क्या चुनाव में मतदान करना ही लोकतंत्र है?
बीसवीं शताब्दी को लोकतंत्र के विस्तार की शताब्दी कहा जाता रहा है, लेकिन २१वीं शताब्दी लगता है उसके क्षरण की शताब्दी के रूप में याद की जाएगी| आधुनिक लोकतंत्र के लिए विश्व स्तर पर सबसे बड़ा खतरा इस्लामी कट्टरवाद ने खड़ा किया है और वर्तमान लोकतंत्र उससे अपना किसी तरह बचाव नहीं कर पा रहा है| वास्तव में आधुनिक पश्चिमी लोकतंत्र अपनी ही रूढ़ियों तथा गलत अवधारणाओं की जंजीरों में फँस गया है| उसे अपना बचाव करना है, तो उसे युग की जरूरतों के अनुसार अपने को बदलना पड़ेगा| सवाल है कि क्या दुनिया के लोकतंत्रवादी इस बदलाव के लिए तैयार हैं|
अब से करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व, १९ नवंबर १८६३ को अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने प्रसिद्ध 'गेटिसबर्ग युद्धफ के चार महीने बाद इस गेटिसबर्ग (पेंसिलवेनिया) की सैनिक कब्रगाह (सोल्जर्स नेशनल सिमिट्री) में ही दिए गए अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था 'जनता के लिए जनता के द्वारा गठित जनता की सरकार इस धरती से कभी समाप्त नहीं होगी|फ निश्चय ही उनका यह वेदवाक्य ऐसा है, जिससे आज भी लोकतांत्रिक दुनिया प्रेरणा प्राप्त करती आ रही है और शायद भविष्य में भी युगों-युगों तक अनुप्रेरित होती रहेगी| लेकिन महान जननेता लिंकन को उस समय कहॉं यह कल्पना रही होगी कि भविष्य में कभी ऐसा भी दिन आएगा, जब लोकतंत्र के उनके ही शब्दों को इस्तेमाल करके उनकी ही लोकतांत्रिक भावना को पराजित करने का अभियान शुरू हो जाएगा| उनके शब्द आज भी जीवित हैं, लेकिन उसकी भावना को कुचल कर उसका मनचाहा इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है|
लिंकन ने 'पीपुलफ (जनता) की कोई परिभाषा नहीं की| शायद उस समय इसकी कोई जरूरत नहीं थी| उनके सामने मुख्य समस्या नस्ली भेदभाव की थी| काले-गोरे की थी| वहॉं केवल मनुष्य-मनुष्य में भेद न करने की लड़ाई थी| विचारधाराओं में टकराव का कोई मुद्दा नहीं था| मजहब की चुनौतियॉं भी नहीं थी| लोकतंत्र का सिद्धांत भी सीधा था| लेकिन आज दुनिया बहुत बदली हुई है| लोकतांत्रिक देशों में भी तरह-तरह के 'दबाव समूहफ (प्रेशर ग्रुप्स) बन गये हैं जो लोकतंत्र को अपनी-अपनी तरफ अपने-अपने हित में खींचने में लगे हैं| लफ्फाज राजनेता सारी उदात्त अवधारणाओं को तोड़-मरोड़कर उन्हें व्यर्थ करने में ही अपनी सारी शक्ति व्यय कर रहे हैं|
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नवस्वतंत्र देशों में लोकतंत्र के अपहरण की प्रवृत्ति सबसे ज्यादा देखी जा रही है| लोकतंत्र की सारी अवधारणा केवल चुनाव और मतदान तक सीमित होकर रह गई है| भारत जनसंख्या की दृष्टि से आज दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है| कहा जाता है कि यहॉं इस तंत्र की जड़ें काफी मजबूत हो गई हैं, क्योंकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यहॉं- यदि आपातकाल के छोटे अंतराल को छोड़ दें- लगातार, नियमित चुनाव होते आ रहे हैं और सत्ता परिवर्तन के लिए चुनाव के अलावा कभी कोई और तरीका नहीं अपनाया गया| चुनावों के जो भी परिणाम आए उसे सभी पक्षों ने सिर झुका कर स्वीकार किया| इतने के लिए अवश्य भारत के राजनेताओं की प्रशंसा करनी चाहिए| लेकिन इसके आगे लोकतंत्र की सीमा समाप्त हो जाती है|
