भोपाल गैस त्रासदी के 25 साल से अधिक गुजर गये हैं। एक ऐसी त्रासदी जिसकी कल्पना से भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन इन 25 वर्षों में इसे लेकर जो राजनीतिक व न्यायिक प्रक्रिया का खेल खेला गया, वह और भी अधिक त्रासद है। इतना बड़ा अपराध, जिसमें 22 हजार से अधिक लोग मारे गये और 6 लाख से अधिक पीड़ित हुए, उसके लिए किसी को एक घंटे की भी सजा नहीं। कहने को 7 लोगों को 2-2 वर्ष के कारावास की सजा दी गयी, लेकिन कोई एक मिनट के लिए भी जेल नहीं गया। तमाम लोग एंडर्सन के पीछे पड़े हैं, लेकिन भोपाल कांड के असली अपराधी तो इस देश के ही हैं। और एंडर्सन को भी न्याय की पहुंच से दूर पहुंचाने वाले भी इस देश के ही लोग हैं। आखिर उनके लिए सजा का कौनसा प्रावधान है।
अब से करीब 26 वर्ष पूर्व भोपाल मेंे एक भयावह औद्योगिक दुर्घटना हुई थी (जो पूरी दुनिया की अब तक की सबसे बड़ी दुर्घटना मानी जाती है) जिसमें 22000 से अधिक लोग (अधिकृत आंकड़ा 15134) मारे गये थे और करीब 6 लाख लोग प्रभावित हुए थे, यानी विभिन्न स्तर की विकलांग जिंदगी जीने के लिए मजबूर हुए थे। इनमें भी तब से हर दिन औसतन एक व्यक्ति की उस दुर्घटना के प्रभाव से मौत हो रही है।
2-3 दिसंबर 1984 की रात मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के शहरी इलाके में स्थित ‘यूनियन कार्बाइड इंडिया लि. (यूसीआईएल)’ के कीटनाशक कारखाने का अत्यंत विषैली गैस ‘मिथाइल आइसो साइनेट’ (मिक) से भरा टैंक फट गया था और इस घातक गैस ने शहर के एक बड़े भाग को अपनी चपेट में ले लिया था। पहले ही दिन 4000 से अधिक लोग मारे गये और फिर तो मौतों का सिलसिला चल निकला, जिसके आंकड़े 22 हजार की संख्या भी पार कर गये।
यह ऐसी दुर्घटना थी कि पूरा देश दहल उठा। उस समय केंद्र और राज्य दोनों ही स्थानों पर कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। केंद्र में राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और राज्य में ठाकुर अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री। देश में उपचुनाव होने वाले थे। प्रधानमंत्री राजीव गांधी चुनाव प्रचार अभियान पर थे। वह प्रचार अभियान बीच में छोड़कर भोपाल आए और पीड़ितों से मिले। 3 दिसंबर को नगर के हनुमान गंज पुलिस स्टेश्न पर घटना की प्राथमिक रिपोर्ट पुलिस ने दर्ज की, जिसमें यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन के अध्यक्ष एवं मुख्य कार्यकारी अधिकारी वारेन एंडर्सन सहित 14 लोगों के उूपर आरोप दर्ज किया गया। कुछ ही दिनों के भीतर इस पूरे कांड की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सी.बी.आई.न) को सौंप दी गयी। दुर्घटना की खबर पाकर स्थिति का जायजा लेने के लिए यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन (यू.सी.सी.) के अध्यक्ष वारेन एंडर्सन 7 दिसंबर को प्रातः भोपाल पहुंच। वह दुर्घटना स्थल पर जाकर स्थिति का जायजा लेना चाहते थे, किंतु भोपाल के जिलाधिकारी (कलक्टर) मोती सिंह और पुलिस अधीक्षक ने हवाई अड्डे पर पहुंचकर उन्हें सूचित किया कि उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है। उनके साथ यूसीआईएल के अध्यक्ष केशव महेंद्र तथा उपाध्यक्ष विजय प्रकाश गोखले भी थे। उन तीनों को गिरफ्तार कर लिया गया, क्योंकि उन तीनों के नाम एफ.