बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

अयोध्या-3



अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का न्यायिक फैसला गत 30 सितंबर को आ गया। निश्चय ही यह प्रसन्नता की बात है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय की त्रिसदस्यीय न्यायपीठ ने एक स्वर से विवादित स्थल को राम जन्मभूमि माना है और उस पर अधिकार जताने वाले सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा खारिज कर दिया है। लेकिन तीन में से दो न्यायाधीशों ने शायद सभी पक्षों को संतुष्ट करने के लिहाज से विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांटकर एक हिस्सा रामलला को, एक निर्र्मोही अखाड़े को और एक सुन्नी वक्फ बोर्ड को देने के लिए कहा है। जमीन का यह फैसला नितांत अनौचित्यपूर्ण है। कम से कम सुन्नी वक्फ बोर्ड का तो उस जमीन में किसी तरह कोई हक नहीं बनता। निर्मोही अखाड़ा और रामलला का दावा भी अलग करने का कोई औचित्य नहीं है। इसे निश्चय ही सुधारने की जरूरत है। या तो संबंधित पार्टियां स्वयं यह कार्य कर लें या सर्वोच्च न्यायालय की मदद हासिल करें।






अयोध्या विवाद का बहुप्रतीक्षित फैसला आ गया है। फैसले के बाद हिंसा व अशांति की जो आशंका थी, वह भी टल गयी है। प्रायः पूरे देश ने इस अत्यंत संवेदनशील मसले पर असाधारण संयम का परिचय दिया। कुछ छोटे क्षेत्रीय दलों को छोड़कर प्रायः सभी बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने फैसले का स्वागत किया है। यदि कोई सर्वाधिक दुःखी है, तो वे हैं कुछ वामपंथी बुद्धिजीवी लेखक, पत्रकार व इतिहासकार, क्योंकि न्यायालय का फैसला उनकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा है। उनसे यह बात नहीं निगली जा रही है कि कैसे हाईकोर्ट के तीनों जजों ने एकमत से उस स्थल को राम का जन्मस्थल मान लिया, जहां पर तथाकथित बाबरी मस्जिद खड़ी थी। उन्होंने सारे ऐतिहासिक तथ्यों तथा कानूनी नुक्तों की अनदेखी करके इस तरह का फैसला दे दिया। वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर कह रही हैं कि न्यायालय का फैसला न्यायिक नहीं, राजनीतिक है। न्यायाधीशों ने इतिहास की अनदेखी की है और आस्था का भरोसा किया है। ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ के पूर्व संपादक व जाने माने स्तम्भ लेखक दिलीप पदगांवकर भी इस फैसले से थापर की तरह क्षुब्ध हैं। उनका भी कहना है कि न्यायाधीशों ने तथ्यों की और कानून के प्रावधानों की उपेक्षा की है। इस समुदाय के विद्वानों की नाराजगी सर्वाधिक इस बात को लेकर है कि उन्होंने राम को एक व्यक्ति मान लिया है और उनका जन्मस्थल स्वीकार कर लिया है और उनके नाम जमीन का बंटवारा भी कर दिया है।

राजनीतिक दलों में समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव ने तो मुस्लिम पक्षकारों से भी आगे बढ़कर अपना शोक व्यक्त किया है। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर अपनी गहरी नाखुशी जाहिर करते हुए कहा है कि इससे देश का मुस्लिम समुदाय सर्वाधिक मायूस है और अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहा है। उन्होंने तो पूरे देश व न्यायपालिका को चेतावनी देते हुए कह डाला कि यह फैसला देा के लिए संविधान के लिए और स्वयं न्यायपालिका के लिए अच्छा संकेत नहीं है और आगे चलकर इस निर्णय से काफी गहरे संकट पैदा हो सकते हैं। बिहार के राष्ट्र्ीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव ने व लोकजनशक्ति पार्टी के राम विलास पासवान ने भी मुलायम सिंह के स्वर में स्वर मिलाने की कोशिश की है।