वस्तुतः यहॉं कानून बनाकर तथा संविधान में संशोधन करके ऐसी व्यवस्थाएँ कर दी गई हैं जो लोकतंत्र की ओट में एकाधिकारवादी तंत्र को सत्ता पर नियंत्रण का अवसर प्रदान करती हैं| राजनीति में वंशतंत्र हावी होता जा रहा है| केन्द्र में नेहरू परिवार का वंशवादी तंत्र हावी है तो उसकी देखादेखी राज्यों में भी कई वंशवादी पार्टियॉं धड़ल्ले से लोकतंत्र का मजाक उड़ा रही हैं| समाज को राजनीतिक स्वार्थवश जातियों, धर्मों (मजहबों), भाषाओं में इस तरह बॉंट दिया गया है कि लोकतंत्र का समतावादी आदर्श उसमें खोकर रह गया है| जाति और संप्रदाय आधारित वोट बैंक की राजनीति ने लोकतंत्र को केवल 'संख्या बलफ की प्रतिस्पर्धा में बदल दिया है| संख्या बल बढ़ाने के लिए राजनेतागण राष्ट्रविरोधी तरीके
अपनाने से भी परहेज नहीं करते| देश की पूर्वी सीमा वाले क्षेत्रों में बंगलादेशी मुस्लिम घुसपैठियों को जानबूझकर इसलिए बढ़ावा दिया गया कि इससे
चुनावों में संबंधित पार्टियों व नेताओं का वोट बैंक बढ़ सकता था| जाति और मजहब के आधार पर शुरू की गई आरक्षण की राजनीति ने समाज की एकता को और विखंडित करने का काम किया|
अभी भारत की सत्तारूढ़ पार्टी का एक चिंतन शिविर राजस्थान की राजधानी जयपुर में आयोजित किया गया| यह चिंतन शिविर कम वंशवाद के लोकतांत्रिक अभिषेक का आयोजन अधिक था| इस महान देश की सबसे पुरानी और शक्तिशाली पार्टी के राजनेताओं का आचरण किसी भी लोकतांत्रिक देश को शर्मिंदा करने वाला था| कांगे्रस के युवराज राहुल गांधी को २०१४ के आम चुनाव में पार्टी का तारणहार समझा जा रहा है| उनकी स्तुति-अभ्यर्थना में जिस तरह लोग गिरे जा रहे थे, वह जुगुप्सा उत्पन्न करने वाला था|
राहुल ने पार्टी के उपाध्यक्ष के रूप में ताजपोशी के बाद पार्टी की राष्ट्रीय सभा के प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए जो व्याख्यान दिया, वह निश्चय ही बहुत अच्छा लिखा गया था और उन्होंने इसका रिहर्सल भी बहुत अच्छा कर रखा था| अवश्य यह व्याख्यान उनके अब तक के सभी व्याख्यानों में सर्वश्रेष्ठ कहा जा सकता है, लेकिन इससे देश का या देश की आम जनता का क्या भला होने वाला है| वह अपनी ही पार्टी के कामकाज के तौर-तरीकों की इस तरह आलोचना कर रहे थे, मानो वह कोई बाहर के व्यक्ति हैं और इस पार्टी के उद्धार के लिए लाए गए हों| इस देश में आत्मालोचना करने वाला व्यक्ति धोखे से बहुत ईमानदार और महान मान लिया जाता है| उन्होंने अपनी पार्टी में कोई नियम-कायदा न होने की बात की और कहा कि 'कभी-कभी मैं| खुद से पूछता हूँ कि भाई यह पार्टी चलेगी कैसे, चुनाव कैसे जीता जाएगा|फ और भी अनेक बातें| पार्टी में समझदार व बुद्धिमान लोगों की कोई पूछ नहीं है| जो समझदार हैं, उनकी कोई पूछ नहीं है| वे राजनीति की तथा सत्ता की मुख्य धारा से दूर हाशिए में डाल दिए गए हैं| उनकी कोई आवाज नहीं है| और जो ऊँचे-ऊँचे पदों पर हैं, जिनकी बड़ी आवाज है, उनमें समझदारी नहीं है| इस तरह बाहरी व्यक्ति बनकर अपनी ही पार्टी की आलोचना करना उसके निकम्मेपन तथा कदाचार को ढकने और अपने लिए आम जनता की सहानुभूति और जन समर्थन जुटाने का सबसे अच्छा तरीका है| कांग्रेस इस तकनीक का प्रायः इस्तेमाल करती है| राहुल के पिताश्री राजीव गांधी ने १९८५ में कांग्रेस की स्थापना के शताब्दी समारोह के अवसर पर बोलते हुए (प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए) पार्टी की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति तथा प्रशासनिक