शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

बोधगया विस्फोट

बोधगया विस्फोट
म्यॉंमार का बदला भारत में 

बोधगया में कभी भी कुछ हो सकता है, इसके संकेत पिछले एक वर्ष से लगातार मिल रहे थे| म्यॉंमार (बर्मा) में रोहिंग्या मुस्लिमों तथा बौद्धों के बीच चल रहे दंगे से यह अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि इसकी प्रतिक्रिया में भारत में भी कुछ हो सकता है और खासकर उस स्थिति में, जब पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन सीधे यह आरोप लगा रहे हों कि भारत सरकार म्यॉंमार में वहॉं की सरकार के साथ मिलकर मुसलमानों का सफाया करने में लगी है| मुस्लिमों के विरुद्ध दुनिया में कहीं कोई छोटी सी भी घटना हो तो उसकी प्रतिक्रिया भारत में अवश्य होती है, फिर यदि पड़ोस के उस इलाके में कोई घटना हो रही हो, जिसका संबंध सीधे भारत के इतिहास के साथ जुड़ा है, तो उसकी प्रतिक्रिया तो होनी ही थी|

विश्‍व में शांति के अग्रदूत समझे जाने वाले भगवान बुद्ध की संबोधिस्थली ‘बोधगया' में रविवार ७ जुलाई को हुए श्रृंखलाबद्ध विस्फोट ने वैश्‍विक आतंकवाद को एक नये आयाम में पहुँचा दिया है| यद्यपि अभी प्रामाणिक तौर पर इस बात की पुष्टि नहीं हो सकी है कि इन विस्फोटों के पीछे किसका हाथ है, लेकिन यह अनुमान लगाना बिल्कुल कठिन नहीं है कि इसके पीछे कौन लोग हैं| संयोगवश विस्फोटों की यह श्रृंखला बहुत घातक सिद्ध नहीं हुई, क्योंकि कोई मृत्यु नहीं हुई, केवल कुछ लोग घायल ही हुए| महाबोधि मंदिर को भी कोई बड़ी क्षति नहीं हुई, किन्तु यह विस्फोट होना ही एक बड़े खतरे का परिचायक है| मंदिर परिसर में कुल १३ विस्फोटक लगाये गए थे जिसमें से केवल १० में विस्फोट हुआ और बाकी ३ विस्फोट से पहले ही निष्क्रिय कर दिए गए| विस्फोट स्थलों को देखने से यह भी पता चल गया कि विस्फोटक कम क्षमता वाले थे| मगर इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि विस्फोटक लगाने वाला बहुत उदार था और वह नहीं चाहता था कि इससे ज्यादा लोग हताहत हों| इतने विस्फोटक एक  साथ लगाने के साथ स्थान और समय का जिस तरह चयन किया गया उससे साफ जाहिर होता है कि विस्फोटक लगाने वालों का इरादा बड़ी संख्या में लोगों को मौत के घाट उतारना था| यह तो संयोग ऐसा ठहरा कि विस्फोटक कम क्षमता के निकले और वे शायद निर्धारित समय से पहले फट गए जिससे कम लोग ही उसके शिकार हुए|
यह निश्‍चय ही भारत के आंतरिक सुरक्षा बलों, गुप्तचर संगठनों तथा राजनीतिक प्रशासकों की घोर लापरवाही का परिणाम है कि बोधगया में यह विस्फोट हुआ| बताया जा रहा है कि केन्द्रीय एजेंसियों को वहॉं संभावित आतंकी हमले की जानकारी पहले से थी लेकिन उसे गंभीरता से नहीं लिया गया| इस वर्ष फरवरी में दिल्ली पुलिस ने यह ‘एलर्ट' जारी किया था कि बोधगया आतंकियों के निशाने पर है| हैदराबाद के बम विस्फोट के सिलसिले में पकड़े गए ‘इंडियन मुजाहिदीन' के एक आतंकवादी ने इसकी स्पष्ट जानकारी दी थी, फिर भी उसे महत्व नहीं दिया गया| ये सारी जानकारियॉं न भी होतीं तो भी यदि प्रशासन और सुरक्षा एजेंसियॉं सतर्क होतीं तो यह हादसा टल सकता था| अपने देश के पश्‍चिमी और पूर्वी दोनों पड़ोसी क्षेत्रों में जिहादी आतंकवाद का नंगा नाच दशकों से चल रहा है, लेकिन हम उसकी तरफ नजर उठाने से भी बचने की कोशिश करते रहे हैं| पूर्वी क्षेत्र की तरफ से तो हमने अपनी आँखें ही बंद कर रखी हैं| सुरक्षा तंत्र विगत एक वर्ष से मिल रहे खतरे के संकेतों को पढ़ने में नाकाम रहा| म्यॉंमार के दंगों को भारत से अलग-थलग मानकर तो नहीं चलना चाहिए था| इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो कहना पड़ेगा कि अच्छा हुआ कि बोधगया में यह विस्फोट हुआ, कम से कम इससे नए पनप रहे खतरे के प्रति इस देश की आँखें तो खुलेंगी|
इस विस्फोट ने यह सिद्ध कर दिया है कि एशिया में जिहादी ताकतों का कहीं किसी से टकराव हो किन्तु उसका कुछ न कुछ परिणाम भारत को अवश्य भुगतना पड़ेगा, क्योंकि भारत हर तरफ से जिहादी ताकतों से घिरा हुआ है| अभी तक यही माना जाता रहा है कि चूँकि भारत, कश्मीर पर जबरिया कब्जा जमाए हुए है इसलिए कश्मीर को मुक्त कराने वाली जिहादी ताकतें भारत के विरुद्ध हिंसक कार्रवाई करने में लगी हैं, लेकिन बोध गया के विस्फोटों से जाहिर हो गया है कि म्यॉंमार में बौद्धों के साथ चल रहे संघर्ष में भी भारत को दोषी ठहराया जा रहा है और वहॉं बौद्धों की जवाबी कार्रवाई का बदला भी भारत में लिया जाएगा|
म्यॉंमार (बर्मा) में रोहिंग्या मुस्लिम समुदाय १९४७ के पहले से ही जब भारत का विभाजन एवं पाकिस्तान का निर्माण तय हुआ था- अपना जिहादी संघर्ष शुरू किए हुए है| १९४६ में बर्मा को स्वतंत्रता दिए जाने के समय से ही उन्होंने बर्मा से अलग होकर पाकिस्तान (पूर्वी पाकिस्तान, जो अब बँगलादेश बन गया है) में शामिल होने का संघर्ष छेड़ दिया था| कश्मीरी मुसलमानों की तरह वे भी अब तक अपना मुक्ति संग्राम छेड़े हुए हैं| उनकी दिक्कत यह है कि वहॉं शांतिप्रिय बौद्धों ने भी हथियार उठा लिया है और जिहादियों को उनके ही सिक्के में जवाबी भुगतान करना शुरू कर दिया है| आज की स्थिति में दुनिया के सारे जिहादी संगठन रोहिंग्या मुस्लिमों की मदद में आ खड़े हुए हैं, लेकिन वे म्यॉंमार के बौद्धों को दबा नहीं पा रहे हैं|
अभी विगत १४ जून को जमात-उद-दवा (लश्करे तैयबा) की तरफ से पाकिस्तान के ९ शहरों में रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में प्रदर्शनों का आयोजन किया गया जिसमें अन्य जिहादी संगठनों के लोग भी शामिल हुए| १५ जून को कराची में हुई एक सभा में लश्कर-ए-तैयबा तथा जमात-उद-दवा के संस्थापक हाफिज सईद ने कहा कि म्यॉंमार में रोहिंग्या मुसलमानों के सफाए में भारत की सरकार वहॉं की सरकार की मदद कर रही है| रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ भारत की भूमिका की आलोचना करते हुए उसने आरोप लगाया कि म्यॉंमार की पूरी मुस्लिम आबादी को मिटाने के लिए भारत सरकार म्यॉंमार सरकार के साथ मिलकर काम कर रही है| सईद ने पूरे मुस्लिम जगत का आह्वान करते हुए कहा कि म्यॉंमार के रोहिंग्या मुसलमानों के अधिकार और सम्मान को बचाने की जिम्मेदारी समूचे मुस्लिम उम्मा पर है| उसने म्यॉंमार के मुसलमानों को हथियार उठाने और अपनी अलग तंजीम बनाने की सलाह दी तथा आश्‍वासन दिया कि उसका संगठन म्यॉंमार के मुस्लिमों की पूरी मदद करेगा| पाकिस्तान में न कोई बौद्ध आबादी है न बौद्ध मंदिर इसलिए वहॉं कोई बदले की कार्रवाई नहीं हो सकी इसलिए जिहादी गुस्से में भारत के सर्वाधिक पवित्र बौद्ध स्थल को लहूलुहान करने की साजिश रची गई| इसके साथ ही श्रीलंका, मलेशिया तथा इंडोनेशिया में भी बदले की कार्रवाई की खबरें आ रही हैं| बँगलादेश के जिहादी संगठन बौद्धों को निशाना बनाने में रोहिंग्या गुटों की मदद कर रहे हैं|
