रविवार, 23 अक्तूबर 2011

पाक और अमेरिका के बीच छिड़ा युद्ध

‘ऐसा नहीं हो सकता कि घ्र के पिछवाड़े पले सांप केवल दूसरों को काटे‘: संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस के दौरान पाक
में सुरक्षित आतंकवादियों पर अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन की टिप्पणी

अफगानिस्तान की धरती पर अमेरिका व पाकिस्तान के परोक्ष युद्ध का दौर अब समाप्त हो चुका है। युद्धक्षेत्र अब वहां से खिसक कर पाकिस्तान की सीमा में आ गया है। अमेरिका अभी भी परदे के पीछे रहकर इसे निपटाना चाहता है, किन्तु अब वह होने वाला नहीं। इस क्षेत्र में यदि आतंकवाद को मिटाना है और शांति कायम करनी है तो अमेरिका को एकतरफा निर्णय लेना ही पड़ेगा।

अब यह तथ्य पूरी दुनिया के सामने प्रकट हो गया है कि अफगानिस्तान में अमेरिका की लड़ाई किसी और से नहीं, बल्कि सीधे पाकिस्तान से है। इसे अमेरिका और पाकिस्तान के लोग बहुत पहले से जानते हैं, लेकिन वे दोनों मिलकर अब तक दुनिया को यह बताते रहे है कि वे अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी आतंकवाद से लड़ रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के इतिहास में दोस्ती और दुश्मनी का ऐसा समन्वय अन्यत्र कहीं ढूंढ़ पाना लगभग असंभव है। अब तक यह लड़ाई परोक्ष थी, लेकिन अब वह क्रमशः प्रत्यक्ष रूप लेती जा रही है।

11 सितंबर 2001 की घटना के बाद अफगानिस्तान में जो कुछ शुरू हुआ वह देखने में तो वहां की तालिबान सत्ता के साथ अमेरिका का युद्ध था, जिसमें अमेरिका के साथ पाकिस्तान भी खड़ा नजर आ रहा था। अमेरिका का कहना था कि वह अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी आतंकवाद से विश्व मानवता तथा सभ्यता की रक्षा के लिए यह युद्ध लड़ रहा है। उसने पाकिस्तान को इस युद्ध में अपना साथी बनाया। पाकिस्तान ने बहुत सोची समझी रणनीति के तहत अमेरिका का साथ देना स्वीकार किया और इसकी आर्थिक व सैनिक सहायता के रूप में भारी कीमत वसूली। पाकिस्तान ने इस युद्ध में अमेरिका का साथ देना तो स्वीकार किया, किंतु प्रत्यक्ष लड़ाई में अपने सैनिकों को भेजने से इनकार कर दिया। अफसोस कि अमेरिकी राजनीतिक नेतृत्व अफगान युद्ध शुरू होने के वर्षों बाद तक यह समझ पाने में असमर्थ रहा है कि जिन शक्तियों के खिलाफ अफगानिस्तान में वह मोर्चा खोले हुए है, वे पाकिस्तान द्वारा खड़ी की गयी उसकी ही अपनी शक्तियां हैं और इन्हें तैयार करने में उसने अमेरिकी सहायता का ही इस्तेमाल किया है।

अपने यहां एक पुरानी कहावत है कि सर्वनाश की स्थिति उत्पन्न होने पर बुद्धिमान व्यक्ति आधा छोड़कर शेष आधा बचाने की कोशिश करता है (सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धम् त्यजति पंडितः)। पाकिस्तान ने यही किया। उसने अपनी मुख्य भूमि तथा सैन्य शक्ति की रक्षा के लिए अफगानिस्तान में तैनात अपनी शक्ति का विनाश होना स्वीकार कर लिया। तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने बड़ी बुद्धिमानी से अमेरिका का साथ देने के बहाने अफगानिस्तान की तालिबान सत्ता के प्रमुख नेताओं को अमेरिकी चंगुल में पड़ने से बचा लिया। वे अफगानिस्तान से भागकर पाकिस्तानी सीमा में आ गये और पाकिस्तान सरकार ने उन्हें पूरा संरक्षण प्रदान किया।

लड़ाई मूलतः यह रही कि सोवियत सेनाओं के अफगानिस्तान से चले जाने तथा नजीबुल्ला की कठपुतली कम्युनिस्ट सरकार के पतन के बाद वहां किसका कब्जा रहे। काबुल पर तालिबान परिषद की सत्ता कायम हो जाने के बाद पाकिस्तान प्रसन्नता के शिखर पर था कि अब वह अपराजेय शक्ति का मालिक हो जाएगा और भारत को अच्छा सबक सिखा सकेगा। उसने तालिबान लड़ाकों की फौज को कश्मीर मोर्चे की तरफ लगाने की योजना भी बना ली थी, लेकिन तभी न्यूयार्क पर हमले की घटना घट गयी। अमेरिका को अफगानिस्तान पर हमले का एक ठोस बहाना मिल गया। वैसे यदि न्यूयार्क पर हमले की घटना न घटी होती, तो भी अमेरिका को अफगानिस्तान में हस्तक्षेप करना पड़ता, लेकिन तब उसका स्वरूप दूसरा होता और इराक की तरह कोई अलग बहाना ढूंढ़ना पड़ता, क्योंकि वह यह तो बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि काबुल में बैठकर कोई अमेरिकी सत्ता को चुनौती दे।

अफगानिस्तान पर कब्जे का पाकिस्तान का बहुत पुराना सपना है। पहले उसने सोचा था कि रूसियों के जाने के बाद फिर वहां उसके लिए कोई चुनौती नहीं रह जाएगी, किंतु उसका दुर्भाग्य कि ओसामा बिना लादेन की मूर्खतावश अमेरिका बीच में टपक पड़ा। इसके बाद भी पाकिस्तान ने अपना धैर्य बनाए रखा और अमेरिकी फौजों के अफगानिस्तान से विदा होने की प्रतीक्षा करता रहा।

अमेरिका ने काबुल की तालिबान सत्ता को ध्वस्त करने के बाद पाकिस्तान की इच्छा के विरुद्ध हामिद करजई को वहां की सत्ता सौंपी। इसके बाद से ही अफगानिस्तान में अमेरिका के साथ पाकिस्तान का परोक्ष युद्ध प्रारंभ हो गया। अमेरिका जहां करजई को आगे करके पीछे से अपने युद्ध का संचालन कर रहा थ, वहां पाकिस्तान करजई की सत्ता पलटने वाले तालिबान गुटों को मदद कर रहा था। पहले शायद अमेरिका इस रहस्य को नहीं समझ पाया, लेकिन बाद में अमेरिकी गुप्तचर संस्थाओं ने यह प्रमाण्ति करके दिखा दिया कि अफगानिस्तान में सरकारी सेना तथा अमेरिकी फौजों से लड़ने वाले कबायली गुटों को पाकिस्तान का संरक्षण प्राप्त है। इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण यह है कि अफगानिस्तान में लड़ रहे प्रायः सभी तालिबान गुटों के प्रवक्ताओं के मोबाइल नंबर का नेश्नल कोड पाकिस्तान का है। अमेरिकी गुप्तचर संस्थाओं ने जब सप्रमाण यह सिद्ध कर दिया कि अफगानिस्तान में लड़ रहे विद्रोहियों का संचालन पाकिस्तानी सैन्य गुप्तचर संगठन आई.एस.आई. के द्वारा होता है, तब अमेरिकी नेताओं के कान खड़े हुए और उन्होंने पाकिस्कान पर दबाव डालना शुरू किया कि वह पाकिस्तानी सीमा के सुरक्षित आरामगाह में जमे जिहादियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करे। पाकिस्तानी सेना ने दिखावे के लिए यह कार्रवाई शुरू भी की। अमेरिका ने इसके लिए पाकिस्तान की सहायता राशि तीन गुना बढ़ाने की घोषणा की। वजीरिस्तान के दक्षिणी इलाके में सेना ने व्यापक कार्रवाई की और अमेरिका को दिखाया कि पाकिस्तान कितनी निष्ठा से आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में अमेरिका के साथ्रा है, लेकिन उसके बाद उसने उत्तरी वजीरिस्तान में कार्रवाई करने से साफ मना कर दिया। वास्तव में दक्षिणी वजीरिस्तान में की गयी कार्रवाई केवल दिखावे के लिए थी। वहां जमे सारे तालिबानी नेता उत्तरी वजीरिस्तान की ओर निकल गये।

