कश्मीरी आंदोलन को देशव्यापी बनाने की साजिश
कश्मीरी अलगाववादी आंदोलन को अब राज्य की सीमा के बाहर राष्ट्रव्यापी आंदोलन बनाने का एक संगठित प्रयास शुरू हो गया है। पिछले दिनों दारूल उलूम देवबंद में कश्मीर मसले पर विचार के लिए पहली बार जमीयत-ए-उलेमाए हिन्द की बैठक हुई, जिसमें कई प्रस्ताव पारित किये गये। उसके बाद गत गुरुवार को नई दिल्ली में भरत की केंद्रीय सत्ता की ठीक नाम के नीचे कश्मीरी अलगाववादियों ने एक सेमीनार आयोजित किया, जिसमें माओवादी व खालिस्तान समर्थक बुद्धिजीवियों ने भी भाग लिया। सेमीनार में शामिल अरुंधती राय जैसी वामपंथी लेखिका ने तो कश्मीरी आंदोलन का समर्थन करते हुए भारत को उपनिवेशवादी देश तक कह डाला।
स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रायः तुरंत बाद कश्मीर पर हुए पाकिस्तान के पहले हमले के बाद 4 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी ने अपनी शाम की प्रार्थना सभा में बोलते हुए कहा था कि आओ हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि वह हमें ऐसी शक्ति दे कि या तो हम (भारत और पाकिस्तान या हिन्दू और मुसलमान) एक दूसरे के साथ मैत्रीपूर्वक रहना सीख लें और यदि हमें लड़ना ही है, तो एक बार आर-पार की लड़ाई कर लें। यह बात मूर्खतापूर्ण लग सकती है, लेकिन देर-सबेर इससे हममें शुद्धता आ जाएगी (लेट अस प्रे टू गॉड इज टु ग्रांट दैट वी मे आइदर लर्न टु लिव इन एमिटी विद ईच अदर आॅर इफ वी मस्ट फाइट टू लेट अस फाइट टु द वेरी एंड दैट मे बी फॉली बट सूनर आॅर लेटर इट विल प्योरीफाई अस)।
गांधीजी की अन्य तमाम सलाहों की तरह यह सलाह भी व्यर्थ गयी। हम आज तक न तो मैत्रीपूर्वक साथ रहना सीख सके और न आर-पार की लड़ाई लड़ने का साहस ही जुटा सके। हमने तिलमिल मरने या भूसे की आग में सुलगते रहने का रास्ता अख्तियार किया है। हम सच्चाई को स्वीकार करने से डरते हैं, क्योंकि हम किसी भी तरह का नुकसान उठाने से डरते हैं और कम से कम अपनी जान तो खतरे में कतई नहीं डालना चाहते। गांधी जी ने यदि आज वही बात कही होती, जो 4 जनवरी 1948 में कही थी तो शायद उन पर भड़काउ भाषण देने के लिए मुकदमा कायम हो जाता। अखबारों में सुर्खियां छपती कि अहिंसा का तथाकथित पुजारी अब युद्ध की और वह भी आर-पार के युद्ध की बात करने लगा है।
भारत और पाकिस्तान आज शायद आर-पार की लड़ाई लड़ने की स्थिति में भी नहीं रह गये हैं। 1948 में जब वे लड़ सकते थे, तब नहीं लड़े, आज वे लड़ नहीं सकते, क्योंकि उन्हें परमाणु अस्त्रों का डर है। दोनों ही देश परमाणु शक्ति संपन्न हैं। इसलिए छिटपुट युद्ध तो चल सकते हैं, लेकिन आर-पार की लड़ाई की कल्पना भी नहीं की जा सकती। भारत यों भी अपनी युद्ध नीति में फिसड्डी है। उसकी सारी सुरक्षा तैयारी प्रतिरक्षात्मक है। उसने अब तक दुश्मन को मात देने के लिए अपनी कोई मौलिक रणनीति तक ईजाद नहीं की है। दुश्मन अपने हमले का तरीका बदलता है, तो हम अपनी प्रतिरक्षात्मक तकनीक बदलने की कोशिश में लग जाते हैं। हम किसी जवाबी कार्रवाई के लिए कभी नहीं सोचते। हमें शायद अपनी विशालता और संख्या बल का अधिक भरोसा है। दुश्मन कितनों को मारेगा? वह कितनों को ही मार डाले, कितना भी विनाश कर ले, हम तब भी बचे रहेंगे। हम अहिंसा के पुजारी हैं। हम शेर हैं, लेकिन शिकार न करने में शेर हैं। हमारा राष्ट्र चिह्न बौद्ध धर्म के प्रतीकों में से चुना गया है। चारों दिशाओं में मुंह करके पीठ सटाए बैठे सिंह के पांव तले घोड़े और बैल दौड़ रहे हैं। ये आराम फरमा रहे सिंह शाक्य सिंह (तथागत बुद्ध) के प्रतीक हैं। इन्होंने हिंसा का त्याग कर दिया है। ये अब धर्म चक्र के संरक्षक हैं।
