शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

चातुर्मास: ज्ञान  साधना तप एवं विश्राम का काल
 
वर्षाकालीन चातुर्मास का साधना पर्व आषाढ़ मास की पूर्णिमा से विधिवत प्रारंभ हो जाता है| ऋतु संधिकाल की इस पूर्णिमा के अवसर पर वैदिक काल में चातुर्मास्य यज्ञ का विधान था, किंतु अब यह पर्व गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है| वस्तुतः यह संपूर्ण भारतीय वाङ्गमय की आचार्य परंपरा के स्मरण का पर्व है| यातायात तथा संचार साधनों के क्रांतिकारी विकास के कारण अब वर्षा से सामान्य जनजीवन का प्रवाह अवरुद्ध नहीं होता, फिर भी परंपरा पालन के प्रति निष्ठावान संत, मुनि, साधक, आचार्य आज भी चातुर्मास की साधना के विधान का अनुपालन करते हैं| विशेषकर जैन संत इस परंपरा को सर्वाधिक गरिमा के साथ जीवित रखे हुए हैं|


भारतीय साहित्यिक-सांस्कृतिक परंपरा में चातुर्मास का विशेष महत्व है| विशेषकर वर्षाकालीन चातुर्मास का| भारतवर्ष में मुख्य रूप से तीन ऋतुएँ होती हैं- ग्रीष्म, वर्षा और शरद| वर्ष के बारह महीनों को इनमें बॉंट दें, तो प्रत्येक ऋतु चार-चार महीने की हो जाती है| वैदिक काल में इन ऋतुओं के संधिकाल में विशेष यज्ञ करने का विधान था| इन यज्ञों को और इनमें धारण किये जाने वाले व्रतों को चातुर्मास्य की संज्ञा दी गयी थी| वर्ष में तीन चातुर्मास्य पड़ते थे और तीनों के अलग-अलग नाम थे और अलग-अलग कृत्य| शरद के अंत और वसंत अथवा ग्रीष्म के आगमन के समय प्रायः फाल्गुन पूर्णिमा को किये जाने वाले चातुर्मास्य को वैश्‍वदेव, ग्रीष्मांत व वर्षा के प्रारंभ के अवसर पर प्रायः आषाढ़ पूर्णिमा के चातुर्मास्य को वरुणप्रघास और इसी तरह वर्षा के अंत और शीत ऋतु के प्रारंभ में प्रायः कार्तिक पूर्णिमा को होने वाले चातुर्मास्य को साकमेघ कहा जाता था|
कालक्रम में, प्रत्येक ऋतु संधि (या पर्व) पर होने वाले चातुर्मास्य तो लुप्त हो गये, किंतु वर्षाकालीन चातुर्मास्य की परंपरा प्राकृतिक कारणों से अब तक चली आ रही है| भारत, धरती के शीतोष्ण कटिबंध में पड़ता है, जहॉं खूब वर्षा होती है| प्राचीन काल में जब बड़ी-बड़ी पक्की सड़कों व रेल पटरियों का जाल नहीं था| नदी-नाले निर्बाध बहते थे| न उन पर ऐसे पुल होते थे, जो वर्षाकालीन जल के तीव्र प्रवाह में टिक सकें, न आज के जैसे बड़े-बड़े बॉंध होते थे, जो उफनती नदियों और झीलों को काबू में रख सकें| हवाई यातायात की तो कल्पना भी नहीं थी| इसलिए वर्षाकाल में उस समय यातायात की प्रायः सारी गतिविधियॉं ठप हो जाती थीं| व्यापारियों के सार्थ (काफिले) ठहर जाते थे| राजाओं की विजय यात्राएँ रुक जाती थीं| यायावर वानप्रस्थी तथा संन्यासी भी किसी एक जगह रुक कर वर्षाकाल काटते थे| सारा सामुदायिक जीवन एक तरह से ठहर जाता था| इस समय जब सारी बाह्य गतिविधियॉं रुक जाती थीं, सारा जनसमुदाय अपने गॉंव, नगर, कस्बे में आ जाता था, तब उसके सामने समस्या थी इस समय का सदुपयोग करने की| सौभाग्य से निरंतर विचरण करने वाले आचार्य, विद्वान, संन्यासी, उपदेशक, धर्मप्रचारक आदि भी चार महीने के लिए कहीं स्थिर हो जाते थे| वर्षाकाल कम से कम चार महीनों के लिए इन दोनों को जोड़ देता था| लोग खाली रहते थे, उनके पास प्रचुर समय रहता था, ऐसे में वे आचार्यों, विद्वानों, संन्यासियों के