मंगलवार, 2 जुलाई 2013

स्वामी विवेकानंद का प्रथम संदेश

स्वामी विवेकानंद का प्रथम संदेश
सभ्यता को बचाना है, तो चरमपंथ को कुचलना होगा



विवेकानंद ने शिकागो के उस धर्म सम्मेलन में शामिल होकर अनजाने ही एक अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका अदा की| वह इस सम्मेलन में न शामिल हुए होते तो दुनिया का धार्मिक नक्शा ही कुछ और होता और हिन्दू नामक धर्म की शायद कोई पहचान ही शेष न रहती| इस सम्मेलन में भारतीय या हिन्दू धर्म का कोई प्रतिनिधि आमंत्रित नहीं था| यह वह समय था जब भारत के किसी धर्म की विश्‍वस्तर पर कोई पहचान नहीं थी| दुनिया में भारत के कुछ ग्रंथों जैसे वेदों, उपनिषदों एवं गीता आदि की तो प्रतिष्ठा थी, यहॉं के कुछ दार्शनिक मतों का भी परिचय था, लेकिन एक तो यह सब गिनती के कुछ लोगों तक सीमित था, दूसरे इन जानकारों ने भी सम्यक ज्ञान के अभाव में यहॉं के धर्मों को बेकार करार दे दिया था| देश गुलाम था| उसकी पुरानी गौरवगाथा लुप्त हो चुकी थी, नये पैदा हुए तरह-तरह के परलोकवादी पंथ आपस में ही एक-दूसरे को नीचा दिखाने और अपनी प्रतिष्ठा कायम करने के संघर्ष में लगे थे| ऐसे में भला भारत के किसी धर्म को पूछने वाला कौन था|

आपने हम लोगों का जैसा हार्दिक और भाव भरा स्वागत किया है उससे मेरा हृदय अवर्णनीय आनंद से भर गया है| मैं आपको विश्‍व की सबसे प्राचीन ऋषि परंपरा की ओर से धन्यवाद देता हूँ, मैं आपको सभी धर्मों की मॉं की ओर से धन्यवाद देता हूँ तथा मैं सभी वर्गों तथा मतों के लाखों हिंदुओं की तरफ से धन्यवाद देता हूँ| मेरा धन्यवाद इस मंच से बोलनेवाले उन कुछ वक्ताओं के लिए भी है जिन्होंने पूर्वी देशों का हवाला देते हुए आपसे कहा कि सुदूरवर्ती देशों से आए ये लोग इस आदर की पात्रता के सही हकदार हैं कि वे विभिन्न देशों को सहिष्णुता का संदेश ले गये| मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म का प्रतिनिधि हूँ जिसने दुनिया को (सभी धर्मों के प्रति) सहिष्णुता और सार्वभौम स्वीकृति दोनों की शिक्षा दी| हम केवल सार्वभौम सहिष्णुता में ही विश्‍वास नहीं करते, बल्कि हम सभी धर्मों को समान रूप से सत्य मानते हैं| मुझे गर्व है कि मैं उस देश का हूँ जिसने धरती पर स्थित सभी धर्मों तथा राष्ट्रों के पीड़ितों एवं शरणार्थियों को आश्रय दिया| मुझे आपको यह बताते हुए गर्व है कि हमने इजरायलियों के शुद्धतम बचे लोगों को अपने सीने में समेट रखा है, जिन्होंने उसी वर्ष दक्षिण भारत में आकर शरण ली जब रोमन अत्याचारियों ने उनके मंदिर को खंड-खंड कर डाला था| मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म का हूँ जिसने