अमेरिका ने इसके लिए पाकिस्तान की काफी पीठ ठोकी और उसे उत्तरी वजीरिस्तान की ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया, मगर पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष अशरफ परवेज कयानी साहब एकदम अड़ गये कि अब इसके आगे उनकी सेना कोई कार्रवाई नहीं कर सकती। बहाना यह बनाया कि उत्तरी वजीरिस्तान में कार्रवाई के लिए उसके पास न तो पर्याप्त सैन्य बल है, न आवश्यक उपकरण। अमेरिका उपकरण तो सारे देने के लिए तैयार थ, किंतु सैन्य प्रबंध तो पाकिस्तान को ही करना था। उसे कहा गया कि वह अपनी पूर्वी सीमा पर अनावश्यक रूप से तैनात सैनिकों को वहां से हटा कर अपने पश्चिमी मोर्चे की तरफ से आए। कयानी ने इससे भी इनकार कर दिया। उनका सा। कहना था कि पूर्वी सीमा पर भारतीय खतरे को देखते हुए वहां से एक भी सैनिक नहीं हटाया जा सकता।

अब यहां से अमेरिका और पाकिस्तान के बीच सीधी कश्मकश शुरू हो गयी है। अब अफगानिस्तान में मौजूद तालिबान शक्तियां तो इतनी कमजोर हो गयी हैं कि वे सीधे कोई बड़ी कार्रवाई नहीं कर सकती हैं। उनके नेता भी भागकर अब पाकिस्तान आ गये हैं, इसलिए मोर्चा अफगानिस्तान से खिसककर अब पाकिस्तान सीमा के भीतर आ गया है। अब पाकिस्तानी सीमा के भीतर तो पाकिस्तानी सेना को ही कार्रवाई करनी है, किंतु पाकिस्तानी सेना इससे साफ इनकार कर रही है। सेनाध्यक्ष जनरल कयानी तो साफ कह चुके हैं कि अमेरिका अपनी सहायता दे या न दे, पाकिस्तान सेना उत्तरी वजीरिस्तान में अब आगे और कोई सैनिक कार्रवाई नहीं करेगी। इसके बाद ही अमेरिका की तरफ से यह घोषणा की गयी कि पाकिस्तान साथ दे या न दे, लेकिन अमेरिका अफगानिस्तान में आतंकवादियों के खिलाफ अपनी कार्रवाई जारी रखेगा और यदि आवश्यक हुआ, तो पाकिस्तानी सीमा के भीतर घुसकर कार्रवाई करने में भी संकोच नहीं करेगा। वह पाकिस्तान की प्रभुसत्ता का आदर करता है, किंतु वह अमेरिका के दुश्मनों को वहां शरण लेने की इजाजत नहीं दे सकता। इसका प्रमाण उसने पाकिस्तानी सीमा में राजधानी इस्लामाबाद के निकट छिपे ओसामा बिन लादेन को मारकर दे दिया है।

ऐसी खबरें आ रही हैं कि अफगानिस्तान में स्थित अमेरिकी सैनिक अब पाकिस्तान से लगने वाली सीमा के निकट एकत्र हो रहे हैं। शायद इसी की प्रतिक्रिया में पाक सेनाध्यक्ष जनरल कयानी ने चेतावनी दी है कि पाकिस्तानी सीमा में एकतरफा सैन्य कार्रवाई शुरू करने के पहले अमेरिका को भी 10 बार सोचना पड़ेगा। पाकिस्तान एक परमाणु शक्ति संपन्न देश है। उसे इराक या अफगानिस्तान समझने की भूल नहीं की जानी चाहिए। जनरल कयानी ने पाकिस्तानी संसद की प्रतिरक्षा मामलों की स्थाई समिति के समक्ष पाकिस्तान की सुरक्षा स्थिति पर रिपोर्ट देते हुए यह टिप्पणी की। इस टिप्पणी के अगले ही दिन गत गुरुवार को अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन, नवनियुक्त अमेरिकी संयुक्त सेना के अध्यक्ष मार्टिन इ. डेम्पसे तथा गुप्तचर संस्था सी.आई.ए. के डायरेक्टर डेविड एच. पेट्रौस के साथ इस्लामाबाद पहुंची। इन तीनों की पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के साथ लंबी बातचीत हुई। बातचीत के दौरान पाक विदेश मंत्री हिना रब्बानी खर, सेनाध्यक्ष जनरल कयानी और आई.एस.आई. के प्रमुख जनरल शुजा पाशा भी मौजूद थे। अमेरिकी मीडिया की खबरों के अनुसार अमेरिका की तरफ से पाकिस्तान को साफ कह दिया गया है कि वह अपनी सीमा में मौजूद जिहादी गुटों के सफाए की कार्रवाई शुरू करे। यदि वह नहीं करेगा, तो अमेरिका स्वयं यह कार्रवाई करेगा। ऐसी भी खबर है कि प्रधानमंत्री गिलानी ने अमेरिका से अनुरोध किया है कि वह शांति का एक मौका और दे। पाक-अमेरिका संबंध केवल आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई तक सीमित नहीं है, हमें उसके आगे की भी देखना चाहिए।

अगले दिन हिना रब्बानी के साथ अपनी संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में श्रीमती क्लिंटन का लहजा बहुत कठोर नहीं था, लेकिन संदेश स्पष्ट था कि पाकिस्तानी सेना ने यदि स्वयं कार्रवाई नहीं शुरू की, तो अमेरिका इसे एकतरफा पूरा करने से पीछे नहीं रहेगा। उन्होंने एक बहुचर्चित जुमले का इस्तेमाल किया कि ‘यदि आप अपने पिछवाड़े सांप पालते हैं, तो यह न समझें कि वे केवल पड़ोसियों को या दूसरों को ही काटेंगे।‘ उनका संकेत स्पष्ट ही पाकिस्तानी सीमा में छिपे आतंकवादियों की ओर था और पाकिस्तान को यह चेतावनी भी थी कि यदि उनका सफाया नहीं किया गया, तो वे पाकिस्तान को भी डंस सकते हैं।

बात हिलेरी की बहुत सही थी, लेकिन शायद वह अभी भी ठीक-ठीक यह समझ नहीं पा रही हैं कि वे पिछवाड़े के सांप पाकिस्तानी शासकों व सेनाप्रमुखों से कुछ अलग नहीं है। वे उन्हीं से भिन्न रूप हैं । उन सांपों को मारने का मतलब है कि अपने ही हाथ पांव काट डालना। इसलिए अमेरिका कितना ही प्रोत्साहन दे, कितनी भी सहायता दे, पाकिस्तान की सरकार अपने अंगभूत इन जिहादी संगठनों का सफाया नहीं कर सकती। अब यह अमेरिका को तय करना है कि वह हक्कानी नेटवर्क व अन्य तालिबान गुटों का सफाया करने के लिए एकतरफा कार्रवाई करने के लिए तैयार है या नहीं ।

लड़ाई अफगानिस्तान से हटकर अब पाकिस्तान में आ गयी है। अब परोक्ष युद्ध की गुंजाइश नहीं रही। अब सीधा मुकाबला होना तय है। जनरल कयानी का यह कहना सही है कि पाकिस्तान के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई शुरू करते समय अमेरिका को भी 10 बार सोचना पड़ेगा। भले ही उसे पाकिस्तान की परमाणु शक्ति का कोई भय न हो, लेकिन वह नहीं चाहेगा कि दुनिया की नजर में पाकिस्तान के साथ उसका सीधा मुकाबला हो। फिर भी यदि आतंकवाद का सफाया करना है और अफगानिसतान को पाकिस्तान के कब्जे में जाने से रोकना है, तो अमेरिका को यह खतरा उठाना ही पड़ेगा। पाकिस्तान के विषदंत तोड़े बिना दक्षिण एशिया के इस क्षेत्र में कभी शांति स्थापित नहीं हो सकती।

शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

भारत-अफगान निकटता से तिलमिलाता पाकिस्तान

4 अक्टूबर मंगलवार को भारत-अफगानिस्तान के बीच हुआ ऐतिहासिक रणनीतिक समझौता।
दस्तावेजों का आदान-प्रदान करते भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (दाएं) तथा अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई।
बीते सप्ताह भारत और अफगानिस्तान के बीच हुए व्यापक रणनीतिक सहयोग समझौते से लगभग पूरा पाकिस्तान तिलमिला उठा है। इस समझौते ने उसका दश्कों पुराना वह सपना तोड़ दिया है कि अफगानिस्तान को मिलाकर वह आकार और शक्ति में भारत को मात देने लायक बन जायेगा। अफगानिस्तान को वह पअने पिछवाड़े की जमीन मानता रहा है, जिसमें भारत की उपस्थिति उसे फूटी आंख् नहीं सुहा रही है। उसे लग रहा है कि काबुल उसके हाथ आते-आते निकल गया है। उसे कूटनीतिक मोर्चे पर अफगानिस्तान में भारत के हाथें मिली यह पराजय 1971 में सैनिक मोर्चे पर बंगलादेश् में मिली पराजय से कम आघात पहुंचाने वाली नहीं प्रतीत हो रही है।

