रविवार, 4 जुलाई 2010

kaldwel

राबर्ट काल्डवेल से करुणानिधि तक


दुनिया की सभी भाषाएं सम्मानित हैं और अपने देश की सभी भाषाएं तो सम्माननीय हैं ही। तमिल इस देश की निश्चय ही एक समृद्ध और प्राचीन भाषा है। फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वह भारत की एक भाष है। लेकिन यदि कोई   इस भाषा को भारत के भी उपर स्थापित कर दे और इसे बोलने वालों को भारत की शेष सारी जातियों से अलग एक विशिष्ट जाति सिद्ध करने की कोशिश करे, तो उसे क्या कहेंगे? औपनिविशिक काल में ईसाई मिशनरियों ने भारत को तोड़ने के लिए और दक्षिण भारत को पारंपरिक संस्कृति से अलग कर ईसाई धर्म में दीक्षित करने के लिए आर्य और द्रविण का एक मिथ गढ़ा था। दक्षिण में बिशप राबर्ट काल्डवेल इसके पुरोधा थे, लेकिन अफसोस कि उस काल्डवेल के मिशन को आगे बढ़ाने में आज के अपने देशी राजनेता लगे हुए हैं और अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ के लिए पूरे देश की अस्मिता पर कुठाराघात कर रहे हैं।


     पहला विश्व तमिल सम्मेलन (वल्र्ड तमिल कांफ्रेंस)अप्रैल 1966 में क्वालालाम्पुर में हुआ था। तमिलनाडु ने उस सम्मेलन से प्रेरणा लेकर उसमें शामिल प्रतिनिधियों व विद्वानों को बुलाकर दूसरा सम्मलेन 1968 में मद्रास में किया। इस सम्मेलन के दौरान मेरीना बीच पर 10 तमिल संत कवियों व साहित्यकारों की प्रतिमाएं लगायी गयी। उसके बाद इस सम्मेलन की श्रिंखला चल निकली, किंतु प्रायः प्रत्येक सम्मेलन आयोजकों की प्रशंसा व यशोगान का आयोजन बनकर रह गया। इस बार का कोयम्बटूर सम्मेलन भी कुछ भिन्न नहीं कहा जा सकता। यह मुख्यमंत्री एवं द्रविणमुनेत्र कषगम के अध्यक्ष एम. करुणानिधि की यशोगाथा का आयोजन था ।

निश्चय ही दुनिया की हर भाषा का अपना विशिष्ट महत्व है। भारत में तमिल भाषा की प्राचीनता और समृद्धि को लेकर कोई विवाद नहीं है। उसे शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने की घोषणा की गयी, तो प्रायः पूरे देश में प्रसन्नता व्यक्त की गयी। अंग्रेजों ने भारत में संस्कृत के अतिरिक्त अरबी और फारसी को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देकर उसके विशेष रूप से अध्ययन-अध्यापन की परंपरा शुरू की थी, जिसे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने भी जारी रख। अब यदि अरबी और फारसी को यहां शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिल सकता है, तो तमिल और तेलुगु जैसी भाषाओं को क्यों नहीं। तमिल का प्राचीनतम साहित्य 300 वर्ष ईसा पूर्व का है। उसके प्राचीनतम साहित्य संगम साहित्य का काल ईसा पूर्व 300 से लेकर ईसा की तीसरी शताब्दी तक माना जात है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को अब तक जितने पुरा अभिलेख प्राप्त हुए हैं, उनमें 55 प्रतिशत से अधिक (करीब 55,000)तमिल भाषा के हैं। 2001 के सर्वे के अनुसार तमिल भाषा में 1863 समाचार पत्र प्रकाशित होते हैं, जिनमें से 353 दैनिक हैं। आशय यह कि तमिल निश्चय ही एक समर्थ, व्यापक स्वीकृतिवाली शास्त्रीय भाषा है। देश से बाहर कम से कम दो देशों श्रीलंका और सिंगापुर में उसे राजभाषा का सम्मान प्राप्त है, लेकिन अब यदि एम. करुणानिधि यह कहने लगे कि तमिल दुनिया की सारी भाषाओं की जननी है और वाल्मीकि के पहले भी उसमें साहित्य रचा जाता था, तो यह बात शायद लोगों के गले के नीचे नहीं उतर सकती। जिस भाषा का सम्मेलन हो, उसमें उसकी प्रतिष्ठा और सम्मान में कुछ अतिशयोक्ति का इस्तेमाल भी चलता है, लेकिन उसके आयोजनकर्ता यदि राजनीतिक लोग हों और आयोजन सरकारी स्तर पर हो रहा हो, तो उससे कुछ अतिरिक्त शालीनता की अपेक्षा की जाती है।
     इस सम्मेलन में घोषणा की गयी कि तमिल  दुनिया की सर्वाधिक प्राचीन और सर्वाधिक गरिमामयी (ओल्डेस्ट एंड प्राउडेस्ट)भाषा है। यही नहीं उद्घाटन के बाद के दूसरे दिन के सेमीनार का विषय था ‘ऐंगम तमिल, एथिलम तमिल’ (हर जगह तमिल हर चीज में तमिल }।इस  की अध्यक्षता करते हुए करुणानिधि ने तमिल को प्रायमरी स्तर से शिक्षा में अनिवार्य करने की घोषणा की और कहा कि ‘शास्त्रीय तमिल संघों’ का गठन किया जाएगा और जहां कहीं भी तमिल हैं, वहां इसकी शाखाएं स्थापित की जाएंगी। इस सेमीनार में तमाम राजनीतिक दलों के करीब 20 वक्ताओं ने भाग लिया और सभी ने दलगत भेदभाव छोड़कर तमिल भाशा  को प्रोत्साहन देने का आह्वान किया।

