शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी

अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी
भारत के लिए जिहादी खतरा बढ़ने की आशंका

अमेरिका की वापसी के बाद इस युद्धक्लांत देश का क्या होगा इसको लेकर भी चिंताएँ खड़ी होने लगी हैं| अप्रैल २०१४ में इस देश में आम चुनाव होने वाले हैं| वर्तमान राष्ट्रपति हामिद करजई दो बार राष्ट्रपति बन चुके हैं| संविधान के      अनुसार अब वह तीसरी बार राष्ट्रपति नहीं चुने जा सकते| जाहिर है देश का नेतृत्व अब कोई और सँभालेगा, लेकिन वह देश की बेहद पेचीदा राजनीति को करजई की तरह काबू में रख सकेगा इसमें भारी संदेह है| आशंका यही है कि भारी राजनीतिक अस्थिरता, अशांति और हिंसाग्रस्त यह देश फिर ९/११ के पहले की स्थिति में पहुँच जाएगा|

ग्यारह वर्षों के लंबे संघर्ष के बाद भी अमेरिका तालिबान, अलकायदा तथा हिज्बे इस्लामी जैसे आतंकवादी संगठनों को पराजित नहीं कर सका है| अलकायदा के संस्थापक ओसामा बिन लादेन को मारकर उसने न्यूयार्क पर हुए हमले का प्रतीकात्मक बदला अवश्य ले लिया है, किन्तु उसके अंतर्राष्ट्रीय विस्तार वाले जिहादी संगठन अलकायदा को नेस्तनाबूद करने का उसका संकल्प पूरा नहीं हो सका है| अलकायदा का वर्तमान नेता जो ओसामा के समय नं.३ की स्थिति में था-अयमान अलजवाहिरी-अभी भी पाकिस्तान में कहीं छिपा बैठा है| तालिबान की आक्रामक क्षमता में कोई उल्लेखनीय कमी आई हो इसका भी कोई प्रमाण नहीं है| अभी गत वर्ष १३ दिसंबर को कंधार स्थित अमेरिकी सैनिक अड्डे पर उस समय बमों से हमला किया गया जब अमेरिकी रक्षामंत्री लियोन पनेटा उस अड्डे के निरीक्षण पर पहुँचे थे| अनुमान है कि अभी भी अलकायदा के करीब २४,००० लड़ाके अफगानिस्तान में मौजूद हैं|
अफगानिस्तान का इतिहास ही यह बताता है कि विदेशी ताकतों द्वारा स्थापित कोई सरकार तभी तक वहॉं कायम रह सकती है जब तक उस विदेशी ताकत का सैनिक संरक्षण उसे प्राप्त था| १८३९ में अंग्रेजों ने शाहशुजा को अफगानिस्तान का शासक नियुक्त किया था, लेकिन जैसे ही ब्रिटिश फौजें वहॉं से हटीं
शाहशुजा की हत्या कर दी गई| अमेरिका यद्यपि पूरी तरह अफगानिस्तान को छोड़कर नहीं जा रहा है| २०१४ के बाद भी उसके कुछ सैनिक तथा सैन्य अधिकारी वहॉं रहेंगे, लेकिन वे कोई निर्णायक भूमिका अदा करने की स्थिति में होंगे इसका किसी को विश्‍वास नहीं है| अभी तो यही बहस चल रही है कि अफगानिस्तान में कितने सैनिक छोड़े जाएँ| अमेरिकी सेना का सुझाव है कि कम से कम २०२० तक अमेरिका को वहॉं अपनी सैन्य उपस्थिति बनाए रखनी चाहिए और प्रभावी उपस्थिति के लिए आवश्यक है कि वहॉं कम से कम १० हजार सैनिक अवश्य रहें लेकिन अमेरिकी सरकार में ऐसे बहुत से लोग हैं जो यह मानते हैं कि अफगानिस्तान में अब दो-ढाई हजार से अधिक सैनिक नहीं छोड़े जाने चाहिए| ये सैनिक और उनके अधिकारी काबुल स्थिति अमेरिकी दूतावास तक सीमित रहेंगे और वहीं रहकर अपनी कार्रवाई को अंजाम देंगे| लेकिन सेना की यह सीमित संख्या कैसे वहॉं अपने अस्तित्व को बचाए रख सकेगी इसका अनुमान लगाना कठिन है| तालिबान और अलकायदा के लड़ाके ही नहीं अफगानिस्तान की राष्ट्रीय सेना-जो अमेरिका की मदद से ही खड़ी हो सकती है- भी देश में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति को पसंद नहीं करती| अफगान नेशनल आर्मी (ए.एन.ए.) के जवानों द्वारा अमेरिकी सैनिकों पर किये गये हमले इसके प्रमाण हैं|