गत मंगलवार 4 अक्टूबर 2011 को भारतीय विदेश नीति के इतिहास में निश्चय ही एक उल्लेखनीय तिथि के रूप में याद किया जाएगा, जब भारत और अफगानिस्तान ने नई दिल्ली में एक-एक व्यापक रणनीतिक समझौते पर हस्ताक्षर किये। करीब पांच महीने से अधिक समय की तैयारी के बाद इन समझौतों को अंतिम रूप दिया जा सका, जिन पर अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई की दो दिवसीय भारत यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के साथ हस्ताक्षर की औपचारिकता पूरी हुई।

इस समझौते से पाकिस्तान बेहद तिलमिलाया हुआ है। उसके नेता अपनी बौखलाहट छिपा नहीं पा रहे हैं। वे खुले आम इसके विरोध में उतर आये हैं और कह रहे हैं कि इससे किसी को कोई लाभ नहीं होगा और इससे भारत और पाकिस्तान के बीच का संघषर्् और बढ़ेगा। अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई को परोक्ष चेतावनियां दी जा रही हैं कि उन्होंने भारत के साथ यह समझौता करके अच्छा नहीं किया। इससे अफगानिस्तान में शांति स्थापना का कार्य और कठिन हो गया है। पाकिस्तान के केवल सत्ताधारी राजनेता ही नहीं राजनयिक, पत्रकार तथा बुद्धिजीवी वर्ग भी इस पर चिंता व्यक्त कर रहा है। पाकिस्तान के अंग्रेजी दैनिक ‘द नेशनब् ने लिखा है कि ‘समझौता बेहद चिंताजनक है।‘ इससे न तो अफगानिस्तान को फायदा होगा, न पाकिस्तान को। इसी तरह ‘द एक्सप्रेस ट्रिब्यून‘ ने लिखा है कि पाकिस्तान के साथ मतभेदों के बीच अफगानिस्तान ने पहली बार भारत के साथ सामरिक समझौता किया है, जो स्पष्ट रूप से पाकिस्तान के खतरे का संकेत है। एक और अखबार ‘पाकिस्तान टुडे‘ ने लिख है कि यह समझौता क्षेत्रीय स्थिरता में पाकिस्तान की भूमिका को खत्म कर देगा। ‘द नेशन‘ का भी कहना है कि यह समझौता पाकिस्तान के हित में नहीं है। पाकिस्तान की सैन्य विशेषज्ञ आयशा सिद्दीकी ने कहा है कि इससे अफगानिस्तान में भारत और पाकिस्तान की जंग और तेज होगी, दोनों के बीच अप्रत्यक्ष युद्ध (प्रॉक्सी वार) बढ़ेगा।

यहां यह सवाल उठाया जाना बहुत स्वाभाविक है कि आखिर पाकिस्तान, भारत और अफगानिस्तान के बीच हुए समझौते से इतना क्षुब्ध क्यों है ? अफगानिस्तान में हामिद करजई की सरकार के बाद से भारत उसे अब तक 2 अरब डॉलर की सहायता दे चुका है। वह वहां पूरी तरह रचनात्मक भूमिका निभा रहा है। वह वहां व्यापारिक राजमार्गों, स्कूलों व अस्पतालों का निर्माण कर रहा है, औद्योगिक आधारभूत ढांचे तैयार कर रहा है तथा राजधानी काबुल के नवनिर्माण के साथ वहां संसद भवन का निर्माण कर रहा है। पाकिस्तान के लिए वहां यह सब करना संभव नहीं था। न तो उसके पास इसके लिए धन था और न इसके लिए जरूरी तकनीकी जनशक्ति। भारत वहां काबुल सरकार को अपनी सुरक्षा व्यवस्था को भी मजबूत करने में मदद दे रहा है। पिछले कई वर्षों से भारतीय सैन्य अधिकारी वहां अफगान सेना को प्रशिक्षित करने के काम में लगे हैं। कुछ अफगान उच्च सैनिक अधिकारी यहां भारत आकर भी प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। ऐसे में यदि अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई भारत के साथ् ऐसा व्यापक समझौता करते हैं, जिसमें आथर््िाक व तकनीकी सहयोग ऐसा व्यापक समझौता करते हैं, जिसमें आर्थिक तकनीकी सहयोग के साथ् सामरिक सहयोग भी शामिल है, तो उससे पाकिस्तान को इतनी जलन क्यों हो रही है।

इसका उत्तर पाना कुछ बहुत मुश्किल नहीं है। जो लोग पाकिस्तान को जानते हैं, उनके लिए इस समझौते पर उसका बिफरना कोई चकित करने वाला नहीं है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान भारत व भारतीयों के प्रति मुस्लिम घृणा, द्वेष, प्रतिस्पर्धा व जलन की उपज है। उसका सपना कैसे भी हो, इसे पराजित करके उस पर अपना प्रभुत्व कायम करना है। बंगलादेश के अलग हो जाने के बाद पाकिस्तान के इन मुस्लिम नेताओं की जलन और बढ़ गयी। पहले अमेरिका व यूरोप की मदद लेकर अपने सैन्य बल से वे इसे कुचलना चाहते थे, लेकिन उनका सपना साकार होता, इसके पहले ही अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां बदल गयीं। सोवियत संघ का पतन हो गया। नई विश्व व्यवस्था सामने आयी। नेय अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक समीकरण बनने लगे। अंतर्राष्ट्रीय सामरिक रणनीति में अमेरिका के लिए पाकिस्तान का महत्व कम हो गया। उसने भारत के साथ भी संबंध सुधार के प्रयास शुरू किये। यह देखते हुए पाकिस्तान ने भी अपनी रणनीति बदली। उसने ‘प्रत्यक्ष चयुद्ध‘ की जगह ‘परोक्ष युद्ध‘ को अध्कि महत्व देना शुरू किया। उसने जिहादी संगठनों के रूप में अपनी नियमित सेना का अलग से विस्तार किया। प्रारंभ में ऐसे संगठनों के निर्माण् में अमेरिका ने भी भ्रपूर मदद की, क्योंकि उसे भ्ी अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं को भगाना था। ‘तालिबान‘ का गठन मूलतः सोवियत सैनिकों को अफगानिस्तान से भ्गाने के लिए ही किया गया था। इन्हें पाकिस्तानी सेना ने ही प्रशिक्षित करके तैयार किया थ। इसके लिए जरूरी आर्थिक सहायता व हथियारों की मदद अमेरिका ने की थी पाकिस्तान ने इसके साथ ही कुछ और संगठनों को भी खड़ा किया थ जैसे लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल मुजाहिदीन, हरकतुल मुजाहिदीन जैश-ए-मोहम्मद, अलबदर, अंजुमन सिपाहे सहाबा आदि, जिनको भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया जाना था। उसने भारत पर अब घोष्ति प्रत्यक्ष सैनिक आक्रमण करने के बजाए आतंकवादी हमले करने शुरू किये। बहाना कश्मीर को बनाया गया। किंतु यह अप्रत्यक्ष युद्ध समूचे भारत के खिलाफ था।

