बुधवार, 26 जून 2013

हिन्दुत्व की मराठा राजनीति का अवसान

महाराष्ट्र के एक दबंग नेता और शिव सेना के ‘सर्वेसर्वा’ बाला साहेब ठाकरे का शनिवार (१७ नवंबर २०१२) की दोपहर दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया| उड़ते-उड़ते खबर फैल गई और पूरा महाराष्ट्र और ‘मराठी माणुस’ शोक विह्वल हो गया| एक तरह से पूरा राष्ट्र ‘स्तब्ध’ हो गया| विरोधियों के लिए आतंक तथा युवाओं के प्रेरणा स्रोत माने गए ‘बाल साहेब’ आखिर थे क्या?

बाला साहब ठाकरे के साथ इस देश में राजनीति की एक अनूठी शैली का अंत हो गया है| उनका राजनीतिक व्यक्तित्व इस देश के सारे राजनेताओं से अलग था| निर्भीक और बेलौस| कहीं कोई ‘डिप्लोमेसी’ नहीं| जो कहना डंके की चोट पर कहना| जो बोल दिया वही पार्टी का सिद्धांत| पार्टी के कार्यकर्ता, उनके अनुयायी उनके किसी भी आदेश को पूरा करने के लिए तत्पर| बिना किसी सवाल के| उनकी सभाओं या रैलियों के लिए कभी किराए की भीड़ लाने का प्रयत्न नहीं किया गया| अपने सिद्धांतों से कभी कोई समझौता नहीं| अपनी राजनीति के लिए कभी दिल्ली का चक्कर नहीं लगाया| शायद वह महाराष्ट्र की सीमा छोड़कर कभी बाहर नहीं गए| जिसको मिलना हो उनसे आकर मिले, वह किसी से मिलने नहीं जाते थे| वह राज्य में कांग्रेस के वास्तविक प्रतिपक्ष थे|     राजनेता हो, पूंजीपति हो, व्यापारी हो या आम आदमी, जो कांग्रेस के साथ नहीं था या जिसके लिए कांग्रेस में जगह नहीं थी वह उनके साथ था| वह किसी के दरबारी नहीं थे किंतु उनका दरबार सबके लिए खुला था| उन्होंने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा, सत्ता में कोई पद नहीं लिया लेकिन जब भी उनकी पार्टी सत्ता में रही तो उसका परोक्ष नियंत्रण सदैव उनके ही हाथों में रहा|
बाला साहब का देश की राजनीति में सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने मुम्बई को मुस्लिम माफिया के हाथों में जाने से बचाया, यदि वह न होते तो आज मुम्बई पूरी तरह दाऊदों के कब्जे में रहती, क्योंकि कांग्रेस इसे कतई नहीं रोक सकती थी| उनकी यदि कोई सबसे बड़ी कमजोरी देखी गई तो वह था उनका पुत्रमोह| उन्होंने अपनी पार्टी की बागडोर अपनी वंशपरंपरा में रखने का निर्णय लिया, इसी निर्णय के कारण अब यह सवाल उठ रहा है कि उनके न रहने पर अब उनकी पार्टी शिव सेना का क्या होगा| उनके पुत्रमोह के कारण ही उनके भतीजे राज ठाकरे अलग हुए| यदि उन्होंने अपना कोई उत्तराधिकारी अपने परिवार के बाहर से तैयार किया होता तो शायद उनकी परंपरा आगे भी बढ़ती, किंतु उनके बेटे उद्धव में ऐसी क्षमता नहीं कि वह उनकी शैली की राजनीति को आगे बढ़ा सकें| देश को उनके जैसे राजनेताओं की सख्त जरूरत है, लेकिन ऐसे लोग सिर्फ चाहने से तो नहीं मिल जाते| कालचक्र कभी-कभी अपने बीच से किसी ऐसे व्यक्तित्व को पैदा कर देता है| उनके सिद्धांतों और तौर तरीकों से, उनकी जातीय संकीर्णता से आप असहमत हो सकते हैं, लेकिन उनकी दृढ़ता, निर्भीकता तथा दोगलेपन से दूर स्पष्टवादिता के सभी कायल हैं| लोकतांत्रिक राजनीति में शायद ऐसी पारदर्शिता और ईमानदारी संभव नहीं है, लेकिन यदि संभव हो जाए तो वैसा लोकतंत्र एक आदर्श लोकतंत्र होगा| बाला साहब दिवंगत हो चुके हैं, लेकिन आधुनिक भारतीय राजनीतिक नेताओं की भीड़ में वह सदैव एक अलग सितारे की तरह चमकते रहेंगे|

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