शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

आतंकी हमले रोकने में विफल सत्तातंत्र, कारण क्या है?

आतंकी हमले रोकने में विफल सत्तातंत्र, 
कारण क्या है?

 
अमेरिका की इसके लिए सराहना की जाती है कि उसने ९/११ के बाद देश में कोई बड़ी आतंकी हिंसा नहीं होने दी और ९/११ के भी सूत्रधार को भी मार गिराया, मगर भारत एक आदमी को भी अब तक पकड़ने में विफल है जो दिल्ली, पुणे, अहमदाबाद सूरत, बैंगलोर, हैदराबाद में लगातार बम विस्फोट करता आ रहा है| निश्‍चय ही इसका सर्वाधिक दोष देश के राजनीतिक नेतृत्व का है जिसमें इस समस्या से जूझने की इच्छा शक्ति का अभाव है|

जब कोई बड़ी हिंसक घटना घट जाती है तो सरकार बड़ी तेजी से सक्रिय होती है, शोक संवेदनाएँ व्यक्त की जाती हैं, पीड़ितों को हर तरह की सहायता का वचन दिया जाता है, शांति बनाए रखने की अपील की जाती है और बड़े सख्त शब्दों में यह उद्घोषणा की जाती है कि दोषियों को किसी कीमत पर बख्शा नहीं जाएगा, उन्हें जरूर सजा दी जाएगी, साथ में देश की जनता की इसके लिए सराहना की जाएगी कि वह बड़ी शांतिप्रिय है, हर तरह के हमले को सिर झुका कर झेल लेती है, मौतें भी बर्दाश्त कर लेती है, किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं करती| बुद्ध, महावीर और गांधी के देश में ऐसा होना ही चाहिए| सरकार को इससे शांति बनाए रखने और सीमा पार से सद्भाव का संबंध आगे बढ़ाने में मदद मिलती है, उसके वोट बैंक के लिए भी कोई खतरा नहीं पैदा होता|
अभी इसी २१ फरवरी की शाम हैदराबाद के दिलसुखनगर इलाके में दो खतरनाक विस्फोट हुए जिसमें १६ लोगों की जान गई और १०० से अधिक घायल हुए| इस शहर की निश्‍चय ही इसके लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उस शाम कितनी ही अफरातफरी क्यों न रही हो किन्तु अगले दिन जनजीवन पूरी तरह सामान्य रहा| एहतियातन लोग पार्कों में जमा नहीं हुए, सड़कों पर भी तफरीह करने नहीं निकले, लेकिन बाकी कोई कामकाज नहीं रुका| तीसरे दिन तो ऐसा लगा मानो शहर में कुछ हुआ ही न हो| रविवार २४ फरवरी को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लोगों का दुख-दर्द बॉंटने के लिए आए, उससे ट्रैफिक की समस्या अवश्य खड़ी हुई, बाकी सब सामान्य रहा| गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे साहब घटना के अगले ही दिन सुबह आकर जा चुके थे| उन्होंने कोलकाता पहुँचकर यह जरूर कहा कि यह कसाब और अफजल गुरु को फॉंसी दिये जाने की प्रतिक्रिया हो सकती है, लेकिन उन्होंने सरकार के ऐसे किसी इरादे या कार्यक्रम की चर्चा नहीं की कि वह देश में ऐसी प्रतिक्रियाओं को रोकने के लिए क्या कर रही है|
लोगों को स्मरण होगा कि अभी कुछ ही दिन पहले पाकिस्तानी सैनिकों ने कश्मीरी सीमा पर नियंत्रण रेखा पार करके भारतीय सैनिकों पर घात लगाकर हमला किया और दो सैनिकों को न केवल मार डाला, बल्कि उनके शवों को रौंदा और उनका सिर काट कर ले गये| इस पर पूरे देश में गुस्सा भड़का, सेना में भी आक्रोश की झलक दिखाई पड़ी तो प्रधानमंत्री सहित तमाम मंत्रियों के बड़े-बड़े बयान आए, पाकिस्तान को चेतावनी दी गई कि सिर काटने का अपराध करने वालों को सजा न दी गई तो दोनों देशों के संबंध सामान्य नहीं रह सकेंगे| लेकिन फिर सब ज्यों का त्यों हो गया| कहा गया कि ऐसी घटनाओं से पाकिस्तान के साथ संबंध सुधार की प्रक्रिया पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने दिया जाएगा, वह जारी रहेगी|