सान्निध्य में अपना ज्ञानवर्धन व शंका समाधान करना चाहते थे| दूसरी तरफ उन आचार्यों को भी कुछ दिनों के लिए स्थिर श्रोता मिल जाते थे| इसलिए वर्षाकालीन चातुर्मास प्रायः पूरे देश में ज्ञानार्जन, कथा-वार्ता, उपदेश तथा साधना का काल बन गया| इतिहास, पुराण, दर्शन व साहित्य चर्चा के साथ ही गायन, वादन आदि कलाओं के अभ्यास का भी यह उचित अवसर बन गया| जैन मुनियों ने तो अपनी कठोरतम साधना के लिए इस अवसर को चुना| राजमहलों तथा श्रेष्ठि आवासों में रासरंग, हास-विलास तथा कामोपभोग के लिए भी इससे बेहतर आराम और सुकून का समय वर्ष के और किसी काल में उपलब्ध नहीं था| कवियों-कलाकारों के लिए भी यह काल न केवल प्रेरणादायक था, बल्कि उनकी रचनाओं के लिए यथेष्ट समय भी उपलब्ध करवाने वाला था| इस काल में उसे श्रोताओं और दर्शकों की भी कमी नहीं थी| इसलिए वर्षा के चातुर्मास में धर्म और कला साधना के साथ साहित्य सर्जना का भी प्रभूत कार्य संपन्न हुआ करता था|
धर्मशास्त्रों के अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी, द्वादशी या पूर्णिमा को अथवा उस दिन जब सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करे चातुर्मास्य व्रत का प्रारंभ किया जाता है| यह व्रत कार्तिक मास की शुक्ल द्वादशी को समाप्त हो जाता है| प्राचीन ऋषियों की कल्पना थी कि इस वर्षाकाल में देवतागण भी विश्राम करते हैं| इस संसार के प्रकट देवता सूर्य का तो बहुत सारा समय बादलों की ओट में बीत ही जाता है| इसीलिए आषाढ़ शुक्लपक्ष की एकादशी को ‘देवशयनी' (देवताओं के शयन करने की) एकादशी कहा जाता है और फिर कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को ‘देवोत्थानी' (देवताओं के उठने या जागृत होने) की एकादशी कहा जाता है| वैदिक काल में केवल आषाढ़ी पूर्णिमा के यज्ञ का विधान था, किंतु पौराणिक काल में व्रत की परंपरा भी चल पड़ी| पौराणिक विद्वानों के अनुसार यह व्रत कभी भी शुरू करें, किंतु इसका समापन हर हालत में कार्तिक शुक्ल द्वादशी को हो जाता है| इस व्रत में व्रती को कुछ खाद्य पदार्थों का त्याग करना होता है, जैसे श्रावण महीने में शाक, भाद्रपद में दही, आश्‍विन में दूध तथा कार्तिक में दालों का| व्रत करने वाले को मांस, मधु (मदिरा), सहवास और पलंग पर सोने का भी त्याग करना पड़ता है| व्रत की समाप्ति पर व्रत करने वाला ब्राह्मणों को निमंत्रित कर उन्हें भोजन कराता है, दक्षिणा देता है और फिर सामान्य भोजन, दिनचर्या आदि प्रारंभ करके व्रत समाप्त करता है| यह व्रत सनातनी परिवारों में अब कुछ स्त्रियों तक सीमित रह गया है| यातायात व संचार साधनों के विकास तथा जटिल आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक गतिविधियों के कारण सामान्यजनों के चातुर्मास में अपनी दैनन्दिन गतिविधियॉं रोकने का कोई औचित्य भी नहीं है, फिर भी परंपरा रक्षण के तौर पर कुछ सनातनी परिवारों की स्त्रियॉं अभी भी यह व्रत करती हैं| साधु, संन्यासियों व परिव्राजकों में भी अब इसका लोप हो गया है| कुछ थोड़े से पंथों के संन्यासी ही अब वर्षाकाल में कहीं स्थायीवास करते हैं|