लेकिन आज नहीं तो कल शायद इस देश को वह आर-पार की लड़ाई लड़नी ही पड़ेगी, जिसका संकेत महात्मा जी ने अब से 6 दशक पहले किया था। कश्मीर का विवाद अब बिल्कुल एक नये मोड़ पर आ गया है। अब वह सीमावर्ती क्षेत्र के केवल एक राज्य का मसला नहीं रह गया है। उसे अब एक राष्ट्रीय विवाद का रूप देने की कोशिश शुरू हो गयी हैै। कश्मीर अब केवल भारत-पाकिस्तान के बीच का विवाद नहीं रह गया है। अब यह कश्मीरी मुस्लिमों का भारत सरकार के खिलाफ युद्ध का रूप ले चुका है, जिसमें पाकिस्तान कश्मीरी मुसलमानों के अंतर्राष्ट्रीय सहयोगी की भूमिका निभा रहा है। सर्वाधिक आश्चर्य की बात यह है कि इस देश की सारी राष्ट्रविरोधी ताकतें मुस्लिम अलगाववादी ताकतों के साथ एकजुट हो गई हैं। बीते गुरुवार राजधानी दिल्ली के राजनीतिक सत्ताकेन्द्र के ठीक नाक के नीचे स्थित एल.टी.जी. (लिटिल थियेटर ग्रुप) आॅडिटोरियम में जो कुछ हुआ और जो कुछ देखा सुना गया वह देश के भविष्य के लिए बेहद खतरनाक है। कला और संस्कृति के आयोजनों के लिए प्रसिद्ध इस सभागार में देश के विभाजन की आवाजें बुलंद की गईं। ’राजनीतिक कैदियों की आजादी के लिए समिति की ओर से इस सभाकक्ष में एक सेमीनार का आयोजन किया गया था जो कश्मीरी अलगाववाद पर केन्द्रित था। विषय था ’कश्मीर ः आजादी ही एक मात्र रास्ता है’ (कश्मीर ः आजादी द ओनली वे)। इसमें कश्मीरी अलगाववाद के समर्थक बुद्धिजीवियों के अलावा माओवादी तथा खालिस्थानवादी बुद्धिजीवी भी शामिल थे। कट्टरपंथी कश्मीरी अलगाववादी संगठन हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता अलीशाह गिलानी इस सेमीनार के मुख्य वक्ता थे। सेमीनार का संचालन कर रहे थे संसद पर हुए आतंकवादी हमले के मुख्य सूत्रधार समझे जाने वाले जामिया मिलिया के प्रोफेसर एस.ए.आर. गिलानी। प्रोफेसर गिलानी यद्यपि अदालत से रिहा हो गये थे, लेकिन उनके अलगाववादी उग्र विचारों से दिल्ली का शायद ही कोई बुद्धिजीवी अपरिचित हो। इस सेमीनार में उपस्थित प्रमुख लोगों में माओवादियों के समर्थन कवि वरवर राव, लेखिका अरुंधती राय, प्रो. अब्दुर्रहमान, प्रो. सुजाता राव, डॉ. शेख शौकत हुसैन, नजीब बुखारी तथा डॉ. एन. वेनु आदि के नाम गिनाये जा सकते हैं। दिल्ली के शैक्षिक संस्थानों में पढ़ रहे या पढ़ा रहे कश्मीरियों के अतिरिक्त उनके समर्थक छात्र व अध्यापक बड़ी संख्या में उपस्थित थे।
ऐसे सेमीनार में हुर्रियत नेता गिलानी क्या बोलेंगे इसका तो सभी को अनुमान था, लेकिन अरुंधती राय के वक्तव्य ने तो सबको चकित कर दिया। उन्होंने कश्मीर के अलगाववादी आन्दोलन को जनान्दोलन बताया और मंच से घोषणा की कि कश्मीर कभी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा। उन्होंने तो भारत को ‘उपनिवेशवादी देश’ तक कह डाला। उन्हें यह कहने में कोई संकोच नहीं हुआ कि भारत ने कश्मीर के सेना की ताकत पर अपना उपनिवेश बना रखा है। उन्होंने कश्मीर, नागालैंड तथा नक्सली आन्दोलन को जनान्दोलन की संज्ञा देते हुए कहा कि इन आन्दोलनकारियों की आवाज देश के अधिक से अधिक लोगों तक जानी चाहिए। उन्होंने यद्यपि विश्व हिन्दू परिषद को भी एक जनान्दोलन बताया, लेकिन साथ ही यह कहा कि विश्व हिन्दू परिषद का यह हिन्दू आन्दोलन ’सबके लिए न्याय के सिद्धांत पर आधारित नहीं है, जबकि ये अलगाववादी आन्दोलन सबके लिए समान न्याय के सिद्धांत पर आधारित है।’