रोहिंग्या मूवमेंट
रोहिंग्या मुसलमानों के संघर्ष का इतिहास भी दक्षिण एशिया में इस्लामी विस्तार तथा उनके आपसी एवं स्थानीय लोगों के साथ संघर्ष के इतिहास का हिस्सा है| यहॉं उसके विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है| उनकी वर्तमान संघर्ष गाथा द्वितीय विश्‍व युद्ध के काल से शुरू होती है जो १९४७ से एक नया रंग ले लेती है| काण्डा विश्‍वविद्यालय के इतिहासकार अयेचान के अनुसार द्वितीय विश्‍वयुद्ध के दौरान १९४२ में (२८ मार्च १९४२) रोहिंग्या मुसलमानों ने उत्तरी अराकान (बर्मा) क्षेत्र में करीब २०,००० बौद्धों को मार डाला था| मुस्लिमों ने अराकान के दो शहरी क्षेत्रों - बुथिडौंग तथा मौंगडाऊ में- हत्या, लूट, आगजनी का भयावह खेल खेला था| जवाब में अराकानों ने भी मिम्व्या तथा म्रउक वू शहरों में करीब ५००० मुस्लिमों की हत्या कर दी थी|
वास्तव में अंग्रेजों ने जापानी फौजों के मुकाबले से पीछे हटते हुए बीच में लड़ाकू रोहिंग्या मुसलमानों को खड़ा करने की कोशिश की थी| उन्होंने इन मुसलमानों को ढेरों हथियार उपलब्ध कराया तथा यह आश्‍वासन दिया कि इस युद्ध में यदि उन्होंने मित्र राष्ट्रों का समर्थन किया तो उन्हें उनका वांछित ‘इस्लामी राष्ट्र' दे दिया जाएगा| हथियार पाकर इन रोहिंग्या मुसलमानों ने उनका प्रयोग जापानियों के खिलाफ करने के बजाए, अराकानों (जिनमें ज्यादातर बौद्ध थे) के सफाए में किया| उन्होंने अंग्रेजों की कृपा से अपना राज्य पाने के बजाए स्वयं अराकानों का सफाया करके अपना राष्ट्र हासिल कर लेना चाहा लेकिन वह संभव न हो सका|
इसके बाद अगला संगठित संघर्ष का अभियान १९४७ में ‘मुजाहिदीन मूवमेंट' के नाम से शुरू हुआ जो १९६१ तक चला| इस अभियान के अंतर्गत अराकान के रोहिंग्या आबादी वाले मायू क्षेत्र को पश्‍चिमी बमार्र् से अलग करके पूर्वी पाकिस्तान में शामिल करने का प्रयास किया गया|                                             
 बर्मा सरकार के खिलाफ जिहाद की शुरुआत
मई १९४६ में बर्मा की स्वतंत्रता से पहले कुछ अराकानी मुस्लिम नेताओं ने भारत के मोहम्मद अली जिन्ना से संपर्क किया और मायू क्षेत्र को पाकिस्तान में शामिल कराने के लिए उनकी सहायता मॉंगी| इसके पूर्व अराकान में ‘जमीयतुल उलेमा ए इस्लाम' नामक एक संगठन की स्थापना हुई जिसके अध्यक्ष उमरा मियॉं थे| इसका उद्देश्य भी अराकान के सीमांत जिले मायू को पूर्वी पाकिस्तान में मिलाना था| जिन्ना से संपर्क के दो महीने के बाद अकयाब (आज का सितवे जो अराकान प्रांत की राजधानी है) में ‘नार्थ अराकान मुस्लिम लीग' की स्थापना हुई| इसने मायू को पूर्वी पाकिस्तान में शामिल किये जाने की मॉंग की| बर्मा सरकार ने मायू को स्वतंत्र राज्य बनाने या उसे पाकिस्तान में शामिल करने से इनकार कर दिया| इस पर उत्तरी अराकान के मुजाहिदों ने बर्मा सरकार के खिलाफ जिहाद की घोषणा कर दी| मायू क्षेत्र के दोनों प्रमुख शहरों ब्रथीडौंग एवं मौंगडाऊ में अब्दुल कासिम के नेतृत्व में हत्या, बलात्कार एवं आगजनी का ताण्डव शुरू हो गया और कुछ ही दिनों में उन्होंने इन दोनों शहरों को गैरमुस्लिम अराकानों से खाली करा लिया| यह कुछ वैसा ही कार्य रहा जैसे कश्मीर घाटी के जिहादियों ने पूरे घाटी क्षेत्र को कश्मीरी पंडितों से खाली करा लिया| १९४९ में तो बर्मा सरकार का नियंत्रण केवल अकयाब शहर तक सीमित रह गया, बाकी पूरे अराकान पर मुजाहिदों का कब्जा हो गया| यहॉं लाकर हजारों बंगाली मुस्लिम बसाए गए| अवैध प्रवेश से यहॉं मुस्लिम आबादी काफी बढ़ गई| आखिरकार बर्मा सरकार ने इस इलाके में सीधी सैनिक कार्रवाई शुरू की जिसके कारण जिहादियों ने भागकर जंगलों में शरण ली|
यह उल्लेखनीय है कि अराकानी बौद्ध मठों के भिक्षु अब तक अपनी शान्ति बनाए रहे| मुजाहिदों के खिलाफ पहली बार उन्होंने बड़ी संख्या में एकत्रित होकर रंगून (अब यांगून) में भूख हड़ताल शुरू की| सरकार ने उन्हें सुरक्षा का पूरा आश्‍वासन दिया और जिहादियों का जंगलों में भी पीछा किया| अंततः सभी जिहादियों ने हथियार डाल दिए| ४ जुलाई १९६१ को शायद अंतिम सशस्त्र जिहादी जत्थे ने बर्मी सेना के सामने आत्मसमर्पण किया| इसके बाद बचे खुचे जिहादी बँगलादेश से लगी सीमा पर चावल की तस्करी आदि के धंधों में लग गए|
१९७१ में पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना की पराजय तथा बँगलादेश के उदय के बाद बचे खुचे जिहादियों में फिर नई सुगबुगाहट पैदा हुई| १९७२ में जिहादी नेता जफ्फार ने ‘रोहिंग्या लिबरेशन पार्टी' (आर.एल.पी.) बनाई और बिखरे जिहादियों को इकट्ठा करना शुरू किया| हथियार बँगलादेश से मिल गए| बँगलादेश  बनने के बाद वहॉं के जिहादी नेतागण इधर-उधर भागे तो वे अपने हथियार बर्मी जिहादियों के पास छोड़ गए| जफ्फार स्वयं इस पार्टी के अध्यक्ष बने, अब्दुल लतीफ नामक एक जिहादी को उपाध्यक्ष तथा सैनिक मामलों का प्रभारी नियुक्त किया तथा रंगून विश्‍वविद्यालय के एक ग्रेजुएट मोहम्मद जफर हबीब को सेक्रेटरी बनाया| १९७४ तक इस संगठन की सदस्य संख्या बढ़कर ५०० तक हो गई| लेकिन यह पार्टी अपने उद्देश्यों में विफल रही| बर्मी सेना की कार्रवाई के आगे पार्टी बिखर गई और इसके नेता जफ्फार बँगलादेश भाग गए|
इसकी विफलता पर भी सेके्रेटरी मोहम्मद जफर हबीब ने हार नहीं मानी और १९७४ में ही उन्होंने ७० छापामारों के साथ रोहिंग्या पैट्रियाटिक फ्रंट का गठन किया| इस फ्रंट का अध्यक्ष पद उन्होंने स्वयं सँभाला और उपाध्यक्ष के पद पर रंगून में शिक्षित एक वकील नूरुल इस्लाम को उपाध्यक्ष नियुक्त किया| मेडिसिन के एक डॉक्टर मो. यूनुस को इसका सी.ई.ओ. बनाया|
