शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

संपूर्ण सृष्टि का आराधन ही शिवाराधन है

संपूर्ण सृष्टि का आराधन ही शिवाराधन है

शिव भारतीय देवमंडल के वास्तव में अद्भुत देवता हैं| उनके वर्तमान स्वरूप में जहॉं अनेक आदिम लोकविश्‍वास अनुस्यूत हैं, वहीं दार्शनिक चिंतन का अद्यतन विज्ञान भी अंतर्निहित है| धर्म उनका वाहन है, शक्ति उनकी संगिनी, मेधा और पराक्रम उनके पुत्र हैं, तो ऋद्धि-सिद्धि आदि उनकी वधूटियॉं (पुत्रवधुएँ)| वह महायोगी हैं तो महाभोगी भी| संपूर्ण व्याकरणशास्त्र उनसे निसृत हैं, तो सारे कामशास्त्र के वह आदि गुरु हैं| यहॉं तक कि इस सृष्टि में जो कुछ है, वह उस सबके अधिष्ठाता देव हैं| उनके परे कहीं कुछ नहीं है|

शिव की आराधना वस्तुतः इस संपूर्ण सृष्टि और उसमें व्याप्त अनंत जीवन की आराधना है| शिव समष्टि रूप हैं| संस्कृत के महाकवि परम शैव कालिदास ने शिव की अष्टमूर्तियों का उल्लेख किया है| ये अष्टमूर्तियॉं भी प्रतीकात्मक हैं| श्रेष्ठतम बुद्धि की कल्पना में भी न आ सकने वाले शिव को समझने-समझाने की एक कोशिश है| कालिदास के अनुसार इस सृष्टि के पॉंच तत्व- पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश तथा सूर्य और चंद्र दो प्रकाशमान पिंड और मनुष्य ये आठ शिव की मूर्तियॉं हैं| यहॉं मनुष्य संपूर्ण जैविक चेतना का प्रतीक है, इसलिए मनुष्य कहने से उसमें पूरा चेतन जगत आ जाता है| यहॉं यह भी ध्यातव्य है कि शिव की आराधना भी प्रतीकात्मक है| शिव को जल अर्पित करना उनकी सबसे बड़ी और संपूर्ण पूजा है| वस्तुतः जल भी जीवन का प्रतीक है| शिव के प्रति यानी इस संपूर्ण सृष्टि के प्रति अपना जीवन समर्पित करना ही शिव के प्रति जलार्पण है|
कहा जाता है कि शिव औढरदानी हैं| वह किसी को कुछ भी दे सकते हैं| पात्र-अपात्र का कोई भेद नहीं करते| देय-अदेय का भी विचार नहीं करते| उनकी आराधना करने वाला जो चाहे वह प्राप्त कर सकता है| आज संसार में जो भी वैभव विकास दिखाई दे रहा है, वह शिवाराधना का प्रतिफलन ही तो है| कवियों, कलाकारों, दार्शनिकों व वैज्ञानिकों ने इस सृष्टि के वाह्य सौंदर्य तथा आंतरिक रहस्यों को समझने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करके ही तो वह सब हासिल किया है, जिस पर आज का सामान्य मनुष्य भी इतराता फिर रहा है|
जीवन के सारे वांछित फल शिवाराधन यानी प्रकृति के आराधन से ही प्राप्त हो सकते हैं| तुलसी जैसे दार्शनिक महाकवि जब कहते हैं कि 'इच्छित फल बिनु शिव आराधे, लहिय न कोटि जोग जप साधे' तो इसका सीधा-सा अर्थ है कि इस संसार में यदि कोई मनोवांछित फल प्राप्त करना है, तो वह केवल प्रकृति के पंचतत्वों और मानवीय चेतना के उपयोग आराधन से ही प्राप्त की जा सकती है| करोड़ों जोग (योग) जप, साधना से रोटी का एक टुकड़ा भी पैदा नहीं किया जा सकता, किंतु शिव की आराधना से जो चाहे प्राप्त कर लो| रत्नों के भंडार खड़े कर लो| सुख के जितने साधन चाहो, तैयार कर लो| और एटम बम जैसे विनाशक हथियार प्राप्त करना चाहते हो तो शिवाराधन से वह भी हासिल हो सकता है|