आई.आर. में थे। उन्हें गिरफ्तार करके किसी सरकारी कार्यालय में नहीं, बल्कि यूनियन कार्बाइड के अतिथि गृह (गेस्टहाउस) में ले जाया गया। बताया जाता है कि एंडर्सन के कमरे में टेलीफोन था, जिससे उन्होंने अपने संपर्क वाले उच्चाधिकारियों को संपर्क किया। किसे संपर्क किया, यह नहीं मालूम, लेकिन उसके बाद फौरन उनकी रिहाई की प्रक्रिया शुरू हो गयी और उन्हें ससम्मान वापस दिल्ली भेजने का प्रबंध किया जाने लगा। उन तीनों को वहीं फटाफट गेस्टहाउस में ही जमानत हो गयी और एंडर्सन को राज्य सरकार के विशेष विमान से अपराह्न दिल्ली के लिए रवाना कर दिया गया। उनसे कहा गया कि उनका यहां रहना ठीक नहीं है, इसलिए वे फौरन निकल जाएं। एंडर्सन दिल्ली पहुंचने के शायद तुरंत बाद न्यूयार्क के लिए रवाना हो गये। उनके साथ उस विशेष विमान में कोई और गया या नहीं, इसकी सही-सही जानकारी नहीं है। केशव महेंद्र और विजय प्रकाश गोखले की आगे की कहानी का भी पता नहीं है।
अब सबसे अहम सवाल यह उठता है कि इतनी भयावह दुर्घटना के जिम्मेदार अधिकारियों को इस तरह गिरफ्तार करने के बाद क्यों छोड़ दिया गया ? और छोड़ ही नहीं दिया गया, उन्हें राज्य सरकार के किसी विशेष राजकीय अतिथि की तरह राज्य सरकार के विमान से दिल्ली भेजा गया और कभी वापस न लौटने के लिए न्यूयार्क रवाना करा दिया गया। यह सब कैसे हुआ ? किसके आदेश से हुआ? वह कौन व्यक्ति है, जिसे अपने देश के हजारों पीड़ित नागरिकों के बजाए उसकी सुरक्षा की चिंता अधिक थी, जो इन हजारों लोगों की मौता और लाखों लोगों की असीमित पीड़ा का उत्तरदायी था?
हनुमानगंज पुलिस थाने के प्रभारी सुरेंद्र सिंह के अनुसार दुर्घटना के बाद उसके जिम्मेदार लोगों के विरुद्ध भारतीय दंड विधान संहिता (आई.पी.सी.) की धारा 304 (ए), 120 (बी) 278, 284, 426 व 429 के अंतर्गत मुकदमा दर्ज किया गया था। इनमें से 304 (ए) गैरजमानती है। यानी इसकी जमानत पुलिस नहीं ले सकती। खबर है कि एंडर्सन व महेंद्र को जमानत दिलाने के लिए एफ.आई.आर. में से 304 (ए) को हटवा दिया गया -बाद में आगे चलकर सी.बी.आई. ने एंडर्सन, महेंद्र और गोखले पर 304 (प्प्) लगाने की संस्तुति की थी, किंतु उस समय सर्वोच्च न्यायालय ने से 304 (ए) में बदल दिया था। 304 (प्प्) में यदि मुकदमा चलता, तो अपराध सिद्ध होने पर अभियुक्तों को अधिकतम 1 0 वर्ष कैद की सजा हो सकती थी, किंतु 304 (ए) में अधिकतम केवल 2 साल की सजा तथा 1 लाख जुर्माना करने का प्रावधान है और उसमें भी दोषी को तत्काल जमानत भी मिल सकती है। मतलब यह कि दो साल के कारावास की सजा मिल भी जाए, तो अभियुक्त को जेल न जाना पड़े और फौरन मामूली मुचलके पर जमानत मिल जाए। गत 7 जून को वही हुआ कि भोपाल के सत्र न्यायाधीश ने जिन 7 लोगों को 2-2 साल की कैद की सजा सुनाई, उन सबको तत्काल जमानत भी दे दी और वे सजा सुनकर आराम से अपने अपने घर चले गये। कोई भी पूछ सकता है कि किसके आदेश पर यह सारी कार्रवाई हुई। भोपाल के जिलाधिकारी मोती सिंह का कहना है कि उन्हें राज्य के मुख्य सचिव ब्रह्मस्वरूप से निर्देश प्राप्त हुआ थ कि एंडर्सन की तत्काल रिहाई का इंतजाम करके उन्हें वापस भेजना है। उनके ही निर्देश पर पुलिस ने आगे की कार्रवाई की और पुलिस अधीक्षक स्वराजपुरी ने पुलिस