यह भारत क़ि अस्मिता का प्रश्न है
राम जन्मभूमि का विवाद न तो जमीन के टुकड़े का विवाद है न एक मंदिर नाम के किसी बिल्डिंग के निर्माण का। यह भारत की संपूर्ण सांस्कृतिक आस्था के सीने पर खाई हुई ऐतिहासिक चोट का विवाद है। एक ऐसी चोट, जिसका घाव अब तक भरा नहीं है और रिस रहा है। एक ऐसी चोट जिसे सबसे पहले पहुंचाने वाला व्यक्ति भले ही सैकड़ों वर्ष पहले के इतिहास में दफन हो चुका हो, किंतु जिसकी वह मानसिकता आज भी देश की सांस्कृतिक अस्मिता को मंुह चिढ़ाती हुई अपनी पूरी ताकत के साथ विद्यमान है। यह अक्सर कहा जाता है कि चार-पांच सौ साल पुराने मंदिर-मस्जिद के मसले को आज उठाने की क्या जरूरत है। उसे भूल जाना चाहिए। बात सही है। इसे भूला जा सकता था, लेकिन यदि वह मानसिकता जिसने करीब पांच सौ वर्ष पूर्व एक मंदिर को तोड़कर उस पर मस्जिद तामीर करायी थी, वही एक सामाजिक और राजनीतिक चुनौती के रूप में आज भी जीवित हो तो क्या किया जाए।
कहा जाता है कि टाइटिल सूट या किसी संपत्ति पर मालिकाना हक के विवाद में अधिक समय लग ही जाता है, लेकिन अयोध्या का विवाद किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच के किसी जमीन-जायदाद के हक का मामला नहीं है। तकनीकी तौर पर या कानून की धाराओं के अनुसार यह भले जमीन के एक टुकड़े का विवाद हो कि उसका वास्तविक मालिक कौन है, लेकिन यथार्थ में यह वैसा नहीं है। जमीन-जायदाद के झगड़े में उस जमीन का बंटवारा किया जा सकात है या उससे दोनों पक्षों को बेदखल करके उसे सरकार के हवाले किया जा सकता है, इत्यादि।
इस विवाद को उसके सही परिप्रेक्ष्य में ठीक से न समझने वाले लोग आये दिन तरह-तरह की सलाहें देते रहते हैं। अरे एक जमीन के टुकड़े के लिए इतनी बड़ी लड़ाई क्यों। अपने परिवार की कलाह टालने के लिए भगवान राम ने तो पूरा अयोध्या का राज्य त्याग दिया था, फिर एक पूरे देश को धार्मिक कलक से मुक्त करने के लिए हिन्दू उस राम जन्मभूमि के छोटे से टुकड़े का परित्याग क्यों नहीं कर सकते। इसके जवाब में तर्क आता है कि ऐसी सलाह आखिर मुस्लिम पक्ष को क्यों नहीं दी जाती। कुछ लोग सलाह देते हैं कि हिन्दुओं को मंदिर ही बनवाना है, तो वहां से कुछ दूर हटकर क्यों नहीं बनवा लेते। जो जमीन विवादग्रस्त है, उसे यों ही खाली छोड़ दें, बगल में मंदिर बनवा लें। कुछ लोग इससे भी आगे जाकर तर्क देते हैं कि आखिर इसका क्या प्रमाण है कि भगवान राम वहीं पैदा हुए थे और राम की असली जन्मभूमि वही है, जहां पर तथाकथित बाबरी मस्जिद खड़ी थी। कुछ और बुद्धिमानों का कहना है कि मस्जिद की जगह पर पहले मंदिर होने की कहानी अंग्रजों के शासनकाल में गढ़ी गयी। उसके पहले मंदिर मस्जिद का कहीं कोई विवाद था ही नहीं। राम भक्त संत तुलसीदास ने अयोध्या में बैठकर अपनी रामायण -रामचरित मानस- लिखी, लेकिन उन्होंने बाबर द्वारा मंदिर तुड़वाकर मस्जिद बनवाने का कोई जिक्र नहीं किया। यदि अयोध्या में ऐसा पहले कुछ हुआ होता, तो तुलसी उसका अवश्य जिक्र करते। अब यदि तुलसी के साहित्य में बाबर द्वारा मंदिर तोड़वाकर मस्जिद बनाने का कोई जिक्र नहीं है, तो इसका मतलब है कि अयोध्या में किसी राम जन्मभूमि मंदिर होने और उसे तोड़कर मस्जिद बनवाने की सारी कहानी झूठी है।
