मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट और अयोध्या का सच

6 दिसंबर 1992 को तथाकथित बाबरी मस्जिद के ध्वंस के कारणों, परिस्थितियों तथा जिम्मेदारियों का पता लगाने के लिए गठित लिब्रहान जांच आयोग की रिपोर्ट सबके सामने आ चुकी है। लेकिन सवाल है कि क्या यही कुल सच है, अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का, और उसके ध्वंस के कारणों का। क्या यह सच नहीं है कि 6 दिसंबर की यह घटना शताब्दियों की प्रशासनिक और न्यायिक विफलता का परिणाम थी। देश की यह समस्या तो तब की है,जब संघ, भाजपा व विहिप की पैदाइश भी नहीं हुई थी। यह तो आज की राजनीति है कि इसे 22 दिसंबर 1949 या 6 दिसंबर 1992 की घटनाओं में सीमित कर दिया गया है। वस्तुत: यह समस्या 1528 की है, जो अब तक चली आ रही है। आखिर इसके समाधान की कब तक और प्रतीक्षा करनी होगी।


तथाकथित बाबरी मस्जिद का ढांचा ढहाए जाने के कारणों की जांच के लिए गठित एक सदस्यीय लिब्रहान जांच आयोग ने करीब साढ़े छ: करोड़ रुपये खर्च करके 16 वर्ष 6 महीने 14 दिन बाद अपनी रिपोर्ट गत 30 जून 2009 को सरकार को सौंपी। करीब 1024 पृष्ठ की इस विशाल रिपोर्ट में केवल एक व्यक्ति को छोड़कर और सभी को दोषी ठहरा दिया गया। व्यक्तिगत रूप से 68 लोगों को दोषी करार दिया गया है, किन्तु किसी के खिलाफ किसी दंडात्मक कार्रवाई की सिफारिश नहीं है। केंद्र सरकार ने चुपचाप इस रिपोर्ट को दबाकर रख था। विपक्ष की भी इसमें कोई खास रुचि नहीं थी, इसलिए किसी ने भी इसे संसद के पटल पर रखने के लिए जोर नहीं दिया। सरकार के पास यों भी ऐसी रिपोर्ट पेश करने के लिए कम से कम 6 महीने का समय था, इसलिए वह भी दिसंबर तक तो निश्चिन्त ही थी। लेकिन एक दिन सुबह (23 नवंबर 2009) एक अंग्रेजी दैनिक ने रिपोर्ट लीक कर दी। यह रिपोर्ट किसके द्वारा लीक करायी गयी, यह अब तक रहस्य बना हुआ है। विपक्ष का आरोप है कि सरकार ने इसे खुद लीक कराया, लेकिन यह बात विश्वसनीय नहीं लगती, क्योंकि उसे लीक कराने की क्या जरूरत थी, वह इसे सीधे सदन में पेश कर सकती थी। उसने इससे अब तक सदन में पेश नहीं किया था, तो शायद इसीलिए कि वह खुद भी इस पर चर्चा या बहस से बचना चाहती थी। सरकारी सूत्रों की माने, तो वह इसे संसद के वर्तमान सत्र के अंतिम दो दिन में पेश करना चाहती थी, मगर रिपोर्ट लीक हो जाने से उसे मजबूरन अगले दिन यानी 24 नवंबर को उसे सदन में पेश करना पड़ा।
सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश मोहिन्दर सिंह लिब्रहान के नेतृत्व में यह जांच आयोग मस्जिद ढहने की घटना (6 दिसंबर 1992) के मात्र 10 दिन बाद 16 दिसंबर को गठित किया गया था। कांग्रेसी नेतृत्व की तत्कालीन केंद्र सरकार के प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने इसके गठन की घोषणा की थी। आयोग को यह पता लगाना था कि मस्जिद किन परिस्थितियों में ढहायी गयी और कौन इसके जिम्मेदार हैं। लिब्रहान साहब ने अपने नियोक्ता का पूरा ध्यान रखा। उन्होंने प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव को हर तरह के आरोप व दोष से मुक्त कर दिया है, बाकी भारतीय जनता पार्टी व संघ परिवार के नीचे से ऊपर तक सारे नेताओं को दोषी करार दिया है। उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह उनके केंद्रीय निशाने पर हैं, बाकी प्रशासन व पुलिस किसी को माफ नहीं किया है। भविष्य में ऐसी कोई घटना फिर न दोहरायी जाए इसके लिए जस्टिस लिब्रहान ने 65 सिफारिशें की हैं। इनमें कई ऐसी सिफारिशें हैं, जिन पर सरकार को सौ बार विचार करना पड़ेगा। जैसे सांप्रदायिकता व जातिवाद से पुलिस व अफसरशाही यानी प्रशासन को दूर रखने की उनकी सिफारिश सरकार की आरक्षण योजना को ध्वस्त कर सकती है। उनकी यह भी सिफारिश है कि जो लोग लाभ के पदों पर कार्यरत हैं, उन्हें धार्मिक संगठनों, चैरिटी व ट्रस्टों का सदस्य बनने की अनुमति न दी जाए। यही नहीं वह यह भी चाहते हैं कि यदि धार्मिक कार्ड इस्तेमाल करके कोई पार्टी चुनाव जीतकर आती है, तो उसे सत्ता संभालने से रोकने के उपाय किये जाएं।
आयोग ने अपनी रिपोर्ट में भाजपा, संघ परिवार एवं कल्याण सिंह की सरकार पर पूरा गुस्सा निकाला है। इसमें उन्होंने किसी को माफ नहीं किया है। हां थोड़ा वर्गीकरण अवश्य किया है, जैसे कि कल्याण सिंह, उमा भारती, गोविंदाचार्य आदि को 'रेडिकल्स में गिना है, तो भाजपा के तीन शीर्ष नेताओं अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी एवं मुरली मनोहर जोशी को छद्म उदारवादी (श्यूडो माडरेट) यानी ऐसा व्यक्ति बताया है, जो सिर्फ देखने सुनने में उदारवादी है या यों कहें कि उन्होंने उदारवाद का चोला पहन रखा है, वैसे हैं वे भी 'रेडिकल ही। उनका यह भी कहना है कि बाबरी मस्जिद को योजनाबद्ध ढंग से गिराया गया। इसे गिराने की सोची-समझी साजिश थी। यह कोई आकस्मिक आक्रोश या उत्तेजना का परिणाम नहीं था। यह साजिश वास्तव में किसने रची और किसने इसे कार्यान्वित किया, यह ठीक-ठीक जानकारी लिब्रहान के पास नहीं है। लेकिन उन्होंने भाजपा व संघ परिवार के शीर्ष नेताओं तक को इसके लिए इसलिए जिम्मेदार ठहराया कि ऐसा हो ही नहीं सकता कि उन्हें इसकी जानकारी न रही हो। सच्चाई यह है कि इसके बारे में लिब्रहान साहब ऐसी कोई जानकारी खोजकर नहीं ला सके, जो नई हो या जिसके बारे में आम जनता को पहले से कोई जानकारी न हो।
मोटे तौर पर यह सभी जानते हैं कि जिन्होंने बाबरी मस्जिद के खिलाफ आंदोलन छेड़ा, यह नारा दिया कि 'मंदिर वहीं बनाएंगे यानी उसी जगह पर, जिस जगह पर वह मस्जिद खड़ी है, वहीं नये मंदिर का निर्माण करेंगे, जिन्होंने कार सेवा शुरू की तथा जिन्होंने मंदिर निर्माण के लिए देशभर से शिलाएं एकत्रित की, अयोध्या में मंदिर निर्माण कार्यशाला खोली, वे ही मस्जिद ढहाने के भी जिम्मेदार हैं। यदि वे इस घटना के बाद प्रतिवर्ष उस दिन देशभर में शौर्यदिवस मनाते हैं, तो वे इस बात की ही पुष्टि करते हैं कि वे इसके जिम्मेदार हैं। इसलिए यदि लिब्रहान साहब अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर नीचे तक भाजपा व संघ परिवार को इसका स्थूलतया दोषी मानते हैं, तो कुछ भी गलत नहीं करते। विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष अशोक सिंघल भी यह मानते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी भी राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के अंग थे। इसके लिए लखनऊ में वह गिरफ्तार भी हुए थे। लेकिन यहां सवाल है कि क्या यही पता लगाने के लिए उन्होंने करीब 17 वर्षों का लंबा समय लिया।
