मंगलवार, 2 जुलाई 2013

अयोध्या विवाद आस्था नहीं वर्चस्व का संघर्ष

अयोध्या विवाद आस्था नहीं वर्चस्व का संघर्ष 

वास्तव में अयोध्या का विवाद न तो किसी मंदिर-मस्जिद का विवाद है और न हिंदू-मुस्लिम आस्था का विवाद है| यह विवाद शुद्ध रूप से जातीय वर्चस्व और राजनीति का विवाद है| यह ऐतिहासिक काल से अब तक हिंदू-मुस्लिम जय-पराजय से जुड़ा हुआ मसला है| कौन गलत है, कौन सही यह अलग मुद्दा है| प्रत्यक्ष मुद्दा अपने-अपने वर्चस्व का है| इतिहास स्पष्ट रूप से हिंदुओं के पक्ष में है, प्राकृतिक न्याय भी उसके पक्ष में है, फिर भी फैसला न हो पाने का कारण है कि सरकार और न्यायालय दोनों में निर्णय लेने की शक्ति नहीं है|


अयोध्या की तथाकथित बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बीस साल बीत चुके, लेकिन उससे जुड़ा विवाद अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है| इस विवाद का कभी कोई समाधान हो भी पाएगा, कहना कठिन है| सच कहा जाए तो यह कोई मंदिर-मस्जिद की समस्या नहीं है| यदि समस्या मंदिर-मस्जिद की होती, तो अब तक कब की हल हो गई होती| किसी मंदिर को या मस्जिद को तोड़ना या हटाना कोई खास बात नहीं है| भारतीय परंपरा में किसी पुराने मंदिर को तोड़कर फिर बनवाने या उसकी मरम्मत के लिए उसमें स्थापित प्रतिमा को सहज ही वहॉं से हटा कर कहीं भी स्थापित किया जा सकता है| किसी दुर्घटनावश प्रतिमा खंडित हो जाए, तो उसे किसी नदी या पवित्र सरोवर में प्रवाहित कर दिया जाता है| मंदिर स्वयं में केवल एक घर होता है, कोई देवता नहीं| इसी तरह मस्जिद भी नमाजियों की सुविधा के लिए बनाया गया एक ढांचा मात्र होता है| कानूनी तौर पर भी किसी मस्जिद को गिराने में कोई बाधा नहीं है| जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी ने अपने एक आलेख में सुप्रीम कोर्ट की एक व्यवस्था (रूलिंग) का हवाला दिया है| फारूकी बनाम भारत सरकार के एक मुकदमे (१९६४-६, एससीसी ३६०) में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि मस्जिद इस्लामी धर्म का कोई अनिवार्य अंग नहीं है, इसलिए इनको जनता के हित में पहले भी तोड़ा गया है और आगे भी तोड़ा जा सकता है| सऊदी अरब, पाकिस्तान और ब्रिटिश काल के अविभाजित भारत में भी सड़कों के निर्माण के लिए अनेक मस्जिदों और मकबरों को गिराया गया| सऊदी अरब में तो शेख का महल बनाने के लिए मक्का की उस बिलाल मस्जिद को भी गिरा दिया गया, जहॉं बैठकर पैगंबर मोहम्मद कभी स्वयं नमाज पढ़ते थे| मंस्जिद की ही तरह चर्च भी कोई ऐसा ढांचा नहीं जिसे गिराया न जा सके| अमेरिका में तो विश्‍व हिंदू परिषद ने कई खाली पड़े चर्च भवनों को खरीद लिया और वहॉं अपना मंदिर बना लिया| मक्का में भी बिलाल मस्जिद को गिराने का कोई विरोध नहीं हुआ और अमेरिका में भी किसी ईसाई ने चर्च को गिराने का कोई विरोध नहीं किया| पूजा कहीं भी की जा सकती है, नमाज कहीं भी पढ़ी जा सकती है, प्रार्थना कहीं भी हो सकती है| हॉं, हिंदुओं के मंदिर में एक खास बात अवश्य होती है कि उसमें स्थापित प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है, यानी धार्मिक दृष्टि से उसका एक जीवित व्यक्तित्व होता है, फिर भी हिंदू मंदिर में भी प्रतिमा का धार्मिक महत्व होता है, मंदिर का नहीं|