मार्च १९७८ में बर्मा की राष्ट्रपति ने विन सरकार ने मुस्लिमों की अवैध घुसपैठ रोकने की कार्रवाई शुरू की| इसे ‘आपरेशन किंग ड्रैगन' नाम दिया गया| यद्यपि यह जफर हबीब के लिए अच्छा अवसर था| उन्होंने अपने फ्रंट में काफी भर्ती भी की किन्तु बर्मी सेना के आगे यह फ्रंट कोई प्रभावी भूमिका नहीं अदा कर सका| फ्रंट के सी.ई.ओ. रहे मोहम्मद यूनुस ने ‘रोहिंग्या सोलिडेरिटी आर्गनाइजेशन'(आर.एस.ओ.)बनाया और उपाध्यक्ष रहे नूरुल इस्लाम ने ‘अराकान रोहिंग्या इस्लामिक फ्रंट' (ए.आर.आई.एफ) का गठन किया| इनकी मदद के लिए पूरा इस्लामी जगत सामने आया| इनमें बँगलादेश एवं पाकिस्तान के सभी इस्लामी संगठन, अफगानिस्तान का ‘हिजबे इस्लामी' (गुलबुद्दीन हिकमतयार गुट) भारत के जम्मू कश्मीर में सक्रिय हिजबुल मुजाहिदीन, इंडियन मुजाहिदीन, मलेशिया के ‘अंकातन बेलिया इस्लाम सा मलेशिया ( ए.बी.आई.एम) तथा ‘इस्लामिक यूथ आर्गनाइजेशन आफ मलेशिया मुख्य रूप से शामिल हैं|
पाकिस्तानी सैनिक गुप्तचर संगठन आई.एस.आई. रोहिंग्या जवानों को पाकिस्तान ले जाकर उन्हें उच्च स्तरीय सैनिक तथा गुरिल्ला युद्धशैली का प्रशिक्षण प्रदान करने का काम कर रही है|
बौद्धों का उग्र प्रतिरोध
दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले म्यॉंमार में नई बात यह हुई है कि अब वहॉं बौद्ध भिक्षु संगठन भी जिहादियों के मुकाबले उठ खड़े हुए हैं| वर्ष १९६१ में बर्मा (म्यॉंमार) को बौद्ध देश घोषित किया गया| इसके साथ ही बौद्ध मठों तथा भिक्षु संगठनों को सत्ता के संरक्षण का विशेषाधिकार भी प्राप्त हो गया| दुनिया के किसी गैर मुस्लिम देश में अब तक किसी क्षेत्रीय मजहबी संगठन ने जिहादियों के खिलाफ हथियार उठाने और उनके संगठित विरोध का कदम नहीं उठाया है लेकिन म्यॉंमार के एक बौद्ध भिक्षु ने शांति की परिभाषा बदल दी है| अब वहॉं राखिने बौद्धों और रोहिंग्या मुस्लिमों के बीच सीधा मुकाबला है| राखिने, अराकान का ही नया नाम है| अराकान प्रांत ही अब राखिने स्टेट के नाम से जाना जाता है|
गत वर्ष (२०१२) में भड़का दंगा २८ मई को एक राखिने बौद्ध स्त्री मा थिडा हत्वे के साथ हुए बलात्कार और उसकी हत्या के बाद भड़का था| बौद्धों ने इस हत्या एवं बलात्कार का बदला ३ जून को एक बस से उतार कर १० रोहिंग्या मुसलमानों की हत्या करके लिया| स्वाभाविक था-  इसके बाद जबर्दस्त दंगा भड़का जिसमें ८० मौतें हुई, करीब ९० हजार बेघर हुए| इनमें अधिकांश रोहिंग्या मुसलमान थे क्योंकि इस दंगे में बौद्धों का पलड़ा भारी था| थोड़े ही दिन बाद अक्टूबर में फिर दंगा भड़का जिसमें १०० के लगभग लोग मरे, ४६०० घर जलाए गए और करीब २२ हजार लोगों को घर छोड़कर भागना पड़ा| मीडिया रिपोर्टों के अनुसार जून से अक्टूबर तक राखिने प्रांत में हुए दंगे में करीब एक लाख रोहिंग्या मुसलमान बेघर हो गए और ४० की मौत हुई| बौद्धों ने एक मदरसे पर भी हमला किया, जिसकी व्यापक निंदा हुई|
बीते साल जून से अक्टूबर तक म्यॉंमार में तनावपूर्ण शांति रही, किंतु २०१३ के मार्च महीने में फिर दंगे भड़क उठे| हिंसा की शुरुआत २० मार्च को मिक्तिला के एक बंगाली मुस्लिम ज्वेलर की दुकान से हुई| दुकान में सोने की एक हेयरपिन को लेकर दुकान मालिक तथा ग्राहक बौद्ध दंपति में झगड़ा हो गया और दुकान मालिक उसकी पत्नी तथा उसके दो नौकरों ने मिलकर दंपति की पिटाई कर दी| इससे पैदा हुआ तनाव उस समय एकदम भड़क उठा, जब छः मुस्लिम युवकों ने २० मार्च की शाम साइकिल पर जाते एक बौद्ध भिक्षु को मस्जिद में खींच लिया और उसे पेट्रोल डालकर जिंदा जला दिया|
बौद्धों ने इसका संगठित बदला लेने की योजना बनाई| २५ मार्च को मिक्तिला में मुस्लिम घरों तथा मस्जिदों को निशाना बनाया गया| यह दंगा पास के कई कस्बों तक फैल गया| इसके बाद २० अप्रैल को फिर दंगा भड़का, जिसमें करीब ४०० सशस्त्र बौद्धों ने ओक्कबामा में करीब १०० मुस्लिम घरों तथा दुकानों में आग लगा दी, जिसमें २ लोग मारे गए और करीब एक दर्जन घायल हुए| २१ मई को ७ मुस्लिमों को अशांति पैदा करने के आरोप में २ से २८ साल तक की सजा हुई, जिसमें उपर्युक्त ज्वेलरी शॉप का मालिक तथा भिक्षु को जिंदा जलाने वाले युवक शामिल थे| २९ मई को चीन से लगे शान स्टेट के सीमावर्ती कस्बे लाशिनों में दंगा भड़क उठा| मीडिया खबरों के अनुसार यहॉं भी एक युवा बौद्ध महिला को पेट्रोल डालकर जिंदा जला दिए जाने के बाद लाठी डंडों तथा पत्थरों से लैस बौद्धों ने मुस्लिमों पर हल्ला बोल दिया| रोचक यह है कि इस दंगे में करीब ४०० मुस्लिमों ने एक बौद्ध मठ में छिपकर अपनी जान बचाई, जबकि हमलावरों में ज्यादातर बौद्ध ही थे|
इसके बाद से अब प्राय: पूरी दुनिया में बौद्धों और मुस्लिमों में भारी तनातनी पैदा हो गई है| अभी ५ अप्रैल २०१३ को इंडोनेशिया में ‘इमीग्रेशन डिटेंशन कैम्पफ (देश में अवैध रूप से प्रवेश करने वालों को जहॉं हिरासत में लेकर रखा जाता है) में रखे गये बौद्धों और रोहिंग्या मुसलमानों में झगड़ा हो गया जिसमें १८ बौद्ध मारे गये और १५ रोहिंग्या घायल हुए| बताया जाता है कि कैम्प में रोहिंग्या  मुसलमानों ने संगठित रूप से हमला करके बौद्धों की हत्या की जबकि दूसरे पक्ष का आरोप है कि एक बर्मी बौद्ध ने रोहिंग्या औरत के साथ बलात्कार किया जिससे वहॉं देगा भड़क उठा|
म्यॉंमार के बौद्धों के इस नये तेवर से पूरी दुनिया में खलबली मच गई है| दुनिया भर के अखबारों में उनकी निंदा में लेख छापे जा रहे हैं| कुछ बौद्धों ने भी उनकी आलोचना की है कि बुद्ध की शिक्षा किसी के भी विरुद्ध हिंसा के प्रयोग की अनुमति नहीं देती| बौद्ध भिक्षुओं को शांति और समभाव का
आचरण करना चाहिए| किंतु म्यॉंमार के अधिकांश बौद्ध आत्मरक्षा के लिए अब जिहादियों का तौर-तरीका अपनाने में भी कोई संकोच नहीं कर रहे हैं|
म्यॉंमार के सारे बौद्ध भिक्षु भले स्वयं हथियार उठाने की स्थिति में न हों, लेकिन वे यू विराथु के पूरी तरह साथ हैं| मुस्लिम आक्रामता से अपनी शांति की रक्षा के लिए इसके अतिरिक्त और किया भी क्या जा सकता है? ‘टाइम' के आलेख पर भी आम प्रतिक्रिया यही है कि आखिर उसने कभी बर्मी मुस्लिमों के अत्याचार और हिंसा को अपनी आवरण कथा क्यों नहीं बनाया? विराथु का स्वयं भी कहना है कि वह न तो घृणा फैलाने में विश्‍वास रखते हैं और न हिंसा के समर्थक हैं, लेकिन हम कब तक मौन रहकर सारी हिंसा और अत्याचार को झेलते रह सकते हैं? इसलिए वह अब पूरे देश में घूम घूम कर भिक्षुओं तथा सामान्यजनों को उपदेश दे रहे हैं कि यदि हम आज कमजोर पड़े, तो यह देश मुस्लिम हो जाएगा|
