बुधवार, 14 सितंबर 2011

ये हिंदी किस ‘भाषा' का नाम है ?-2

महाराजा कृष्णदेव राय के राज्य काल के अभिलेख और सिक्के:
 देवनागरी का पूरे दक्षिण भारत में (श्रीलंका तक) प्रचलन का मात्र पांच सौ वर्ष पूर्व का प्रमाण।

 
इस देश में अनेक भाषाएं और लिपियां हजारों साल से विद्यमान हैं। किंतु फारसी और अंग्रेजी के आने के पहले यहां कोई भाषा या लिपि का झगड़ा नहीं था। पूरे विशाल भौगोलिक भारत क्षेत्र में व्यापक संपर्क के लिए यहां की तमाम प्राकृत भाषाओं में से एक सर्वस्वीकार्य संस्कृत भाषा का विकास कर लिया गया था और उसी तरह देश भर में प्रचलित लिपियों (ब्राह्मी लिपि की ही संततियों) के बीच से एक बेहतर लिपि ‘नागरी‘ तैयार कर ली गयी थी। ‘नागरी‘ और क्षेत्रीय लिपियों का उसी तरह समानांतर उपयोग होता था, जिस तरह प्राकृत, संस्कृत और उनके परस्पर संपर्क-संघर्षण् से पनपी जनभाषाओं का।

भारत में काम करने के लिए नये नियुक्त अंग्रेज अफसरों को भारत के बारे में जानकारी देने तथा भारतीय भाषा सिखाने के लिए कलकत्ता में 10 जुलाई 1800 को फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई। इसे फोर्ट विलियम नाम इसलिए दिया गया कि इसकी स्थापना ‘फोर्ट विलियम‘ (विलियम भवन) के परिसर में की गयी थी। ‘ब्रिटिश इंडिया‘ के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली ने इसकी स्थापना की थी। ‘ईस्ट इंडिया कंपनी‘ के भारत में जम जाने के बाद अंग्रेजों ने 1701 में कलकत्ता में एक किला बनवाना शुरू किया था। इसे इंग्लैंड के राजा विलियम तृतीय के नाम पर ‘फोर्ट विलियम‘ की संज्ञा दी गयी थी। 1756 में बंगाल के नवाब शिराजुद्दौला ने इस पर हमला करके अपने कब्जे में ले लिया और इस परिवार का नाम अलीनगर रख दिया, लेकिन अंग्रेज चुप नहीं बैठे। उन्होंने नई फौज इकट्ठी करके नवाब पर हमला कर दिया और 1757 में पलासी की लड़ाई में नवाब को हराकर बंगाल पर अपना कब्जा जमा लिया। इसके बाद 1758 में विलियम के नाम पर ही नया किला बनना शुरू हुआ, जो अब तक विद्यमान है। इसी नये किले के परिसर में उपर्युक्त कॉलेज की स्थापना हुई। इसके पहले कलकत्ता में दो महत्वपूर्ण शैक्षिक संस्थान स्थापित हो चुके थे। एक तो ‘कलकत्ता मदरसा‘ जो 1781 में स्थापित हुआ और दूसरा ‘एशियाटिक सोसायटी‘ जो 1784 में स्थापित हुई। इस फोर्ट विलियम कॉलेज में भारतीय भाषा विभाग के इंचार्ज जॉन बोर्थविक गिलक्रिस्ट थे। यह कॉलेज यद्यपि थोड़े ही दिन चला, क्योंकि लंदन में बैठे अंग्रेज अफसर यह नहीं चाहते थे कि यह कॉलेज यहॉं भारत की जमीन पर चले। इसलिए 1807 में इंग्लैंड के हेलीबरी शहर में ‘ईस्ट इंडिया कंपनी कॉलेज‘ की स्थापना की गयी। फिर भी कलकत्ता का यह कॉलेज किसी तरह 1854 तक चलता रहा। इस बीच इसने भाषा का विधिवत मजहबीकरण कर दिया था। ‘हिन्दी‘ हिन्दुओं की भाषा तो नहीं बन सकी, लेकिन उर्दू ‘यामनी‘ भाषा बन चुकी थी। उर्दू को ‘यामनी‘ भाषा घोषित करने का पहला श्रेय लल्लू लाल को जाता हे, जो फोर्ट विलियम कॉलेज में नौकर थे। अपने ग्रंथ ‘प्रेम सागर‘ की भाषा के बारे में लिखा- ‘सो पाठशाला के लिए महाराजाधिराज सकल गुण निधान पुण्यवान महाजान मारकुइस बलजलि गवर्नर जनरल प्रतापी के राज में श्रीयुत गुननाह के गुनियन सुखदायक जान गिलकिरिस्त की आज्ञा से संवत 1860 में लल्लू जी लाल कवि आगरे वाले ने जिसका सार ले ‘यामिनी‘ भाषा छोड़ दिल्ली आगरे के खड़ी बोली में कर नाम ‘प्रेम सागर‘ धरा।‘

