मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

अन्ना का आगे का रास्ता आसान नहीं है


पिछली शताब्दी में सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण /जे.पी./ ने जनांदोलन के सहारे राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तन का सपना देखा था और ’संपूर्ण क्रांति‘ नारा दिया था। वह अपने आंदोलन द्वारा केंद्रीय सत्ता बदलने में तो सफल रहे, लेकिन व्यवस्था ज्यों की त्यों रह गयी और संपूर्ण क्रांति उस पुरानी व्यवस्था में ही डूब गयी। नई शताब्दी में इस दूसरे दशक में गांधीवादी अन्ना हजारे ने भी जनांदोलन की शक्ति से व्यवस्था परिवर्तन की जंग छेड़ी है। उन्होंने केंद्रीय सत्ता के भ्रष्टाचार को पहला निशाना बनाया है। शुरुआत तो उन्होंने अच्छी की है, लेकिन उनका यह पहला लक्ष्य भी जे.पी. के पहले लक्ष्य से कहीं अधिक कठिन है। राजनीतिक सत्ता आज पिछली शताब्दी के इंदिरा युग के मुकाबले कहीं अधिक चतुर-चालाक हो चुकी है और अन्ना ने प्रायः सारे राजनेताओं को अपने खिलाफ खड़ा कर लिया है।


अन्ना हजारे के नेतृत्व में भारत में शायद पहली बार सरकारी (राजनीतिक एवं प्रशासनिक) भ्रष्टाचार के विरुद्ध कोई सीधा जनांदोलन शुरू हुआ है। इसे दूसरी आजादी की लड़ाई का नाम दिया जा रहा है। आम लोगों के बीच इसकी तुलना जयप्रकाश नारायण के ‘संपूर्ण क्रांति' आंदोलन से की जा रही है। उन्होंने भी सरकारी अत्याचार के विरुद्ध आम नागरिकों को लामबंद करने की कोशिश की थी। युवा व छात्र वर्ग ही उनके भी आंदोलन की रीढ़ था। अपने एकल प्रयास से उन्होंने भी सत्ता परिवर्तन का करिश्मा कर दिखाया था। सवाल है क्या वैसा कुछ अन्ना हजारे भी कर पायेंगे ?

इस सवाल का जवाब आसान नहीं है। इसमें सफलता की आशा से संदेह की आशंका अधिक है। क्योंकि यद्यपि दोनों ने ही आम नागरिकों की शक्ति पर आधारित जनांदोलन को अपना हथियार बनाया है, लेकिन दोनों के लक्ष्य काफी भिन्न हैं और दोनों की समर्थक शक्तियों के चरित्र में भी अंतर है। जयप्रकाश नारायण के सामने तात्कालिक लक्ष्य बहुत स्पष्ट था। उन्हें इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार को पलटना था। वे निश्चित ही इस कार्य के लिए किसी एक पार्टी का नहीं, बल्कि जनक्रांति का सहारा लेने में विश्वास रखते थे और एक नई राजनीतिक संस्कृति कायम करना चाहते थे, लेकिन तात्कालिक लक्ष्य चूंकि इंदिरा गांधी का शासन बदलना बन गया था, इसलिए कांग्रेस विरोधी प्रायः सारी शक्तियां जयप्रकाश नारायण के झंडे तले आ गयी। इंदिरा गांधी के आपातकाल के दौरान की गयी व्यापक गिरफ्तारीने कांग्रेस विरोधी सभी तरह की विचारधाराओं वाले नेताओं को परस्पर निकट आने का अवसर दिया। उन्होंने अपने सैद्धांतिक मतभेद भुलाकर इंदिरा शासन को उखाड़ फेंकने के लिए जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व अपनाना स्वीकार कर लिया। इसके विपरीत अन्ना हजारे का संघर्ष एक साथ सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ है। उनका आंदोलन यदि वर्तमान डॉ. मनमोहन सिंह या सोनिया गांधी सरकार के खिलाफ होता, तो सरकार विरोधी सारी शक्तियां उनके साथ आ जुटतीं। लेकिन उन्होंने जिस शत्रु के खिलाफ मोर्चा खोला है, वह नितांत अमूर्त तथा कमोबेश सर्वव्यापी है।

