शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

अभिव्यक्ति की आजादी और कश्मीरी आंदोलन का यथार्थ



अभिव्यक्ति की आजादी के आंदोलन की शुरुआत सामंती तानाशाही एवं मजहबी वर्चस्व का जाल तोड़ने के लिए हुई थी। किंतु कश्मीर का यह आंदोलन उलटी दिशा में जाने वाला आंदोलन है। यह लोकतांत्रिक आजादी से फिर मजहबी तानाशाही की तरफ ले जाने का अभियान है। यह केवल राजनीति का नहीं, मजहबी राजनीति का आंदोलन है। देश और दुनिया के मानवतावादी व लोकतांत्रिक स्वतंत्रतावादी शक्तियों को कश्मीर के इस यथार्थ को अच्छी तरह समझना चाहिए। वर्तमान आंदोलन कोई नया आंदोलन नहीं है, वह 1940 के दशक में छिड़े अलगाववादी हिंसक आंदोलन का ही एक अंग है, जो देश के विभाजन के बाद भी अभी तक पूरा नहीं हुआ है। अफसोस है कि आज के कई ख्यातिलब्ध बुद्धिजीवी, लेखक-लेखिकाएं अपने संकीर्ण स्वार्थवश ऐसे प्रतिगामी आंदोलनों का साथ दे रहे हैं और भारत पर उपनिवेशवादी होने का आरोप लगा रहे हैं।



जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री, नेशनल कांफ्रेंस के नेता व वर्तमान समय में केंद्रीय गैर पारंपरिक उर्जा मंत्री फारुख अब्दुल्ला यों तो कश्मीर के उसी राजनीतिक परिवार के सदस्य हैं, जिसने कश्मीर के भारत के साथ पूर्ण एकीकरण में सदैव बाधा डाली, फिर भी उन्होंने कश्मीर के बारे में उल-जलूल बयान देने वालों पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है और कहा है कि अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के नाम पर इस देश में लोगों को कुछ ज्यादा ही आजादी (टू मच फ्रीडम) मिली हुई, जिसे इस राष्ट्र् को नष्ट करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। अभिव्यक्ति स्वतंत्रता को आधुनिक लोकतंत्र के प्रमुख आधारों में गिना जाता है, लेकिन अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का अर्थ कुछ भी बोलने-लिखने-करने की स्वतंत्रता नहीं है।

लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की भी एक मर्यादा सीमा होती है। दुनिया के किसी भी देश में अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता -एब्सोल्यूड फ्रीडम- नहीं है। अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता तो किसी असभ्य आदिम समुदाय में ही हो सकती है, जब अभी परिवार और समाज की अवधारणा भी नहीं बन सकी थी, क्योंकि परिवार व समाज की अवधारणा बनते ही व्यक्ति के सामाजिक आचरण व अभिव्यक्ति की सीमाएं खड़ी हो गयी होंगी। सभ्यता एवं राजनीति के विकास तथा राष्ट्र्ीयता की अवधारणाओं ने इस सीमा को क्रमशः दृढ़तर करने का ही काम किया। आज दुनिया के किसी भी देश में अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है। निश्चय ही लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का अधिकार सीमित होता है, अब यदि स्वतंत्रता की अवधारणा ही सीमाओं में बंधी है, तो अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का अधिकार भी सीमित ही रहेगा।

अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के अधिकार व सीमाओं को समझने के लिए हमें यह समझना  पड़ेगा कि किन परिस्थितियों  में इनकी आवश्यकता अनुभव हुई तथा इनका उद्देश्य क्या था। पश्चिम में इसकी अवधारणा राजशाही या सामंती शासन व्यवस्था तथा चर्च के असीमित वर्चस्व के विरुद्ध उत्पन्न हुई। राजशाही में राजा के खिलाफ तंत्र आवाज उठाना, उसकी या उसके शासन तंत्र की आलोचना करना अपराध था। इसी तरह चर्च के निर्देर्शों के विरुद्ध जबान खोलना भी अपराध था, इसलिए पश्चिमी दुनिया में जब लोकतंत्र की हवा चली, तो उसके साथ अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के आंदोलन की लहर भी सामने आयी। इसका मूल लक्ष्य था कि किसी भी नागरिक को राजा व चर्च के आचरण, उसके सिद्धांतों, निर्देशों तथा शासनशैली की आलोचना करने तथा उसके प्रति अपने विचारों व सिद्धांतों को सामने रखने का अधिकार हो। मिल्टन का कहना था कि ‘हमें अन्य दूसरी सारी आजादियों के उपर अपनी अंतरात्मा या अपनी इच्छा के अनुसार जानने, बोलने तथा स्वतंत्रतापूर्वक तर्क करने का अधिकार दो।’ (गिव मी लिबर्टी टु नो, टु अटर एंड टु आर्गू फ्रीली एकार्डिंग टफ कंसाइंस एबव आॅल लिबर्टीज)। मिल्टन ने यह मार्मिक अपील तब की थी, जब फ्रांस में छपाई पर राष्ट्र्ीय स्तर पर नियंत्रण लगा हुआ था। लोगों को शायद ध्यान न हो कि छपाई मशीनों का पहला हमला चर्च के एकाधिकार पर ही हुआ था। छपाई मशीनों के कारण लोगों के मुक्त विचार आसानी से अन्य लोगों के बीच पहुंचने लगे। इससे तानाशाही राजतंत्र व चर्च का भयभीत होना स्वाभाविक था। 16वीं शताब्दी के मध्य फ्रांस की सरकार ने प्रेस पर कठोर प्रतिबंध लगा दिया। यहां तक कि 1546 में एक छापाखाना मालिक एतिनो डोलेट को खंभे में बांधकर जला दिया गया। प्रेस से सबसे बड़ा खतरा सामंती तानाशाही व धार्मिक अधिनायकवाद के विरुद्ध विद्रोह भड़कने का था। लेकिन दमन से अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का आंदोलन और भड़का। जॉन मिल्टन (1608-74) के बाद अंग्रेज दार्शनिक जॉन लाक (1632-1704) सामने आये। उनके मानव मुक्ति के विचारों ने व्यापक प्रभाव डाला। और फिर इस श्रंृखला में सामने आये जॉन स्टुअर्ट मिल -1806-1873-। उन्होंने व्यक्ति स्वातंत्र्य को राजनीतिक मान्यता दिलाने का अथक प्रयास किया। यह उनका ही प्रभाव था कि अमेरिकी संविधान में पहला संशोधन किया गया, जिसमें कहा गया कि ‘कांग्रेस ऐसा कोई कानून नहीं बनाएगी, जो अभिव्यक्ति स्वतंत्रता या प्रेस के अधिकारों को सीमित करे‘। जॉन मिल पश्चिम के दार्शनिकंों में शायद पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने भारतीय चिंतकों की तरह कहा कि सत्य स्थिर नहीं होता, वह युगानुरूप परिवर्तित होता रहता है (ट्र्ूथ इज नाट स्टेबल आर फिक्स्ड, बट इवाल्व्स विद टाइम)। यह कथन वास्तव में चर्च और बाइबिल के वर्चस्व पर सीधा हमला था। मिल ने तर्कों से यह सिद्ध किया कि ऐसा बहुत कुछ है, जिसे हम पहले सच समझते थे, लेकिन वे बाद में झूठे या गलत निकले। इसलिए पुराने विचारों को चुनौती देने वाले नये विचारों को आने से कभी नहीं रोका जाना चाहिए। उनका यह भी कहना था कि ‘गहरे पैठे निर्णीत विचारों’ (डीप स्लंब्र आॅफ अडिसाइडेड ओपीनियन) को रोकने के लिए खुली बहस का अवसर मिलना आवश्यक है।