वास्तव में इस देश की सरकार में ऐसी आत्मशक्ति ही नहीं है कि वह बढ़ती जिहादी हिंसा पर रोक लगाने का कोई कारगर कदम उठा सके| उसकी मशीनरी भी इतनी नाकारा है कि वह अपनी ही आपसी ईर्ष्या, द्वेष व अहंकार में उलझी रहती है| जैसा राजनीतिक नेतृत्व, वैसा ही प्रशासन तंत्र|
यह सब को पता है कि भारत में इधर जितनी भी जिहादी हिंसा की घटनाएँ हो रही हैं उसमें इंडियन मुजाहिदीन का हाथ है| उसके प्रायः हर बड़े तथा संवेदनशील शहर में सुप्त संगठन हैं जो केवल मौके पर सक्रिय होते हैं और हमले को अंजाम देने के बाद फिर सो जाते हैं| हैदराबाद के इन ताजा विस्फोटों की प्रारंभिक जॉंच में पता चला है कि यहॉं बम रखने की कार्रवाई में इंडियन मुजाहिदीन का कमांडर यासीन भटकल स्वयं शामिल था| वह दिल्ली, अहमदाबाद, सूरत, बैंगलोर, पुणे के विस्फोटों में भी शामिल था| पुणे के जर्मन बेकरी विस्फोट में तो वहॉं लगे सी.सी. कैमरे में उसकी फोटो भी आई थी| दिलसुखनगर कांड में कम से कम एक बम तो उसने स्वयं रखा था| आश्‍चर्य है कि जॉंच का पहला संकेत मिलते ही यह उजागर कर दिया गया कि इसमें यासीन भटकल का हाथ था| अनुमान है कि यासीन अभी हैदराबाद में ही कहीं छिपा है| उसका नाम जाहिर करके उसे और सतर्क कर दिया गया है|
'भटकल ब्रदर्स' इस देश के सबसे कुख्यात आतंकवादी हैं| इकबाल भटकल और यासीन भटकल कर्नाटक के भटकल कस्बे के एक  समृद्ध परिवार की संतानें हैं| इकबाल भटकल और रियाज ने मिलकर अलकायदा और लश्कर-ए-तैयबा के सहयोग से भारत में 'इंडियन मुजाहिदीन' नामक जिहादी संगठन की स्थापना की थी| इंजीनियरिंग के स्नातक यासीन का इकबाल के पाकिस्तान भागने के पहले तक कहीं अता-पता नहीं था, किंतु २००८ में भारी पुलिस दबाव के कारण जब रियाज और इकबाल पाकिस्तान भाग गए तो देश में 'मुजाहिदीन' की कमान यासीन ने संभाली| यासीन ने देश भर में भ्रमण करके जिहादियों की भर्ती की| उसने बिहार के भागलपुर शहर में एक बड़ी इकाई की स्थापना की जिसे 'भागलपुर मॉड्यूल' के नाम से जाना जाता है| इस पूरे दौर में यासीन की पूरी सक्रियता के बावजूद भारतीय सुरक्षाबलों ने उस पर हाथ डालने का कोई प्रयास नहीं किया| यासीन २०१० में कोलकाता में जाली नोटों के साथ पकड़ा गया, लेकिन पश्‍चिम बंगाल पुलिस को यह पता ही नहीं था कि यासीन भटकल कौन है| उसने अदालत में अपना नाम शाहरुख बताया| पुलिस ने उसे कोई मामूली हवाला कारोबारी या चोर-उचक्का समझा| उसने उसकी जमानत हो जाने दी| जमानत के बाद वह वहॉं से लापता हो गया| २०११ में वह चेन्नई पुलिस को चकमा देकर निकल गया|
सैयद अहमद जरार सिद्दिबप्पा उर्फ यासीन भटकल का देश के आधे दर्जन महानगरों में स्वयं बम लगाकर भी अब तक बचे रहना इस देश के गुप्तचर संगठनों तथा पुलिस बलों के लिए घोर शर्म की बात है, लेकिन अभी भी वे अपना रवैया बदलने के लिए तैयार नहीं है|
