बुधवार, 1 सितंबर 2010

चीन को सख्त जवाब देने से क्यों डरता है भारत !

चीन को सख्त जवाब देने से क्यों डरता है भारत !




चीन वर्षों से कश्मीरी नागरिकों को चीन यात्रा के लिए अलग से वीजा देता आ रहा है, क्योंकि वह कश्मीर को भारत का क्षेत्र नहीं मानता। अभी बीते महीने तो उसने हद ही कर दि, जब उसने दोनों देशों के सैन्य सहयोग कार्यक्रम के अंतर्गत चीन जाने वाले भारत के उच्च सैनिक अधिकारी ले. जनरल बलजीत सिंह जसवाल को इसलिए वीजा देने से इनकार कर दिया कि वह कश्मीर से सम्बद्ध हैं। भारत ने बदले में तीन चीनी सैन्य अधिकारियों के भी भारत आने का कार्यक्रम तो रद्द कर दिया, लेकिन आगे कहा कि इससे चीन के साथ भारत के सैन्य सहयोग कार्यक्रम पर कोई प्रभाव नीं पड़ेगा, वह जारी रहेगा। आश्चर्य है कि भारत सरकार ने चीनी कार्रवाई की निंदा में एक बयान तक जारी नहीं किया। आखिर ऐसे किसी देश के साथ किसी भी तरह का संबंध बढ़ाने का अर्थ क्या है, जो हर तरह से भारत के हितों का विरोधी हो और केवल अपने हित के क्षेत्र में संबंधों का विस्तार चाहता हो।





जब कभी भारत चीन संबंधों का कोई मामला सामने आता है, तो प्रायः यह सवाल जेहन में उठता है कि क्या भारत, चीन से डरता है ? यदि अपनी सरकार के आचरण पर ध्यान दें, तो यह साफ लगता है कि 1962 कि बाद से अब तक भारत, चीन के आतंक से मुक्त नहीं हो पाया है। इधर डेढ़-दो दशकों में भारत-चीन संबंधों में काफी सुधार आया है, दोनों देशों के व्यापार में वृद्धि हुई है। वह करीब 60 अरब डॉलर वार्षिक की सीमा छूने जा रहा है और दोनों देश अगले चार वर्षों में इसे दो गुना करने के लिए प्रयत्नशील हैं। फिर भी दोनों देशों के बीच अभी तक जो भी संबंध कायम हुआ है, उसे मैत्रीपूर्ण नहीं कह सकते। अंतरराष्ट्रीय  मंचों पर कई स्तर पर अच्छे सहयोग तथा बढ़ते व्यापार के बावजूद दोनों देशों के आपसी विश्वास के स्तर में अभी भी भारी कमी बनी हुई है। दोनों के बीच संदेह का वातावरण अभी भी बहुत गहरा है। चीन के साथ् हो रही व्यापार वृृद्धि से चीन को अधिक फायदा हो रहा है, भारत का कम, क्योंकि व्यापार का संतुलन चीन के पक्ष में झुका हुआ है। वह भारत को निर्यात अधिक करता है, आयात कम। अंतर्राष्ट्र्ीय कूटनीतिक व रणनीतिक मसलों पर चीन भारत का विरोध करने का कोई अवसर नहीं चूकता, जबकि भारत या तो उसका सहयोग करता है या तटस्थ रह जाता है।

दोनों देशों के बीच व्यवहार की परीक्षा के लिए तिब्बत और कश्मीर के मसले को एक अच्छी कसौटी माना जा सकता है। चीन ने तिब्बत पर बलपूर्वक अधिकार किया है, जबकि ‘ब्रिटिश इंडिया‘ के काल में तिब्बत दलाई लामा के नेतृत्व में एक लगभग स्वतंत्र राष्ट्र् था और चीन वहां कोई दखलंदाजी न करे, इसके लिए तिब्बत की राजधानी ल्हासा में ब्रिटिश फौज की दो चौकियां तैनात थी। चीन में जब कम्युनिस्ट शासन स्थापित हुआ, तो उसने दलाई लामा को मार भगाया और पूरे तिब्बत पर अपना कब्जा कर लिया। भारत ने इस कब्जे को पूरी राजनीतिक मान्यता दे दी। दूसरी तरफ कश्मीर रियासत के शासक हरिसिंह ने स्वेच्छया भारत में अपना विलय किया, लेकिन चीन अब तक उसे भारत का अंग मानने के लिए तैयार नहीं है। चीन तिब्बत के मामले में बार-बार भारत को चेतावनी देता रहता है, लेकिन भारत कभी उससे यह नहीं कहता कि वह कश्मीर में अपनी नाजायज दखलंदाजी बंद करे और उससे दूर रहे, वह चीनी चेतावनी को तो सह लेता है, लेकिन अपनी तरफ से कोई चेतावनी देने का साहस नहीं करता।