देश की दो सबसे बड़ी पार्टियों कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने पहले तो इस फैसले का स्वागत किया है, लेकिन अब इनमें से कांग्रेस अपने को काफी असहज महसूस कर रही है। ऐसी अफवाह चल पड़ी है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला कांग्रेस के प्रयासों से ही आ सका है। यदि केंद्र सरकार यानी कांग्रेस पार्टी की तरफ से हरी झंडी न मिलती, तो इस तहर का फैसला नहीं आ सकता था। इस तर्क को प्रस्तुत करने वालों का कहना है कि अयोध्या में विवादित मस्जिद के सामने राम मंदिर का शिलान्यास कराने का काम कांग्रेस ने किया, मस्जिद में लगा ताला खुलवाने का काम कांग्रेस ने किया। दिसंबर 1992 में यदि केंद्र में स्थित पी.वी. नरसिंह राव वाली कांग्रेस सरकार की मदद न मिलती, तो बाबरी मस्जिद कतई नहीं गिरायी जा सकती थी। और अब मंदिर के पक्ष में हाईकोर्ट का फैसला आया है, तो इसके पीछे भी कांग्रेस का हाथ है।

इस तरह की चर्चा से कांग्रेस जन चिंतित हैं। उन्हें बिहार में इससे नुकसान होने की उम्मीद दिखायी दे रही है। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान इसलिए मुस्लिम पक्ष में सर्वाधिक शोकाकुल चेहरा प्रदर्शित कर रहे हैं, जिससे कांग्रेस की तरफ मुड़ते मुस्लिम वोट बैंक को फिर अपनी ओर आकर्षित किया जा सके। कांग्रेस के नीतिकार अब मंदिर मस्जिद मामले में अपने को भाजपा से अलग दिखाने की रणनीति बनाने में लगे हैं। गृहमंत्री पी. चिदंबरम कह रहे हैं कि गत बृहस्पतिवार के उच्च न्यायालय के फैसले से 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद ढहाये जाने का अपराध हल्का नहीं हो जाता। दोनों मामले अलग हैं। मस्जिद को गिराने का काम एक गंभीर अपराध है, जिसकी अलग से सुनवाई हो रही है, जिसमें वह चाहते हैं कि अपराधियों को कठोर सजा मिले। उस मामले को इस फैसले से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। विवादित मंस्जिद मंदिर तोड़कर बनी थी या मंदिर के मलबे पर बनवायी गयी थी, इससे उसे तोड़ने का अपराध हल्का नहीं हो जाता।

कांग्रेस की दिक्कत यह है कि न तो वह इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले का विरोध कर सकती है ओर न वह उसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में जा सकती है, क्योंकि वह इस मामले में केाई पार्टी नहीं थी और फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार उसी को है, जो मामले में किसी भी तरह पार्टी हो। इसलिए अब वह फिर अदालत के बाहर किसी समझौते की संभावना तलाश रही है। अदालत के बाहर कोई समझौता हो जाए, इसके लिए तो सभी उत्सुक हैं, लेकिन यह समझौता सभी केवल अपने पक्ष में चाहते हैं। कांग्रेस चाहती है कि कोई ऐसा रास्ता निकल आए, जिससे हिन्दू व मुसलमानों में से कोई नाराज न हो। हिन्दू पक्ष तथा भाजपा के लोग चाहते हैं कि मुस्लिम समुदाय अयोध्या विवाद में अपने अधिकारों का दावा छोड़ दे और मंदिर बनाने में मदद करे। मुस्लिम पक्ष चाहते हैं कि बाबरी मस्जिद स्थल उन्हें मिल जाए, बाकी सारी जमीन जो चाहे ले जाए। जाहिर है कि किसी भी समझौते में ये सारी बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। तो मामला सर्वोच्च न्यायालय में अवश्य जाएगा। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय इस पूरे मामले को उलट दे, इसकी संभवना लगभग शून्य है। वह जमीन के बंटवारे के बारे में अपनी कोई अलग राय दे सकता है। लेकिन उससे मुस्लिम पक्ष संतुष्ट हो जाए, यह नहीं हो सकता है। वास्तव में हर पक्ष को संतुष्ट करने का जो फार्मूला इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपनाया है, उससे बेहतर शायद ही कोई दूसरा फार्मूला निकल सके, लेकिन जो भी पक्ष इतिहास को पूरी तरह नकारने पर आमादा है, वह इससे संतुष्ट नहीं हो सकता।