यह सही है कि फिलहाल उनके आंदोलन का लक्ष्य सीमित है। उनका ‘जन लोकपाल‘ की नियुक्ति का आंदोलन केंद्रीय सरकार को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए है। यह भी सही है कि यदि केंद्रीय सरकार भ्रष्टाचार से मुक्त हो जाए, तो राज्य सरकारें व अन्य निचली प्रशासनिक व राजनीतिक इकाइयां अपने आप स्वच्छ हो जाएंगी। लेकिन यह लक्ष्य प्राप्त करना आसान नहीं है। आज सारी राजनीतिक शक्तियां एक तरफ हैं और अन्ना हजारे दूसरी तरफ। जो अभी अन्ना हजारे के साथ दिखायी दे रहे हैं, उनकी भी राजनीतिक प्रतिबद्धताएं बटीं हुई हैं। अन्ना अपने 4 दिन के अनशन में सर्वशक्तिमान केंद्र सरकार को झुकाने में सफल हो गये, इसका वह गर्व कर सकते हैं, लेकिन यह कोई वास्तविक जीत नहीं है। केंद्र सरकार ने हवा का रुख तथा समय की नजाकत को देखते हुए रणनीतिक दृष्टि से अपने को एक कदम पीछे हटा लिया और अन्ना को विजय गौरव हासिल करने दिया, लेकिन आगे भी वह उन्हें इसी तरह का और कोई मौका नहीं देने जा रही है। मीडिया ने भी अपना रुख बदलना शुरू कर दिया है। जंतर-मंतर पर भूख हड़ताल के दौरान उनकी लगातार रिपोर्टिंग करने वाला मीडिया अब उसी उत्साह से उनके सहयोगियों का रहस्य उजागर करने वालों को स्वर देने में लगा है। मीडिया में अब यह आलोचना भी मुखर हो गयी है कि हजारे सरकार को ब्लेक मेल कर रहे हैं, जो राजनीतिक चरित्र सुधार के लिए भी अच्छा तरीका नहीं है। भावनात्मक दबाव डालकर किसी भी सत्ता को किसी क्षण झुकाया जा सकता है, लेकिन इस तरह उसके चरित्र में कोई बदलाव नहीं लाया जा सकता।

जयप्रकाश नारायण ने 1974 में जब वी.एम. तारकुंडे के साथ ‘सिटिजन फॉर डेमोक्रेसी' तथा उसके बाद 1976 में ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज' (पी.यू.सी.एल.) नाम से दो एन.जी.ओ. (गैर सरकारी संगठनों) का गठन किया था, तो उनका भी मूल लक्ष्य देश की राजनीति में चरित्रगत बदलाव लाना था, लेकिन जैसा कि इनके नामों से ही स्पष्ट है, इनका लक्ष्य इंदिरा गांधी के एकाधिकारी शासन को समाप्त करना था। उन्होंने घोषित रूप से कहा था कि इनका लक्ष्य ‘नागरिक स्वतंत्रता को बनाये रखना और उनकी रक्षा करना' (टु अपहोल्ड एंड डिफेंड सिविल लिबर्टीज) है। 1975 के आम चुनाव के बाद इलाहाबाद हाइकोर्ट ने जब उनके निर्वाचन को अवैध घोषित कर दिया, तो जयप्रकाश नारायण ने तत्काल उनके इस्तीफे की मांग की, लेकिन इंदिरा गांधी ने इसके जवाब में 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू कर दिया, देश की पूरी सत्ता अपने कब्जे में कर ली। जयप्रकाश नारायण ने इसके खिलाफ ‘संपूर्ण क्रांति‘ का नारा दिया। उन्होंने सेना व पुलिस का आह्वान किया कि वह सरकार के असंवैधानिक व अनैतिक आदेशों का पालन न करे। इस आपातकाल में इंदिरा सरकार की दमनकारी नीतियों ने आम जनता की भावनाओं को जयप्रकाश नारायण की ओर मोड़ दिया। और आखिरकार जब आपातकाल हटा और चुनाव हुए, तो देश की आम जनता ने कम से कम पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस को कूड़े के ढेर में डाल दिया। यहां तक कि इंदिरा गांधी खुद भी चुनाव हार गयीं। कांग्रेस की सरकार हटी और केंद्र में पहली बार ‘जनता पार्टी' की कोई पहली गैर कांग्रेसी सरकार स्थापित हुई। लेकिन यह देश की राजनीतिक संस्कृति में कोई परिवर्तन नहीं कर सकी। ‘संपूर्ण क्रांति' का नारा भी धीरे-धीरे विस्मृति के गर्त में चला गया। राजनीति फिर अपने पुराने ढर्रे पर चल पड़ी।