चीन ने अभी बीते हफ्ते में भारत को इस तरह की चेतावनी दी कि तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा से यदि किसी भी दूसरे देश की सरकार या वहां का कोई राजनेता किसी तरह का राजनीतिक संपर्क करता है, तो इसे चीन के विरुद्ध आचरण माना जाएगा। चीन की इस ताजा चेतावनी का कारण था कि अभी इन्हीं दिनों दलाई लामा ने भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से मुलाकात की थी। इसके पहले उसने भारत को तब चेतावनी दी थी, जब प्रधानमंत्री डॉ. सिंह उत्तर पूर्व की यात्रा पर गये थे और दिल्ली सरकार ने दलाई लामा को अरुणाचल प्रदेश की यात्रा करने की इजाजत दी थी। भारत ने इसके जवाब में केवल इतना कहा कि दलाई लामा भारत के एक सम्मानित अतिथि हैं, इसलिए उन्हें देश के किसी भ्ी कोने में जाने या किसी भी राजनेता से मिलने का अधिकार है। उसने इसके जवाब में यह कभी नहीं कहा कि चीन कश्मीर के मामले में भारत विरोधी रवैया क्यों अपनाता है। चीन प्रायः हर बार अपनी चेतावनी में कहता है कि यदि भारत ने समुचित संयम नहीं बरता, तो चीन के साथ उसके संबंध खराब हो सकते हैं, लेकिन भारत ने कभी यह नहीं कहा कि चीन ने यदि कश्मीर के बारे में अपना रवैया नहीं बदला, तो इससे दोनों देशों के संबंध खराब हो सकते हैं। भारत और चीन का सीमा विवाद तो एक अलग मसला है, कश्मीर के मसले को कतई उससे नहीं जोड़ा जा सकता। कश्मीर भारत का नितांत आंतरिक मामला है, लेकिन भारत ने आज तक चीन से उसके बारे में कोई कठोर प्रतिवाद नहीं किया। पिछले कई वर्षों से चीन कश्मीरी नागरिकों को चीन आने के लिए अलग वीजा देता है। वह कश्मीरियों के लिए एक अलग कागज पर वीजा देकर उसे उसके पासपोर्ट के साथ् पिन कर देता है, जबकि शेष भारत के लोगों के लिए सामान्य अंतर्राष्ट्््रीय नियमों के अनुसार पासपोर्ट पर ही मुहर लगा देता हैै। भारत ने यदा कदा इस पर आपत्ति अवश्य व्यक्त की। कभी-कभार किसी कश्मीरी नागरिक को हवाई अड्डे पर इसके लिए रोक भी लिया कि उसका चीन जाने का वीजा अवैध है, लेकिन चीनी दूतावास ने कश्मीरियों के लिए अलग वीजा देना अब तक बंद नहीं किया और बहुत से कश्मीरी उस अतिरिक्त वीजा के सहारे चीन की यात्रा कर रहे हैं। कई कश्मीरी तो उस वीजा को छिपाकर हांगकांग का वीजा लेकर वहां पहुंच जाते हैं, फिर वहां से चीन। बार-बार की आपत्ति के बाद भी चीन भारत की किसी आपत्ति पर कान नहीं दे रहा है, लेकिन भारत उसे नजरदांज किये जा रहा है।

भारत-चीन के बीच विवाद का एक ताजा विषय भी इस वीजा मसले को लेकर सामने आया। किसी भी प्रभुसत्ता संपन्न स्वतंत्र राष्ट्र् के लिए यह कितने अपमान की बात है कि कोई पड़ोसी देश उसके एक उच्च सैनिक अधिकारी को केवल इसलिए अपने देश में आने से रोक दे कि वह जिस इलाके का सैन्य प्रभारी है, उसे वह पड़ोसी देश इस प्रभुतासंपन्न देश का अंग नहीं मानता और साथ ही वह इस देश के साथ मैत्री व सहयोग का दंभ भी भरता है।