के स्तर की सारी व्यवस्था की। मुख्य सचिव ब्रह्मस्वरूप का निधन हो चुका है। इसलिए उनसे किसी बात की पुष्टि नहीं हो सकती, किंतु ब्रह्मस्वरूप के परिवार के लोग मोती सिंह के बयान से बहुत आहत हैं। ब्रह्मस्वरूप के एक संबंधी डॉ. रामस्वरूप का कहना है कि मोती सिंह राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के खास आदमी हैं, इसलिए वह अर्जुन ंिसंह को बचाने के लिए सारे आरोप उस व्यक्ति पर मढ़ रहे हैं, जो अब इस दुनिया में नहीं है। यदि ब्रह्मस्वरूप ने कोई निर्देश दिया भी होगा, तो वह मुख्यमंत्री अर्जुन ंिसंह के कहने पर ही दिया होगा। एंडर्सन की रिहाई और उन्हें विशेष विमान से बाहर भेजने का कार्य बिना मुख्यमंत्री की अनुमति या बिना उनके निर्देश के नहीं हो सकता। कम से कम राज्य सरकार का विमान तो मुख्यमंत्री की अनुमति के बिना एंडर्सन को लेकर नहीं जा सकता था। उस विशेष विमान के पायलट के अनुसार उस विमान से एंडर्सन दिल्ली ले जाने का संदेश मुख्यमंत्री आवास से आया था। अब इस प्रकरण पर तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह चुप्पी साधे हुए हैं। उनका कहना है कि वे उचित समय आने पर ही इस बारे में अपना मुंह खोेलेंगे। वास्तव में यहां लाख टके का सवाल यह उठाया जा रहा है कि यूनियन कार्बाइट कार्पोरेशन (अमेरिका) के अध्यक्ष एंडर्सन को गिरफ्तारी से छुड़ाकर देश से बाहर पहुंचाने का काम किसके निर्देश पर हुआ। राज्य के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के निर्देश पर या प्रधानमंत्री राजीव गांधी के निर्देश पर। क्योंकि केवल मुख्य सचिव, जिला अधिकारी या पुलिस अधीक्षक के स्तर पर यह सब नहीं हो सकता। इतना बड़ा कार्य राज्य सरकार का कोई अफसर बिना मुख्यमंत्री के आदेश के नहीं कर सकता। अब प्रश्न है कि यह फैसला क्या अर्जुन सिंह का अपना था या उन्होंने केंद्र सरकार के निर्देश पर यह सब किया। यदि केंद्र सरकार के निर्देश पर एंडर्सन को बाहर भेजने का इंतजाम किया गया, तो इसका पूरा दायित्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सिर जाता है, लेकिन यह सवाल भी कुछ कम गंभीर नहीं है कि क्या मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह या कोई भी दूसरा मुख्यमंत्री ऐसा निर्णय ले सकता है। एंडर्सन एक अंतर्राष्ट्रीय कम्पनी का अध्यक्ष था, कोई मध्य प्रदेश का उद्योगपति नहीं। एक अंतर्राष्ट््रीय हैसियत वाले ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तारी से छुड़ाकर देश के बाहर भेजने का काम कोई मुख्यमंत्री भी बिना केंद्र को सूचित किये या बिना उसकी अनुमति लिए नहीं कर सकता। फिर मान लिया जाए कि अर्जुन सिंह ने अपने स्तर पर ही यह सारी कार्रवाई की तो सवाल है कि फिर इस बारे में केंद्र सरकार ने उनसे कोई जवाब क्यों नहीं तलब किया। ऐसा तो नहीं हो सकता कि प्रधानमंत्री सहित किसी केंद्रीय मंत्री को इस गैस दुर्घटना की भयावहता की कोई जानकारी ही न रही हो। फिर केंद्र सरकार इस घटना की ऐसी अनदेखी कैसे कर सकती है।
