रविवार, 24 जुलाई 2011

भारत विरोधी लॉबी में शामिल ये प्रगतिशील बुद्धिजीवी

भारत के उन प्रगतिशील शीर्ष बुद्धिजीवियों में से कुछ, जो प्रायः भारत विरोधी  
मंचों की शोभा बनते हैं :  (बाएं से) राजिंदर सच्चर,
कुलदीप नैयर, दिलीप पडगांवकर, गौतम नवलखा

आप विश्वास करें या नहीं किंतु इस देश में प्रगतिशीलता, न्याय, सेकुलरवाद व मानवाधिकारों का ठेका ज्यादातर उन बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों, न्यायविदों व सामाजिक कार्यकर्ताओं (एक्टिविस्ट्स/ के पास है, जो छोटे-छोटे निहित स्वार्थों के लिए जाने-अनजाने अपनी अस्मिता बेच चुके हैं और उन लोगों की लॉबी में शामिल हैं, जो इस देश की राजनीतिक पराजय के लिए ही नहीं, इसके पूरे सांस्कृतिक अस्तित्व को ही डुबाने की साजिश में लगे हैं। ये कभी अमेरिका, रूस या चीन की लॉबी में थे, तो अब प्रत्यक्ष या परोक्ष पाकिस्तान की लॉबी में जा बैठे हैं। सबसे अधिक अफसोस की बात तो यह है कि हमारी केंद्रीय राजनीति भी इन्हीं छद्म उदारवादियों या प्रगतिशीलों के हांके में चल रही है।


विश्वास तो नहीं होता, लेकिन सच्चाई जब सप्रमाण सामने आती है, तो उस पर विश्वास करना ही पड़ता है। इस देश में प्रगतिशीलता, सेकुलरवाद व मानवाधिकारों की पूरी ठेकेदारी अपने नाम लिखाने वाले बहुत से ऐसे बुद्धिजीवी, लेखक, पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता (ऐक्टिविस्ट) विद्यमान हैं, जो छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए अपनी पूरी अस्मिता उन लोगों के हाथ बेचने के लिए तैयार बैठे रहते हैं, जो इस देश का पूरा अस्तित्व ही डुबाने की फिराक में लगे हैं।

अमेरिकी संघीय जांच ब्यूरो (एफ.बी.आई.) ने बीते सप्ताह मंगलवार को वर्जीनिया शहर से एक ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार किया, जो था तो पाकिस्तान का एजेंट, लेकिन जो भारत के भी अनेक शीर्ष बुद्धिजीवियों का चहेता था। इस व्यक्ति का नाम है डॉ. गुलाम नबी फाई। डेविड हेडली और तहव्वुर राणा के बाद यह तीसरा बड़ा पाकिस्तानी एजेंट है, जो अमेरिका में गिरफ्तार किया गया है। पहले इसके बारे में भी यही खबर आयी कि हेडली और राणा की तरह यह भी पाकिस्तानी मूल का अमेरिकी नागरिक है, लेकिन बाद में पता चला कि यह पाकिस्तानी नहीं भारतीय मूल का है और इसके साथ तमाम भारतीय शीर्ष लेखकों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व मानवाधिकारवादियों के घनिष्ठ संबंध हैं।

भारत का कश्मीरी अलगाववादी नेता डॉ. गुलाम नबी फाई पाकिस्तान सरकार तथा उसकी कुख्यात सैन्य गुप्तचर एजेंसी आई.एस. आई. का ‘पेड‘ एजेंट है, जो बीसों वर्षों से अमेरिका में रहकर पाकिस्तान के लिए काम कर रहा था। एफ.बी.आई. पिछले करीब 16 वर्षों से उसकी सारी गतिविधियों पर नजर रखे हुए थी। उसकी जासूस सारा वेव लिंडेन ने उसकी गतिविधियों का जो कच्चा चिट्ठा पेश किया है, वह भारतीयों के लिए तो आंखें खोल देने वाला है। एफ.बी.आई. ने फाई के खिलाफ 43 पेज का जो शपथ-पत्र पेश किया है, उसके अनुसार फाई को आई.एस.आई. से हर साल करोड़ों रुपये मिलते थे। उसने कम से कम 40 लाख डॉलर दिये जाने का तो प्रमाण् प्रस्तुत किया है। यह धन हवाला के माध्यम से उसके पास पहुंचाया जाता था। फाई सीधे आई.एस.आई. के नियंत्रण् में तथा उसके निर्देशों पर काम करता था। उसका मुख्य काम था अमेरिकी राजनेताओं को प्रभावित करके अमेरिकी नीतियों को पाकिस्तान के पक्ष में करना, कश्मीर के मामले में कश्मीरी अलगाववाद के पक्ष को मजबूत करना तथा भारत की कश्मीर नीति के विरुद्ध जनमत तैयार करना।

