रविवार, 13 मार्च 2011

अरब में उठी क्रांति से सिहर रहा चीन

लोकतंत्र की देवी : ‘चीनी सेंट्रल एकेडमी ऑफ फाइन आर्ट‘
छात्रों ने 1989 के आंदोलन के दौरान यह प्रतिमा बनायी
और थियानमेन चौक पर स्थापित की ।

चीनी सरकार अरब देशों के साथ अपने व्यापारिक संबंध तो बढ़ाना चाहती है, लेकिन वह नहीं चाहती की वहां से उठी ‘चमेली क्रांति' (जस्मिन रिवोल्यूशन) का कोई गंध प्रवाह उसकी धरती तक पहुंचे। चीन आज दुनिया की सबसे बड़ी उभरती शक्ति है। सैन्य बल और अर्थ बल में केवल अमेरिका उससे आगे है, लेकिन जल्दी ही शायद चीन उसे भी पछाड़ दे। चीन आज दुनिया की किसी भी शक्ति का मुकाबला कर सकता है, लेकिन डरता है तो केवल एक चीज से- वह है लोकतंत्र। लोकतंत्र का नाम सुनते ही वह कांप उठता है। यही इस ‘जस्मिन रिवोल्यूशन' को लेकर हो रहा है। चीन का पूरा शासन तंत्र इसका प्रभाव दूर रखने के प्रयास में लग गया है। उच्चस्तरीय बैठकें हो रही हैं। रणनीतियां बन रही हैं। लेकिन सवाल है चीन कब तक बचा पाएगा अपने को इस क्रांतिकारी हवा से।
इस महीने के पहले हफ्ते में ‘इंडियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित एक आलेख में क्लाइडे आर्पी ने नेपोलियन बोनापार्ट के इस कथन को उद्धृत किया है कि ‘चीन जब जागेगा, तो दुनिया कांप उठेगी' (ह्वेन चाइना अवेक्स, द वर्ल्ड विल ट्रेम्बल), लेकिन आज जब अरब जगत जाग उठा है, तो चीन कांपने लगा है। ट्यूनीशिया में पैदा हुई ‘चमेली क्रांति' (जस्मिन रिवोल्यूशन) ने चीनी ड्रैगन को विचलित कर दिया है। चीन- जिससे सचमुच दुनिया दहशत में है- दुनिया की किसी भी ताकत का मुकाबला कर सकता है, लेकिन लोकतंत्र का नाम सुनते ही डर जाता है। उसे सर्वाधिक डर अपनी युवा पीढ़ी से है, जो लोकतंत्र के लिए कब क्या कर बैठे, कुछ ठिकाना नहीं। उसे 1989 का थियानमेन चौक का नजारा भूला नहीं है, जब लाखों युवा छात्र लोकतंत्र की मांग को लेकर वहां उमड़ पड़े थे। उस समय के चीनी शासकों (राष्ट्रपति देंग शियाओपिंग तथा प्रधानमंत्री लीपेंग) ने इतनी क्रूरता के साथ उनका दमन किया था कि अब तक उस तरह का दुस्साहस करने की किसी को हिम्मत नहीं पड़ी, मगर अब ट्यूनीशिया में उगी चमेली की खुशबू एक बार फिर चीनी युवाओं को क्रांति की राह पकड़ने के लिए प्रेरित कर रही है।