ऐसे में अफगानिस्तान को लेकर भी उसने एक बड़ा सपना देखा था। उसके सामने यह बहुत साफ था कि सोवियत सेना के पलायन के बाद इस पड़ोस के अत्यंत रणनीतिक महत्व वाले देश पर उसका आधिपत्य कायम हो जायेगा और तब वह आकार और शक्ति में इतना बड़ा हो जायेगा कि वह भारत को आसानी से मात दे दे। उसके पास अपनी नियमित सेना के अतिरिक्त तालिबान तथा अन्य मुजाहिद संगठनों की एक विशाल जुनूनी सेना होगी, जिसका मुकाबला करना भारत के लिए असंभव होगा। ऐसा लगता हो भी गया था। काबुल में पाकिस्तान के द्वारा तैयार की गयी तालिबान फौजों ने अपनी सरकार कायम कर ली थी। तालिबान नेता मुल्ला उमर वहां का राष्ट्रपति बन बैठा था। अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन के लिए भी यह अद्भुत उपलब्धि थी। अब उसे जंगल व पहाड़ी गुफाओं में छिपने की जरूरत नहीं थी। वह भी अब शान से काबुल के राष्ट्रपति निवास में मुल्ला उमर के साथ रह रहा था। लेकिन भारत के सौभाग्य तथा पाकिस्तान के दुर्भाग्यवश ओसामा की मति मारी गयी और उसने अमेरिका को ही सबक सिखाने की ठान ली और सीधे न्यूयार्क व वाशिंगटन पर हमला करा दिया। इस हमले ने पूरे इतिहास चक्र की दिशा ही बदल दी। अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया। इस हमले में काबुल में स्थापित तालिबान की सत्ता ही नहीं उखड़ गयी, उसका अफगानिस्तान में स्थापित पूरा गढ़ ध्वस्त हो गया। इसके साथ पाकिस्तानी सपना भी तार-तार हो गया। उसे शुक्रगुजार होना चाहिए अपने सेनाध्यक्ष से राष्ट्रपति बने जनरल परवेज मुशर्रफ का कि उन्होंने अत्यंत साहसिक कूअनीतिक चतुराई का परिचय देते हुए अमेरिकी कोप से पाकिस्तान की रक्षा की और तालिबान नेताओं की भी जान बचाई। इस कौशल ने अफगानिस्तान की मदद से भारत को मात देने के सपने को फिर से प्राणदान दे दिया।

अमेरिका ने अफगानिस्तान से रूसी फौजों को भगाने के लिए तो अपने सैनिकों को वहां नहीं उतारा, मगर तालिबान और अलकायदा के खिलाफ लड़ाई में उसे वहां अपने सैनिकों को उतारना पड़ा। पाकिस्तान इस लड़ाई में अमेरिका का सबसे निकट का मददगार बन गया। पाकिस्तान की भौगोलिक निकटता ने अमेरिका को भी मजबूर किया कि वह इस लड़ाई में उसे भी अपना साझीदार बनाए। पाकिस्तान ने इस साझेदारी के बदले अमेरिका से काफी मोटी रकम वसूली। 2001 से अब तक वह अमेरिका से करीब 22 अरब डॉलर की रकम ले चुका है। वास्तव में इस सहयोग के पीछे भी पाकिस्तान का रकम ले चुका है। वास्तव में इस सहयोग के पीछे भी पाकिस्तान का दोहरा स्वार्थ था। एक तो सहयोग के बदले में अमेरिका से अरबों उॉलर की नकद व सैनिक साजो-सामान की सहायता प्राप्त करना तथ दूसरे एक बार फिर काबुल पर अपना प्रभुत्व कायम करने का सपना पूरा करना।

पाकिस्तान अच्छी तरह यह समझ रहा था कि अमेरिका सैनिक अनंतकाल तक अफगानिस्तान में नहीं ठहर सकते। उसके नेतृत्व वाली ‘उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन‘ /नाटो/ का भी कोई देश अपनी सेना वहां सदैव के लिए नहीं रख सकता। इसलिए जब ये विदेशी सैनिक वहां से हटेंगे, तो अपने आप उनके द्वारा खाली की गयी जगह पाकिस्तान के कब्जे में आ जाएगी। और जब अमेरिकी और अन्य नाटो देशों की सेना वहां नहीं रह जाएगी, तो अमेरिकी मदद से स्थापित की गयी काबुल की सरकार भी वहां नहीं टिक सकेगी। और तब फिर 2001 के पूर्व की स्थिति वहां वापस मिल जायेगी और पाकिस्तान तब फिर से भारत के खिलाफ वह अभियान शुरू कर सकेगा, जो न्यूयार्क पर हमले के बाद शुरू हुए घटनाक्रम में ध्वस्त हो गया था। लेकिन अफसोस, इस बीच अमेरिका के साथ बरती जा रही पाकिस्तान की कपट नीति के सारे पर्दे एकाएक फट गये और एक छली, धोखेबाज पाकिस्तान चौराहे पर नंगा खड़ा नजर आने लगा। उसकी कुरूप सच्चाई पर पड़ा अंतिम चीथड़ा भी तब उतर गया, जब राजधानी इस्लामाबाद के निकट उसकी सैन्य अकादमी की नाक के नीचे रह रहा अलकायदा नेता ओसामा बिन लादेन मारा गया। पाकिस्तान हतप्रभ था। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि अमेरिका ऐसा कदम भी उठा सकता है। रात के तीसरे पहर अमेरिकी कमांडो दस्ते ने पाकिस्तान में भीतर घुसकर लादेन को मार डाला और उसकी लाश तक लेकर चंपत हो गये और पाकिस्तानी सेना व सरकार को इसकी तब भनक लगी, जब स्वयं अमेरिका द्वारा इसकी घोषणा की गयी। पाकिस्तान सरकार और उसकी सेना की विश्वसनीयता पर यह सबसे बड़ा आघात था। जिसके बारे में पाकिस्तान सरकार अक्सर बयान देती रहती थी कि वह शायद मर चुका है या पाकिस्तान छोड़कर जा चुका है या शायद कहीं उत्तरी वजीरिस्तान की पहाड़ियों में छिपा हो सकता है, वह राजधानी के निकट, सैन्य अकादमी के सुरक्षित इलाके में एक बड़ी इमारत में शान से रह रहा था।

पाकिस्तान अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए प्रायः सभी को धोखा दे रहा था, सभी से झूठ बोल रहा था, लेकिन उसका यह धोखा, यह झूठ, यह फरेब आखिर कब तक छिपा रह सकता था। उसे काबुल में भारत की उपस्थिति फटी आंख नहीं सहा रही थी। वह उसके पांव उखाड़ने के लिए अपने तालिबान गुर्गों से लगातार हमले करवा रहा था। राष्ट्रपति हादि करजई से भी उसकी नाराजगी इसीलिए थी कि करजई को भारत पर अधिक भरोसा था, इसलिए वह करजई सरकार का भी तख्ता पलटने की साजिश करता रहा। अमेरिकी सहायता के कारण वह इसमें सफल नहीं हो पा रहा था, तो उसने करजई की हत्या की साजिश रचनी शुरू कर दी। अमेरिका को भी यह झांसा देने की कोशिश करता रहा कि वह तालिबान के नरमगुट के साथ उसका समझौता करा सकता है, जिससे अफगानिस्तान में शांति कायम हो जाएगी और अमेरिका अपने सैनिकों को आराम से वापस बुला सकेगा। लेकिन जैसी की कहावत है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती, आखिर हरेक को धोखा देकर अपना उल्लू सीधा करने की साजिश कब तक काम करती। अंततः वही हुआ, जो होना चाहिए था। अमेरिका को भी यह समझ में आ गया कि पाकिस्तान की नीयत क्या है और वह चाहता क्या है। राष्ट्रपति ओबामा ने पाकिस्तान को सार्वजनिक रूप से सलाह दी है कि वह भारत को अपना शत्रु मानना बंद करे। भारत उसका शत्रु नहीं है, लेकिन वह एकतरफा तौर पर भारत से शत्रुता रखता है, जो उसके लिए ठीक नहीं है।

भारत के साथ हुए अफगान समझौते से पाकिस्तान इसीलिए तिलमिला रहा है कि इससे उसका दशकों पुराना सपना विफल होता नजर आ रहा है। उसने अफगानिस्तान को मिलाकर उसे मात देने की सोच रखा था, लेकिन अब यह संभव नहीं रह गया है। अमेरिका चला भी जायेगा, तो भी काबुल में भारत की उपस्थिति बनी रहेगी और उसके लिए सैनिक दृष्टि से पांव जमाने के लिए वहां कोई अवसर नहीं रह जायेगा। उसको सर्वाधिक खीझ इस बात को लेकर है कि अफगानिस्तान ने अपनी सुरक्षा सेना के गठन और प्रशिक्षण का अधिकार भारत को दे दिया है। इस प्रशिक्षण के बहाने भारत की सैन उपस्थिति भी काबुल में बनी रहेगी। अफगानिस्तान के पास अकूत खनिज संपदा है। उसकी धरती के नीचे लौह खनिज तथा तेल और गैस के विशाल भंडार हैं। भारत उसे खोजने और निकालने में अफगानिस्तान का साझीदार होगा। यह सब सोच-सोचकर पाकिस्तान का कलेजा राख हुआ जा रहा है। भारत के साथ नागरिक स्तर की मैत्री का दम भरने वाले बुद्धिजीवी, कलाकार, लेखक व पत्रकार भी इसे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं।

पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति व सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ जैसे देश निकाल पाए राजनीतिक नेता ऋभी कह रहे हैं कि भारत, अफगानिस्तान को पाकिस्तान के विरुद्ध खड़ा करने में लगा है। उनके अनुसार अफगानिस्तान, भारत और पाकिस्तान का परोक्ष युद्ध केंद्र बना हुआ है। उन्होंने यह तो नहीं बताया कि इस परोक्ष युद्ध की शुरुआत करने वाला कौन है, लेकिन उन्हें लग रहा है कि इस परोक्ष् युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को मात दे दी है। वह जानते हैं कि पाकिस्तान इतनी आसानी से यह मोर्चा छोड़ने वाला नहीं, इसलिए उन्होंने पाकिस्तानी बुद्धिजीवियों के स्वर में स्वर मिलाते हुए कहा है कि इससे अफगानिस्तान में शांति कायम करने में कोई मदद नहीं मिलेगी, बल्कि वहां भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष और बढ़ेगा, जिसका प्रभाव पूरे दक्षिण एशिया पर पड़ेगा। मुशर्रफ ने बड़ी खीझ के साथ् कहा है कि जब वह सत्ता में थे, तो उन्होंने कई बार अफगान सरकार के समक्ष उसकी सेना को प्रशिक्षित करने का प्रस्ताव रखा, किंतु वहां से कभी एक आदमी भी आने के लिए तैयार नहीं हुआ। अब इन मुशर्रफ साहब को कौन बताए कि काबुल के शासक मूर्ख नहीं हैं। वे भारत और पाकिस्तान दोनों के प्रशिक्षण का फर्क समझते हैं। भारत के निश्चय ही अफगानिस्तान में अपने सामरिक हित हैं, लेकिन वह अफगानिस्तान को किसी के खिलाफ इस्तेमाल करने का सपना नहीं देख रहा है। वह केवल इतना चाहता है कि अफगानिस्तान किसी भारत विरोधी शक्ति के हाथ में न चला जाए। भारत सरकार के राजनीतिक नेताओं को भी इसके लिए बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने देश के इतिहास में पहली बार एक ऐसी विदेशी नीति को अगली जामा पहनाया, जो देश के दीर्घकालिक सामरिक व आर्थिक हितों से जुड़ी थी। 2001 में जब अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य कार्रवाई शुरू हुई, तब इस देश में भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन का शासन था। तीन साल बाद कांग्रेस की सत्ता आयी, तो उसने भी अपनी अफगान नीति को सही दिशा में आगे बढ़ाया। भारतीय नीति को अमेरिका का भी समर्थन मिला, क्योंकि भारत जो कार्य अफगानिस्तान में कर रहा है, वह अमेरिका के लिए भी मुश्किल था।

कितने आश्चर्य की बात है कि पाकिस्तान के प्रायः सारे नेता एक स्वर में यह कह रहे हैं कि भारत वहां अपना सारा विकास कार्य बंद कर दे। पाकिस्तान के नेताओं में जनरल मुशर्रफ से लेकर यूसुफ रजा गिलानी तक सभी अमेरिका पर इसके लिए दबाव डालते रहे कि वह भारत को वहां अपना कामकाज फैलाने से रोके, क्योंकि वह पाकिस्तानी हितों के खिलाफ है। मुशर्रफ साहब तो अभी भी कह रहे हैं कि भारत को वहां अपना विकास कार्य बंद करने को कहा जाए। पाकिस्तानी राजनेता भी अमेरिका को चेतावनी दे रहे हैं कि पाकिस्तान पर दबाव डालने की उसकी कार्रवाई उलटी पड़ सकती है। पाकिस्तानी सिनेट की विदेश मामलों की कमेटी के चेयरमैन सलीम सैफुल्लाह ने कहा है कि अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने में पाकिस्तान की अहम भूमिका रही है, ऐसे में यदि पाकिस्तान पर ही दबाव बढ़ाया गया, जो इससे वहां अमेरिकी विरोधी भावना भड़क सकती है। कितने आश्चर्य की बात है कि पाकिस्तानी नेता समझते हैं कि अमेरिका को अभी भी मूर्ख बनाया जा सकता है।

अमेरिका के पास अब इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि पाकिस्तान सरकार के स्वयं पाकिस्तान व अफगानिस्तान में सक्रिय आतंकवादी संगठनों से सीध संबंध है और पाकिस्तानी सैन्य गुप्तचर संस्थ आई.एस.आई. उनका संचालन करती है। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई ने अभी दो दिन की अपनी भारत यात्रा से वापस जाने के बाद गुरुवार को काबुल में प्रेस के सामने कहा कि बिना पाकिस्तानी सहायता के तालिबान आतंकवादी एक उंगली तक नहीं हिला सकते। अभी जब करजई दिल्ली में थे, तभी अफगानिस्तान में उनकी हत्या की साजिश में शामिल 6 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिसमें एक स्वयं करजई का अपना सुरक्षा गार्ड भी शामिल है। इन सभी के संबंध तालिबान के हक्कानी गुट से बताया जाता है। अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा निदेशालय के प्रवक्ता लुत्फुल्लाह मशाल के अनुसार करजई की हत्या का यह तीसरा प्रयास था, जिसे समय रहते विफल कर दिया गया। पिछले कुछ दिनों से करजई तथा उनके निकटस्थ लोगों की हत्या का एक पूरा अभियान चलाया जा रहा है, जिसमें हमलावरों को कुछ सफलता भी मिली है। जैसे वे करजई के सौतेले भाई अहमद वली करजई तथा अफगानी शांति मिशन के अध्यक्ष पूर्व राष्ट्रपति वजी उल्लाह रब्बानी की हत्या करने में सफल हो गये।

इसलिए अब पाकिस्तान लाख दावा करे कि अफगानिस्तान में शांति कायम करने में उसकी महान भूमिका रही है, यानि उसकी सहायता के बिना अमेरिका वहां कोई कामयाबी हासिल नहीं कर सकता था अथवा उसने भी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारी कुर्बानी दी है, लेकिन फिलहाल वहां उसकी दाल गलने वाली नहीं है, क्योंकि अब यह पूरी दुनिया के सामने उजागर हो चुका है कि उसने जो कुछ भी किया है, वह अपने स्वार्थवश किया है और विश्व समुदाय के समक्ष लगातार झूठ बोलता रहा है और धोखा देता रहा है। हां, यह बात सही है कि अब भारत-पाक संघर्ष और बढ़ेगा। बंगलादेश में हुई पराजय के बाद अफगानिस्तान में यह उसकी दूसरी बड़ी पराजय है। वह सैनिक पराजय थी, तो यह कूटनीतिक। जिस तरह वह बंगलादेश की पराजय को अब तक नहीं भुला सका है और उसे याद करके तिलमिलाता रहता है, उसी तरह वह अफगानिस्तान की कूटनीतिक पराजय कभी नहीं भुला सकेगा। जाहिर है कि वह अब दुगुनी ताकत से भारत पर हमले करने की कोशिश करेगा। यह कोशिश् निश्चय ही प्रत्यक्ष नहीं, परोक्ष युद्ध की होगी।

यह खबरें पहले से ही मिलती आ रही हैं कि पाकिस्तान गुप्तचर संस्थ आई.एस.आई. ने भारत के नक्सलवादी संगठनों तथा उत्तर-पूर्व के विद्रोही संगठनों (जैसे मणिपुर की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) से निकट संपर्क बना रखा है तथा उन्हें हथियारों के साथ नकद सहायता भी उपलब्ध करवा रहा है। अब वह अपनी इस कार्रवाई को और तेज कर सकता है। देश में फैली जिहादी इकाइयों के साथ इन हिंसक विद्रोही संगठनों को जोड़कर पाकिस्तान देश में हिंसा व अशांति फैलाने के नये प्रयास कर सकता है। अभी तो वह अफगानिस्तान में भी भारत विरोधी कार्रवाइयां तेज करने की कोशिश करेगा। यद्यपि भारत में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो समझते हैं कि भारत ने नाहक अपने को अफगानिस्तान में फंसा रखा है, लेकिन ऐसे लोग या तो बेहद भोले और नासमझ हैं अथवा वे भारत विरोधी शक्तियों के दलाल हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के इस क्षेत्र में शांति बनाये रखने के लिए यह आवश्यक है कि पाकिस्तान और उसके जिहादी संगठनों से अफगान मोर्चे पर ही निपट लिया जाए। इसके लिए कोई भी कीमत अदा करना महंगा सौदा नहीं होगा।