तो फिर सवाल है कि अयोध्या के मंदिर-मस्जिद ध्वंस को लेकर इतना बवाल क्यों? क्यों यह कहा जा रहा है कि ६ दिसंबर १९९२ को अपराह्न ४.४५ पर जो कुछ हुआ, उसने इस देश में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक स्थायी दरार पैदा कर दी है| अब वे कभी उससे पहले की स्थिति में नहीं जा सकते|
वास्तव में अयोध्या का विवाद न तो किसी मंदिर-मस्जिद का विवाद है और न हिंदू-मुस्लिम आस्था का विवाद है| यह विवाद शुद्ध रूप से जातीय वर्चस्व और राजनीति का विवाद है| यह ऐतिहासिक काल से अब तक हिंदू-मुस्लिम जय-पराजय से जुड़ा हुआ मसला है| कौन गलत है, कौन सही यह अलग मुद्दा है| प्रत्यक्ष मुद्दा अपने-अपने वर्चस्व का है| इतिहास स्पष्ट रूप से हिंदुओं के पक्ष में है, प्राकृतिक न्याय भी उनके पक्ष में है, फिर भी फैसला न हो पाने का कारण है कि सरकार और न्यायालय दोनों में निर्णय लेने की शक्ति नहीं है|
यदि सीधे तथ्यों को देखा जाए, तो ६ दिसंबर १९९२ को अयोध्या में कोई मस्जिद नहीं, बल्कि एक मंदिर गिराया गया और उसके साथ उसके आस-पास के कई और छोटे-बड़े मंदिर ध्वस्त हुए| ६ दिसंबर को जो भवन गिराया गया, उसमें १९४९ से हिंदुओं के आराध्य तथा इतिहास पुरुष राम की प्रतिमा स्थापित थी और उसकी नियमित पूजा-अर्चना हो रही है| उस भवन का वास्तु कैसा था या उसे किसने बनवाया था, इन दो बातों को यदि छोड़ दें, तो वह एक मंदिर था, जिसमें पूजा हो रही थी, कीर्तन चल रहा था| जिस भवन में ४० से भी अधिक वर्षांे से मूर्ति पूजा चल रही हो, क्या उसे मस्जिद कहा जा सकता है| यहॉं यह सवाल खड़ा किया जा सकता है कि जब वह मंदिर था, तो फिर हिंदुओं ने उसे क्यों गिराया| वास्तव में इस देश का अधिकांश हिंदू राजनीतिक दृष्टि से कतई जागरूक नहीं है| भारतीय जनता पार्टी को इसका कोई ख्याल नहीं था कि इस बाबरी ढांचे का खड़ा रहना उसके लिए राजनीतिक दृष्टि से अधिक फायदेमंद है और इसके गिरने से सर्वाधिक फायदा मुसलमानों को पहुँचेगा| उसे तो केवल यह लगा कि मस्जिद का यह पुराना ढांचा उसके भव्य मंदिर निर्माण के प्रयास में सबसे बड़ी बाधा है| सरकार इसे गिराने नहीं देगी, अदालत कोई फैसला नहीं करेगी और मुस्लिम समुदाय ऐसी कोई सदाशयता दिखाने के लिए आगे नहीं आएगा कि वह इस ढांचे पर से अपना दावा हटा ले और उन्हें अपनी कल्पना का मंदिर बनाने दे, इसलिए यदि मंदिर बनाना है, तो इस ढांचे को ढहाना अनिवार्य है|