जहां तक भ्रष्टाचार की बात है, तो उससे पीड़ित तो पूरा देश रहा है, लेकिन एक बोफोर्स कांड को छोड़कर कभी यह कोई बड़ा राजनीतिक मुद्दा नहीं बना। बोफोर्स मामला भी केवल एक व्यक्ति केंद्रित था। इसे संपूर्ण राजनीतिक भ्रष्टाचार को मिटाने का माध्यम नहीं बनाया गया। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसे केवल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने का साधन बनाया। राजनीतिक भ्रष्टाचार की समस्या इस देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व भी थी, लेकिन उस समय भरतीयों के लिए संघर्ष का मुख्य मुद्दा स्वतंत्रता हासिल करना था, इसलिए उसकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी भ्रष्टाचार को कभी कोई राजनीतिक समस्या नहीं माना गया। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू स्वयं इसकी तरफ से आंखें बंद किये रहे। उन्होंने स्वयं कोई भ्रष्टाचार किया हो या नहीं, लेकिन उन्होंने अपने भ्रष्ट साथियों को भ्रष्टाचार करने दिया और तब तक उनमें से किसी के खिलाफ उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की, जब तक कि सार्वजनिक तौर पर उसके खिलाफ थू-थू नहीं होने लगी (प्रसिद्ध ब्रिटिश वामपंथी नेता फिलिप स्प्रैट ने 1963 में लिखा था कि ‘जिन बातों से नेहरू की मार्क्सवादी भावना प्रमाणित होती है, उनमें भ्रष्टाचार के प्रति उनकी सहनशीलता भी शामिल है')। यह उनके काल की ही नीतियों का परिणाम था कि देश भ्रष्टाचार के दलदल में लगातार गरहे और गहरे धंसता चला गया।

यद्यपि भ्रष्टाचार की कोई संपूर्ण व सर्वमान्य परिभाषा करना कठिन है, लेकिन सामान्यतया रिश्वतखोरी भ्रष्टाचार का एक ज्वलंत रूप है। नौकरशाही, राजनेता और अपराधियों के गठजोड़ ने इसे परवान चढ़ाया है। पहले भी ईमानदार मंत्री व अफसर गिनती के ही थे, लेकिन तबसे और अब में फर्क यही आया है कि पहले गलत काम के लिए रिश्वत देनी पड़ती थी और वह भी चोरी छिपे ली जाती थी, लेकिन अब सही समय पर सही काम कराने के लिए भी रिश्वत देनी पड़ती है। अब यह व्यापार खुले आम चलता है, इसके लिए किसी पर्दे की जरूरत नहीं पड़ती। इध्र शुरू हुए ‘स्टिंग ऑपरेशनों' का कुछ खौफ जरूर पैदा हुआ है, लेकिन बीच में शर्म-संकोच का मामला कहीं नहीं रह गया है। आजकल अपने देश में भ्रष्ट अफसर को जेल नहीं पदोन्नति मिलती है। भ्रष्टाचार निश्चय ही जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त हो गया है, किंतु राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार चिंता का मुख्य विषय है, क्योंकि जिनके उपर भ्रष्टाचार व अपराध पर नियंत्रण की जिम्मेदारी सौंपी गयी है, यदि वे ही भ्रष्टाचार में डूब जायेंगे, तब तो सभ्यता और सामाजिक तंत्र का सारा विकास ही डूब जाएगा।