प्रणाली पर तीखा प्रहार किया था| उनका भी कहना था कि पार्टी सिकुड़ गई है, आम जनता से उसका संपर्क टूट गया है| सत्ता के दलाल तथा स्वयंभू नेता सत्ता पर काबिज हैं| हम सामाजिक परिवर्तन वाली पार्टी हैं, लेकिन हम जनता से दूर होते जा रहे हैं| इस तरह हमने अपने को कमजोर बना लिया है और तरह-तरह की बुराइयों के शिकार हो गये हैं| उन्होंने बड़े जोश के साथ आह्वान किया कि हमें सड़े और भ्रष्ट तत्वों से बाहर निकलना है| किंतु केवल ४ साल में सब बदल गया और वह स्वयं भ्रष्टाचार को छिपाने की कार्रवाई में लगे नजर आए और वही दलाल और भ्रष्ट राजनेता उनके बचाव में आगे आए, जिन्हें वह पार्टी से निकाल बाहर करने की बात कर रहे थे|
राहुल गांधी स्वयं कम से कम ९ वर्षों से पार्टी संगठन में काम कर रहे हैं, अब तक उन्होंने उसमें सुधार के लिए कुछ क्यों नहीं किया| वास्तव में यह सब पूछने का कोई अर्थ नहीं है| वह येन-केन प्रकारेण जनता की सहानुभूति बटोर कर २०१४ का चुनाव जीतने की केवल जुगाड़ बैठा रहे हैं|
यह कितनी बड़ी विडंबना है कि अल्पसंख्यक यानी मुस्लिम समुदाय का वोट पाने के लिए पार्टी के वरिष्ठ नेता तथा देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने ऐसा बयान दे दिया, जिसे सीधे पाकिस्तान के उन आतंकवादी नेताओं ने लपक लिया, जो पूरी दुनिया के लोकतंत्र के लिए खतरा बने हुए हैं| मुंबई हमले के सूत्रधार जिहादी नेता हाफिज सईद ने शिंदे के बयान को आधार बनाकर संयुक्त राष्ट्र से मांग की है कि भारत को एक आतंकवादी देश घोषित किया जाए| शिंदे साहब ने अपने बयान में प्रमुख विपक्षी दल पर हमला करते हुए कहा कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा भारतीय जनता पार्टी के शिविरों में आतंकवादी प्रशिक्षण दिया जाता है, बम विस्फोटों की ट्रेनिंग दी जाती है| कांग्रेस के एक दूसरे वरिष्ठ नेता महामंत्री दिग्विजय सिंह ने शिंदे का समर्थन करते हुए कहा कि यह बात हम पिछले १० वर्षों से कहते आ रहे हैं|
अब शिंदे साहब को यदि इसकी जानकारी थी कि संघ के शिविर में आतंकवादी प्रशिक्षण दिया जाता है या वहॉं बम बनता है, तो उन्हें इसके खिलाफ तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए थी| यह कोई पार्टी के चिंतन शिविर में दिए जाने वाले भाषण का विषय नहीं था| संघ यदि राष्ट्र विरोधी है, तो देश चाहेगा कि सरकार उसके खिलाफ बयानबाजी करने के बजाए ठोस कानूनी कार्रवाई करे| कार्रवाई न करके इस तरह की बयानबाजियॉं करना वास्तव में गलत उपायों से लोकतंत्र का अपहरण करना है|
यह तो रही देश की बात| अब दुनिया की तरफ नजर डालें तो दिखाई पड़ेगा कि दुनिया के प्रायः सारे लोकतांत्रिक देशों में जातीय, मजहबी तथा नस्ली गुट अपने संख्या बल का दबाव बनाने में लगे हैं| लोकतंत्र प्रायः हर जगह केवल चुनावों तक सीमित होता जा रहा है| ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, आस्ट्रेलिया एवं कनाडा जैसे बड़े देश भी अब उदार लोकतंत्र का बाना छोड़कर अपनी राष्ट्रवादी खोल में सिमटने को आतुर दिखाई दे रहे हैं|
लोकतंत्र के नाम पर इस्लामी तानाशाही