अपनी इस रिपोर्ट में उन्होंने केवल एक बात सही कही है, जो आम आदमी की अवधारणा के खिलाफ है और उसे चकित करने वाली है। वह है इस मामले में प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव को पूरी तरह दोषमुक्त करार दे देना। इसमें दो राय नहीं कि बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने में उनकी कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं थी, लेकिन उनकी मूक स्वीकृति अवश्य थी। क्योंकि इतना तय है कि यदि वह न चाहते, तो मस्जिद का ढांचा नहीं गिर सकता था। सच कहा जाए, तो उन्होंने बड़ी चतुराई से बाबरी मस्जिद को अपनी राजनीति का मुहरा बना लिया था। वास्तव में उन्होंने इस मंदिर आंदोलन के खिलाफ भाजपा को ही इस्तेमाल करने की चाल चली। इस चाल में उन्हें अपने दोनों हाथों में राजनीतिक लाभ के लड्ïडू नजर आ रहे थे और आत्मिक तृप्ति का अलग से लाभ मिलने की भी संभावना थी।
उन्होंने उत्तर प्रदेश राज्य की भाजपा सरकार के कंधे पर मस्जिद रक्षा का भार स्थापित किया। संवैधानिक नियमों में बंधी सरकार यह नहीं कह सकती थी कि वह मस्जिद के ढांचे की सुरक्षा नहीं कर सकती। इसलिए उसने राष्टï्रीय एकता परिषद की बैठक में भी यह वचन दिया और अदालत को भी इसका आश्वासन दिया। लेकिन इसके साथ ही वह राम मंदिर आंदोलन व कारसेवा को भी रोकने में असमर्थ थी, क्योंकि जिस राम मंदिर आंदोलन की लहरों ने उसे सत्ता तक पहुंचाया था, वह अब उसी ज्वार को रोकने का साधन कैसे बन सकती थी। उसे इन लहरों के साथ बहना ही था। नरसिंह राव साहब ने कल्याण सिंह को हर तरह की मदद का आश्वासन दिया। यह भी कहा कि जितनी केंद्रीय पुलिस की जरूरत हो, वह देने के लिए तैयार हैं। लेकिन मस्जिद की रखवाली उन्हें ही करनी पड़ेगी। राव साहब की यह चाल भाजपा की सरकार के लिए एक शिकंजा थी। ऐसा नहीं हो सकता कि मस्जिद को ढहाने की कोई साजिश हो और उसकी भनक केंद्र को बिल्कुल न हो। लेकिन राव साहब जानते थे कि बिना कठोर बल प्रयोग, यानी बिना रक्तपात के अब इसे रोका नहीं जा सकता। कल्याण सिंह यदि मस्जिद को बचाने का वचन निभाएंगे, तो उन्हें कारसेवकों पर लाठी डंडे ही नहीं गोली भी चलानी पड़ेगी। और यदि वे यह नहीं करेंगे, तो मस्जिद का ढहना तय है। राव साहब की दृष्टिï में ये दोनों स्थितियां उनकी पार्टी के हित में थीं। यदि कल्याण सिंह गोली चलवाएंगे, तो मस्जिद भले बच जाए, लेकिन भाजपा का पूरा जनाधार ध्वस्त हो जाएगा और यदि उन्होंने कुछ न किया और मस्जिद गिरने दी, तो फिर केंद्र सरकार हरकत में आएगी और मस्जिद के साथ भाजपा की सरकारों को ध्वस्त करके वहां के शासन अपने हाथ में ले लेगी।
इसमें दो राय नहीं कि राव साहब यदि चाहते तो मस्जिद का बाल भी बांका नहीं हो सकता था। वह विवादित परिसद को केंद्र के अधिकार में लेकर उसके चारों तरफ अर्धसैनिक बलों का पहरा लगवा सकते थे। यह काम बिना राज्य सरकार को बर्खास्त किये भी हो सकता था, लेकिन उस स्थिति में कांग्रेस को देशव्यापी हिन्दू आक्रोश का सामना करना पड़ता, जिसका निश्चय ही उसे भारी राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ता। इसलिए उन्होंने एक तीर से तीन शिकार करने की कोशिश