काले धन के मामले में भारत का दुनिया में सर्वोच्च स्थान है। स्विस बैंकों में भारत का अनुमानतः 1456 अरब डॉलर का काला धन जमा है। वर्ष 2006 में जारी ‘स्विस बैंक एसोसिएशन‘ की रिपोर्ट में दिये गये आंकड़ों के अनुसार पूरी दुनिया का कुल मिलाकर जितना काला धन विदेशी बैंकों में जमा है, उससे अधिक अकेले भारत का है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत के नेताओं और अफसरों ने यहां से कितना धन चुराया है। स्विस बैंकों के भारतीय खाते में जितना धन है, वह भारत के कुल राष्ट्रीय कर्ज का 13 गुना है। एक अंतर्राष्ट्रीय निगरानी संस्था द्वारा कराये गये अध्ययन के अनुसार 1948 से 2008 के बीच करीब 462 अरब डॉलर (20 लाख करोड़ रुपये से अधिक) भारत से बाहर ले जाया गया। मुंबई स्थित एक ‘इक्विटी फर्म‘ के सी.इ.ओ. ने पिछले दिनों पत्रकारों को बताया कि देश का काला धन विशेष हवाई उड़ानों द्वारा मुंबई व दिल्ली से ज्यूरिख पहुंचाया जाता है। बैंकिंग उद्योग के सूत्रों के अनुसार निश्चय ही स्विस बैंकों में जमा सबसे ज्यादा धन भरतीयों का है। एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2002 से 2006 के बीच भारत से प्रति वर्ष करीब 27.3 अरब डॉलर बाहर भेजा गया। हाल में आकलित एक स्वतंत्र रिपोर्ट में बताया गया है कि इस देश के पारंपरिक सत्तारूढ़ परिवार की कुल संपदा 9.41 अरब डॉलर से 18.66 अरब डॉलर (42345 करोड़ रुपये से 83900 करोड़ रुपये) के बीच है, जो अवैध धन के रूप में विदेशों में जमा है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के स्कॉलर येब्जेनिया अलबैट्स ने रूसी गुप्तचर संस्था के.जी.बी. के पत्राचारों के हवाले से राजीव गांधी और उनके परिवार के सदस्यों को दिये गये धन का ब्यौरा दिया है। के.जी.बी. के प्रमुख विक्टर चेब्रिकोव ने लिखा है कि 1985 में राजीव गांधी के परिवार को धन दिया गया। इसमें उनके परिवार के सदस्यों के अलावा सोनिया गांधी की मां पाओला माइनों का भी नाम है।

कैसी विडंबना है कि जिस देश के 80 प्रतिशत नागरिकों की दैनिक आय 1 डॉलर यानी एक सौ रुपये से भी कम है, वहां के नेता और अफसर कितना धन कमाते हैं कि उनके द्वारा विदेशें में जमा किया गया काला धन बाकी पूरी दुनिया द्वारा जमा किये गये कुल धन से भी अधिक है। ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल‘ ने 2005 में भारत में एक अध्ययन कराया था, जिसके अनुसार यहां की कुल जनसंख्या के करीब 50 प्रतिशत लोगों को कभी-कभी रिश्वत देने का अपना निजी अनुभव है। इसके द्वारा ही कराये गये अध्ययन में बताया गया कि भारत में ट्रक वाले हर वर्ष करीब 5 अरब डॉलर रिश्वत में देते हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के ही 2010 के अध्ययन में भारत को दुनिया के भ्रष्टतम देशों में गिना गया। 178 देशों की सूची में यह 87वें स्थान पर है। हां, दक्षिण एशिया में पाकिस्तान व बंगलादेश आदि के मुकाबले यह जरूर सबसे कम भ्रष्ट देश है। अभी अमेरिका में प्रवासी भारतीयों के जिस संगठन ने ‘दांडी मार्च द्वितीय का आयोजन किया, उसने टिप्पणी की कि भारत एक धनी देश है, जहां गरीब भरे हुए हैं।'

यह विडंबना नहीं तो क्या है कि जहां इस स्तर की अतल गरीबी, अशिक्षा, बीमारी और बेरोजगारी व्याप्त है कि करोड़ों लोगों को दो जून की रोटी नहीं मिलती, वहां क्रिकेट खिलाड़ियों पर करोड़ों रुपये के पुरस्कारों की वर्षा की जाती है। हसन अली खान जैसे लोगों को बचाने में सारा सत्ता तंत्र लग जाता है, जिस पर 50 हजार करोड़ रुपये का आयकर बकाया रहता है। क्या लोग इस पर विश्वास कर पाएंगे कि जो देश साधनों की कमी का रोना रोता रहता है, वह विदेशी सहायता का करीब एक लाख करोड़ रुपये (22.2 अरब डॉलर) इस्तेमाल ही नहीं कर पाता। नियंत्रक व महालेखा परीक्षक की 18 मार्च 2011 को संसद में पेश की गयी रिपोर्ट के अनुसार विदेशी सहायता का 1,05,339 करोड़ रुपया इस्तेमाल नहीं किया जा सका। इतना ही नहीं द्विपक्षीय व बहुपक्षीय ऋण एजेंसियों से प्राप्त इस धन का समय से इस्तेमाल न कर पाने के दंड स्वरूप भारत को अपने खजाने से 86.11 करोड़ रुपया उन एजेंसियों को देना पड़ा। यह तो है अपने देश के शासन तंत्र की कार्यक्षमता और उस पर चारों तरफ से चढ़ी भ्रष्टाचार की अमरबेल।

