रविवार, 30 जनवरी 2011

मध्य पूर्व के अरब देशों में फैली विद्रोह की आग

मिस्र के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक का
पोस्टर फाड़ते हुए प्रदर्शनकारी
मध्य पूर्व (मिडिल ईस्ट) के देशों में इन दिनों अमेरिका समर्थित तानाशाहियों के खिलाफ भड़की विद्रोह की इस आग ने ट्यूनीशिया के बाद अब मिस्र, जार्डन, यमन अलजीरिया आदि को भी अपनी चपेट में ले लिया है। सउदी अरबिया भी जल्दी ही इसके घेरे में आने वाला है। अमेरिका हक्का-बक्का है। उसे समझ में नहीं आ रहा है कि इस स्थिति से कैसे निपटा जाए। अभी करीब दो सप्ताह पूर्व ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति ने भागकर सउदी अरब में शरण ली। मिस्र के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक तो जमे हैं, लेकिन उनके बेटे अपनी बहू व बेटी के साथ लंदन भाग गये हैं। यमन के राष्ट्रपति भी भागने की तैयारी में हैं। लेबनान की सत्ता पर ईरान समर्थित हिजबुल्ला ने पहले ही कब्जा जमा लिया है। कहने को यह आंदोलन निरंकुश तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र की आकांक्षा से प्रेरित है, लेकिन वास्तविकता यह है कि इसका पूरा नेतृत्व कट्टरपंथी इस्लामी ताकतों के हाथों में आ गया है।



मध्य पूर्व के अरब देशों में तहलका मचा है। ट्यूनीशिया के तानाशाह राष्ट्रपति के खिलाफ भड़के विराट आंदोलन की सफलता ने खाड़ी के कई देशों में आंदोलन की आग लगा दी है। सबसे सीधा और भारी असर पड़ोसी देश मिस्र पर पड़ा है। यों जार्डन, यमन तथा अल्जीरिया में भी सरकार विरोधी प्रदर्शन तेज हो गये हैं। इस पूरे आंदोलन की सर्वाधिक रोचक और उल्लेखनीय बात यह है कि इन सारे आंदोलनों का अकेला सूत्रधार है एक टी.वी. न्यूज चैनल अल-जजीरा। इस चैनल ने पूरी अरबी दुनिया को एक सूत्र में बांध दिया है। ट्यूनीशिया की क्रांति को सफल बनाने में एकमात्र भूमिका इस चैनल की है। इसने विद्रोह को न केवल भड़काया, बल्कि उसे दिशा भी दी। 1996 में कतर के अमीर शेख हमद बिन खलीफा अल थानी द्वारा स्थापित इस चैनल ने गत 15 वर्षों में अमेरिका समर्थित अरब देशों के खिलाफ वातावरण बनाने में असाधारण भूमिका अदा की है। उसने न केवल अरबों का दुख दर्द बांटा, बल्कि उनके राजनीतिक संकट में साथ भी दिया और इसके साथ ही पूरे अरब जगत में एक कोने से दूसरे कोने तक साझा संघर्ष की भूमिका भी तैयार की। जार्ज वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में मध्य-पूर्व (मिडिल ईस्ट) के अध्येता एक प्रोफेसर मार्क लिंच के अनुसार अल जजीरा के बिना यह सब नहीं हो सकता था।

ट्यूनीशिया में भड़के विद्रोह के परिणामस्वरूप वहां के तानाशाह राष्ट्रपति जिन-एल-आबिदीन बेन अली सबसे करीब 2 सप्ताह पूर्व गत 14 जनवरी को अपना माल मत्ता समेटकर वहां से भाग निकले और सउदी अरबिया में आकर शरण ली। ट्यूनीशिया के प्रधानमंत्री किसी तरह स्थिति को संभालने की कोशिश में लगे हैं। उन्होंने देश में लोकतंत्र स्थापित करने का आश्वासन दिया है। पुरानी सरकार के अधिकांश मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया है। प्रधानमंत्री ने जनता को विश्वास दिलाया है कि उनकी वर्तमान सरकार केवल एक अस्थाई सरकार है, जिसका लक्ष्य देश में यथाशीघ्र चुनाव कराकर सत्ता निर्वाचित प्रतिनिधियों के हवाले कर देना है। यद्यपि देश में आंदोलन अभी भी पूरी तरह थमा नहीं है, लेकिन आंदोलनकारी नेता अपनी सफलता से प्रसन्न हैं और इस बात से आश्वस्त हैं कि अब देश में लोकतंत्र का आना तय है। जिने एल आबिदीन बेन अली ने 1987 में ट्यूनीशिया की सत्ता संभाली थी। तब से वह अमेरिकी समर्थन से अपनी सरकार चलाते आ रहे थे।