आडवाणी यों ही हार मानने वाले नहीं


भाजपा में प्रधानमंत्री पद के दो संभावित चेहरे: एक हिन्दूवादी, एक सेकुलर


राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस.) नहीं चाहता कि लालकृष्ण आडवाणी फिर अपने को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाएं, इसलिए वह यह भी नहीं चाहता कि वे विपक्षी राजनीति का केंद्रीय आकर्षण बनने की कोशिश करें। उसके अनुसार 2009 में उनके लिए अंतिम मौका था, जो जा चुका है। अब आगे पार्टी के किसी युवा नेता को आगे आने का अवसर दिया जाना चाहिए। आडवाणी ने इसका कोई खुला प्रतिवाद नहीं किया है, लेकिन वे इसे स्वीकार करने के लिए भी तैयार नहीं। संघ और पार्टी क्या करेगी यह वो जाने, मगर उन्होंने तो एक और मुकाबले में उतरना तय कर लिया है। संघ, मोदी के पीछे खड़ा है, तो परवाह नहीं, उन्होंने गुजरात का आश्रय छोड़ अब बिहार का दामन थाम लिया है।


भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने बुधवार 21 सितंबर को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ् के प्रधान मोहन भागवत के साथ मुलाकात के बाद यद्यपि पत्रकारों से बातचीत करते हुए यह संकेत दिया कि वह स्वयं अब प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल नहीं हैं, किंतु ऐसा लगता नहीं कि वह दशकों से संजोई अपनी इस महत्वाकांक्षा का यों ही परित्याग कर देंगे। आडवाणी एक जुझारू नेता है, वह यों ही पराजय स्वीकार कर लेने वाले नहीं। उन्होंने इसका संकेत दे भी दिया है कि उनमें अभी काफी दम खम है और 2014 के चुनावों में उनके लिए अभी एक संभावना शेष है।

नागपुर में आडवाणी ने कहा था कि पार्टी तथा देश की जनता ने अब तक उन्हें जो दिया है, वह किसी प्रधानमंत्री पद से कहीं अधिक है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से प्रारंभ करके, जनसंघ तथा भाजपा तक की अपनी इस राजनीतिक यात्रा में वह पार्टी का अंग बने रहकर प्रसन्न हैं। उनके ऐसा कहते हुए लग रहा था कि वह परम वीतरागी हो गये हैं, लेकिन निश्चय ही उनके भीतर आगे की संघर्ष योजना का मंथल चल रहा था। ऐसा समझा जाता है कि संघ नेतृत्व ने आडवाणी को अपने दरबार में तलब किया था, क्योंकि वह उनकी अगली रथ यात्रा की घोषणा से नाराज था। आडवाणी ने संसद के पिछले सत्र के अंतिक दिन भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी देशव्यापी रथ यात्रा की घोषणा की थी। संघ की नाराजगी इस बात को लेकर थी कि उन्होंने अपनी इस रथ यात्रा के बारे में संघ के नेताओं से कोई विचार-विमर्श नहीं किया था। आडवाणी ने शायद इसके लिए संघ से पूर्व अनुमति लेने की कोई जरूरत नहीं समझाी होगी। यथार्थ की बात करें, तो संघ और भाजपा दोनों में आडवाणी इस समय आयु और राजनीतिक कद दोनों ही दृष्टियों से वरिष्ठतम स्थान पर हैं, इसलिए यदि उन्होंने अपनी घोषणा के लिए किसी पूर्व अनुमति लेना जरूरी न समझा हो, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। लेकिन इस घोषणा में संघ के अधिकारियों को यह बू आई कि आडवाणी शायद एक बार फिर अपने को विपक्षी राजनीति के केन्द्र में लाना चाहते हैं, इसलिए उसने अपनी नाराजगी का स्पष्ट संकेत दिया।

वास्तव में संघ आडवाणी से तब से क्षुब्ध हैं, जब उन्होंने अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान कराची में मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर पहुंचकर अपनी श्रद्धांजलि दी थी और प्रशंसा करते हुए उन्हें एक सेकुलर नेता बताया था। उनकी इस कारगुजारी पर संघ की त्यौरियां चढ़ना स्वाभाविक था। जिस जिन्ना को संघ देश का दुश्मन नंबर एक, भारत के विखंडन का मुख्य अपराधी मानता है, उसका यदि संघ की ही राजनीतिक शाखा का प्रमुख नेता, शत्रु समझे जाने वाले देश की धरती पर पहुंचकर गुणगान करे, इसे बर्दाश्त करना संघ के लिए निश्चय ही नामुमकिन था। उसने आडवाणी से इस पर स्पष्टीकरण मांगा और अपने वक्तव्य के लिए खेद व्यक्त करने को कहा, लेकिन आडवाणी ने पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ना स्वीकार कर लिया, मगर अपने वक्तव्य पर अड़े रहे। उन्होंने जिन्ना की प्रशंसा अपनी सोची-समझी रणनीति के तहत किया था। इसके पीछे उनका लक्ष्य था अपने को ‘सेकुलर‘ सिद्ध करना और देश के भीतर ‘अटल बिहारी वाजपेयी‘ वाली सर्वस्वीकार्य छवि अर्जित करना। वह जानते थे कि आगे जाने वाले बहुत वर्षों तक पार्टी को अकेले बहुमत तो मिलने वाला नहीं, इसलिए बिना अन्य दलों के साथ गठबंधन किये सत्ता तक पहुंचना असंभव है और इन अन्य दलों का समर्थन पाने के लिए ‘सेकुलर‘ छवि आवश्यक है, क्योंकि ये अधिकांश क्षेत्रीय दल मुस्लिम वोट बैंक पर निर्भर हैं, इसलिए उनकी भावनाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं। आडवाणी भाजपा के भीतर कट्टर हिन्दूवादियों के नेता समझे जाते थे- जिन्हें संघ का पूरा समर्थन हासिल था- जबकि वाजपेयी को संघ का वैसा प्यार हासिल नहीं था, किंतु वह पार्टी के बाहर सर्वाधिक लोकप्रिय थे, क्योंकि उनकी छवि उदारवादी और सेकुलर थी। गठबंधन की राजनीति में इसीलिए वाजपेयी स्वीकार्य थे, आडवाणी नहीं। वाजपेयी को इफ्तार पार्टियों में कभी भी मुसलमानों की गोल टोपी पहने देखा जा सकता था, किंतु आडवाणी को नहीं। इसलिए आडवाणी अपनी छवि बदलना चाहते थे। उनके सामने 2009 के चुनाव की संभावनाएं थीं, इसलिए उन्होंने छवि बदलने का ठोस प्रयास शुरू किया। संघ की नाराजगी झेलकर भी वह अपने वक्तव्य पर डटे रहे, जिससे कि देश में उनके विचारों की दृढ़ता का संदेश जाए। यह संदेश काफी कुछ गया भी, लेकिन 2009 के चुनाव में भी पार्टी कुछ नहीं कर पायी और कांग्रेस दुबारा सरकार बनाने की स्थिति में आ गयी। संघ ने नाराजगी के बावजूद आडवाणी को 2009 में अपनी किस्मत आजमाने का मौका दे दिया था। आडवाणी का छवि बदलने का प्रयास यदि भाजपा को पुनः सत्ता तक पहुंचा सकता है, तो इसमें तो संघ को कोई आपत्ति थी नहीं, मगर जब पार्टी यह चुनाव भी हार गयी, तो संघ ने आडवाणी को हाशिए में डालने का दो टूक निर्णय लिया। लोकसभा में आडवाणी के होते हुए भी पार्टी व विपक्ष का नेता पद सुषमा स्वराज को दिया गया और राज्यसभा में यह सम्मान अरुण जेटली जैसे युवा नेता को दिया गया। आडवाणी का सम्मान रखने के लिए उन्हें पार्टी के संसदीय दल का नेता बना दिया गया, लेकिन यह स्पष्ट संदेश दे दिया गया कि अब उनका राजनीतिक युग समाप्त हो गया है, अब वह अपने को एक सलाहकार की हैसियत में समझें और पार्टी की सक्रिय राजनीति का नेतृत्व युवा पीढ़ी के हवाले करे। आडवाणी ने मन मसोस कर इसे स्वीकार कर लिया, किंतु उनका जुझारू अंतरमन सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के लिए तैयार नहीं हुआ। जैसे भी हो पार्टी में अपनी सक्रियता बनाये रखते हुए उन्होंने समय की प्रतीक्षा करने का विकल्प चुना। उनके जैसे अनुभवी नेता जानते हैं कि राजनीति को करवट बदलने में देर नहीं लगती, लेकिन उसका लाभ वही उठा सकता है, जो राजनीति की मुख्यधारा में बना रहे, इसलिए वह थोड़ा अपमान झेलकर भी धारा में बने रहे।