शिवाराधन की ये बातें पाठकों को चौंकाने वाली लग सकती हैं, किंतु ये सत्य हैं| या यों कहें कि यही सत्य हैं| शैव दर्शन, प्रकृति का दर्शन है, सृष्टि का दर्शन है, सृष्टि के विकास क्रम (इवोल्यूशन) का दर्शन है, विज्ञान का दर्शन है, टेक्नालॉजी का दर्शन है, कला का दर्शन है, साहित्य का दर्शन है, संगीत का दर्शन है, व्याकरण का दर्शन है| भारतीय परंपरा में जीवन के अनुभव क्षेत्रों में जो कुछ विद्यमान है, उस सबका स्रोत शिव को ही माना जाता है| काम विज्ञान से लेकर भाषा विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान और संगीत विज्ञान तक| सारे भौतिक संसाधनों के स्रोत शिव हैं, यानी यह संपूर्ण प्रकृति हैं|
उमा-महेश्‍वर या पार्वती और शिव केवल वर्णन की सुविधा के लिए अलग-अलग हैं| अन्यथा वे दोनों ही संयुक्त हैं| उनमें कोई पार्थक्य नहीं है| वास्तव में शिव का अर्द्धनारीश्‍वर रूप भी आम लोगों को समझाने के लिए एक कलात्मक प्रतीक मात्र है| तत्वतः उनमें यह पता नहीं लगाया जा सकता कि उनके स्वरूप में किस तरफ और कहॉं नारी तत्व है, कहॉं पुरुष तत्व| शिव का पूज्य प्रतीक लिंग (शिवलिंग) शिश्‍न या 'फैलस' नहीं है| लिंग का शब्दार्थ है पहचान या चिह्न| पुरुष की पहचान 'शिश्‍न' से होती है, इसलिए उसे भी लिंग कह दिया गया | शिव को एक 'वर्तुल पिंड' के रूप में प्रस्तुत किया जाता है| समग्रता का इससे सरल और कोई प्रतीक हो भी क्या सकता है| वह शिव की पहचान है या चिह्न है, इसीलिए उसे 'शिवलिंग' कहने की परंपरा चल पड़ी|
आज शिव का जो स्वरूप प्रचलित है, उसमें कितनी ही और दार्शनिक, अदार्शनिक, मिथिकल या लोक कल्पित अवधारणाएँ आ मिली हैं, कहना भी कठिन है| लेकिन शिव का स्वरूप ही ऐसा है कि उसमें कुछ भी समा सकता है| प्रकृति पूजा, पशु पूजा, वृक्ष पूजा आदि आदिम धार्मिक अवधारणाएँ भी उनमें समाहित हो गई हैं और वैदिक देवता रुद्र का रौद्र रूप भी उनके स्वरूप का अंग बन गया है, किंतु शिव का मूल स्वरूप उनका दार्शनिक रूप है जो अनिवर्चनीय है, अव्याख्येय है, अकल्प्य है| फिर भी कुछ संकेतों से उन्हें समझा जा सकता है, जैसे कि कालिदास ने अष्टमूर्तियों के माध्यम से बताया कि दुनिया भर के वैज्ञानिक उस महाशिव के स्वरूप और कारणतत्व को समझने में लगे हैं| जो समझ पा जाते हैं वह विज्ञान के दायरे में आ जाता है और जो समझ के परे रहता है, उसे समझने का प्रयास आगे जारी रहता है| किंतु यह कार्य अपने समय के विज्ञान का संपूर्ण ज्ञाता ही कर सकता है, जिसे हम प्रायः ऋषि, दार्शनिक या फिलॉसफर की संज्ञा देते हैं|