चमेली (जसमिन) एक बेहद कोमल और मीठी गंध वाला पुष्प है। बेला, जूही, चमेली, मोगरा जैसे इसके अनेक नाम और किस्में हैं, लेकिन गंध कमोबेश एक सी मादक है। इसलिए अफ्रीका के पश्चिमोत्तर तट से लेकर यदि चीन सागर तक इसका प्रभाव दिखायी दे रहा है, तो कोई आश्चर्य नहीं। गंध की दृष्टि से यह शायद दुनिया का सर्वाधिक लोकप्रिय पुष्प है और उसमें भी अरब और एशियायी क्षेत्र में तो विशेषकर। उपनिवेशवादी युग की समाप्ति के बाद यद्यपि एशिया और अफ्रीका में लोकतंत्र की तेज हवा चली, लेकिन लोकतंत्र की खुशबू से अरबी और चीनी क्षेत्र दोनों वंचित रहे। अरब क्षेत्र में उपनिवेश युग की अवशिष्ट राजशाही ने कब्जा जमा लिया, तो चीन में कम्युनिस्ट तानाशाही आ धमकी। अरब जगत में शाही परिवारों ने अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए लोकतंत्र को फटकने नहीं दिया, तो चीनी कम्युनिस्ट हुक्मरानों ने दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बनने की महत्वाकांक्षावश अपने को खुली लोकतांत्रिक व्यवस्था से दूर रखा। खुला लोकतंत्र तीव्र आर्थिक व सैनिक विकास में हमेशा बाधक रहा है। चीन में लोकतंत्र होता, तो वह आज जिस स्थिति में पहुंच गया है, वहां कतई नहीं पहुंच सकता था।

सैन्य शक्ति में वह परिमाण के पैमाने पर भ्ले ही अमेरिका के बाद नं. दो पर हो, लेकिन अब ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहां चीन अमेरिका की बराबरी करने की स्थिति में न पहुंचा गया हो। अभी पिछली जनवरी में उसने स्टील्थ फाइटर जेट जे-20 का परीक्षण किया। अभी तक इस तरह का सैनिक विमान केवल अमेरिका के पास था। लाकहीड कंपनी द्वारा निर्मित एफ-22 रैप्टर। इस क्षेत्र में चीन की इस प्रगति से स्वयं अमेरिका भी चकित है। नौसेना के क्षेत्र में चीन के पास विमान वाहक पोत अवश्य एक ही है, लेकिन यह उसकी दरिद्रता नहीं, उसकी रणनीति का परिचायक है। चीन ने अपनी आक्रामक क्षमता पनडुब्बियों तथा मिसाइलों में केंद्रित कर रखी है। अंतरिक्ष युद्ध तकनीक में भी उसने अमेरिका की लगभग बराबरी कर ली है। चीन सैन्य शक्ति में अपनी प्रतिष्ठा के प्रति कितना महत्वाकांक्षी है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वह अपना सैन्य व्यय लगातार बढ़ाने में लगा है। चालू वर्ष 2011 में उसने अपने रक्षा व्यय में करीब 12.7 प्रतिशत की वृद्धि की है। नेशनल पीपुल्स कांग्रेस के एक प्रवक्ता के अनुसार 2011 का चीनी सैन्य बजट 600 अरब युआन (98.4 अरब डॉलर) से भी अधिक है।

आर्थिक प्रगति में उसकी विश्वव्यापी ख्याति है ही। दुनिया में सर्वाधिक तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था पूरी दुनिया को अपना बाजार बनाने में लगी है। अभी इस नई शताब्दी के शुरुआत में उसने अरब जगत से अपना संबंध बढ़ाने के लिए दुबई के निकट रेगिस्तान में ‘ड्रैगन मार्ट' नाम का एक विशाल व्यापार केंद्र स्थापित किया। रेगिस्तान में स्थित प्रमुख राजमार्ग के किनारे 1.2 किलोमीटर लंबाई में स्थित ‘ड्रैगन मार्ट' का उद्घाटन 2004 में हुआ। यह ‘मार्ट' अरब जगत में एक तरह से चीन की एक व्यापारिक चौकी है। यहां संगमरमर की पट्टिकाओं से लेकर बालों की चोटी तक और सूखी मछली से लेकर मिकी माउस टेलीफोन तक सब कुछ उपलब्ध है- और पश्चिम के या स्वयं खाड़ी क्षेत्र के बाजारों से कहीं अधिक सस्ता। इस मार्ट में 3950 थोक व फुटकर दुकानें हैं। यूनाइटेड अरब अमीरात से ‘मुक्त व्यापार समझौते' (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट) करने वाला शायद यह पहला देश है। ताजा आंकड़ों के अनुसार करीब 2 लाख चीनी एमिरेट्स में हैं और चीन की करीब 3000 कंपनियां वहां काम कर रही हैं। अरब जगत के साथ चीन का गैर तेल व्यापार भी 60 अरब डॉलर से उपर पहंुच चुका है।