संसद के पिछले पावस सत्र में उन्होंने अनुभव किया कि कांग्रेस भ्रष्टाचार तथा प्रशासनिक निकम्मेपन के आरोपों से इस तरह घिर गयी है कि अगले आम चुनावों में फिर से बहुमत योग्य जन समर्थन प्राप्त करना बहुत कठिन होगा, इसलिए भाजपा फिर कांग्रेस से आगे निकल सकती है, इसलिए उन्होंने फिर राजनीति के मैदान में अपने को विपक्ष के प्रमुख योद्धा के तौर पर उतारने का संकल्प ले लिया। हो सकता है उनके दिमाग में एकाएक यह विचार कौंधा हो कि वह इस बार भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी रथ यात्रा शुरू करे और उन्होंने संसद की बैठक के अंतिम दिन के अवसर का लाभ उठाते हुए उसकी घोषणा कर दी। संघ तो क्या शायद इसके बारे में तब तक उन्होंने किसी के साथ इसके बारे में कोई विचार-विमर्श नहीं किया था। यात्रा की तिथि और बाकी चीजें तो बाद में तय ही की जानी थी।

उनकी इस घोषणा से संघ के ही नहीं, उनकी पार्टी के भी तमाम नेता चौंके थे और प्रायः सबका ख्याल एक ही था कि आडवाणी फिर अपने को विपक्षी राजनीति के केंद्र में लाना चाहते हैं। लेकिन दिक्कत थी कि कोई इसका विरोध नहीं कर सकता था। इस यात्रा को न करने की सलाह तो संघ भी नहीं दे सकता था, लेकिन संघ उनसे यह आश्वासन जरूर ले लेना चाहता था कि अब वह फिर से अपने को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी नहीं बनायेंगे। इस बीच एकाएक राजनीतिक वातावरण ऐसा बदला कि नरेंद्र मोदी गुजरात से उछलकर राष्ट्रीय राजनीतिक चर्चा के केंद्र में आ गये। एक तरफ तो सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात दंगों के मामले में अपने को मोदी विरोधियों की राजनीति का हथियार बनाये जाने से रोक लिया और सारे मामले की सुनवाई गुजरात की निचली अदालत में करने का निर्देश दिया, जो सांप्रदायिक हिंसा के आरोपों में जकड़े मोदी के लिए बहुत बड़ी राहत थी तथा दूसरी तरफ एक अमेरिकी संसदीय समिति ने मोदी के शासन तथा उनके शासनकाल में हुए विकास की तारीफ करते हुए उन्हें 2014 के चुनाव में प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया। उपर्युक्त समिति ने अपनी रिपोर्ट में लिख है कि अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री के संघर्ष में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी का मुकाबला मोदी से हो सकता है। इस रिपोर्ट ने एकाएक मोदी का कद कई गुना बढ़ा दिया। उन्होंने भी इन दोनों घटनाओं का जश्न मनाने के लिए अपने जन्मदिन 17 सितंबर पर तीन दिन के उपवास की घोषणा कर दी। जश्न मनाने का यह अनूठा और बेहद नया राजनीतिक तरीका था। मोदी ने अपने इस उपवास को ‘सद्भावना मिशन‘ की संज्ञा दी और कहा कि राज्य के विभिन्न वर्गों के बीच सद्भावना एवं शांति के लिए वह इस प्रतीकात्मक उपवास पर बैठ रहे हैं। उन्हें भी लगा कि यदि राष्ट्रीय राजनीति में उतरना है, तो उन्हें भी एक सेकुलर छवि चाहिए। राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता हासिल करनी है, तो कट्टर हिन्दूवाद से काम नहीं चलेगा। उन्होंने सभी मजहबों के लोगों को इस उपवास समारोह में बुलाकर यह संदेश देने की कोशिश की कि वह किसी जाति या वर्ग के तुष्टीकरण के पक्ष में नहीं है, किंतु वह किसी के विरोधी भी नहीं हैं। लेकिन एक मौलाना ने इसमें भी खलल डाल ही दिया। गुजरात के किसी सुदूर गांव में स्थित एक दरगाह के मौलाना हजरत सूफी इमाम शाही सईद मेंहदी हुसैन उर्फ ‘पीरान बाबा‘ ने मोदी को मंच पर पहुंचकर उन्हें मुस्लिम गोल टोपी पहनाने का प्रयास किया। मोदी ने वह टोपी पहनने से इनकार कर दिया, बदले में मौलाना से कहा कि यदि वह अपनी हरी शॉल उन्हें भेंट करना चाहें, तो उन्हें खुशी होगी। मौलाना ने वह शॉल अपने गले से निकालकर मोदी के गले में डाल दी और वापस आ गये। मिनट-मिनट की घटनाओं पर नजर रखने वाले मीडिया को एक जबर्दस्त शिगूफा मिल गया। मोदी ने इस्लामी टोपी पहनने से इनकार कर दिया। फौरन यह खबर पूरी दुनिया में फैल गयी। मौलाना ‘पीरान बाबा‘ को मीडिया के लोगों ने घेरा, तो उन्होंने मोदी के व्यवहार पर गहरा क्षोभ व्यक्त किया। उनके साथ उपस्थित उनके बेटे ने कहा कि मोदी ने उनके बाबा की बड़ी बेइज्जती की। कितनी हसरत से वह इतनी दूर से मोदी से मिलने आये थे, लेकिन यहॉं पहुंचकर बेइज्जती मिली। मौलाना ने फरमाया यह कोई मेरा अपमान नहीं, बल्कि इस्लाम का अपमान है। उन्होंने बाद में यह भी कहा कि मोदी अब कभी इस देश के प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। यहां इस्लाम का अपमान करने वाला कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। यहां इस्लाम का अपमान करने वाला कभी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नहीं पहुंच सकता। मोदी ने खुद अपनी किस्मत पर प्रहार किया है।

यह मसला इतना बड़ा हो गया कि लखनउ (उत्तर प्रदेश) के शिया धर्म गुरु कल्वे जव्वाद ने इस शुक्रवार को वहां स्थित बड़ा इमामबाड़ा में एक दिन के सामूहिक रोजा व उपवास का आयोजन किया, जिसमें आर्यसमाजी नेता स्वामी अग्निवेश सहित कई मजहबों के लोगों ने भाग लिया। इस एकदिवसीय उपवास में मोदी द्वारा इस्लामी टोपी का अपमान किये जाने की निंदा की गयी तथा कहा गया कि मोदी को इस तरह का उपवास करने का कोई हक नहीं है। जिसके हाथ हजारों मुसलमानों के खून से रंगे हों, उसे इस तरह उपवास करने या सद्भाव की बात करने का कोई अधिकार नहीं।

खैर, इस उपवास राजनीति से मोदी को कितना लाभ हुआ, कितना नुकसान, यह अलग बात है, लेकिन उनके इस आयोजन के कारण आडवाणी की रथ यात्रा की घोषणा नेपथ्य में चली गयी। आडवाणी इससे भी क्षुब्ध रहे होंगे। उन्होंने मोदी को इस रथ यात्रा की तैयारी करने के लिए कहा था, लेकिन वह अपने ‘उपवास समारोह‘ में लग गये। आडवाणी यद्यपि पार्टी के अन्य तमाम नेताओं के साथ उनके इस उपवास में शामिल हुए और मोदी के लिए की गयी अमेरिकी संसदीय समिति की टिप्पणी का समर्थन भी किया, लेकिन अंदर कहीं कुछ दरक अवश्य रहा था। इसके तत्काल बाद ही वह नागपुर में मोहन भागवत से मिले। मोहन भागवत ने ठीक-ठीक उनसे क्या कहा, यह तो पता नहीं, लेकिन समझा यही जाता है कि उन्होंने सलाह दी कि वे अगले प्रधानमंत्री की दौड़ में अपने को शामिल न करें और विधिवत इस बात की सार्वजनिक घोषणा करें। बाहर पत्रकारों के पूछने पर उन्होंने सीधे यह तो नहीं कहा कि अब वह प्रधानमंत्री पद स्वीकार नहीं करेंगे और पार्टी के किसी युवा नेता की इस पद पर ताजपोशी का समर्थन करेंगे, लेकिन यह संकेत देने की पूरी कोशिश की कि वह प्रधानमंत्री पद की दौड़ में नहीं हैं। प्रधानमंत्री पद उनके लिए कोई बड़ी चीज नहीं है, अब तक पार्टी तथा इस देश ने उन्हें जो कुछ दिया है, वह किसी प्रधानमंत्री पद की उपलब्धि से बहुत अधिक है। आडवाणी के इस कथन से सामान्यतया लोगों ने समझ लिया कि उन्होंने संघ के अधिकारियों के समक्ष् आत्मसमर्पण कर दिया है। लेकिन यह सच नहीं था। आडवाणी ने संघ के नेताओं का कोई प्रतिवाद नहीं किया, किंतु उन्होंने अपनी रथ यात्रा का संकल्प और दृढ़ कर लिया। उन्होंने मोदी को भी दरकिनार करने की सोच ली।