महान जरथुस्त राष्ट्र के अवशिष्ट जनों को आश्रय दिया और अब तक उन्हें संरक्षण दे रहा है| भाइयों मैं आपके सामने एक मंत्र की कुछ पंक्तियॉं उद्धृत करना चाहता हूँ जिसे मैं अपने बचपन से दोहराता आ रहा हूँ और जिसे हर दिन (भारत के) लाखों लोग दोहराते हैं| जैसे विभिन्न स्रोतों से निकलने वाली नदियॉं अंततः एक ही समुद्र में जाकर मिल जाती हैं उसी तरह है परमात्मा, भिन्न-भिन्न रुचियों के अनुसार मनुष्य टेढ़े-मेढ़े या सीधे रास्ते से होकर अंततः तुझमें ही आकर मिल जाते हैं| (यह श्‍लोक मूल रूप में इस प्रकार है- 'रुचीनाम् वैचित्र्याद ऋजुकुटिल नाना पथ जुषाम| नृणामेकोगम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥
यह सम्मेलन जो अब तक हुए सर्वाधिक गरिमामय सम्मेलनों में से एक है- अपने आप में गीता में दिये गये उस सिद्धांत की घोषणा का समर्थक है कि 'जो जिस किसी भी रूप में मेरे समक्ष आता है, मैं उसे प्राप्त होता हूँ| सभी समुदाय उसी रास्ते के लिए संघर्ष कर रहे हैं जो अंततः मुझ तक पहुँचता है| साम्प्रदायिकता, धर्मांधता तथा उसके और भयावह उत्तराधिकारी चरमपंथ (फैनेटिसिज्म) ने लंबे समय से इस सुंदर धरती को अपने कब्जे में ले रखा है और उसे हिंसा से भर दिया है| वे आए दिन इसे मानव रक्त से भिगोते रहते हैं| उन्होंने सभ्यता को नष्ट कर दिया है और सम्पूर्ण राष्ट्रों को निराशा के गर्त में डाल रखा है| यदि इन भयंकर शैतानों ने यह न किया होता तो मानव समाज आज के मुकाबले कहीं अधिक प्रगति किया होता| लेकिन अब उनका समय आ गया है और मैं पूरी व्यग्रता से आशा करता हूँ सुबह इस सम्मेलन के सम्मान में जो घंटा बजा था वह सारे चरमपंथ, सारे उत्पीड़न -चाहे वह तलवार के बल पर हो रहा हो या कलम के- तथा समान लक्ष्य के लिए अपने रास्ते पर बढ़ रहे लोगों के बीच की कटुता या कठोर भावनाओं का मृत्युघोष सिद्ध होगा|
यह था ११ सितंबर १८९३ को शिकागो में आयोजित प्रथम विश्‍व धर्म संसद (फर्स्ट वर्ल्ड पार्लियामेंट ऑफ रिलीजंस) में स्वामी विवेकानंद का विश्‍व के धार्मिक समुदायों के लिए प्रथम संबोधन| मात्र २ मिनट के केवल ४७१ शब्दों के इस संबोधन ने उस समय एक क्रांति कर दी| करीब ६००० श्रेष्ठ धर्माचार्यों एवं बुद्धिजीवियों की वह सभा स्तब्ध थी| मात्र ३० वर्ष की आयु वाले इस भारतीय संन्यासी ने २ मिनट में पूरा सम्मेलन लूट लिया और सम्मेलन के आयोजकों की सारी योजना पर तुषारापात कर दिया| अंग्रेजी के ख्यातिप्राप्त स्तम्भकार एस. गुरुमूर्ति ने अपने आलेख (विवेकानंद, यंग ऐट १५०) में फर्स्ट यूनिटेरियन चर्चफ के जेम्स इस्माइल फोर्ड को उद्धृत करते हुए लिखा है कि शिकागो में आयोजित इस धर्म सम्मेलन का गुप्त एजेंडा था दुनिया के तमाम धर्मों (रिलीजंस) के बीच प्रोटेस्टेंट ईसाई धर्म की सर्वश्रेष्ठता स्थापित करना, लेकिन कलकत्ता के इस स्वामी ने उसे विफल कर दिया|