भारत में अंग्रेजी शिक्षा की नई नीति 1835 में लागू हुई। लॉर्ड विलियम बेंटिक ने इसे लागू किया। इसके पूर्व भारतीयों को अंग्रेजी शिक्षा देने के लिए प्रेसीडेंसी कॉलेज की स्थापना हो चुकी थी। 20 जनवरी 1817 को कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज की शुरुआत हुई, जिसकी फाउंडेशन कमेटी में राजाराम मोहन राय भी शामिल थे। राजा साहब भारतीयों को अंग्रेजी में अंग्रेजी शिक्षा देने के प्रबल पक्षधर थे। इस शिक्षा नीति के मूल निर्माता थे ब्रिटिश सांसद थॉमस बैबिंगटन मैकाले। मैकाले 1830 में 30 वर्ष की आयु में सुधरवादी ‘ह्विग पार्टी‘ से चुनाव लड़कर ब्रिटिश संसद (हाउस ऑफ कॉमंस) में पहुंचे थे। संयोगवश इसके 4 वर्ष बाद ही वह भारत में ब्रिटिश शासन पर नियंत्रण के लिए गठित की गयी सर्वोच्च प्रशासनिक परिषद (सुप्रीम कौंसिल ऑफ इंडिया) के संस्थापक सदस्यों में शामिल कर लिये गये। इसके बाद के 4 वर्ष मैकाले ने भारत में बिताए। यहां उन्होंने अपना पूरा समय भारतीय उपनिवेश के लिए तैयार फौजदारी कानून (क्रिमिनल कोड ऑफ द कॉलोनी) में संशोधन करने तथा ब्रिटिश मॉडल पर आधारित एक शिक्षा प्रणाली कायम करने पर लगाया। उन्होंने लगभग पूरे देश का दौरा किया और भारत की सामाजिक व सांस्कृतिक स्थिति को समझने की कोशिश की और फिर अपनी भाषा और शिक्षण नीति निर्धारित की। उनका लक्ष्य भारत में अंग्रेजी उपनिवेश को स्थायित्व प्रदान करना था, इसलिए उन्होंने उसे ही ध्यान में रखकर अपना शिक्षा विधान तय किया। भारत में नई शिक्षा नीति लागू किये जाने के ठीक पहले ब्रिटिश संसद में दिया गया उनका भाषण बहुत महत्वपूर्ण है। उनके भाषण का सार था- ‘मैंने भारत के आर-पार यात्राएं की हैं, लेकिन हमने एक भी ऐसा आदमी नहीं देखा, जो भिखारी या चोर हो। इस देश में मैंने ऐसी समृद्धि देखी, ऐसा उंचा नैतिक मूल्य देखा, लोगों में ऐसी अद्भुत क्षमता देखी कि मुझे नहीं लगता कि यदि हम इसकी रीढ़ नहीं तोड़ सकते, जो इसकी संस्कृति और आध्यात्मिक परंपरा में निहित है, तो हम इस पर कभी विजय प्राप्त नहीं कर सकेंगे, इसलिए मेरा प्रस्ताव है कि हम उसकी प्राचीन शिक्षण प्रणाली और संस्कृति बदल दें, क्योंकि यदि भारतीय यह समझने लगें कि जो कुछ विदेशी है, अंग्रेजी है, वह अच्छा हे और उनकी अपनी संपदा से बेहतर है, तो वे फिर अपनी आत्मशक्ति अपनी देशी संस्कृति खो देंगे और तभी वे वह बन सकेंगे, जो हम चाहते हैं, यानी हमारे गुलाम‘ (आई हैव ट्रैवेल्ड एक्रास द लैंड एंड ब्रेथ ऑफ इंडिया एंड आइ्र हैव नाट सीन वन पर्सन हू इज बेगर, हू इज थीफ। सच वेल्थ आई हैव सीन इन दिस कंट्री, सच हाई मोरल वैल्यूज, पीपुल ऑफ सच कैलिबर दैट आई डोंट थिंक वी वुड एवर कांकेर दिस कंट्री, अनलेस वी ब्रेक द वेरी बैकबोन ऑफ दिस नेशन, व्हिच इज हर स्पिरिचुअल एंड कल्चरल हेरीटेज, एंड दियर फोर, आई प्रोपोज दैट वी रिप्लेस हर ओल्ड एंड एंशियंट एजुकेशन सिस्टम, हर कल्चर, फॉर इफ द इंडियंस थिंक दैट ऑल दैट इज फॉरेन एंड इंग्लिश इज गुड एंड ग्रेटर देन दियर ओन, दे विल लूज दियर सेल्फ एस्टीम, दियर नेटिव सेल्फ कल्चर एंड दे विल बिकम हवाट वी वांट देम, ए ट्रुली डॉमिनिटेड नेशन)। यह अंश प्रसिद्ध शिक्षाविद विनय राय की पुस्तक ‘रिथिंकिंग इंडिया‘ से उद्धृत किया गया है। भगिनी निवेदिता ने भी अपने एक व्याख्यान में मैकाले का एक कथन उद्धृत किया थ, ‘इस समय हमें पूरी शक्ति लगाकर भारतीयों का एक ऐसा वर्ग विकसित करना चाहिए, जो खून और रंग से तो भारतीय हो, किंतु अपनी रुचियों, विचारों, नैतिकता और सोच में अंग्रेज।‘ (वी मस्ट ऐट प्रेजंट डू आवर बेस्ट टू फार्म ए क्लास ऑफ पर्संस इंडियन इन ब्लड एंड कलर बट इंग्लिश इन टेस्ट्स, इन ओपिनियन, इन मॉरल्स एंड इन इंटेलेक्ट‘)।