इसमें दो राय नहीं कि इलाहाबाद कोर्ट की लखनउ बेंच का यह फैसला न्यायिक कम राजनीतिक अधिक है। यदि इसमें राजनीतिक तुष्टीकरण का तत्व भी न समाया होता, तो जमीन के तीन टुकड़े करके तीन पक्षों को देने का फैसला कतई सामने नहीं आता। विवाद का मूल कुछ व्यक्तियों के बीच नहीं, बल्कि दो समुदायों के बीच था, जिसमें से कोई एक गलत था। अब न्याय का असली तकाजा तो यही था कि जिस पक्ष का दावा भी न्यायसंगत ठहरता, उसके पक्ष में फैसला दे दिया जाता। लेकिन इस ‘टाइटिल सूट’ में तीन व्यक्तियों या संस्थाओं के पक्ष में फैसला देकर तीनों को जमीन का एक-एक टुकड़ा देने की बात की गयी है।

यह शायद भारतीय न्यायिक इतिहास का पहला अवसर है, जब सुनवाई कर रही पीठ के तीनों न्यायाधीशों ने अपना फैसला अलग-अलग पढ़ा। तीनों जजों द्वारा दिया गया कुल फैसला 8189 पृष्ठों का है। इसमें सबसे बड़ा 5238 पृष्ठ का फैसला न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल का है। दूसरे न्यायाधीश धर्मवीर शर्मा ने अपना फैसला 2666 पृष्ठों में दिया है। सबसे छोटा फैसला न्यायमूर्ति सिबगत उल्ला खान का है, जो 285 पृष्ठों का है। तीनों ने अपने-अपने फैसले का सारांश पढ़कर सुनाया।

इनमें से दो टूक और स्पष्ट फैसला धर्मवीर शर्मा का था। उन्होंने पुरातात्विक तत्व तथा अन्य साक्ष्यों के आधार पर माना कि विवादित स्थल पर पहले मंदिर था, जिसे तोड़कर मस्जिद का निर्माण कराया गया। मस्जिद का यह निर्माण भी इस्लामी नियमों के विरुद्ध किया गया। इसलिए यह निर्माण भी अवैध था। उन्होंने स्पष्ट रूप से इस स्थल को भगवान राम के जन्मस्थल या उस पर बने मंदिर का स्थल माना, इसलिए पूरी विवादित जमीन को हिन्दुओं के पक्ष में देने का फैसला दिया। उन्होंने सुन्नी वक्फ बोर्ड तथा निर्मोही अखाड़े के किसी दावे को स्वीकार नहीं किया।

न्यायमूर्ति अग्रवाल ने अपने फैसले में यह तो माना कि मस्जिद का निर्माण मंदिर को गिराकर हुआ, लेकिन उनकी नजर में इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि मस्दिज बाबर के समय में या उसके आदेश से बनी। उन्होंने मूल स्थान को राम का जन्मस्थान माना, लेकिन यह भी स्वीकार किया कि मुस्लिम भी इस स्थल का प्रार्थना के लिए उपयोग करते थे, इसलिए उन्हें भी यहां कुछ अधिकार मिलना चाहिए। न्यायमूर्ति अग्रवाल ने भी पुरातात्विक प्रमाणों को काफी महत्वपूर्ण माना हेै।