जैसा कि सेमीनार का विषय था गिलानी ने अपने वक्तव्य में कहा कि आजादी ही कश्मीर समस्या के समाधान का एक मात्र रास्ता है। कश्मीर कोई भारत का आन्तरिक मामला नहीं है। वह एक अंतर्राष्ट्रीय मामला है इसलिए अंतर्राष्ट्रीय ताकतों को भी इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए। उनकी अमेरिका व ब्रिटेन से खासतौर पर अपील थी कि वे कश्मीर के मामले में भारत सरकार पर दबाव डाले कि वह कश्मीरी क्षेत्र से अपना नाजायज कब्जा तुरंत हटा ले। उन्होंने कश्मीर समस्या के समाधान के लिए केन्द्र सरकार की बातचीत की कोशिशों को व्यर्थ की कवायद करार दिया। अभी भारत सरकार की ओर से जो तीन वार्ताकार नियुक्त किये गये हैं उनके बारे में गिलानी का कहना था कि यह भारत सरकार की केवल समय काटने की चाल है। उन्होंने कश्मीरियों से आग्रह किया कि वे इस वार्ताकार दल का बहिष्कार करें क्योंकि इनसे कुछ होने जाने वाला नहीं है। उनका कहना था कि अब तक वार्ता की जितनी भी कोशिशें की गईं वे सभी विफल हुई क्योंकि भारत सरकार इस समस्या का कोई समाधान करना ही नहीं चाहती। वह वार्ताकारों के नामपर कश्मीरियों को व्यर्थ में उलझाए रखना चाहती है।
गिलानी ने अपने आजाद कश्मीर राष्ट्र की एक रूप रेखा भी प्रस्तुत की। उनका कहना था कि आजाद कश्मीर एक सेकुलर राष्ट्र होगा, जिसमें अल्पसंख्यकों के अधिकारों की भी रक्षा की जाएगी। अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के उदाहरण स्वरूप उन्होंने बताया कि मुसलमानों के लिए तो राज्य में पूर्ण मद्यनिषेध रहेगा, किंतु जिनके मजहब में शराब पीने की अनुमति है, उन्हें शराब पीने की आजादी रहेगी। यदि कोई कट्टरपंथी मुस्लिम किसी अल्पसंख्यक की शराब की बोतल तोड़ देता है, तो या तो उस व्यक्ति से उसका हर्जाना दिलवाया जाएगा या फिर सरकार उस नुकसान की भरपायी करेगी। गिलानी का कहना था कि घाटी ही नहीं, जम्मू और लद्दाख के लोगों को भी भारत से आजादी चाहिए। इस सेमीनार में यह रोचक दृश्य था कि माओवादी वामपंथियों ने भी कश्मीरी अलगाववादियों के साथ् अपनी एकजुटता का प्रदर्शन किया। माओवाद के समर्थक कवि वरवर राव मंच पर सैयद गिलानी के ठीक बगल में विराजमान थे।
सभाकक्ष में अंदर व बाहर श्रोताओं-दर्शकों के बीच उपस्थित कुछ राष्ट्रवादी युवकों ने गिलानी तथा अरुंधती राय आदि के राष्ट्रविरोधी वक्तव्यों पर घेर आपत्ति जतायी। उन्होंने अलगाववादियों के विरुद्ध ’भारत माता की जय’, ’वंदेमातरम’, ’राष्ट्र एकता जिंदाबाद’ आदि के नारे लगाये, तो उनके जवाब में वहां उपस्थित अलगववादी समूह के युवकों ने ’वी वांट फ्रीडम’, ’गो इंडिया गो’, ’कौन करेगा तर्जुमानी-सैयद अली शाह गिलानी’ आदि नारे लगाये। सेमीनार आयोजकों के विरुद्ध हल्ला-गुल्ला बढ़ते देख पुलिस फौरन हरकत में आयी। उसने भारतीय एकता के नारे लगाते तथा भारतीय ध्वज लहराते युवकों को वहां से बलपूर्वक घसीटकर बाहर किया। सभाकक्ष के भीतर तथा बाहर करीब 40 लोगों को पुलिस ने हिरासत में लिया, जिन्हें बाद में छोड़ दिया गया।