मैकाले के इस विचार को ब्रिटिश संसद का पूर्ण समर्थन मिला। मैकाले जो चाहते थे, वह सब उन्हें उपलब्ध कराया गया। उन्होंने पूरी सतर्कता और सावधानी के साथ न केवल अंग्रेजी शैली की शिक्षा प्रणाली का भारत में आयात किया, बल्कि उन्होंने अंग्रेजी भाषा को भी शिक्षा का एकमात्र माध्यम बना दिया। पश्चिम में विकसित आधुनिक ज्ञान विज्ञान की शिक्षा भारतीय शिक्षा के माध्यम से भी दी जा सकती थी, किंतु उससे ब्रिटिश उपनिवेशवाद का वह लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता था, जिसकी कल्पना मैकाले व अन्य ब्रिटिश राजनेताओं ने की थी। मैकाले को पूरी आशा थी कि इस तरह भारत में एक नये अंग्रेजी शिक्षित और अंग्रेजी बोलने वाले कुलीन वर्ग का जन्म होगा, जो धीरे-धीरे समाज के निचले वर्ग तक पहुंच जायेगा। क्योंकि निचला वर्ग प्रतिस्पर्धा में आगे आने के लिए इस कुलीन वर्ग का अनुकरण करेगा।

भारत में यह नई शिक्षा नीति लागू हो जाने से मैकाले गद्गद था। वह भविष्य की कल्पना से आह्लादित था। आज हम कह सकते हैं कि उसका आह्लाद बिल्कुल जायज था। उसने असाधारण बीज का वपन किया था, जो आकाशबेलि की तरह आज पूरे देश पर छा चुका है। 12 अक्टूबर 1836 को मैकाले ने इंग्लैंड में स्थित अपने पिता को भेजे गये पत्र में लिखा था, ‘यद्यपि हम सभी लोगों तक यह शिक्षा नहीं पहुंचा पा रहे हैं, फिर भी हमारे अंग्रेजी स्कूल आश्चर्यजनक ढंग से पुष्पित-पल्लवित हो रहे हैं। हिन्दुओं पर इस शिक्षा का प्रभाव असाधारण है। जो भी हिन्दू यह अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर ले रहा है, वह कभी निष्ठा से अपने धर्म के साथ नहीं जुड़ा रह सकेगा। यह मेरा पक्का विश्वास है कि यदि हमारी शिक्षा योजना को जारी रखा गया, तो अगले 30 वर्षों में इस देश के सम्मानित वर्ग में एक भी मूर्तिपूजक नहीं रह जायेगा। और यह सब बिना हमारी किसी... कोशिश के हो जायेगा। मैं इस संभावना की कल्पना से ही हार्दिक आनंद का अनुभव कर रहा हूॅं‘ (आवर इंग्लिश स्कूल आर फ्लोरिंग वंडरफुली, वी फाइंड इट डिफीकल्ट टु प्रोवाइड इंस्ट्रक्शन टु ऑल। द इफेक्ट ऑफ दिस एजुकेशन ऑन हिन्दूज इज प्रोडिजियस। नो हिन्दू हू हैज रिसीव्ड इन इंग्लिश एजुकेशन एवर रिमेंस सिंसियरली अटैच्ड टु हिज रिलीजन। इट इज माई फर्म बिलीफ दैट इफ आवर प्लान्स ऑफ एजुकेशन आर फालोड अप दियर विल नाट बी ए सिंगल आइडोलेटर एमंग द रेसपेक्टेड क्लासेस 30 इयर्स हेंस। एंड दिस विल बी एफेक्टेड विदआउट अवर एफटर््स टु प्रॉसिलिटाइज, आई हर्टली रिजॉइस इन द प्रास्पेक्ट)। अब इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि किस तरह अंग्रेजी शिक्षा को गुलामी का हथियार बनाया गया।