मध्य पूर्व में खानदानी तानाशाही के खिलाफ जब लोकतंत्र की मांग को लेकर एक जन ज्वार उमड़ा, तो पूरी दुनिया को ऐसा लगा कि अब उस इलाके में भी लोकतंत्र कायम हो जाएगा, जहॉं दूर-दूर तक इसकी कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी| अरबी भाषी उत्तर अफ्रीकी क्षेत्र में ट्यूनीशिया से उठा यह आंदोलन जल्दी ही मिस्र (इजिप्ट), जार्डन और यमन में भी फैल गया| लीबिया में उसने कर्नल गद्दाफी जैसे तानाशाह का अंत कर दिया और अब सीरिया भी उसकी चपेट में है| लेकिन जल्दी ही यह साफ हो गया कि एकाएक उमड़ा यह आंदोलन लोकतंत्र की आड़ में एक और तानाशाही कायम करने वाला है, जो पिछली तानाशाही से भी कहीं अधिक खतरनाक तथा लोकतंत्र विरोधी है| कम से कम मिस्र में हुए आम चुनाव ने यह अच्छी तरह सिद्ध कर दिया कि केवल चुनाव कराना या वोट डालना लोकतंत्र नहीं है| अरब जगत में वस्तुतः लोकतंत्र विरोधी शक्तियॉं सत्ता हथियाने के लिए लोकतंत्र को ही अपना हथियार बना रही हैं| मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड ने किस तरह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का नाटक करके सत्ता को हथिया लिया, वह पूरी दुनिया के सामने है|
मुस्लिम ब्रदरहुड ने अपना एजेंडा कभी छिपाया नहीं, लेकिन पूरी दुनिया चुनाव के नाम से ही इतनी प्रफुल्लित थी कि उसने मध्यपूर्व के सबसे बड़े देश को 'मुस्लिम ब्रदरहुडफ के कब्जे में सहज ही जाने दिया| मुस्लिम ब्रदरहुड के पूर्व मुखिया मुहम्मद महदी अकेफ ने अब से कुछ साल पहले २००७ में बीबीसी के साथ साक्षात्कार में कहा था कि 'केवल इस्लाम ही वास्तविक लोकतंत्र है| पश्चिमी लोकतंत्र झूठा और अवास्तविक है|फ इसके एक वर्ष पूर्व २००६ में फिलिस्तीनी विधान परिषद (लेजिस्लेटिव कौंसिल) के चुनाव में 'हमासफ जैसे संगठन को जीत हासिल हुई, जिसे यूरोपीय संघ तथा अमेरिका ने अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठन घोषित कर रखा था|
हम जानते हैं कि ऐसी शक्तियों से लोकतंत्र की रक्षा के लिए ऐसी व्यवस्था करने की जरूरत होती है, जिससे कि लोकतांत्रिक तौर-तरीकों का लाभ उठाकर वे सत्ता को अपने हाथ में न दबोच सकें, लेकिन इधर के वर्षों में लोकतांत्रिक शक्तियॉं शायद इस तरफ से उदासीन हो गई हैं| 'फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनीफ ने जर्मन चुनावों में नाजी पार्टी तथा कम्युनिस्टों का भाग लेने से रोकने के लिए कानून बना रखा था| १९९५ की द्वितीय ओस्लो आंतरिक सहमति के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई कि ऐसे किसी भी व्यक्ति या संगठन को चुनाव में भाग लेने की इजाजत नहीं दी जाएगी, जो नस्लवाद का समर्थक हो अथवा गैर लोकतांत्रिक तरीकों का इस्तेमाल करके अपने लक्ष्य को पाने की कोशिश कर रहा हो| लेकिन ऐसे नियमों की फिलिस्तीनी चुनाव या मिस्री चुनाव में उपेक्षा की गई|
वास्तव में पश्चिमी देश लोकतंत्र विरोधी इस्लामी शक्तियों से सीधा मुकाबला करने से लगातार बचने की कोशिश करते रहे हैं| उनका ख्याल था कि वे इनका अपने हित में इस्तेमाल कर सकते हैं, इसलिए उनसे नाहक टक्कर लेने से क्या फायदा| १९७९ में ईरान में इस्लामी क्रांति हुई और अयातोल्लाह खोमेनी की सत्ता काबिज हुई, तो पश्चिम ने यही सोचा कि उनके साथ संबंध निभाया जा सकता है| पाकिस्तान अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी आतंकवाद का सबसे बड़ा गढ़ है, जिसे वहॉं की सरकार और सेना दोनों का समर्थन प्राप्त है, यह जानते हुए भी अमेरिका उसे अरबों डॉलर की सहायता देकर अब तक पाल रहा है| अभी भी वह सोचता है कि एशिया में अपने राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए उसका इस्तेमाल किया जा सकता है|
इलाज क्या है?