राजीव गांधी के तत्कालीन प्रधान सचिव रहे पी.सी. एलेक्जेंडर का वक्तव्य इस संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण हो सकता है। एलेेक्जेंडर ने बताया है कि 10 दिसंबर को प्रधानमंत्री के आवास पर बुलायी गयी मंत्रिमंडल की रजानीतिक मामलों की समिति (सी.सी.पी.ए.) की बैठक में भोपाल गैस त्रासदी के राजनीतिक प्रभावों पर विचार किया गया, किंतु इसमें एंडर्सन का कोई जिक्र नहीं आया। उनके वक्तव्य की सबसे खास बात है कि इस बैठक में अर्जुन सिंह भी शामिल थे। केंद्रीय कैबिनेट की राजनीतिक मामलों की कमेटी की बैठक में कभी कोई मुख्यमंत्री नहीं बुलाया जाता। उसकी उपस्थिति का कोई औचित्य भी नहीं है, किंतु अर्जुन सिंह वहां उपस्थित थे। उनके अनुसार जब वह इस महत्वपूर्ण बैठक के लिए पहुंचे अर्जुन सिंह उसके पहले वहां उपस्थित थे और बैठक के उपरांत उनके जाने के बाद भी वे राजीव गांधी के ही पास थे।
ऐसा समझा जाता है कि राजीव गांधी ने अमेरिकी दबाव में आकर एंडर्सन की रिहाई की व्यवस्था की और इसके लिए मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को कहा, लेकिन राजनीतिक तौर पर दबाव की इस बात कोई सरकार स्वीकार नहीं कर सकती। लेकिन यहां सबसे बड़ी समस्या है कि केंद्र की राजीव गांधी की सरकार खुद भी यह स्वीकार नहीं कर सकती थी कि उसने एंडर्सन को रिहा कराकर बाहर भेजवाया। सच्चाई आइने की तरह साफ होने के बावजूद इस सार्वजनिक तौर स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इसलिए स्वयं अर्जुन सिंह ने उस समय पत्रकारों के समक्ष कहा कि उन्हें एंडर्सन को रिहा करने के लिए केंद्र सरकार की तरफ से कोई निर्देश नहीं दिया गया। 9 दिसंबर 1984 को इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर के अनुसार अर्जुन सिंह ने इस बात से साफ इनकार किया कि उन्हें एंडर्सन को छोड़ने के लिए केंद्र सरकार से कोई आदेश मिला था, लेकिन उन्होंने यह जरूर स्पष्ट किया कि एंडर्सन को पकड़ने और छोड़े जाने की जानकारी प्रधानमंत्री राजीव गांधी को दे दी गयी थी। उन्होंने एंडर्सन को क्यों रिहा कराया और क्यों उसे देश छोड़ने की इजाजत दी, इसके जवाब में उनका कहना था कि पुलिस को लगा कि गैस कांड की जांच के लिए एंडर्सन का यहां रहना जरूरी नहीं है, इसलिए उसे जाने दिया गया। तत्कालीन गृहमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने भी इस बात की सफाई दी कि एंडर्सन की रिहाई के लिए अमेरिका से कोई दबाव था।
अमेरिका दबाव का मुद्दा नये सिरे से अभी कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह के एक बयान से उठ खड़ा हुआ। अपनी पत्नी के इलाज के लिए अमेरिका गये दिग्विजय सिंह ने वहीं से एक वक्तव्य देते हुए तत्कालीन राज्य सरकार का कोई दोष नहीं है। दिग्विजय सिंह उस समय अर्जुन सिंह के मंत्रिमंडल में मंत्री थे और अर्जुन सिंह उनके राजनीतिक गुरु भी समझे जाते हैं। दिग्विजय सिंह ने कहा कि इस मामले में अमेरिकी दबाव हो सकता है। उन्होंने वास्तव में अर्जुन सिंह और राजीव गांधी दोनों का एक साथ बचाव करने की कोशिश की और यह बताना चाहा कि तत्कालीन सरकार को अमेरिकी दबाव में यह निर्णय लेना पड़ा। लेकिन उनका यह बयान रजानीतिक दृष्टि से उल्टा पड़ गया। इसका अर्थ हुआ कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अमेरिकी दबाव में आकर राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह एंडर्सन को छोड़ दे और देश के बाहर जाने दे। इससे एंडर्सन के खिलाफ कानूनी मसले को कमजोर करने का आरोप भी उनके ऊपर आ जाता है। इसलिए फौरन दिग्विजय सिंह पर दबाव पड़ा कि वह अपना बयान बदलें। तो उन्हों ने सारी जिम्मेदारी अपने गुरु अर्जुन सिंह पर डालते हुए कहा कि उस समय उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था और चुनाव अभियान में शामिल थे, इसलिए उन्हें ठीक-ठीक इसकी कोई जानकारी नहीं कि एंडर्सन की रिहाई कैसे हुई। निश्चय ही इसकी पूरी जानकारी अर्जुन सिंह के पास है और वे ही इसका खुलासा कर सकते हैं। कांग्रेस की प्रवक्ता जयंती नटराजन का कहना है कि वे एक ही बात विश्वासपूर्वक कह सकती हैं कि एंडर्सन की रिहाई में तत्कालीन केंद्र सरकार का कतई कोई हाथ नहीं था। वास्तव में इस समय कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता व तमाम वरिष्ठ नेता राजीव गांधी के बचाव में उतर आए हैं। इस मसले पर गत शुक्रवार की शाम केंद्र सरकार की कोर कमेटी की बैठक हुई। इसमें क्या चर्चा हुई, यह तो पता नहीं, किंतु बाहर जो दिखायी दे रहा है, उसके अनुसार एंडर्सन की फरारी की पूरी जिम्मेदारी अकेले अर्जुन सिंह पर डाली जा रही है। अर्जुन सिंह पार्टी के विशेष रूप से गांधी परिवार के सर्वाधिक वफादार सेवकों में गिने जाते हैं। उन्होंने 1984 में तो राजीव गांधी का साफ बचाव किया था, किंतु इस समय चुप्पी साधे हुए हैं, जो कांग्रेस नेतृत्व के लिए चिंता का विषय है। सारे नेता यही चाहते हैं कि अर्जुन सिंह सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए बयान दें, लेकिन यदि वे ऐसा करते हैं, तो जीवन के अवासान काल में उन्हें भोपाल के गैस पीड़ितों की गहरी निंदा का सामना करना पड़ेगा। राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने भी उन्हें पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि वे सारे मामले का खुलासा करें।
खैर, यह तो एक मुद्दा हुआ कि भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदारी लोगों के बचाव में राजनीतिक नेताओं, सरकारों व अधिकारियों की किस तरह की भूमिका रही। बातें बहुत साफ हैं। सभी लोग खुले ढंग से अपने निष्कर्ष निकाल सकते हैं और राजनीति के वास्तविक चरित्र का अनुभव भी कर सकते हैं। किंतु इस प्रकरण में इस देश के न्यायपालिका की भूमिका भी अत्यंत संदिग्ध रही है। और आरोपों के दायरे से देश के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश को भी बाहर नहीं रखा जा सकता।
एंडर्सन की रिहाई का निर्देश भले ही तत्कालीन केंद्र सरकार से मिला हो, लेकिन अर्जुन ंिसंह इस मामले में पूरी तरह निर्दोष करार नहीं दिये जा सकते, बल्कि ईमानदारी से सारे प्रकरण की समीक्षा की जाए, तो एंडर्सन से अधिक बड़े अपराधी भारत के लोग नजर आते हैं। अब तो अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सी.आई.ए. के वे पेपर भी सामने आ गये, जिसमें यह स्पष्ट संकेत हैं कि तत्कालीन केंद्र सरकार ने एंडर्सन को बाहर निकलने में मदद की। इसलिए इस प्रकरण पर आगे की बहस छोड़ ही देनी चाहिए, लेकिन अर्जुन सिंह सरकार इस आरोप से तो अपने को मुक्त नहीं कर सकती कि उसकी लापरवाही और गैर जिम्मेदारीपूर्ण रवैये के कारण यह भयावह दुर्घटना हुई। स्वयं यूनियन कार्बाइट के जांच दल ने आकर कारखाने का निरीक्षण किया था और जांच रिपोर्ट दी थी कि वहां सुरक्षा मानकों की घोर अनदेखी की जा रही है। विषैली गैस को ठंडा करने के ‘कूलिंग प्लांट’ बंद पड़े हैं। कर्मचारियों की यूनियनों की तरफ से भी शिकायतें की गयी थीं। 