न्यायमूर्ति सिबगत उल्ला खान अपने संक्षिप्त फैसले में न्यायाधीश कम इस्लाम के प्रवक्ता के रूप में अधिक नजर आए। वह इस पुरातात्विक प्रमाण को तो नकार नहीं सके कि मस्जिद के ढांचे के नीचे एक मंदिर का अवशेष मौजूद था, लेकिन उन्होंने अपने फैसले में लिखा कि इस मस्जिद का निर्माण मंदिर को गिराकर नहीं लेकिन उसके मलबे के उपर किया गया। तीनों न्यायाधीशों के फैसले में इस एक बात पर पूर्ण सहमति थी कि मस्जिद के मध्यवर्ती गुम्बद के स्थान पर जहां इस समय रामलला की मूर्ति विराजमान है, वहां पर पहले मंदिर था और हिन्दुओं का लोकविश्वास उस स्थल को राम जन्मभूमि मानता है, इसलिए वह स्थान रामलला के लिए निश्चित कर दिया जाना चाहिए। इसी आधार पर यह फैसला दिया गया कि रामलला की मूर्ति जहां स्थापित है, वहां बनी रहेगी। उसे हटाया नहीं जाएगा और भूमि का वह हिस्सा रामलला को दिया जाएगा। यहां यह बात अवश्य उल्लेखनीय है कि तीनों ही न्यायाधीशों ने राम जन्म स्थल के रूप में उस भूमि की पहचान के लिए जन विश्वास को ही सर्वोपरि स्थान दिया, जबकि फैसला विश्वास की बात को बिना बीच में लाए भी मात्र पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर किया जा सकता था।

इन तीनों जजों की टिप्पणियों में सर्वाधिक रोचक टिप्पणियां खान की हैं। उन्होंने अपना फैसला सुनाते हुए किसी प्रचारक की शैली में कहा कि इस राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद फैसले ने भारतीय मुसलमानों को इस्लाम की शिक्षाओं को पूरी दुनिया में प्रसारित करने का एक सर्वोत्तम अवसर दिया है। मुस्लिम इस धरती के शासक रहे हैं, शासित रहे हैं और इस समय सत्ता में भागीदारी रखते हैं। भारतीय मुस्लिम यहां बहुमत में नहीं है, लेकिन वे इतने कम भी नहीं है कि उपेक्षणीय अल्पसंख्यक गिने जाएं। अन्य देशों में मुसलमान या तो भारी बहुमत में हैं, जिससे ऐसी समस्याओं से न पर कोई फर्क नहीं पड़ता या वे इतनी कम संख्या में हैं कि वे कुछ कर नहीं सकते। दुनिया की नजर इसय मुसलमानों पर हैं और वे इस्लाम की शिक्षाओं को मुसलमानों के आचरण के नजरिये से देखना व समझना चाहते हैं यानि मुसलमान दूसरे समुदायों के साथ किस तरह का व्यवहार करते हैं, इससे वे इस्लाम के चरित्र को जानना चाहते हैं। भारतीय मुसलमानों के पास धार्मिक शिक्षा व ज्ञान की सुदीर्घ परंपरा है, इसलिए वे दुनिया को इसकी वास्तविक स्थिति बताने की सर्वोत्तम अवस्था में हैं। वे इसकी भूमिका सामने उपस्थित इस मसले से शुरू कर सकते हैं। यह तो उनका मुसलमानों को उपदेश था, लेकिन साथ ही उनकी पूरे देश के लिए यह चेतावनी भी थी कि ऐसा कुछ -6 दिसंबर जैसी घटना- दुबारा नहीं होना चाहिए। हम सबको यह समझ लेना चाहिए कि ऐसा कुछ यदि दुबारा हुआ, तो देश फिर उससे उबर नहीं पाएगा। 1992 के मुकाबले आज दुनिया की गति कहीं अधिक तीव्र है। हम उसमें कुचल जाएंगे -वी मे बी क्रश्ड-। न्यायमूर्ति खान का स्पष्ट कहना था कि उन्होंने इस मसले के इतिहास और पुरातत्व की गहरायी में जाने की कोशिश नहीं की। इसके उन्होंने चार कारण बताए। एक तो यह कि इस ‘सूट’ पर फैसले के लिए इसके भीतर जाने की जरूरत ही नहीं थी। दूसरे मुझे यह भरोसा नहीं था कि यदि इसके भीतर प्रवेश की कठिन प्रक्र्रिया से गुजरें भी तों हमें कोई खजाना मिलेगा या किसी शैतान से भेंट होगी -मतलब सच्चाई हाथ लगेगी या और भ्रम से सामाना होगा-। तीसरे मैं इतिहास का ज्ञानी होने का दावा नहीं कर सकता, इसलिए मैं नहीं चाहता था कि इतिहास की मैं कोई ऐसी बात करूं कि विद्वान इतिहासज्ञों की आलोचना का सामना करना पड़े। और चैथी बात के रूप में उन्होंने ‘कर्नाटक वक्फ बोर्ड बनाम भारत सरकार’ मामले में की गयी टिप्पणी को उद्धृत किया कि ‘जहां तक दीवानी मामले में किसी ‘सिविल सूट’ का वास्ता है, तो उसमें ऐतिहासिक तथ्योंे तथा दावों के लिए कोई स्थान नहीं है।’

