पृथक तेलंगाना की आकांक्षा का जयघोष
तेलंगाना क्षेत्र की कुल 119 विधानसभा सीटों में से केवल 12 सीटों के लिए उपचुनाव हुए थे। तर्क के लिए यह कहा जा सकता है कि केवल 12 सीटों के चुनाव परिणामों को पूरे तेलंगाना क्षेत्र की जनाभिव्यक्ति नहीं कहा जा सकता, लेकिन सच्चाई यह है कि 12 सीटों के लिए हुआ यह चुनाव केवल विधानसभा की खाली हुई 12 सीटों को भरने का उपक्रम नहीं, बल्कि तेलंगाना क्षेत्र में कराया गया एक जनमत संग्रह था। इन 12 सीटों के चुनाव में वस्तुतः पूरे 119 सीटों की जनभावनाएं सिमटी हुई थीं। पृथक तेलंगाना की मांग के संदर्भ में जनभावनाओं की जांच पड़ताल के लिए गठित श्रीकृष्णा समिति के समक्ष पूरे क्षेत्र का यह सर्वाधिक सशक्त एवं प्रमाणिक ज्ञापन है, जिसे वह अपनी रिपोर्ट का आधार बना सकता है। निर्णय अंततः केंद्र सरकार अथवा हाईकमान को ही लेना है, फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि इस मामले में अब संदेह की कोई गुंजाइश नहीं रह गयी है कि तेलंगाना क्षेत्र की वास्तविक आकांक्षा क्या है।
शुक्रवार, 30 जुलाई का दिन भी तेलंगाना के इतिहास में एक मील का पत्थर बन गया है। 27 जुलाई को मतदान को केवल उपचुनाव की 12 विधानसभा सीटों के लिए हुआ था, लेकिन इस दिन घोषित उसके परिणामों में पूरे तेलंगाना क्षेत्र के करीब 4 करोड़ निवासियों की पृथक राज्य की कामना अट्टहास कर रही थी। पृथक तेलंगाना और संयुक्त आंध्र दोनों नावों पर पैर रखने वालों का पूरा सफाया हो गया था। सबसे बुरी हालत उस तेलुगु देशम पार्टी की थी, जिसके नेता चंद्रबाबू नायुडू तेलंगाना और आंध्रा दोनों को अपनी दो आंखें बता रहे थे और ऐन इस चुनाव के दौरान बाभली परियोजना का हंगामा खड़ा करके इस क्षेत्र के लोगों का ध्यान तेलंगाना से हटाकर बाभली की ओर मोड़ने की कोशिश कर रहे थे। चुनाव में वह चैथे स्थान पर रहे और कुल मतदान का छठवां हिस्सा भी अपनी झोली में नहीं ला सके, जिससे कि उनके उम्मीदवारों की जमानतें बच जाती। उनकी दोहरी नीति के कारण तेलंगाना क्षेत्र में उनकी पार्टी के अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा हो गया है। पार्टी के कार्यकर्ता तेजी से पलायन कर रहे हैं और अपना भविष्य बचाने के लिए इस आंदोलन के सर्वनेता कालवेंकटला चंद्रशेखर राव की पार्टी टी.आर.एस. की शरण ले रहे हैं।
सीट तो कांग्रेस को भी कोई नहीं मिली, लेकिन उसकी हालत तेलुगु देशम के मुकाबले थोड़ी बेहतर थी, तो शायद केवल इसलिए कि क्षेत्र की जनता यह समझ रही थी कि उसके क्षेत्रीय नेता व कार्यकर्ता बेचारे असहाय हैं, क्योंकि वे पार्टी हाईकमान का निर्देश मानने को बाध्य हैं। लेकिन उसने पार्टी के राज्य अध्यक्ष धर्मपुरी श्रीनिवास को कतई माफ नहीं किया, जो अंतिम क्षणों में स्वर बदलकर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करना चाहते थे। उन्हें लगातार दूसरी बार मंुह की खानी पड़ी। 2009 के चुनाव में भी वह भारतीय जनता पार्टी के येंदला लक्ष्मी नारायण के मुकाबले चुनाव हार गये थे। तेलंगाना के मसले पर जनता की राय जानने के लिए केंद्र सरकार द्वारा गठित श्रीकृष्णा समिति की निर्धारित शर्तों -टम्र्स आफ रिफरेंसेज- के खिलाफ विधानसभा से इस्तीफा देने वाले टी.आर.