आई.एस.आई. द्वारा दिया गया कुल धन कहां जाता था, यह तो पूरी तरह स्पष्ट नहीं है, किंतु एफ.बी.आई. की रिपोर्ट के अनुसार अधिकांशतः यह अमेरिकी सिनेट व कांग्रेस के कुछ सदस्यों को उनके चुनाव प्रचार में सहायता के रूप में दिया जाता था, शेष प्रोपेगंडा कार्यों-बैठक, सेमीनार, प्रदर्शन आदि पर तथा उन बुद्धिजीवियों, पत्रकारों व लेखकों पर खर्च किया जाता रहा है, जो फाई के प्रभाव में आकर उनके अनुसार वैचारिक वातावरण बनाने में मदद करते थे। उसके इस जाल में भारतीय क्षेत्र भी शामिल था, इसलिए उसने भारत के बहुत से ऐसे बुद्धिजीवियों को अपने साथ जोड़ रखा था, जिनके साथ वैचारिक समानता थी या जो उसके लिए काम करने के लिए तैयार थे। उसके साथ जुड़े भारतीय बुद्धिजीवियों में प्रमुख नाम हैं न्यायमूर्ति राजेंद्र सच्चर (भारतीय मुसलमानों की अवस्था पर ‘सच्चर कमेटी रिपोर्ट‘ के नाम से प्रसिद्ध रिपोर्ट के सृजनकर्ता), दिलीप पडगांवकर (टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व संपादक तथा अभी कश्मीर समस्या के समाधान के लिए कश्मीरियों से बातचीत करके अपनी रिपोर्ट देने के लिए केंद्र सरकार द्वारा गठित त्रिसदस्यीय कमेटी के अध्यक्ष/, कुलदीप नैयर (प्रसिद्ध कॉलम लेखक, पत्रकार तथा ब्रिटेन में भारत के पूर्व उच्चायुक्त/, रीता मनचंदा /भारत व पाकिस्तान की महिलाओं के एक संगठन ‘वीमेन वेजिंग पीस‘ की सदस्य), प्रफुल्ल विदवई (जाने माने स्तंभ लेखक/, गौतम नवलखा (भारत की आर्थिक व राजनीतिक शोध पत्रों की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली‘ के संपादक), वेद भसीन (‘कश्मीर टाइम्स‘ के एडिटर-इन-चीफ), हरिंदर बावेजा (हेडलाईंस टुडे में संपादक इन्वेस्टिगेसेस), अरुंधती राय (जानी मानी लेखिका), कमल चिनॉय (जाने माने मानवाधिकारवादी कार्यकर्ता) आदि। यह कोई पूरी सूची नहीं है, किंतु ये चर्चित नाम हैं। इनके साथ एक नाम हरीश खरे का भी लिया जाता है, जो इस समय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार हैं, लेकिन उन्होंने इसका जोरदार खंडन किया है और कहा है कि वह गुलाम नबी फाई को जानते तक नहीं। वह न तो कभी उनसे मिले और न उनके सम्मेलनों-सेमीनारों में कभी शामिल हुए। अन्य किसी ने भी इस बात का खंडन नहीं किया है कि वह फाई से जुड़े हुए नहीं हैं या उनके सम्मेलनों में कभी शामिल नहीं हुए। हां, कुछ लोगों ने यह जरूर कहा कि वे नहीं जानते थे कि फाई पाकिस्तानी एजेंसी आई.एस.आई. का एजेंट है। अब ऐसे शीर्ष बुद्धिजीवियों के बारे में यह स्वीकार करना तो बहुत कठिन है कि वे फाई के बारे में कुछ जानते ही नहीं थे या वे इतने भोले हैं कि अंतर्राष्ट्रीय यात्राओं का किराया-भाड़ा तथा आवभगत का हर्जा-खर्चा उठाकर कोई भी उनका इस्तेमाल कर सकता है। वे जिन सेमीनारों या बैठकों में शामिल हुए, उनका चरित्र ही भारत विरोधी था, जिनमें भारत विरोधी बातें हुई, प्रस्ताव पारित किये गये, फिर भी उन्हें पता नहीं चल सका कि यह फाई कौन है, किसके लिए काम करता है और ऐसे खर्चीले सम्मेलनों के लिए उसे धन कहां से मिलता है। फाई ने इन भारतीय बुद्धिजीवियों को केवल अपने सम्मेलनों में बुलाया ही नहीं, बल्कि उन्हें अपने उन प्रस्तावों की प्रारूप समिति में भी शामिल किया, जो कश्मीर के संदर्भ में भारत की नीतियों के खिलाफ लिखे गये।