इस प्रथम 'वैश्‍विक संबोधन के बाद विवेकानंद करीब ८ वर्ष से कुछ अधिक दिन जीवित रहे| इस शेष जीवन का करीब आधा समय उन्होंने विदेश में और बाकी आधा अपने उस देश में बिताया जिस पर वह बहुत अधिक गर्व करते थे| आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद
सरस्वती के बाद वे दूसरे ऐसे संन्यासी हैं, जिन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद की या हिन्दू राष्ट्रवाद की नींव डाली| इस कार्य में विवेकानंद अधिक सफल हुए क्योंकि उन्होंने अंग्रेजी को अपना माध्यम चुना और शिकागो के वैश्‍विक मंच से अपनी पहली उद्घोषणा की| वह अपने मात्र २ मिनट के पहले व्याख्यान से ही पूरी दुनिया के सचेत बुद्धिजीवियों में छा गये| विवेकानंद ने पूरी दुनिया में व्याप्त विविध धर्मों की रूढ़ियों एवं विकृतियों पर कोई प्रहार नहीं किया, बल्कि उन्होंने पहली बार विश्‍व स्तर पर सर्वधर्म समभाव का संदेश दिया| दयानंद सरस्वती की तरह विवेकानंद भी वेदवादी थे और पुराणों के मुकाबले वेद को ही श्रेष्ठ मानते थे| उनका कहना था कि पुराणों का वही संदेश ग्रहण करने योग्य है जो वेदसंगत है यानी वेदों के विरुद्ध नहीं है| किन्तु उन्होंने पौराणिक मूर्तिपूजा का विरोध या निषेध नहीं किया जैसा कि दयानंद सरस्वती ने किया| अपने प्रवचनों तथा लेखन के लिए अंग्रेजी भाषा के इस्तेमाल तथा प्रचलित धर्मों के प्रति अविरोधी भाव रखते हुए हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता के प्रचार के कारण विवेकानंद के राष्ट्रगौरव एवं राष्ट्रवाद के प्रचार को कहीं व्यापक स्वीकार्यता प्राप्त हुई|
विवेकानंद ने शिकागो के उस धर्म सम्मेलन में शामिल होकर अनजाने ही एक अति महत्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका अदा की| वह इस सम्मेलन में न शामिल हुए होते तो दुनिया का धार्मिक नक्शा ही कुछ और होता और हिन्दू नामक धर्म की शायद कोई पहचान ही शेष न रहती| इस सम्मेलन में भारतीय या हिन्दू धर्म का कोई प्रतिनिधि आमंत्रित नहीं था| यह वह समय था जब भारत के किसी धर्म की विश्‍वस्तर पर कोई पहचान नहीं थी| दुनिया में भारत के कुछ ग्रंथों जैसे वेदों, उपनिषदों एवं गीता आदि की तो प्रतिष्ठा थी, यहॉं के कुछ दार्शनिक मतों का भी परिचय था, लेकिन एक तो यह सब गिनती के कुछ लोगों तक सीमित था दूसरे इन जानकारों ने भी सम्यक ज्ञान के अभाव में यहॉं के धर्मों को बेकार करार दे दिया था| देश गुलाम था| उसकी पुरानी गौरव-गाथा लुप्त हो चुकी थी, नये पैदा हुए तरह-तरह के परलोकवासी पंथ आपस में ही एक-दूसरे को नीचा दिखाने और अपनी प्रतिष्ठा कायम करने के संघर्ष में लगे थे| ऐसे में भला भारत के किसी धर्म को पूछने वाला कौन था|