2-3 दिसंबर 84 की रात से पहले भी कारखाने में गैस के रिसाव से छोटी-मोटी कई दुर्घटनाएं हो चुकी थीं, जिसमें कई श्रमिक मारे भी गये थे। लेकिन अुर्जन सिंह ने इस दुर्घटना के कुछ दिन पहले ही राज्य विधानसभा में कहा था कि उन्होंने स्वयं कारखाने का निरीक्षण किया है और वहां सब कुछ ठीक-ठाक है। कोई समस्या नहीं है। इस पूरे प्रकरण के दो स्पष्ट पक्ष हैं। एक तो है वह आपराधिक लापरवाही, जो कारखाने की स्थापना व उसके रख-रखाव में बरती गयी। इसके जिम्मेदार लोग ही वास्तव में उस भयावह दुर्घटना के जिम्मेदार हैं, जिसमें 22000 से अधिक लोग मारे गये। उनकी इस आपराधिक लापरवाही के लिए सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए, जिससे कि फिर कोई उद्यमी या अधिकारी ऐसी लापरवाही न बरते। दुसरा पक्ष है इस दुर्घटना से प्रभावित परिवारों को राहत पहुंचाने का। उनके इलाज व क्षतिपूर्ति स्वरूप मुआवजा दिलाने का। लेकिन इन दोनों ही मामलों में राजनेताओं, सरकारों तथा सर्वोच्च न्यायालय तक ने घोर संवेदनशून्यता का परिचय दिया है।
दुर्घटना के दो महीने बाद ही भारत सरकार की तरफ से एक अमेरिकी अदालत में यूनियन कार्बाइड के खिलाफ 3.3 अरब डॉलर का मुआवजा देने का दावा ठोका गया। अमेरिकी अदालत ने कहा कि इस मामले की सुनवाई भारत में ही होनी चाहिए, क्योंकि घटना भारत की है और दुर्घटना की शिकार कंपनी भी भारत की है। उसके सभी अधिकारी भारतीय हैं और यू.सी.सी. का इतना दायित्व है कि उसमें उसके 50 प्रतिशत से कुछ अधिक के शेयर हैं। मामला भारतीय अदालत में आ गया। दिसंबर 1987 में एंडर्सन और अन्य आरोपियों के खिलाफ सी.बी.आई. ने अपना आरोप पत्र पेश किया। उसके खिलाफ कार्बाइड की तरफ से सर्वोच्च अदालत में अपील की गयी।
सी.बी.आई. ने जो आरोप पत्र पेश किया था, उसमें एंडर्सन तथा अन्य आरोपियों के खिलाफ आई.पी.सी. की अन्य धाराओं के साथ 304 (2) भी लगाया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए.एम. अहमदी ने जाने क्यों 304 (2) को रद्द करके उसे 304 (ए) करने की सलाह दी। उनका कहना था कि 304 (2) न्यायालय के समक्ष प्रमाणित नहीं होगा।
न्यायाधीश अहमदी आज यह कह रहे हैं कि इस देश के पास ऐसी औद्योगिक दुर्घटनाओं से निपटने के लिए कानून ही नहीं है। उस समय सीबीआई द्वारा एकत्र प्रमाणों के आधार पर उन्होंने उपर्युक्त सलाह दी थी। सवाल है कि उस समय न्यायाधीश अहमदी ने सरकार को यह सलाह क्यों नहीं दी कि वह इस कांड के लिए नये कानून बनाए और उसके अंतर्गत सुनवाई हो। आश्चर्य है कि उन्होंने उपलब्ध कानून को भी और नरम करने का काम किया।
इसके बाद की घटना और रोचक है। अहमदी ने यू.सी.सी. और भारत सरकार के बीच मुआवजे की रकम के बारे में भी एक समझौता कराया। यह समझौता अदालत के बाहर हुआ। और समझौता होने के साथ ही भारत सरकार ने यू.सी.सी. के खिलाफ सारे मामले वापस ले लिये। यह समझौता मात्र 47 कराड़ डॉलर का हुआ। मात्र 3000 मृतक के लिए 75000 रुपये और पीड़ित के लिए 25000 रुपये मात्र थी।
