रविवार, 10 अक्तूबर 2010

अधिनायकवाद विरोधी स्वर को मिला नोबेल पुरस्कार


                                                             लिऊ जियाबो अपनी पत्नी के साथ

इस बार नोबल का साहित्य व शांति पुरस्कार प्राप्त करने वालों में एक विशिष्ट समानता है कि दोनों ही मूलतः लेखक हैं। दोनों ही मानवाधिकारवादी हैं तथा दोनों स्वतंत्रता, लोकतंत्र और मानवीय गरिमा की रक्षा के लिए समर्पित हैं। पेरू (द. अमेरिका)  के स्पेनिश साहित्यकार मैरियो वेरगास लोसा स्पेनिश भाषी दुनिया के सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त साहित्यकार हैं। वह वैयक्तिक स्वतंत्रता के सबसे बड़े पक्षधरों में गिने जाते हैं। साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले वह पहले पेरूवासी हैं। उधर शांति का नोबेल पुरस्कार चीन के विद्रोही लेखक व राजनीतिक कार्यकर्ता लियू जियाबो को प्राप्त हुआ है, जो इस समय चीन की जेल में कैद हैं। उनका अपराध है कि वह चीनी अधिनायकवाद के विरुद्ध लोकतंत्रवादी आंदोलन चला रहे हैं और वह उस 'नागरिक घोषणा पत्र 2008' के सह लेखक हैं, जो चीन में मानवीय स्वतंत्रता व लोकतंत्र का आह्वान करने वाला सर्वाधिक चर्चित दस्तावेज है।

