शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

उन्मुक्त अभेद ....

उन्मुक्त अभेद आनन्द की उपासना का पर्व

'होली' भारत का अद्भुत त्यौहार है| वैसे तो हर त्यौहार किसी न किसी ऋतु की विदाई व दूसरे का स्वागत से जुड़ा रहता है, किंतु यहॉं के दार्शनिकों ने हरेक में कोई न कोई प्रतीकार्थ भर दिया है| होली भी ऐसे प्रतीकार्थों से भरी है, किंतु इसका मूलतत्व विशुद्ध आनंद है और वह आनंद भी नितांत पार्थिव व स्थूल| कोई आध्यात्मिक खटराग नहीं, बस आनंद ही आनंद| यह ऐसा आनंदोत्सव है, जिसमें सामाजिक मर्यादाओं के बंधन भी शिथिल हो जाते हैं| जाति, वर्ण, कुल, स्त्री, पुरुष, ऊँच, नीच, बाल, वृद्ध, धनी, गरीब, सुंदर, कुरूप ये सारी भेद मूर्तियॉं एक दिन के लिए ही सही, लेकिन होली की आग में राख हो जाती हैं और वह राख तिलक बन जाती है मनुष्यता की|

इस भौतिक जगत में कामानंद से श्रेष्ठतर व सघनतर कोई अन्य आनंद नहीं| जीवन के अन्य सारे आनंद भी इसी की अंतिम साधना के लिए जन्म लेते हैं| यह सृष्टि का मूल कारक तत्व है, इसलिए अदम्य है| यह शिव की समाधि भी भंग कर देता है और भस्म होकर भी नष्ट नहीं होता, क्योंकि यह नष्ट होगा, तो सृष्टि नष्ट हो जाएगी| सर्जना का तत्व ही तिरोहित हो जाएगा| परब्रह्म का रस भी सूख जाएगा| होली इसी 'काम' की उपासना का पर्व है| जीवन का केंद्रीय पुरुषार्थ भी काम ही है| धर्म और अर्थ उसके साधन मात्र है और मोक्ष तो केवल इस संसार से डरे हुए लोगों की सिर छिपाने की एक परिकल्पना|
पुराणों की एक बड़ी रोचक कथा है| राजा रघु के राज्य में 'ढुण्ढा' नाम की एक राक्षसी थी, जो बच्चों को दिन-रात डराया करती थी| लोग राजा के पास उसकी शिकायतें लेकर गए, राजा ने पुरोहित से सलाह की| पुरोहित ने बताया कि वह एक 'मालिन' की बेटी है, जिसे शिव ने वरदान दिया है कि उसे देव, दानव आदि मार नहीं सकते हैं और न वह अस्त्र-शस्त्र, जाड़ा, गर्मी, वर्षा से मर सकती है| वह डरती है तो केवल खेलते-कूदते शोर मचाते बच्चों से, क्योंकि शिव ने कह दिया था कि वह हँसते-खेलते बच्चों से डरेगी| यह 'ढुण्ढा' और कुछ नहीं उदासी है, ईर्ष्या है, बड़े होने का अहंकार है और तमाम तरह के सामाजिक विधि-निषेध एवं वर्जनाओं से मनुष्य के हृदय में पड़ी गॉंठ है| इसके नाश का कोई और साधन नहीं| पुरोहित ने बताया कि फाल्गुन की पूर्णिमा पर जब जाड़े की उदास ऋतु समाप्त होती है और प्रफुल्ल ग्रीष्म का प्रथम वासंती चरण पड़ता है, तब लोग हँसें, खिलखिलाएँ, आनंद मनाएँ| बच्चे प्रसन्नतापूर्वक गलियों में निकल पड़ें| लकड़ी व घास एकत्र करके उसमें आग लगाएँ, तालियॉं बजाएँ| श्‍लील-अश्‍लील जो मन में आए गाएँ, नाचें और इस उन्मुक्त हास में बड़ों को भी शामिल कर