अमेरिकी अदालत में जहां 330 करोड़ डॉलर के मुआवजे का दावा किया गया था और भारत में वह मात्र 47 करोड़ पर तय हो गया। यह समझौता कराने में न्यायाधीश अहमदी की प्रमुख भूमिका थी। भोपाल में यूनियन कार्बाइड द्वारा एक सर्वसुविधा संपन्न 500 बिस्तरों वाला अस्पताल बनावाया गया। कहा गया कि इसमें गैस पीड़ितों की निःशुल्क चिकित्सा होगी। लेकिन यहां अब गैस पीड़ितों को कोई पूछने वाला नहीं है। इस अस्पताल के मुख्य कक्ष में आज भी एक बड़ा चित्र लगा हुआ है, जो बरबस लोगों का ध्यान आकृष्ट करता है- वह चित्र है भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए.एम. अहमी का। सेवानिवृत्ति के बाद यू.सी.सी. ने उन्हें इसका मैनेजिंग ट्र्स्टी (प्रबंध न्यासी) बना दिया। उनकी सहायता के लिए अमेरिका की तरफ से उन्हें एक और पुरस्कार मिला। अमेरिकी सहयोग से उन्हें अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (इंटरनेशनल कोर्ट आफ जस्टिस) में स्थान मिल गया। अहमदी साहब इस समय देश में अल्पसंख्यकों के कानूनी अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं।
गत 7 जून को भोपाल के सत्र न्यायाधीश ने 25 वर्षों बाद जो फैसला दिया, उससे पूरे देश का चैंकना स्वाभाविक था। जिन अधिकारियों की घोर लापरवाहीवश इतना बड़ा हादसा हुआ, उन्हें इतनी कम सजा। यह कोई न्याय है या न्याय का मजाक ? लेकिन इस तरह से चैंकने वाले केवल आम लोग हैं, जिन्हें न अदालतों के नाटक की जानकारी है, न राजनेताओं के मायाजाल की। सरकारों तथा कानून के जानकारों को तो पहले से पता था कि इस मामले में किसी को कोई वास्तविक सजा नहीं होनी है। दो साल के कैद की सजा भी एक कागजी कर्मकांड है। लेकिन फैसले की घोषणा के बाद मीडिया में जो हंगामा मचा, तो अब सारी सरकारें बचाव मुद्रा में आ गयी हैं। आलोचनाओं से बचने के लिए केंद्र सरकार ने 10 सदस्यीय मंत्रिमंडलीय समिति बनायी है, तो मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने कानूनी विशेषज्ञों की एक उच्चस्तरी समिति। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि वे अभियुक्तों की सजा बढ़वाने के लिए अपील करेंगे, जबकि उन्हें पता ही नहीं है कि इस मामले में न तो वे कोई अपील कर सकते हैं, न किसी की सजा बढ़ सकती है, क्योंकि कानून की सीमा में अधिकतम सजा दी जा चुकी है। और जिस मामले में जांच करके मामला दर्ज कराने वाली सीबीआई जैसी कोई केंद्रीय संस्था हो, उसमें अपील का अधिकार केवल केंद्र सरकार को है, राज्य सरकार को नहीं।
केंद्र सरकार भी कह रही है कि वह एंडर्सन को भारत में प्रत्यर्पण कराकर फिर मुकदमा चला सकती है। अमेरिका के साथ भारत की प्रत्यर्पण संधि है। अमेरिकी सरकार ने भी कहा है कि यदि भारत कोई इस तरह का अनुरोध करता है, तो वह इस पर विचार करने के लिए तैयार है। लेकिन अव्वल तो यह होने वाला नहीं, दूसरे हो भी जाए, तो उससे होगा क्या? हमारे पास इसके लिए जरूरी कानून तो अभी भी नहीं है। और कानून बन भी जाए, तो क्या देश का राजनीतिक चरित्र बदल जाएगा ? क्या वह आगे विदेशी दबावों में नहीं आएगा ? क्या तब यहां के न्यायालय आम आदमी के पक्षधर बन जाएंगे ? 90 वर्षीय एंडर्सन निश्चय ही अमेरिका में बैठा हंस रहा होगा भारत की सरकारों, यहां के राजनेताओं और न्यायालयों पर। लेकिन क्या यहां किसी को उसकी हंसी सुनाई दे रही है। (13-6-2010)
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