अब यदि अरब जगत से इस तरह का आर्थिक संबंध विकसित हो रहा है, तो वहां की कुछ-कुछ राजनीतिक व सामाजिक हवा भी चीन पहुंचेगी। लेकिन पश्चिम से आने वाली इस राजनीतिक हवा से चीन बेचैन है।

चमेली पुष्प क्रांति की हवा ट्यूनीशिया से उठकर मिस्र होते हुए जब पूरे अरब विश्व में फैल गयी, तो उसका कुछ-कुछ झोंका चीन में महसूस किया जाने लगा। चीनी ‘सोशल ऐक्टिविस्ट' भी उससे प्रेरित हुए। उन्होंने भी इंटरनेट की मदद लेकर चीन के करीब एक दर्जन बड़े शहरों में रैली का आह्वान किया। इसकी खबर मिलते ही चीनी शासन आतंकित हो गया। इतना आतंकित कि पहली रैली की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति हू जिंताओ ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो की बैठक बुलायी। सरकारी संवाद समिति शिन्हुआ की रिपोर्ट के अनुसार इस बैठक में स्थाई समिति के सभी 9 सदस्य तो उपस्थित थे ही, उनके अलावा सभी प्रांतों के प्रशासन प्रमुख, सभी मंत्रालयों के मुखिया तथा वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों को भी आमंत्रित किया गया था। यद्यपि इस बैठक का सरकारी तौर पर घोषित एजेंडा ‘चीन की विदेश नीति को व्यवस्थित करना' था, लेकिन मुख्या विषय था कि कैसे चीन को पश्चिम एशिया जैसी अशांति का शिकार होने से बचाया जाए। ‘द स्ट्रेट्स टाइम' की रिपोर्ट के अनुसार इस बैठक में राष्ट्रपति हू ने कहा कि हमें देश में सामाजिक प्रबंधन को इस तरह मजबूत करना चाहिए, जिससे कि सी.सी.पी. (चीनी कम्युनिस्ट पार्टी) की सत्ता अक्षुण बनी रहे। राष्ट्रपति ने ‘सामाजिक प्रबंधन' (सोशल मैनेजमेंट) का आशय स्पष्ट करते हुए बताया कि इसका मतलब यह है कि हम समाज की सेवा और उसका नियंत्रण साथ-साथ करें। उसके असंतोष को दूर करें और उसे सरकार के निर्धारित मार्ग से विचलित होने से भी रोकें। ‘मैनेजिंग द पीपुल ऐज वेल ऐज सर्विंग देम' की यह नई अवधारणा वास्तव में लोगों को सरकार के साथ जोड़े रखने का उपाय है। इसके अंतर्गत मुख्य कार्य है उन तत्वों को प्रोत्साहन देना, जिससे सत्ता के सिद्धांतों के साथ समाज का सामंजस्य बढ़े तथा खटकने वाली बातों को दूर रखा जा सके।