गत जनवरी महीने में दोनों देशों के बीच हुई सैन्य सहयोग वार्ता में यह तय हुआ था कि दोनों देशें के उच्च सैनिक अधिकारी एक-दूसरे के देशों की यात्रा करेंगे, जिससे उनमें आपसी समझदारी बढ़ेगी और सहयोग का वातावरण बनेगा। भारत ने जब इस प्रतिरक्षा आदान-प्रदान कार्यक्रम के अंतर्गत सेना के उत्तरी कमान के कमांडर-इन-चीफ लेफ्टीनेंट जनरल बलजीत सिंह जसवाल को चुना और इसकी सूचना चीन सरकार को दी, तो चीन ने उन्हें अपने देश में आने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। चीन का कहना था कि जनरल जसवाल जिस क्षेत्र के सैन्य प्रभार हैं, दुनिया के इस भाग के लोग एक अलग वीजा पर ही चीन की यात्रा पर आ सकते हैं। इसका साफ अर्थ था कि चीन कश्मीर में तैनात किसी सैन्य अधिकारी को भारत का प्रतिनिधि मानने के लिए तैयार नहीं है। बीजिंग के सैन्य प्रमुख की तरफ से कहा गया कि जसवाल तो चीन नहीं आ सकते, लेकिन भारत इस कारण इस कार्यक्रम को रद््द न करे, बल्कि किसी और अधिकारी को चीन भेजने की व्यवस्था करे। यह भारत के मुंह पर भीगे जूते से वार करने जैसा था, लेकिन भारत ने इसे बर्दाश्त कर लिया। जवाब में बस इतना किया कि उसने चीन के तीन सैनिक अधिकारियों का भारत आने का कार्यक्रम रद्द कर दिया। इसमें एक कर्नल रैंक और दो कैप्टन रैंक के अधिकारी थे। इसे भी मीडिया से छिपाए रख गया।

पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार जनरल जसवाल को गत जुलाई में किसी समय चीन जाना थ, लेकिन जब जाने की तिथि आयी, तो जसवाल को केवल यह बताया गया कि कुछ कारणवश उनकी यात्रा का कार्यक्रम आगे बढ़ा दिया गया है। शायद 21 जुलाई को चीन ने यह सूचना दी कि जसवाल चीन नहीं आ सकते, तो 2 अगस्त को भारत ने भी पत्र लिखकर चीन को बताया कि उसके भी तीनों अधिकारी अभी भारत नहीं आ सकते। बीते हफ्ते ‘टाइम्स ऑट इंडिया’ ने यह कहानी प्रकाशित कर दी, तो देश में हंगामा मचा। मामला संसद में भी गूंजा। खबर मिली कि भारत के विदेश विभाग ने भारत स्थित चीनी राजदूत झांगयान को बुलाकर अपनी ओर से औपचारिक विरोध दर्ज कराया। मीडिया में यह भी सूचना प्रसारित हुई कि चीन की इस कार्रवाई के विरोध में भारत ने चीन के साथ तय हुए प्रतिरक्षा आदान-प्रदान का कार्यक्रम रद्द कर दिया है। लेकिन बाद में दिल्ली के रक्षा विभाग से यह वक्तव्य जारी हुआ कि नहीं आदान-प्रदान का कार्यक्रम रद्द नहीं किया गया है। विदेश और रक्षा विभाग दोनों की तरफ से बड़ी विनम्रता के साथ कहा गया कि संबंधों को सामान्य बनाए रखने के लिए दोनों देशों को एक-दूसरे की संवेदनाओं का भी ख्याल रखना चाहिए।

यहां यह उल्लेखनीय है कि पहले तो सरकार ने मीडिया से इस मामले को छिपाने की कोशिश की और जब बात सार्वजनिक हो गयी, तो उसे किसी तरह लीपापोती करके टालने का प्रयास किया गया। प्रस्तुत मामला केवल एक सैनिक अधिकारी को चीन आने से रोकना भर नहीं है। मसला कश्मीर से जुड़ा है, जिसे भारत सरकार के नेतागण भारत का अभिन्न अंग कहते-बताते नहीं थकते। जनरल जसवाल को बीजिंग आने की अनुमति न देने का सीधा अर्थ है कि चीन कश्मीर को भारत का अंग नहीं मानता। उसके अपने वक्तव्य में शब्दों का चयन भी बहुत सावधानी से किया गया है। उसने कहा है ‘दुनिया के इस क्षेत्र’ के लोग अग वीजा पर ही चीन की यात्रा पर आते हैं।इसका आखिर क्या अर्थ है। क्या इस मामले को इतने ही हल्के ढंग से लिया जाना चाहिए, जिस तरह भारत सरकार ले रही है। क्या उसके पास वैसी कूटनीतिक शब्दावली भी नहीं है, जैसी तिब्बत के बारे में चीन अपना रहा है।