४६ वर्षीय विराथु न्यू मैसोइन बौद्ध मठ के मुखिया हैं| उनके वहॉं पर ६० शिष्य हैं और मठ में रहने वाले करीब २५०० भिक्षुओं पर उनका प्रभाव है| उनका एक ही संदेश है- ‘अब यह शांत रहने का समय नहीं है|'
विराथु बौद्ध राष्ट्रवादी आंदोलन ९६९ के अध्यात्मिक नेता हैं| २००३ में मुस्लिमों के विरुद्ध घृणा के प्रचार के आरोप में उन्हें २५ वर्ष की जेल की सजा दे दी गई थी, लेकिन २०१० में सरकार ने जब सभी राजकीय बंदियों के लिए आम माफी की घोषणा की, तो वह भी रिहा कर दिए गए| रिहा होने के बाद उन्होंने अपना अभियान तेज कर दिया|
टाइम में छपी रिपोर्ट की लेखिका हन्नाह बीच ने म्यॉंमार के रंगून के बाद दूसरे सबसे बड़े शहर मांडले के बौद्ध मठ मे यू विराथु के उपदेश से अपने आलेख की शुरुआत की है| उन्होंने लिखा है कि नीचे दृष्टि किए हुए जब वह अपना प्रवचन दे रहे होते हैं, तो प्रस्तर प्रतिमा की तरह स्थिर नजर आते हैं, चेहरे पर भी कोई उत्तेजना नजर नहीं आती| जो कोई बर्मी भाषा न समझता हो, उसे लगेगा कि वह कोई गंभीर आध्यात्मिक उपदेश दे रहे हैं, लेकिन वह अपने हर उपदेश में केवल मुस्लिमों के विरुद्ध बौद्धों के संगठित होने और हिंसा का जवाब हिंसा से देने में संकोच न करने का उपदेश देते हैं|
अब सवाल है कि भारत इस कट्टरपंथी इस्लाम का मुकाबला करने के लिए क्या करे? यहॉं न कोई व्यक्ति है, न संगठन है और न सरकार, जो इस हिंसक चुनौती का सामना करने के लिए आगे बढ़कर बीड़ा उठाने का साहस कर सके|
९६९ ः बौद्ध राष्ट्रवादी आंदोलन
९६९ बर्मा (म्यॉंमार) के राष्ट्रवादी गुटों का संगठन है| ये तीन अंक बौद्ध त्रिरत्नों के प्रतीक हैं| प्रथम ९ भगवान बुद्ध की ९ विशेषताओं का प्रतीक है, तो दूसरा ६ बौद्ध धर्म की ६ विशेषताओं की ओर संकेत करता है और अंतिम ९ बौद्ध संघ की ८ विशेषताओं का द्योतक है| वास्तव में यह राखिने मूल निवासियों द्वारा खड़ा किया आत्मरक्षात्मक संगठन है, जो रोहिंग्या मुसलमानों के हमलों से राखिने स्टेट (पूर्व अराकान क्षेत्र) के मूल निवासियों के रक्षार्थ  बनाया गया है| बौद्ध भिक्षु आसिन विराथु इसके सर्वोच्च संरक्षक या नेता हैं|
१९६८ में मांडले के निकट एक ग्राम में पैदा हुए विराथु १६ वर्ष की आयु में स्कूल छोड़कर बौद्ध भिक्षु बन गए| २००१ में वह ९६९ आंदोलन में शामिल हो गए| सितंबर २०१२ में विराथु ने राष्ट्रपति थीन शीन की उस विवादास्पद योजना के समर्थन में एक रैली निकाली, जिसमें उन्होंने बंगालियों (रोहिंग्या मुसलमानों) को किसी अन्य देश में भेजने का कार्यक्रम तय किया था| इसके एक महीने बाद ही राखिने स्टेट में और हिंसा भड़क उठी| विराथु का दावा है कि राखिने में भड़की हिंसा के परिणाम स्वरूप ही मिक्तिला शहर में दंगा भड़का| इसी ५ मार्च को बर्मी बौद्ध भिक्षु शिन थाबिता को मिक्तिला में मुस्लिमों ने बुरी तरह पीटा और जिंदा जला दिया| इसके बाद भड़के दंगे में मस्जिदों, दुकानों और घरों पर हमले शुरू हो गए| आगजनी, लूट और मारपीट में १४ लोग मारे गए, जो ज्यादातर मुस्लिम थे| विराथु का कहना है कि आप करुणा और प्यार से कितने भी भरे क्यों न हों, लेकिन आप किसी पागल कुत्ते के बगल तो नहीं सो सकते|
म्यॉंमार सरकार पर दबाव
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कहा है कि म्यॉंमार को अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों की तकलीफों को समझना चाहिए और देश की नागरिकता प्रदान करने की उनकी मॉंग माननी चाहिए| पिछले दिनों इस्लामी देशों के प्रतिनिधियों ने महासचिव से अपील की थी कि वह म्यॉंमार में रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों को रुकवाएँ|
म्यॉंमार के शासक रोहिंग्या मुसलमानों को वहॉं का मूल निवासी नहीं मानते| उनके अनुसार ब्रिटिश शासन के दौरान उन्हें बंगाल (अब बँगलादेश) से यहॉं लाया गया| इस्लामी सहयोग संगठन के संयुक्त राष्ट्र संघ स्थित प्रतिनिधियों ने महासचिव के साथ संघ के बड़े देशों अमेरिका, रूस, चीन तथा यूरो संघ से भी अपील की है कि वे म्यॉंमार सरकार पर दबाव डालें, जिससे रोहिंग्या मुसलमानों पर हो रहा रहा अत्याचार रोका जा सके|
आज का बौद्ध धर्म पूरी तरह अहिंसक नहीं
भगवान बुद्ध स्वयं भले शांति और अहिंसा के प्रतीक रहे हों, किंतु आज का बौद्ध समाज उनकी तरह शांति और अहिंसा का उपासक नहीं है| महायान बौद्ध मत के चीनी संस्करण के ग्रंथों महा परिव्वान सुत्त, उपाय कौशल सुत्त तथा कालचक्र तंत्र ने बाकायदे आत्मरक्षार्थ तथा पापाचार के नाश के लिए हिंसा का सैद्धांतिक समर्थन किया गया है| तिब्बती, थाई, बर्मी तथा सिंहली बौद्धों को भी हिंसा से परहेज नहीं है| तिब्बत के धर्मगुरु दलाई भले पूर्ण अहिंसा के समर्थक हों, लेकिन आज का बौद्ध समुदाय हिंसा का जवाब देने के लिए हिंसा के इस्तेमाल को गलत नहीं माानता|
जापान के बौद्धों ने रूस के विरुद्ध युद्ध तथा द्वितीय विश्‍व युद्ध में भी सरकार के साथ युद्ध में भाग लिया था| यहॉं योद्धा भिक्षु (वारियर मंक) आवश्यकता पड़ने पर हिंसा के लिए भी तैयार रहते थे| श्रीलंका में बौद्ध भिक्षुओं ने तमिलों के साथ संघर्ष में सरकार का पूरा साथ दिया| म्यॉंमार के प्रभाव में अभी इस वर्ष १३ मार्च को श्रीलंका के बौद्धों ने मुस्लिमों का आर्थिक बहिष्कार करने की अपील जारी किया और कहा कि मुस्लिम दुकानों से सामान न खरीदें| कोलंबों में अभी हाल में एक मुस्लिम द्वारा संचालित रिटेल चेन (खुदरा किराना दुकानों की श्रृंखला) पर हमला किया गया, जिसमें बौद्ध भिक्षु भी शामिल थे| म्यॉंमार के बौद्ध तो बाकायदे हथियारबंद संघर्ष में लगे हुए हैं|

उत्तराखंड का जल तांडव

उत्तराखंड का जल तांडव
विकास की विवेकहीन लालसा का परिणाम