अंतर्राष्ट्रीय संकट समूह (द इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप) ने अपनी ताजा रिपोर्ट में २०१४ के बाद की स्थिति की कल्पना की है| उसके अनुसार देश में गृहयुद्ध छिड़ने की प्रबल संभावनाएँ हैं और डर है कि कहीं अफगानिस्तान अपना अस्तित्व ही न खो बैठे और टुकड़े-टुकड़े न हो जाए| अफगानिस्तान में इस समय जो भी राजनीतिक स्थिरता नजर आ रही है वह विदेशी सेना की उपस्थिति के कारण है| ऐसे में देश की सुरक्षा का भार अफगान नेशनल आर्मी (ए.एन.ए.) तथा अफगान नेशनल पुलिस (ए.एन.पी) के हाथों सौंपने का निर्णय वस्तुतः एक आत्मघाती कदम है| विदेशी सेना के हटते ही प्रतिस्पर्धी गुट देश की सत्ता हथियाने की दौड़ में लग जाएंगे| 'ग्रीन आन ब्लू अटैक' (अफगान नेशनल आर्मी की वर्दी हरी है और अमेरिकी सैनिकों की वर्दी नीली) की प्रवृत्ति से साफ है कि सरकारी सेना भी अवसर मिलते ही देशी जिहादी ताकतों से मिल कर विदेशियों को भगाने के अभियान में लग जाएगी| देश का राजनीतिक एवं प्रशासनिक ढॉंचा यों ही बहुत कमजोर है, केन्द्रीय सरकार भी शक्तिशाली नहीं कही जा सकती फिर देश किस शक्ति के सहारे एकजुट रह सकेगा|
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के अनुसार अफगानिस्तान की रक्षा का दायित्व अब वहॉं की सरकारी सेना पर है| अभी अमेरिका पूरी तरह वहॉं से नहीं हटेगा किन्तु उसके जो कुछ हजार सैनिक व अधिकारी वहॉं रहेंगे वे केवल सलाहकार की भूमिका अदा कर सकेंगे और वे सिर्फ राजधानी काबुल तक सीमित रहेंगे| अफगान नेशनल सिक्योरिटीज फोर्सेज में अफगान नेशनल आर्मी और अफगान नेशनल पुलिस के कुल ३ लाख ३० हजार जवान हैं| देश के ३४ में से २४ प्रांतों की सुरक्षा की जिम्मेदारी इन्हें सौंपी गई है| लेकिन अमेरिकी सेना के हट जाने के बाद इसकी शक्ति अपने आप घट जाएगी क्योंकि तालिबान के खिलाफ जमीनी कार्रवाई में तब उसे अमेरिकी वायुसेना की कोई मदद नहीं मिल सकेगी| यही नहीं अमेरिकी आर्थिक सहायता के बिना इस सेना को बनाए रखना भी कठिन होगा| अभी इसका वार्षिक खर्च करीब ४.१ अरब डालर है जो अफगान सरकार की कुल राजस्व आय का दो गुना है|
अमेरिका के जाने के बाद तालिबान सैन्य रणनीति अभी से तय कर ली गई है, जिसमें अलकायदा, पाकिस्तानी तालिबान संगठन तथा हिजबे इस्लामी सभी शामिल हैं| और पाकिस्तानी सैनिक गुप्तचर संगठन आई.एस.आई. का भी सहयोग प्राप्त रहेगा| योजना है कि केंद्र सरकार के महत्वपूर्ण केंद्रीय संस्थानों पर आत्मघाती हमले कराए जाएँगे, सड़कों के किनारे बम विस्फोट होंगे और सुरक्षा बलों में अपने आदमी तैयार किए जाएँगे| यह गुरिल्ला आक्रमण तब तक जारी रहेगा, जब तक काबुल पर जिहादियों का कब्जा नहीं हो जाएगा| यह भी संभव है कि इस लड़ाई में अफगानिस्तान का ही विखंडन हो जाए और इस देश का वर्तमान स्वरूप ही नष्ट हो जाए| क्या होगा यह भविष्य के गर्त में है, लेकिन इतना तय है कि अमेरिकी फौजों के जाने के बाद न केवल अफगानिस्तान से जुड़े भारतीय हितों को भारी क्षति पहुँचेगी, बल्कि सीमा पर जिहादी खतरा भी बढ़ जाएगा| स्थिति अधिक बिगड़ी तो युद्ध की स्थिति भी पैदा हो सकती है|

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