यहां यह उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत की भाषाओं को एक अलग भाषा समूह बनाने और उसे एक नया नाम देने का काम आइरिश मिशनरी राबर्ट काल्डवेल ने किया। वह एक इवेंजलिस्ट मिशनरी थी, जिसने ईसाई धर्म प्रचार तथा भारतीय और श्रीलंका के तमिलों के धर्मपरिवर्तन के लिए स्थानीय भाषा को आधार बनाया। भारत में वह पहला व्यक्ति है, जिसने बताया कि तमिल तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और तुलू एक अलग भाषा परिवार है, जो ‘इंडो-आर्यन’ भाषाओं से एकदम भिन्न है। उसने ही इसे ‘दविण भाषा समूह’ का नाम दिया। उसकी शब्दावली को लेकर ही आज करुणानिधि साहब कह रहे हैं कि तमिल अपने ऐतिहासिक विकास क्रम में न केवल अकेले खड़ी रही है, बल्कि यह बिना संस्कृत की मदद के विकसित हुई है। इसका उत्तर की तथाकथित आर्यभाषाओं से न केवल कोई संबंध नहीं है, बल्कि यह उनसे प्राचीनतर भी है।

बिशप राबर्ट काल्डवेल (1814-1891)ने अपने धर्मप्रचार के लिए भाषाई विभाजन को आधार बनाया। उसने उन दिनों यूरोपीय बुद्धिजीवियों में फैली नस्ली धारणा (जो अब पूरी तरह गलत साबित हो चुकी है)का इस्तेमाल भारत को भाषा आधारित नस्लों में विभाजित करने में किया और दक्षिण भारतीय लोगों को पारंपरिक भारतीय धर्मदर्शन से अलग करके ईसाइयत में दीक्षित करने का अभियान चलाया। उसने तमिलनाडु में ‘दविण राष्ट्र्वाद’ की पीठिका स्थापित की और श्रीलंका में भी ‘नस्ली ध्रुवीकरण’ का काम किया। यह उसी का षड्यंत्र था, जिसने श्रीलंका को सिंहली और तमिल खेमों में विभाजित किया। काल्डवेल के सिद्धांतों को ही इस्तेमाल करके अंग्रेज शासकों ने तमिल समुदाय को इस देश की सांस्कृतिक परंपरा से अलग किया। इसका ही परिणाम हुआ कि आधुनिक तमिल अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कअ गयी। एम. करुणानिधि ने ही इस सम्मेलन के लिए जो प्रतीक गीत लिखा था, उसमें उन्होंने कम्बन का नाम नहीं शामिल किया था, क्योंकि उन्होंने ‘रामकथा’ लिखी थी। लेकिन भारी विरोध उठ खड़ होने पर उन्होंने कम्बन का नाम उसमें शामिल किया। आज के तमिल राजनेता तो संत तिरुवल्लुअर आदि का भी नाम शामिल न करते, लेकिन भाषा और साहित्य की प्राचीनता प्रमाणित करने के लिए उनका नाम शामिल करना अनिवार्य हो गया। आज की तमिल के बारे में यदि कहा जाए, तो उसकी कोई स्पष्ट सांस्कृति पहचान नहीं है। इसीलिए इस सम्मेलन के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता कर रहे श्रीलंका के तमिल विद्वान के. शिवथम्बी ने इस बात को गर्व से कहा कि तमिल भाषा ने ईसाई, इस्लाम, शैव, बौद्ध, वैष्णव आदि कई धर्मों को अपने में स्थान दिया है।

