वीरता और त्याग के अद्भुत प्रतीक : शीशदानी बर्बरीक
महाभारत की कथा का एक अद्भुत पात्र है बर्बरीक| वंशावली से तो वह पाण्डव है| पाण्डुपुत्रभीम का पौत्र| किंतु वैध विवाह परंपरा के बाहर की श्रृंखला में जन्म लेने के कारण उसे पाण्डुवंश का सम्मान नहीं मिल सका| भीम के हिडिम्बा से उत्पन्न पुत्र घटोत्कच की वीरता महाभारत में वर्णित है, लेकिन इस घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक ने उस युद्ध में भाग नहीं लिया| बर्बरीक असाधारण शक्ति संपन्न था| उसने युद्धकला अपनी मॉं से सीखी थी, बाद में भगवान शिव की उपासना करके उनसे तीन दिव्य बाण प्राप्त किये थे| ये तीन बाण ऐसे थे जिनसे एक बार में ही कितनी भी बड़ी सेना का संहार किया जा सकता था| इन बाणों से कोई कहीं भी छिप कर नहीं बच सकता था|
कथा है कि बर्बरीक ने अपनी मॉं को वचन दिया था कि वह केवल कमजोर का साथ देगा| किसी युद्ध में भी वह केवल उस पक्ष में शस्त्र उठाएगा जो कमजोर पड़ रहा होगा| महाभारत के युद्ध में वह किसी भी पक्ष द्वारा आमंत्रित नहीं किया गया था, लेकिन वह यह महायुद्ध देखना चाहता था, इसलिए वह कुरुक्षेत्र की तरफ चल पड़ा| कृष्ण को जब इसकी खबर मिली तो वह चिंतित हो उठे| वह वेश बदल कर उस महायोद्धा से मिले| पहले तो उन्होंने उसे पाण्डवों के पक्ष में करना चाहा लेकिन जब देखा कि वह अपनी मॉं को दिए गए वचन पर दृढ़ है, तो वह उससे मुक्ति का उपाय सोचने लगे| उन्होंने देखा कि यदि वह अपने संकल्प के अनुसार युद्ध में शामिल हुआ तो अंत में अकेला केवल वही बचेगा, बाकी सब मारे जाएँगे| कृष्ण ने तत्काल संकल्प लिया कि इसका जीवित रहना ठीक नहीं| क्या करें| उनकी चिंता से बर्बरीक को भी जिज्ञासा हुई कि यह व्यक्ति कौन है| कृष्ण ने अपने को प्रकट कर दिया| बर्बरीक उनका दर्शन पाकर अत्यंत गद्गद् हो गया| कृष्ण के प्रति उसमें गहरा श्रद्धा-भाव था| उसने कहा कि अपने संकल्पों की रक्षा करते हुए अन्य जो कुछ कहें वह करने के लिए और जो मॉंगें वह देने के लिए तैयार हूँ| कृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा कि मुझे तुम्हारा सिर चाहिए| बर्बरीक हतप्रभ था लेकिन उसने बिना किसी भय के कहा कि मैं सिर देने के लिए तैयार हूँ, किंतु मैं महाभारत का यह युद्ध देखना चाहता हूँ| कृष्ण ने कहा कि तुम अपने सिर से जीवित रहोगे और पूरा युद्ध देखने के बाद ही मृत्यु का वरण करोगे| यह सुनने के बाद तत्काल उसने अपना सिर काट कर समर्पित कर दिया| कृष्ण भी उसकी वीरता और त्याग भावना से अभिभूत थे| कथा के अनुसार उन्होंने उसे वरदान दिया कि कलियुग में तुम्हारी मेरे नाम से ही प्रतिष्ठा होगी, लोग तुम्हारे सिर की मेरी ही तरह पूजा करेंगे और जो कोई तुम्हारा स्मरण करेगा उसकी सारी मनोकामनाएँ पूरी होंगी|
कहा जाता है कि इसके बाद बर्बरीक का सिर एक ऊँची पहाड़ी के शिखर पर रख दिया गया जहॉं से उसने पूरा युद्ध देखा| युद्धोपरांत जब बर्बरीक का प्राण कृष्ण में विलीन हो गया तो उसके सिर को रूपवती नदी में विसर्जित कर दिया गया| कहा जाता है कि कलियुग के प्रारंभ में वही सिर वर्तमान राजस्थान के खाटू गॉंव (जिला सीकर) में जमीन के भीतर से प्राप्त हुआ| किंवदन्ती है कि कलियुग के कुछ वर्ष बीतने पर एक दिन खाटू गॉंव के लोगों ने देखा कि एक जगह गाय के स्तन से अपने आप दूध गिर रहा है और धरती को खोदा तो नीचे एक सिर मिला| यह सिर एक ब्राह्मण को दिया गया| वह कई दिनों तक उसे लेकर चिंतामग्न था कि इसका क्या किया जाए| इसकी खबर खाटू के राजा रूप सिंह चौहान को मिली| कहा जाता है कि एक रात उन्हें स्वप्न आया कि वह खाटू में एक मंदिर का निर्माण करे और उसमें उस सिर की 'श्याम' (कृष्ण का एक नाम) बाबा के नाम से प्रतिष्ठा करे| रूपसिंह ने अपनी पत्नी नर्मदा कँवर के साथ मिलकर मंदिर का निर्माण कराया और फाल्गुन शुक्लपक्ष की एकादशी को मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई| मूल मंदिर का निर्माण राजा रूप सिंह दंपति द्वारा १०२७ ईसवी में हुआ| बाद में १७२० में दीवान अभय सिंह ने इसका जीर्णोद्धार कराया| मंदिर का आधुनिक भव्य रूप नवीनतम है जो श्याम भक्तों की श्रद्धाभक्ति से सँवारा गया है|
आस्था-श्रद्धा के विषय तर्कों से संचालित नहीं होते, इसलिए भले ही कुछ लोग पौराणिक गाथाओं पर विश्वास न करें, लेकिन यह स्वाभाविक है कि कभी भी अपने सिर की परवाह न करने वाले वीरों की धरती राजस्थान के लोग ऐसे त्यागी और वीर पुरुष की भगवान के रूप में भक्ति, पूजा और गुणगान करें| देश में कई स्थानों पर लोगों ने खाटू के श्यामबाबा की प्रतीक स्थापना कर रखी है, लेकिन देश में श्यामबाबा का दूसरा अत्यंत भव्य मंदिर आन्ध्र प्रदेश के हैदराबाद में स्थापित है| खाटू की तरह यहॉं हैदराबाद में भी फाल्गुन सुदी एकादशी-द्वादशी (ग्यारस-बारस) को भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है और भव्य उत्सव का आयोजन होता है|
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