एस. विधायकों के साथ लक्ष्मीनारायण के भी इस्तीफा दे दिये जाने के कारण श्रीनिवास को फिर एक बार भाग्य आजमाने का मौका मिल गया। यद्यपि यह कतई बुद्धिमत्ता का निर्णय नहीं था। स्वयं उनकी पार्टी यह उपचुनाव लड़ने के पक्ष में नहीं थी, लेकिन उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा पूर्ण करने के लोभ में अपने साथ पार्टी को भी इस दलदल में घसीटा। उन्हें लग रहा था कि यदि वह चुनाव जीत गये, तो वह मुख्यमंत्री की कुर्सी भी हासिल कर सकते हैं, नहीं तो तेलंगाना के नाम पर कम से कम उपमुख्यमंत्री की कुर्सी तो पक्की ही है। वास्तव में धर्मपुरी श्रीनिवास जी 2004 से ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिए बेताब हैं। 2004 में वाई.एस.आर. के साथ उन्होंने उस चुनाव अभियान का नेतृत्व किया था, जिसमें पार्टी को भारी सफलता मिली थी और केंद्र तथा राज्य दोनों स्थानों पर पार्टी को सत्ता में आने का अवसर मिला था। उनकी नजर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर थी। पार्टी की राज्य इकाई का अध्यक्ष होने के नाते वे उस पर अपना पहला अधिकार मानते थे, लेकिन बाजी वाई.एस.आर. जीत गये। चुनावी सफलता में उनकी ऐतिहासिक पदयात्रा को अधिक महत्व मिला और मुख्यमंत्री की कुर्सी उनके हाथ में चली गयी। उस दुर्भाग्यपूर्ण हेलीकॉप्टर दुर्घटना में वाईएसआर के निधन के बाद श्रीनिवास की महत्वाकांक्षा पूरी हो सकती थी, लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि 2009 के चुनाव में वह विधानसभा का चुनाव जीतने में विफल हो गये थे। इसलिए भाग्यलक्ष्मी वरमाला कोणिजेटी रोशय्या के गले जा पड़ी और मुख्यमंत्री की कुर्सी उन्हें मिल गयी। यह सभी मान रहे हैं कि रोशय्या इस पद के स्वाभाविक अधिकारी नहीं हैं। वह केवल कार्यवाहक की भूमिका निभ रहे हैं। जैसे ही उसका स्वाभाविक उत्तराधिकारी सामने आया, वह उसके लिए आसन रिक्त कर देंगे। श्रीनिवास जी इसी लोभ में यह खतरा उठाने के लिए मैदान में कूद पड़े। उन्होंने अपना स्वर ही नहीं बदला, बल्कि पैसा भी पानी की तरह बहाया। 20-25 करोड़ के खर्चे का तो साधारण अनुमान है। उन्होंने प्रायः हर चुनावी सभा में यह दोहराया कि पृथक तेलंगाना की मांग को केवल कांग्रेस पूरा कर सकती है। उन्होंने यह संकेत देने में भी कोई संकोच नहीं किया कि यदि वह चुनाव जीत गये, तो वह मुख्यमंत्री या उपमुख्यमंत्री अवश्य बनेंगे और तब वह तेलंगाना का भाग्य पलट कर रख देंगे, किंतु मतदाताओं ने उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। परिणाम यह हुआ कि इस बार वह 2009 के मुकाबले कुछ अधिक वोट से ही हारे। मतगणना के समय एक बार को ऐसा जरूर लगा कि वह चुनाव जीत सकते हैं, जब भाजपा प्रत्याशी की बढ़त 24000 मतों से घटकर 52000 पर आ गयी, लेकिन अंतिम तीन चक्रों ने फिर पासा पलट दिया और श्रीनिवास की सारी आशाओं पर तुषारापात हो गया।