बाबरी ढांचा ढहाना किसी एक पार्टी या संगठन का काम नहीं था| उसमें इतिहास से आहत सारा संवेदनशील हिंदू समुदाय शामिल था| ढांचा ढहते ही यह समुदाय आत्मविभोर हो गया| ढांचा ढहते ही मानो उसकी आँख की किरकिरी निकल गई, जो ४६४ सालों से लगातार चुभती आ रही थी| इसीलिए इसके बाद वह मंदिर के निर्माण के प्रति भी उदासीन हो गया| भारत की सामान्य हिंदू जनता तो यों ही भव्य मंदिरों से ऊबी हुई है| कोई बड़ा मंदिर नहीं बना तो क्या, वहॉं अपना कब्जा तो हो गया| छोटा ही सही, हिंदुत्व का प्रतीक एक मंदिर तो वहॉं कायम हो ही गया है|
वास्तव में आज लोगों को यह समझने की जरूरत है कि अयोध्या विवाद का असली मुद्दा न तो किसी जमीन के एक टुकड़े पर अधिकार का मुद्दा है और न यह कि वहॉं राम पैदा हुए थे या नहीं अथवा वहॉं स्थित मंदिर को किसने तोड़ा या किसने वहॉं मस्जिद बनवाई, बल्कि केवल यह है कि क्या विवादित स्थल पर स्थित किसी मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण कराया गया| यहॉं मस्जिद का निर्माण किसी धार्मिक आस्था की अभिव्यक्ति के लिए तो नहीं किया गया था| यदि ऐसा होता तो उसमें ध्वस्त मंदिर के अवशेष उत्कीर्ण स्तंभ न लगाए जाते| मस्जिद के भीतर ही नहीं उसके बाहरी द्वार में भी पुराने मंदिर के दो प्रतिमा युक्त स्तंभ लगाए गए, जहॉं मस्जिद में जाने वाले अपने जूते उतारते थे| ऐसा कार्य किसी धार्मिक विश्‍वास वाला व्यक्ति नहीं कर सकता| इस तरह का कार्य ऐसा कोई विजेता ही कर सकता है, जो इस मस्जिद के रूप में मंदिर की ताकत पर मस्जिद की जीत का राजनीतिक स्मारक खड़ा करना चाहता था| यही कारण है कि इसके निर्माण के काल से ही इसका विरोध भी चलता आ रहा है| क्या इसकी ऐतिहासिकता सिद्ध करने के लिए इतना प्रमाण काफी नहीं है कि पिछले करीब पॉंच सौ वर्षों से एक पूरा राष्ट्रीय समुदाय इस स्थल को वापस पाने के लिए संघर्ष करता आ रहा है| एक छोटी सी जगह के लिए इतने लंबे संघर्ष की दुनिया में कोई दूसरी मिसाल नहीं है|
मूल विवाद अब से ४८४ वर्ष पूर्व (१५२८ ई) का है, जब मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण कराया गया| दूसरे शब्दों में विवाद का मूल १५२८ की घटना में है न कि १९४९ (जब मस्जिद के गुंबद तले कुछ लोगों ने मूर्ति स्थापित कर दी) या १९९२ (जब एक भारी भीड़ ने मस्जिद का ढांचा ध्वस्त कर दिया) की घटना में| फैसला वस्तुतः १५२८ की घटना का होना है न कि १९४९ या १९९२ की घटना का| १९४९ और १९९२ की घटनाएँ १५२८ की घटना से उत्पन्न हुए शताब्दियों के संघर्ष के बीच घटी तमाम घटनाओं के बीच की मात्र दो घटनाएँ हैं, क्योंकि विवाद अभी भी समाप्त नहीं हुआ है| आज की भारतीय अदालतें या आज का कानून १५२८ के मसले का समाधान कर सकता है या नहीं यह अलग बात है, लेकिन न्याय की आकांक्षा या उसके लिए चलने वाला संघर्ष कुछ किताबों या न्याय का चोंगा पहने व्यक्तियों का मोहताज नहीं होता| उसके लिए इसका भी कोई अर्थ नहीं है कि उसका संघर्ष कितना पुराना है और इस