अखबारी रिपोर्टों के अनुसार फाई द्वारा स्थापित कश्मीर अमेरिकन कौंसिल /के.ए.सी./ के 29-30 जुलाई 2010 के दो दिवसीय सम्मेलन में पारित प्रस्ताव का प्रारूप तैयार करने के लिए जो 5 सदस्यीय कमेटी बनायी गयी, उसमें पाकिस्तान की अमेरिका में नियुक्त पूर्व राजदूत मलीहा लोदी के साथ कुलदीप नैयर भी शामिल थे। यह सम्मेलन राजधानी वाशिंगटन के रेबन हाउस स्थित प्रतिष्ठित सभागार ‘गोल्ड रूम‘ में आयोजित किया गया था। सम्मेलन का शीर्षक था ‘भारत-पाक संबंध: कश्मीर पर जारी गतिरोध तोड़ने के सदंर्भ में‘ /इंडिया-पाक रिलेशंस: ब्रेकिंग द डेड लॉक ओवर कश्मीर/।

इन सम्मेलनों में पारित होने वाले प्रस्ताव को ‘वाशिंगटन घोषणा‘ का नाम दिया जाता है। 2010 की इस घोषणा में कहा गया कि सम्मेलन में भाग लेने वाले सभी प्रतिनिधियों ने ‘सर्व सम्मति‘ से कश्मीर में मानवाधिकारों की दिनोंदिन बिगड़ती स्थिति पर गंभीर चिंता व्यक्त की तथा भारत सरकार से आग्रह किया कि वह कश्मीर के नागरिक क्षेत्रों से अपनी सशस्त्र सेना को तुरंत वापस ले। इसमें यह भी मांग की गयी कि कश्मीर में होने वाली हत्याओं की जांच के लिए भी एक निष्पक्ष आयोग की नियुक्ति की जाए, जो पारदर्शी ढंग से यह जांच कर सके। एक अन्य प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार 2010 के इस सम्मेलन में भारत से राजेंद्र सच्चर, हरिंदर बवेजा, वेद भसीन तथा गौतम नवलखा आदि ने भाग लिया।