भारतीय परंपरा में शिव का पौराणिक स्वरूप भी कम चमत्कारी नहीं है| पूरे भारतीय देव मंडल में उनके जैसा कोई नहीं है| वह देवों के भी देव, देवाधिदेव महादेव ही नहीं, बल्कि राक्षसों, दैत्यों, दानवों, गंधर्वों, यक्षों, मानवों, पशुओं, भूत-प्रेत-पिशाचोें-चुड़ैलों आदि संपूर्ण जीवों के देवता हैं| वह राजमहलों से लेकर श्मशान तक, गिरिशिखरों से लेकर समुद्रतट तक सर्वत्र पूज्य हैं| शुभ-अशुभ, पवित्र-अपवित्र, विष-अमृत, सुंदर-असुंदर, आकर्षक-घृणास्पद सबको उनका सहज सान्निध्य प्राप्त है| वह सहज ही प्रसन्न होने वाले, आशुतोष, औढरदानी हैं| उनके यहॉं पात्र-कुपात्र का कोई भेद नहीं| जो कोई भी उनकी शरण में आए, आर्त होकर याचना करे, वह चाहे शत्रु हो या मित्र, सज्जन हो या दुर्जन, भाग्यशाली हो या अभागा, सब पर समदृष्टि, सबकी इच्छा पूर्ति| वह ऐसे व्यक्ति को भी मनचाहा वरदान दे देते हैं, जो स्वयं उनको ही समाप्त करने पर तुल जाता है| सीधे सरल| कोई पेंच नहीं| न राग, न द्वेष, न कोई छल प्रपंच| प्रसन्न हों तो त्रयलोक्य का अधीश्‍वर बना दें और क्रुद्ध हो जाएँ, तो तत्काल विनाश को पहुँचा दें| हैं विनाश के देवता, लेकिन सारी कलाएँ, सारा विज्ञान, सारा दर्शन, संपूर्ण योग, सकल व्याकरण, छंद शास्त्र, काम शास्त्र सब उनसे ही जन्म लेते हैं| शस्त्र संचालन में अद्वितीय, तो नृत्य संगीत में अप्रतिम| विलासरत हों तो युगों तक विलास करते रहें और समाधिस्थ हो जाएँ तो युगों तक अविचल समाधि लगी है|
शिव का स्वरूप जितना जटिल है उनकी उपासना उतनी ही सरल| पूजा के साधन अत्यल्प| बस थोड़ा-सा जल और कुछ बिल्वपत्र| कोई आडंबर नहीं| प्रतिमा का भी झंझट नहीं| कोई भी वर्तुल प्रस्तर खंड मिल जाए, बस बन गयी प्रतिमा| प्रस्तर खंड भी न मिले तो मिट्टी का भी लिंग बनाया जा सकता है| नदी या समुद्र तट पर मिट्टी न हो तो रेत-बालू से भी काम चल जाएगा| बस श्रद्धा का भाव चाहिए| मंत्र भी कितना सरल, 'ॐ नमः शिवाय'| ऐसा देवता क्यों न जन-जन का देव महादेव बन जाए|
शिव वस्तुतः समन्वय के देवता हैं| कालांतर में पॉंचों  संप्रदाय(शैव,वैष्णव,शाक्त,गाणपत्य ,सौर) शिव या विष्णु में समाहित हो गए और शिव व विष्णु का भी अभेद स्थापित हो गया| तमाम आदिम पूजा पद्धतियॉं लिंग पूजा, योनि पूजा, यक्ष पूजा, प्रेत पूजा, वृक्ष पूजा, गिरि पूजा, नदी पूजा, नाग पूजा, गज पूजा तथा मूषक पूजा भी उनमें समाहित हो गयीं| वनों तथा श्मशानों के देवता और देवियॉं भी शिव शक्ति रूप में विलीन हो गईं| किसी भी अन्य देवी-देवता का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रह गया|
भारत का संपूर्ण चिंतन अद्वैतवादी है| सुविधा के लिए ही उसने द्वित्व व बहुलत्व को स्वीकर किया है| परमात्मा का स्त्री-पुरुष रूप में कोई भेद नहीं होता| इसीलिए शिव को अर्द्धनारीश्‍वर रूप में प्रस्तुत किया गया| इस दर्शन के विकसित होने पर उनकी पूजा भी लिंग-योनि के समन्वित रूप में की जाने लगी| कालांतर में जब शिव और विष्णु का भी एकीकरण हो गया, तो उनका 'हरिहर' रूप भी प्रचलित हो गया, जिसमें अर्द्धनारीश्‍वर की तरह ही वह आधे शिव हैं आधे विष्णु|