की और बदनामी द्ब्रोलकर भी न केवल भाजपा को धूलिसात किया, बल्कि कांग्रेस पार्टी का भी बचाव किया। यह बात दूसरी है कि उनकी इस राजनीति से देश का मुस्लिम समुदाय बिदक गया और उन्हें भी बाबरी मस्जिद ध्वंस के लिए कल्याण सिंह से कम जिम्मेदार नहीं माना। किन्तु लिब्रहान साहब ने नरसिंह राव को इस मामले में पूरी तरह निर्दोष करार दिया है। उनका तर्क है कि चूंकि उनके पास उत्तर प्रदेश के राज्यपाल की तरफ से कोई रिपोर्ट नहीं थी, इसलिए उनके हाथ-पांव बंधे थे, क्योंकि इस तरह की रिपोर्ट के बिना वह कोई कार्रवाई नहीं कर सकते थे। अब यह बात अलग है कि कोई भी व्यक्ति इसे अत्यंत बचकाना तर्क ही कहेगा। प्रधानमंत्री राज्यपाल से जैसी चाहते वैसी रिपोर्ट मंगवा सकते थे। फैजाबाद (जिसके अंतर्गत अयोध्या आता है) से प्रकाशित हिंदी दैनिक के संपादक शीतला सिंह ने अपने लेखों में लिखा है कि 6 दिसंबर के दिन वह लगातार प्रधानमंत्री कार्यालय से संपर्क में थे। अयोध्या की मिनट-मिनट की खबर वहां पहुंच रही थी, फिर भी प्रधानमंत्री कार्यालय तब तक हरकत में नहीं आया, जब तक कि मस्जिद पूरी तरह भूमिसात नहीं हो गयी। केंद्रीय सुरक्षा बल तथा केंद्र से भेजी गयी 'रैपिड एक्शन फोर्स की बटालियनें दो दिन पहले से घटना स्थल से मात्र 8 कि.मी. दूरी पर तैनात थीं। मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का इस्तीफा दिन के साढ़े तीन बजे ही पहुंच गया था, लेकिन उन्हें बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लागू करने की कार्रवाई रात 8.30 पर हुई। शीतला सिंह की रिपोर्ट पर यदि विश््वास करें, तो मस्जिद ढहने के बाद उस विवादित स्थल पर अस्थाई राम मंदिर के निर्माण की सारी कार्रवाई राष्टï्रपति शासनकाल में और केंद्रीय बलों के घेरे में हुई।
कोई भी जांच आयोग या न्यायालय अपना फैसला कानूनों के तकनीकी दायरे के भीतर साक्ष्यों के आधार पर देता है। इसमें उसकी मानवीय सीमाएं भी होती हैं। फिर ऐसे जांच आयोगों के गठन वस्तुत: राजनीतिक आधार पर होते हैं और बहुधा उनका निश्चित राजनीतिक लक्ष्य भी होता है। लिब्रहान आयोग भी इसका अपवाद नहीं। इसके आधार पर किसी व्यक्ति के खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं होनी है, लेकिन सरकार को राजनीतिक कार्रवाइयां करने का प्रचुर अवसर दिया गया है।
अब यदि पूरे प्रकरण पर तटस्थ ढंग से विचार करें, तो देखेंगे कि राममंदिर का यह आंदोलन छेडऩे वाला भले ही कोई एक पार्टी, एक संगठन या एक सांगठनिक परिवार रहा हो या भले ही इसका लाभ किसी एक पार्टी ने उठाया हो, लेकिन सच्चाई यह है कि इसमें लोग पार्टियों की सीमा तोड़कर शामिल हुए थे। सांस्कृतिक दृष्टिï से देश का हर संवेदनशील नागरिक इस आंदोलन के साथ था। राजनीतिक दृङ्क्षष्टï से जो भाजपा के विरोधी थे, वे भी अंतर्मन से इस मुद्दे पर उसके साथ थे। मस्जिद ढहने पर केवल संघियों व भाजपाइयों ने ही नहीं कांग्रेसियों व कम्युनिस्टों में से भी तमाम लोगों ने हर्ष मनाया था। वे बयान कुछ और देते थे, लेकिन भावनात्मक स्तर पर वे इसे ढहाने वालों के साथ थे। उन्हें अफसोस था तो केवल यह कि इसे ढहाने वाले सीधे सामने आकर यह क्यों नहीं कहते कि हां हमने ढहाया है। भाजपा को या आडवाणी को इसकी