शिकागो धर्म सम्मेलन का आयोजन ईसाइयों की एक बहुत बड़ी योजना का अंग था| इसमें दुनिया भर के विविध धर्म-संप्रदायों के प्रतिनिधियों को बुलाकर उनके समक्ष यह सिद्ध करना था कि दुनिया के सारे प्रचलित धर्मों में ईसा का धर्म सर्वश्रेष्ठ है और उसमें भी प्रोटेस्टेंट मत श्रेष्ठतम है| इस सम्मेलन के मुख्य संयोजक रेवरेंड जॉन हेनरी बरोज (पास्टर ऑफ फर्स्ट प्रेस बाइटेरियन चर्च ऑफ शिकागो) केवल विवेकानंद की उपस्थिति के कारण अपने लक्ष्य में विफल हो गए थे और बेहद निराशा के शिकार हुए थे| विवेकानंद को केवल २ मिनट का समय दिया गया था, लेकिन पहला संबोधन वाक्य ही इतना चमत्कारी था कि श्रोता उस पर ही कई मिनट तक तालियॉं बजाते रहे| उन्होंने संबोधन के लिए खड़े होने पर जैसे ही अपने गुरु गंभीर स्वर में 'सिस्टर्स एण्ड ब्रदर्स ऑफ अमेरिकाफ इन पॉंच शब्दों का उच्चारण किया, सभाकक्ष में मानो बिजली कौंध गई| यह वहॉं के श्रोताओं के लिए बिल्कुल अपरिचित लेकिन अत्यंत आत्मीय संबोधन था| इसमें विश्‍व-भ्रातृत्व का संदेश था जो सभी श्रोताओं की हृदयतंत्री को अपने अत्यंत कोमल स्पर्श से झंकृत कर गया| तुमुल करतल ध्वनि इस आंतरिक झंकृति की ही बाह्य अभिव्यक्ति थी| और इसके बाद उन्होंने जो संक्षिप्त संदेश दिया वह मंत्रमुग्ध श्रोताओं के सीधे हृदय में उतर गया|
संदेश चमत्कारी था| यह भारत के बाहर जन्मे धर्मों के लिए पूरी तरह अपरिचित था| उन्होंने हिन्दू धर्म की इस विशेषता को रेखांकित किया कि वह सभी अन्य धर्मों को समान रूप से आदर देता है| वह मानवीय है, उदार है, सार्वभौम है| इस संबोधन ने ईसाइयत को सर्वश्रेष्ठ विश्‍वधर्म सिद्ध करने की योजना को मिट्टी में मिला दिया| स्वामीजी ने न केवल तथाकथित हिंदू धर्म को बल्कि अन्य कई धर्मों को भी बचा लिया| इस सम्मेलन के बाद अकेले स्वामी जी चर्चा में थे| मीडिया में भी वे ही छाए रहे| मीडिया ने लिखा 'धर्म संसदफ के समक्ष विवेकानंद का संबोधन हमारे ऊपर आकाश में स्थित स्वर्ग जैसा व्यापक था, जो अंतिम सार्वभौम धर्म की तरह सभी धर्मों के श्रेष्ठतत्वों को अपने में समेटे था| लोग चकित थे कि वह आदमी तो एक 'हीदनफ था ('हीदनफ का अर्थ है काफिर, अन्य धर्म को मानने वाला असभ्य व्यक्ति| अंग्रेजी में इसके लिए 'पगानफ शब्द का भी इस्तेमाल किया जाता है जिसका अर्थ होता है ईसाई धर्म से भिन्न असभ्य एवं बर्बर जातियों द्वारा माना जाने वाला धर्म) फिर भी ऐसा व्याख्यान| और हम लोग उसके लोगों के पास अपने मिशनरी भेजते हैं, जबकि यह ज्यादा उचित होता कि वे हम लोगों के पास अपने मिशनरी भेजते|
विवेकानंद ने भारत राष्ट्र को एक देवत्व का दर्जा प्रदान किया उसे प्राचीन माता का स्वरूप दिया| इस देश में पृथ्वी को माता मानने की परम्परा बहुत पुरानी है (माताभूमिः पुत्रोहं पृथिव्याः) लेकिन राष्ट्र को माता के रूप में स्थापित करने का काम विवेकानंद ने किया| गुलामी के उस युग में उन्होंने घोषणा की कि 'मैं भविष्यद्रष्टा नहीं हूँ और न मैं भविष्य देखने की परवाह करता हूँ लेकिन (भविष्य का यह दृश्य) मैं देख रहा हूँ कि 'प्राचीनमाता (भारत माता) एक बार फिर जग गई है और अपने सिंहासन पर बैठी है और पहले से भी कहीं अधिक गरिमा के साथ|फ ऐसे स्वप्नद्रष्टा विवेकानंद वस्तुतः आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद के संस्थापक पिता हैं|