उपर से नरम लेकिन भीतर से कठोर इस सामाजिक रणनीति को अपनाने का यह निर्देश इसलिए दिया जा रहा है कि फिर थियानमेन चौक जैसी स्थिति न पैदा होने पाए। आज के चीन की स्थिति 1989 के मुकाबले बहुत बदल चुकी है। आज की नई पीढ़ी का दमन उस तरह नहीं किया जा सकता, जिस तरह उस समय के प्रशासन ने किया था। आज उस तरह के दमन के बाद चीन शांत नहीं रह सकेगा, उसके कोने-कोने में आग लग जायेगी। जिस पर नियंत्रण प्राप्त करना चीनी सेना के लिए भी कठिन होगा। यों उपर से देखने पर चीन काफी शांत नजर आता है। तीव्र आर्थिक विकास की चकाचौंध के पीछे उसका सामाजिक असंतोष छिपा रह जाता है। लेकिन चीनी मीडिया की अपनी ही रिपोर्टों पर यदि नजर डालें, तो पता चलेगा कि पिछले एक-दो वर्षों में चीन में सामाजिक अशांति लगातार बढ़ने की ओर है। वर्ष 2009 के मुकाबले यदि 2010 की तुलना करें, तो पता चलेगा कि अशांति की बड़ी घटनाओं में 20 प्रतिशत की वृद्धि हुई। शंघाई के जियाओ टोंग विश्वविद्यालय ने चीन में सामाजिक अशांति पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसकी चीनी संकट प्रबंधन की वार्षिक रिपोर्ट से भी पुष्टि होती है। इन रिपोर्टों के अनुसार चीन की मुख्य भूमि (मिडिल किंगडम) में औसतन हर पांच दिन पर कहीं न कहीं सामाजिक अशांति (सोशल अनरेस्ट) की बड़ी घटना हो रही है। यह अशांति चीन के सभी 29 प्रांतों तथा शहरों (90 प्रतिशत से अधिक) फैली हुई है। हेनान, बीजिंग व गुआंगहो प्रांतों में यद्यपि सर्वाधिक ऐसी घटनाएं हो रही हैं, लेकिन कोई भी प्रांत पूरी तरह शांत या इससे अछूता नहीं है। इन घटनाओं की गंभीरता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इनमें से 43 प्रतिशत घटनाएं ऐसी रही हैं, जिनका समाधान करने में स्थानीय अधिकारी असफल रहे और उनमें केंद्रीय शासन को हस्तक्षेप करना पड़ा। भला हो इंटरनेट और उस पर आने वाले प्राइवेट ब्लॉग्स का कि चीनी अधिकारियों के छिपाने के बावजूद इनमें से करीब 67 प्रतिशत की जानकारी सार्वजनिक हो जाती हैं। 2009 में जहां 60 ऐसी बड़ी घटनाएं हुई, वहीं 2010 में बढ़कर यह संख्या 72 हो गयी। अब इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी क्यों अरबी क्रांति के प्रति इतनी सशंक हो उठी है।

