मंगलवार, 2 जुलाई 2013

मूल सांस्कृतिक उद्देश्यों को पीछे छोड़ चुके - कुंभ मेले

मूल सांस्कृतिक उद्देश्यों को पीछे छोड़ चुके - कुंभ मेले

कुंभ मेलों जैसे पर्वोत्सवों की कल्पना देश की सांस्कृतिक एकता तथा उसकी रक्षा के लिए की गई थी, लेकिन अब इनका वह सारा उद्देश्य खो गया है| अब यहॉं आने वाले सामान्यजनों की कौन कहे साधुसंत, अखाड़ों तथा मठों के आचार्यों के सामने भी देश और संस्कृति रक्षा की कोई चिंता नहीं रह गई है| उन्हें शायद इन खतरों का भी कोई आभास नहीं है, जिनसे यह देश और इस देश की संस्कृति घिरती जा रही है| क्या किसी मठ, किसी अखाड़े का आचार्य ऐसा निकलेगा जो अपनी संकीर्णताओं को पीछे छोड़कर इन कुंभ मेलों का स्वरूप बदल सके और देश के तमाम मठों और अखाड़ों को एक नई देशरक्षक सांस्कृतिक सेना के रूप में संगठित कर सके|

इन दिनों प्रयाग (इलाहाबाद) में महाकुंभ का महापर्व चल रहा है| ग्रह-नक्षत्रों के योग की दृष्टि से यह पर्व विशेष है, क्योंकि यह १४४ वर्षों के लंबे अंतराल के बाद आता है| किसी के जीवन में केवल एक बार आ सकता है और बहुतों के जीवन में कभी नहीं आ पाता| इसलिए अनुमान है कि इस महापर्व पर देश-विदेश के करीब १० करोड़ लोग प्रयाग के संगम क्षेत्र में पहुँचेंगे और गंगा-यमुना के मिश्रित जल में डुबकी लगाकर अपने जीवन को कृतार्थ करेंगे|
भारत का यह कुंभ मेला दुनिया का सबसे बड़ा मेला है| इतनी बड़ी संख्या में लोग कभी कहीं एक जगह पर एकत्र नहीं होते| इस दृष्टि से यह अद्भुत है| ऐसे मेले में शामिल होना ही अपने आप में एक अनुभव है, जो अन्यथा कहीं सुलभ नहीं है| इसी आकर्षण और लालसा में बंधे हजारों विदेशी भी इसमें शामिल होने के लिए खिंचे चले आते हैं|
इसे हिंदूधर्म का एक विराटपर्व माना जाता है| यद्यपि सही अर्थों में यह भारतवर्ष का सांस्कृतिक पर्व है, धार्मिक (रिलीजन) नहीं, फिर भी अब इसे हिंदू धर्म से जोड़ दिया गया है| और यहॉं संगम में डुबकी लगाना समग्र पापों से मुक्ति और मोक्ष प्राप्ति का साधन मान लिया गया है| शायद देश के लाखों साधु-संत तथा सामान्य गृहस्थ इस लालसा से ही यहॉं आते हैं और पापमुक्त होते हों या नहीं, लेकिन एक अद्भुत अनुभव लेकर तो वापस जाते ही हैं|
निश्‍चय ही ऐसा विराट जनसम्मेलन भारत में ही हो सकता है और भारत को इस पर गर्व भी है, लेकिन अब आज २१वीं शताब्दी में इस बात को लेकर तो सवाल उठने ही लगे हैं कि आखिर ऐसे महान पर्व की उपयोगिता क्या है? व्यापक जन समाज के लिए इसका अर्थ क्या रह गया है? आज पापमुक्ति और मोक्ष प्राप्ति की भावना बहुत कुछ बदल गई है| मठ, मंदिरों और अखाड़ों के चरित्र भी बदल गए हैं| धर्म की रक्षा के लिए बड़ी बुद्धिमत्ता से गठित किए गए ये प्रतिष्ठान अब उद्देश्यहीन हो गए हैं| कुंभ मेलों में दिखाई पड़ने वाली अखाड़ों की प्रतिस्पर्धा किसी आदर्श की स्थापना करती नहीं दिखाई देती| इन अखाड़ों को भारत देश व समाज की दुरावस्था की कोई चिंता हो यह भी परिलक्षित नहीं होता| कुंभ में शामिल होने वाले किसी अखाड़े या किसी साधु संगठन को क्या इसकी चिंता है कि भारत की धर्म-संस्कृति, भीतर और बाहर दोनों तरफ से खतरों में घिरती जा रही है|
कुंभ का जब जिक्र होता है, तो सबसे पहले अखाड़ों और नागा साधुओं का चित्र सामने आता है| हाथी, घोड़ों, रथ, पालकियों पर, सोने-चॉंदी के सिंहासनों पर आसीन महंतों, महामंडलेश्‍वरों के दर्शन के लिए आम लोग नदी तट पर पलक पॉंवड़े बिछाए रहते हैं| लंबी-लंबी जटाओं वाले, भस्मचर्चित नागा साधुओं का जुलूस देखने के लिए ही बहुत से लोग कुंभ की प्रतीक्षा करते हैं| लेकिन एक अजूबा प्रदर्शन के अलावा समाज तथा धर्म के लिए आज इनकी उपयोगिता क्या है?