आज की दुनिया में कोई भी व्यक्ति भारत सरकार को यह सलाह नहीं दे सकता कि इतनी सी बात पर वह चीन से राजनीतिक संबंध तोड़ ले या उसके साथ व्यापार बंद कर दे अथवा सीमा विवाद को हल करने के लिए शुरू की गयी बातचीत की श्रंृखला को रद्द कर दे, लेकिन भारत सरकार चीन से दृढ़ शब्दों में यह तो कह सकती है कि कश्मीर के बारे में चीन का यह वर्तमान रवैया जारी रहा, तो इससे दोनों देशें के आपसी संबंध बिगड़ सकते हैं। चीन की कार्रवाई का असली तुर्की ब तुर्की जवाब तो तभी हो सकता है, जब वह उसके सीकियांग प्रांत तिब्बती क्षेत्र के लोगों को अलग कागज पर वीजा देना शुरू कर दे। भारत यह भी चेतावनी तो दे सकता है कि यदि चीन कश्मीर के बारे में अपना यही रुख बरकरार रखता है, तो उसके साथ भारत के व्यापारिक संबंध प्रभावित हो सकते हैं।

इतना ही नहीं, चीन यदि कश्मीर के बारे में अपना रुख नहीं बदलता (जो वह नहीं ही बदलने वाला है) तो भारत को अपनी कश्मीर नीति पर भी अलग ढंग से विचार करना चाहिए। कश्मीर के मसले पर पाकिस्तान व कश्मीरी अलगाववादियों के अलावा एक पक्ष चीन भी है। भले ही उसका पक्ष गौण हो, लेकिन उसे अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि कश्मीर के एक हिस्से पर उसने भी अपना अधिकार जमा रख है। भले ही वह हिस्सा पाकिस्तान द्वारा अपने अधिकृत कश्मीर से दे दिया गया हो, लेकिन वह भी है तो समग्र कश्मीर का ही एक भाग। चीन अपने उस क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीरी क्षेत्र में भी कई विकास योजनाएं चला रहा है तथा सड़क निर्माण के कार्य को तेज किये हुए है। यहां यह भी ध्यात्व्य है कि चीन ने अपना विस्तारवादी कार्यक्रम अभी भी नहीं छोड़ा है। पिछले 60 वर्षों में चीन एक बड़ा और ताकतवर देश बन गया है। तिब्बत और शिंझियांग -सिकियांग- प्रदेशों को शामिल करके उसने अपना आकार बढ़ाया और अब वह अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। सामरिक शक्ति में भी वह केवल अमेरिका से पीछे है। 2008 में ओलंपिक का विराट आयोजन तथा 2010 की विश्व औद्योगिक प्रदर्शनी का शानदार आयोजन करके उसने अपनी समृद्धि, तकनीकी विकास तथा प्रबंध क्षमता का अच्छा प्रदर्शन किया है। वैश्विक मंदी के बावजूद उसने अपनी विकास दर को बनाए रखा है। अब इसके बाद वह अपना और क्षेत्र एवं प्रभाव विस्तार करना चाहता है। आगे उसकी नजर ‘येलो सी’ (चीन और कोरिया के बीच का समुद्री भाग) तथा दक्षिण चीन सागर (साउथ चाइना सी), जो पांचों महासागरों के बाद सबसे बड़ा जल क्षेत्र है (करीब 3,50,000 वर्ग किलो मीटर) पर है। इसके बीच तमाम ऐसे छोटे-मोटे द्वीप आते हैं, जिनका सामरिक महत्व है।

यद्यपि चीन के वर्तमान राष्ट्र्पति हू जिन्ताओ शांति के साथ विकास की नीति के पक्षधर हैं, लेकिन चीन में नई पीढ़ी का एक आक्रामक नेतृत्व उभर रहा है, जो जिन्ताओ की नीतियों से सहमत नहीं है। चीनी सेना के कई बड़े अधिकारी भी आक्रामक नीति के समर्थक हैं। ‘युवान एकेडमी ऑफ मिलीटरी साइंस’ के जनरल लुओ ने गत जून महीने में अमेरिका और दक्षिण कोरिया के संयुक्त सैन्य अभ्यास का तीव्र विरोध किया था। उनका कहना था कि ‘हम अपने शयनकक्ष के बाहर भी किसी अजनबी को टांग फैलाकर सोने की इजाजत कैसे दे सकते हैं।’ चाइना रिव्यू न्यूज नामक पत्र में उनका एक लेख छपा था, जिसमें कहा गया थ कि अमेरिका ने इस युद्धाभ्यास के लिए जो विमान वाहक पोत -एयरक्राफ्ट कैरियर- भेजा था, उसका यही इलाज था कि उसे ‘येलो सी‘ (पीले सागर) में डुबो दिया जाता। एक दूसरे चीनी विश्लेषक ने ‘द पीएलए डेली’ (चीनी जनमुक्ति सेना के दैनिक) में लिखा कि वास्तव में यह चीन के ‘कोर इंटरेस्ट’ (मूलभूत हितों) को दी गयी चुनौती है। यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि चीन का ‘कोर इंटरेस्ट’ क्या है। तिब्बत और शिंझियांग पर कब्जे के बाद ताइवान, येलो सी और दक्षिण चीन सागर पर कब्जा जमाना उसके ‘कोर नेशनल इंटरेस्ट’ में आते हैं, जिनके लिए वह कोई समझौता नहीं कर सकता। यहां यदि कोई यह पूछे कि आखिर भारत का ‘कोर नेशनल इंटरेस्ट’ क्या है और कहां है, तो शायद कोई भी जवाब नहीं हो सकता।