न्यायमूर्ति खान ने इकबाल की इन पंक्तियों को भी उद्धृत किया कि ‘वतन की फिक्र कर नादां मुसीबत आने वाली है, तेरी बरबादियों के मशवरे हैं आसमानों में, न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तां वालों, तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में’ उन्होंने इस धर्मिक मामले में भी डार्विन को उद्धृत किया कि वही जातियां जीवित रह पाती हैं, जो त्वरित प्रतिक्रिया सक्षम होती हैं और सहयोग करती हैं।

यद्यपि उन्होंने मुसलमानों को अच्छी नसीहत दी, लेकिन इतिहास पुरातत्व में प्रवेश न करने का बहाना उन्होंने केवल इसलिए ढूंढ़ा कि उन्हें भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की उत्खनन रिपोर्टों के प्रमाणों को न स्वीकार करना पड़े, जबकि मंदिर-मस्जिद के इस विवाद में फैसले का मुख्य आधार ही वह पुरातात्विक प्रमाण था। जब विवाद का मूल मुद्दा ही यही हो कि मस्जिद का निर्माण कैसे हुआ। क्या वह किसी मंदिर को तोड़कर बनायी गयी या किसी खाली जगह पर धार्मिक भावना से तैयार की गयी। ऐसे में पुरातात्विक उत्खनन व इतिहास की किताबों की उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। अब यदि उन्हें इतिहास व पुरातत्व का कोई बोध नहीं था, तो उन्होंने किस आधार पर यह कहा कि मस्जिद का निर्माण किसी मंदिर को तोड़कर नहीं किया गया, बल्कि मंदिर के मलबे पर उसे बनवाया गया। इसके बारे में उन्होंने अपने फैसले में कुछ नहीं लिखा कि उन्हें कैसे पता चला कि मस्जिद बनवाने वाले ने ही मंदिर का ध्वंस नहीं किया था।

खैर, यह तो रही फैसलों की बात। तीन में से दो जजों ने माना कि प्राचीन राममंदिर को तोड़कर वहां मस्जिद का निर्माण किया गया। इस संदर्भ में केवल खान की राय अलग है। लेकिन तीनों ही जज इस मामले में एकमत हैं कि मस्जिद के मध्य गुम्बद का स्थल ही राम का जन्मस्थल है, जिसे राम के हवाले कर दिया जाना चाहिए। शर्मा को छोड़कर बाकी दो जजों ने ही विवादग्रस्त भूमि को तीन हिस्सों में बांटने की बात की है। एक हिस्सा रामलला को, दूसरा निर्मोही अखाड़ा को और तीसरा सुन्नी वक्फ बोर्ड को। इन दोनों जजों के ये दो फैसले शायद सभी पक्षों को किसी तरह संतुष्ट करने के उद्देश्य से दिये गये हैं। क्योंकि जब सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा 1 के मुकाबले 2 के बहुमत से खारिज कर दिया गया, तो उसे विवादित जमीन में कोई हिस्सा पाने का हक कहां रह जाता है। इसी तरह निर्मोही अखाड़ा को अलग से कोई जमीन आवंटित करने का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि भले ही वह विवादित स्थल पर स्थित राम चबूतरे पर रामलला की सैकड़ों वर्ष से सेवा करता रहा हो, लेकिन वह कार्य व्यापक हिन्दू समुदाय के स्थानीय प्रतिनिधि के रूप में ही कर रहा था। उसके इस सेवाकार्य के पीछे पूरा हिन्दु समुदाय खड़ा था। जमीन का एक हिस्सा राम को, दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को यह एक हास्यास्पद निर्णय कहा जाएगा। इसलिए सच कहें तो केवल न्यायमूर्ति शर्मा का निर्णय समग्रता से ग्राह्य और न्यायपूर्ण हैै।