नोबेल साहित्य व शांति पुरस्कारों के चयन को लेकर प्रायः कुछ न कुछ विवाद खड़ा होता रहा है, लेकिन इस बार पेरू के प्रतिष्ठित लेखक मैरियो वरगास लोसा के नाम की साहित्य के पुरस्कार के लिए घोषणा हुई, तो पूरी दुनिया में एक स्वर से स्वागत किया गया । शांति के पुरस्कार के लिए चीन के मानवाधिकारवादी विद्रोही नेता लियू जियाबो के नाम की घोषणा का भी पूरे विश्व में स्वागत किया गया। हां, इस घोषणा से स्वयं चीन जरूर आग बबूला हो उठा और इसके लिए न केवल नार्वे की उन नोबेल चयन समिति को खरी खोटी सुनायी, बल्कि नार्वे सरकार को भी धमकी दी कि इससे दोनों देशों के संबंध खराब हो सकते हैं। चीन के विदेश विभाग ने अपनी अत्यंत तीखी प्रतिक्रिया में कहा कि यह नोबेल पुरस्कार और उसी भावना का अपमान है। यह एक ऐसे अपराधी को दिया गया है, जिसे चीन के न्याय विभाग ने चीनी कानून के उल्लंघन का दोषी पाया है और उसे 11 वर्ष के कैद की सजा दी है।
यहां उल्लेखनीय है कि मैरियो लोसा और लियू जियाबो को यद्यपि अलग-अलग उपलब्धियों के लिए नोबेल सम्मान के लिए चुना गया है, लेकिन मूलतः दोनों ही लेखक हैं और दोनों ही मानवाधिकारों के सम्मान के लिए राजनीतिक परिवर्तनों के पक्षधर हैं। यह बात अलग है कि लोसा को जहां उनकी कलात्मक अभिव्यक्तियों के लिए सराहा गया है, वहीं लियू को सीधे संघर्ष के लिए।
74 वर्षीय लोसा एक महान कथाकार ही नहीं, निबंधकार, नाटककार, पत्रकार और सांस्कृतिक टिप्पणीकार भी हैं। उनके 30 उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। वह इन उपन्यासों की कथावस्तु के अलावा अपने अनूठे शिल्प के लिए भी प्रसिद्ध हैं। उन्हें दैवी प्रतिभा संपन्न कथाकार माना जाता है। समकालीन राजनीति व समाज उनके लेखन के मुख्य विषय हैं। वह ऐसे जनपक्षकार बुद्धिजीवी हैं, जो यह मानते हैं कि रोजमर्रा के महत्वपूर्ण मुद्दों से लेखक का अनिवार्यतः सरोकार होना चाहिए। उन्हें एक अत्यंत मुखर राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में भी जाना जाता है। राजनीतिक बदलाव की आकांक्षावश एक बार उन्होंने पेरू के राष्ट्रपति का चुनाव भी लड़ा था। वह थोड़े मतों से हार गये थे, लेकिन उसके बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति छोड़ दी और लेखन पर ही अपना पूरा ध्यान केंद्रित किया। देश या समाज की राजनीति व संस्कृति को आकार देने में कलम की शक्ति के प्रति उनमें दृढ़ विश्वास है। यह विश्वास ही उनके लेखन की मूल अंतर्धारा है। नोबेल पुरस्कार के उनके प्रशस्ति पत्र में साफ लिखा गया है कि उन्हें यह सम्मान -सत्ता के ढांचे की संरचना तथा वैयक्तिक प्रतिरोध, विरोध और पराजय के उनके तीखे बिम्बों- के लिए दिया जा रहा है।
यह पेरू के लिए साहित्य का पहला नोबेल पुरस्कार है, लेकिन सच यह है कि लोसा ने पेरू को वैश्विक सम्मान दिलाया है। वह अपने को राष्ट्रीय सीमाओं के परे एक विश्व नागरिक मानते हैं। उनकी राजनीतिक विचारधारा में यद्यपि बदलाव आता रहा। वह वामपंथी से धीरे-धीरे दक्षिण-मध्यमार्गी बन गये, लेकिन उनका यह विश्वास कभी नहीं बदला कि किसी भी राष्ट्रीय या समाज के जीवन में कहानी एवं साहित्य का महत्वपूर्ण स्थान है और इसके बिना कोई भी विवेकशील मेधा $क्रिटिकल माइंड$ जो ऐतिहासिक परिवर्तनों का वास्तविक इंजिन तथा स्वतंत्रता की सर्वोत्तम संरक्षिका होती है, अपनी कोई सार्थक भूमिका नहीं अदा कर सकती। कहानी कहना या कहानी लिखना स्थूलतया केवल अपने समाज और दुनिया से जुड़ने का माध्यम है, किंतु लोसा की चिंताएं बहुत ठोस और वास्तविक हैं। उनकी कथाशैली की बुनावट भले ही जटिल हो तथा उसमें दर्शन का भी पुट हो, लेकिन वे हमेशा समकालीन विषयों व चिंताओं को ही अपने लेखन में उठाते हैं। उन्होंने बाद में पेरू छोड़ दिया। उनका कहना था कि उनके लिए सभ्यता का यदि कोई मूल आधार है, तो यही कि वह विश्व नागरिक बनें। उनके इस कथन का यह आशय नहीं था कि वह पेरू से निराश थे, लेकिन एक अत्यंत संवेदनश्ील तथा जागरूक लेखक के तौर पर उनकी आधारभूत कल्पना यही थी कि मनुष्य मनुष्य के बीच भेद की रेखाएं न हों, उनके बीच कोई राजनीतिक या राष्ट्रीय सीमा रेखा भी न हो। उनका यह सोचना अति आदर्शवादी कहा जा सकता है, लेकिन सभी उच्चतर मानवीय मेधाओं ने सदैव ऐसी ही कल्पना की है। भारत का यह प्रसिद्ध वाक्य तो सबको पता ही है कि -सीमाएं छोटे लोगों की सोच का हिस्सा होती हैं। यह मेरा है, वह तेरा है, यह अल्पबुद्धि वालों की या संकीर्ण चित्तवालों की सोच है। उदार चरित वाले लोगों के लिए तो यह संपूर्ण संसार ही उसका अपना है, उसका परिवार है (अयं निजः परोवेत्ति गणना लघु चेतसाम्। उदार चरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम) । लोसा की सोच भी इससे भिन्न नहीं है। उन्होंने मनुष्यता के इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साहित्य सृजन को अपना साधन बनाया है।
