शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

ईरान : तय थी...

ईरान : तय थी रोहानी की जीत
 
ईरान में इस्लामी क्रांति होने के बाद राष्ट्रपति की गद्दी सँभालने वाले रोहानी पॉंचवें राजनेता हैं| वह ईरान के
सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह खमेनेई के परम विश्‍वस्त मजहबी नेता हैं| उनको चुनाव मैदान में उतारने के पीछे अयातोल्लाह की सोची समझी रणनीति रही है| मजमूद अहमदीनेजाद के राष्ट्रपतित्वकाल में ईरान दुनिया में बिल्कुल अलग-थलग पड़ गया| बढ़ती आर्थिक कठिनाइयों तथा बाहरी प्रतिबंधों के कारण देश में सुधारवादी स्वर बढ़ते जा रहे थे| अब रोहानी की जीत से सुधारवादियों में भी थोड़ी आशा जगी है| यद्यपि वे जानते हैं कि रोहानी चाहें भी तो ऐसा कुछ नहीं कर सकते जिसकी स्वीकृति अयातोल्लाह खमेनेई से न मिले फिर भी आशा तो आशा है|

पाकिस्तान के बाद अब ईरान में हुए चुनाव से भी दुनिया के लोकतंत्रवादी बहुत उत्साहित हैं| गत १४ जून २०१३ शुक्रवार को हुए राष्ट्रपति के चुनाव में ईरान के मजहबी नेता हसन रोहानी भारी बहुमत से विजयी हुए| उन्हें कुल पड़े मतों (७२ प्रतिशत) के ५१ प्रतिशत से अधिक मत मिले हैं जो उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी तेहरान के मेयर कलीबक (१८ प्रतिशत) को मिले मतों के दो गुने से भी अधिक है| रोहानी को मध्यमार्गी उदारपंथी (सेंटरिस्ट) नेता माना जाता है इसलिए समझा जा रहा है कि ईरान के पश्‍चिमी देशों के साथ भी संबंध सुधरेंगे और भारत-ईरान संबंध भी और घनिष्ठ हो सकेंगे| लेकिन सच्चाई यह है कि मौलाना रोहानी को उदारपंथी समझना केवल एक भ्रम है| वह मध्यमार्गी अवश्य है किन्तु सुधारवादी नहीं|
ईरान में इस्लामी क्रांति होने के बाद राष्ट्रपति की गद्दी सँभालने वाले रोहानी पॉंचवें राजनेता हैं| वह ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह  खमेनेई के परम विश्‍वस्त मजहबी नेता हैं| उनको चुनाव मैदान में उतारने के पीछे अयातोल्लाह की सोची समझी रणनीति है| मजमूद अहमदीनेजाद के राष्ट्रपतित्वकाल में ईरान दुनिया में बिल्कुल अलग-थलग पड़ गया| बढ़ती आर्थिक कठिनाइयों तथा बाहरी प्रतिबंधों के कारण देश में सुधारवादी स्वर बढ़ते जा रहे थे| अब रोहानी की जीत से सुधारवादियों में भी थोड़ी आशा जगी है| यद्यपि वे जानते हैं कि रोहानी चाहें भी तो ऐसा कुछ नहीं कर सकते जिसकी स्वीकृति अयातोल्लाह खमेनेई से न मिले फिर भी आशा तो आशा है|
ईरान की आंतरिक राजनीति को समझने वालों में रोहानी को लेकर कोई भ्रम नहीं है| वे जानते हैं कि रोहानी सुधारवादियों की कोई आशा नहीं पूरी कर सकते| एक मजहबी नेता भला एक मजहबी प्रणाली से देश को कैसे बाहर निकाल सकता है| इस्लामी क्रांति के समय ईरान से भागकर अमेरिका जा बसेे सियामक कल्हॉर के अनुसार ‘क्या कोई मुल्ला हमें मुल्लाओं के हाथ से बचा सकता है|' यों भी आशा वादियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि रोहानी भले ही धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते हो किन्तु मूलतः वह मजहबी नेता हैं न कि राजनीतिक| उनमें और दूसरे कट्टरपंथियों में फर्क केवल यह है कि रोहानी का राजनीतिक चेहरा उतना डरावना नहीं है जितना कि कट्टरपंथियों का फिर भी अहमदीनेजाद के कट्टरपंथी शासन से रोहानी के मध्यमार्गी शासन व्यवस्था में जाना वैसा ही है जैसे नर्क में आग उगलते ड्रैगनों से भाग कर व्याघ्रों के झुंड में शरण लेना|