इस बार कुंभ मेला शुरू होने के पूर्व राधे मॉं, निर्मल बाबा तथा आसाराम बापू जैसे संतों को कुंभ में न आने देने की मांग उठी| फर्जी शंकराचार्यों को भी मेला स्थल से दूर रहने को कहा गया| अखाड़ों में इस समय सर्वाधिक संख्याबल वाले जूना अखाड़े के महंतों की बैठक में निर्णय लिया गया कि अखाड़े में विदेशियों के प्रवेश को हतोत्साहित किया जाए| इसके लिए बहुमत से प्रस्ताव पारित हुआ| कहा गया कि विदेशियों द्वारा लाई जा रही नशीली दवाओं तथा शराब से साधु आकर्षित होते हैं| मीडिया रिपोर्टों के अनुसार अखाड़े के कई साधु विदेशी स्त्रियों के संदर्भ में फँस जाते हैं| और कई साधु शांति और मोक्ष की कामना लेकर आई विदेशी स्त्रियों को अपने जाल में फँसाकर उनका शोषण करते हैं| बहुत से ऐसे साधु हैं जिनकी धर्म-कर्म में कोई रुचि नहीं है, लेकिन वे मठों-अखाड़ों में रहकर आराम की जिंदगी जीने के लिए साधु बन जाते हैं| मठों, पीठों तथा अखाड़ों के बैठक और सम्मान से आकर्षित होकर बहुत से ठग फर्जी शंकराचार्य और फर्जी पीठाधीश्‍वर बन जाते हैं| आम जनता भला यह पहचान कैसे करे कि कौन असली है कौन फर्जी| साधु संगठनों ने अब तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की है, जिससे फर्जी और नकली आचार्यों एवं पीठाधीश्‍वरों का बहिष्कार किया जा सके या उन्हें सजा दिलाई जा सके|
कुंभ मेले में शामिल होने वाले पारंपरिक अखाड़ों की संख्या १३ है| यों अब असंख्य मठों, पीठों तथा संगठनों के शिविर कुंभ क्षेत्र में लगते हैं, किंतु कुंभ के केंद्र में इन अखाड़ों का ही केंद्रीय वर्चस्व है| इन १३ अखाड़ों में ७ शैव, ३ वैष्णव बैरागी, २ उदासी और एक निर्मल (सिख) अखाड़ा है| इनमें संन्यासी अखाड़े सर्वाधिक शक्तिशाली हैं और शाही स्नान में उन्हीं का वर्चस्व रहता है| कुंभ में आने वाले आम लोग इनके ही दर्शन और आशीर्वाद के लिए सर्वाधिक लालायित रहते हैं|
कुंभ मेलों का पूरा इतिहास इन अखाड़ों के अपने-अपने वर्चस्व के लिए होने वाले संघर्षों का ही इतिहास है| पहले तो यह शुद्ध रूप से संख्याबल, शस्त्रबल तथा धनबल से तय होता था| अंग्रेजी शासन में उनका क्रम तय करने का अधिकार अंग्रेज अधिकारियों ने अपने हाथ में ले लिया| व्यवस्था बनाए रखने के लिए पहली बार १८०८ में अंग्रेजों ने यह व्यवस्था की कि सभी अखाड़े अपने हथियार स्नान क्षेत्र से दूर रखें| पहले कौन स्नान करे यह शुरू में शास्त्रबल से तय होता था, लेकिन अंग्रेजों ने इसका भी क्रम निर्धारित किया| यह भी उनकी शक्ति के आधार पर ही तय किया गया| सबसे पहले संन्यासी, उसके बाद बैरागी तथा तीसरे नंबर पर उदासी स्नान करेंगे| उदासी अखाड़े की स्थापना गुरुनानक देव के पुत्र श्रीचन्द्र ने की थी| यह अखाड़ा सबसे नया ही नहीं सबसे कमजोर भी था, क्योंकि इसका संख्या बल सबसे कम था|