काल्डवेल ने तिन्नेवेली (तिरुनेरवेली)जिले को अपना अड्डा बनाया। वह लंदन मिशनरी सोसायटी का सदस्य था, बाद में वह ईसाई धर्मप्रचार का संगठन ‘सोसायटी फॉर प्रोवेगेशन आॅफ द गास्पेल मिशन’ (एस.पी.जी.)में शामिल हो गया। 24 वर्ष की आयु में वह मद्रास पहुंचा। यहां उसने त्रावणकोर के प्रतिष्ठित मिशनरी रेवरेंड चाल्र्स माल्ट एलिजा माल्ट से शादी कर ली। एलिजा माल्ट तमिल औरतों में काम करती थी। काल्डवेल ने यह अनुभव किया कि तमिलों को भाषा और नस्ल के आधार पर राम, कृष्ण तथा वैदिक धर्मों से अलग किया जा सकता है, तो उसने उसी को अपने प्रचार का आधार बनाया।

काल्डवेल का मिशन करीब 50 वर्षों तक चला। उसने दक्षिण भारतीयों को नस्ल और भाषा के आधार पर अलग करने के लिए किताबें लिखीं। और उसके इन्हीं प्रयत्नों से तमिलनाडु में ‘नान ब्रहमिन मूवमेंट’ (ब्राह्मण परंपरा विरोधी अभियान)की स्थापना हुई। अफसोस की बात यह है कि भारत को सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक दृष्टि से विभाजित करने वाले इस व्यक्ति का आज की भारत सरकार भी सम्मान कर रही है। अभी 7 मई 2010 को काल्डवेल को सम्मानित करने के लिए 5 रुपये का एक डाक टिकट जारी किया गया।

काल्डवेल के ही काम को उन यूरोपीय इतिहासकारों ने आगे बढ़ाया, जिन्होंने सिंधु घाटी की सभ्यता (हड़प्पा, मोहन जोदड़ो संस्कृति)को द्रविण जाति के साथ जोड़ दिया। मात्र कल्पना के आधार पर यह इतिहास लिख दियाग या कि हड़प्पा संस्कृति अनार्य संस्कृति थी और आर्य हमलावरों ने इस संस्कृति का नाश किया, जिसके कारण यहां के निवासी सुदूर दक्षिण भारत में जा बसे। आज तक किसी भी आधार पर द्रविण और तमिल में कोई समानता या निकटता नहीं सिद्ध हो सकी है, लेकिन द्रविण और तमिल का एकीकरण कर दिया गया और तमिल भाषा और संस्कृति को सिंधु घाटी की हड़प्पा सभ्यता और उसकी भाष से जोड़ दिया गया।

हड़प्पा सभ्यता की मुहरों पर अंकित संकेत लिपि अब तक पढ़ी नहीं जा सकी है। जो कुछ अब तक अध्ययन हुआ है, ससे केवल यही संकेत मिलता है कि इस देश में प्रचलित प्राचीनतम ब्राह्मीलिपि संभवतः इसी हड़प्पा की संकेत लिपि से विकसित हुई है। वस्तुतः हड़प्पा संस्कृति काल (ई.पू. 3500 से 2500)की संकेत लिपि के बाद छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक कोेई दूसरी लिपि नहीं मिल सकी है। हड़प्पा लिपि के बाद सीधे ‘ब्राह्मी लिपि’ प्राप्त होती है, जिसका प्राचीनतम प्रमाण छठी शताब्दी ईसा पूर्व के एक अस्थिकलश पर अंकित है। इसके बारे में अनुमान है कि इसमें भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेष है। यह कलश बिहार के पिपरहवा नामक स्थान से प्राप्त हुआ है।