के.ए.सी. का सम्मेलन सदैव पाकिस्तान केंद्रित होता है और भारत का विरोध उसका मुख्य एजेंडा रहता है। इसे भारत सरकार के विदेश विभाग से संबंधित हर व्यक्ति जानता है। 2010 के उपर्युक्त सम्मेलन के पूर्व जो आमंत्रण पत्र जारी किया गया था, उसमें अमेरिका स्थित भारत की राजदूत मीरा शंकर का नाम था, लेकिन वह सम्मेलन में नहीं आयीं। वस्तुतः अमेरिका स्थित भारतीय दूतावास का कोई व्यक्ति कभी फाई के सम्मेलनों में शामिल नहीं हुआ, क्योंकि उन्हें पता है कि इन सम्मेलनों में क्या होता है और इनका उद्देश्य क्या होता है। भारत के ऐसे पत्रकार और बुद्धिजीवी भी निमंत्रण के बावजूद उसमें शामिल नहीं होते, क्योंकि वे जानते हैं कि ऐसे मंचों पर उन्हें क्यों आमंत्रित किया जाता है। उदाहरण के लिए 2010 के ही इस सम्मेलन में ‘द हिन्दू‘ के अमेरिकी प्रतिनिधि सिद्धार्थ वरद राजन को भी अतिथियों में शामिल किया गया था, लेकिन वह नहीं गये। उन्होंने पहले इस संगठन और उसके कर्ताधर्ता डॉ. फाई के बारे में पता लगाया और जब उनकी असलियत का पता चला, तो उन्होंने उसमें शामिल न होना ही ठीक समझा। लेकिन इसके साथ ही यह भी कहना पड़ेगा कि उन्होंने अपना पत्रकारिता धर्म नहीं निभाया। उन्होंने इस सम्मेलन और उसमें शामिल होने वालों का नकाब उतारने का साहस नहीं किया। शायद वह करते भी तो उनका अखबार उसे प्रकाशित न करता। उन्होंने आयोजकों से यह कहकर माफी मांग ली कि वह उस दिन कहीं अन्यत्र व्यस्त हैं। ऐसा नहीं कि केवल 2010 के सम्मेलन का प्रस्ताव तैयार करने वालों में भारतीय बुद्धिजीवियों की भूमिका थी। 2009 के सम्मेलन में भी प्रस्ताव का प्रारूप बनाने के लिए जो समिति बनी, उसमें वेद भसीन और गौतम नवलखा के नाम थे। और दोनों ही वर्षों के सम्मेलन की प्रारूप समिति में डॉ. फाई का नाम मेजबान के तौर पर शामिल था। 23-24 जुलाई को हुए उस सम्मेलन के बाद जारी ‘घोषणा‘ में अमेरिकी कांग्रेस से यह अपील की गयी कि वह अमेरिकी प्रशासन पर दबाव डाले कि कश्मीर के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ का एक विशेष दूत नियुक्त कराने में मदद करें। सम्मेलन के बाद डॉ. फाई द्वारा जारी एक रिपोर्ट में भसीन को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि ‘कश्मीर समस्या का एक ही समाधान है कि उसे दक्षिण एशिया के एक स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा दे दिया जाए। यथास्थिति इस समस्या का कोई समाधान नहीं है।‘ उसी रिपोर्ट के अनुसार गौतम नवलखा ने सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि ‘यदि शांतिपूर्ण विरोध विफल हो जाए, तो आगे क्या हो।‘ उन्होंने यह सवाल उठाते हुए यह चेतावनी भी दी कि यदि कश्मीरियों की आकांक्षाओं की निरंतर उपेक्षा की जाती रही, तो सशस्त्र संघर्ष फिर शुरू हो सकता है, जिसके परिणाम पूरे दक्षिण एशिया को भोगने पड़ेंगे।‘

गुलाम नबी फाई अपने सम्मेलनों में इन भारतीयों को क्यों बुलाते हैं ? क्या ये भारतीय बुद्धिजीवी, न्यायाधीश, पत्रकार इतना भी नहीं समझ पाते। उसका एकमात्र उद्देश्य होता है अपने कश्मीरी अभियान को प्रामाणिकता प्रदान करना। इसीलिए वह प्रस्तावों की प्रारूप समिति में भी भारतीयों को शामिल करता है। इसके द्वारा वह दुनिया के सामने यह सिद्ध करना चाहता है कि स्वयं भारत के शीर्ष बुद्धिजीवी भारत सरकार की कश्मीर नीति के खिलाफ हैं। जब भारत के अपने प्रतिष्ठित न्यायाधीश, पत्रकार तथा मानवाधिकारवादी जिन्हें भारत सरकार भी सम्मान देती है और महत्वपूर्ण आयोगों और समितियों में शामिल करती है, यह कहते हैं कि कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति निरंतर बिगड़ती जा रही है, सेना वहां के शांतिप्रिय नागरिकों का दमन कर रही है, निर्दोष नागरिक मारे जा रहे हैं, तो फिर पाकिस्तान अगर यही बात उठा रहा है और कश्मीरियों के न्यायपूर्ण अधिकारों को दिलाने की बात करता है, तो इसमें गलत क्या है। भारत के न्यायमूर्ति सच्चर यदि यह कहते हैं कि भारत के मुसलमान शैक्षिक व आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़े हैं, उनके साथ न्याय नहीं हुआ है, सरकारी नौकरियों में उन्हें उचित जगह नहीं दी गयी है, तो यदि पाकिस्तान यह मुद्दा उठाता है कि भारत में मुसलमानों के साथ न्याय नहीं हो रहा है, उन्हें दोयम दर्जे के नागरिक का दर्जा दिया गया है, तो इसमें गलत क्या है।