सभ्यता के विकास के साथ ही मनुष्य और प्रकृति का द्वंद्व भी बढ़ता गया है| तथाकथित वैज्ञानिक तथा तकनीकी उन्नति ने मनुष्य की लालसा को और बढ़ा दिया है| वह अधिक से अधिक शक्ति और समृद्धि हासिल करने के लिए सागर तल से हिम शिखरों तक प्रकृति को झिंझोड़ने में लगा है| विकास के ताजा दौर में तो मनुष्य यह भी भूल गया है कि उसका जीवन प्रकृति के संतुलन पर ही निर्भर है| पिछले दिनों उत्तराखंड के चार धाम क्षेत्र में आई बाढ़ की विभीषिका किसी दैवी प्रकोप का परिणाम नहीं, बल्कि मनुष्य की विवेकहीन विकास की भूख का परिणाम थी| नेताओं, ठेकेदारों, कंपनियों के अनैतिक गठजोड़ ने मनुष्य और प्रकृति के संबंधों को और बिगाड़ दिया है|

मनुष्य यों प्रकृति का ही अंग है, किंतु तीव्र बौद्धिक विकास ने उसे उस प्रकृति के खिलाफ ही खड़ा कर दिया है, जिससे उसने जन्म लिया है| वह प्रकृति का दोहन करके ही अपनी विकास यात्रा पर आगे बढ़ रहा है| बढ़ती जनसंख्या ने उसके इस दोहन को और बढ़ा दिया है| यह धरती जिस पर उसका आज का साम्राज्य फैला हुआ है, त्राहि त्राहि करने लगी है| इस धरती के समतल मैदान ही नहीं, पर्वत मालाएँ और उत्तुंग शिखर तथा महासागरों की तलहटी तक में मनुष्य की क्रूरता के निशान देखे जा सकते हैं| उसने पहाड़ोंं को नंगा और धरती को खोखला कर दिया है| प्रकृति शांति प्रिय है, वह सब कुछ सह लेती है, किसी से बदला लेने का तो सवाल ही नहीं उठता, फिर भी उसे अपना संतुलन तो बनाए ही रखना पड़ता है| यह संतुलन बनाने की प्रक्रिया ही कभी-कभी मनुष्य के लिए भारी आपदा का रूप ले लेती है| मनुष्य प्रकृति को ही दोष देने लगता है| बहुत से प्रकृतिवादी भी इन आपदाओं को प्रकृति का प्रकोप बताने लगते हैं| प्रकृति तो मॉं है, वह अपनी संततियों पर भला कैसे कोई जानलेवा कोप कर सकती है| और धरती तो धैर्य और क्षमा की प्रतिमूर्ति ही है| उसने तो अपना सर्वस्व ज्यों का त्यों मनुष्य को समर्पित कर दिया है| मनुष्य यदि किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार होता है, तो ज्यादातर वह अपनी ही करतूतों का शिकार होता है| हॉं, कुछ आपदाएँ ऐसी भी जरूर आती हैं, जो धरती की भीतरी हलचल का परिणाम होती हैं, जिस पर किसी का कोई वश नहीं है, स्वयं प्रकृति का भी नहीं|
अभी उत्तराखंड में जो कुछ हुआ, उसमें प्रकृति की तरफ से असाधारण या अस्वाभाविक कुछ भी नहीं था, किंतु उसके कारण विनाश का जो भयावह तांडव समाने आया, उसके लिए तो पूरी तरह स्वयं मनुष्य जिम्मेदार है| उसके लिए प्रकृति को, भगवान शिव को या धारी देवी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता| कई टीवी चैनलों पर यह समाचार प्रायः दिन भर चलता रहा कि यह विनाश लीला धारी देवी के कोप का परिणाम था| गढ़वाल में धारी देवी का एक प्रसिद्ध मंदिर है, जिसे हटाया जा रहा है| चैनलों पर बताया गया कि धारी देवी की प्रतिमा को उनके स्थान से हटाए जाने के घंटे दो घंटे के भीतर ही बादल फटने और उसके साथ ही एक लघु जल प्रलय की स्थिति आ धमकी| किंतु यह मात्र संयोग है| भारत की कोई देवी, कोई देवता कोप करके किसी का अनिष्ट करने की सोच भी नहीं सकता| मनुष्य की अपनी लापरवाही अपने अहंकार और अपनी अज्ञानता के परिणामों के लिए किसी देवी-देवता को दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए|
मानव सभ्यता की शुरुआत ही प्रकृति के दोहन से शुरू हुई है, लेकिन ज्यों-ज्यों मनुष्य अधिक बुद्धिमान होता गया, त्यों-त्यों उसका लोभ भी बढ़ता गया और वह पूरी प्रकृति को अपने काबू में करने की सोचने लगा| उसने बहुत कुछ उसे अपने काबू में कर भी लिया, उच्चतम पर्वत शिखर तथा गहनतम सागरतलीय गुफाएँ भी अब उसकी पहुँच के बाहर नहीं हैं| असीमित समृद्धि की लालसा ने धरती को तो झिंझोड़ कर रख ही दिया है और आगे अब अन्य ग्रहों के शोषण पर भी उसकी नजर लगी है|
उत्तराखंड में जिस भयावह विभीषिका का विनाश नृत्य देखने को मिला, उसके लिए मनुष्य के अलावा और कोई दूसरा जिम्मेदार नहीं| हिमालय के कच्चे पहाड़ मनुष्य की अप्रतिहत लालसा से दहल उठे हैं| विद्युत उत्पादन के लिए बड़े-बड़े बॉंधों का निर्माण, नदियों के जलपथ परिवर्तन के लिए खोदी जा रही लंबी-लंबी सुरंगे, सड़कें बनाने के लिए लगातार तोड़े जा रहे पर्वत स्कंध| डायनामाइट के विस्फोटों से दूर-दूर तक दरकती चट्टानें| विकास के इन उपक्रमों की लगातार चोट से पहाड़ भी कमजोर और भंगुर हो गए हैं| इन खुदाइयों से निकला सारा मलबा नदियों के प्रवाह मार्ग में डाला जा रहा है|
उत्तराखंड के पहाड़ों को पहले वृक्षहीन किया गया| लोगों को शायद याद हो १९७० के दशक का चिपको आंदोलन जब इस खंड की स्त्रियों और बच्चों ने पेड़ों से चिपक कर जंगल काटने वाले ठेकेदारों को चुनौती दी थी कि वृक्षों को काटने के पहले उन्हें काटना पड़ेगा| जान हथेली पर रखकर वृक्षों को बचाने की यह अनूठी कोशिश थी| कुछ दिन इस आंदोलन का असर रहा, लेकिन वृक्ष कटते रहे| वर्षा जल की उद्दाम धाराओं को उलझाने वाले ये हाथ नहीं रहे, तो उनके उत्पात को रोकने की सामर्थ्य और कौन दिखाता| बढ़ते शहरीकरण, पर्यटन, अनियंत्रित विकास, भ्रष्टाचार आदि के संयुक्त प्रभावों का परिणाम हैं इस पर्वतीय क्षेत्र की प्राकृतिक आपदाएँ| विकास का पहला खामियाजा जंगलों, वृक्षों को ही भुगतना पड़ता है, क्योंकि जंगलों की कटाई विकास का अनिवार्य घटक बन गयी है|
पहाड़ की पारंपरिक आर्थिक गतिविधियॉं खेती, वन, बागवानी, पशुपालन से जुड़ी थीं और महिलाएँ इसके केंद्र में थीं| पहाड़ी कस्बे, शहर, गॉंव, नदी धाराओं से दूर पहाड़ की ढलानों पर बसे थे| भारी वर्षा एवं बादल फटने की घटनाएँ पहले भी होती थीं| उग्रवाद की स्थितियॉं भी पैदा होती थीं, लेकिन कभी किसी बड़े हादसे की खबर सुनने में नहीं आती थीं| किंतु विकास के नए दौर में नदी सीमा के भीतर नए-नए होटेल, रिसॉर्ट, व्यावसायिक कॉम्प्लेक्स तथा आवासीय समूह खड़े हो गए| सड़कों का निर्माण भी बेतरतीब हुआ| नदियों के छूटे मार्गों का उपयोग करके भी सड़के बना ली गईं, क्योंकि इस तरह सड़कें बनाना सस्ता पड़ता है और पहाड़ को काटकर सड़कें बनाने में समय भी अधिक लगता है और खर्च भी ज्यादा होता है| विकास के लिए बिजली और पानी की सर्वाधिक जरूरत पड़ती है, इसलिए नदियों पर अनेक बॉंध बने और तमाम सुरंगे बनाई गईं|