पुरस्कार की घोषणा के बाद अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में पहले तो उन्होंने इस पर आश्चर्य व्यक्त किया कि उन्हें यह सम्मान मिला है, फिर छूटते ही उन्होंने कहा कि इससे न उनके जीवन में कोई फर्क पड़ने वाला है, न लेखन में। वह इससे प्रसन्न हैं, लेकिन यह सम्मान उनकी जिंदगी नहीं है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि किसी लेखक को नोबेल पुरस्कार के बारे में नहीं सोचना चाहिए, क्योंकि यह उसके लेखन के लिए बुरा है।
लोसा स्पेनिश भाषी दुनिया के सर्वाधिक ख्याति प्राप्त लेखक हैं। कई वर्षों से उनका नाम नोबेल पुरस्कारों की चर्चा में रहा है, लेकिन अनेक राजनीतिक कारणों से वह उपर नीचे होता रहा। दक्षिण् अमेरिका की बौद्धिक विचारधारा ज्यादातर वामपंथी हैं। इस महाद्वीप के पिछले नोबेल पुरस्कार विजेता $कोलंबिया$ गैबरील गार्सिया मार्खेज (1982) वामपंथी बुद्धिजीवियों में अत्यधिक लोकप्रिय है। लोसा कभी उनके घनिष्ठ मित्रों में थ्े, लेकिन लोसा की राजनीतिक विचारधारा बदली तो दोनों विपरीत ध्रुवों की तरह दूर हो गये और 1976 की एक घटना तो अब तक लोग याद करते हैं, जब मेक्सिको शहर के एक सभागार में लोसा ने मार्खेज के मुह पर मुक्का जड़ दिया था और एक फोटोग्राफर ने इस घटना को न केवल दुनियाभर में फैला दिया, बल्कि उस क्षण को अमिट कर दिया। आज तक यह ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया था कि लोसा की यह प्रतिक्रिया राजनीतिक कारणों से थी या पारिवारिक।
उनके कुछ मित्रों के अनुसार लोसा की उनकी पत्नी से अनबन चल रही थी। मार्खेज ने उनकी पत्नी को सांत्वना देने के लिए उनका पक्ष लिया था, जिस पर लोसा गुस्से में थे और मेक्सिको में उस समय जब मार्खेज उन्हें गले लगाने के लिए आगे बढ़े, तो उन्होंने मुक्का जड़ दिया। जबकि दूसरे कुछ लोगों के अनुसार इस हमले का कारण् राजनीतिक था। मुक्का चलाते समय लोसा ने मार्खेज जो कास्त्रो का चमचा कहा था। कास्त्रो क्यूबा की वामपंथी क्रांति के प्रणेता व वहां के राष्ट्रपति थे। कास्त्रो अभी भी दुनिया में वामपंथी विचारधारा के प्रतीक पुरुष माने जाते हैं, जबकि अब उनकी भी विचारधारा बदल चुकी है और जबसे उन्होंने अपने भाई को क्यूबा की सत्ता सौंपी है, तबसे वह पूंजीवादी सुधारवाद के समर्थक बन गये हैं।
खैर, यह सब आज उनके नोबेल सम्मान के संदर्भ में प्रासंगिक नहीं है, फिर भी नोबेल पुरस्कार चयन समिति की दृष्टि उनके राजनीतिक व्यक्तित्व की तरफ न रही हो, यह नहीं माना जा सकता। पिछले तमाम वर्षों के साहित्य के नोबेल पुरस्कार रचनाकारों की राजनीतिक विचारधारा को केंद्र में रखकर दिये गये हैं। कारण जो हों, लेकिन राजनीति के परे विशुद्ध साहित्यिक मूल्यों या कला को केंद्र में रखकर इधर शायद ही कोई पुरस्कार दिया गया हो। नोबेल के साहित्य व शांति के पुरस्कार इसीलिए विवाद के विषय भी बनते रहे हैं कि उनके चयन में राजनीतिक दृष्टि की प्रधानता रहती आयी है।
सामान्यतया यह माना जाता है कि साहित्य व शांति के नोबेल पुरस्कार पश्चिमी विचारधारा के प्रचार व पुष्टि के लिए दिये जाते रहे हैं। बीच-बीच में आने वाले अपवादों को छोड़ दें तो यह बहुत कुछ सच भी प्रतीत होता है। इस बार के पुरस्कारों पर ही ध्यान दें, तो यह बात बहुत मुखर है कि पुरस्कार के लिए पात्रों का चयन पश्चिमी लोकतंत्र, स्वतंत्रता तथा मानवाधिकार के मूल्यों के समर्थन में दिये गये हैं। लोसा पहले भले ही मार्क्सवादी रहे हों, लेकिन इस समय वह लोकतंत्र, खुले बाजारवाद तथा अंतर्राष्ट्रीयतावाद के समर्थक हैं। शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए चीन के उस विद्रोही नेता को चुना गया है, जो चीनी अधिनायकवादी एकदलीय शासन के विरोध में विद्रोह का झंडा उठाए हुए हैं। मानवाधिकार, स्वतंत्रता, लोकतंत्र आदि निश्चय ही मनुष्यता के उच्चतम मूल्य हैं, जिनकी रक्षा तथा प्रसार का यत्न हर स्तर पर किया जाना चाहिए, लेकिन कई पश्चिमी देश इनका इस्तेमाल राजनीतिक अस्त्र के रूप में भी करते हैैं। चीनी शासन इसीलिए बौखलाया हुआ है, क्योंकि 54 वर्षीय लियू जियाबो को शांति के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित करने के निर्णय को वह अनेक देश की राजनीतिक व्यवस्था में हस्तक्षेप मानता है।