उन्होंने पूरी दुनिया के साथ भारतीय राजनीतिक नेताओं को भी बहुत गहराई से प्रभावित किया| उनके राष्ट्रवादी उद्बोधन ने राष्ट्रनेताओं में एक नई ऊर्जा का संचार किया| नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने कहा था कि 'वह आधुनिक राष्ट्रवादी आंदोलन के आध्यात्मिक पिता थे|फ राज गोपालाचारी ने शायद उन्हें और गहराई से समझा| उन्होंने स्वीकार किया कि 'विवेकानंद न होते तो हम अपना धर्म खो देते और अपनी स्वतंत्रता भी हासिल न कर पाते| हम इन सबके लिए उनके ऋणी हैं|फ गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था कि 'यदि तुम भारत को जानना चाहते हो तो विवेकानंद को पढ़ो|फ महर्षि अरविंद और सुब्रह्मण्य भारती जैसे रहस्यवादी संत और कवि भी उनसे अत्यधिक प्रभावित थे| स्वतंत्रता संग्राम की अलख जगाने वालों के लिए उनसे बेहतर प्रेरणास्रोत दूसरा कोई नहीं था| स्वातंत्र्य संघर्ष में कूदने वाले प्रत्येक युवा के थैले में विवेकानंद का साहित्य और उसके मस्तिष्क में उनकी पथप्रदर्शक मूर्ति अवश्य रहती थी| यही कारण था कि ब्रिटिश पुलिस ने विवेकानंद द्वारा स्थापित रामकृष्णमठ के विरुद्ध भी कार्रवाई की थी|
स्वामी विवेकानंद ने अपने अल्पकालीन जीवन में विराट साहित्य दिया है| लेकिन उनका वह प्रथम संदेश सर्वाधिक विचारणीय है| वह उनका कोई लिखित वक्तव्य नहीं था| वह उनके अंतर्मन से निकली सीधी आवाज थी, जिसमें उनका संपूर्ण व्यक्तित्व, संपूर्ण चिंतन और भविष्य का संपूर्ण स्वप्न समाया है| भगवान बुद्ध के सारनाथ में दिए गए संक्षिप्त उपदेश की तरह यह उनके भी ३० वर्ष के जीवनानुभव, तप और देश की गुलामी से उपजी तड़प का सार था|
अपने उद्बोधन के प्रथमांश में उन्होंने धन्यवाद की औपचारिकता के बाद भारतवर्ष के अपने उदार धार्मिक दृष्टिकोण, सार्वभौम मानव प्रेम का परिचय दिया| करीब तीन चौथाई शब्द इतने में ही खर्च हो गए| उनका मुख्य संदेश अत्यंत संक्षिप्त किंतु मनुष्यता की सार्वभौम चिंता का केंद्र बिंदु है| आश्‍चर्य है कि १२० वर्ष पूर्व जो उनकी चिंता का सर्वोच्च विषय था, वह आज भी उसी स्तर पर बल्कि उससे कहीं अधिक भयावह व गंभीरतर स्थिति में विद्यमान है| उनकी यह कल्पना सही सिद्ध नहीं हुई कि उपर्युक्त सम्मेलन के सम्मान में हुआ घंटानाद उस चिंता का मृत्यु संदेश होगा|