अवधि में कितनी तरह की कैसी-कैसी सरकारें गुजर चुकी हैं| किसी समाज के सांस्कृतिक इतिहास को उसके राजनीतिक ढांचों द्वारा खंडित नहीं किया जा सकता| आज के स्वतंत्र भारत का न्यायालय (भले ही वह अंग्रेजी परंपरा पर आधारित है) का न्यायाधिपति (न्यायाधीश) उस अंग्रेजी न्यायाधिकारी की तरह केवल यह कहकर न्याय करने के अपने कर्तव्य से मुख नहीं मोड़ सकता कि मूल घटना बहुत पुरानी हो गई है, जिसने १८८५ में निर्मोही अखाड़ा के महंत रघुबरदास की याचिका पर फैसला देते हुए लिखा था, ङ्गकल मैं सभी पक्षों की उपस्थिति में विवादित स्थल का मुआयना करने गया| मैंने देखा कि सम्राट बाबर द्वारा बनवाई गई मस्जिद अयोध्या के एक किनारे पर स्थित है... यह अत्यंत दुर्भाग्य का विषय है कि मस्जिद का निर्माण उस भूमि पर किया गया, जो हिंदुओं के लिए विशेष रूप से (स्पेशियली) पवित्र मानी जाती रही है, लेकिन चूँकि यह घटना अबसे ३५६ वर्ष पूर्व घटी थी, इसलिए इसको लेकर व्यक्त असंतोष को स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसके लिए बहुत देर हो चुकी है|फ यह फैसला फैजाबाद (जिसके अंतर्गत अयोध्या आता है) के जिला जज कर्नल एफ.ई.ए. चामिएर ने १८ मार्च १८८६ को लिखा था|
महॉं उल्लेखनीम है कि महंत रघुबरदास ने अंग्रेज जिला जज से विवादित स्थल पर कोई फैसला नहीं मांगा था, बल्कि उन्होंने बाबरी मस्जिद के बाहर स्थित उस चबूतरे पर एक मंदिर बनाने की अनुमति मांगी थी, जो भगवान राम की पूजा-अर्चना के लिए उन्हें मिला था, लेकिन उस पर किसी निर्माण कार्म की अनुमति नहीं थी| उस चबूतरे पर केवल एक फूस का झोंपड़ा था, जिसमें मूर्ति स्थापित थी और इस झोंपड़े को भी तीन फिट से अधिक ऊँचा बनाने की अनुमति नहीं थी| पुजारी इसमें केवल बैठ सकता था और इसके भीतर किसी गुफा की तरह रेंगकर जाता था| मह स्थिति स्वतंत्र भारत में भी १९९२ तक, तब तक बनी रही, जब तक कि मस्जिद का पूरा परिसर ही ध्वस्त नहीं कर दिमा गमा| स्वतंत्र भारत में केवल इतना फर्क पड़ा था कि फूस के ऊपर टिन की चादर भी लग गई थी, जिससे वर्षा का पानी नीचे न आ सके| इसके पहले भारी वर्षा के समम निश्‍चम ही राम लला की प्रतिमा छप्पर से टपकती बूंदों से नहाती रही होगी| चबूतरे का मह मंदिर, मस्जिद के भीतर प्रतिमा स्थापन के बाद भी बना रहा और निर्मोही अखाड़ा की ओर से महॉं पूजा-अर्चना हुआ करती थी| रघुबरदास केवल मह चाहते थे कि उनके राम भी ठीक से एक मंदिर में स्थापित हो सकें| उस समम उनकी मोजना कोई विशाल मंदिर बनाने की नहीं, बल्कि उसी चबूतरे पर एक छोटा मंदिर बनाने की थी, किंतु उसकी भी अनुमति उन्हें नहीं मिली| इसके बाद प्रतीक्षा की जाने लगी स्वतंत्रता प्राप्ति की, क्मोंकि तब तक कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी और स्वतंत्रता की आकांक्षा जोर पकड़ने लगी थी| लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी जब