हसन रोहानी गत १६ वर्षों से ईरानी इस्लामी रिपब्लिक की सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (सुप्रीम नेशनल सिक्योरिटी कौंसिल) का अध्यक्ष पद सँभाल रहे थे| इस पद पर रहते हुए वह पश्‍चिमी देशों के साथ परमाणु वार्ता में ईरानी पक्ष का नेतृत्व कर रहे थे| लम्बे संपर्कों के कारण यह समझा जाता है कि वह अमेरिका तथा अन्य पश्‍चिमी देशों को ज्यादा बेहतद ढंग से समझते हैं किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि राष्ट्रपति बनने के बाद पश्‍चिमी देशों के प्रभाव में वह अपनी राष्ट्रीय नीतियों को बदल देंगे| राष्ट्रपति चुने जाने के बाद प्रेस के साथ अपनी पहली बातचीत  में उन्होंने साफ कहा कि देश का परमाणु कार्यक्रम पूर्ववत जारी रहेगा| इसके साथ ही उन्होंने यह भी घोषणा की कि ईरान का सीरिया की असद सरकार के साथ सहयोग संबंध बना रहेगा| ये दोनों ही बातें अमेरिका को अखरने वाली हैं|
‘लास ऐंजेल्स टाइम्स' के स्तम्भकार रॉबर्ट फैटुरेची के अनुसार ईरान के कट्टरतावादी
मुल्लाओं (क्लेरिक्स) ने एक अधिक उदार दिखने वाले उम्मीदवार को जानबूझकर ऐसा अवसर दिया जिससे कि वह चुनाव जीत सके| इस जीत से ईरान की छवि सुधरेगी तथा सुधारों की मॉंग करने वाले ईरानी भी यह समझ सकेंगे कि उनकी आवाज सुनी गई| जब कि वास्तव में वे भी सर्वोच्च नेता अयातोल्ला खेमेनेई के वैसे ही कठपुतले हैं जैसे अहमदीनेजाद थे| ईरानी राजनीति के अध्येताओं के अनुसार रोहानी की जीत पहले से ही तय थी| उनका जीतना सर्वोच्च नेताओं की अपनी महान राजनीतिक योजना का अंग था| रोहानी की मध्यमार्गी छवि के साथ यह प्रचार कि ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह अल खमेनेई को वह पसंद नहीं हैं और फिर भारी मतों से उन्हें जिताना इस सबका उद्देश्य केवल ईरान की मजहबी सत्ता को लोकतांत्रिक वैधानिकता प्रदान करना था| यह सब योजनाबद्ध था|
इतना ही नहीं अब पश्‍चिमी मीडिया में भी यह स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है कि इस्लामी लोकतंत्र पश्‍चिमी शैली के प्रचलित लोकतंत्र से बेहतर है| ईरान के बारे में जो लेख लिखे जा रहे हैं उनमें बताया जा रहा है कि इस्लामी व्यवस्था में उसके पूर्व के शाह के शासनकाल के मुकाबले अधिक विकास हुआ है| गरीबी उन्मूलन, स्वास्थ्य रक्षा तथा शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं इस्लामी क्रांति के बाद औरतों को भी कहीं बेहतर विकास के अवसर प्राप्त हुए हैं| इन क्षेत्रों में ईरान की प्रगति उसके पड़ोसी देशों सऊदी अरब तथा तुर्की से भी बढ़कर है| कई लेखक अमेरिका को यह उपदेश दे रहे हैं कि उसे ईरानी इस्लामी लोकतंत्र को मान्यता देनी चाहिए तथा उसके साथ अपने संबंधों को सुधारना चाहिए| मध्यपूर्व में सुन्नी कट्टरपंथियों तथा अलकायदा जैसे जिहादी संगठनों को पराजित करने के लिए ईरान को सहयोग देना चाहिए|