ट्यूनीशिया के बाद अब यमन के राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला सलेह भी देश छोड़कर भागने की तैयारी में हैं। सलेह 1978 में भारी अशांति के बीच उत्तरी यमन के राष्ट्रपति बने थे। उनके पहले के दो राष्ट्रपतियों का शासन उनकी हत्या के साथ समाप्त हुआ था। सलेह ने भी अपनी सरकार में अपने परिवारीजनों को ही भर रखा है। इधर वह अपने बेटे अहमद को अपना राजनीतिक उत्तराधिकार सौंपने वाले थे, लेकिन तभी ट्यूनीशिया का असर यहां भी पड़ गया। उग्र आंदोलन के बीच सलेह ने घोषणा की है कि उनका अपने बेटे को राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने का कोई इरादा नहीं है। उन्होंने यह विश्वास दिलाने की कोशिश की है कि वह देश में राजनीतिक सुधारों के लिए तैयार हैं। लेकिन राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार आंदोलनकारी शायद ही इससे संतुष्ट हों। वे सलेह के शासन का अंत चाहते हैं। इसलिए सलेह को भी शायद ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति का ही रास्ता अपनाना पड़े।

ट्यूनीशिया के विद्रोहियों की सफलता का मिस्र पर एकाएक जिस तरह का प्रभव पड़ा है, उसकी तो कल्पना करना भी कठिन था। मिस्र के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक की सरकार चकित है। यद्यपि वह स्वयं आंदालनकारियों का मुकाबला करने के लिए टिके हैं, लेकिन उनके बेटे अपनी बहू व बेटी को लेकर ब्रिटेन भाग गये हैं। कहा जा रहा है कि वह अपने साथ करीब एक सौ सूटकेस ले गये हैं। आंदोलनकारी मांग कर रहे हैं कि देश में 30 वर्षों से लगा आपातकाल समाप्त किया जाए, राष्ट्रपति का कार्यकाल दो बार से अधिक न हो तथा देश के आंतरिक मामलों के मंत्री हबीब अल अदली को तत्काल पद से हटाया जाए, लेकिन राष्ट्रपति मुबारक अभी आंदोलनकारियों की कोई बात सुनने के बजाए उन्हें दमन के हथियार से शांत करना चाहते हैं। उनके इस रवैये के खिलाफ बीते शुक्रवार को राजधानी काहिरा सहित देश के तमाम शहरों में व्यापक प्रदर्शन हुए। अलेक्जेंड्रिया व सुरेज जैसे तटवर्ती श्हरों से लेकर देश के भीतरी इलाकों के प्राय सभी प्रमुख शहरों में लोग सड़कों पर उतर आये। राजधानी काहिरा में लोग प्रसिद्ध अल अजहर मस्जिद तथा राष्ट्रपति भवन के पास इकट्ठे हो गये। दोपहर की नमाज के बाद तमाम लोग मस्जिदों से निकलकर सीधे सड़क पर आ गये। पुलिस ने उन्हें तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस के गोले छोड़े, लाठीचार्ज किया तथा रबर बुलेट्स का भी प्रयोग किया। भीड़ ने भी जमकर पथराव किया। काहिरा में आंदोलन का यह चौथा दिन था। इस दिन आंदोलन सर्वाधिक उग्र था। इसका एक बड़ा कारण शायद यह था कि मिस्र के सुधारवादी नेता नोबेल शांति पुरस्कार विजेता, संयुक्त राष्ट्र संघ की अंतर्राष्ट्रीय परमाणु निगरानी संस्था आई.ए.इ.ए. के पूर्व अध्यक्ष मुहम्मद अल बरदेई भी इस आंदोलन में भाग लेने के लिए जिनीवा से काहिरा पहुंच गये। खबर है कि होस्नी मुबारक सरकार ने अल बरदेई को नजरबंद कर लिया है।