सजा नहीं मिली है कि वे मंदिर नहीं बनवा सके। उन्हें सजा मिली है कि वे उनमें यह साहस नहीं है कि वे कह सकें कि उन्हें इसकी प्रसन्नता है, क्योंकि वे चाहते थे कि यह ढह जाए। यहां के नेताओं का दोहरापन यहां की राजनीति का सबसे बड़ा रोगा है। वे चाहते कुछ हैं, करते कुछ हैं और कहते कुछ और हैं। आखिर वे साहसपूर्वक संसद में व जनता के बीच यह क्यों नहीं कहते कि राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद का विवाद कोई 1992 या 1949 का नहीं, बल्कि 1528 का है।
राम जन्मभूमि स्थल पर मंदिर की लड़ाई न तो संघ परिवार ने शुरू की है और न भारतीय जनता पार्टी ने। इन्होंने तो केवल इसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की है। इसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश कांग्रेस ने भी की, लेकिन उसने ऐसे साहस का प्रदर्शन नहीं किया कि वह भाजपा व संघ को इस मामले में पीछे छोड़ सके। राजीव गांधी ने जब अयोध्या में मस्जिद के मुख्य द्वार के सामने बमुश्किल 20 गज की दूरी पर मंदिर का शिलान्यास कराया तथा चुनाव प्रचार की अपनी शुरुआत अयोध्या से 'रामराज्य लाने के नारे के साथ की, तो उनका लक्ष्य स्पष्टï था, किन्तु कांग्रेस का इतिहास हमेश मुस्लिमों की तरफ झुका रहा है। लेकिन इससे इतना तो प्रमाणित होता ही है कि कांग्रेस का बहुसंख्यक कार्यकर्ता वर्ग मंदिर के पक्ष में था और वह चाहता था कि राम मंदिर निर्माण का लाभ विपक्ष के खाते में जाने के बजाए कांग्रेस के खातेे में आए।
बहुत से लोगों को शायद यह न पता हो कि तथाकथित बाबरी मस्जिद एक दिन भी विवादमुक्त नहीं रही। 1528 में वहां स्थित मंदिर को ढहाने के बाद (अब इसके पुरातात्विक साक्ष्य भी प्राप्त हो चुके हैं), जब मस्जिद का निर्माण शुरू हुआ, तभी से स्थानीय लोगों ने उसका विरोध शुरू कर दिया था। आज भले उन संघर्षों का कोई क्रमबद्ध-दस्तावेजी प्रामाणिक इतिहास न उपलब्ध् हो, लेकिन लोककथाओं में वह इतिहास जीवित है और पारिस्थितिक साक्ष्य उसकी पुष्टि करते हैं। अब तक बहुत बार यह सारी कहानी दुहरायी जा चुकी है, लेकिन याद ताजा करने के लिए इनका संक्षिप्त उल्लेख किया जा सकता है।
कहा जाता है कि इस विवादित स्थल के लिए लगातार चल रहे खूनी संघर्ष को टालने के लिए बादशाह अकबर ने मस्जिद परिसर के भीतर ही हिन्दुओं को एक चबूतरे पर राम की पूजा करने की अनुमति दे दी। पूरी दुनिया के इतिहास में यह अनूठा उदाहरण है, जब मस्जिद परिसर में मूर्ति पूजा की अनुमति मिली हो। यह हिन्दुओं को शांत करने का एक अस्थाई उपाय था, लनेकिन यह अस्वाभाविक व्यवस्था थी। इस्लाम जो मूर्ति पूजा का कट्टर विरोधी है, उसके साथ यह व्यवस्था शांतिपूर्वक तो नहीं चल सकती थी, फिर भी यह व्यवस्था लगातार ब्रिटिश काल तक चलती रही। कम से कम ब्रिटिश दस्तावेजों में इसका रिकार्ड है। 1905 के 'फैजाबाद के गजेटियर के अनुसार 1855 तक हिन्दू तथा मुस्लिम एक ही भवन (यहां मस्जिद नाम का उल्लेख नहीं है, लेकिन भवन से आशय बाबरी मस्जिद ही है) में अपनी-अपनी पूजा किया करते थे, लेकिन विद्रोह (1857) के बाद मस्जिद के आंगन में मुख्य भवन के सामने एक दीवाल खड़ी कर दी गयी, जिसके भीतर हिन्दुओं को आने से रोक दिया गया। वे (हिन्दू) इस दीवाल के बाहर एक चबूतरे पर अपनी पूजा किया करते थे। 