मुंबई हमले के बाद केंद्र सरकार ने आतंकवादी हमलों की जॉंच के लिए 'नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी' (एन.आई.ए.) नाम का एक विशेषज्ञ संगठन तैयार किया था, लेकिन यह संगठन भी लगभग बेकार पड़ा हुआ है| जब भी कोई आतंकवादी हमला होता है तो यह एजेंसी केंद्रीय गृहमंत्रालय के अधिकारियों का मुँह देखती है| उसे स्वयं अपने स्तर पर कार्रवाई का कोई अधिकार नहीं है| यदि किसी घटना का जॉंच कार्य उसे सौंपा जाएगा तो वह जॉंच करेगी| शुरू में तो उसे कुछ मामले जॉंच के लिए दिए गए, जैसे २०११ के दिल्ली उच्च न्यायालय के गेट पर हुए विस्फोट की जॉंच उसे दी गई किंतु गत वर्ष (अगस्त २०१२) पुणे विस्फोट का मामला अब तक उसे नहीं दिया गया| हैदराबाद के इस ताजा विस्फोट के मामले में भी शुरू में बहस चलती रही कि इसकी जॉंच का कार्य उसे दिया जाए या नहीं| वास्तव में सुरक्षा एजेंसियों के बीच आपसी समन्वय तथा सहयोग का अभाव अपराधियों को बड़ी सुरक्षा प्रदान करता है| उनमें एक-दूसरे को नीचा दिखाने तथा सफलता का श्रेय स्वयं लेने की होड़ तो रहती ही है, उनके आंतरिक ढॉंचे में भी परस्पर सहयोग का अभाव रहता है|
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार २०११ में दिल्ली पुलिस और कोलकाता पुलिस में इसको लेकर तनातनी चल रही थी कि यासीन के 'भागलपुर मॉड्यूल' के संदिग्ध आतंकी नकवी अहमद तक पहुँचने का पहला सुराग किसने हासिल किया| आई.बी. के संरक्षण में इस मामले में दिल्ली पुलिस जीत गई और इस मामले में उसे लीड एजेंसी बनने का अवसर मिला| प. बंगाल पुलिस को यह अच्छा तो नहीं लगा, लेकिन वह चुप रह गई, क्योंकि उसने अपने हाथ आए यासीन भटकल को लापरवाही व अज्ञानतावश हाथ से जाने दिया था जो जाली नोटों के साथ पकड़ा गया था| दिल्ली पुलिस खुद कोई सफलता अर्जित नहीं कर सकी लेकिन उसने पश्‍चिम बंगाल पुलिस के सहयोग का अवसर खो दिया| ऐसा ही बल्कि उससे भी बदतर एक मामला दिल्ली पुलिस और महाराष्ट्र के 'एंटी टेररिज्म स्न्वाड' (ए.टी.एस.) के बीच का है| महाराष्ट्र ए.टी.एस. का दावा था कि १३ जुलाई २०११ के मुम्बई विस्फोट में नकवी का हाथ था लेकिन दिल्ली पुलिस ने फरमाया कि नकवी उनका मुखबिर (इनफॉर्मर) है जिसकी मदद से वह यासीन भटकल को पकड़ने में लगी है| दिल्ली पुलिस ने नकवी को लेकर एक गुप्त अभियान भी चलाया लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली| मुम्बई ए.टी.एस. और दिल्ली पुलिस का मतभेद बढ़ता ही गया जिसे अंत में तत्कालीन गृहमंत्री चिदम्बरम ने हस्तक्षेप करके निपटाया| टकराहट राज्य पुलिस को लेकर ही होती हो ऐसा नहीं है स्वयं आई.बी.के अधिकारियों में भी असहयोग और तनातनी चलती रहती है|
हैदराबाद विस्फोटों के बाद एक बार फिर केंद्र सरकार 'नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर' को स्थापित करने की कोशिश में लग गई हैै, लेकिन राज्यों की विपक्षी सरकारें अब भी इसके पक्ष में नहीं हैं, क्योंकि एक तो इसे राज्यों के अधिकारों में हस्तक्षेप के तौर पर देखा जा रहा है दूसरे सत्ता द्वारा इसके दुरुपयोग की भी आशंका है| अब तक के अनुभव के परिप्रेक्ष्य में देखें तो जिहादी आतंकवाद रोकने के लिए इच्छा शक्ति चाहिए, नई-नई एजेंसियॉं नहीं| कितनी भी एजेंसियॉं बनें लेकिन सरकार जब तक वोट बैंक की राजनीति बंद नहीं करती तब तक न वह आतंकवाद से निपट सकती है न पाकिस्तान से|

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