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में विकास के लिए सरकारों ने कभी इस क्षेत्र के भूगर्भ विशेषज्ञों तथा पर्यावरणविदों की कोई राय नहीं ली गई| सरकारी अफसर, बिल्डर, ठेकेदार तथा राजनेताओं ने मिलकर सारी योजनाएँ बना डालीं| इसमें राजनेताओं का अपना लोभ और स्वार्थ भी शामिल था| गांधी शांति प्रतिष्ठान तथा सर्वसेवा संघ की चेयरपर्सन राधा बेन के अनुसार अभी इस क्षेत्र के एक गॉंव चरबा की गोचर भूमि को कोकाकोला का बाटलिंग प्लांट बनाने के लिए दे दिया गया है| इस जमीन पर ग्रामीणों ने वर्षों से परिश्रम करके बड़ी संख्या में वृक्षारोपण किया था| सरकार अब इस जमीन को १९ लाख रुपये प्रति एकड़ की दर से बेच रही है| जाहिर है यहॉं के सारे पेड़ साफ हो जाएँगे| प्लांट के लिए कंपनी को प्रतिदिनि ६ लाख लीटर पानी की जरूरत पड़ेगी| राधा बेन का कहना है कि वास्तव में ‘राजनेता- प्रायवेट कंपनी' गठबंधन इन पर्वतीय घाटियों को बुरी तरह बरबाद कर रहा है| भागीरथी पर अब १,००० मेगावाट का टिहरी डैम पूरा हुआ है| इसके साथ अलकनंदा, मंदाकिनी, पिंडर तथा गंगा नदियों पर १८ और परियोजनाओं को मंजूरी मिल चुकी है| गत दिसंबर महीने में स्थानीय कार्यकर्ताओं के विरोध के बाद केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने भागीरथी के १०० कि.मी. क्षेत्र को ‘इको सेंसिटिव' (पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील) घोषित करके उस क्षेत्र में बड़े बॉंधों तथा अन्य निर्माणों के साथ पत्थर खनन तथा अन्य प्रदूषक उद्यमों की स्थापना को रोक दिया था, लेकिन इसका कितना पालन होगा, कहा नहीं जा सकता|
देश में उत्तराखंड जैसी आपदाओं को रोकने एवं राहत पहुुँचाने के लिए एक संस्था का गठन किया गया है, जिसका नाम है ‘नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथारिटी' (राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिकरण) यह संस्था मानो बूढ़े, सेवानिवृत्त अफसरों के लिए
शरणगाह बना दी गई है| आठ सदस्यीय इस अधिकरण में दो सेवानिवृत्त आई.ए.एस. अधिकारी, दो पुलिस सेवा से रिटायर हुए अफसर, एक रिटायर्ड मेजर जनरल हैं| बाकी तीन भी सेवानिवृत्त ही हैं, लेकिन उनकी उपयोगिता इस दृष्टि से सिद्ध की जा सकती है कि वे वैज्ञानिक पृष्ठभूमि के हैं| आपदा प्रबंधन अपेक्षाकृत युवाओं का काम है, जो मौके पर पहुँच सकें, राहत कार्यों की निगरानी कर सकें और सरकार के विभिन्न विभागों के बीच आवश्यक समन्वय कायम कर सकें| लेकिन इन साठोत्तरी थके लोगों से ऐसी कोई अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
यहॉं यह उल्लेखनीय है कि इस बार की इस भयावह बाढ़ में वही भवन, सड़कें तथा पुल बहे हैं, जो विवेकहीन ढंग से बनाए गए थे| केदारनाथ का प्राचीन मंदिर भी मंदाकिनी की प्राचीन धारा के मध्य है, किंतु एक तो वह स्वयं एक मजबूत चट्टान पर स्थित है, दूसरे उसके पीछे एक विशाल बोल्डर स्थित है, जो नदी के वेग से उसकी रक्षा करने में समर्थ हुआ| आस-पास के अन्य निर्माण ऐसे नहीं थे| यह बात सही है कि मंदाकिनी ने बहुत दिनों से अपना यह प्रवाह मार्ग छोड़ रखा था, फिर भी उस प्रवाह पथ को अवरुद्ध नहीं किया जाना चाहिए था, क्योंकि जब कभी नदी में जल की मात्रा बढ़ेगी, वह इस मार्ग का भी उपयोग करने से पीछे नहीं रहेगी|
यहॉं अंततः कथनीय यही है कि सभ्यता के विकास के साथ मनुष्य का प्रकृति के साथ छिड़ा द्वंद्व यों तो रुकने वाला नहीं है, क्योंकि प्रकृति का शोषण करके ही मनुष्य अपनी शक्ति बढ़ाता आ रहा है| आज यह पता होने के बावजूद कि प्रकृति का शोषण पूरी मानव जाति के लिए विनाशकारी हो सकता है, मनुष्य अपनी शक्ति और समृद्धि विस्तार के लिए उसका शोषण जारी रखे है| फिर भी यह तो स्वयं मनुष्य के अपने हित में है कि वह प्रकृति के स्वभाव को समझे और अपना विकास इस तरह करे कि प्राकृतिक आपदाएँ उसके विकास को विनाश में न तब्दील कर सकें|
आपदाओं के लिए स्वयं प्रकृति तथा देवी-देवताओं को दोष देने के बजाए मनुष्य को अपनी गलतियों को पहचानने का प्रयत्न करना चाहिए| हिमालय क्षेत्र धरती का नवीनतम क्षेत्र है, जिसके अंतस्तल में अभी भी भारी हलचलें जारी हैं, इसलिए वहॉं तो विशेष सावधानी की आवश्यकता है|
july 2013

सहवास को विवाह की मान्यता देने का प्रश्‍न!
 

मद्रास हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश सी.एस.करनन ने अपने एक फैसले में कहा है कि विवाह योग्य आयु प्राप्त कोई पुरुष-स्त्री यदि परस्पर सहमति से दैहिक संबंध कायम करते हैं तो इसे विवाह स्वीकार किया जाना चाहिए| इस पर तमाम लोगों की भवें चढ़ गई हैं और इसे भारतीय संस्कृति, परंपरा तथा वैवाहिक पवित्रता की अवहेलना करने वाला फैसला बताया जा रहा है|फैसला  निश्‍चय ही कानून सम्मत नहीं हैं किन्तु इसे भारतीय संस्कृति एवं परंपरा के विरुद्ध नहीं कहा जा सकता| भारतीय धर्मशास्त्रों में तो किसी भी स्थिति में हुए संभोग को विवाह की मान्यता दे दी गई है| न्यायमूर्ति करनन ने आधुनिक ‘लिव-इन-रिलेशन' के संदर्भ में अपना फैसला दिया है जिसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए और यदि कानून में इसकी व्यवस्था नहीं है तो देश के कानून निर्माताओं को इसकी व्यवस्था करनी चाहिए| करनन द्वारा दी गई व्यवस्था स्त्री के व्यापक हित में है जिसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए|

मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश सी.एस. करनन ने गत जून माह में एक ऐसा फैसला सुनाया जिससे इस देश में ही नहीं विदेश में भी तमाम लोग चौंक पड़े| फैसला था कि यदि विवाह की वैधानिक आयु प्राप्त कोई युवक युवती परस्पर सहमति से संभोग करते हैं तो उन्हें कानूनी तौर पर पति पत्नी मान लिया जाना चाहिए| दूसरे शब्दों में उन्होंने संभोग को विवाह की मान्यता दे दी| अभी पश्‍चिम के अत्याधुनिक समाज की सोच भी यहॉं तक नहीं पहुँची थी फिर यदि भारत जैसे परंपरावादी समझे जाने वाले देश की किसी
अदालत से इस तरह का फैसला सामने आता है तो उससे दुनिया का चौंकना स्वाभाविक है| लेकिन सच कहा जाय तो भारत के लिए यह कोई नई बात नहीं है| यहॉं के लोग यदि चौंक रहे हैं तो केवल इस कारण कि वे भारत की पुरानी मान्यताओं और
विचारों को भूल चुके हैं और केवल पश्‍चिमी सामाजिक मान्यताओं से ही परिचित हैं तथा उन्हें ही आदर्श मानते हैं|