यह क्रम निर्धारित होने के बाद भी संघर्ष समाप्त नहीं हुआ| संन्यासियों में भीतरी संघर्ष भी कम नहीं था| इनके दो सबसे पुराने और बड़े अखाड़े हैं- निरंजनी और महानिर्वाणी (पुराने साहित्य में भी इन्हीं दो अखाड़ों का नाम पाया जाता है)| इनमें बड़ी जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा थी कि कुंभ में पहला स्नान किसे मिले| अंततः विवाद निपटाने के लिए तय किया गया कि हरिद्वार के कुंभ में सबसे पहले निरंजनी अखाड़े का शाही स्नान होगा और प्रयाग में पहला स्थान महानिर्वाणी अखाड़े को मिलेगा| वास्तव में निरंजनी अखाड़े की बड़ी-बड़ी भूसंपत्तियॉं हरिद्वार के पास थीं, इसलिए यहॉं उन्हें पहला स्थान मिला जबकि  महानिर्वाणियों का वर्चस्व प्रयाग वाराणसी के क्षेत्र में अधिक था|
अखाड़ों के मामले यहीं नहीं खत्म हो जाते, क्योंकि इन अखाड़ों से सम्बद्ध कई उप अखाड़े भी हैं| जैसे अटल अखाड़ा, महानिर्वाणियों के साथ है और जूना अखाड़ा और आनंद अखाड़ा निरंजनियों के साथ| जूना के भी दो उप अखाड़े हैं- अगन और आवाहन| इस समय जूना अखाड़ा संख्याबल में सबसे बड़ा हो गया है, तो अब वह अपनी अलग स्वतंत्र सत्ता चाहता है|
निश्‍चय ही अंग्रेजों को इसके लिए धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने अखाड़ों की अपनी वर्चस्व स्थापित करने की परंपरा बदली| अब यह ताकत से नहीं बल्कि शासन के फैसले से तय होने लगा| उनकी यह परंपरा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी चली आ रही|
शैव संन्यासियों के मुकाबले वैष्णव व बैरागियों में परस्पर संघर्ष की स्थिति बहुत कम रही| शायद इसलिए कि संन्यासियों के मुकाबले ये गरीब थे| इनके पास उतनी संपदा नहीं थी| इनके तीन प्रमुख अखाड़े हैं- दिगंबर, निर्वाणी तथा निर्मोही| मगर कुंभ में इनकी कोई खास पहचान नहीं दिखाई देती|
गत दो सौ वर्षों में कुंभ का स्वरूप काफी बदल गया है| इसके पहले तो हर कुंभ में केवल यह तय होता था कि विभिन्न अखाड़ों में सबसे शक्तिशाली कौन| शायद पुराणकालीन कुंभ और माघस्नान की पवित्र सामाजिक व धार्मिक अवधारणा मध्यकाल में ही समाप्त हो गई थी|
अखाड़े धर्म की रक्षा के लिए गठित स्वयं सेवी सैनिकों के संगठन थे, जिनमें तमाम भाड़े के सैनिक, छोटे रजवाड़े, भूस्वामी तथा व्यापारी भी शामिल हो गये थे| इन्हें संगठित करने वाले आचार्य और संन्यासी साधुओं ने देश की संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए इन्हें संगठित किया था, लेकिन कालांतर में इनके पास वेश तो साधु-संतों का रह गया, लेकिन सांस्कृतिक चेतना का लोप हो गया| ये अंग्रेज शासकों का आदेश तो सिर झुका कर मान लेते थे, लेकिन आपस में एक-दूसरे को नीचा दिखाने और स्वयं आगे रहने के प्रयास में रहते थे| क्योंकि जो अग्रस्थान पर रहता था, उसे आमदनी भी अधिक होती थी|