रोशय्या व बाबू दोनों में से किसी ने चुनाव प्रचार में भाग नहीं लिया। रोशय्या तो निरपेक्ष भाव से बैठे रहे, लेकिन बाबू ने सोचा होगा कि उनका बाभली अभियान शायद अधिक प्रभावशाली सिद्ध हो। तेलंगाना क्षेत्र के करीब 5 जिले उसके प्रभाव क्षेत्र में आते हैं। लेकिन टी.आर.एस. नेता चंद्रशेखर राव अपने चुनाव अभियान में जुटे रहे। उन्होंने बाबू के बाभली अभियान की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। ‘एक ही साधे सब सधै-सब साधे सब जाए’। चंद्रशेखर राव यह समझते हैं कि लक्ष्य से भटकाव नुकसान पहंुचा सकता है। यह उनका अपना निजी अनुभव भी है, इसलिए वह चुनाव मैदान में ही डटे रहे। उनके लिए यह जीवन मृत्यु का प्रश्न भी था। 12 से एक भी कम सीट मिलती, तो कहा जा सकता था कि संपूर्ण तेलंगाना पृथक तेलंगाना के पक्ष में नहीं है, लेकिन अब किसी को भी कोई संदेह व्यक्त करने का कोई अवसर नहीं है। चंद्रशेखर राव के सामने लक्ष्य स्पष्ट था। वह जानते थे कि यह चुनाव सत्ता के लिए नहीं था। यह चुनाव यह प्रमाणित करने के लिए था कि वास्तव में तेलंगाना की आम जनता क्या चाहती है। इसीलिए परिणामों की घोषणा के बाद भी चंद्रशेखर राव ने यह साफ घोषणा की कि यदि जरूरत पड़ी तो उनके विधायक फिर अपनी सदस्यता से इस्तीफा देने के लिए तैयार हैं। यह चुनाव जीतने का मतलब यह नहीं है कि वे बाकी के चार साल विधानसभा में बैठकर बिताएंगे। हम विधानसभा की पुनर्सदस्यता के लिए नहीं पृथक तेलंगाना की उत्कट जनभावना को प्रमाणित करने के लिए मुकाबले में उतरे थे। इसीलिए उन्होंने केंद्र सरकार से मांग की है कि वह इन चुनाव परिणामों को जनमत संग्रह की तरह स्वीकार करे और पृथक राज्य के लिए सीधे लोकसभा में प्रस्ताव पेश करे। उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं को भी सलाह दी कि वे बहुत उत्तेजित न हों, क्योंकि इन चुनाव परिणामों ने उनके कंधे पर एक जबर्दस्त जिम्मेदारी डाल दी है। यह सही भी है, क्योंकि इन चुनाव परिणामों से ही यह सुनिश्चित नहीं हो गया है कि केंद्र सरकार पृथक तेलंगाना राज्य की मांग स्वीकार कर लेगी। प्याला होंठों तक पहुंचे, इसके बीच असंख्य बाधाएं खड़ी हो सकती हैं, लेकिन इन चुनावों से इतना तो अवश्य तय हो गया है कि तेलंगाना निवासी पृथक तेलंगाना के सवाल पर पूरी तरह एकमत है। इस पर निर्णय के लिए अब श्रीकृष्णा समिति को भी कोई खास मशक्कत करने की आवश्यकता नहीं रह गयी है। तेलंगाना की राय स्पष्ट है। अब न्यायमूर्ति श्रीकृष्णा को अपनी न्याय बुद्धि का इस्तेमाल करे अपनी रिपोर्ट देना है। उनकी समिति का कार्यकाल 31 दिसंबर तक है, लेकिन वह चाहें तो उसके पहले भी अपनी रिपोर्ट दे सकते हैं। सच यह है कि उन्हें न्यायिक औपचारिकताएं पूरी करने में जो भी समय लगे, लेकिन उनके सामने निर्णय की कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। इन उपचुनावों का परिणाम क्या आएगा, इसके बारे में कोई बहुत मतभेद पहले भी नहीं था। प्रायः सभी यह मानकर चल रहे थे कि टी.आर.एस. अपनी सभी सीटें जीतकर वापस लौटेगी। हां, एक-दो सीट कांग्रेस के हाथ लग सकती है। लेकिन शायद किसी को भी इस बात का अनुमान नहीं था कि टी.आर.एस. के प्रतिनिधि इस तरह के रिकार्ड तोड़ बहुमत से जीत हासिल करेंगे। चंद्रशेखर राव के भतीजे हरीश राव ने तो कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री वाईएसआर के बहुमत का पिछला रिकार्ड तोड़कर एक नया रिकार्ड बनाया है। वाईएसआर ने पुलिवेंदुला से 68 हजार मतों से जीत का सार्वेच्च रिकार्ड बनाया था, लेकिन हरीश राव ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी को 95,858 वोटों से पराजित किया है। एक-दो को छोड़कर ज्यादातर उम्मीदवार 40 हजार से उूपर की संख्या में चुनाव जीते हैं।