आकांक्षा पूरी नहीं हुई, शांतिपूर्ण आंदोलन भी विफल हो गमा, तो १९४९ के दिसंबर महीने में कुछ लोगों ने २२/२३ तारीख की मध्मरात्रि में मस्जिद के भीतर बालक राम (राम लला) की मूर्ति स्थापित कर दी| इसके बाद भी वर्ष पर वर्ष और दशक पर दशक बीतते गए, राज्म और केंद्र की सरकारें ही नहीं अदालतें भी, पॉंच शताब्दिमों से प्रतीक्षित न्माम की आकांक्षा को बहलाती रहीं, जिसका परिणाम ६ दिसंबर १९९२ की घटना थी| अफसोस की बात मह है कि अदालतों और राजनीतिक दलों तथा उनकी सरकारों ने अब तक अपना रवैमा नहीं बदला है| देश का मीडिमा भी इसे एक राजनीतिक खेल का मुद्दा बनाए हुए है|
अभी मई २०११ में सर्वोच्च न्यायालय ने श्रीराम जन्मभूमि/बाबरी मस्जिद के विवाद में दायर ङ्गटाइटिल सूटफ (मिल्कियत निर्धारित करने के मुकदमें) पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के ३० सितंबर २०१० के फैसले को स्थगित करके उस फैसले को बेहद ङ्गअजीबफ और ङ्गचकितफ करने वाला बताया तथा कहा कि इस फैसले द्वारा हाईकोर्ट ने इस मसले को एक नया ही आयाम दे दिया है| उसने एक ऐसा फैसला दिया है जिसकी मांग किसी पार्टी ने नहीं की थी| इसमें तीन मुख्य पार्टियॉं थी, जिन्होंने विवादित स्थल पर अपने-अपने अधिकार का दावा किया था, लेकिन किसी ने इसके टुकड़े करने की मांग नहीं की थी| सुप्रीमकोर्ट के दो जजों (आफताब आलम तथा आर.एम. लोढा) की पीठ ने कहा कि हाई कोर्ट ने याचकों को बिल्कुल नई राहत दी है, ऐसी राहत जिसे कोई नहीं चाहता था| रोचक यह है कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का सभी पक्षों ने स्वागत किया है| आमतौर पर लोगों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया है और अब इस मामले में बिल्कुल नए सिरे से सुनवाई शुरू होगी| तकनीकी दृष्टि से सुप्रीम कोर्ट ने भले हाई कोर्ट के फैसले पर केवल ङ्गस्टेफ दिया है, किंतु उसने उसके फैसले पर जैसी टिप्पणी की है उससे जाहिर है कि सर्वोच्च अदालत को उसका फैसला कतई स्वीकार नहीं है|
इलाहाबाद हाई कोर्ट की सुनवाई पीठ के तीनों जज -जस्टिस एस. मू. खान, जस्टिस सुधीर अग्रवाल तथा जस्टिस डी.वी. शर्मा- एक मुद्दे पर तो पूरी तरह सहमत थे कि विवादित भूमि परंपरमा भगवान श्रीराम की जन्मभूमि है, इसलिए इसके केंद्रीम स्थल पर रामलला की प्रतिमा बनी रहेगी, लेकिन अन्म मामलों में उनमें सहमति नहीं है| परस्पर भिन्न राम रहने के कारण तीनों ने ही संमुक्त फैसले के साथ-साथ अपनी अलग-अलग टिप्पणिमॉं लिखी हैं| मंदिर के स्थल पर मस्जिद का निर्माण हुआ इसे तो तीनों मानते हैं, लेकिन बाबर मा उसके सिपहसालार ने मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण करामा मह बात एस.