इस सेमीनार पर देश के प्रायः सभी राजनीतिक दलों ने चुप्पी सी साध रखी है। केवल भारतीय जनता पार्टी ने इस पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है और सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि उसने ठीक अपनी नाक के नीचे अलगाववादियों को राष्ट्रद्रोही वक्तव्य देने का अवसर दिया है। उनका कहना था कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर राष्ट्रद्रोह या राष्ट्र के विभाजन की आवाज उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
गृहमंत्री पी. चिदंबरम का इस पर जवाब है कि दिल्ली की पुलिस सेमीनार में दिये गये वक्तव्यों का विश्लेषण कर रही है, यदि उसमें कोई ऐसा तत्व पाया गया, जो कानूनी दृष्टि से राष्ट्रद्रोह के अंतर्गत आता हो, तो ऐसा वक्तव्य देने वालों के खिलाफ अवश्य कार्रवाही होगी। सवाल है कि क्या गृहमंत्री को पता नहीं था कि इस सेमीनार में क्या होने जा रहा है। क्या यह कश्मीर की अशांति को पूरे देश में फैलाने की साजिश का अंग नहीं है। लोकतंत्र की सीमाओं को आखिर कहां तक खींचा जा सकता है।
भारत सरकार के नेतागण इसे स्वीकार करें या नहीं, लेकिन यह एक कड़वा सच है कि कश्मीर के मामले में क्रमशः भारत सरकार की स्थिति कमजोर पड़ती जा रही है। अमेरिका यदि आज खुलकर कश्मीर के मामले में पाकिस्तान का समर्थन नहीं कर रहा है, तो यह उसकी आर्थिक व राजनीतिक मजबूरी है, अन्यथा उसके अनेक नेता व अधिकारी अभी भी पाकिस्तानी पक्ष का समर्थन करते आ रहे हैं। अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता फिलिप क्राउले ने अभी कहा है कि यू.एस. यह मानता है कि कश्मीर एक परम मुद्दा (अल्टीमेट इशू) है, लेकिन उसे भारत-पाक को ही हल करना है। अभी बीते सप्ताह में ही वाशिंगटन में चल रही अमेरिका-पाकिस्तान रणनीतिक वार्ता के दूसरे दौर में अपना उद्घाटन वक्तव्य देते हुए पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कहा कि राष्ट्रपति ओबामा ने कश्मीर मुद्दे के समाधान का महत्व समझा है। इसका उन्होंने पहले वायदा भी किया था कि वह कश्मीर समस्या के समाधान के लिए अपना विशेष दूत नियुक्त करेंगे। कुरैशी ने यह वक्तव्य अमेरिका मामले में कोई मध्यस्थता नहीं करेगा, जबकि अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन उनकी बगल में ही बैठी हुई थीं। कुरैशी का कहना था कि दक्षिण एशिया की शांति और स्थिरता में यू.एस. और पाक दोनों के साझा हित हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश कश्मीर की हाल की घटनाओं के कारण् इसके लिए खतरा उत्पन्न हो गया है। इस रण्नीतिक बैठक में ही अमेरिका ने पाकिस्तान को दो अरब डॉलर की सैनिक साजो सामान की सहायता देने की घोषणा की।
यहां यह उल्लेखनीय है कि कश्मीर के बारे में पाकिस्तान ने अब एक नई नीति अख्तियार की है, जो आतंकवादी हमलों के आगे की है। आतंकवादी हमले तो अपनी जगह जारी ही रहेंगे, जिसे अब खुद भारतीय सुवक अंजाम देंगे। दूसरे कश्मीर के आंदोलनकारी अब हथियार छोड़कर आंदोलन के मैदान में उतरेंगे, तीसरे कश्मीर के आंदोलन को पूरे भरत के मुस्लिम समुदाय के साथ् जोड़ने का प्रयास किया जाएगा। कश्मीरी युवकों द्वारा पथराव की रणनीति इस बदली नीति का ही अंग है। ये पथराव करने वाले युवक न तो बेरोजगार हैं, न गरीब हैं और न किराये के हैं। घटी में पुुलिस आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि का हो अध्ययन किया गया है, उसके अनुसार उनमें कोई गरीब या बेरोजगार नहीं है। प्रायः सभी शिक्षित, अच्छे खाते-पीते परिवारों के, नौकरीपेशा या निजी रोजगार संपन्न परिवारों के हैं। कम से कम 70 प्रतिशत तो ऐसे हैं, जो किसी भी तरह किसी अभवग्रस्त वातावरण से नहीं आये हैं।