वास्तव में हमें सबसे पहले यह स्वीकार करना होगा कि लोकतंत्र केवल चुनाव कराना नहीं है| जनता का लोकतांत्रिक अधिकार केवल मतदान करने तक सीमित नहीं है| लोकतंत्र का अर्थ है 'न्याय का तंत्रफ जो सामूहिक हित पर आधारित हो| यह सभ्य, शिक्षित तथा उदार समाज का तंत्र है| यह भीड़ तंत्र या संख्या बल से संचालित होने वाला तंत्र नहीं है| जनता की सरकार का अर्थ है किसी एक व्यक्ति की इच्छा से चलने वाली सरकार का निषेध| यह राज तंत्र, कुलीन तंत्र या एक तंत्र का विरोधी तंत्र है, किंतु यह गुटीय तंत्र नहीं है| बड़े देशों में भारतीय लोकतंत्र का सर्वाधिक पतन या अवमूल्यन हुआ है| यहॉं लोकतंत्र की ओट में बड़ी सुविधा से एकतंत्र या गुटीय तंत्र चल रहा है| भारतीय संविधान के अंतर्गत तो सत्ता तंत्र की ही नहीं संसद या विधानसभा की शक्तियॉं भी पार्टी नेताओं के हाथ में केंद्रित हो गई हैं| यों यहॉं के संविधान में पार्टियों को कोई मान्यता नहीं प्राप्त है| संसद या विधानसभाओं के प्रतिनिधि विधानतः अपने निर्वाचन क्षेत्र की जनता के प्रतिनिधि हैं और अपने कामकाज में संविधान तथा अपने क्षेत्र के मतदाता के प्रति जवाबदेह हैं, किंतु व्यवहार में उनकी पूरी जवाबदेही तथा वफादारी केवल अपनी पार्टी या अपने पार्टी नेता तक सीमित हो गई है| 'दल बदल विरोधी विधेयकफ (एंटी डिफेक्शन एक्ट) ने सभी निर्वाचित सदस्यों को अपने पार्टी नेता का गुलाम बना दिया है| भारतीय लोकतंत्र की एक और विडंबना है कि यहॉं लोकतंत्र के तीनों अंग व्यवहार में कार्यपालिका के अधीन हो गये हैं या दूसरे शब्दों में कहें तो सत्तारूढ़ दल के नेता के हाथ में उनकी भी नकेल आ गई है|
इसके अतिरिक्त स्वार्थी राजनेताओं ने देश के मानव समुदाय को जाति-मजहब के खेमों में इस तरह बॉंट दिया है कि उसका वास्तविक बहुमत कभी एक पक्ष में अपना अभिमत व्यक्त ही नहीं कर सकता| ऐसे में देश के भीतर यदि वास्तविक लोकतंत्र कायम करना है, तो उसे सबसे पहले जाति और मजहब के विभाजन से मुक्त करना है| पिछड़े जनसमुदाय को यदि आगे लाने का कोई कार्य करना है, तो उसे आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के आधार पर प्रोत्साहन सहायता देनी चाहिए| और इससे भी ज्यादा जरूरी बात है कि देश को मजहबी बहुसंख्यक-अल्पसंख्यकवाद से बाहर निकाला जाना चाहिए| और यह सब करना है, तो देश के संविधान को बदलना होगा और उसे देश की आधुनिक आवश्यकताओं के अनुकूल बनाना होगा| भारत जैसे देश में यूरोपीय अवधारणा को लागू करने और आगे बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं है|
विश्व लोक के स्वास्थ्य के लिए यही दवा कारगर है| उसे तथाकथित प्लूरलिज्म या बहुसंस्कृतिवाद के चंगुल से बाहर निकालना है| लोकतंत्र में उसी संस्कृति का सम्मान किया जा सकता है, जो लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों के विरुद्ध न हो| जो संस्कृतियॉं लोकतंत्र की मूल अवधारणा को और मनुष्य की न्यायिक समानता को ही अस्वीकार करती हों, उन्हें भला लोकतंत्र में कैसे सम्मान दिया जा सकता है| वर्तमान तथाकथित आधुनिक लोकतंत्र की
अवधारणाएँ तब बनी थीं, जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पनपी आज की समस्याएँ नहीं पैदा हुई थीं, इसलिए आज तथा आने वाले दिनों के लिए लोकतंत्र का सैद्धांतिक आधार भी बदलना होगा, तभी लोकतंत्र की उस मूल भावना की रक्षा हो सकेगी, जिसकी कल्पना कभी लिंकन ने की थी|
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