प्राचीन काल में जब तीर्थ स्थलों पर स्नान व कल्पवास करने की योजना बनाई गई थी, तो उसका उद्देश्य था देश के तमाम सुदूरवर्ती अंचलों के लोगों को देश की एक मूल सांस्कृतिक धारणा से जोड़ना| गंगा-यमुना का संगम स्थल प्रयाग इसका मुख्य केंद्र था| यहॉं संगम स्थल की तीसरी नदी सरस्वती की कल्पना एक कवि कल्पना थी| आशय था कि जो यहॉं आएगा वह गंगा-यमुना की जलधारा के साथ यहॉं उपस्थित साधुसंतों, ज्ञानियों, विद्वानों, ऋषियों, दार्शनिकों आदि की ज्ञान धारा में अवगाहन का भी लाभ उठाएगा| उस ज्ञान धारा को ही सरस्वती के रूप से व्यक्त किया गया| अन्यथा प्रयाग में तीसरी किसी नदी के होने का कभी कोई प्रमाण नहीं प्राप्त हो सका| किंतु अब यह सांस्कृतिक सम्मिलन तथा संस्कृति रक्षा की
अवधारणा ही खो गई है| मेले का आकार बढ़ता जा रहा है| इसके साथ धार्मिक पर्यटन का उद्योग भी फलने-फूलने लगा| प्रयाग कुंभ मेले के आयोजन से उत्तर प्रदेश की सरकार को करीब १५ हजार करोड़ की आमदनी होने वाली है, जबकि खर्च ग्यारह बारह सौ करोड़ का है| जाहिर है प्रयाग का कुंभ भी धार्मिक तथा गैर धार्मिक संगठनों के लिए मात्र एक विराट व्यावसायिक मेला ही रह गया है| धर्म रक्षा, देश रक्षा तथा देश के सांस्कृतिक एकीकरण में इसकी भूमिका गौण रह गई है| अब सवाल है कि क्या कभी यह स्थिति बदलेगी जब ये मेले देश की सांस्कृतिक एकता के शिखर मंच के रूप में अपनी प्रतिष्ठा कायम कर सकें|
आस्ट्रेलिया को सभ्यता का पहला पाठ भारत ने पढ़ाया
जर्मनी के 'मैक्सप्लांक इंस्टीट्यूट ऑफ इवोल्यूशनरी एंथ्रोपोलोजीफ (विकासवादी नृतत्वशास्त्र के मैक्स प्लांक संस्थान) के वैज्ञानिकों ने आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों के अपने एक ताजा अध्ययन में सिद्ध किया है कि १८वीं शताब्दी में यूरोपीय उपनिवेशवादियों के वहॉं पहुँचने के बहुत पहले- अब से करीब ४००० वर्ष पूर्व- भारतीय समुदाय के लोग वहॉं पहुँच चुके थे| उस समय आस्ट्रेलिया की जनसंख्या कितनी थी या भारत से कितने लोग वहॉं पहुँचे यह तो नहीं पता किंतु आस्ट्रेलियाई आदिवासियों की जेनेटिक सामग्री में करीब ११ प्रतिशत हिस्सा भारतीय है, इसका पता चल चुका है| इतना ही नहीं इन भारतीयों ने वहॉं पहुँच कर आदि- आस्ट्रेलियावासियों को नव प्रस्तरकाल की तकनीक तथा जीवन शैली से भी परिचित कराया| वे अपने साथ यहॉं के शिकारी कुत्ते की एक प्रजाति भी ले गए थे, जिसे 'डिंगोफ के नाम से जाना जाता है| इस डिंगो के वहॉं अश्मावशेष (फॉसिल) पाए गए हैं| नव प्रस्तरकाल की चित्रकला की भारतीय शैली भी शायद उसी समय वहॉं पहुँची|