रोहानी ईरान में इस्लामी क्रांति के जनक अयातोल्लाह खमेनी के भी उतने ही विश्‍वास पात्र थे जितने कि वह खमेनेई के हैं| देश के सर्वोच्च नेता से नजदीकी के कारण वह बहुत जल्दी सत्ता के केन्द्र में पहुँच गये| इस चुनाव में उन्हें पिछले दोनों राष्ट्रपतियों अली अकबर हासमी रफसंजानी तथा मोहम्मद खाटमी का समर्थन प्राप्त था| जाहिर है कि देश के भीतर और बाहर दोनों तरफ उनकी स्वीकार्यता पिछले राष्ट्रपतियों के मुकाबले अधिक है| इसलिए उनसे भले ही किसी बड़े सुधार की अपेक्षा न हो किन्तु उनके साथ बेहतर संबंध अवश्य कायम किये जा सकते हैं| पश्‍चिमी देश अभी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि उनकी सत्ता स्थिर हो जाए क्योंकि उसके बाद सामने आने वाली नीतियॉं ही विश्‍वसनीय मानी जा सकती हैं| चुनावों के दौरान व्यक्त विचारों, घोषणाओं तथा आश्‍वासनों को ज्यों का त्यों कभी भी विश्‍वास के योग्य नहीं माना जा सकता| फिर भी अमेरिका ईरान के साथ सीधे बातचीत करने के लिए तैयार है| यूरोपीय देश भी नए राष्ट्रपति से काफी कुछ आशान्वित हैं|
जहॉं तक भारत का सवाल है तो उसे भी रोहानी के शासन में ईरान के साथ हर क्षेत्र में घनिष्ठता बढ़ने की आशा है| रोहानी भारत के लिए अपरिचित नहीं है| २००२ तथा २००४ में ईरानी सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष के रूप में भारत की यात्रा कर चुके हैं| अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में भारत ने ईरान से संबंध बढ़ाने के काफी प्रयत्न किये| २००३ में राष्ट्रपति खाटमी को गणतंत्र दिवस की परेड में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था| भारत ईरान के छबाहार बंदरगाह के विकास में निवेश करने का इच्छुक है| भारत ने यद्यपि परमाणु क्षमता के विकास के मामले में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में आए प्रस्ताव पर ईरान के खिलाफ मतदान किया था फिर भी ईरान को यह अपेक्षा है कि भारत उसके खिलाफ लगे प्रतिबंधों को हटाने में उसकी मदद कर सकता है| पिछले करीब एक दशक में अमेरिका के साथ बढ़ी निकटता के कारण भारत का ईरान के साथ संबंध ढीला पड़ा है| रोहानी के शासनकाल में इसमें कुछ खास गर्मजोशी आ सकेगी इसकी संभावना तो कम है लेकिन यदि अमेरिका स्वयं ईरान के साथ संबंध सुधार की अपेक्षा कर सकता है तो भारत भी क्यों नई संभावनाओं की तलाश में पीछे रहे? फिर भी यह याद रखना चाहिए कि राष्ट्रपति पद पर बदलाव से ईरान के राजनीतिक चरित्र में बदलाव नहीं आ सकता| जब तक वहॉं की सत्ता मजहबी नेताओं के हाथ में है तब तक वहॉं किसी खास सुधार या बदलाव की आशा नहीं की सकती|
मिस्र ः तथाकथित लोकतंत्र से अब गृहयुद्ध की ओर?
मिस्र की राजनीतिक स्थिति शायद खाड़ी क्षेत्र के अरब देशों में सर्वाधिक जटिल है| संभव है यह भविष्य की इस्लामी राजनीति की केंद्रीय प्रयोगशाला बने| यहॉं यदि मुस्लिम ब्रदरहुड की योजना सफल होती है और उसकी स्थिर सरकार कायम हो जाती है, तो मिस्र निश्‍चय ही विश्‍व इस्लामी साम्राज्य की धारणा (पैन इस्लामिज्म) की आधारभूमि बन जाएगा और यदि वह यहॉं विफल रहा, तो इस्लामी विश्‍व साम्राज्य का सपना भी विफल हो जाएगा|
july 2013

कोई टिप्पणी नहीं: