मंगलवार, 8 जून 2010

ओबामा फिर लौटे भारत की ओर


ऐसा लगता है कि राष्ट्र्पति ओबामा का चीन और पाकिस्तान से बहुत जल्दी मोहभंग हो गया है। गत वर्ष की उनकी बीजिंग यात्रा के बाद ऐसा लगने लगा था कि एशिया कि एशिया में भारत अब उनकी प्राथमिकता में नहीं रहा। अपनी अफगान नीति में उन्होंने भारत की जिस तरह उपेक्षा की, उससे भी लगा कि वह फिर अमेरिका की अपनी पाकिस्तान परस्त नीति की तरफ लौट गये हैं। लेकिन गत गुरुवार को वाशिंगटन में भारत-अमेरिका उच्च स्तरीय रणनीतिक वार्ता के दौरान भारतीय प्रतिनिधि मंडल के सम्मान में आयोजित समारोह में उन्होंने जिस तरह की भावनाएं व्यक्त की, उससे लगा कि उन्होंेने जल्दी अपने को सुधार लिया है और यह समझ लिया है कि एशिया में भारत ही उनका विश्वसनीय रणनीतिक सहयोगी हो सकता है।


अमेरिकी राष्ट्र्पति बराक हुसैन ओबामा ने इस गुरुवार को बड़े उत्साह से घोषणा की कि वह आगामी नवंबर महीने की शुरुआत में भारत की यात्रा पर आएंगे। और यह यात्रा उनकी कोई साधरण यात्रा नहीं होगी। वह भारत के साथ अमेरिका के सहयोग का एक इतिहास बनाने के लिए आएंगे। और यह इतिहास केवल वर्तमान पीढ़ी के लिए नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए एक उल्लेखनीय संपदा होगी।

ओबामा अमेरिकी विदेश विभाग के कार्यालय में भारत-अमेरिका प्रथम रणनीतिक वार्ता के अवसर पर विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन द्वारा भारतीय प्रतिनिधि मंडल के स्वागत में आयोजित समारोह में बोल रहे थे। इस वार्ता को ऐतिहासिक महत्व प्रदान करने के लिए राष्ट्र्पति ओबामा प्रोटोकॉल तोड़कर इस स्वागत समारोह में आए और भारत के साथ विशिष्ट वैश्विक रणनीतिक साझेदारी स्थापित करने का अपना राष्ट्र्य संकल्प दोहराया। भारत-अमेरिका संबंधों की विशिष्टता और साझेदारी की बात इस समय अमेरिका ही नहीं, प्रायः पूरी दुनिया के कूटनीतिक क्षेत्रों में चर्चा का विषय है। भारत-अमेरिका रण्नीतिक वार्ता की इस शुरुआत तथा उसमें व्यक्त किये गये राष्ट्र्पति ओबामा और विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन के विचारों पर चीन और पाकिस्तान की सबसे गहरी नजर है। चीन के सरकारी दैनिक ‘पीपुल्स डेली’ में प्रकाशित एक विश्लेषण में जहां इसे शंका की दृष्टि से देखा जा रहा है, वहीं पाकिस्तान में भी इस पर थोड़ी बेचैनी नजर आ रही है। यद्यपि पाकिस्तान सरकार की तरफ से यह कहने की कोशिश की गयी है कि भारत-अमेरिका की यह निकटता उसके लिए कोई चिंता का विषय नहीं है, फिर भी अफगानिस्तान में भारत की भूमिका का अमेरिका द्वारा समर्थन किये जाने से उसे चिंता हुई है। पाकिस्तानी विदेशा विभाग के प्रवक्ता अब्दुल बासित ने अपनी टिप्प से यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि अमेरिका अभी भी भारत के मुकाबले उसके अधिक नजदीक है। उनका कहना था कि अमेरिका ने पाकिस्तान को विश्वास में लेकर ही भारत के साथ यह वार्ता श्रृंखला शुरू की है। अमेरिका के साथ पाकिस्तान का संबंध इससे प्रभावित नहीं होगा। जबकि उधर चीन की टिप्पणी है कि भारत से अमेरिका की इस बढ़ती निकटता से चीन पर दबाव बढ़ेगा। चीनी विश्लेषकों को यह लग रहा है कि अपनी बीजिंग यात्रा के दौरान ओबामा ने चीनी राष्ट्र्पति के साथ हुई वार्ता के बाद जारी संयुक्त वक्तव्य में जो विचार व्यक्त किया था, वह अवसर के अनुकूल जारी एक समारोहिक वक्तव्य मात्र था। उस संयुक्त वक्तव्य में ओबामा ने कहा था कि दक्षिण एशिया में शांति व स्थिरता के लिए चीन और अमेरिका मिलकर काम करेंगे। इस वक्तव्य से चीन जहां प्रसन्न हुआ था, वहां भारत में खिन्नता फैली थी। क्योंकि इससे यह ध्वनि निकलती थी कि दक्षिण एशिया में भारत का कोई महत्व नहीं है और इस क्षेत्र में भी शांति और स्थिरता कायम करने के लिए अमेरिका चीन को आमंत्रित कर रहा है। इससे भारत में अमेरिकी नीयत के बारे में शंका पैदा होना स्वाभाविक था।