अब ऐसे विद्वानों को भला कोई क्या जवाब दे सकता है, जो केवल अपने बुद्धिबल से तथ्यों को तोड़-मरोड़कर लोगों को गुमराह करना चाहते हैं या अपना राजनीतिक पक्ष मजबूत करना चाहते हैं। राम जन्मभूमि का विवाद न तो जमीन के टुकड़े का विवाद है न एक मंदिर नाम के किसी बिल्डिंग के निर्माण का। यह भारत की संपूर्ण सांस्कृतिक आस्था के सीने पर खाई हुई ऐतिहासिक चोट का विवाद है। एक ऐसी चोट, जिसका घाव अब तक भरा नहीं है और रिस रहा है। एक ऐसी चोट जिसे सबसे पहले पहुंचाने वाला व्यक्ति भले ही सैकड़ों वर्ष पहले के इतिहास में दफन हो चुका हो, किंतु जिसकी वह मानसिकता आज भी देश की सांस्कृतिक अस्मिता को मंुह चिढ़ाती हुई अपनी पूरी ताकत के साथ विद्यमान है। यह अक्सर कहा जाता है कि चार-पांच सौ साल पुराने मंदिर-मस्जिद के मसले को आज उठाने की क्या जरूरत है। उसे भूल जाना चाहिए। बात सही है। इसे भूला जा सकता था, लेकिन यदि वह मानसिकता जिसने करीब पांच सौ वर्ष पूर्व एक मंदिर को तोड़कर उस पर मस्जिद तामीर करायी थी, वही एक सामाजिक और राजनीतिक चुनौती के रूप में आज भी जीवित हो तो क्या किया जाए। उसी मानसिकता ने देश का विभाजन कराया, जिसने अयोध्या, मथुरा व काशी स्थित भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों को रौंद कर इस देश की अस्मिता को कुचला था। और आज भी वह एक चुनौती के रूप में देश में विद्यमान है, तो भला इस देश की हजारों साल की सांस्कृतिक परंपरा से अपने को जोड़ने वाला हिन्दू कैसे उस अपमान को भूल सकता है। अदालत फैसला करे या न करे, लेकिन सांस्कृतिक अस्मिता का यह संघर्ष तो तब तक जारी रहेगा, जब तक कि कम से कम उसे कुचलने वाला पांव तो वहां से हट नहीं जाता। 6 दिसंबर को अयोध्या स्थित तथाकथित बाबरी ढांचे का ध्वंस कोई बदले की कार्रवाई नहीं थी। वह तो भारतीय संस्कृति पुरुष के सीने में गड़ी एक विदेशी आक्रांता की बर्छी को केवल निकाल फेंकने का काम था।
जो लोग यह सवाल उठाते हैं कि इसका क्या प्रमाण है कि भगवान राम वहीं पैदा हुए थे, लेकिन वे तो यह भी सवाल उठाते हैं कि इसका क्या प्रमाण है कि राम कभी पैदा भी हुए थे, या इसका ही क्या प्रमाण है कि यह वही अयोध्या है, जहां राम पैदा हुए थे। वास्तव में ये सवाल व्यर्थ के हैं। मुद्दा यह नहीं है कि राम पैदा हुए या नहीं हुए अथवा कहां पैदा हुए या कब पैदा हुए। सवाल केवल यह है कि अयोध्या में एक राम का (विष्णु हरि का या शारंगिन विष्णु का, क्योंकि राम को विष्णु का अवतार माना जाता है या विष्णु का वह रूप बताया जाता है, जो धनुषधारी था) मंदिर था, जिसे बाबर के समय में स्वयं उसके द्वारा या उसके आदेश पर किसी और के द्वारा तोड़ा गया और वहां मस्जिद का निर्माण कराया गया। इसे प्रमाणित करने के लिए न साहित्यिक साक्ष्यों की कमी है, न पुरातात्विक। स्वयं मुस्लिम लेखकों की अनेक किताबों में इसका गर्वपूर्वक जिक्र किया गया है कि बाबर ने अयोध्या स्थित राम मंदिर को तोड़कर वहां एक मस्जिद बनवायी। पुरातात्विक उत्खननों से भी यह प्रमाणित हो चुका है कि विवादित मस्जिद के ढांचे के नीचे एक और भवन के फर्श का अस्तित्व विद्यमान है, जिस पर कभी मंदिर रहा होगा।