पहले यह समझा जाता था कि करीब ४५००० वर्ष पूर्व जब आस्ट्रेलिया में बसे मानव का बाकी दुनिया से संबंध टूट गया था, उसके बाद अठारहवीं शताब्दी में सबसे पहले ब्रिटिश अन्वेषक कैप्टेन जेम्स कुक (१७७०) और उनके पीछे ब्रिटिश उपनिवेशवादी वहॉं पहुँचे| लेकिन अब यह सिद्ध हो गया है कि उनसे ४००० साल पहले भारतीय वहॉं पहुँच चुके थे| जर्मन शोध दल की प्रमुख इरिना पुगाच के अनुसार करीब ४००० वर्ष पूर्व आस्ट्रेलियायी आदिवासियों के जीवन में एकाएक कई बदलाव आए| आस्ट्रेलियाई पुरातात्विक प्रमाणों में देखा गया कि अब से करीब ४००० वर्ष पूर्व वहॉं एकाएक 'माइक्रोलिथिकफ युग के पत्थर के सूक्ष्म उपकरण व्यवहार में आ गये| इनका कोई विकासक्रम वहॉं नहीं दिखाई देता| लेकिन अब यह कहा जा सकता है कि ये आकस्मिक परिवर्तन भारतीयों के वहॉं पहुँचने के कारण आए| वहॉं का 'डिंगोफ जानवर भारतीय कुत्तों से मिलता जुलता है जिसे शिकारी तथा कृषक परिवार अपने साथ रखते थे|
भारतीय जेनेटिक सामग्री, आस्ट्रेलिया कैसे पहुँची इसके लिए शुरू में दो अनुमान लगाए गए| एक तो यह कि भारतीय जन समूह सीधे वहॉं पहुँचा| दूसरा यह कि भारतीय समुदाय अपने पड़ोस के दक्षिणपूर्व एशिया के जनसमुदाय के संपर्क में आया, फिर ये पड़ोसी जब आस्ट्रेलियाइयों के संपर्क में आए, तो उन्होंने भारतीय जेनेटिक संपदा उन तक पहुँचा दी| मगर अब इस दूसरी संभावना को खारिज कर दिया गया है क्योंकि इन मध्यवर्ती लोगों में वे जेनेटिक तत्व नहीं पाए जाते तो दक्षिण व मध्यभारतीयों तथा आस्ट्रेलिया के आदिवासियों में पाए जा रहे हैं|
वस्तुतः आस्ट्रेलिया के आदिवासी भी भारत से ही होकर वहॉं पहुँचे थे, लेकिन भौगोलिक बदलावों के कारण भारत से उनका संबंध टूट गया था| अब तक के अध्ययन से पता चलता है कि अबसे करीब ६५ हजार वर्ष पूर्व अफ्रीकी केंद्र से मानव जाति की एक धारा अरब प्रायद्वीप से होकर श्रीलंका, अंडमान तथा भारत होकर दक्षिणपूर्व एशिया तथा वहॉं से पापुआन्यूगिनी और आस्ट्रेलिया तक पहुँची| करीब ४५ हजार वर्ष पूर्व एशिया के मुख्य थल भाग से इसका संबंध कट गया| यहॉं यह भी उल्लेखनीय है कि अफ्रीका के बाहर शायद आस्ट्रेलिया के आदिवासियों का समुदाय अकेला ऐसा समुदाय है, जिसकी अब तक अटूट जीवन श्रृंखला चली आ रही है| इनसे मिलती जुलती यदि भारत की कोई प्रजाति है तो वह बस्तर के आदिवासियों की है|
अमेरिकी जर्नल 'प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी आफ साइंसेजफ के अनुसार वैज्ञानिकों के इस अध्ययन दल में जर्मनी के अलावा आइसलैंड, नीदरलैंड तथा फिलीपींस के वैज्ञानिक भी शामिल हैं| इस दल के वैज्ञानिकों ने आस्ट्रेलियाई आदिवासियों के साथ पापुआ न्यूगिनी, भारत तथा दक्षिणपूर्व एशिया के आदिवासियों जेनेटिक विश्‍लेषण कार्य में यह देखा कि अब से करीब १४१ पीढ़ी (प्रत्येक पीढ़ी को ३० वर्ष का समय देने के हिसाब से) पहले आस्ट्रेलियायी आदिवासियों को नये जेनेटिक तत्व मिले| उसी समय से वहॉं के पुरातात्विक अवशेषों में नवीनता के प्रमाण मिलने लगते हैं| संभवतः आस्ट्रेलियायी आदिवासियों को खेती की कला भी भारतीयों ने ही सिखाई|

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