रविवार, 2 जनवरी 2011

क्या 2011 कुछ बेहतर वर्ष होगा ?


प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने नव वर्ष के प्रारंभ की पूर्व संध्या पर अपने कुछ संकल्पों की घोषणा की है। इसमें सबसे बड़ा संकल्प है देश की शासन प्रक्रिया को शुद्ध करना और देशवासियों को एक स्वच्छ और कारगर प्रशासन देना। इसके साथ ही उन्होंने मुद्रास्फीति रोकने यानी महंगाई पर काबू पाने तथा राष्ट्रीय सुरक्ष को सुनिश्चित करने का भी संकल्प लिया है। सवाल है कि क्या वह इन संकल्पों को पूरा करने में सक्षम हैं ? देश के वह पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जिनके हाथ में देश का न तो राजनीतिक नेतृत्व है, न राजनीतिक फैसले लेने का कोई अधिकार। वह कार्यपालिका के प्रधान अवश्य हैं, लेकिन कार्यपालिका पर असली नियंत्रण तो राजनीतिक नेतृत्व का होता है, फिर वह अपने संकल्पों को कैसे पूरा कर पाएंगे।


प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने नव वर्ष 2011 की पूर्व संध्या पर कहा कि उनका नये साल का संकल्प है कि देश की शासन व्यवस्था को स्वच्छ बनाना। इसके लिए वह अपना प्रयास दोगुना कर देंगे। यद्यपि उन्होंने अपने संकल्प में कई और बातों को भी शामिल किया, जैसे कि मुद्रास्फीति को रोकना तथा राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करना आदि, लेकिन इनमें सर्वोपरि स्थान प्रशासन को स्वच्छ बनाने के कार्य (क्लीन द गवर्नेंस) को दिया है।

अब सवाल है कि क्या यह उनके लिए संभव है ? या यह केवल एक राजनीतिक लफ्फाजी मात्र है। प्रधानमंत्री इस समय चारों तरफ से भ्रष्टाचार व कुशासन के आरोपों से घिरे हुए हैं। प्रायः सरकार की सारी जांच संस्थाएं घोटालों और प्र्रशासनिक अनियमितताओं की जांच में लगी हैं। 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की मांग को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष अभी भी गुत्थम गुत्था हैं। प्रधानमंत्री की विपक्ष की जे.पी.सी. की मांग को अप्रासंगिक बनाने की चाल विफल हो गयी है। उन्होंने संसद की लोक लेखा समिति (पी.ए.सी.) को पत्र लिखकर कहा था कि यद्यपि ऐसी कोई परंपरा नहीं है, फिर भी यदि पी.ए.सी. जरूरत समझे तो वह सवालों का जवाब देने के लिए उसके समक्ष उपस्थित होने के लिए तैयार हैं। पी.ए.सी. के अध्यक्ष भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी हैं। प्रधानमंत्री ने शायद सोचा था कि भाजपा के कमोबेश उपेक्षित किंतु महत्वाकांक्षी नेता जोशी जी प्रधानमंत्री को सवाल-जवाब के लिए अपने समक्ष बुलाने का लोभ संवरण नहीं कर पाएंगे और यदि उन्होंने प्रधानमंत्री को बुलाकर पूछताछ कर ली, तो फिर विपक्ष की जे.पी.सी. गठित करने की मांग अपने आप ढीली पड़ जायेगी। यद्यपि जोशी जी ने प्रधानमंत्री के इस पत्र पर अभी अपना कोई निर्णय नहीं लिया है, लेकिन यह अवश्य कहा है कि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच जे.पी.सी. द्वारा ही की जानी चाहिए। वे खुद भी इसके समर्थक हैं। और बहुत से लोगों की तरह उनकी भी यह राय है कि ‘जे.पी.सी.' व ’पी.ए.सी.' दोनों समांतर संस्थाएं हैं, इसलिए दोनों एक साथ काम कर सकती हैं। उनमें कोई टकराव जैसी स्थिति नहीं है। जहां तक पी.ए.सी. के सामने प्रधानमंत्री के पेश होने की बात है, तो जोशी जी यह जानते हैं कि पी.ए.सी. को प्रधानमंत्री तो क्या किसी मंत्री को भी अपने समक्ष पेश होने के लिए बुलाने का अधिकार नहीं है। फिर भी वर्तमान स्थिति में मामला विशिष्ट है, क्योंकि समिति के समक्ष पेश् होने का प्रस्ताव स्वयं प्रधानमंत्री की तरफ से आया है। इसलिए जोशी ने कहा है कि वे इस मामले में कानून के विशेषज्ञों से राय लेंगे और उसके बाद ही अपना फैसला करेंगे। लेकिन बहुत संभव है कि वह प्रधानमंत्री का प्रस्ताव अस्वीकार कर दें। कारण बहुत स्पष्ट है। एक तो उनकी अपनी पार्टी ही यह नहीं चाहती कि वह प्रधानमंत्री को अपने समक्ष बुलाएं। दूसरे प्रधानमंत्री के प्रस्ताव मात्र से उसे ऐसा कोई अधिकार नहीं मिल जाता कि वह प्रधानमंत्री या किसी भी और मंत्री को बुला सकते हैं। सरकार की तरफ से भी यह कहा गया है कि प्रधानमंत्री केवल एक बार पी.ए.सी. के सामने उपस्थित होंगे। यह आगे के लिए न तो कोई नजीर बनेगा, न भविष्य के लिए पी.ए.सी. के अधिकारों में ऐसा कोई इजाफा ही होगा कि वह प्रधानमंत्री को बुला सके। जाहिर है कि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की मांग और विरोध का रगड़ा 2011 में भी जारी रहेगा और बहुत संभव है कि संसद का बजट अधिवेशन भी इसके आघात से प्रभावित हो। भ्रष्टाचार के अन्य मसले भी इस साल सरकार को मथते रहेंगे।