इसके बाद राष्ट्र्पति ओबामा ने अपनी पाक-अफगान नीति के कार्यान्वयन के लिए जो रणनीति अपनायी, उससे भी भारत की चिंता बढ़ी, क्योंकि इसमें भारत की भूमिका को दरकिनार करके पाकिस्तान को अकेले सर्वाधिक महत्व दिया गया। ओबामा ने अपनी अफगान नीति के अंतर्गत घोषणा की थी कि वह 1 जुलाई 2011 से अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी की शुरुआत कर देंगे। इसके पूर्व उन्होंने अफगानिस्तान में आतंकवाद को पराजित करने और शांतिपूर्ण वातावरण कायम करने का वायदा किया था। इस नीति की घोषणा के बाद उन्हें लगा कि अफगानिस्तान में ‘नाटो’ की सेना के सहारे यह लक्ष्य प्राप्त करना तो शायद असंभव है। ऐसे में पाकिस्तानी हुक्मरानों ने उन्हें विश्वास दिलाया कि यदि वे उनकी बात मानें तो काम मुश्किल नहीं है। पाकिस्तान की सलाह थी कि यदि अफगानिस्तान के नरमपंथी तालिबानों को अपनी तरफ मिला लिया जाए और काबुल की सत्ता में हिस्सेदारी दे दी जाए, तो अफगान समस्या का समाधान हो सकता है। इसके लिए उसकी शर्त थी कि इन नरमपंथी तालिबानों के साथ जो बातचीत की जाए, उसमें पाकिस्तान को न केवल शाामिल किया जाए, बल्कि उसे अहम भूमिका प्रदान की जाए। दूसरे अफगानिस्तान से भारत की भूमिका समाप्त की जाए। और तीसरे पाकिस्तान को आधुनिक शस्त्रास्त्रों की पूरी सैनिक सहायता दी जाए। अमेरिका ने सिद्धांततः पाकिस्तान की प्रायः सारी बातें मान ली। भारत की भूमिका के बारे में पाकिस्तान को कोेई स्पष्ट आश्वासन नहीं दिया गया, लेकिन परोक्षतः यह मान लिया गया कि यदि काबुल की सरकार में पाक समर्थक तालिबान का वर्चस्व कायम हो जाएगा, तो भारत को अपने आप काबुल से भागना पड़ेगा, इसीलिए उस पर कुछ अधिक जोर देने की जरूरत नहीं है। अमेरिका ने पाकिस्तान योजना पर बातचीत के लिए वाशिंगटन में एक विशिष्ट वार्ता का आयोजन किया, जिसमें पाकिस्तान सेनाध्यक्ष व आईएसआई प्रमुख को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया।

इस बीच न्यूयार्क के टाइम्स स्क्वायर में कार बम रखे जाने की घटना घट गयी। इसकी जब जांच आगे बढ़ी, तो इसके तार सीधे पाकिस्तान से जुड़े पाये गये। अमेरिका द्वारा पाकिस्तान की सारी शर्तें मान लेने के बावजूद पाकिस्तानी सेना ने उत्तरी वजीरिस्तान में अलकायदा व तालिबान नेताओं के गुप्त अड्डों के विरुद्ध अभियान शुरू नहीं किया। सेनाध्यक्ष जनरल कयानी इसमें लगातार अनाकानी करते आ रहे हैं। अमेरिका का इससे निराश होना स्वाभाविक था। राष्ट्र्पति ओबामा को चीन व पाकिस्तान से जो अपेक्षाएं थीं, वे किसी तरह पूरी होती नहीं दिखायी दीं। ओबामा को चीन से अपेक्षा की थी कि वह अमेरिका को मंदी के आर्थिक संकट से उबरने में मदद करने के लिए तैयार हो जाएगा और पाकिस्तान से आशा थी कि वह अफगानिस्तान के मामले में अमेरिका के द्वारा तैयार किये गये ‘रोडमैप’ के अनुसार कार्रवाई शुरू कर देगा, किंतु वे दोनों ही बातें होती नहीं नजर आयीं। उधर इन दोों के चक्कर में भारत के साथ बढ़ी घनिष्ठता भी ढीली पड़ने लगी।