1857 से 1949 तक यही व्यवस्था चलती रही, लेकिन बीच में हिन्दू चुप नहीं बैठे रहे। 1883 में रघुबर दास नाम से एक साधु ने उस चबूतरे पर एक मंदिर बनाने का प्रयास किया, क्योंकि चबूतरे पर भी किसी स्थाई निर्माण का निषेध था। हिन्दू केवल एक घास-फूस की झोपड़ी -वह भी बमुश्किल तीन फिट ऊंची- रखकर पूजा किया करते थे। उन्होंने (रघुबर दास) डिप्टी कमिश्नर के यहां दरखास्त दी, लेकिन 19 जनवरी 1885 को डिप्टी कमिश्नर ने उनकी याचना रद्द कर दी। फिर जिला जज के यहां दरखास्त दी। उन्होंने भी मौका मुआयना करने के बाद मंदिर की अनुमति देने से इंकार कर दिया। उस समय जिला जज थे जे.इ.ए. चांबियार। उन्होंने 17 मार्च 1886 के अपने फैसले में कहा कि चबूतरे पर मंदिर बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। फिर 25 मई 1886 को अवध प्रांत के जुडिशियल कमिश्नर डब्लू यंग की अदालत में अपील की गयी। वह अपील भी खारिज हो गयी।
कानूनी तौर पर यद्यपि हिन्दुओं की कोई याचिका स्वीकार नहीं की गयी, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उनका कोई दावा ही नहीं बनता था। बाबा रघुबर दास की याचिका रद्द करते हुए जिला जज ने अपने फैसले में एक अत्यंत महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी, 'मैंने देखा कि सम्राट बाबर द्वारा बनवायी गयी मस्जिद अयोध्या नगर के किनारे स्थित है... यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि यह मस्जिद ऐसी जगह पर बनायी गयी है, जो हिन्दुओं के लिए अत्यंत पवित्र एवं महत्वपूर्ण है, लेकिन चूंकि यह घटना 358 साल पहले की है, इसलिए इसके लिए बहुत देर हो चुकी है कि पीडि़त पक्ष की शिकायत दूर करके कोई राहत दी जा सके। ऐसे में जो कुछ किया जा सकता है, वह केवल यही है कि दोनों पक्षों के बीच यथास्थिति बनाए रखी जाए। ऐसे मामले में -जैसा की यह है- कोई नया कदम उठाने से लाभ के बजाए हानि अधिक हो सकती है और व्यवस्था बिगड़ सकती है।
जब कोई कानूनी प्रयास सफल नहीं हुआ, तो लोगों ने कानून का दरवाजा खटखटाने से तौबा कर लिया। तब तक कांग्रेस का गठन हो गया था। लोगों ने आजादी के आंदोलन की ओर ध्यान देना शुरू किया। यह माना गया कि अब देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद ही हिन्दुओं को राम जन्मभूमि पर अपना अधिकार मिल सकेगा। इस बीच अयोध्या में एक-दो दंगे हुए। दंगे प्राय: रामनवमी के अवसर पर हुए, जब संयोग से बकरीद भी उसी समय पड़ी और अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर ने मुसलमानों को गाय की कुरबानी करने की अनुमति दे दी। ऐसा एक दंगा 1912 में हुआ, लेकिन वह जल्दी नियंत्रित हो गया। 1934 में एक बड़ा दंगा हो गया, जिसमें हिन्दुओं ने बाबरी मस्जिद पर भी हमला कर दिया और उसके एक गुम्बद को ढहा दिया। अंग्रेज सरकार ने हमलावरों पर कड़ी कार्रवाई की और पूरी अयोध्या पर दंडात्मक कर (प्यूनिटिव टैक्स) लगा दिया। इससे एकत्रित धन से गुम्बर की मरम्मत करायी गयी।