82 वर्षीय होस्नी मुबारक ने सरकार में बदलाव का आश्वासन अवश्य दिया है, लेकिन राष्ट्रपति पद छोड़ने से साफ इनकार कर दिया है। उन्होंने देश में इंटरनेट सेवाएं रोक दी हैं, जिससे फेसबुक व ट्विटर का इस्तेमाल रुक गया है। एस.एम.एस. सेवा भी बंद कर दी कये है। यहां यह उल्लेखनीय है कि अरब जगत के इस आंदोलन में अल जजीरा के टी.वी. प्रसारणों के अलावा ट्विटर, फेस बुक व एस.एम.एस. सेवाओं का भारी योगदान रहा है।ट्यूनीशिया के पुलिस अत्याचारों की सचित्र खबरें फेस बुक व एस.एम.एस. द्वारा ही अल जजीरा तक पहुंची और प्रसारित हुई। स्वयं आंदोलनकारी भी परस्पर संपर्क तथा विद्रोही गतिविधियों व पुलिस कार्रवाईयों के प्रसार के लिए इन सेवाओं का जमकर इस्तेमाल कर रहे थे। आधुनिक संचार तकनीक का राजनीतिक बदलाव के लिए छिड़े आंदोलन में इस्तेमाल का यह अनूठा प्रयोग था। खबर है कि शुक्रवार तक 4 दिन के इस आंदोलन में अब तक 8 लोग मारे गये हैं और करीब 1000 लोग गिरफ्तार किये गये हैं।

पूरे अबर जगत में भड़के इस आंदोलन से अमेरिका हक्का-बक्का है। उसे समझ में नहीं आ रहा है कि वह क्या करे। पूरे अरब जगत में उसकी समर्थित सरकारें खतरे में हैं। लेबनान में अभी अमेरिका समर्थक सरकार गिर गयी है और हिजबुल्ला ताकतों ने वहां नया प्रधानमंत्री चुन लिया है। ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति देश छोड़कर भाग गये हैं। गाजा पट्टी में भी हमास की ताकत और लोकप्रियता बढ़ रही है। वहां अमेरिका समर्थित फिलिस्तीनी नेता महमूद अब्बास दिनों दिन कमजोर होते जा रहे हैं। अभी विकीलीक्स द्वारा किये गये रहस्योद्घाटनों ने उनकी हालत और खराब कर दी है। विकीलीक्स के खुलासों से जाहिर हो गया है कि अब्बास की इजरायल के साथ भी सांठगांठ है। अब्बास का कार्यकाल 2009 में ही समाप्त हो चुका है, लेकिन वह अमेरिकी समर्थन के बल पर वहां टिके हैं, नहीं तो हमास नेता उन्हें कब का पदच्युत कर चुके होते। इराक में भी ईरान समर्थक शक्तियां बढ़ रही हैं। अभ्ी इराकी नेता मक्तदा अल सद्र लंबे समय तक ईरान में रहकर लौटे, तो बगदाद में उनका किसी ‘हीरो' की तरह स्वागत किया गया। सच तो यह है कि इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन की सरकार को ध्वस्त करके अमेरिका ने इराक को बाकायदे ट्रे में सजाकर ईरान के हवाले कर दिया है। अब ईरान का एकमात्र काम है बगदाद में अपनी स्थिति को मजबूत करना।

इस क्षेत्र की राजनीति पर नजर रखने वालों की दृष्टि में आज की स्थिति के लिए मुख्य रूप से स्वयं अमेरिका दोषी है। अरब क्षेत्र में अमेरिकी कूटनीति जड़ हो गयी है। उसकी शीत युद्धकाल की नीतियां ही वहां अभी भी लागू हैं। 30-40 साल पहले की दृष्टि से उसकी नीति सही थी, लेकिन आज वह अप्रासंगिक हो गयी हैं। इस क्षेत्र में उस समय के ताकतवर नेता अब कमजोर हो चले हैं, किंतु अमेरिका अभी भी उन पर भरोसा किये हुए है। उसने इस क्षेत्र में उभरती लोकतांत्रित भावनाओं को हमेशा दबाने की कोशिश की, क्योंकि उसे खतरा है कि यदि वर्तमान परिवारों को हटाया गया और लोकतंत्र का अवसर दिया गया, तो इस पूरे इलाके पर इस्लामी ताकतों का वर्चस्व हो जाएगा। उसकी यह आशंका गलत नहीं है, फिर भी उसे इस्लामी व लोकतांत्रिक भावनाओं व शक्तियों में फर्क करने का प्रयत्न करना चाहिए था। आज वह जितना पैसा तानाशाहों के संरक्षण पर खर्च कर रहा है, उतना यदि लोकतांत्रिक शक्तियों पर खर्च करता, तो इस्लामी ताकतों को भी सर उठाने का मौका न मिलता। शाही परिवारों की बेशर्म अय्याशी तथा क्रूर अत्याचारों से इस्लामी ताकतों को इसका मौका मिल गया है कि वे लोकतांत्रिक ताकतों का भी नेतृत्व अपने हाथ में ले लें।