मू. खान नहीं मानते| उनके अनुसार मस्जिद उस स्थल पर अवश्म बनी जहॉं पहले मंदिर था, लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि मस्जिद निर्माता ने ही मंदिर को तुड़वामा| इस मत भिन्नता से मूल फैसले में कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था, क्मोंकि तीनों जजों ने इतना तो मान ही लिमा कि विवादित स्थल मूलतः राम की जन्मभूमि था, वहॉं पर पहले मंदिर था जहॉं बाद में मस्जिद का निर्माण हुआ| अब इस प्रश्‍न पर मतभेद से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था कि मंदिर को किसने तुड़वामा| हिंदुओं के भी संघर्ष का लक्ष्य मस्जिद तोड़ने के लिए बाबर को कानूनन दोषी घोषित करवाना नहीं, बल्कि मह सिद्ध करवाना था कि विवादित स्थल राम की जन्मभूमि है और उस स्थल पर मस्जिद बनाए जाने के पहले मंदिर था|
फैसले का इतना हिस्सा हिंदुओं के पक्ष में था, जिसके लिए फैसला आने पर देश भर में हिंदू समुदाय द्वारा खुशियॉं मनाई गईं| मगर मुस्लिम पक्ष को यह फैसला स्वीकार नहीं था, क्योंकि उसका आरोप था कि अदालत ने यह फैसला करने में कानून नहीं, बल्कि परंपरा व विश्‍वास (फेथ) का सहारा लिया है, लेकिन कोर्ट ने इसके बाद विवादित भूमि के बारे बंटवारे का जो फैसला किया वह ऐसा था जो किसी को स्वीकार्य नहीं था| यह फैसला एक के मुकाबले दो के बहुमत से दिया गया| न्यायाधीश डी.वी. शर्मा ने अपने फैसले में सारी विवादित भूमि हिंदू समुदाय के हवाले किए जाने को कहा| जब सर्वसम्मति से या एक राय से यह फैसला हो गया कि विवादित भूमि राम जन्मभूमि है और वहॉं मस्जिद निर्माण के पूर्व मंदिर था तो फिर भूमि के बँटवारे का कोई सवाल नहीं है, अब सारी भूमि ङ्गरामललाफ के पैरोकार को दे दी जानी चाहिए| किंतु बाकी दो न्यायाधीशों एस.यू. खान और सुधीर अग्रवाल ने विवादित भूमि (२.७७ एकड़) को तीन हिस्से में बॉंटने का निर्देश दिया| केंद्रीय भाग- जहॉं रामलला की प्रतिमा विराजमान है- उनके पैरोकार हिंदूपक्ष को मंदिर निर्माण के लिए दे दी जाए| बाकी हिस्से में से राम चबूतरा तथा सीता रसोई का हिस्सा निर्मोही अखाड़े को दे दिया जाए और शेष बचे हिस्से को सुन्नी वक्फबोर्ड को दे दिया जाए| तीनों को जमीन के बराबर-बराबर हिस्से दिए जाएँ| यदि प्रथम दो को हिस्सा देने के बाद सुन्नी वक्फबोर्ड की जमीन कम पड़े तो उसे सरकार द्वारा अधिकृत भूमि से लेकर पूरा कर दिया जाए|
इस बँटवारे का कतई कोई औचित्म नहीं था, लेकिन अदालत ने शामद तीनों पक्षों को संतुष्ट करने के लिए इस तरह का निर्णम लिमा| एस.मू.खान ने तो खास तौर पर मुस्लिम समुदाम से अपील की थी, कि वह कौम के व्मापक हित में मह फैसला स्वीकार कर ले| अदालत की कोशिश में निश्‍चम ही अपने स्तर की ईमानदारी थी, लेकिन समझदारी का अभाव था| अदालत मह कल्पना नहीं कर सकी कि इस तरह के बँटवारे का फैसला किसी को स्वीकार्म नहीं हो सकता|