क्या अद्भुत समन्वय है कि आदिम मनुष्य के सहज विश्‍वास से उत्पन्न मूर्तियों के साथ परवर्ती मनुष्य के वैज्ञानिक चिंतन तथा दर्शन से उद्भूत प्रतिमाओं का समन्वय हो गया| शिव परिवार स्वयं परस्पर विरोधाभासी तत्वों के समन्वय का प्रतीक बन गया| कैसा परिवार है, जहॉं सॉंप, चूहा, सिंह, बैल, मयूर एक साथ रहते हैं| देवताओं, दानवों सबका सहज प्रवेश है| क्या समाजवाद है| शिवाराधना के लिए न कोई विशिष्ट समय है न अवधि| किसी भी तिथि, किसी भी ऋतु तथा किसी भी काल में उनकी पूजा की जा सकती| हॉं, कृष्णपक्ष की त्रयोदशी शायद उन्हें कुछ अधिक प्रिय है और फाल्गुन कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तो उनमें भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है| इस तिथि को पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती के साथ उनका विवाह हुआ था| यह विवाहादि तो मात्र उत्सव प्रतीक हैं, लेकिन इनका आयोजन मानवमात्र को कुछ संदेश देने के लिए किया जाता है|
शिव अखंड योगी हैं| काम उनके चित्त को चंचल जरूर कर देता है, किंतु अपनी ज्ञानाग्नि से उसे भस्म करके शिव पुनः अपने आत्मरूप में स्थित हो जाते हैं, किंतु वही शिव लोककल्याण के लिए (तारकासुर के वध के लिए) विवाह करने और संतानोत्पत्ति करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं| वह सदा सौम्य, अक्षुब्ध, अनासक्त रहते हैं, लेकिन जब भी सृष्टि पर कोई संकट आता है, तो सहज ही वह उसके निराकरण के लिए तत्पर हो जाते हैं| अमृत मंथन में सारे देवता-राक्षस उसमें से निकलने वाले रत्नों को हथियाने के संघर्ष में लग गए| हलाहल विष निकला, तो शिव की याद आई| उन्होंने सहज भाव से बिना अधिक सोच-विचार किए वह पूरा विष अपने कंठ में धारण कर लिया| देवताओं को जरूरत पड़ी तो शादी-ब्याह भी कर लिया| कभी सर्जन नृत्य किया, तो सृष्टि का विस्तार हुआ और कभी तांडव किया तो पूरी सृष्टि समेट ली| डमरू बजा तो व्याकरण के सारे सूत्र निकल पड़े| त्रिशूल उठा तो काल भी कवलित हो गया| शिव ने पार्वती के साथ विवाह करके भी यह स्थापित किया है कि विवाह का मुख्य उद्देश्य भी लोक कल्याण है| केवल सृष्टि चक्र के चलते रहने के लिए विवाह की आवश्यकता नहीं| वह तो बिना विवाह के भी चलती रह सकती है, लेकिन विवाह एक संकल्प है, जिसके अंतर्गत समाज की सुरक्षा, सदाचार, प्रेम तथा लोक कल्याण निहित है|
शिव का तात्विक रूप जानना और समझना अत्यंत जटिल है| इसीलिए उपासक कहता है- 'हे महादेव मैं तुम्हारे तत्व स्वरूप को नहीं जानता, तुम कैसे हो मुझे पता नहीं| लेकिन तुम जैसे भी हो उसी रूप में मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ| मेरा कल्याण करो|'
तव तत्वं न जानामि, कीदृशोऽसि महेश्‍वरः
यादृशोऽसि महादेव, तादृशाय नमो नमः॥

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