अब एक सवाल यह कि न्यायालय ने उस भगवान राम को एक व्यक्ति मान लिया और उनका जन्मस्थल भी स्वीकार कर लिया, जो घट-घट व्यापी हैं, निराकार हैं व परमात्मा हैं। अब इस तरह का सवाल उठाने वालों को क्या कहा जाए, जो अपने को ज्ञानी और आधुनिक चेतना का संवाहक भी मानते हैं। राम इस देश के इतिहास पुरुष हैं या परमात्मा हैं, यह अलग चर्चा का विषय है, लेकिन यह एक सर्वस्वीकार्य तथ्य है कि अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर राम का एक प्रतीक स्थल था। उसके प्रति अगाध श्रद्धा ने ही बाबर या उसके सिपहसालार को उसे तोड़ने और उस जगह मस्जिद बनवाने के लिए प्रेरित किया।

इसके अलावा यदि उच्च न्यायालय के इन तीन न्यायाधीशों ने राम को एक व्यक्ति माना, तो यह उनका नहीं इस देश में स्थापित उस कानून का दोष है, जो किसी मंदिर में स्थापित प्रतिमा को एक व्यक्ति होने का अधिकार देती है और उसे तमाम संपत्तियों का मालिक भी घोषित करती है, कम से कम पदगांवकर जैसे व्यक्ति को तो यह तथ्य पता होना ही चाहिए। अदालत में एक मुकदमा रामलला की तरफ से देवकीनंदन अग्रवाल ने दायर किया था और अपने को उनका मित्र बताया था। यदि राम की प्रतिमा को कानूनी व्यक्तित्व का अधिकार न प्राप्त होता, तो वह मुकदमा ही स्वीकृत न होता। निश्चय ही यह नितांत हास्यास्पद कानून है, जो मंदिर में स्थापित प्रतिमा को एक नागरिक के अधिकार प्रदान करती है, लेकिन जब तक वह कानून है, तब तक उसके अंतर्गत फैसले होंगे ही।

बेहतर तो यह होता कि न्यायालय केवल यह फैसला करता कि विवादित स्थल का वैध मालिक कौन है मंदिर समर्थक हिन्दू या मस्जिद समर्थक मुस्लिम। उसके बाद सरकार को कहता कि वह पूरी जमीन को अपने अधिकार में लेकर फिर संबंधित समुदाय के उचित प्रतिनिधि व्यक्ति या संस्था को उसे सौंप दे। वहां मंदिर का निर्माण हो या कुछ और यह निर्णय वह प्रतिनिधि संस्था करे।

खैर, अब जो हो चुका है, वह हो चुका है, लेकिन विवादित जमीन के बंटवारे का मसला अभी भी अटका है। जमीन का यह बंटवारा नितांत अनौचित्यपूर्ण है। रामजन्मभूमि जैसे स्थल पर मंदिर निर्माण के लिए विशाल भूमिखंड चाहिए। अब इस विवाद के निपटाने के दो ही रास्ते हैं कि या तो निर्मोही अखाड़ा और मुस्लिम पक्ष दोनों ही अपने हिस्से का त्याग करें और उसे रामलला को सौंप दें। या फिर इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जाए। अभी तक कि खबरों के अनुसार सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाड़ा दोनों सर्वोच्च न्यायालय जाने की तैयारी में हैं, लेकिन यदि न्यायमूर्ति सिबगत उल्ला खान के उपदेशों की भावना को सभी पक्ष स्वीकार करें, तो इन दोनों ही पक्षों को जमीन का अपना अंश रामलला को सौंपकर केंद्र सरकार से आग्रह करना चाहिए कि वह वहां भव्य राम मंदिर के निर्माण के पक्ष में आगे की कार्रवाई करे। (3-10-2010)

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

‘सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाड़ा दोनों सर्वोच्च न्यायालय जाने की तैयारी में हैं’

तो समझो कि मंदिर का बनना एक शताब्दी और आगे चला जाएगा!!!!

सरगर्भित लेख के लिए बधाई स्वीकारें॥