यहां यह उल्लेखनीय है कि फोर्ट विलियम कॉलेज ने हिंदी में कुछ किताबें जरूर तैयार करायी, लेकिन इसने शिक्षा के माध्यम के तौर पर हिन्दी को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया। वस्तुतः अंग्रेजों ने पर्सियन और उर्दू को तो प्रोत्साहन दिया, लेकिन हिंदी या किसी अन्य भरतीय भाषा को नहीं। भारतीय पंडित वर्ग संस्कृतवादी था। वह चाहता था कि पारंपरिक संस्कृत व्याकरण, दर्शन, साहित्य, ज्योतिष आदि के पठन-पाठन का विस्तार हो और उसे अंग्रेजी सहायता उपलब्ध करायी जाए। लेकिन समय की सच्चाई यह थी कि संस्कृत की पारंपरिक शिक्षा किसी काम की नहीं थी। उससे नौकरी नहीं मिल सकती थी। नई पीढ़ी में इस संस्कृत को पढ़ने में समय गंवाने वालों की संख्या बहुत कम थी। उर्दू चूंकि नवविकसित हिंदी ही थी, इसलिए उसमें नये जमाने की शिक्षा संभव दिख रही थी। संस्कृत में नहीं। हिंदी को शिक्षा का माध्यम बनाने में न पंडितों को कोई रुचि थी न अंग्रेजों को। इसलिए शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ चला। हिन्दी को शिक्षा में शामिल करने का पहला अभियान आर्य समाज ने चलाया, लेकिन वह भी प्रतीकात्मक ही रहा। एक विषय के रूप में तो वहां हिन्दी आ गयी, लेकिन अंग्रेजी माध्यम अंग्रेजी ही बनी रही। स्वामी श्रद्धानंद ने गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना करके मैकाले पद्धति को जवाब देने का प्रयास अवश्य किया, लेकिन वह एक अकेले अपवाद से अधिक कुछ न बन सका।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जिस समय देश में मैकाले की नई अंग्रेजी शिक्षा नीति लागू हुई, लगभग उसी समय दक्षिण में एक मिशनरी का पदार्पण हुआ, जिसका नाम राबर्ट काल्डवेल था। 1814 में जन्में काल्डवेल 24 वर्ष की आयु में तमिलनाडु पहुंचे। वह इवेंजलिस्ट मिशनरी (जिनका मुख्य लक्ष्य धर्मांतरण था/ भाषा विज्ञान में भी रुचि रखता था। 1838 में वह त्रावणकोर स्थित प्रसिद्ध मिशनरी रेवरेंड चार्ल्स माल्ट (1791-1858) के पास पहुंचा। उसने यहां निम्न जातियों के धर्मांतरण का काम तेजी से चलाया। अपने काम की सफलता के लिए उसे ‘लूथेरेयिम मिशनरीज‘ का तरीका अपनाया। इस मिशनरी के लोगों ने जब जर्मनी की स्थानीय भाषाओं का अध्ययन करके जनसाधारण के बीच अपना स्थान बनाने की कोशिश की। काल्डवेल ने श्रम पूर्वक तमिल भाषा का अध्ययन किया। उसने ताड़पत्रों में लिखित साहित्य तथा संगम साहित्य का अध्ययन किया। उसने कइ्र पुरातात्विक उत्खनन भी कराये।