लियू जियाबो को शांति का नोबेल पुरस्कार दिये जाने पर चीन का सवाल है कि एक विद्रोही को शांति का पुरस्कार दिये जाने का क्या औचित्य है, इसका जवाब नोबेल चयन समिति ने जियाबो के प्रशस्ति पत्र में पहले से शामिल कर रखा है। उसका कहना है कि मानवाधिकार व शांति का बहुत ही गहरा संबंध है। नार्वेजियन नोबेल कमेटी का यह अत्यंत दीर्घकालिक विश्वास है कि मानवाधिकारों की रक्षा से ही विश्व शांति सुनिश्चित की जा सकती है। इन पुरस्कारों के संस्थापक अल्फेर्ड नोबेल का भी यह विश्वास था कि राष्ट्रों के बीच भ्रातृत्व की यह पूर्व र्श्त है कि वे मानवाधिकारों का समान तथा उनकी सुरक्षा करें। यह सही भी है कि जहां मानवाधिकार सुरक्षित नहीं रहेंगे, वहां स्थाई शांति कभी कायम नहीं हो सकती। इस तरह का सवाल पिछले वर्ष उस समय भी उठा था, जब अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा को नोबेल के शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। कहा गया थ कि जो देश अभी भी दो देशों- इराक और अफगानिस्तान- में हिंसक युद्ध चला रहा है, उसके राष्ट्रपति को शांति का पुरस्कार कैसे दिया जा सकता है। उस समय भी यही तर्क दिया गया था कि बराक ओबामा इराक में शांति स्थापित करने के लिए वहां से अमेरिकी सेना की वापसी कर रहे हैं और अफगानिस्तान में चल रहे आतंकवाद के खिलाफ युद्ध वस्तुतः शांति के लिए लड़ा जा रहा युद्ध ही है।
लियू जियाबो थियानमेन चौक के उस छात्र विद्रोह में भी शामिल थे, जिसे चीनी शासन ने निर्दयता से रौंद दिया था। वह तबसे कई बार जेल में रहे, लेकिन उन्होंने अपना मानवाधिकारवादी आंदोलन छोड़ना स्वीकार नहीं किया। 2008 में उन्होंने लोकतंत्रवादी शक्तियों के लिए एक -नागरिक घोषणा पत्र- का निर्माण किया। 'नागरिक घोषणा पत्र-2008' शीर्षक के इस दस्तावेज के प्रकाशन के बाद दिसंबर 2008 में लियू को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया गया। उनके खिलाफ चीनी कानूनों के उल्लंघन का क्या-क्या आरोप लगाया गया, इसकी कोई खुली जानकारी दुनिया को नहीं है, लेकिन यह पता है कि तथाकथित न्यायालय ने उन्हें यह घोषणा पत्र तैयार करने के लिए 11 वर्ष के कैद की सजा सुना दी।
अभी ताजा खबर है कि चीनी पुलिस ने बीजिंग में रह रही उनकी पत्नी लियू जिया को भ्ी उनके घर से हटा दिया है। उनके पति को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, यह खबर जब उन्हें दी गयी, तो उन्होंने फोन पर बताया कि चीनी पुलिस उनके घर के चारों तरफ लगी हुई है। हो सकता है उन्हें भी उनके पति के पास भेजने की तैयारी हो। वैसे अभी तो ठीक-ठीक यह भी नहीं कहा जा सकता कि जियाबो को यह जानकारी भी है या नहीं कि उनके नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
खैर, जो भी हो, इस बार इन दोनों ही पुरस्कारों के चयन के लिए नोबेल चयन समिति की सराहना की जानी चाहिए। इसमें पश्चिम की राजनीति भी हो तो कोई हर्ज नहीं। स्वतंत्रता, लोकतंत्र तथा मानवाधिकारों की रक्षा के लिए अपनी कलम चलाने या अपना जीवन दांव पर लगाने वालों का सम्मान होना चाहिए। चीन आज आर्थिक व सैनिक विकास के क्षेत्र में कितना भी आगे क्यों न बढ़ गया हो, लेकिन मानवीय स्वतंत्रता तथा लोकतंत्र का तो उसने गला ही घोंट रखा है। एकदलीय अधिनायकवाद आज भले ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति हो, लेकिन यही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है, जो आज नहीं तो कल उसे पतन की ओर अवश्य ले जाएगी।
 
10-10-2010

3 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

चीन और म्यामार के मानवाधिकार नेताओं को पुरस्कार किया गया जो इन देशों में जद्दोजहद करनेवालों के लिए एक शुभ संकेत है। एक वितारपूर्वक लेख के लिए आभार॥

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

वितारपूर्वक को कृपया विस्तारपूर्वक पढें॥

Manua Beparwah ने कहा…

aaj kashmir jal raha hai http://padchihna.blogspot.com/2010/11/blog-post.html