यह अभिव्यक्ति स्वतंत्रता या प्रेस की आजादी के अग्रणी समर्थकों का जिक्र करने का आशय यह है कि अभिव्यक्ति स्वतंत्रता वैयक्तिक आजादी या मानवीय आजादी की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। और किसी शासन तंत्र को उस पर अंकुश लगाने का कोई अधिकार नहीं है। कम से कम लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो उसकी सुरक्षा हर हालत में होनी चाहिए। लेकिन कश्मीर के अलगाववादी आॅल पार्टी हुर्रियत कांफ्रे्रंस के नेता अली शााह गिलानी या उनकी समर्थक तथाकथित जनवादी लेखक-लेखिका वरवर राव, गौतम नवलरवा व अरुंधति राय आदि अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के उस अधिकार के हकदार नहीं है, क्योंकि ये न तो मनुष्य की वैयक्तिक स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे हैं और न मानवीय मूल्यों की रक्षा का ही कोई संघर्ष कर रहे हैं। ये एक लोकतांत्रिक देश को तोड़ने और उसकी शांतिपूर्ण व्यवस्था को भंग करने के अपने षड्यंत्र को आजादी और अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की रामनामी ओढ़ाने को प्रयत्न कर रहे हैं। भारत की केंद्रीय सरकार को भी अपनी वोट बैंक राजनीति के चलते कश्मीर की पूरी राजनीति को इस्लामी राजनीति के नजरिये से ही देखने की आदत पड़ चुकी है। पूर्व राजनयिक जी. पार्थसारथी ने अपने एक आलेख में लिखा है कि यह कैसी विडंबना है कि उस कश्मीर में आज आजादी के नारे गूंज रहे हैं, जो करीब 700 वर्षों तक मंगोलों, अफगानों, मुगलों, सिखों, डोगरा शासन की गुलामी में जीने के बाद भारत की आजादी के साथ आजादी की हवा में सांस लेते हुए अब अपनी इस आजादी को गुलामी की संज्ञा दे रहा है, क्योंकि वह कश्मीर में इस्लामी या शरियत का शासन कायम करना चाहता है। कश्मीरी इस्लामी नेता आज झूठ बोलने में पारंगत हो चुके हैं। आश्चर्य होता है, जब कश्मीर घाटी के वे लोग सेकुलर कश्मीरियत की बात करते हैं, जिन्होंेने पाकिस्तान प्रेरित की बात करते हैं, जिन्होंने पाकिस्तान प्रेरित जिहादियों की खुली मदद करके वहां से करीब 4 लाख कश्मीरी पंडितों को अपना घर बार छोड़कर भागने पर मजबूर कर दिया। आॅल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस के अपने घोषणा पत्र में साफ शब्दों में लिखा गया है कि उसका लक्ष्य ‘इस्लामी मूल्यों पर आधारित एक समाज रचना करना’ तथा ‘मुस्लिम बहुल राज्य’ की स्थापना करना है। हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी ने कभी इस बात को छिपाया भी नहीं कि वह कश्मीर में शरियत का शासन स्थापित करना चाहते हैं। पिछले माह दिल्ली में हुई सेमीनार में भी गिलानी ने यह स्पष्ट किया कि उनके आजाद कश्मीर में शरिया का शासन होगा, लेकिन उसमें गैर मुस्लिमों को अपने मजहब के हिसाब से जीवन जीने की आजादी होगी। उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया था कि अभी तो पूरे कश्मीर में मद्यनिषेध लागू है, लेकिन इस्लामी शासन वाले कश्मीर में उन सबको खुलकर शराब पीने की छूट होगी, जिनका मजहब इसकी इजाजत देता है।