कुछ लोग (जिनमें कुछ मुस्लिम विद्वान व कुछ वामपंथी इतिहासकार भी शामिल हैं) कहते हैं कि बाबर तो कभी अयोध्या आया ही नहीं, फिर वह कोई मंदिर तोड़कर मस्जिद कैसे बनवाने लगा। तो यह बात मुस्लिम पक्ष को समझायी जानी चाहिए, जो इसे बाबर की बनवायी मस्जिद बताकर उसे एक विशेष ऐतिहासिक महत्व प्रदान करता है। हिन्दू का पक्ष तो केवल इतना है कि उसके मंदिर को तोड़कर उसे सांस्कृतिक रूप से पददलित करने के लिए उसी स्थान पर मस्जिद बनवायी गयी। उसे तो वह स्थान वापस चाहिए। उसके लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उसे किसने तोड़वाया और फिर उस पर मस्जिद किसने बनवायी। लेकिन सारी परंपराएं, सारी किंवदंतियां, सारे साहित्य इसका श्रेय बाबर को देते हैं, तो उस पर और आगे बहस की कोई जरूरत नहीं रह जाती। हां, इसके बाद यह सवाल जरूर खड़ा होता है कि बाबर ने अयोध्या में ही मस्जिद क्यों बनवायी। अयोध्या उसके लिए इतनी महत्पूर्ण जगह क्यों हो गयी। बाबर का भारत में कार्यकाल केवल चार वर्षों का था। उसने दिल्ली विजय करके लोदी वंश का अंत किया था और अपना शासन स्थापित किया था। तो उसे यदि अपनी आस्थावश किसी मस्जिद का निर्माण करना होता, तो वह दिल्ली में कहीं यह निर्माण कार्य करवाता। अयोध्या में राम पैदा हुए रहे हो या न हुए रहे हों, लेकिन अयोध्या की पहचान राम से जुड़ी थी। स्कंदगुप्त विक्रमादित्य ने इस उजड़ी अयोध्या का उद्धार कराया था। फिर यहां आकर मस्जिद बनवाने का अर्थ क्या था? उसके आदेश से यदि उसके सेनापति मीर बांकी ने ही यहां एक अनगढ़ सी मस्जिद खड़ी की तो उसका उद्देश्य क्या था। फिर क्यों उस मस्जिद के ढांचे में टूटे मंदिर के स्तंभों को यत्र-तत्र और मुख्य द्वार पर लगाया गया। इस सब पर आखिर सेकुलर इतिहासकार और राजनेता कोई विचार क्यों नहीं करते। फिर इस संदर्भ में संत तुलसी को घसीटना और हास्यास्पद लगता है। तुलसी किसी हिन्दू संगठन के नेता नहीं थे और न वह समकालीन अयोध्या का कोई इतिहास लिख रहे थे। और यदि अयोध्या के संदर्भ में उनकी पीड़ का अनुमान लगाना चाहते हो, तो वे लोग यह क्यों नहीं देखते कि तुलसी अपनी समकालीन काशी और चित्रकूट का वर्णन तो करते हैं, लेकिन समकालीन अयोध्या के बारे में कहीं एक शब्द नहीं लिखते। कोई यह सवाल क्यों नहीं उठाता कि राम का परम भक्त और सरयू के उपासक तुलसी ने अपने निवास के लिए काशी को क्यों चुना, उन्होंने अयोध्या को अपना निवास स्थल क्यों नहीं बनाया। अगर थोड़ा भी इस पर विचार करें, तो कारण स्पष्ट हो जाएगा। काशी में कम से कम उनके समय तक किसी मंदिर का ध्वंस नहीं हुआ था। ज्ञानवापी में भगवान विश्वनाथ शिव का मंदिर शान से खड़ा था। अयोध्या उस समय दिल्ली के मुस्लिम साम्राज्य की सूबाई राजधानी थी, जहां उस समय कोई एक भी मंदिर समूचा नहीं बचा था। तुलसी ने अयोध्या के किसी मंदिर में नहीं एक चबूतरे पर बैठकर अपनी रामकथा लिखानी शुरू की थी। उसे पूरा भी उन्होंने वहीं किया, इसका कुछ पता नहीं। शायद उसे पूर्ण करने का काम बनारस पहुंचकर किया हो। और मान लें अयोध्या में पूरा किया भी हो, तो अपना सारा कागज-पत्तर समेटकर उसे ग्रंथ रूप में प्रकाश में लाने का काम निश्चय ही वाराणसी में ही किया होगा। तुलसी किसी पंथ या मजहब के अनुयायी नहीं थे। वह मनुष्यता के व धर्म -न्याय- के उपासक थे। इसलिए बाबरी मस्जिद के प्रमाण के लिए उन्हें या उनके साहित्य को घसीटना नितांत अनुचित है।
खैर, अब सर्वोच्च न्यायालय ने इस विवाद को उत्तर प्रदेश के हाईकोर्ट से लेकर अपने हाथ में संभाल लिया है, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि वह न्याय ही करेगा। इस मामले में सर्वाधिक हास्यास्पद बात तो यही है कि इस मामले का फैसला ‘टाइटिल सूट’ के अंतर्गत हो रहा है, जिसमें यह मालिकाना हक तय होना है कि उस जमीन का वास्तविक मालिक या अधिकारी कौन है, जहां पहले एक मस्जिद खड़ी थी और आज एक अस्थाई मंदिर में भगवान राम की मूर्तिपूजा हो रही है।