मिस्र में भी यही हो रहा है। ‘इस्लामिक ब्रदर हुड' नामक संगठन मिस्र में सबसे बड़ा मजहबी जन संगठन है। इसकी अब तक लोकतांत्रिक आंदोलनों में कोई रुचि नहीं थी, क्योंकि वह लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी इस्लाम विरोधी मानता है, लेकिन मिस्र के ताजा आंदोलन में वह भी कूद पड़ा है। उसकी सोच अब बदल गयी है। उसने समझ लिया है कि होस्नी मुबारक की तानाशाही तो पहले खत्म हो, उसके बाद लोकतंत्र को अपने पक्ष में मोड़ना तो बेहद आसान हो जाएगा। अमेरिका भी अब जाकर चेता है। लंबी चुप्पी के बाद राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा के प्रवक्ता राबर्ट गिब्स ने मिस्र सरकार को चेतावनी दी है कि वह आंदोलनकारियों की सुधारवादी मांगों की ओर ध्यान दे, नहीं तो अमेरिका उसे दी जाने वाली 1.5 अरब डॉलर की वार्षिक सहायता बंद कर सकता है। गिब्स के इस वक्तव्य से जाहिर है कि अमेरिका को अब यह लग रहा है कि राष्ट्रपति होस्नी मुबारक यदि अपने हठ पर अड़े रहे, तो उनका सत्ता में टिक पाना मुश्किल होगा। अमेरिका की निश्चय ही मिस्र में लोकतांत्रिक शासन की स्थापना में कोई रुचि नहीं है, इसलिए वह चाहता है कि किसी तरह कुछ बदलाव के साथ वर्तमान सरकार या वर्तमान शासन व्यवस्था बनी रहे। इसके लिए जरूरी हो तो होस्नी मुबारक अपनी जगह किसी और को राष्ट्रपति पद पर ले आएं। वर्तमान स्थिति में अब उनके लिए अपने बेटों को सत्ता में स्थापित करना तो मुश्किल हो गया है, फिर भी वे अपने किसी विश्वस्त को आगे ला सकते हैं। हो सकता है कि अमेरिका की धमकी काम करे और जनाब मुबारक स्वेच्छया गद्दी छोड़ना स्वीकार कर लें, लेकिन यदि वह स्वयं राष्ट्रपति बने रहने पर अड़े रहे, तो निश्चय ही घाटे में रहेंगे।

मध्य पूर्व में वास्तविक लड़ाई इस समय अमेरिका और ईरान के बीच केंद्रित हो गयी है। परंपरा से इस पूरे इलाके पर अमेरिका का वर्चस्व कायम था। मिस्र, सउदी अरब, यमन, कुवैत, नाइजीरिया, ट्यूनीशिया, संयुक्त अरब अमीरात, पाकिस्तान अफगानिस्तान व इराक भी अमेरिकी प्रभाव क्षेत्र में आते थे। कभी (इस्लामी क्रांति के पूर्व) ईरान भी अमेरिकी गिरोह में ही आता था। लेकिन अब ईरान की तरफ से उसे गहरी चुनौती मिल रही है। अल जजीरा का संस्थापक कतर का अमीर शेख हमद बिन खलीफा अलथानी का यह चैनल शुरू करने का मूल लक्ष्य इस्लामी जगत की एकता कायम करना था, लेकिन उसने अपना प्रारंभिक लक्ष्य अरब एकता को बनाया। उसने अमेरिका के खिलाफ अरबी चेतना को जगाने का काम किया। अब यदि अमेरिका और ईरान के मुकाबले की दृष्टि से ही देखें, तो पता चलेगा कि ईरानी वर्चस्व बढ़ रहा है तथा अमेरिका के पांव तले की जमीन सिमट रही है। अभी तक अमेरिकी राजनीतिक सोच है कि सुन्नी अरब संसार शिया ईरान के खिलाफ हमेशा उसके साथ रहेगा, लेकिन ‘इस्लामी अंतर्राष्ट्रीयतावाद' अथवा ‘इस्लामी भ्रातृत्व' भावना ईरान के नेतृत्व में संगठित होने की तरफ अग्रसर हैं।