जाहिर है गिलानी जम्मू-कश्मीर के लिए किस तरह की आजादी चाहते हैं। वह आजादी के नाम पर जम्मू-कश्मीर को इस्लामी शरिया की गुलामी में जकड़ना चाहते हैं और आजादी एवं अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की अलंबरदार बनी अरुंधति जैसी लेखिका और जनमुक्ति आंदोलन के सूत्रधार कहे जाने वाले वरवर राव जैसे लेखक उनके स्वर में स्वर मिलाते हुए उनके बगलगीर बने हुए हैं। कश्मीर की आजादी की मांग करने वाले हुर्रियत नेता पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की आजादी की बात कभी नहीं करते। अभी आप कह सकते हैं कि पाकिस्तान ने खुद इस इलाके को आजाद कश्मीर का नाम दे रखा है। लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि उस इलाके का केवल नाम आजाद है। और फिर मान लें कश्मीर का वह हिस्सा आजाद है, परंतु गिलगिल और बल्टिस्तान के बारे में उनकी क्या राय है, यह उन्होंने कभी नहीं बताया। पश्चिमोत्तर कश्मीर का वह इलाका तो सीधे इस्लामाबाद के शासन में है। फिर जम्मू-कश्मीर के उस 20 प्रतिशत हिस्से के बारे में उनका क्या कहना है, जो चीन के कब्जे में है। कुछ इलाके पर चीन ने सीधे कब्जा कर लिया है और कराकोरेम का कुछ इलाका पाकिस्तान ने उसे उपहार में दे दिया है। पाकिस्तान का आजाद कश्मीर कितना आजाद है, इसका पता हमें स्पष्ट रूप से पाक अधिकृत कश्मीर के उस संविधान से मिल सकता है, जो 1974 में बना था। इसमें साफ लिखा हुआ है कि ‘पाक अधिकृत कश्मीर का संविधान ऐसे किसी भी राजनीतिक गतिविधि का निषेध करता है, जो इस सिद्धांत के विरुद्ध है कि जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा है।’ अभी कुछ वर्ष पूर्व यूरोपीय संसद ने (24 मई 2007 को) को एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें कहा गया था कि गिलगिल-बाल्टिस्तान में तो किसी भी तरह का लोकतंत्र उपलब्ध नहीं है और तथाकथित आजाद कश्मीर में भी किसी को किसी तरह की राजनीतिक आजादी नहीं है। यहां देश भर के लोगों को शायद यह न पता हो कि आॅल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस में शामिल प्रायः सभी बड़े घटक दलों का किसी न किसी आतंकवादी या जिहादी संगठन से संबंध है। मीर वायज उमर फारुख उदारवादी हुर्रियत नेता समझे जाते हैं, किंतु उन्हें उल उमर मुजाहिदीन जैसे जिहादी संगठन का समर्थन प्राप्त है। सैयद अली शाह गिलानी, हिजबुल मुजाहिदीन के कंधे पर सवार हैं, यह प्रायः सबको पता है। पाकिस्तान के सैनिक मुख्यालय रावलपिंडी में बैठे सैनिक अफसर हुर्रियत कांफ्रेंस का संचालन करते हैं। पाकिस्तान में सत्ता के समीकरण बदलते हैं, तो कश्मीरी संगठनों का ढांचा बदल जाता है। पाकिस्तान के राष्ट्र्पति परवेज मुशर्रफ की सैयद अली शाह गिलानी के नेता काजी हुसैन अहमद से तनातनी शुरू हो गयी थी, तो उन्होंने मीरवायज उमर फारुक को हुर्रियत का नेता बनवा दिया। इस पर गिलानी ने अलग होकर अपना अलग गुट खड़ा कर लिया। मुशर्रफ के हटते ही मीरवायज का असर कम हो गया। अब पाक सेनाध्यक्ष का जमाते इस्लामी के नेताओं से फिर संंबंध अच्छा हो गया, तो कश्मीर में गिलानी सर्वशक्तिमान हो गये। भारत सरकार द्वारा कश्मीर समस्रूा का समाधान खेजने के लिए नियुक्त वार्ताकार कश्मीर में जिन लोगों से बातचीत कर रहे हैं, उनमें से कोई भी कश्मीर की राजनीति में कोई महत्व नहीं रखता। हुर्रियत का कोई नेता उनसे बातचीत के लिए तैयार ही नहीं है, लेकिन यदि वे तैयार भी होते, तो उनसे बातचीत का कोई अर्थ नहीं था, क्योंकि वे सबकी सब कठपुतलियां हैं, जिनका सूत्रधार कहीं इस्लामाबाद व रावलपिंडी में बैठा हैै।