कश्मीर पाकिस्तान के लिए तो ‘कोर इंटरेस्ट’ का हिस्सा है, लेकिन भारत के लिए शायद नहीं। अगर होगा, तो कम से कम हमारे राजनेताओं के आचरण व व्यवहार से कतई नहीं लगता कि ‘कश्मीर’ में कोई भारत का ‘मूल राष्ट्र्ीय हित’ फंसा हुआ है। यहां हमारे प्रधानमंत्री जी फरमाते हैं कि वह किसी के प्रति जो व्यवहार करते हैं, वह इस आशा से नहीं कि वह भी वैसा ही व्यवहार करे। नेकी कर दरिया में डाल की नीति किसी संत महात्मा के लिए तो सही हो सकती है, किंतु किसी राजनेता के लिए नहीं।

कश्मीर भारत के राष्ट्र्ीय हितों का केंद्र बिंदु है। उसका संबंध देश की पूरी राष्ट्र्ीय अस्मिता से जुड़ा है। वह केवल एक प्रदेश मात्र नहीं है, वहां भारत की पूरी सेकुलर राजनीति कसौटी पर चढ़ी हुई है, लेकिन कितने अफसोस की बात है कि हमारे राजनेता उसके साथ भी खिलवाड़ करने से बाज नहीं आते। चीन या कोई देश ऐसा साहस कैसे कर सकता है कि वह हमारी सेना के एक उच्च पदाधिकारी को अपने पूर्व स्वीकृत कार्यक्रम के बावजूद केवल इसलिए वीजा देने से इनकार कर दे कि वह भारत के कश्मीर राज्य की सुरक्षा का भी प्रभारी है। भारत के लोग आखिर यह कब समझेंगे कि चीन और पाकिस्तान कभी भारत के मित्र नहीं हो सकते। अपनी तमाम ऐतिहासिक भूलों के कारण हम इन दोनों के साथ शायद सदैव ही तनावपूर्ण संबंधों के साथ जीने के लिए अभिशप्त हैं। और इस अभिशाप की कुंठा से बचने का एक ही तरीका है कि हम अपने ‘कोर नेशनल इंटरेस्ट्स’ को पहचाने और उनकी रक्षा के लिए जान की बाजी लगाकर भी संघर्ष के लिए तैयार रहें।ले. जनरल बलजीत सिंह जसवाल को वीजा न देने की कार्रवाई का पूरा जवाब केवल चीन के तीन सैन्य अधिकारियों का आमंत्रण रद्द कर देना ही नहीं हो सकता।चीन को कम से कम यह स्पष्ट चेतावनी तो दी ही जा सकती है कि कश्मीर के प्रति चीन का रवैया भारत विरोधी है और बीजिंग सरकार यदि भारत के साथ आपसी संबंधों को बढ़ाने की इच्छुक है, तो उसे अपना यह रवैया बदलना होगा।(29, Aug 2010)

3 टिप्‍पणियां:

Asha Joglekar ने कहा…

भारत डरता है क्यूं कि चीन हमसे कहीं अधिक ताकत वर है । हमने तो अपनी ताकत बढाई नही । Might is right .

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

भारत कहां डरता है.... वह तो केवल सब्र कर रहा है पाप का घडा भरने के लिए... उसके बाद श्रीकृष्ण अवतरित होंगे :)

ABHIJIT MUMBAI ने कहा…

BHARAT DARATA NAHI HAI CHIN SE.BALKI MOKA DUND RAHA HAI KI.KAB CHIN HAMPAR HATHA UTHATA HAI.OUR MAI KAB USKA HAT TOD DU.
HAMASE PANGA NAHI LENEKA NAHI TO NAGGA KARAKE THODENGE.
I LOVE MY INDIA .