पथराव वस्तुतः उनके अहिंसक विरोध का माध्यम बन गया है। इसीलिए गिलानी कह रहे हैं कि ताजा आंदोलन में उनके पथराव से तो सुरक्षाबलों का कोई जवान नहीं मरा, जबकि उनकी गोलियों से 110 से अध्कि कश्मीरी युवक मारे जा चुके हैं। जब तक कश्मीरी आंदोलन हथियारबंद था, तब तक तो उसे राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार का अवसर देना कठिन था, लेकिन अब आसानी से उसे राष्ट्रीय मानवाधिकार आंदोलन से जोड़ा जा सकता है। पिछले दिनों दारूल उलूम देवबंद में जमायत-ए-उलेमाए हिन्द का कश्मीर के मसले को लेकर एक सम्मेलन हुआ। किसी भारतीय मुस्लिम मजहबी संगठन का कश्मीर को लेकर आयोजित यह शायद पहला सम्मेलन था, जिसमें यद्यपि कश्मीर समस्या का समाधान भारतीय संविधान के दायरे में तलाश करने की बात की गयी, लेकिन सम्मेलन का अधिक जोर इस बात पर था कि भारत का मुसलमान कश्मीर के प्रति इतना उदासीन क्यों है। यह सही है कि कश्मीरी मुसलमानों के प्रति पूरी सहानुभूति तथा उसे विशेष अधिकार देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 के प्रति पूर्ण समर्थन के बावजूद वह उसके देशमें कोई आवाज नहीं उठा रहा था। शायद उसने यह समझ रखा था कि पड़ोसी पाकिस्तान के नेता तथा कश्मीरी युवक स्वयं इसे निपट लेंगे। लेकिन अब बढ़ते अमेरिकी दबाव के आगे पाकिस्तान के हाथ पांव काफी कुछ बंध गये हैं, इसलिए अब समय आ गया है कि कश्मीरी अलगाववाद के समर्थन में देश के भीतर एक मुखर वातावरण बने। देवबंद में जमीयत उलेमाए हिन्द का सम्मेलन और दिल्ली में आयोजित सेमीनार इसी अभियान के अंग हैं।
पता नहीं भारत सरकार के नेतागण इसे समझ पा रहे हैं या नहीं अथवा समझ बूझकर भी उस तरफ से आंखें बंद किये हुए हैं, लेकिन यह सच्चाई है कि पाकिस्तान की नई रणनीति कश्मीरी अलगाववाद को देशव्यापी मुस्लिम संवेदना से जोड़ना है। पाकिस्तान के नेता हो या कश्मीरी अलगाववादी संगठनों के नेता, वे यह अच्छी तरह से स्पष्ट कर चुके हैं कि उनकी समस्या आर्थिक नहीं राजनीतिक है। उन्हें आर्थिक पैकेज और रोजगार के अवसर नहीं चाहिए। भारत सरकार यहां भी प्रतिरक्षात्मक भूमिका ही निभा रही है। वह पैकेज घोषित कर रही है, वार्ताकार नियुक्त कर रही है और आंदोलनकारी युवकों को गुमराह युवकों की संज्ञा दे रही है। वह साफ-साफ यह कहने का साहस नहीं कर पा रही है कि मजहब के आधार पर कश्मीर को भारत से अलग नहीं किया जा सकता। कश्मीर केवल मुसलमानों का नहीं है। भारत ने मजहब के आधार पर देश का एक विभाजन स्वीकार कर लिया, लेकिन अब दूसरा कतई स्वीकार नहीं करेगी। वह गांधी जी की तरह यह कहने की स्थिति में नहीं है कि भले इसके लिए हमें कोई आर-पार की लड़ाई ही क्यों न लड़नी पड़े। लेकिन हमारे देश की सरकारों में यह ताकत तभी पैदा हो सकती है, जब वे मजहब की राजनीति से अपने को उपर उठा सकें। देवबंद में हुई उलेमाओं की बैठक और नई दिल्ली में हुई सेमीनार भरत के क्षितिज पर उभरे भविष्य की चेतावनी के अभिलेख हैं। इन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। यदि अभी भी शुतुरमुर्गी नीति अपनायी गयी, तो देश का केवल एक विभाजन ही नहीं, विखंडन की एक श्रृंखला शुरू हो जाएगी, जिसे रोकना फिर शायद किसी के वश में न रह जाए। (24-10-2010)