पोलित ब्यूरो की बैठक में लंबी चर्चा के बाद तय किया गया कि पहले तो इंटरनेट पर सूचनाओं के प्रसारण पर नियंत्रण कायम किया जाए और जन अभिमत को निर्देशित करने या उसकी दिशा बदलने का काम किया जाए। राष्ट्रपति हू ने पश्चिम एशिया की स्थिति पर सारी चर्चाओं, बहसों तथा टिप्पणियों पर रोक लगाने को कहा। निर्णय लिया गया कि सारी स्वतंत्र रिर्पोटों को रोका जाए तथा ‘ब्लॉग्स', ‘माइक्रो ब्लॉग्स' तथा चर्चा मंचों (डिस्कशन फोरम) पर भी छन्नक (फिल्टर) लगाने की व्यवस्था की जाए। चीन में बाहर से आए विस्थापितों, प्रवासियों तथा अस्थाई रूप से आने-जाने वालों पर नजर रखने का निर्णय लिया गया। अगले ही दिन से मीडिया पर इन निर्णयों का प्रभाव दिखायी देने लगा। आंदोलन-प्रदर्शन की छोटी सी सूचना पर भी प्रशासन की सख्ती से साफ जाहिर था कि चीनी शासन इसको उगते ही कुचल देने के लिए तैयार है। ‘सिडनी मार्निंग हेरल्ड' की एक रिपोर्ट के अनुसार इंटरनेट पर जब यह सूचना प्रसारित हुई कि पूरे चीन में साप्ताहिक रैलियों का आयोजन किया जाए, तो बीजिंग के एक रैली स्थल पर चीनी पुलिस का जबर्दस्त दस्ता आ धमका और वह विदेशी मीडिया के लोगों को धक्के देकर वहां से हटाने लगा। कई को तो कुछ देर के लिए हिरासत में भी ले लिया गया। 21 फरवरी के ‘पीपुल्स डेली' के अनुसार चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो की सर्वशक्तिमान स्थाई समिति के एक सदस्य बू बंगुओ ने साफ कहा है कि हम चीन में बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली लागू नहीं कर सकते। देश में कई निर्देशक सिद्धांत एक साथ नहीं चल सकते। हम संघवाद (फेडरलिज्म) तथा संपत्ति के निजीकरण पश्चिमी प्रणाली भी नहीं स्वीकार कर सकते। राष्ट्रीय तथा सार्वजनिक सुरक्षा के प्रभारी एक अन्य सदस्य ने भी पोलित ब्यूरो के निर्णयों की पुष्टि करते हुए बताया कि देश में एक त्वरित सूचना प्रणाली विकसित की जाएगी तथा समाज के विभिन्न स्तरों तथा वर्गों का एक ‘डाटाबेस‘ तैयार किया जायेगा। त्वरित सूचना प्रणाली द्वारा छोटे से छोटे असंतोष तथा विरोध की सूचना प्रशासन को पहुंच जाएगी, जो तत्काल उसके निराकरण की व्यवस्था करेगा। चीनी अधिकारियों की इस चिंता तथा उनकी युद्धस्तरीय तैयार से इसका साफ संकेत मिलता है कि लोकतंत्र के विचार से वे कितने चिंतित व भयभीत हैं, लेकिन यह सवाल अब चीन और चीन से बाहर भी हर जगह उठने लगा है कि आखिर चीन कब तक लोकतंत्र की हवा को अपनी सीमाओं के बाहर रोककर रख सकेगा। अरबी क्षेत्र में उठी क्रांति की आंधी के पीछे मुख्य रूप से नये इलेक्ट्रानिक युग का युवा समुदाय हैै। यह युवा समुदाय अब प्रायः पूरे विश्व में मुखर हो रहा है। चीन भी इस युवा-विश्व से बाहर नहीं है। इस युवा वर्ग के साथ ही वह इलेक्ट्रानिक संचार तकनीक भी विकसित हुई है, जिसने सूचना तंत्र पर राज्य के एकाधिकार को ध्वस्त कर दिया है। इस सूचना प्रवाह को रोक कर कोई भी देश या कोई भी राजनीतिक विचारधारा समूह अपने एकाधिकार की रक्षा नहीं कर सकता। चीन भी नहीं कर सकता। हू जिंताओ तात्कालिक स्तर पर भले ही इस युवा क्रांति को रोकने में सफल हो जाएं, लेकिन वे अधिक समय तक उसे रोके नहीं रख सकते। वह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा कसी गयी लौह श्रृंखलाओं को कभी भी तोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर सकती है। चीनी अधिकारी अभी भी इस क्रांति का बीज वपन करने के लिए अमेरिका को दोषी ठहरा रहे हैं, किंतु इस आरोप का खोखलापन पहले ही प्रकट हो चुका है, क्योंकि अरब जगत में सबसे पहले भड़की यह क्रांति अमेरिका के हित में तो कतई नहीं है। स्वयं अमेरिका भी इससे चिंतित है। ऐसा लगता है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का भी अंतिम समय अब निकट है। स्वयं उसका दमनचक्र इस समय को और नजदीक ला देगा।

13/03/2011

3 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

पुरानी पीढी मूर्ख नहीं थी जो चीनियों को अफ़ीम की घुटी से सुलाती रही :)

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

इस महत्वपूर्ण आलेख के लिए आपको हार्दिक बधाई।

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

इतना विस्तृत विवेचन पढ़कर कई जानकारियां प्राप्त हुईं ..... आभार