धरती पर स्थित जमीन का कोई भी टुकड़ा हो, उस पर किसी का मालिकाना हक कभी स्थिर नहीं रहा है। मालिकाना हक तो एक राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था है। जमीनी बंदोबस्त में सरकार के राजस्व खाते मेें जिसका नाम चढ़ जाए, वह जमींदार हो जाएगा और जिसका नाम कट जाए, वह भूमिहीन। इसलिए राम जन्मभूमि मंदिर का विवाद राजस्व कानूनों के तहत नहीं निपट सकता। लेकिन मजबूरी है दोनों पक्षों की कि यदि मामले का हल अदालत से प्राप्त करना है, तो उसे देश की उपलब्ध कानूनी व्यवस्था के अंतर्गत ही प्राप्त किया जा सकता है।
अयोध्या विवाद का फैसला ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अंतर्गत ही हो सकता है। अभी जिन कानूनों के अंतर्गत सुनवाई हुई है व फैसले की प्रतीक्षा है, उनके अंतर्गत यदि उस जमीन का अधिकार हिन्दुओं को मिल जाता है, तो वह भी संयोगवश मिला न्याय होगा। वह वास्तविक न्याय तो तब कहा जाएगा, जब कोई अदालत यह फैसला दे कि अयोध्या में एक मंदिर को तोड़कर उस पर मस्जिद बनवाना एक मध्यकालीन विजेता की अन्यायपूर्ण कार्रवाई थी, जिसे आज के लोकतांत्रिक भारत की न्यायव्यवस्था रद्द करती है और उस भूमि को ससम्मान हिन्दू समुदाय को वापस करती है। अब इसके बाद यह सवाल पैदा होगा कि यह जमीन किसके हवाले की जाए। उसे सरकार अपने पास रखे, किसी प्रतिनिधि हिन्दू संगठन के हवाले करे या फिर उसे उस निर्मोही अखाड़े को सौंप दिया जाए, जो शताब्दियों तक मस्जिद के प्रांगण में स्थित चबूतरे पर स्थापित राम प्रतिमा की पूजा आराधना तब तक करता रहा, जब तक कि शासन ने पूरे स्थल को अपने कब्जे में लेकर वहां से सभी अन्य पक्षों को बाहर नहीं कर दिया।
इस पूरे मामले को अंततः सर्वोच्च न्यायालय में जाना ही था। यह अभी ही पहुंच गया यह अच्छी बात है। यदि संबंधित पक्ष इसके फैसले के लिए 60 वर्षों तक प्रतीक्षा कर लेंगे। किंतु इस मामले में आर या पार एक बार अंतिम न्यायिक फैसला हो ही जाना चाहिए। जहां तक आपसी सहमति से किसी समझौते की बात है, तो उसके लिए तो अवसर हमेशा खुला हुआ है। न्यायालय के फैसले के पहले ही नहीं, उसके बाद भी आपसी समझौता हो सकता है। लेकिन आपसी समझौते के लिए राजनीति से मुक्त एक संवेदनशीलता की दरकार होती है, जो आज के समाज में बहुत दुर्लभ हो गयी है। जल्दी ही सही या देर से सही, अयोध्या विवाद का अंतिम समाधान आपसी समझदारी से ही निकल सकता है। अदालत अपना फैसला सुना सकती है, समस्या का समाधान नहीं कर सकती। इसलिए अच्छा हो कि अदालत जल्दी से जल्दी अपना काम पूरा कर ले, यानी अपना फैसला दे दे, जिससे कि उसकी रौशनी में दोनों पक्ष आगे बढ़ सकें। हो सकता है उसके बाद किसी तरह की सामुदायिक सद्बुद्धि का विकास हो और यह मसला परस्पर द्वेष के बजाए प्रेम की आधारशिला बन सके। एक बार अधिकार का फैसला हो जाए, फिर हिन्दू समाज को भी वह भूमि किसी सार्वजनिक हित के लिए देने में कोई संकोच नहीं रह जाएगा। यहां अंत में यह फिर दुहरा देना आवश्यक लग रहा है कि मसला न जमीन का है न मंदिर का, वस्तुतः मसला हिन्दुओं की आहत सांस्कृतिक अस्मिता का है, जिसे वह मंदिर के बहाने वापस पाना चाहता है।
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