पूरे अरब क्षेत्र में लगभग एक साथ भड़क उठे इस आंदोलन पर सर्वाधिक खुशी ईरान में ही मनायी जा रही है। ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद के अनुसार इस समय अरब जगत में जो कुछ हो रहा है, वह वैसा ही है, जैसा कि करीब तीन दशक पूर्व ईरान में हुआ था। ईरान में 1979 में भड़की इस्लामी क्रांति में अमेरिका समर्थित शाह मोहम्मद रजा पहलवी की सरकार उड़ गयी थी। धार्मिक नेता अयातोल्लाह खोमेनी ने शाह के खिलाफ जो क्रांति का बिगुल फूंका था, उसकी ही अनुगूंज अब विश्व में फैल रही है। ईरान की नजर में यह इस्लामी क्रांति ही है, जो इस्लाम विरोधी सरकारों को निगलने के लिए उठ खड़ी हुई है। अहमदीनेजाद के अनुसार कोई अमेरिकी योजना इसे रोकने में सफल नहीं होगी।

अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने अपने एक वक्तव्य में कहा है कि लोकतांत्रिक मूल्यों के हक में अमेरिका मिस्री जनता के साथ है। उन्होंने सरकार से अपील की है कि मानवाधिकारों का ख्याल रखे तथा हिंसा व बल प्रयोग न करे। साथ ही प्रदर्शनकारियों से कहा है कि वे अपनी बात सरकार तक शांतिपूर्ण ढंग से पहुंचाएं। राष्ट्रपति होस्नी मुबारक ने राष्ट्र के नाम अपने एक संदेश में अपनी वर्तमान सरकार को भंग करने तथा रविवार को नई सरकार के गठन की घोषणा की है। उन्होंने कहा है कि देश में सारे सामाजिक, लोकतांत्रिक तथा आर्थिक सुधार लागू किये जायेंगे, लेकिन उन्होंने स्वयं अपना इस्तीफा देने से इनकार कर दिया है। मगर प्रदर्शनकारी उनके आश्वासनों से संतुष्ट नहीं हैं, वे उनका इस्तीफा चाहते हैं। शनिवार को प्रदर्शनकारियों ने सेना और पुलिस के किसी भी बल प्रयोग की परवाह न करके फिर राजधानी में जबर्दस्त प्रदर्शन किया। मुबारक ने लगभग पूरे देश में कर्फ्यू लगा दिया है। राजधानी की सड़कों पर सेना की गाड़ियां और टैंक घूम रहे हैं, लेकिन लोग उनसे तनिक भी आतंकित नहीं हैं। उन्होंने शनिवार की सुबह सत्तारूढ़ पार्टी के काहिरा स्थित मुख्यालय को आग के हवाले कर दिया। खबर है कि आंदोलन में ‘इस्लामी ब्रदर हुड‘ के शामिल हो जाने से उसकी शक्ति बढ़ गयी है और अब आंदोलनकारी मुबारक के इस्तीफे से कम किसी बात पर शांत होने के लिए तैयार नहीं हैं। जाहिर है कि अमेरिकी नीति यहां सफल होती नहीं नजर आ रही है। अब यदि यहां आंदोलनकारी होस्नी मुबारक का इस्तीफा लेने में सफल हो गये, तो इसके बाद सउदी अरबिया ऐसे ही आंदोलन का निशाना बनने वाला है। सउदी अरबिया में यदि विद्रोह का झंडा खड़ा हुआ, तो यह अमेरिका के लिए मध्य पूर्व की सबसे बड़ी चुनौती होगी।

सच्चाई यह है कि मध्य पूर्व के तथाकथित सेकुलर व अमेरिका समर्थित सरकारों के विरुद्ध भड़की यह आग आसानी से रुकने वाली नहीं है। बीच में कुछ विराम की स्थिति आ भी जाए, तो यह फिर भड़केगी। क्या होगा इसका अंतिम परिणाम ? कहना कठिन है। लेकिन इतना तो तय है कि अमेरिका को अब अपनी मध्य पूर्व नीति बदलनी पड़ेगी, नहीं तो यह पूरा इलाका न केवल उसके काबू से बाहर बल्कि इस्लामी कट्टरपंथियों के कब्जे में चला जायेगा। लड़ाई लोकतंत्र की है, लेकिन उसकी परिणति पूरे क्षेत्र के कट्टर इस्लामीकरण में होने जा रही है।

30/01/2011


1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

मध्य पूर्व के तथाकथित सेकुलर व अमेरिका समर्थित सरकारों के विरुद्ध भड़की यह आग आसानी से रुकने वाली नहीं है।

यह एक विशेष ट्रेण्ड लगता है कि पहले अमेरिका को कोसा जाता है और जेहाद की जंग छिड़ जाती है। अभी पाकिस्तान में भी यही ट्रेण्ड देखने को मिल रहा है॥