लोग चकित हैं, ऐसा कैसे हुआ। ऐसी जीत की आश तो स्वयं टी.आर.एस. नेताओं ने भी नहीं की थी। लेकिन यह कोई रहस्य की बात नहीं। पिछले लगभग एक वर्ष में तेलंगाना आंदोलन इस पूरे क्षेत्र के गांव कस्बों तक फैल गया है। यह अब केवल हैदराबाद या अन्य बड़े शहरों का आंदोलन नहीं रहा। इस आंदोलन के दौरान गांव, कस्बे स्तर के स्कूल कॉलेजों में छात्रों ने संयुक्त कार्रवाई समितियां -ज्वाइंट एक्शन कमेटीज- बना ली, जिनके साथ अध्यापक, वकील, डॉक्टर व अन्य बुद्धिजीवी व प्रोफेशनल भी जुड़ गये। क्षेत्रीय जनसंगठनों के नेता कार्यकर्ता भी इसमें कूद पड़े। इस आंदोलन में आर्य समाज का भी भारी योगदान रहा। कभी निजामशाही के खिलाफ आंदोलन में उतरे इस संगठन ने पृथक तेलंगाना निर्माण के अभियान में भी अपनी पूरी शक्ति झोंक दी। आंध्र प्रदेश आर्य समाज के प्रधान विट्ठलराव स्वयं टी.आर.एस. में शामिल होकर इस आंदोलन को जनजन तक फैलाने में लग गये। उपचुनावों की घोषणा हुई तो इस आंदोलन से जुड़ा हर व्यक्ति-छात्रों से लेकर प्रोफेसर, वकील, डॉक्टर व सरकारी कर्मचारी तक स्वतः चुनाव प्रचारक बन गया और उसमें टी.आर.एस. को जिताने का अभियान छेड़ दिया। इस अभियान का ही यह परिणाम रहा कि मतदान प्रतिशत इतना उंचा 64 से 68 प्रतिशत तक पहुंच गया।
यह उपचुनाव लड़ा तो जरूर पार्टियों के आधार पर गया, लेकिन इसमें जो जीत हासिल हुई, वह किसी एक पार्टी की नहीं। तेलंगाना राष्ट्र् समिति या टी.आर.एस. को वास्तव में पृथक तेलंगाना का प्रतीक मानकर जिताया गया। यही कारण है कि उसकी शत-प्रतिशत जीत से तेलंगाना क्षेत्र की प्रायः सभी पार्टियों के नेता व कार्यकर्ता प्रसन्न हैं। वे कंग्रेस के हों, तेलुगु देशम के हों या अन्य किसी पार्टी के। वामपंथी पार्टियों में सी.पी.आई. तो खुलेआम पृथक तेलंगाना की पक्षधर है ही, लेकिन सी.पी.एम. ने भी चुनाव के मामले में अपने कार्यकर्ताओं को खुली छूट दे दी कि वे जिसे चाहे अपना मत दें। इस तरह सिद्धांततः वह भले पृथक तेलंगाना राज्य निर्माण के विरुद्ध हो, किंतु व्यवहार में उसके पूरे काडर ने टी.आर.एस. को अपना समर्थन दिया।
पृथक तेलंगाना के जयघोष के साथ इन जिन चुनाव परिणामों की घोषणा हुई है, उससे कांग्रेस के खेमे में चिंता पैदा होना स्वाभाविक है। इन परिणामों के बाद राज्य की राजनीति में कुछ चैंकाने वाले बदलाव भी दिखयी दे सकते हैं। टी.आर.एस. ने पहले ही घोषणा कर दी है कि आगे जो भी चुनाव आएंगे, उसे वह अपने बलबूते पर लड़ेगी। किसी से साझेदारी नहीं करेगी। कांगे्रस की चिंता यह है कि उनकी वर्तमान राजनीतिक स्थिति यदि आगे भी ऐसी ही बनी रही, तो पंचायत चुनावों में उसे भारी पराजय का सामना करना पड़ेगा। इस उपचुनाव ने इतना तो प्रभावित कर ही दिया है कि किसी भी पार्टी की दोहरी चाल सफल होने वाली नहीं। इसलिए जो ज्यादा चतुराई दिखाने की कोशिश करेगा, वह ज्यादा नुकसान उठाएगा। यह कहा जा सकता है कि गेंद अब फिर केंद्र सरकार के पाले में है। टी.आर.एस. को या तेलंगाना की जनता को जो कुछ प्रमाणित करना था, वह प्रमाणित कर दिया है, जो संदेश देना था, वह संदेश भी दे दिया है। अब निर्णय केंद्र को करना है। निर्णय आसान नहीं है, लेकिन इतना कहा जा सकता है कि पृथक तेलंगाना का लक्ष्य थोड़ और नजदीक अवश्य आ गया है। 1.8.2010
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