रविवार, 8 नवंबर 2009

वंदे मातरम पर पुन: उठा विवाद

वंदे मातरम पर पुन: उठा विवाद
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देवबंद में हुए जमीयत उलेमाए हिन्द के तीसवें वार्षिक सम्मेलन में 'दारुल उलूम देवबंद के उस फतवे का सर्वसम्मति से समर्थन किया गया, जिसमें मुसलमानों का आह्वान किया गया है कि वे भारत का राष्ट् गीत 'वंदे मातरम न गाएं, क्योंकि ऐसा करना इस्लाम के खिलाफ है। ठीक है, उनके धर्म की यदि ऐसी व्यवस्था है, तो उसका सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन उन्हें भी तथाकथित बहुसंख्यकों की इस भावना का आदर करना चाहिए कि उसके लिए मां परमात्मा से भी ऊंचा स्थान रखती है। वह परमात्मा का परित्याग कर सकता है, मां का नहीं। उसके लिए यह पूरी प्रकृति मां है, धरती मां है, जीवन की सारी शक्तियां मां है। मां के बिना न उसका जीवन है, न राष्ट्र । यह इस देश की कितनी बड़ी विडंबना है कि हमने अपनी मातृवंदना को दरकिनार करके एक सम्राट की स्तुति में लिखे गये गीत को अपना राष्ट्र गान बना लिया है।
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बीते हफ्ते के मंगलवार (3 नवंबर 2009) को देवबंद (उत्तर प्रदेश) में आयोजित जमीयत उलेमाए हिन्द के वार्षिक सम्मेलन में बाकायदे एक प्रस्ताव पारित करके दारुल उलूम देवबंद द्वारा जारी किये गये उस फतवे का समर्थन किया गया, जिसमें मुसलमानों को आह्वान किया गया है कि वे वंदे मातरम का गान न करें, क्योंकि ऐसा करना इस्लाम के विश्वासों व सिद्धांतों के खिलाफ है। दारुल उलूम देवबंद मुसलमानों की एक अत्यंत प्रतिष्ठित संस्था है। प्रस्ताव में कहा गया है कि हम अपने देश को प्यार करते हैं, किन्तु उसको अल्लाह का दर्जा नहीं दे सकते। इन उलेमाओं का यह भी कहना है कि राष्ट्र को मां कहना और मातृभूमि के गीत गाना गैर इस्लामी है। इतना ही नहीं उपर्युक्त फतवे में यहां तक कहा गया है कि कोई भी गेय स्तुति इस्लाम के खिलाफ है। देश में 'वंदे मातरम के गायन का विरोध कोई नया नहीं है। इसका इतिहास बहुत बार दुहराया जा चुका है। 1937 में कुछ मुस्लिम नेताओं के विरोध पर कांग्रेस ने वंदे मातरम की व्याख्या के लिए एक कमेटी बनाई थी। इस कमेटी में रवीन्द्रनाथ टैगोर भी थे, जिन्होंने पहली बार इसकी धुन बनाई थी और 1905 के कांग्रेस अधिवेशन में इसे स्वयं गाया भी था। कमेटी ने इसके कुछ अंशों को हटाकर इसका एक सुधरा रूप प्रस्तुत किया, लेकिन यह विरोध थमा नहीं। इसके प्रथम दो पद जो आज राष्ट्र गीत के रूप में स्वीकृत हैं उनमें ऐसा कुछ नहीं है, जो किसी केखिलाफ हो, लेकिन इसका विरोध आज भी जारी है।वैसे मुस्लिम लीग ने तो 1908 से ही इसके खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी थी। उस वर्ष सैयद इमाम की अध्यक्षता में हुए लीग के अधिवेशन में इसकी निन्दा की गई, क्योंकि इस में मातृभूमि को देवी की तरह प्रस्तुत किया गया है। कांग्रेस अधिवेशनों में यद्यपि 1915 से ही इस के गायन की परम्परा शुरू हो गयी थी । प्रख्यात गायक पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने यह परंपरा शुरू की थी। किन्तु मुस्लिम नेताओं के बीच इसका विरोध जारी रहा। कांग्रेस के 1923 के काकीनाडा अधिवेशन में तो जब पं. पलुस्कर वंदे मातरम का गायन करने के लिए उठे तो अधिवेशन की अध्यक्षता कर रहे मोहम्मद अली ने इसका विरोध किया, किन्तु पंडित जी ने उनकी एक नहीं सुनी और गीत गाना शुरू कर दिया। विरोधी आवाजों के बीच भी वह गीत पूरा करके ही बैठे। यद्यपि मुस्लिमों को संतुष्ट करने के लिए कांग्रेस ने 1922 से ही अपने अधिवेशनों में वंदे मातरम के साथ मोहम्मद इकबाल के गीत 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा... को गवाना शुरू कर दिया था, लेकिन वे इससे संतुष्ट नहीं थे। वे चाहते थे कि वंदे मातरम को पूरी तरह हटाकर उसकी जगह इकबाल के गीत को दे दी जाए। इसी लगातार विरोध के चलते 1937 में कांग्रेस ने वंदे मातरम गीत की समीक्षा करके उसका केवल दो पद ही गायन के लिए स्वीकृत किया, मगर मुस्लिम इसके लिए भी तैयार नहीं हुए। ऑल इंडिया मुस्लिम लीग ने तो एक प्रस्ताव पारित करके इस गीत का विरोध किया। 1938 में तोमोहम्मद अली जिन्ना ने नेहरू के सामने बाकायदा अपनी यह मांग पेश की कि इस गीत को पूरी तरह हटा दिया जाए। संगठन के अन्य मुस्लिम नेताओं की भी यही राय थी। अंतत: कांग्रेस ने मुसलमानों को संतुष्ट करने का यह फार्मूला निकाला कि उन्हें अधिवेशनों में कुरान की आयतें पढऩे और ईसाइयों को अंग्रेजी में एक प्रार्थना प्रस्तुत करने की सुविधा दे दी । तुष्टीकरण की पराकाष्ठा तब सामने आई जब देश स्वतंत्र हुआ और यह तय करने की जरूरत पड़ी कि इस देश का 'राष्ट्र गान क्या हो। 'वंदे मातरम इसका निर्विवाद उत्तर था। वह गीत जो पूरे देश के स्वातंत्र्य अभियान का प्रयाण गीत था। जिसे गाते-गाते सैकड़ों जवानों ने अंग्रेजों की गोली खाई थी, जाने कितने फांसी के फंदों पर चढ़ गये थे। इस गीत को गाते हुए लाठियां खाने वालों की तो गिनती ही नहीं की जा सकती। ऐसे गीत को छोड़कर दूसरा कोई गीत स्वतंत्र भारत का राष्ट्र गान (नेशनल ऐंथेम) हो भी कैसे सकता था। लेकिन मुस्लिम विरोध यहां भी रंग लाया। नेहरू ने तय किया कि कोई दूसरा गीत ही राष्ट्रीयगीत के लिए चुना जाए। वह सीधे यह नहीं कर सकते थे कि मुसलमानों के विरोध के कारण वे इसे बदलना चाहते हैं इसलिए उन्होंने बहाना बनाया कि यह गीत वैसे तो ठीक है, लेकिन आर्केस्ट्रा पर इसकी धुन जरा ठीक से नहीं जमती। इस पर पूना के एक देशभक्त संगीतकार मास्टर कृष्णराव रामचन्द्र फुलुम्बिकर ने इस बात को चुनौती दी और उन्होंने आर्केस्ट्रा पर इसकी शानदार धुन तैयार की। इस पर नेहरू का कहना था कि उन्हें भारतीय आर्केस्ट्रा पर नहीं, बल्कि ब्रिटिश बैंड पर इसकी धुन चाहिए। ब्रिटिश बैंड के विशेषज्ञ जब तक अपनी स्वीकृति नहीं देंगे तब तक इसे राष्ट्र गान के लिए स्वीकार नहीं किया जाएगा। इस पर मास्टर रामचंद्र बाम्बे (मुंबई) गये और ब्रिटिश बैंड के कमांडर सी.आर. गॉर्डन की मदद से ब्रिटिश बैंड के संगीत के अनुसार 'वंदे मातरम की धुन तैयार की। लेकिन ये सारे प्रयास व्यर्थ रहे, क्योंकि वंदे मातरम की धुन ब्रिटिश बैंड पर अच्छी नहीं जमती यह मात्र बहाना था। इसे देश के प्रतीक स्वरूप राष्ट्र गान के रूप में स्वीकार न किये जाने का असली कारण मुस्लिम विरोध था। अभी संविधान सभा में राष्ट्र गान के बारे में कोई औपचारिक निर्णय नहीं लिया गया था, लेकिन पं. नेहरू ने 'जन गण मनको राष्ट्र गीत के रूप में चुन लिया था। उन्होंने यह भी घोषित कर दिया था कि ब्रिटिश बैंड पर इसकी धुन बहुत शानदार है। इतना ही नहीं 1947 के संयुक्त राष्टï्रसंघ के सम्मेलन में 'जन गण मन की धुन को बजा भी दिया गया। लोगों को यह जानकर शायद आश्चर्य हो कि राष्ट्र गान (नेशनल ऐंथेम) का निर्णय संविधान सभा के ऊपर भी नहीं छोड़ा गया। इस सवाल को औपचारिक रूप से न तो विचार के लिए वहां लाया गया न कोई वहां निर्णय ही हो सका, बल्कि संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा में एक बयान पढ़कर सुनाया, जिसमें कहा गया था कि 'जन गण मन राष्ट्र का प्रतिनिधि गीत (नेशनल ऐंथेम) होगा और वंदे मातरम का भी समान दर्जा रहेगा। वंदे मातरम को समान दर्जा देने की बात कुछ वैसी ही रही जैसे हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया और भारत को भी 'इंडिया का पर्याय बता दिया गया सबसे बड़ा सवाल यह है कि वंदे मातरम का इस तरह का विरोध क्यों? क्या मुस्लिम समुदाय के विरोध का कारण वही है, जो दारुल उलूम देवबंद के फतवे में बताया गया है। वंदे मातरम गीत में मातृभूमि को कोई ईश्वर या ब्रह्म (परमात्मा या गॉड) तो नहीं बताया गया है। न उसे सृष्टि का कर्ता या रचयिता बताया गया है। न उसकी पूजा या उपासना की कोई बात की गई है। 'वंदे शब्द का अंग्रेजी पर्याय 'प्रेयर (प्रार्थना) अवश्य होता है, लेकिन यह कोई प्रार्थना गीत नहीं, बल्कि मात्र एक प्रशंसा गीत है। किसी की प्रशंसा करना या प्रशंसा के गीत गाना, इस्लाम में भी निषिद्ध नहीं है। पैगंबर मुहम्मद, इमाम हुसैन तथा तमाम सूफी संतों की प्रशंसा में असंख्य गीत गाये जाते हैं। दरगाहों में उर्स के दौरान या मोहर्रम के समय इमामबाडों में ऐसे गीत कोई भी सुन सकता है। जाहिर है कि 'वंदे मातरम के गायन का विरोध फतवे में बताए गये कारणों पर नहीं बल्कि कुछ अन्य कारणों पर आधारित है।यह गीत वास्तव में बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास आनन्द मठ से जुड़ गया है। यद्यपि गीत का इतिहास बताता है कि इसकी रचना उपर्युक्त उपन्यास के प्रकाशन के करीब एक दशक पहले हो गयी थी। यह एक स्वतंत्र गीत था, जो मातृभूमि को समर्पित था और सच कहें तो यह एक सर्वथा सेकुलर गीत है। इसमें भारत मां को दुर्गा देवी या काली नहीं बनाया गया है, बल्कि दुर्गा या काली का भी मातृभूमि में लय कर दिया गया है। कहा गया है कि मां तुम्ही दुर्गा हो तुम्ही काली हो तुम्ही सर्वदेव स्वरूपा हो। अब इस उपन्यास में चूंकि मुस्लिम नवाब-जमींदारों का विरोध है, इसलिए मुस्लिम समुदाय इस उपन्यास के साथ इस गीत को भी अपने खिलाफ समझता है।यदि इसके विरोध के वही कारण है, जो फतवे में बताए गये हैं, तो मुसलमानों को सबसे पहले जन गण मन का विरोध करना चाहिए। यह गीत तो किसी भी तरह इस देश का राष्ट्र गीत बनने लायक नहीं था। आश्चर्य है कि इसका विरोध न इस देश के हिन्दुओं ने किया न मुसलमानों ने। इसकी पवित्रता और राष्ट्रीयता इस बात से सिद्ध हो गई कि यह गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना है। लेकिन यह सच्चाई है कि यह गीत न तो देश की वंदना में लिखा गया है न परमात्मा की। यह जार्ज पंचम के भारत आगमन के अवसर पर उनकी अभ्यर्थना में लिखा गया गीत को लेकर भी विवाद उसी समय खड़ा हो गया था, जब टैगोर ने इसे पहली बार गाया था। अंग्रेज सम्राट और साम्राज्ञी की अभ्यर्थना में गाये गये इस गीत का विरोध होना ही था। तो इसकी लीपापोती शुरू की गई। कहा गया, नहीं यह सम्राट की प्रशंसा में नहीं लिखा गया, बल्कि परमात्मा को संबोधित करके लिखा गया। लेकिन इस गीत को पढऩे वाला कोई भी समझ सकता है कि इसे किसके लिए लिखा गया और किसके लिए पढ़ा गया। ऐतिहासिक दस्तावेज भी यही सिद्ध करते हैं कि यह जार्ज पंचम की प्रशस्ति में लिखा गया। फिर भी तमाम लेखक अभी तक यह सिद्ध करने में लगे हैं कि यह गीत जार्ज पंचम की प्रशस्ति में नहीं लिखा गया। इसके लिए बहुत से लोग स्वयं ठाकुर रवीन्द्रनाथ द्वारा पुलिन बिहारी बोस को लिखे गये एक पत्र को उद्ध्रित करते हैं, जिसमें उन्होंने यह सफाई देने की कोशिश की है कि यह गीत उन्होंने ईश्वर के नाम पर लिखा है न कि सम्राट के नाम पर । पर ध्यान देने की बात है कि यह पत्र लिखने की उन्हें जरूरत क्यों पड़ी। वास्तव में उस समय उनके इस गीत के लिए चारों तरफ उनकी बहुत आलोचना हो रही थी। आमतौर पर हम यह विश्वास करते हैं कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ जैसा व्यक्ति कोई असत्य या अर्धसत्य कैसे बोल या लिख सकता है, लेकिन सच्चाई यह है कि बड़े लोगों को अपनी छवि की चिंता सामान्य लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक होती है। इसलिए छवि रक्षा के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। यदि धर्मराज युधिष्ठिïर युद्ध में विजय के लिए अर्धसत्य का सहारा ले सकते हैं, तो ठाकुर अपनी छवि बचाने के लिए किसी आलोचक को यह क्यों नहीं लिख सकते कि यह जार्ज के लिए नहीं, बल्कि भगवान के लिए लिखा गीत था। बंगला न समझने वाला देश उनकी इस बात का विश्वास कर लेगा।अब जरा उन साक्ष्यों को देखें जो यह सिद्ध करते हैं कि =जन गण मन= गीत जार्ज पंचम के स्तुतिगान के रूप में लिखा गया। गुरुदेव स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि सम्राट के आगमन के अवसर पर एक सरकारी अधिकारी ने उनसे सम्राट की प्रशंसा में एक गीत लिखने को कहा था। उन्होंने ऐसा गीत लिखने से इनकार नहीं किया था। अब आगे का कथाक्रम देखें-यह गीत 1911 में लिखा गया। यह वही वर्ष था, जिस वर्ष जार्ज पंचम अपनी महारानी के साथ भारत आए और यहां पर उनके राज्याभिषेक का दरबार सजा। यह भारत के ब्रिटिश इतिहास की एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना थी। ठाकुर रवीन्द्रनाथ ने 27 दिसम्बर 1911 के कांग्रेस की महासभा में पहली बार यह गीत प्रस्तुत किया। अधिवेशन का यह दूसरा दिन था जो सम्राट के अभिनंदन के लिए समर्पित था। इस दिन का केवल एक एजेंडा (कार्यक्रम) था सम्राट के सम्मान में प्रस्ताव पारित करना। उसी दिन रवीन्द्रनाथ ने यह बंगला गीत प्रस्तुत किया। उस दिन सम्राट के सम्मान में एक हिन्दी गीत भी प्रस्तुत किया गया, जिसे रामभुज चौधरी द्वारा गाया गया। लेकिन अखबारों में ठाकुर के अभिनंदन गीत की ही चर्चा रही।28 दिसम्बर के स्टेट्समन में खबर छपी 'बंगला कवि बाबू रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सम्राट के स्वागत में विशेष रूप से रचित अपना गीत प्रस्तुत किया (द बंगाली पोयट बाबू रवींद्रनाथ टैगोर सैंग ए सांग कंपोज्ड बाई हिम स्पेशली टु वेलकम द इम्परर)। इसी तरह 'इंग्लिश मैन समाचार पत्र ने लिखा - कांग्रेस की कार्रवाई बाबू रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा प्रस्तुत गीत के साथ शुरू हुई जिसे उन्होंने सम्राट के सम्मान में विशेष रूप से लिखा है। (द प्रोसीडिंग बिगैन विद द सिंगिंग बाई बाबू रवीन्द्रनाथ टैगोर ऑफ ए सांग स्पेशली कम्पोज्ड बाई हिम इन आनर ऑफ द इम्परर)। एक और अंग्रेजी दैनिक 'इंडियन ने लिखा, 'बुधवार 27 दिसंबर 1911 को जब राष्ट्रीय कोंग्रेस की कार्रवाई शुरू हुई तो सम्राट के स्वागत में एक बंगाली गीत गाया गया। सम्राट और साम्राज्ञी का स्वागत करते हुए सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव भी पारित किया गया (व्हेन द प्रोसीडिंग ऑफ द नेशनल कांग्रेस बिगैन आन द वेडनेसडे 27थ डिसेम्बर 1911, ए बेंगाली सांग इन वेलकम ऑफ द इम्परर वाज संग ए रिजोल्यूशन वेलकमिंग द इम्परर एंड इम्प्रेस वाज आल्सो इडाप्टेड एनानिमसली)।वास्तव में 1911 की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, अंग्रेज सरकार के प्रति वफादार भारतीयों का ही संगठन था। इसिलए यदि उस समय कांग्रेस ने सम्राट के अभिनंदन में प्रस्ताव पारित किया अथवा रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उनकी प्रशंसा में गीत गाया तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। आश्चर्य की बात तो यह है कि देश जब स्वतंत्र हुआ तो इस अंग्रेज महाप्रभु की प्रशस्ति में लिखे हुए गीत को इस स्वतंत्र राष्ट्र का प्रतीक गीत बना दिया 1911 के बाद यह गीत बहुत दिनों तक ब्रह्म समाज की पत्रिका 'तत्वबोध प्रकाशिका के पन्नों में ही पड़ा रहा। टैगोर स्वयं इस पत्रिका के संपादक थे। =गीतांजलि=-जिसे नोबेल पुरस्कार मिला- में भी यह गीत शामिल किया गया, लेकिन स्वातंत्र्य आंदोलन या देश के जागरण अभियान में कहीं भूलकर भी किसी ने इसे याद नहीं किया। यदि यह देश गीत होता, तो इसकी इस तरह उपेक्षा नहीं हो सकती थी। यदि हम इसे थोड़ी देर के लिए ईश प्रार्थना ही मान लें, तो भी भारत जैसे सेकुलर देश का राष्ट्र गीत बनने लायक यह गीत नहीं था। अब बेहतर यह है कि स्वयं इस गीत की समीक्षा कर ली जाए। सारी टिप्पणियों को दरकिनार करके पाठक स्वयं अपने विवेक से यह निर्णय ले सकते हैं कि यह गीत किसके लिए लिखा गया। पांच पदों का यह पूरा गीत निम्रवत है-(1) जन-गण-मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता पंजाब सिंधु गुजरात मराठा द्राविड उत्कल बंगाविन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा उच्छल जलधि तरंगा तव शुभ नाम जागे, तव शुभ आशिश मांगे. गाहे तव जय गाथा जन गण, मंगल दायक जय हे, भारत भाग्य विधाताजय हे, जय हे, जय हे. जय, जय, जय, जय हे (2)अहरह तव आह्वान प्रचारित सुनि तव उदार वाणी . हिंदू बौद्ध सिख जैन पारसिक ,मुसलमान , क्रिस्तानी पूरब, पश्चिम आसे , तव सिंहासन पासेप्रेम हार हवे गाथा जन -गण, ऐक्य विधायक जय हे , भारत भाग्य विधाता जय हे , जय हे, जय हे. जय, जय, जय, जय हे (3)पतन अभ्युदय बंधुर पन्था ,युग युग धावित यात्री हे ! चिर सारथि तव रथ चक्रे मुखरित पथ दिन रात्री . दारुण बिप्लव मांझे , तव शंखध्वनि बाजे ,संकट दु: त्राता जन गण पथ परिचायक जय हेभारत भाग्य विधाता जय हे, जय हे, जय हे. जय, जय, जय, जय हे।(4)घोर तिमिर घन निबिण निशीथे पीड़ित , मूर्छित देसे छिलो तव अविचल मंगल नत नयने अनिमेशेदुह्स्वपने आतंके रक्षा करिले अंकेस्नेह मई तुमि माता जन गण दु: त्रायक जय हे ,भारत भाग्य विधाता जय हे, जय हे, जय हे।जय , जय , जय , जय हे (5)रात्रि प्रभावित उदिल रविच्छवि पूर्व उदय गिरि भाले गाहे विहंगम पुन्य समीरण नव जीवन रस ढाले तव करुणारुण रागे, निद्रित भारत जागे जय , जय, जय हे जय राजेश्वर भारत भाग्य विधाता जय हे, जय हे, जय हे।जय, जय, जय, जय हे।अब कांग्रेस के अधिवेशन का जो दिन सम्राट के अभिनन्दन के लिए नियत हो उस दिन की कार्रवाई की शुरुआत सम्राट की प्रशंसा में लिखित गीत से भिन्न किसी दूसरे गीत से कैसे हो सकती है। यहां बहुत साफ ढंग से प्रकट है कि यह 'भारत भाग्य विधाता कौन है। गीत रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसा व्यक्ति लिख रहा हो, तो वह सस्ते कवियों की तरह प्रत्यक्ष प्रशंसापरक नहीं हो सकता। उसमें कलात्मक अर्थछटा होनी ही चाहिए, लेकिन पूरा गीत अपनी कहानी स्वयं कहने में समर्थ है। यदि पूरी कविता के प्रथम चार पदों में कोई भ्रम रह भी जाता हो, तो वह अंतिम पद में दूर हो जाता है। 1911 के दिसंबर महीने में सम्राट के अभिषेकोत्सव के अतिरिक्त ऐसा कुछ भी घटित नहीं हुआ था, जिसकी अभिशंसा में कवि कहता 'अब रात बीत गई है, पूर्व में प्रभात का सूर्य उदित हो रहा है, चिडिय़ा गा रही है और पून्य समीरण प्रवाहित हो रहा है और नया जीवन रस ढल रहा है। देश में उस समय ऐसा क्या हो गया था कि यह कवि हर्षातिरेक में प्रकृति का उत्सव गान करने लगा। अंतिम पंक्ति पूरा रहस्य खोल देती है। 'जय, जय, जय हे जय राजेश्वर का राजेश्वर शब्द शुद्ध रूप से 'इम्परर के लिए ही आया। इसमें शायद ही कोई संदेह करने की धृष्टïता करे।कैसी विडम्बना है कि यह देश मातृभूमि की वंदना बर्दाश्त नहीं कर सकता, किन्तु वह उस सम्राट की प्रशस्ति को अपना राष्टï्रगान बना सकता है, जिसने उसे गुलामी के जुए में कस रखा था। इस देश को इसमें कोई आश्चर्य नहीं। जो देश, स्वतंत्रता प्राप्ति के अगले ही क्षण, ब्रिटिश क्राउन के उसी प्रतिनिधि को अपना सर्वोच्च शासक (गवर्नर जनरल) बना सकता है, जिससे उसने स्वतंत्रता हासिल की वह देश ऐसा कुछ भी कर सकता है।इस देश में उद्धव ठाकरे या राज ठाकरे की बात का समर्थन नहीं किया जा सकता ,लेकिन इसका भी समर्थन नहीं किया जा सकता कि बहुसंख्यकों को उनके ऐतिहासिक व सांस्कृतिक प्रेरणा प्रतीकों से वंचित कर दिया जाए, आज जो लोग 'जन गण मन का राष्ट्र गान (नेशनल ऐंथेम) के लायक नहीं समद्ब्राते वे भी उसके गायन के समय खड़े होकर उसके प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं, क्योंकि वह जैसा भी है राष्ट्र का प्रतीक है। 'वंदे मातरम को जन गण मन के समान स्तर का संवैधानिक दर्जा प्राप्त है। इसलिए संविधान से जब तक वह व्यवस्था नहीं हटाई जाती तब तक उसे भी 'जन गण मन के समान ही सम्मान देना होगा। मुसलमान अपनी धार्मिक बाध्यता के कारण 'वंदे मातरम नहीं गाना चाहते तो न गाएं, लेकिन जहां वह गाया जा रहा हो वहां उसे सम्मान तो देना ही पड़ेगा। ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि उनकी नापसंदगी के कारण स्कूल कॉलेजों में उसका गायन ही बंद करा दिया जाए।मुसलमान ही नहीं देश के किसी नागरिक को इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह किसी राष्ट्रीय प्रतीक का सम्मान अवश्य करे। सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह व्यवस्था दी है कि किसी को राष्टï्रगान या राष्टï्रगीत गाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। बात सही है, लेकिन एक छोटे वर्ग को इसका क्या हक है वह देश के एक बहुसंख्यक वर्ग की सम्पूर्ण सांस्कृतिक व दार्शनिक अस्मिता की बलि चढ़ाने की कोशिश करे।निश्चय ही एक सेकुलर राष्टï्र का तकाजा है कि उसमें अल्पसंख्यकों की भावनाओं का सम्मान किया जाए। किन्तु इसके साथ ही उसमें यह भी निहित है कि अल्पसंख्यक भी बहुसंख्यकों की भावनाओं का आदर करें। आदर न भी करें तो कम से कम उसे आहत करने की कोशिश तो न करें। मातृवंदना भारतीय संस्कृति का आधार भूत तत्व है। 'माता भूमि : पुत्रोहं पृथिव्या: यहां की सामाजिक भावना का मूलाधार है। हम ईश्वर को नकार सकते हैं, प्रकृति को नहीं, क्योंकि प्रकृति मां है, धरती मां है, जो हमें जीवन देती है, हमारा पालन करती है। हमारे लिए वह किसी परमात्मा या गॉड से बड़ी है। हम उसकी अभ्यर्थना नहीं छोड़ सकते। आप न करना चाहें, न करें आपकी मर्जी लेकिन हमारी जिंदगी को अपने ढंग में ढालने की कोशिश तो न करें।

3 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

जब तक जयचंद और मुहम्मद काफुर जैसे लोग इस देश में बख्शते जाएंगे, ऐसे सवाल उठते रहेंगे और एक दिन ऐसा आएगा...कव्वे मोती चुकेंगे और हंस दाना!!!

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

दारुल उलूम जैसे संगठनों को प्रतिष्ठित नहीं कहा जाना चाहिए. उसके फतवे का सर्वसम्मति से समर्थन उसके ही पांडाल में होना कोई बड़ी बात तो नहीं है. अपने घर में सबका समर्थन होता है. उस दायरे के आगे की बात करें तो कई मुसलमान इसका विरोध कर चुके हैं. समर्थन में सिर्फ कुछ साम्प्रदायिकता फैलाने वाले राजनीतिक हैं. जिन्होंने लबादा धर्मनिरपेक्षता का ओढ़ रखा है.

mukesh ने कहा…

प्रिय शुक्ल जी,
आपकी सटीक व्याख्या सर आंखो पर.दरअसल गलती वन्दे मातरम का विरोध करने वालो का नही है अपितु इस पूरे उत्पन्न स्थिति का जिम्मेवार कांग्रेस है,जिसने आजादी के बाद पटेल जी के देशहित से कही अधिक नेहरू जी के वोट-बैंक वाली विचारो को तरजीह दी.और आज भी दिया जा रहा है. हिन्दु,हिन्दी,हिन्दुस्तान- जो है भारत के प्राण.गौर कीजिये, इन तीनो का विरोध हो रहा है.