अब कल्पना करें इस दलदली जमीन में अन्ना हजारे किस तरह आगे बढ़ सकेंगे। निश्चय ही देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हो सका है कि किसी सरकारी विधेयक का प्रारूप बनाने वाली कमेटी में सरकारी प्रतिनिधियों की बराबर संख्या में नागरिक प्रतिनिधि शामिल किये गये हैं। और कमेटी के सरकारी अध्यक्ष के समकक्ष ही नागरिक पक्ष का भी सह अध्यक्ष नियुक्त किया गया है, लेकिन यह समिति कुछ कर सके, इसके पहले ही उसे व्यर्थ सिद्ध करने के प्रयास शुरू हो गये हैं।

अन्ना हजारे के अनशन मंच पर केवल उनके समर्थक ही नहीं थे, बल्कि उन गैर सरकारी संगठनों (एन.जी.ओ.) के प्रतिनिधि भी थे, जो केवल सत्ता की दलाली के लिए खड़े किये गये हैं। इस समिति के गैर सरकारी प्रतिनिधियों के चरित्र पर शुरू किये गये हमलों में सबसे आगे कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह है। उन्होंने सबसे तीखा हमला प्रसिद्ध एडवोकेट शांतिभूषण और उनके बेटे प्रशांत भूषण पर किया है। उन्होंने जस्टिस संतोष हेगड़े तथ अरविंद केजरीवाल के चयन पर भी प्रश्न चिह्न लगाया है। उन्होंने एक टी.वी. चैनल के साथ बातचीत में सवाल किया कि हजारे ने हर्षमंदर व अरुणा राय जैसे लोगों को क्यों नहीं लिया, जो कहीं अधिक योग्य नागरिक प्रतिनिधि होते। उनका कहना था कि अरविंद केजरीवाल तो अरुणाराय का चेला ही है। यहां उल्लेखनीय है कि अरुणाराय का हर्षमंदर आदि सोनिया गांधी के नजदीकी हैं और उनके राष्ट्रीय विकास परिषद से भी जुड़े हैं। मीडिया में ये खबरें भी उछाली जा रही हैं कि अन्ना हजारे को बाबा रामदेव की काट के तौर पर खड़ा किया गया है। अन्ना एकला चलो की नीति में विश्वास रखते हैं, इसलिए वह कोई संगठन भीनहीं खड़ा कर सकते, जैसा कि बाबा रामदेव ने योग शिक्षा के माध्यम से खड़ा कर लिया है। फिर अन्ना को ‘मैनेज' करना बाबा रामदेव के मुकाबले कहीं आसान होगा।

जो भी हो, लेकिन अन्ना का रास्ता है बहुत कठिन। उन्होंने प्रायः सारे राजनीतिक दलों व उनके नेताओं को अपने खिलाफ खड़ा कर लिया है, या वे स्वयं उनके खिलाफ खड़े हो गये हैं। एन.जी.ओ. के नेतागण भी बहुत दूर तक साथ देने वाले नहीं हो सकते। आम आदमी की संख्या कितनी भी बड़ी क्यों न हो, लेकिन किसी संगठन के अभाव में उसका अस्तित्व अमूर्त ही होता है। इसलिए डर है कि अन्ना साहब आगे चलकर कहीं पूरी तरह अकेले न पड़ जाएं। उनके पीछे खड़ी युवा शक्ति भी संगठित नहीं है। और उन्होंने लोकपाल का जो प्रारूप सामने रखा है, उसे वर्तमान राजनीतिक दल तो क्या वर्तमान न्यायिक प्रतिष्ठान के लोग भी शायद ही अपना समर्थन दें। देश को भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति व प्रशासन देने के लिए देश के पूरे राजनीतिक तंत्र को जड़ से बदलना होगा, जिसमें अपना संविधान भी शामिल है। केवल एक लोकपाल संस्था को खड़ा करके देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, लूट, शोषण और असमानता के कैंसर का इलाज शायद नहीं किया जा सकता।

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

अब तो हर एक पर भ्रष्ट होने का इल्ज़ाम लगा कर सभी को दागदार बना दिया जा रहा है.... और फिर अंत में कहेंगे.... वो पहला पत्थर फेंके जो भ्रष्ट नहीं है :)