वास्तव में पुराने समय में वर्षाकाल पूरे समाज के लिए विश्राम काल बन जाता था किन्तु संन्यासियों, श्रावकों, भिक्षुओं आदि के संगठित संप्रदायों में इसके विशिष्ट नियम बन गये थे जिसका अनुपालन सभी के लिए अनिवार्य था इसलिए वे निर्धारित नियमानुसार एक निश्‍चित तिथि को अपना वर्षावास या चातुर्मास शुरू करते थे और उसी तरह एक निश्‍चित तिथि को उसे समाप्त करते थे|
वर्षाकाल की कठिनाइयॉं तो सबके लिए समान थीं लेकिन प्रायः हर सम्प्रदाय इसे अपने अपने ढंग से बिताता था| आज यातायात के साधन तथा ग्रामोें-नगरों की व्यवस्था ऐसी हो गई है कि वर्षाकाल  तथा अन्यकाल में आवागमन की दृष्टि से कोई विशेष फर्क नहीं रह गया है| फिर भी रुढ़िनिर्वाह तथा परंपरा के अनुपालन की प्रक्रिया जारी है| कुछ साधु संत आज भी चातुर्मास के दौरान कोई नदी नाला पार नहीं करते, जबकि उनपर पक्के पुल बने हुए हैं|
सर्वाधिक कठोरता से चातुर्मास के नियमों का पालन जैन संप्रदाय के लोग करते हैं, अन्य संप्रदायों ने तो इसका सरलीकरण कर लिया है|
संन्यासी ः शैव तथा वैष्णव संन्यासीगण केवल चार पखवारे का चातुर्मास मनाते हैं जो आषाढ़ पूर्णिमा से भाद्रपूर्णिमा तक चलता है| इस काल में वे एक जगह पर किसी मठ मंदिर में रहते हुए अपने भक्तों को उपदेश देते हैं|
बौद्ध ः बौद्धों में वर्षावास के कोई दृढ़ नियम नहीं है| बौद्ध भिक्षुओं के लिए इस संबंध में कोई खास निर्देश भी नहीं है| त्रिपिटक की कथाओं के अनुसार भगवान बुद्ध अपने शिष्य मगध के सम्राट बिम्बिसार के राजकीय उद्यान में वर्षाकाल बिताते थे| उनके साकेत (अयोध्या) तथा श्रावस्ती में वर्षावास का भी उल्लेख मिलता है| भगवान बुद्ध चूँकि मध्यमार्गी थे यानी न वे अधिक कष्टकर साधना के पक्ष में थे और न अधिक सुखोपभोग के| इसलिए चातुर्मास के लिए भी उन्होंने  आचरण के किसी विशेष नियम का उपदेश नहीं दिया|
जैनः चातुर्मास की सर्वाधिक कठोर तथा नियमबद्ध व्यवस्था जैन संप्रदायों में प्रचलित है| ईसा की पहली शती में हुए जैनाचार्य भद्रबाहु के ग्रंथ ‘कल्पसूत्र' के तीसरे भाग में चातुर्मास के नियम बताए गए हैं| पहले के जैन संत तो चातुर्मास के लिए कठोरतम साधना का चयन किया करते थे| अब वह परंपरा बदल चुकी है फिर भी बहुत से जैन संत इस दौरान लंबे उपवास, जप तथा ध्यान की साधना करते हैं| जैन समुदाय में बहुत पहले दिगंबर (नग्न रहने वाले) तथा श्‍वेताम्बर के दो भाग हो गये एक मूर्तिपूजक मंदिरमार्गी और दूसरा स्थानकवासी (जो मूर्तिपूजा नहीं करते)| फिर स्थानकवासियों के भी दो विभाग बन गये| नया विभाग तेरापंथी कहलाता है| इन चारों के चातुर्मास साधना में प्रवेश और उसकी समाप्ति के अलग-अलग दिन निर्धारित है|
जैनों का प्रसिद्ध पर्यूषण पर्व इसी चातुर्मास के दौरान पड़ता है| जो जैन साधना का सर्वश्रेष्ठ और पवित्रतम काल माना जाता है|
आषाढ़ मास की पूर्णिमा क्योंकि चातुर्मास की साधना का प्रस्थान बिंदु है, इसलिए स्वभावतः इस तिथि की गरिमा बढ़ जाती है| आचार्यों, गुरुओं परिव्राजकों, संन्यासियों आदि के स्वागत सत्कार, पूजा, सम्मान आदि के लिए भी इससे बेहतर दूसरा और कौन सा दिन हो सकता है| शायद इसीलिए आषाढ़ी पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा की संज्ञा दी गयी और इसे महर्षि वेदव्यास का जन्मदिन घोषित किया गया है| महर्षि वेदव्यास की पूजा के बहाने इस दिन सभी आचार्यों, गुरुओं, ऋषियों आदि के प्रति श्रद्धा निवेदित की जाती है| देश की सांस्कृतिक परंपरा का निश्‍चय ही यह बड़ा ही स्वस्थ विकास है| मात्र अग्नि में कुछ आहुतियॉं देने के बजाए चातुर्मास्य यज्ञ के अवसर पर महर्षि व्यासादि आचार्यों व गुरुओं का स्मरण करना तथा उनके प्रति श्रद्धा निवेदित करना शायद सांस्कृतिक परंपरा का श्रेष्ठतर अनुपालन है|
जैन चातुर्मास का केंद्रीय पर्व ‘पर्यूषण'
जैन परंपरा में चातुर्मास के साधनाकाल के बीच पर्यूषण (पज्जोसवना) पर्व आता है| इसे संवत्सरी भी कहते हैं| श्‍वेतांबर जैनों का ८ या १६ दिवसीय पूर्यषण पर्व भाद्र पद शुक्ल पक्ष की पंचमी को संपन्न होता है| अंतिम दिन को ‘संवत्सरी' या ‘संवत्सरी प्रतिक्रमण' कहा जाता है| इसे क्षमावणी पर्व भी कहते हैं| ‘प्रतिक्रमण' (सामयिक) जैनों के अनुसार उनकी आध्यात्मिक यात्रा के नवीकरण (उसकी तरफ पुनः वापसी) का पर्व है| जैन श्रावकों के लिए वर्ष में एक बार ‘प्रतिक्रमण' आवश्यक है| ‘संवत्सरी' और ‘पर्यूषण' दोनों वस्तुतः एक ही हैं| जैन विश्‍वास है कि पर्यूषण के आठ दिनों में देवतागण तीर्थंकरों की अष्टप्रकारी (आठ प्रकार की) पूजा करते हैं| इसलिए अष्टाहनिक महोत्सव भी कहते हैं|
दिगंबरों में इस १० दिन के पर्व महोत्सव को ‘दशलक्षण पर्व' कहते हैं| इसके प्रारंभ और अंत के बारे में दिगंबरों और श्‍वेतांबरों में थोड़ा मतभेद है| श्‍वेतांबरों का पर्यूषण पर्व या ‘अष्टाहनिक महोत्सव' जहॉं भाद्र शुक्ल पक्ष पंचमी को समाप्त होता है, वहीं दिगंबरों का ‘दश लक्षण पर्व' (या १० दिन का उत्सव) इस तिथि को प्रारंभ होता है और चतुर्दशी (अनंत चतुर्दशी) तक चलता है|
श्‍वेतांबरों में इस दौरान कल्पसूत्र का पाठ किया जाता है, जिसमें पॉंचवें दिन भगवान महावीर की जन्मकथा कही जाती है| दिगंबर इस अवधि में उमास्वाति के तत्वार्थ सूत्र का पाठ करते हैं| दिगंबर दशमी को ‘सुगंध दशमी व्रत' करते है| तथा अनंत चतुर्दशी का उत्सव मनाते हैं|
क्षमावणी के दिन सभी जैन मतानुयायी अपने सभी संबंधियों मित्रों से ही नहीं, सभी प्राणियों से क्षमा का आदान-प्रदान करते है॥
‘खमेमि सव्वेजीव, सव्वेजीवा खमन्तु में
मित्ती में सव्ब भूएषु, वेरम मझ्झम न केनवी
मिच्छमि दुक्कड़म् (मिथ्या मे दुष्कृतम)'
मैं सभी प्राणियों को क्षमा करता हूँ, सभी प्राणी मुझे क्षमा करें| सभी जीवों के साथ मेरी मैत्री हो, किसी के साथ वैर या शत्रुता न हो| मेरे सारे दुष्कृत्य निष्फल (मिथ्या) हो जाए|
यह परस्पर मैत्री का अद्भुत प्रयोग है| विश्‍व में इसका ईमानदारी से अनुसरण हो तो सारी अशांति, कलह, द्वेष एवं वैर भाव स्वतः समाप्त हो जाए| लेकिन ऐसा हो नहीं पाता| क्षमावणी पर्व भी एक धार्मिक कर्मकांड की तरह पूरा कर लिया जाता है और उसके बाद फिर अधिकांश लोग दुनियादारी के अपने पुराने ढर्रे पर आ जाते हैं| फिर भी इसका कुछ न कुछ प्रभाव तो संवत्सरी करने वाले के चित्त पर अवश्य रह जाता है, जो उसके आचार एवं सामाजिक व्यवहार को अधिक मानवीय बनाने में सहायक होता है| चातुमार्स के साधना पर्व का लक्ष्य भी तो यही है कि संपूर्ण मानव समुदाय में मैत्री भाव का उदय हो, वैर भाव समाप्त हो सभी एक-दूसरे को प्रेम करें और दूसरे सहायता या सहयोग (परोपकार) में अपने जीवन की सार्थकता समझें| इससे हर व्यक्ति का आत्मिक उत्थान तो होगा ही, समाज में भी सद्भाव एवं मैत्री भाव का प्रसार होगा|
july 2013

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