उसने पहली बार दक्षिण भारत की भाषाओं को एक अलग भाषा परिवार घोषित किया। ‘द्रविड़ियन लैंग्वेज‘- इस शब्द को पहली बार काल्डवेल ने प्रचलित किया। काल्डवेल की इस अनूठी शोध के पहले दक्षिण भारत की भाषाएं भी संस्कृत व अन्य भारतीय भाषाओं से संबंद्ध मानी जाती थीं। दक्षिण की प्राकृत भाषाएं निश्चय ही उत्तर की प्राकृत भाषाओं से भिन्न थीं, लेकिन हिमालय से समुद्र पर्यंत पूरे क्षेत्र के लिए विद्वानों की संपर्क भाषा से प्रयुक्त संस्कृत से दक्षिण की ये भाषाएं भी समान रूप से प्रभावित थीं। दक्षिण् के पांड्य, चोल आदि राजाओं के दरबार में तथा राज्य क्षेत्र में क्षेत्रीय प्राकृत भाषा के साथ संस्कृत भी समादृत थी। पर्यटनशील सामान्य जन संस्कृत के अपभ्रंश मिली क्षेत्रीय भाषा का इस्तेमाल करते थे।

राबर्ट काल्डवेल तमिलों के बीच एक सम्मानित नाम है, क्योंकि उसने तमिलों को एक स्वतंत्र सांस्कृतिक भाषाई तथा जातीय पहचान दी। लेकिन वास्तव में उसका लक्ष्य था दक्षिण की निम्न जातियों तथा कम पढ़े-लिखे पिछड़े लोगों को संस्कृतवादी उंची जाति वालों के खिलाफ खड़ा करना और उन्हें ईसाई मत में दीक्षित करना। दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु में गैरब्राह्मणवादी आंदोलन के ‘रेडिकलाइजेशन‘ का श्रेय काल्डवेल को ही जाता है। मजहबी विस्तार का लक्ष्य पाने के लिए जो पृथकतावादी सिद्धांत गढ़ा, उससे देश आज तक आक्रांत है। अंग्रेज शासकों को इससे दक्षिण में भी अंग्रेजी विस्तार को और मदद मिली।

यह तो मात्र एक उदाहरण है। ईसाई मिशनरियों का जाल तो पूरे देश में फैल चुका था। देश के जो हिस्से सीधे अंग्रेजों के आधिपत्य में नहीं थे, वहां भी मिशनरियों ने अपना झंडा गाड़ रखा था। इन्होंने देश की सांस्कृतिक एकता को तोड़ने और क्षेत्रवाद को विकसित करने में अद्भुत भूमिका निभायी।