इसके बाद अयोध्या के लोग देश की स्वतंत्रता की प्रतीक्षा करने लगे। 15 अगस्त 1947 को देश के विभाजन के साथ स्वतंत्रता भी हासिल हुई। मुसलमानों का अलग पाकिस्तान बन गया। अब इन्हें लगा कि अब तो राम जन्मभूमि परिसर पर उनका अधिकार हो ही जाएगा, लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ, तो बेचैन अयोध्यावासियों ने इसके लिए सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया। उन्होंने पूरी अयोध्या में अखंड रामचरितमानस का पाठ शुरू किया। वह महीनों चलता रहा, फिर भी प्रशासन नहीं चता तो रामचरण दास नाम के एक साधु ने बम से मस्जिद को उड़ा देने की योजना बनायी। लेकिन बम बनाते समय ही विस्फोट हो गया और वे अंधे हो गये। योजना विफल हो गयी। फिर कुछ उत्साही साधुओं ने 22 दिसंबर 1949 की मध्यरात्रि में मस्जिद में घुसकर वहां बालरूप राम की मूर्ति स्थापित कर दी और उस मस्जिद के भवन को ही मंदिर बना दिया।
यह खबर आग की तरह शहर में फैल गयी। सूचना प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू तक पहुंची। उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत को आदेश दिया मूर्तियां तत्काल हटा दी जाएं। पंत जी ने राज्य के मुख्य सचिव भगवान सहाय और आई.जी. पुलिस (उस समय आई.जी. ही प्रदेश की पुलिस का सर्वोच्च अफसर हुआ करता था), वी.एन. लाहिड़ी को निर्देश दिया। उन्होंने फैजाबाद के डिप्टी कमिश्नर के.के. नैयर को यह फरमान सुनाया कि पंडित नेहरू तथा पं. पंत का आदेश है कि मूर्तियां फौरन हटा दी जाएं, मगर के.के. नैयर ने आदेश मानने से इंकार कर दिया और जवाब भेजा कि इस समय पूरी अयोध्या आंदोलित है और यदि ऐसे समय में मूर्तियां हटाने की कोशिश की गयी, तो भारी खून-खराबा हो सकता है। तो इसके विकल्प स्वरूप परिसर को पुलिस घेरे में ले लिया गया और यथास्थिति बनाये रखने का निर्देश दिया गया। 16 जनवरी 1950 को अयोध्या केएक नागरिक गोपाल सिंह विशारद ने सिविल जज के पास याचिका दी कि उन्हें वहां निर्बाध पूजा व दर्शन का अधिकार दिया जाए। ऐसी ही एक याचिका रामचंद परमहंस द्वारा दायर की गयी। तबसे इन मुकदमों का दूसरा दौर शुरू हुआ।
विश्व हिन्दू परिषद ने तो 1984 में इस मसले में हाथ डाला। यहां उसकी पृष्ठभूमि देना संभव नहीं है, लेकिन यह सच्चाई है कि इसके पहले विश्व हिन्दू परिषद, भाजपा या संघ का इस माले में कोई संबंध नहीं था। सारी लड़ाई स्थानीय लोग ही लड़ रहे थे।
इधर की दोनों पक्षों की स्थिति से सभी वाकिफ हैं, लेकिन एक तथ्य बहुत कम चर्चा में आ पाता है, वह यह है कि बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद हाईकोर्ट के आदेश पर उस जमीन का पुरातात्विक उत्खनन भी हो चुका है, जिस पर उपर्युक्त मस्जिद खड़ी थी। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ए.एस.आई.) विभाग द्वारा कराये गये इस उत्खनन में यह असंदिग्ध रूप से प्रमाणित हो चुका है कि वहां पर ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी का बना एक भव्य मंदिर खड़ा था, जिसे तोड़कर यह मस्जिद बनी थी। यही नहीं, उपुर्यक्त मंदिर की सतह के नीचे भी एक फर्श मिली है, जिससे यह संकेत मिलता है कि इस मंदिर के पहले भी वहां कोई मंदिर था, जिसके कालक्रम में ढह जाने के कारण गहड़वाल नरेश गोविंदचंद्र ने इस मंदिर का निर्माण कराया था, लेकिन मुस्लिम पक्ष इस पुरातात्विक प्रमाण को भी मानने के लिए तैयार नहीं है।