भारतीय संविधान के अंतर्गत चुनाव लड़कर सत्ता हासिल करने वाली कश्मीरी पार्टियां भी भारत या भारत के संविधान के प्रति ईमानदार नहीं है। फारुख अब्दुल्ला आज यह भले ही कह रहे हों कि भारत मे बोलने की आजादी कुछ अधिक ही मिली हुई है, लेकिन इस बात से शायद ही कोई इनकार करे कि उनके पिता शेख अब्दुल्ला ने ही कश्मीर को इस्लामी राज्य बनाने का सपना देखा था और आज उनके बेटे उमर अब्दुल्ला भी धड़ल्ले से कह रहे हैं कि कश्मीर ने भारत से कुछ शर्तों के साथ जुड़ना स्वीकार किया था, उसका कभी भारत के साथ विलय नहीं हुआ था। आज वे यह कह रहे हैं कि कश्मीर को 1953 के पूर्व की स्थिति चाहिए। आखिर क्यों ?

असल में जबसे कश्मीर घाटी में अब्दुल्ला परिवार की नेशनल कांफ्रंेस पार्टी की प्रतिद्वंद्वी पार्टी के रूप में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी -पी.डी.पी.- सामने आयी, तबसे उन दोनों ने अलगाववादी कश्मीरियों का समर्थन पाने के लिए पाकिस्तान समर्थित कश्मीरी नेताओं का स्वर अलापना शुरू कर दिया है। अब 1953 के पूर्व की स्थिति बहाल करने की बात दोनों करने लगे हैं। अरुंधति राय तो खैर उसके भी कई कदम आगे की बातें करने लगी हैं, लेकिन यदि 1953 के पूर्व की स्थिति बहाल कर दी जाए, तो उसका अर्थ होगा देश के किसी हिस्से का कोई व्यक्ति यदि जम्मू-कश्मीर जाना चाहेगा, तो उसे वहां का परमिट लेना पड़ेगा। सुप्रीमकोर्ट, चुनाव आयोग तथा आडीटर व कंट्र्ोलर जनरल का जम्मू-कश्मीर पर कोई प्रभाव नहीं रह जाएगा। यही नहीं, तब देश के अन्य भागों से आने वाले मान पर जम्मू-कश्मीर की सरकार टैक्स लगा सकेगी।

ये सब तो वे बातें हैं, जिसे किसी हद तक स्वीकार करने लिए हमारे देश की सरकार भी तैयार है। जनमत के भारी विरोध का डर न हो, तो इसे अब तक लागू कर दिया गया होता। लेकिन सरकार की नरमी का फायदा उठाकर अब कश्मीर अलगाववादी नेता पूर्ण स्वतंत्रता की मांग कर रहे हैं। यह सभी जानते हैं कि कश्मीर स्वतंत्र नहीं रह सकता। स्वतंत्रता की बात करना तो विश्व जनमत का समर्थन प्राप्त करने का एक बहाना है। भारत से आजादी मिले, फिर तो वे पाकिस्तान के साथ मिलने के लिए यों ही स्वतंत्र हो जाएंगे और ऐसा न भी हो तो पाकिस्तानी सेना एक दिन में उसे पाकिस्तान का हिस्सा बना देगी और अमेरिका और चीन जैसे देश उसका समर्थन भी कर देंगे।