ओबामा की निश्चय ही इसके लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने बहुत जल्दी स्थिति के यथार्थ को भांप लिया और उन्होंने एशियायी क्षेत्र में अपनी राजनीतिक क्षतिपूर्ति की कवायद शुरू कर दी। भारत-अमेरिका उच्चस्तरीय रणनीतिक वार्ता श्रृंखला की शुरुआत इसके कवायद का ही एक हिस्सा है। भारत के साथ संबंधों में आयी उदासीनता या खटास को तोड़ने के लिए ही राष्ट्रपति  ओबामा प्रोटोकॉल तोड़कर भारतीय विदेशमंत्री एस.एम. कृष्णा के सम्मान में आयोजित समारोह में भाग लेने के लिए पहुंचे।

इस समारोह में विदेशमंत्री हिलेरी के साथ राष्ट्र्पति ओबामा ने भी भारत के साथ अमेरिका के मूल्यों पर आधारित स्वाभाविक संबंधों को बार-बार रेखांकित किया। हिलेरी ने अपने वक्तव्य में अमेरिकी लेखक मार्कट्वेन को उद्घृत किया, तो ओबामा ने भारतविद जर्मन विद्वान मैक्समूलर के कथन को दोहराया। मार्कट्वेन ने लिखा था कि, ‘भारत मनुष्य जाति का पालना है, मनुष्य ने यहीं बोलना सीखा यानी भाषा का जन्म हुआ, यह इतिहास की मां, किंवदन्तियों की दादी मां और परंपराओं की तो दादी मां की भी मां है।’ हिलेरी ने इसमें जोड़ा कि मुझे खुशी है कि यह माताओं की श्रृंखला है। इसी तरह मैक्समूलर ने भारत के बारे में लिखा था कि ‘आप अपने विशेष अध्ययन के लिए मानव मस्तिष्क का कोई भी क्षेत्र चुने, चाहे वह भाषा हो, धर्म -रिलीजन- हो, विश्वास हो या दर्शन अथवा कानून या रीति-रिवाज या कि प्रारंभिक कला या विज्ञान आपको इसके लिए भारत जाना पड़ेगा, क्योंकि मानव इतिहास की अधिकांश शिक्षाप्रद व अधिकतम मूल्यवान सामग्रियों का भंडार भारत में और केवल भारत में ही है।’

ऐसा नहीं कि मार्कट्वेन या मैक्समूलर की लिखी ये बातें यूरोप अमेरिका के पढ़े लिखे लोगों को पहले न मालूम रही हों, लेकिन भारत-अमेरिका रणनीतिक वार्ता के अवसर पर अमेरिकी राष्ट्र्पति व विदेशमंत्री द्वारा इनका उद्घृत किया जाना यह प्रदर्शित करता है कि वे भारत के महत्व को थोड़ा-थोड़ा समझने लगे हैं। इसका यह अर्थ नीं निकाला जाना चाहिए कि अब अमेरिका के लिए पाकिस्तान या चीन का महत्व समाप्त हो गया है और वह अपनी सारी रणनीतिक आवश्यकताओं के लिए भारत से बंध गया है। कोई भी देश हो उसकी सारी आंतरिक व बाह्य नीतियां उसके राष्ट्र्ीय हितों से संचालित हैं।