लोग इस फैसले की तरह-तरह से आलोचना निन्दा करने में लगे हैं| यहॉं तक कि कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि उन्होंने न्यायालय की अधिकार सीमा का उल्लंघन किया है| तकनीकी दृष्टि से हो सकता है कि उन्होंने वह कर दिया हो जो संसद को करना चाहिए| संभोग को विवाह की मान्यता देना है तो इसके लिए विवाह संबंधी कानून में संशोधन होना चाहिए या नया कानून बनना चाहिए| न्यायालय कानून की सीमा के बाहर की किसी बात को कानूनी मान्यता कैसे दे सकता है? लेकिन इस तरह की आलोचना के पूर्व यह भी देखना चाहिए कि किन परिस्थितियों में न्यायाधीश ने ऐसा फैसला देने का साहस किया है| न्याय का संबंध सीधे मानव संवेदना से जुड़ा होता है| व्यापक मानवीय हित में कानूनी व्यवस्थाओं को लचीला बनाना पड़ता है और जरूरत हो तो बदलना भी पड़ता है| न्यायमूर्ति करनन ने आधुनिक युग की आवश्यकताओं को देखते हुए समाज के व्यापक हित में अपना फैसला दिया है- और वह फैसला भी भारत की प्राचीन सामाजिक एवं न्यायिक परंपराओं के सर्वथा अनुकूल हैं| ऐसे में यदि उस फैसले में किसी तरह की तकनीकी खामियॉं हैं तो उसे दूर किया जाना चाहिए|
फैसले पर किसी तरह की टिप्पणी करने के पहले उस मामले (केस) को देख लेना चाहिए जिसमें यह फैसला दिया गया है फिर यह भी जान लेना चाहिए कि विवाह संस्था को लागू करने का मूल उद्देश्य क्या है और उसके बारे में भारत की अपनी धर्मशास्त्रीय परम्परा का क्या विचार है|
एक महिला वर्षों तक एक पुरुष के साथ ‘लिव-इन-रिलेशन' मेें रह रही थी| उसके साथ रहते हुए उसके दो बच्चे भी हो गए| इसके बाद एक दिन उस पुरुष ने साथ छोड़ दिया| दो बच्चों के साथ वह महिला बेसहारा हो गई| उसने अपने भरण पोषण के लिए पारिवारिक न्यायालय (फेमिली कोर्ट) में फरियाद की| २००६ में कोर्ट ने दोनों बच्चों के लिए ५०० रुपये महीने का भत्ता देने तथा १००० रुपये अदालती खर्च का भुगतान करने का फैसला सुनाया| पारिवारिक अदालत उस महिला को कोई सहायता देने का आदेश नहीं दे सकी, क्योंकि कानून के अनुसार वैध वैवाहिक संबंध का उसके पास कोई प्रमाण नहीं था| अपील के तहत यह मामला न्यायाधीश करनन के सामने आया| न्यायाधीश ने देखा कि ‘लिव-इन-रिलेशन' के पूर्व महिला अधेड़ अविवाहिता थी और पुरुष भी कुआँरा था| दोनों एक ही छत के नीचे वर्षों रहे और दो बच्चों को भी जन्म दिया| उन्होंने व्यवस्था दी कि लंबे समय तक दैहिक संबंधों के कारण उनका विवाह पूर्ण हो गया, इसलिए महिला उन सारे अधिकारों को पाने की हकदार है, जो किसी विवाहिता स्त्री को प्राप्त हैं|
अब इस पर कहा जा रहा है कि मामले के कठोर तथ्यों से इनकार नहीं किया जा सकता, किंतु कठोर तथ्यों के मद्देनजर एक गलत व्यवस्था दी गई| उनके फैसले पर पहली कानूनी आपत्ति यह है कि उन्होंने विवाह के कानून में एक नई धारा जोड़ दी है| वह ज्यादा से ज्यादा यह कर सकते थे कि विधायिका को इस तरह की कानूनी व्यवस्था करने की सलाह देते, जिसमें ‘लिव-इन-रिलेशन' को विवाह की मान्यता मिल सके| दूसरी और सबसे गंभीर आपत्ति यह है कि उन्होंने विवाह की उन परंपराओं को -जो किसी विवाह की वैधता के लिए अनिवार्य है- नगण्य, तुच्छ और उपेक्षणीय बना दिया| न्यायाधीश करनन कहते हैं कि मंगलसूत्र, वरमाला या अँगूठी पहनाना अथवा अग्निप्रदक्षिणा आदि विवाह की वैधता के लिए अनिवार्य नहीं है| ये केवल कुछ धार्मिक परंपराओं के अनुपालन मात्र हैं, जो समाज के संतोष के लिए निभाए जाते हैं| आलोचक की दृष्टि में ऐसा कहना न केवल अवांछित बल्कि खतरनाक है| वैवाहिक संबंधों को मान्यता इन सामाजिक तथा धार्मिक कर्मकांडों से ही मिलती है| कानून उसी को मान्यता देता है| कानून विवाह नहीं करा सकता, वह केवल उसे समाप्त करने का काम कर सकता है| अदालतें विवाह कराने की याचिका नहीं स्वीकार कर सकती, वे केवल उसे तोड़ने की याचिका ही स्वीकार कर सकती हैं| आज के प्रगतिशील लेागों को भले ही अस्वीकार्य हों, लेकिन पारंपरिक ढंग से शादियॉं अभी भी परिवारों और समाज के अपने विशेषाधिकार हैं, जिसके बीच परिवार चलते हैं|
करनन के आलोचकों के ये सभी तर्क अपनी जगह सही हैं, लेकिन भारत के प्राचीन धर्मशास्त्रों की बात मानें, तो विवाह संस्था की स्थापना समाज में स्त्री-पुरुषों के यौन जीवन को नियमित करने के लिए ही की गई और इससे भी अधिक उनकी चिंता स्त्री-पुरुष के दैहिक संबंधों से उत्पन्न संतानों की सामाजिक स्थिति निर्धारित करने और उसे सामाजिक स्वीकृति दिलाने की थी| इसलिए भारतीय धर्मशास्त्रियों ने तो बलात्कार और धोखे से किए गए संभोग को भी विवाह की मान्यता दे दी थी| यहॉं करनन ने तो बाकायदे आपसी सहमति से लंबे समय तक एक साथ रहनेॅ, संभोग करने तथा संतान उत्पन्न करने वाले युगल को विवाहित माने जाने का फैसला दिया है|
भारतीय धर्म शास्त्रों में विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं (देखिए बॉक्स) इनमें गांधर्व विवाह, आसुर विवाह, राक्षस विवाह और पैशाच विवाह भी शामिल है| इन चारों की निंदा की गई, फिर भी इन्हें विवाह की मान्यता दे दी गई है, क्योंकि समाज की सुव्यवस्था के लिए आवश्यक है कि सभी स्त्री-पुरुष चाहे वे पापी या अपराधी क्यों न हो, एक निश्‍चित नियम के अंतर्गत बँध कर रहें, जिससे उनके द्वारा उत्पन्न संतानों को भी समाज में उनका एक निश्‍चित वैध स्थान मिल सके| जबरिया परिवार में से छीन कर, अपहरण कर के लाई गई रोती-बिलखती स्त्री के साथ सहवास को भी शास्त्रकारों ने विवाह की संज्ञा दी, लेकिन उसे राक्षस विवाह का एक निंदित नाम दिया| इससे भी गर्हित कर्म है -चुपके से, बेहोश या नशे में उन्मत्त लड़की से संभोग| भारतीश धर्मशास्त्र में इसेे भी विवाह की मान्यता दी गई| इसे पिशाच विवाह कहा गया| ध्यान रहे इस तरह के निंदित कृत्य से विवाह का नाम भी जरूर निंदित हो गया, लेकिन इससे स्त्री के परिवार या समाज में अधिकारों पर कोई फर्क नहीं पड़ता| विवाह किसी भी तरीके से हुआ हो, किंतु विवाह की सामाजिक मान्यता में कोई भेद नहीं है|