यहां हमें नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय संपर्क की माध्यम भाषा के रूप में भी सदैव दो भाषाएं समानांतर चलती रहती हैं। एक विद्वानों, पढ़े-लिखे लोगों का उच्च स्तरीय कुलीन लोगों की भाषा और दूसरी वह जनभाषा जो मजदूरों, सैनिकों, व्यापारियों, साधुओं व घुमक्कड़ों द्वारा इस्तेमाल की जाती हैं। इतिहास में रुचि रखने वाले जानते हैं कि भारत का अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक संबंध सिंधु सभ्यता काल में ही स्थापित हो चुका था। समुद्री और थल मार्ग दोनों का इस्तेमाल होता था। समय के साथ यह व्यापार और विस्तृत तथा सघन होता गया था। अशोक के काल में श्रावस्ती से चलने वाले व्यापारिक कारवां लंका तक जाते थे। ऐसे ही कारवां के साथ अशोक ने अपनी पुत्री संघमित्रा और बेटे राहुल को श्रीलंका भेजा था। भारत के समुद्री व्यापारी अरब और यूरोपीय से लेकर दक्षिण पूर्व एशियायी देशों में वियतनाम और कम्बोड़िया तक जाते थे। चीन से लेकर अरब और यूनान तक यही तो उस जमाने का पूरा संसार था। अमेरिका का तो पता ही नहीं था। यूरोप अंधकार में डूबा बर्बर जातियों का इलाका था। अफ्रीका के भीतरी इलाकों का ठीक-ठीक पता तो अठारहवीं शताब्दी तक नहीं था। कैस्पियन सागर से लेकर जावा, सुमात्रा, बोर्निया, कंबोड़िया, वियतनाम तक मिलने वाले संस्कृत के अभिलेख इस बात के प्रमाण हैं कि भारतीय व्यापारियों, दार्शनिकों, पंडितों की दौड़ कहां तक थी। लेकिन यह संस्कृत तो केवल बड़े व्यापारियों, पंडितों व कुलीनों की भाषा रही होगी, जिनके अभिलेख मिल रहे हैं, लेकिन इनके साथ बहुत से सामान्य जन भी तो इन व्यापारिक समुद्री यात्राओं में आते-जाते रहे होंगे। उनकी भी कोई परस्पर संपर्क की भाषा रही होगी। उनका कोई उदाहरण हमारे पास नहीं है, किंतु उनका अनुमान तो लगा ही सकते हैं कि वह विविध प्राकृतों तथा संस्कृत के अपभ्रंशों की खिचड़ी रही होगी। राष्ट्रीय जनभाषा का वही रूप रहा होगा।

हम जानते हैं कि ईसा काल के पहले ही शकों ने उत्तर भारत में खासकर मथुरा के आस-पास अपना आधिपत्य जमा लिया था। महाभारत के उत्तर काल की उस क्षेत्र की आभीर जातीयों ने उनकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। शकों ने जब दक्षिण में पैर बढ़ाया, तो उनके साथ ये आभीर भी दक्षिण पहुंचे। आभीर एक बहादुर लड़ाकू जाती थी, जो शकों की सेना में उच्च पदों पर आसीन थी। इस आभीर जाति के बहुत से ताकतवर सेना नायकों ने शकों से अलग होकर दक्षिण में अपनी छोटी-छोटी रियासतें कायम की। ईसा की तीसरी शताब्दी तक वे तमिलनाडु तक पहुंच गये। मदुरै शायद उनके द्वारा स्थापित शहर है। उन्होंने मथुरा की कृष्ण भक्ति को वहां तक पहुंचाया। इसके बाद खिलजियों, तुगलकों और मुगलों की सेनाओं तक ने दक्षिण में धावा मारा। जैनों और बौद्धाों के काफिले भी दक्षिण तक पहुंचे। दक्षिण के दार्शनिकों, कवियों व संतों ने उत्तर की यात्राएं की। ईसा की पहली सहस्राब्दी में तो ऐसा लगता है कि दक्षिण-उत्तर का परस्पर मंथन हो गया था। तो क्या यह बिना किसी भाषाई आदान-प्रदान के ही संभव हो गया रहा होगा।

मेरा यहां कहने का आशय केवल यह है कि फारसी और अंग्रेजी के इस देश में कहने का आशय केवल यह है कि फारसी और अंग्रेजी के इस देश में आने के पूर्व संस्कृत के समानांतर एक जनभाषा भी देश में विद्यमान थी, जो सामान्य जनों के स्तर पर राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय संपर्क की भाषा थी। इसकी पहचान जाने अनजाने भाषाई राजनीति के चक्कर में लुप्त हो गयी। हम जानते हैं कि प्रारंभ में मुस्लिम आगंतुकों ने इस जनसंपर्क की आम भाषा को ही अपनी भाषा के रूप में अपनाया और उसे हिन्दी कहा। उन्होंने लिपि के तौर पर नागरी को अस्वीकार नहीं किया । मुहम्मद गौरी के सिक्कों पर देवनागरी का प्रयोग हुआ हे। संतों-सूफियों की भाषा यही हिंदी थी। अगबर सवयं देवनागरी हिन्दी में लिखता था। डॉ. जान मार्शल (1668-1772) ने आलम मीर औरंगजेब के शासन में नागरी भाषा के विषय में जो कुछ सुना, उसे लिखा भी। आचार्य चंद्रबली पांडेय ने ‘राष्ट्रभाषा पर विचार‘ शीर्षक अपनी पुस्तक में मुगलकाल में हिन्दी के प्रयोग पर विस्तार से चर्चा की है। मराठा शासन में राजभाषा के रूप में हिन्दी का प्रयोग आम था। पुणे और बीकानेर के अभिलेखागारों में ऐसे सैकड़ों पत्र हैं। हैदरअली और टीपू सुल्तान यह भाषा अपने समय में केरल तक ले गये। सिकंदर लोदी के शासनकाल में राज्य का हिसाब-किताब हिन्दी में ही होता था। शेरशाह सूरी के सिक्कों पर नागरी और फारसी दोनों लिपियों का इस्तेमाल हुआ है।