लें| सभ्यता की ओढ़ी हुई उदासी की चादर उतार फेंकें, मन में जड़ी कुंठाओं की अर्गलाएँ तोड़ दें| इस शोर-गुल व अट्टहास से ही उस राक्षसी के प्राण निकल जाएँगे| होली की आग की रक्त-पीत स्वर्णिम लपटें शुष्क काष्ठ की तरह उसके शव का भी निस्तारण कर देंगी| 'वर्षकृत्य दीपक' नामक एक धार्मिक ग्रंथ में कहा गया है कि प्रभातकाल में इस होलिकाग्नि की राख का सर्वांग में लेप करके 'पिशाच' की तरह क्रीड़ा करें| पिशाच कोई शास्त्रीय नृत्य नहीं करते| पिशाच नृत्य का अर्थ है जैसे मन करे वैसे- उछलो, कूदो,
नाचो, लोटो, गाओ| सिंदूर व कुंकुम की धूलि से एक दूसरे को धूसर बना दो| ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य (चांडाल, अन्त्यज आदि भी) जातियॉं भी एक होकर इस फाल्गुनी उत्सव पर बालकों को साथ लेकर क्रीड़ा करें| (प्रभात विमले जाते ह्यंगे भस्म कार वेत| सर्वांगेच ललाटे च क्रीडितव्यं पिशाचवत॥ सिंदूरैः कुंकुमैश्‍चैव धूलिभिर्धूसरो भवेत्| गीतं वाद्यं च नृत्यं च कुर्याद्रथयोपसर्पणम॥ ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः शूद्रैश्‍चान्येश्‍च जातिभिः| एकीभूय प्रकर्तव्यां क्रीड़ा या फाल्गुने सदा| बालकैः सह गन्तव्यं फाल्गुन्यांच युधिष्ठिर॥
होलिकोत्सव वास्तव में इस देश का अत्यंत प्राचीन उत्सव है| और थोड़े अंतर से प्रायः पूरे देश में मनाया जाता है| इसका प्रारंभिक नाम 'होलाका' था| आचार्य जैमिनि एवं शबर इसका जिक्र करते हैं| काठ्कगृह्य सूत्र में एक सूत्र है 'राका होलाके'| इसकी व्याख्या करते हुए टीकाकार देवपाल ने लिखा है (डॉ. पी.वी. काणे द्वारा उद्धृत) कि होला एक कर्म विशेष है, जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए संपादित होता है| इस कृत्य के देवता 'राका' यानी 'पूर्णचंद्र' हैं|' (होला कर्मविशेषः सौभाग्याय स्त्रीणां प्रात्तरनुष्ठीयते| तत्र होलाके राका देवता|)| सूत्रकाल ईसापूर्व आठवीं शताब्दी के भी पहले का माना जाता है| इसलिए यह उल्लेख कम से कम इतना पुराना तो है ही| अन्य टीकाकारों ने इसी सूत्र की व्याख्या में लिखा है कि 'होलाका' उन बीस क्रीड़ाओं में से एक है, जो पूरे देश में प्रचलित हैं| वात्स्यायन के कामसूत्र में भी इसका वर्णन है| इस पूर्णिमा को लोग श्रृंग से एक-दूसरे पर रंगीन जल और सुगंधित चूर्ण (आज का अबीर गुलाल) छिड़कते हैंं| लिंग पुराण में कहा गया है कि यह 'फाल्गुनिका' (फाल्गुन पूर्णिमा) बाल क्रीड़ाओं से परिपूर्ण है और लोगों को ऐश्‍वर्य (विभूति) देने वाली है|