वास्तव में इस देश को तथा दुनिया को कश्मीर आंदोलन के मूल चरित्र को समझने की जरूरत है। यह वास्तव में इस्लामी विस्तारवाद की लड़ाई है। यह 1947 में भारत के विभाजन की लड़ाई का अवशिष्टांश् है। यह न कश्मीरियत की लड़ाई है, न कश्मीर की आजादी की, यह इस्लामी सम्राज्यवाद की लड़ाई है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर की 45 प्रतिश्त से अधिक आबादी कश्मीरी नहीं है, जिसमें डोगरा, पंजाबी, पहाड़ी, गुज्जर, बकरवाल, बौद्ध, शिया आदि शामिल हैं। जम्मू और लद्दाख के लोग कतई जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग नहीं होने देना चाहते। घाटी के भी 4 लाख हिन्दू पंडित बाहर न भगा दिये गये होते, तो पूरी घाटी को भी अलगाववादी नहीं कहा जा सकता था। फिर वह कौनसा कश्मीरी वर्ग है, जो भारत से आजादी चाहता है। वह है वहाबी आंदोलन से प्रभावित सुन्नी मुसलमानों का वह समुदाय, जिसने अपनी निष्ठा पाकिस्तान के हाथ बेंच रखी है। उनकी आजादी की आवाज वस्तुतः पूरे जम्मू-कश्मीर को शरिया का गुलाम बनाने की आवाज है। ऐसी आजादी के नारे को अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की आजादी के पवित्र वस्त्र से नहीं ढका जा सकता। अरुंंधति राय गुलामी की आवाज का समर्थन कर रही है। वह अपने मामूली स्वार्थों के लिए पूरे जम्मू-कश्मीर की आजादी को पाकिस्तानी सैनिक व मजहबी तानाशाही का गुलाम बनाने वाली आवाज के साथ अपनी आवाज मिला रही हैं।

भारत सरकार ने अरुंधति राय के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई न करने का निर्णय लेकर यों बुद्धिमानी का निर्णय किया है, लेकिन उसकी पूरी कश्मीर नीति बेहद कमजोर और कायरतापूर्ण है। उसे साफ घोषणा करनी चाहिए कि कश्मीर को इस्लामी साम्राज्य की मजहबी तानाशाही की गोद में नहीं जाने दिया जा सकता। इस मोर्चे पर अब देश के आम नागरिकों तथा बुद्धिजीवियों को आगे आने की जरूरत है। उन्हें आजादी लोकतंत्र व मानवाधिकारों की ओर लेकर इन सबकी सामूहिक हत्या करने वालों के षडयंत्र का पर्दाफाश करना चाहिए। कश्मीर को लेकर देश ही नहीं, पूरी दुनिया में चल रहे कुप्रचार के जाल को तोड़ने की जरूरत है। और इससे भी ज्यादा जरूरी है अरुंधति राय जैसी निहित स्वार्थी बुद्धिजीवियों की बौद्धिक जालसाजियों का पर्दाफाश करना।

अभिव्यक्ति स्वतंत्रता मानवीय स्वतंत्रता के उद्घोष  का आंदोलन है। यह आंदोलन है सामंती तानाशाही व मजहब की गुलामी से मुक्ति का। लेकिन यदि कोई आंदोलन किसी एक भू क्षेत्र की पूरी जनसंख्या को पुनः मजहबी गुलामी के दौर में ले जाना चाहता हो, तो मनुष्यता का तकाजा है कि उसका जी जान से विरोध किया जाए और वैयक्तिक आजादी व विचारों की वास्तविक आजादी के लिए हर  तरह के संघर्ष एवं बलिदान का संकल्या लिया जाए। (7.11.2010)

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

अभिव्यक्ति और राष्ट्रद्रोह [सेडिशन] के अंतर को समझने की सलाहियत इन बुद्धिजीवियों, मानवाधिकारियों, धर्मनिरपेक्षवादियों को हो जाय तो शायद आज भारत की यह दयनीय राजनीतिक परिस्थिति नहीं होती।