ब्राह्मी लिपि से हड़प्पा चित्रलिपि की निकटता सिद्ध की जा सकती है। लिपियों के विकास के वैज्ञानिक सिद्धांत के अनुसार भी हड़प्पा की चित्र लिपि से ब्राह्मी की वर्णलिपि विकसित हो सकती है। उसकी बीच की कड़ी अब तक उपलब्ध नहीं हो सकी है, लेकिन उसका अनुमान लगाया जा सकता है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि प्राचीन तमिल अभिलेख भी वास्तव में ब्राह्मी लिपि में ही है। जाहिर है कि तमिल लिपि भी ब्राह्मी से ही विकसित हुई होगी। लेकिन यहां तो यह भी ध्यान देने की बात है कि भारत की प्रायः सारी आधुनिक लिपियां ब्राह्मी से ही विकसित हुई हैं। निश्चय ही ब्राह्मी केवल तमिल तक समिति नहीं है। लेकिन ऐसे यूरोपीय विद्वानों की अभी भी कमी नहीं है, जो हड़प्पा लिपि को तमिल लिपि से और हड़प्पा निवासयों की भाषा को तमिल भाषा से तथा हड़प्पा में रहने वालों को तमिल जाति से जोड़ने का उपक्रम करते रहते हैं। ऐसे ही एक विद्वान हैं फिनलैंड के हेलसिंकी विश्वविद्यालय के ‘विश्व संस्कृति संस्थान’ (इंस्टीट्यूट आफ  वल्र्ड कल्चर)में भारत विद्या (इंडोलॉजी)के प्रोफेसर एमिरेट आस्को पारपोला, जो कोयम्बटूर के इस सम्मेलन में शामिल हुए। उन्हें ‘कलैनार एम. करुणानिधि क्लासिकल तमिल रिसर्च एंडाउमेंट लेक्चर’ के लिए आमंत्रित किया गया है। इस लेक्चर में उन्होंने अनेक कल्पित तर्को से यह सिद्ध किया हड़प्पा के लोग द्रविण यानी तमिल भाषा बोलते थे। बुधवार के उद्घाटन समारोह में उन्हें ‘कलैनार एम. करुणानिधि क्लासिकल तमिल एवार्ड-2009’ से सम्मानित किया गया, क्योंकि करुणानिधी की  ‘थियरी’ के वह सबसे बड़े पोषक हैं। इस सम्मान को प्राप्त करते हुए उन्होंने तमिल भाषा विद्वानों का आह्वान किया कि वे पूरी सक्रियता से उस अनुसंधान कार्य में लग जाएं, जिससे यह अच्छी तरह पुष्ट हो सके कि हड़प्पावासियों की भाषा प्राग्द्रविण (प्रोटोद्रविदीयन)भाषा ही थी।

पापपोला के ही तथाकथित शोध के आधार पर करुणानिधि तमिल को दुनिया की सभी भाषाओं की मां बता रहे हैं। दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में यूनान और रोम की गणना होती है। सिंधु घाटी में हड़प्पा और मोहनजोदड़ों जैसे शहरों के मिलने के बाद सिंधु घाटी की सभ्यता दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता सिद्ध हुई। अब इसे द्रविण सभ्यता से ही नहीं, तमिल नस्ल से और तमिल भाषा से भी जोड़ दिया गया है। अब यदि तमिल जाति के लोग दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता के वंशज व उत्तराधिकारी हैं और उनकी भाषा व लिपि दुनिया के सबसे पुराने सभ्य शहरी लोगों की भाषा व लिपि से विकसित हुई है, तो वे दुनिया की ‘सबसे पुरानी और सबसे अधिक गौरवशाली’ जाति व संस्कृति उत्तराधिकारी हुए ही।

अब यदि यह सब सप्रमाण सिद्ध हो भी जाए, तो क्या इसके आधार पर फादर काल्डवेल वाला उत्तर विरोधी सांस्कृतिक आंदोलन चलाने का कोई औचित्य है। तमिलनाडु क्या भारत से अलग अपनी पहचान बनाने के लिए व्याकुल है। आश्चर्य है कि यूरोपीय मिशनरियों ने भारत को तोड़ने के लिए जिस इतिहास की रचना की उसे हम आज की अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करने में लगे हुए हैं। हम उस अनुसंधान की बात नहीं कर रहे हैं, जो देश को जोड़ने वाला है, हम उस अनुसंधान में अपनी शक्ति लगाना चाहते हैं, जिससे देश में विखंडन की प्रवृत्ति आगे बढ़े। हम सर्वश्रेष्ठ हैं और सब हमसे हीन हैं, यह प्रवृत्ति ही आज दुनिया और मनुष्यता की सबसे बड़ी शत्रु बनी हुई है।

काल्डवेल के समय का पूरा इतिहास असत्य सिद्ध हो चुका है। हड़प्पा संस्कृति के परवर्ती काल के अवशेष गुजरात से उत्तर प्रदेश तक बिखरे हुए हैं, जबकि उस संस्कृति का कोई प्रमाण दक्षिण में उपलब्ध नहीं है।

वास्तव में करुणानिधि को न तो इतिहास से कुछ लेना देना है, न संस्कृति से, उन्हें तो तमिलनाडु में अपने परिवार की राजनीतिक सत्ता को मजबूत करना है। वह अपने को तमिल भाषा व संस्कृति का सबसे बड़ा आधुनिक मसीहा सिद्ध करना चाहते हैं, जिससे आने वाली तमिल पीढ़ियां उन्हें अन्नादुरई से भी अधिक सम्मान व प्रतिष्ठा दे सकें। लेकिन वे यह काम इस देश में सांस्कृतिक भेद की दीवार खड़ी किये बिना भी तो कर सकते थे। (27.6.2010)