विवेकानंद ने शिकागो में अपनी सबसे गहरी चिंता 'फैनेटिसिज्मफ यानी चरमपंथ या आतंकवाद को लेकर व्यक्त की थी| उन्होंने इसके संदर्भ में किसी धर्म (रिलीजन) विशेष का  नाम नहीं लिया था, किंतु उनका संदेश स्पष्ट था| उन्होंने इसे सांप्रदायिकता और धर्मांधता का और भयावह उत्तराधिकारी करार दिया था| हम आज इस चरमपंथी कट्टरतावाद या आतंकवाद को दो-चार दशकों की उपज मानते हैं, किंतु स्वामी जी के उपर्युक्त संदेश से स्पष्ट है कि अब से १२० वर्ष पहले भी भारत व दुनिया की यह सर्वाधिक गहरी चिंता का विषय था| स्वामी जी ने उस समय कहा कि 'इन चरमपंथियों ने इस खूबसूरत धरती पर लंबे समय से कब्जा जमा रखा है और पूरी धरती को हिंसा से भर दिया है| वे आए दिन इस धरती को मनुष्य के खून से भिगोते रहते हैंै| उन्होंने सभ्यता को नष्ट कर दिया है और दुनिया के राष्ट्रों को निराशा के गर्त में डाल दिया है| यदि इन भयावह शैतानों ने यह सब न किया होता, तो मानव समाज आज के मुकाबले कहीं अधिक विकसित व समृद्ध होता|फ
इस उद्बोधन के बाद से पूरी दुनिया में तमाम लोग स्वामी विवेकानंद का साहित्य पढ़ रहे हैं, उनकी जयंतियॉं मना रहे हैं, मूर्तियॉं स्थापित कर रहे हैं, मंदिर बना रहे हैं, ध्यान केंद्र खोल रहे हैं, लेकिन उनकी इस पीड़ा और उनके संदेश पर तनिक ध्यान नहीं दे रहे हैं| वे आत्मा-परमात्मा, कर्मयोग, ज्ञान योग, भक्तियोग, साधना एवं ध्यान पर तरह-तरह की बहसें कर रहे हैं, लेख लिख रहे हैं, किंतु संघर्ष के उस पथ पर कदम बढ़ाने से जाने-अनजाने हमेशा कतराते रहते हैं और समझते हैं कि यह काम किसी दूसरे का है, उनका नहीं| आज करीब सवा शताब्दी बाद समय बहुत कुछ बदल चुका है, स्वामी जी के तमाम अपने ही सिद्धांत पुराने पड़ चुके हैं, लेकिन मानव सभ्यता को नष्ट कर रहा चरमपंथ आज न केवल विद्यमान है, बल्कि और फैलता जा रहा है और कहीं अधिक हिंसक और खतरनाक रूप लेता जा रहा है, जिसके कारण आज पूरी मानव सभ्यता खतरे में पड़ गई है|
यहॉं इस बात का भी उल्लेख करना आवश्यक है कि संपूर्ण मनुष्यता के एकीकरण तथा सभी धर्मों के बीच पारस्परिक सद्भाव के लिए स्वामी जी ने जिस सर्वधर्म समभाव का संदेश दिया, उसका उनके भविष्य के राजनीतिक अनुयायियों ने दुरुपयोग किया| स्वामी जी ने भी जाने-अनजाने यह गलती की कि उन्होंने उस सांप्रदायिकता, धर्मांधता तथा उससे उत्पन्न हिंसक चरमवाद के स्रोत को कभी परिभाषित नहीं किया| दयानंद सरस्वती ने इसे परिभाषित करने की कोशिश की| राष्ट्रवादी चिंतक कवि भारतेंदु हरिश्‍चंद्र ने भी उसकी तरफ सीधा संकेत किया| अपने 'भारत दुर्दशाफ नाटक में भारतेंदु ने 'भारत दुर्दैव नामक जिस पात्र की सृष्टि की, उसका रूपवर्णन करते हुए लिखा है कि उसका वेश 'आधा मुसलमानी और आधा क्रिस्तानी है और वह अपने हाथ में नंगी तलवार लिए हुए है|फ महर्षि दयानंद ने अपने ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाशफ में भारतीय-अभारतीय सभी प्रमुख विश्‍वासों की अंधी आस्थाओं की बखिया उधेड़ी| मगर