उनकी यह रथ यात्रा पहले गुजरात से शुरू होने वाली थी और मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ही उसे हरी झंडी दिखाने वाले थे। यात्रा की शुरुआत के लिए सरदार वल्लभ भाई पटेल के पैतृक गांव करमसाद को चुना गया था। किंतु आडवाणी ने इसके बाद कार्यक्रम बदल दिया। उन्होंने गुजरात के बजाए अब यह यात्रा बिहार से शुरू करने का निर्णय लिया। यात्रा का प्रस्थान बिंदु समग्र क्रांति के स्वप्न द्रष्टा जय प्रकाश नारायण के गांव सिताबदियरा को चुना गया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से आग्रह किया गया है कि वे इस यात्रा का शुभारंभ कराएं। नीतीश ने यह आग्रह खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। आडवाणी ने अपनी आगे की राजनीति के लिए गुजरात को छोड़कर बिहार का आश्रय बहुत सोच-समझकर लिया है। देश में इस समय दो क्षेत्रीय राजनेता ‘विकास पुरुष‘ की ख्याति अर्जित कर रहे हैं, एक नरेंद्र मोदी और दूसरे नीतीश कुमार। लेकिन राजनीति ने दोनों के विकास को दो रंगों में रंग दिया है। मोदी के विकास पर जहां हिन्दू सांप्रदायिकता का आरोपण है, वहां नीतीश के विकास को सेकुलर उदारता का प्रमाण-पत्र मिला हुआ है।

आडवाणी ने फिलहाल मोदी के आश्रय का परित्याग करके नीतीश का आश्रय ग्रहण कर लिया है। आडवाणी की सोच और संकल्प में आए बदलाव का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि इस बार उन्होंने 25 सितंबर को सोमनाथ जाने का अपना करीब 20 साल पुराना नियमित कार्यक्रम भी रद्द कर दिया। 25 सितंबर 1990 को उन्होंने पहली बार अयोध्या में राम मंदिर के संकल्प को लेकर अपनी रथ यात्रा सोमनाथ से ही शुरू की थी। तबसे वह प्रति वर्ष 25 सितंबर को सोमनाथ अवश्य पहुंचते थे, लेकिन इस बार उन्होंने यह क्रम तोड़ दिया। निश्चय ही उनके इस निर्णय से मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत हतप्रभ होंगे, क्योंकि उन्होंने इस अवसर पर अहमदाबाद में एक रैली का आयोजन कर रखा था, जिसमें राज्यपाल कमला बेन को वापस बुलाने की मांग बुलंद की जानी थी।

आडवाणी अभी 83 साल के हैं। 2014 में वह 86 साल के होंगे। लेकिन वह पूरी तरह फिट हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि वह तब तक इतने बूढ़े हो जायेंगे कि प्रधानमंत्री पद के लायक नहीं रह जायेंगे। इसलिए यदि वह एक अवसर और आजमाना चाहते हों, तो इसे कुछ बहुत गलत तो नहीं कहा जा सकता। लेकिन यह सवाल जरूर किया जा सकता है कि वह इस देश के बहुसंख्यक युवा जनमत को अपनी तरफ आकर्षित कर सकेंगे। सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि क्या वह अपने से आधी उमर वाले राहुल गांधी का राजनीतिक मुकाबला करते हुए अच्छे लगेंगे ? ऐसे और भी सवाल हो सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि 2014 के चुनाव में यदि भाजपा के नेतृत्व वाला गठबंधन एन.डी.ए. सरकार बनाने की स्थिति में आया, तो वह प्रधानमंत्री पद के लिए किसी आगे कर सकता है। आडवाणी को यदि दरकिनार कर दिया जाए, तो भाजपा में संभावित नाम हो सकते हैं- अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और नरेंद्र मोदी। एक नाम जसवंत सिन्हा का भी लिया जा सकता है। भाजपा के बाहर केवल एक नाम है नीतीश कुमार का। निश्चय ही एन.डी.ए. के घटकों में सबसे बड़ी संख्या भाजपा की होगी और सत्ता का शीर्ष नेतृत्व वह अपने पास रखना चाहेगी, तो उसे जेटली, सुषमा, मोदी और सिन्हा में से ही चुनना पड़ेगा। आज की राजनीति में ऐसी उदारता की कल्पना तो नहीं ही की जानी चाहिए कि मुख्य घटक दल संसद में सर्वाधिक सदस्य संख्या अपने पास होेेते हुए प्रधानमंत्री पद किसी वरिष्ठ पार्टी के सदस्य को दे दे। और ऐसा हो भी जाए, तो उसमें स्थिरता की उम्मीद नहीं की जा सकती। निश्चय ही बाकी बचे नामों में स्वयं भजपा के भीतर तथा घटक दलों के बीच सहमति कायम कर पाना कठिन होगा। 2014 में यदि विपक्षी गठबंधन बना तो उसमें जनता दल (यू)  के अतिरिक्त नवीन पटनायक के बीजू जनता दल, चंद्रबाबु नायुडू के तेलुगु देशम पार्टी, अजित सिंह व ओमप्रकाश चौटाला के अपने-अपने लोकदलों, जगन मोहन रेड्डी की वाय.एस.आर. कांग्रेस आदि की मुख्य भ्ूमिका होगी। ये सभी कट्टर सेकुलरवादी हैं, यानी ये मोदी के नाम पर तो कतई सहमत नहीं होंगे। केवल बाल ठाकरे की शिवसेना, राजठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना, प्रकाश सिंह बादल के अकाली दल, चंद्रशेखर राव के टी.आर.एस. तथा जयललिता की अन्ना द्रमुक के बारे में कहा जा सकता है कि भाजपा के किसी भी नेता को अपना समर्थन दे सकते हैं। लेकिन उतने से कम नहीं चलेगा। ऐसे में यदि आडवाणी उपलब्ध रहे, तो उन पर सहज ही आम सहमति बन सकेगी। मोदी से दूरी बनाना उनकी सेकुलर छवि को निश्चय ही मजबूत करने वाला सिद्ध होगा।

खैर, आडवाणी ने तो अपनी रणनीति बना ली, मगर अभी भाजपा को सौ बार सोचना पड़ेगा कि क्या आडवाणी को फिर आगे करके 2014 के चुनाव में कांग्रेस को पछाड़ा जा सकता है। कांग्रेस की युवा चुनौती का मुकाबला करने लायक भाजपा के पास एक ही नाम है- नरेंद्र मोदी, जिसके पास अपना भी कोई जनाधार है। उसकी दूसरी पंक्ति के सारे अन्य नेता जमीन से कटे हुए हैं। थोड़ा बहुत जनाधार जसवंत सिन्हा के पास है, लेकिन वह भी केवल अपना चुनाव जीतने तक। अपने अलावा किसी दूसरे को भी जीतवाने की क्षमता मोदी के अलावा और किसी के पास नहीं। पार्टी की अजीब विडंबना है- जो चुनाव जिताने वाला नेता है, वह चुनाव के बाद ही राजनीति में स्वीकार्य नहीं है और जो बाद वाली राजनीति में स्वीकार्य हो सकता है, उसमें चुनाव जिताने की क्षमता का अभाव है। आडवाणी दोनों ही स्थितियों में अपनी क्षमता प्रमाणित करना चाहते हैं, किंतु यह संघ के नेताओं को स्वीकार्य नहीं, क्योंकि आडवाणी तो संघ की पहचान ही समाप्त कर देने लगे हैं। अब यदि पार्टी को 2014 में अपना वर्चस्व कायम करना है, तो उसे इन विडंबनाओं से बाहर निकलना होगा, अन्यथा जैसा भी है, उसे कांग्रेस का शासन उसके आगे भी स्वीकार करना होगा, फिर उसका नेतृत्व मनमोहन या प्रणव जैसे बूढ़े नेता करें या राहुल गांधी जैसे युवा।