मह फैसला निश्‍चम ही अव्मावहारिक था| जमीनी स्तर पर इसका कार्मान्वमन हो ही नहीं सकता था| इसलिए इसके खिलाफ तो सभी पार्टिमों को       सर्वोच्च न्मामालम की शरण में जाना ही था| अब सवाल है कि क्मा सर्वोच्च न्मामालम केवल इस बँटवारे वाले मामले की पुनर्समीक्षा करेगा मा पूरे मामले की नए सिरे से सुनवाई करेगा| सामान्म राम तो मही हो सकती है कि सर्वोच्च न्मामालम को हाईकोर्ट के फैसले के पूर्ण सहमति वाले हिस्से को कतई नहीं छेड़ना चाहिए| उसे केवल इस औचित्महीन बँटवारे पर अपनी अंतिम राम देनी चाहिए| लेकिन निश्‍चम ही मुस्लिम पक्ष पूरे मामले की नए सिरे से सुनवाई करने पर जोर देगा|
अब इस मामले की कानूनी स्थिति पर थोड़ा विचार कर लिया जाए| इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच के सामने जो मामला पेश किया गया उसे ङ्गटाइटिल सूटफ की संज्ञा दी गई| इसके अंतर्गत यह फैसला किया जाना होता है कि विवादित संपत्ति या भूमि का वास्तविक मालिक कौन है| सुन्नी वक्फ बोर्ड उस भूसंपत्ति का अपने को मालिक बताता है, क्योंकि उसकी राय में मस्जिद, मकबरे या कब्रिस्तान की सारी जमीन व भवनों का मालिक वही है|   निर्मोही अखाड़े की दावेदारी इस बात को लेकर है कि राम चबूतरा व सीता रसोई क्षेत्र पर पिछले डेढ़ सौ साल से उसका ही कब्जा रहा है और चबूतरे पर स्थित मंदिर की सेवा-पूजा का कार्य उसका अस्तित्व रहने तक वही करता आया है| ङ्गराम ललाफ की तरफ से ङ्गटाइटिल सूटफ दायर करने वाले का सीधा तर्क था कि उस स्थल पर विराजमान मंदिर का देवता ही उस संपदा का मालिक है| भारतीय कानून में मंदिरों में स्थापित प्रतिमा को एक व्यक्ति के तौर पर स्वामित्व का अधिकार प्राप्त है|
अब ईमानदारी से कहा जाए तो ये तीनों ही दावेदारियॉं गलत हैं| यह विवाद मंदिर-मस्जिद का हो सकता है, लेकिन यह हिंदू-मुस्लिम का धार्मिक (मजहबी)  विवाद नहीं है| यह मंदिर विरोधियों या मस्जिद विरोधियों की लड़ाई भी नहीं, बल्कि एक खास स्थान को लेकर शुद्ध सांस्कृतिक व राजनीतिक लड़ाई है| यह विजेता और विजित के अधिकार व सम्मान की लड़ाई है| बाबर के समय से ही जो लड़ाई चली आ रही है वह जमीन का मालिकाना हक पाने की लड़ाई नहीं है| १८८५ में महंत रघुबरदास ने भी मस्जिद परिसर के भीतर की जमीन पाने के लिए याचिका नहीं दायर की थी| १९५० में गोपाल सिंह विशारद ने जो याचिका दायर की थी वह भी मस्जिद में स्थापित ङ्गरामललाफ की पूजा का अधिकार पाने के लिए थी| हॉं, बाद में निर्मोही अखाड़ा व सुन्नी वक्फ बोर्ड ने मालिकाना हक का सूट अवश्य दायर किया| ङ्गरामललाफ की तरफ से दायर किया गया इस मामले का अंतिम सूट भी मालिकाना हक का था| लेकिन ये मालिकाना हक १५२८ के विवाद के आधार पर नहीं तय हो सकते| क्योंकि १५२८ में या उसके बाद यह जमीन किसके अधिकार में थी, यह तय कर पाना लगभग असंभव है| आज तो यह भी तय करना कठिन है कि बाबर शिया था या सुन्नी| अगर यही तय नहीं तो कैसे कहा जा सकता है कि इस पर सुन्नी वक्फ बोर्ड का अधिकार है या शिया बोर्ड का| मस्जिद परिसर में जब कभी एक चबूतरे पर हिंदुओं को राम की पूजा का अधिकार दिया गया, तो यह केवल पूजा का अधिकार था उस पर किसी का मालिकाना हक नहीं तय हुआ था| निर्मोही अखाड़ा यदि एक शताब्दी से अधिक समय तक वहॉं पूजा अर्चना का संचालन करता रहा, तो वह किसी मालिकाना हक के तहत नहीं, बल्कि संपूर्ण हिंदू समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में उसने आगे बढ़ कर यह दायित्व संभाला था|