आजकल समाज में बिना विवाह के साथ रहने, संभोग करने तथा बच्चे भी पैदा करने (लिव-इन-रिलेशन) का प्रचलन बढ़ रहा है| इन संबंधों में भी स्त्री ठगी जा रही है| यदि वह स्वयं आर्थिक दृष्टि से सक्षम नहीं है, तो उसके सर्वाधिक संकट में पड़ने का खतरा रहता है| और यदि उसने संतान को भी जन्म दे दिया है, तो उसका भार भी उसके सिर ही आ जाता है| पुरुष सारे दायित्वों से बड़ी आसानी से बाहर निकल जाता है| इसलिए यह जरूरी है कि ऐसे संबंधों को भी कानूनी दायरे में लाया जाए| ‘लिव-इन-रिलेशन' वास्तव में बिना किसी जिम्मेदारी के विवाह का सारा सुख उठाने का एक आसान तरीका बन गया है| ज्यादातर स्त्रियॉं मजबूरी में इस जाल का शिकार होती हैं| लंबे समय तक अविवाहित रहने वाली स्त्रियों को भी सामाजिक सुरक्षा के लिए एक पुरुष की आवश्यकता पड़ती है, इसलिए वे किसी पुरुष के साथ बिना किसी वैध सामाजिक रिश्ते के भी रहना शुरू कर देती है|
भारत जैसे पारंपरिक सुदृढ़ परिवार व्यवस्था वाले देश में भी पश्‍चिम की सामाजिक जीवनशैली अब तेजी से फैल रही है, तो उसको नियंत्रित करने के व्यावहारिक उपाय भी होने चाहिए| पश्‍चिम के समाजशास्त्री तथा विधि चिंतक अभी सोए हुए हैं, तो इसका यह मतलब नहीं कि हम भी सोए रहें| हमारे देश के एक न्यायाधीश ने यदि कोई व्यावहारिक कदम उठाया है, तो उसकी निंदा करने के बजाए उसका स्वागत करना चाहिए और यदि उसमें कुछ तकनीकी खामियॉं हैं, तो देश के विधि निर्माताओं तथा सरकार को उसे ठीक करने की पहल करनी चाहिए|
जाने-माने स्तंभकार एस. गुरुमूर्ति ने ‘इंडियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित अपने एक आलेख में विवाह संबंधी कई उल्लेखनीय आँकड़ों को प्रस्तुत किया है| यूनीसेफ की ‘ह्यूमन राइट कौंसिलफ (मानवाधिकार परिषद) की एक नवीनतम अध्ययन रिपोर्ट (१६ अगस्त २०१२)के अनुसार भारत में परिवार द्वारा तय यानी नियोजित विवाह (अरेंज्ड मैरिज) का प्रतिशत ९० है, जबकि दुनिया के स्तर पर इसका औसत आँकड़ा ५५ है| विश्‍व स्तर पर परिवार द्वारा तय विवाहों में तलाक की दर ६ प्रतिशत है, जबकि भारत में केवल एक प्रतिशत| पश्‍चिमी आधुनिकता के प्रतीक देश अमेरिका में ‘अरेंज्ड मैरिज' को सर्वथा निंदनीय मान लिया गया है| बमुश्किल १० में से १ विवाह परिवार द्वारा तय होता है| इसका परिणाम यह हुआ है कि पहली बार की शादी ५० प्रतिशत से अधिक, दूसरी बार की शादी में ६६ प्रतिशत से अधिक और तीसरी बार की शादी में ७५ प्रतिशत से अधिक शादियों की परिणति तलाक (डायवोर्स) में होती है| अमेरिका के आधे परिवार पिता से रहित हैं या माताएँ अविवाहित हैं| गुरुमूर्ति ने इन आँकड़ों को यह सिद्ध करने के लिए उद्धृत किया है कि पारिवारिक तथा धार्मिक कर्मकांड के साथ परिवार और समाज की स्वीकृति से होने वाले विवाह अधिक स्थाई होते हैं| उनकी यह स्थापना सही है, लेकिन उनका यह कहना गलत है कि न्यायाधीश करनन के फैसले से विवाह संस्था को चोट पहुँच रही है अथवा मात्र संभोग को वैवाहिक मान्यता का आधार बनाने से विवाह संस्था का मूल्य ही समाप्त हो जाएगा और उसकी पवित्रता नष्ट हो जाएगी| जिस तरह प्राचीन विधि-विशेषज्ञों (धर्माचार्यों) ने अपहरण, बलात्कार तथा छल से किए गए संभोग को भी विवाह का एक प्रकार मान लिया, वैसा ही उपाय बरतने का उदाहरण उन्होंने अपनी न्यायपीठ से प्रस्तुत किया है| इससे परिवार या समाज स्वीकृत पारंपरिक विवाह व्यवस्था का अवमूल्यन नहीं हो रहा है, बल्कि विवाह संस्था के बाहर रहकर किए जा रहे मुक्त यौनाचार को भी विवाह के दायरे में लाने का प्रयास किया जा रहा है|
विवाह का प्रलोभन देकर लड़कियों को फुसला कर उनका दैहिक शोषण करके फिर परित्याग करने वाले पुरुषों के लिए यह अच्छा दंड विधान हो सकता है कि उनके इस संबंध को विवाह की मान्यता दी जाए और शोषण की शिकार स्त्री को वे सारे अधिकार दिलाए जाएँ, जो एक विवाहिता स्त्री को प्राप्त हो सकते हैं|

विवाह के आठ प्रकार
भारत में अति प्राचीन काल यानी वैदिक गृह्य सूत्रों, धर्मसूत्रों तथा स्मृतियों के काल से आठ प्रकार के विवाहों को वैधानिक एवं सामाजिक मान्यता प्राप्त है|
ब्राह्म- इसे विवाह का श्रेष्ठतम प्रकार माना जाता है| जिस विवाह में पिता मूल्यवान वस्त्र-अलंकारों से सुसज्जित तथा रत्नों से मंडित कन्या को चुने हुए विद्वान (वेदज्ञ) एवं चरित्रवान व्यक्ति को आमंत्रित कर उसे समर्पित करता है, उसे ब्राहम विवाह कहते हैं|
दैव- यज्ञ करते समय यदि कोई पिता अपनी वस्त्रालंकार से सुसज्जित कन्या किसी पुरोहित को प्रदान करता है, तो इसे दैव विवाह कहा जाता है|
आर्ष- यदि मात्र प्रतीक रूप में (कन्या मूल्य के रूप में नहीं) एक जोड़ा या दो जोड़ा पशु (एक गाय एक बैल या दो गाय दो बैल) लेकर किसी योग्य वर को अपनी कन्या दी जाए, तो इसे आर्ष विवाह कहते हैं|
प्राजापत्य- यदि कोई पिता किसी योग्य वर का चयन करके उसे मधु पर्क आदि से सम्मानित कर अपनी कन्या अर्पित करता है और कहता है कि ‘तुम दोनों साथ-साथ धार्मिक कृत्य करना' तो इसे प्राजापत्य विवाह कहते हैं|
आसुर- यदि वर अपनी इच्छित कन्या की प्राप्ति के लिए कन्या को तथा उसके पिता को धन देकर संतुष्ट करता है और तब पिता अपनी कन्या उस वर को सौंपता है, तो इसे आसुर विवाह कहते हैं|
गांधर्व- किसी युवक-युवती में परस्पर दैहिक आकर्षण से जो प्रेम उत्पन्न होता है और वे परस्पर सहमति से संभोग के प्रति प्रवृत्त होते हैं, तो इसे गांधर्व विवाह कहते हैं| गंधर्वों को अत्यंत कामुक प्रवृत्ति वाला समझा जाता, इसलिए इसे उनका नाम दिया गया| आज का प्रेम विवाह, गांधर्व विवाह ही है|
राक्षस- परिवार वालों को मारकर या घायल करके यदि कोई रोती-बिलखती कन्या को उसके परिवार से छीन लाए या अपहरण कर ले तो इसे राक्षस विवाह कहा गया|
पैशाच- यदि कोई पुरुष सोई हुई, बेहोश या नशे में उन्मत्त किसी कन्या से चुपके से या छल से संभोग कर ले तो इसे पैशाच विवाह की संज्ञा दी गई|
वस्तुतः किसी स्त्री-पुरुष के परस्पर मिलन के यही आठ तरीके हैं, नौवॉं कोई तरीका ही नहीं है, इसलिए इन आठों को प्राचीन समाज शास्त्रियों ने विवाह की वैधानिक मान्यता प्रदान कर दी| ये सभी आठों विवाह के सम्मानित तरीके नहीं है, फिर भी स्त्री के व्यापक हित में इनको वैधानिकता प्रदान की गई| इनमें से प्रथम चार को श्रेष्ठ तथा अंतिम चार को गर्हित (निंदनीय) माना गया है| इस व्यवस्था से अपराध और शोषण की शिकार स्त्री को भी पत्नी का सम्मान और भरण-पोषण तथा सुरक्षा का अधिकार मिल जाता है| इसी तरह स्त्री के व्यापक हित में आज के ‘लिव-इन-रिलेशन' को विवाह की मान्यता दे देना परंपराओं के अनुकूल तथा हर तरह से विधि सम्मत है|