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने उपर्युक्त वक्तव्य में यद्यपि बहुत जोर देकर कहा है कि मैं अपने सभी नागरिकों को आश्वस्त करना चाहता हूं कि हम देश को स्वच्छ प्रशासन देने के लिए अपना प्रयास दोगुना कर देंगे, लेकिन किसी को रत्ती भर भी भरोसा नहीं है कि वह ऐसा कुछ कर सकते हैं। क्योंकि यह कड़वी सच्चाई है कि प्रधानमंत्री होते हुए देश का राजनीतिक नेतृत्व उनके हाथ में नहीं है, इसीलिए वह अपने पदानुकूल राजनीतिक अधिकारों से भी वंचित हैं । कार्यपालिका के प्रधान के नाते उनके पास जो प्रशासनिक अधिकार हैं, वे राजनीति नियंत्रित हैं, इसलिए उनके ऐसे आश्वासनों व वायदों का कोई अर्थ नहीं है। उनका इस तरह का बयान केवल एक राजनीतिक कर्मकांड की पूर्ति करता है, जो नये वर्ष के अवसर पर किया जाना आवश्यक था। देश की जनता इस समय सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार की विराटता से सचमुच विचलित है। उसका वर्तमान शैली के शासनतंत्र व लोकतंत्र में विश्वास उठता नजर आ रहा है। ऐसे में बेचारे प्रधानमंत्री और कह भी क्या सकते थे।

प्रधानमंत्री ने मुद्रास्फीति व महंगाई रोकने का भी वायदा किया है, लेकिन यह भी उनके वश में नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत बढ़ रही है, तो अपने देश में भी पेट्रोल-डीजल लगातार महंगा होता जा रहा है। 10-15 रुपये किलो की प्याज अब सस्ती होकर भी 35 रुपये किलो बिक रही है। देश के सांसद दुखी हैं कि संसद भवन की कैंटीन में मिलने वाला उनका नाश्ता खाना भी महंगा हो गया है। वहां 1 रुपये कप मिलने वाली चाय केवल 2 रुपये हो गयी है, डेढ़ रुपये प्लेट का वड़ा सांभर 2 रुपये का हो गया है, मसाला डोसा 4 रुपये से बढ़कर 6 रुपये का हो गया है, खीर का 5 रुपया का कटोरा 8 रुपये का और 24 रुपये प्लेट की चिकन करी 37 रुपये की हो गयी है। अब वे सांसद जिनकी तनख्वाह अभी हाल में तीन गुना से भी ज्यादा बढ़ायी गयी है, वे खाने नाश्ते के इस न्यूनतम वृद्धि से भी दुखी हैं, लेकिन उन्हें देश की आम जनता की तकलीफों की चिंता नहीं है। अब यदि संसद भवन की कैंटीन के दरें बढ़ रही हैं, तो देश में उपर चढ़ रही महंगाई भला कैसे नियंत्रित हो पाएगी, लेकिन प्रधानमंत्री के आश्वासन से इस देश की परमविश्वासी आम जनता शायद एक बार फिर मान ले कि अपना अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री कुछ चमत्कारी करके कीमतें नीचे ला सकता है।