स्वामी विवेकानंद ने ऐसा कभी नहीं किया| ऐसा नहीं कि वह कारणों को जानते नहीं थे, लेकिन उन्होंने उसकी सीधी अभिव्यक्ति से बचने का प्रयास किया| परिणाम यह हुआ कि जो लोग विविध धर्मों में निहित तत्वों को ठीक-ठीक नहीं जानते थे, उन्होंने विवेकानंद से एक गलत संदेश लिया, जो आधुनिक लोकतांत्रिक विचारधारा का एक आधार भी बन गया| कम से कम भारत में तो उसने जड़ पकड़ ली|
शिकागो की धर्म संसद में उन्होंने जिस मंत्र का उद्धरण दिया था, वह भारत के अपने विविध दार्शनिक मतों के संदर्भ में था, जिसमें ईश्‍वर तक पहुँचने के सभी परस्पर अविरोधी                     विचारों एवं विश्‍वासों की अभिव्यक्ति थी| वह मंत्र इस्लाम व ईसाई धर्मों पर लागू नहीं हो सकता| यही नहीं, उन्होंने जिस मंत्र या श्‍लोक का जिक्र किया था, वह भारतीय सांस्कृतिक धारा से गृहीत था, किसी धर्म (रिलीजन) पुस्तिका से नहीं| जब इस श्‍लोक की रचना हुई थी, तब 'हिंदूफ नाम का कोई धर्म नहीं था| भारत की धरती पर आए इस्लामियों तथा ईसाइयों ने यहॉं के निवासियों को हिंदू कहा और अपने धर्म (मजहब या रिलीजन) से भिन्न होने के कारण उनकी धर्म-संस्कृति को भी हिंदू संज्ञा दे दी, जिसे अंग्रेजी शासन में पक्के तौर पर भारतीयों पर चिपका दिया गया और उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया| इसलिए विवेकानंद के सर्वधर्म समभाव सिद्धांत को स्वीकार करके इस्लाम, ईसाई धर्म के साथ 'हिंदूफ को भी एक धर्म मान लिया गया और इन्हें समान दर्जा भी दिया गया| इसलिए इस्लाम, ईसाई आदि धर्मों के संदर्भ में स्वामी जी का यह कहना सही नहीं था कि सभी धर्म समान हैं और भिन्न-भिन्न मार्गों से चलकर उस एक ही ईश्‍वर तक पहुँचते हैं, उसी तरह जैसे भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलने वाली नदियॉं अलग-अलग रास्तों से चलकर एक ही समुद्र तक पहुँचती हैं| भारत के अपने विभिन्न धर्मों का गंतव्य एक जरूर है, लेकिन इस्लाम और ईसाई धर्म का भी गंतव्य वहीं नहीं है| उनमें सांप्रदायिकता और धर्मांधता के तत्व भी इसीलिए हैं कि उनमें तर्क और विवेक के लिए कोई जगह नहीं है| वे किसी अन्य को अपने समान नहीं मानते और अपने को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करते हैं| शिकागो में स्वामी जी के वक्तृत्व की सराहना आम बुद्धिजीवियों द्वारा की गई, भले ही वे ईसाई मतावलंबी रहे हों या अन्य| किसी संगठित धर्म के नेता ने उनकी सराहना नहीं की, न उनके संदेश का अनुसरण किया| आज किसी धर्म की केवल इसलिए सराहना नहीं की जानी चाहिए या उसके प्रति समभाव का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए कि वह इस सृष्टि के नियंता एक ईश्‍वर के प्रति विश्‍वास पर आधारित है, बल्कि उसका मूल्यांकन इस आधार पर करना चाहिए कि क्या उसमें न्याय और विवेक के प्रति आदर भाव है| क्या उसमें मनुष्य की स्वतंत्र चेतना का सम्मान है| जिस धर्म में न्याय, विवेक तथा मानव विचारों की स्वतंत्रता के लिए स्थान न हो, उसे सम्मान या आदर का पात्र नहीं माना जा सकता, बल्कि उसके खिलाफ तो स्वतंत्रचेता मनुष्यों को खुला संघर्ष छेड़ देना चाहिए| ईश्‍वर की