राबर्ट काल्डवेल के पूर्व दक्षिण में भी कोई भाषाई या लिपि द्वेष के लिए स्थान नहीं था। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि जिस तरह देशव्यापी उच्च स्तरीय व्यवहार के लिए देश भ्र की प्राकृतों के बीच से संस्कृत भाषा का विकास किया गया थ, उसी तरह देश भ्र में प्रचलित लिपियों में से एक नागरी लिपि का चयन या विकास किया गया था। इस देश की सारी लिपियां ब्राह्मी से विकसित हैं। उनकी लेखनशैली भिन्न हो सकती हैं, किंतु उनकी वर्णमाला एक ही है। किसी में कुछ वर्ण अधिक हैं, किसी में कुछ कम। इसलिए जिस तरह देश भर में विभिन्न क्षेत्रों की क्षेत्रीय (प्राकृत) भाषाओं और उसका जनभाषा रूप प्रचलन में था, उसी तरह क्षेत्रीय लिपियों के समानांतर नागरी लिपि भी व्याप्त थी। संस्कृत क्षेत्रीय लिपियों में भी लिखी जाती थी और नागरी में भी ।

दक्षिण के हों या उत्तर के, जिस राजा का भी राज्य विस्तार में बड़ा था (जिसके अंतर्गत कई क्षेत्रीय भाषाएं आ जाती थीं) उसने राजकाज में संस्कृत भाषा व नागरी लिपि को प्रमुखता दी। इसका सबसे प्रामाणिक उदाहरण दक्षिण में कृष्णदेव राय के शासनकाल में देख जा सकता है। आज के भाषाई व लिपि की संकीर्णता में उलझे लोगों को कृष्णदेव राय से शिक्षा लेनी चाहिए। कृष्णदेव राय का शासन वर्तमान भारत में पूर्व में उड़ीसा व पश्चिम में गोवा से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक व्याप्त था। कृष्णदेव राय स्वयं कन्नड़ दोनों के विद्वान थे। लेकिन उनके साम्राज्य में नागरी लिपि और संस्कृत भाषा को प्रथम स्थान प्राप्त था, क्योंकि इतने विस्तृत साम्राज्य में ऐसी भाषा और लिपि की जरूरत थी, जो सर्वत्र समझी जा सके। उनके सारे स्वर्ण सिक्कों तथा बड़े मूल्य के ताम्र सिक्कों पर नागरी लिपि में ही उनका पूरा नाम लिखा है। तांबे के केवल दो छोटे परिणम वाले सिक्कों पर कन्नड़ लिपि में उनका संक्षिप्त नाम ‘कृष्ण‘ लिखा है। उनके काल के अनेक ताम्र पत्र अभिलेख नागरी लिपि में उपलब्ध हैं। कहने का आशय यह कि अीाी मात्र 500 वर्ष पहले पूरे दक्षिण भारत में (श्रीलंका पर्यंत) क्षेत्रीय भाषाओं और लिपियों के साथ संस्कृत भाषा और नागरी लिपि भी प्रचलित थी। उनके साम्राज्य में निश्चय ही सामान्य जन के संपर्क की भी एक जनभाषा रही होगी, जिसका कोई नमूना अभी उपलब्धनहीं है।(अगले रविवार के अंक में समाप्य)

2 टिप्‍पणियां:

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

बहुत अच्छा मुद्दा उठाया आपने...
पूर्वाग्रह त्याग कर इस पर सभी को विचार करना चाहिए...

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

भाषाओं के बीच जो दरार पडी है वो नेताओं की कर्तूत है; वर्ना भाषा के नाम पर कोई झगडे नहीं थे, भले ही मज़हब अथवा संप्रदाय के नाम रहे हो॥