो जाएगा और उसके साथ जुड़ी गरिमा भी तिरोहित हो जाएगी|
________________________________________________________________________________
माई थॉट, माई बॉडी, माई चॉइस
'स्लट' कहना कभी स्त्रियों के लिए अपमानजनक शब्द प्रयोग था, किंतु आज 'आई एम ए स्लट' एक गर्वोक्ति का नारा है, जिसे स्त्रियॉं स्वयं ऊँचे स्वर में लगा रही हैं| 'स्लट' आज 'स्त्री स्वतंत्रता' और 'शक्तिमत्ता' का प्रतीक है| हिंदी में 'स्लट' का समानार्थी शब्द 'छिनाल' या 'रंडी' है| परंपरावादी अमेरिकियों की नजर में वहॉं की करोड़ों स्त्रियॉं 'स्लट' हैं| वे हिकारत की नजर से इस शब्द का प्रयोग करते हैं, किंतु 'अपनी देह अपना अधिकार' की बात करने वाली स्त्रियॉं अब इससे अपमानित नहीं अनुभव करतीं| उन्होंने तो 'स्लट' के साथ 'बिच' को भी स्वीकार कर लिया है|
'फेमिनिज्म' या 'स्त्रीवाद' के तीसरे चरण में स्त्री का आंदोलन अपने 'शरीर, मन और विचारों' पर अपने पूर्ण और स्वतंत्र अधिकार पर केंद्रित है| इसका केंद्रीय आधार उसकी 'पूर्ण स्वतंत्रता' है| वह विवाह और प्रजनन के निर्णय का अधिकार अपने हाथ में चाहती है| वह संयम और नैतिकता का सारा दायित्व पुरुषों के कंधे पर डालकर अब अपने ऊपर युगों से थोपे गए बंधन और संयम को तोड़कर सारा सामाजिक आकाश अपने काबू में करना चाहती है| संक्षेप में उसकी आकांक्षाएँ निम्नवत हैं, जो स्त्रीवादी आधुनिक लेखिकाओं के विचारों से संकलित हैं-
* 'विचार मेरे हैं, देह मेरी है, तो पसंद भी मेरी होगी'
* मैं जैसे चाहे कपड़े पहनूँ या न पहनूँ
* मेरे लिए सेक्स का विवाह से कोई संबंध नहीं
* मैं बच्चे पैदा करने के लिए नहीं केवल अपने आनंद के लिए सेक्स करती हूँ
* मैं बच्चे पैदा करूँ, न करूँ, कब करूँ या कितने पैदा करूँ, इस निर्णय पर केवल मेरा अधिकार है और किसी का नहीं
* मैं कोई गर्भ निरोधक उपाय करती हूँ या नहीं, मेरे पर्स में पिल्स हैं, कंडोम हैं, इस पर किसी को आपत्ति करने का कोई हक नहीं
* मैं ऐसे किसी धार्मिक नेता का सम्मान नहीं करती, जो स्त्रियों के यौन जीवन के नियंत्रण की बात करते हैं
* मेरे लिए गर्भनिरोधन सामान्य स्वास्थ्य रक्षा उपायों का हिस्सा है
* मेरे ख्याल से जिस स्त्री को अपनी प्रजनन क्षमता के उपयोग का अधिकार नहीं है, उसका अपने जीवन पर कोई अधिकार नहीं है
* गर्भपात कराना कोई अपराध नहीं
* बिना विवाह और बिना प्रजनन के भी यौन संबंध प्रगाढ़ और तृप्तिकारक हो सकता है
* 'समर्पण' मेरी भाषा में शामिल नहीं है
* मुझे अपने नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों के आधार पर अपना निर्णय स्वयं करने पर अधिक विश्वास है|
1 टिप्पणी:
Hindi sexy Kahaniya - हिन्दी सेक्सी कहानीयां
Chudai Kahaniya - चुदाई कहानियां
Hindi hot kahaniya - हिन्दी गरम कहानियां
Mast Kahaniya - मस्त कहानियाँ
Hindi Sex story - हिन्दी सेक्स कहानीयां
Nude Lady's Hot Photo, Nude Boobs And Open Pussy
Sexy Actress, Model (Bollywood, Hollywood)
एक टिप्पणी भेजें