सर्वोच्चता कोई प्रशंसनीय विचार नहीं है| प्रशंसनीय है न्याय, सद्भाव, समानता, करुणा, दया एवं सहयोग को सर्वोच्चता प्रदान करने का भाव| इसलिए भारतीय और सेमेटिक (यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि) धर्मों के बीच धार्मिक समभाव की स्थापना कभी नहीं हो सकती| स्वामी जी ने जिस श्‍लोक को उद्धृत किया था, वैसा ही एक और श्‍लोक यहॉं उद्धरणीय है, जो सुभाषित रत्नावली में संग्रहित है|
यं शैवाःसमुपासते शिवमिति, ब्रह्मेेति वेदान्तिनो
बौद्धाः बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः
अर्हन्नित्यथ जैन शासनरता कर्मेतिमीमांसकाः
सोऽयं नो विदधातु वांछितफलं त्रैलोक्य नाथो हरिः
जिनकी शैव लोग शिव के रूप में उपासना करते हैं, वेदांती लोग ब्रह्म के रूप में| बौद्ध लोग बुद्ध के नाम से तथा प्रमाणपटु (तर्क या प्रमाण देने में कुशल) नैयायिक लोग कर्ता के रूप में, जैन शासन के अनुयायी अर्हत के रूप में तथा मीमांसक लोग कर्म के नाम से उपासना करते हैं, वे ही तीनों लोकों के स्वामी भगवान हरि हम लोगों को वांछित फल प्रदान करें|
कोई भी महापुरुष, वह कितना भी महान क्यों न हो, अपनी समग्रता में उपासनीय नहीं होता| मानवीय सीमाएँ हर व्यक्ति के साथ होती हैं, इसलिए हमें अपने विवेक का इस्तेमाल करके ही किसी के विचारों का अनुसरण करना चाहिए| फिर विवेकानंद का तो नाम ही 'विवेक में आनंदफ पर आधारित है, तो क्यों न हम विवेक को
सर्वोच्च स्थान दें| स्वामी विवेकानंद की प्राथमिक चिंता मनुष्यता की रक्षा की थी और वह उसे तेजी से ग्रस रहे हिंसक कट्टरतावाद को पराजित करके उसका अंत करने की थी, इसलिए आज भी इस महापुरुष के स्मरण का एक ही अर्थ है कि हम उनकी चिंता के निराकरण के लिए प्रयत्नशील हों, क्योंकि वह चिंता हमारी अपनी रक्षा से भी जुड़ी है| हम जैन हों, बौद्ध हों, शैव हों, वैष्णव हों, सिख हों या कोई और, हम सब को मिलकर मजहबी आतंकवाद के राक्षस से लड़ना है| क्योंकि यदि समय रहते उसे पराजित न किया जा सका, तो देश, संस्कृति और धर्म की रक्षा की बात कौन कहे, हम अपनी भी रक्षा नहीं कर सकेंगे और बेमौत मारे जाएँगे| यदि हम आत्मा में विश्‍वास करते हैं, तो स्वामी विवेकानंद की आत्मा अवश्य रोषपूर्ण नजरों से हमारी कायरता और पौरुषहीनता को धिक्कार रही होगी, जो उनके आह्वान के करीब सवा सौ वर्षों बाद भी उनकी घोषित आकांक्षा को पूरा नहीं कर सके|

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