कामसूत्र ही नहीं कई पुराण भी (जैसे भविष्योत्तर) इस उत्सव को वसंत से जोड़ते हैं| महीनों की पूर्णिमांत गणना के अनुसार यह उत्सव वर्ष के अंत में होता है, जो शीतकाल से पतझड़ की समाप्ति एवं वसंतागमन का समय होता है| कामप्रेममय लीलाओं व क्रीड़ाओं के लिए इससे बेहतर और कौन-सा समय हो सकता है| मस्ती भरे गीत, नृत्य, संगीत के साथ प्रकृति में बिखरे रंगों को देखते हुए यदि रसिक युगल समूहों में भी एक-दूसरे को बहुरंगी बनाने की लालसा जाग पड़ी तो कोई आश्‍चर्य नहीं|
उत्तर भारतीय ग्राम्यांचलों में होली के दिन पूर्वार्ध में कीचड़, मिट्टी से होली खेलने की परंपरा है, उसके उपरांत अपराह्न फिर रंग गुलाल का खेल शुरू होता है| यह भी प्रतीकात्मक है| पहले एक-दूसरे पर जितना कीचड़ उछाल सकते हो, उछाल लो| इससे जब चित्त का कषाय दूर हो जाए, तो फिर रंगों को हाथ में लो| कलुषित चित्त तो काम का भी स्वागत नहीं कर सकता| रंगों के स्वागत के लिए भी चित्त की स्वच्छता आवश्यक है| काम संपूर्ण सृष्टि को अपने वश में कर सकता है, किंतु वृक्षों की वही डालियॉं लताओं की ओर झुक सकेंंगी, जो सुनम्य होंगी और वही लताएँ उससे लिपट सकेंगी, जो इतनी लचीली होंगी कि किसी को भी आगोश में समेट सकें| संसार शंकर का स्मरण इसलिए नहीं करता कि उन्होंने काम को भस्म कर दिया था, बल्कि इसलिए कि उन्होंने उसे न केवल पुनरुज्जीवित कर दिया था, बल्कि उसे सार्वदेशिक बना दिया था| शरीरधारी काम एक समय में एक ही स्थान पर रह सकता था, लेकिन अशरीरी अनंग सर्वव्यापी हो गया| यह उसकी अनंगता का ही प्रताप है कि एक हल्की-सी रुनझुन उसकी विश्‍व विजेता वाहिनी का नगाड़ा बन जाती है और राम जैसे संयमी का चित्त भी चंचल हो उठता है|
प्राचीनकाल में होली दहन के अगले दिन आंगन में कामदेव की मूर्ति स्थापित कर उसकी पूजा करने की प्रथा थी| इस पूजा के बाद ही रंग-रास के आयोजन होते थे| लेकिन अब यह पूजा-प्रथा लुप्त हो चुकी है| शायद काम के ध्यान व उसकी उपासना के लिए किसी मूर्ति की जरूरत नहीं रही| जो मनोज है और हर स्वस्थ चित्त में स्वतः अंकुरित हो उठता है, उसके लिए किसी बाह्य प्रतीक की भला क्या जरूरत| प्रकृति में उसका मित्र वसंत अपनी सतरंगी छटा पहले ही आकर बिखेर देता है| कोयल उसका विजय घोष सुनाने लगती है| आम्र की कटीली मंजरियॉं हर धड़कते दिल को निशाना बनाने लगती हैं, बिना किसी रंगभेद, आयुभेद या लिंगभेद के|
यह तो रही प्रकृति व पुराण की बात| प्रकृति तो अभी भी वही है, लेकिन उसकी उच्छृंखल उन्मुक्तता सभ्यता की विविध संकीर्णताओं के जाल में उलझ गई है| कुछ धार्मिक नगरों व मंदिर परिसरों को छोड़ दें, तो यह त्यौहार भी समाज के अपने रूढ़ दायरों में कैद हो गया है| अब इसकी वह सार्वजनीयता नहीं रही, जिसके लिए इसकी कल्पना की गई थी| फिर भी बहुत कुछ शेष है यदि हम स्वच्छ चित्त से उसका आस्वादन कर सकें|

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