कहने का आशम मह है कि राम जन्मभूमि के विवादित परिसर पर किसी व्मक्ति या संगठन का मालिकाना हक निर्धारित नहीं किमा जा सकता| न इस आधार पर कोई निर्विवाद फैसला किमा जा सकता है| इसे हिंदू पक्ष व मुस्लिम पक्ष में बॉंटकर भी कोई समाधान नहीं ढूँढ़ा जा सकता| क्मोंकि इस देश में न कोई हिंदू संगठन ऐसा है, जिसे संपूर्ण हिंदू समुदाम का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार प्राप्त हो और न कोई ऐसा मुस्लिम संगठन है जो संपूर्ण मुस्लिम समुदाम के प्रतिनिधित्व का दावा कर सके| इसलिए विवादित परिसर का अधिकार किसी एक पक्ष मा दूसरे पक्ष को सौंपने का कोई औचित्म नहीं है|
महॉं मह सवाल उठामा जा सकता है कि तब फिर कोर्ट क्मा करे? जवाब कठिन नहीं है| कोर्ट को केवल मह फैसला करना चाहिए कि विवादित स्थल पर मस्जिद निर्माण के पहले मंदिर था मा नहीं | मदि वहॉं मंदिर होने का दावा पुष्ट हो जाता है और मह तम हो जाता है कि हिंदुओं के विश्‍वास के अनुसार राम जन्मभूमि के स्थल पर बने मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण किमा गमा, तो उस स्थल पर मस्जिद की पुनर्स्थापना के अधिकार का दावा खारिज हो जाता है| फैसला केवल मह होना चाहिए कि वह स्थल मंदिर समर्थकों का है मा मस्जिद समर्थकों का| कोर्ट को इसके आगे कोई फैसला न करके सरकार को मह निर्देश देना चाहिए कि वह मंदिर परिसर की विवादित व अधिग्रहीत भूमि को चाहे अपने कब्जे में रखकर सोमनाथ की तरह श्रीराम मंदिर का निर्माण कराए अथवा उसे किसी उचित संस्था के हवाले कर दे| अथवा किसी नई संस्था का गठन करके उसे उसके हवाले कर दे| कोर्ट का काम जमीन बॉंटना नहीं, बल्कि मह फैसला करना है कि विवादित स्थल पर हिंदुओं का दावा सही है मा मुस्लिमों का| इसके बाद मदि जमीन पर अधिकार का भी कोई दावा सामने आता है तो वह एक ही समुदाम के बीच होगा| चाहे हिंदुओं के मा चाहे मुसलमानों के| उस समम इस मसले का निपटारा भी अपेक्षाकृत आसान होगा|
लेकिन भम मही है कि न तो कोर्ट इस तरह मामले को सुलझाएगा और न राजनीतिक व सांप्रदामिक संगठन उसे इस तरह सुलझाने देंगे| अन्मथा सुप्रीम कोर्ट का मामला बहुत आसान है| वह हाईकोर्ट के मंदिर संबंधी फैसले की पुष्टि करके उसके भूमि बंटवारे संबंधी आदेश को निरस्त कर दे| वह पूरी भूमि अभी भी सरकार के कब्जे में है इसलिए उसे मह अधिकार दे दे कि वह जैसे चाहे उस भूमि का उपमोग करे| अब सवाल है क्मा ऐसा हो सकेगा ?

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