अब इस पृष्ठभूमि में 6 दिसंबर 1992 की घटना पर विचार करें। लिब्रहान साहब कहते हैं कि पुलिस और सुरक्षा बल के जवान हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। लोग मस्जिद ढहाते रहे। प्रशासनिक व पुलिस अधिकारी सब कल्याण सिंह के षडï्ïयंत्र में शामिल थे। जैसा कि शीतला सिंह ने लिखा है, यह सच है कि राम जन्मस्थल पर मस्जिद ढहने के बाद जो अस्थाई मंदिर बना, वह राष्ट्रपति शासन काल में यानी नरसिंह राव साहब के शासन में और केंद्रीय सुरक्षा बलों के घेरे में उनकी देख-रेख में हुआ है। सुरक्षा बल या प्रशासन में शामिल होने मात्र से कोई व्यक्ति एकाएक अपने पूरे इतिहास व संस्कृति से अपने को अलग नहीं कर सकता। शताब्दियों का अपमान धोने का यदि अवसर मिले, तो कौन संवेदनशील चेतन व्यक्ति चूकना चाहेगा।
जब न्याय के दरवाजे बंद हो जाएं, तो किसी व्यक्ति या समुदाय के पास कानून हाथ में लेने या हिंसा पर उतारू होने के अलावा और रास्ता ही क्या बचता है। 1528 से लेकर 1992 तक की अनवरत प्रतीक्षा फिर भी न्याय के मंदिरों और प्रशासन के शीर्ष मंचों से कोई फैसला नहीं, कोई न्याय नहीं। कैसी विडंबना कि अकबर का फैसला ही आगे भी जारी रख गया। न अंग्रेजों ने बदला, न स्वतंत्र भारत की सरकार ने। देश हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर बट गया। पाकिस्तान अलग हो गया। फिर भी राम जन्मभूमि पर हिन्दुओं को अधिकार नहीं मिल सका। ऐसे में इस देश से किस प्रतिक्रिया की आशा की जा रही थी। लिब्रहान साहब कोई भी रिपोर्ट दें, लेकिन इस देश के इतिहास, संस्कृति तथा राष्ट्रीय चेतना से जुड़े हर व्यक्ति के लिए इस मस्जिद के ढहाए जाने की जिम्मेदारी बाबर से लेकर 1992 तक की देश की सारी राष्ट्रीय सरकारों और न्यायालयों के ऊपर जाती है। आहत समुदाय आखिर कब तक सरकारों और न्यायालयों की प्रतीक्षा करे। अफसोस की बात यह है कि इसका श्रेय उन कायर संगठनों और नेताओं को दिया जा रहा है, जिनमें यह स्वीकार करने का साहस नहीं है कि उन्होंने यह किया। जो इस पर अफसोस व्यक्त कर रहे हैं, इन्हें माफ कर दिया जाना चाहिए। असल में कभी-कभी लगता है कि आज के युग में न्याय भी राजनीति का गुलाम हो गया है या शायद राजकीय न्याय, हमेशा ही राजनीति का गुलाम रहा है। कम से कम राम जन्मभूमि व बाबरी मस्जिद प्रकरण से तो यही प्रमाणित होता है।

3 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

एक अंगरेज़ी कहावत है - जस्टिस डिलेड इज़ जस्टिस डिनाइड। पर यहां तो पांच सदी बाद भी इन्साफ़ नकारा जा रहा है! डेढ़ दशक बाद भी आयोग [अयोग्य] रिपोर्ट आई भी तो - खोदा पहाड निकला चूहा, वाली हास्यस्पद स्थिति। बस राजनीति, राजनीति, राजनीति....अग्निपथ, अग्निपथ अग्निपथ :)

SP Dubey ने कहा…

आप का यह आलेख पढ कर बहुत सारे अनजाने तथ्यो से अवगत हुआ। हजार वर्ष से अधिक समय का अनुभव हिन्दू जाति को है अन्य विदेसी जातिओ के शासन और न्याय का हिन्दू समाज को जाग्रित करने के लिए अभी बहुत कार्य करना है। आप जैसे इस कार्य मे लगे लोगो का धन्यवाद

दीपिका ने कहा…

itni satik jankaari ke liye dhanyavaad. hum to sirf news channels ki anargal bakwaas hi sunkar natije par pahunch jate the...

kabhi mere blog par bhi aakar mera maarg-darshan karein.