इसमें दो राय नहीं कि भारत और अमेरिका परस्पर स्वाभाविक मित्र हो सकते हैं। दोनों के जीवन मूल्य तथा लोकतंत्र के प्रति आस्था समान है। एक दुनिया का सबसे शक्तिशाली और पुराना लोकतंत्र है, तो दूसरा दुनिया का सबसे बड़ा यानी सर्वाधिक जनसंख्या वाला लोकतांत्रिक देश। दोनों ही मानवमूल्यों की श्रेष्ठता में विश्वास करते हैं। इसके बावजूद वे करीब आधी शताब्दी तक कभी एक दूसरे के प्रति संदेह मुक्त नहीं हो सके। अमेरिका के बारे में सामान्य धारणा है कि उसमें लोकतांत्रिक देशों के बजाए तानाशाही देशों के साथ अधिक दोस्ती निभायी। भारत के राजनीतिक विश्लेषक भी इसीलिए अमेरिका से सर्तक रहने की सलाह देते रहते हैं।

लेकिन अब समय बदल रहा है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की स्थिति भी अब नहीं रह गयी है। शीतयुद्धकाल का दौर भी बीत चुका है। विश्व की सैनिक व आर्थिक महाशक्ति बनने का राष्ट्र्ीय सपना यद्यपि अभी भी बरकरार है, किंतु वैश्विक परस्पर निर्भरता इतनी बढ़ती जा रही है कि मात्र सैन्य शक्ति के सहारे कोई देश महाशक्ति नहीं बन सकता।

भारत की एक अजीब मजबूरी है कि उसके पड़ोस में उसका कोई दोस्त नहीं है। उसके पड़ोसियों पर भी उसका कोई प्रभाव नहीं है। पहले हजारों मील दूर उसका एक दोस्त सोवियत संघ या रूस था, अब एक नया दोस्त अमेरिका बन रहा है। पड़ोस के छोटे देश पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, बंगलादेश, म्यांमार आदि भारत के मुकाबले चीन के प्रभाव में अधिक हैं। चीन और भारत के बीच भाई-भाई व्यावसायिक प्रगति के साझीदार तो हो सकते हैं, लेकिन दोस्त नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों ही महत्वाकांक्षी हैं, इसलिए प्रतिस्पर्धी हैं। दोनों ही महान संस्कृतिक परंपराओं के वारिस हैं, लेकिन न तो दोनों की जीवनशैली समान है, न राजनीति। वे पड़ोसी होकर भी सहज मित्र नहीं हो सकते। इसलिए अमेरिकी मैत्री की भारत को भी आवश्यकता है। कम से कम पड़ोस की सैन्य चुनौतियों तथा वैश्विक आतंकवाद से मुकाबले के लिए दूसरा कोई साथी उपलब्ध नहीं है। इसलिए भारत तो अमेरिका के साथ संबंधों को आगे बढ़ाने के लिए तैयार बैठा है। इधर-उधर विचलन की स्थिति में तो अमेरिका ही पड़ा है।

इसमें दो राय नहीं कि भारत और अमेरिका यदि ईमानदारी से परस्पर मैत्री गठबंधन कर लें, तो 21वीं सदी का इतिहास उनके नाम ही रहेगा, लेकिन इसके लिए विश्वास की आधारभूमि अमेरिका को बनानी है। 2-3 जून को वाशिंगटन में हुई रणनीतिक वार्ता तो अभी शुरुआत है। यह कितना आगे बढ़ सकती है, इसका पता अगली वार्ता में चलेगा, जो अगले वर्ष नई दिल्ली में होगी। इसके पूर्व भारत को सर्वाधिक उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा रहेगी आगामी नवंबर में राष्ट्र्पति ओबामा की भारत यात्रा की। यदि राष्ट्र्पति ओबामा अपने शब्दों के प्रति ईमानदार हैं, तो नवंबर में होने जा रही उनकी यात्रा भारत-अमेरिका संबंधों के इतिहास में विश्व इतिहास की किताब का एक नया अध्याय लिखेगी। संदेह और विश्वास की स्थितियां बनती बिगड़ती रहती हैं, लेकिन मनुष्यता के विकास के लिए यह आवश्यक है कि मानवीय स्वतंत्रता और श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों में विश्वास करने वाले देश् व समाज परस्पर निकट आएं। हिंसक आतंकवादी विचारधाराओं और उसकी पोषक शक्तियों को पराजित करने के लिए यह अत्यावश्यक है।

1 टिप्पणी:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

नहीं, जनाव, बहुत ही काइयां किस्म का इंसान है यह, मतलबी नंबर वन , मैं तो कहूंगा की अब तक के सारे अमेरिकी राष्ट्रपतियों से खतरनाक, जहां तक भारत का सम्बन्ध है ! यह मीठी छुरी है Beware !