अब दक्षिण एशिया, यानी भरतीय क्षेत्र में यदि शांति सुरक्षा की बातें करें, तो वह भारत-पाक संबंधों और इस्लामी आतंकवादियों की कृपा कर निर्भर है। 2011 में भारत-पाक संबंधों में कोई बदलाव आ सकता है, इसकी दूर दूर तक कोई कल्पना नहीं की जा सकती। जाहिर है इस क्षेत्र की शांति-सुरक्षा भारत-पाकिस्तान के राजनीतिक एजेंडे में डूबी है, जिसमें इस वर्ष तो क्या अगले कई वर्षों में कोई सकारात्मक बदलाव आने वाला नहीं है। क्षेत्रीय स्तर पर शांति सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती नक्सलियों की ओर से है, तो यहां अपने आंध्र प्रदेश में पृथक तेलंगाना का मसला शांति व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अवश्य एक महत्वपूर्ण बात भारत के पक्ष में हुई है, जिसकी तरफ सामान्यतया लोगों का ध्यान कम जा रहा है, वह है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता का। करीब दो दशकों बाद भारत पुनः सुरक्षा परिषद में पहुंचा है। यद्यपि उसकी स्थाई सदस्यता की मांग अभी तमाम पचड़ों में फंसी है, लेकिन कम से कम 2 वर्ष के लिए उसे इस विश्व संस्था की अस्थाई सदस्यता अवश्य प्राप्त हो गयी है और पहली जनवरी से उसका कार्यकाल शुरू हो गया है। अस्थाई ही सही, लेकिन इस बार की भारत की सदस्यता की खास बात है कि उसके साथ जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील भी उसी स्तर पर सुरक्षा परिषद में पहुंचे हैं। इस तरह का ग्रुप चार के चारों सदस्य (भारत, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका) व 'ब्रिक-कंट्रीज' के (ब्राजील, रूस, भारत और चीन) के नाम से गठित चार देशों का संगठन भी सुरक्षा परिषद का अंग बन गया है। जाहिर है भारत की इस बार की सदस्यता काफी महत्वपूणर्् है और अपने दो साल के कार्यकाल में भी वह वहां पर अपनी एक अमिट छाप छोड़ सकता है।

कुल मिलाकर 2011 भारत के लिए 2010 से कुछ बहुत अधिक भिन्न होने वाला नहीं है। इस वर्ष होने जा रहे राज्य विधानसभाओं के चुनाव अवश्य देश की राजनीति को थोड़ा बहुत प्रभावित कर सकते हैं। हां, आर्थिक क्षेत्र काफी सकारात्मक संभावनाएं समेटे हुए है। अमेरिका व यूरोपीय देशों में मंदी की स्थिति घटने के कारण देश के भीतर रोजगार और विदेशों के लिए निर्यात बढ़ने की पूरी संभावनाएं हैं। आई.टी. क्षेत्र में करीब डेढ़ करोड़ नई नौकरियां पैदा होने की संभावना है। महंगाई तो रहेगी, लेकिन विकास दर भी 8 से 9 प्रतिशत की ओर गतिमार रहेगी। फिर भी भविष्य का बहुत कुछ हमारे राजनेताओं के चरित्र व फैसलों पर निर्भर करता है। हमें आशा करनी चाहिए कि वे 2010 के खुलासों से कुछ सबक लेंगे और 2011 को एक बेहतर वर्ष बनाने का प्रयास करेंगे।

02/01/2011

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