अब यह अच्छी तरह लोगों की समझ में आ सकता है कि भारत में मानवाधिकार व सेकुलरिज्म आदि की गुहार लगाने वाले ये पत्रकार, लेखक, बुद्धिजीवी किसकी प्रेरणा से यह आवाज उठाते हैं। फाई जैसे लोगों के माध्यम से उन्हें मिलने वाला आई.एस.आई. का धन उनसे इस तरह की गुहार लगवाता है। आश्चर्य है कि ऐसे लोगों की भारत सरकार तथा प्रधानमंत्री कार्यालय तक गहरी पहुंच है। कश्मीर समस्या के समाधान हेतु बातचीत करके अपनी रिपोर्ट देने के लिए प्रधानमंत्री उन दिलीप पडगांवकर को वार्ताकार टीम का नेता बनाते हैं, जो फाई के खर्चे पर अमेरिका यात्रा करके उनकी मेहमाननवाजी का लुत्फ उठाते हैं और फिर कहते हैं कि उन्हें तो पता नहीं था कि वह आई.एस.आई. के लिए काम करता है। क्या उनके जैसे वरिष्ठ पत्रकार को कभी यह शक नहीं हुआ कि फाई इतना सारा पैसा कहां से लाता है। फिर उनका इतना तो पता चलता ही होगा कि जिस सम्मेलन या बैठक में वह भाग लेते हैं, उसमें क्या हो रहा है।

डॉ. गुलाम नबी फाई के बारे में यहां के आम लोगों को भले ही पहले कोई जानकारी न रही हो, लेकिन दुनिया भर की खोज खबर रखने वाले इन लेखकों-पत्रकारों को उसके बारे में जानकारी न हो, यह हो ही नहीं सकता। फाई अमेरिका का भी एक प्रतिष्ठित नागरिक है और यहां भारत में भी उसके परिचितों मित्रों की संख्या कम नहीं है। अभी गत सोमवार को उसकी गिरफ्तारी होने तक फेस बुक पर उसके भारतीय मित्रों की संख्या करीब 1500 से अधिक थी। इसमें तमाम शीर्ष पत्रकारों, लेखकों व बुद्धिजीवियों के नाम थे। यह बात अलग है कि तीन दिन के भीतर ही इस सूची में केवल 280 नाम रह गये। अब शायद और भी कम रह गये हों। इनमें सबसे पहले अपने नाम हटाने वालों में वे लोग ही रहे, जो उससे लाभ उठाने में सबसे आगे रहे हैं। इससे ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ये सब कैसे लोग हैं।

फाई आज ही नहीं, आज से पहले भी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का व्यक्ति रहा है। वह निश्चय ही असाधारण प्रतिभा संपन्न, निहायत तेज दिमाग और अद्भुत संपर्क क्षमता रखने वाला व्यक्ति है। यद्यपि उसकी सबसे अधिक चर्चित संस्था ‘कश्मीरी अमेरिकी कौंसिल‘ /के.ए.सी./ ही है, जिसका वह कार्यकारी निदेशक है, लेकिन वह कई अन्य संस्थाओं का भी संस्थापक व सम्मानित पदाधिकारी है। के.ए.सी. वाशिंगटन में कार्यरत संस्था है, जिसे सामान्यतया ‘कश्मीर-सेंटर‘ के नाम से जाना जाता है। इसके पूर्व उसने केलिफोर्निया में ‘वर्ल्ड पीस फोरम‘ के नाम से एक संस्था स्थापित की थी, जिसका वह संस्थापक अध्यक्ष है। वह कई अन्य महत्वपूर्ण इस्लामी संस्थाओं जैसे ‘इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ कश्मीर स्टडीज‘, ‘कश्मीरी अमेरिकी फाउंडेशन‘ तथा लंदन स्थित ‘जस्टिस-फाउंडेशन‘ का भी अध्यक्ष है। वह इस्लामी दुनिया के सभी गैर सरकारी संगठनों /एन.जी.ओ./ के संघ के निदेशक मंडल का सदस्य है। यह संघ टर्की के इस्ताम्बूल शहर में स्थापित है।

कश्मीर में श्रीनगर के निकट स्थित वाधवा गांव में जन्में गुलाम नबी फाई की स्नातक स्तर की शिक्षा श्रीनगर में हुई। स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय आ गया, जहां उसने दर्शन शास्त्र में एम.ए. किया। इसके बाद पीएच.डी. की डिग्री पेंसिलवानिया के टेम्पल विश्वविद्यालय से ‘मास कम्युनिकेशंस‘ में प्राप्त की। जमायत-ए-इस्लामी के साथ उसका संबंध तभी स्थापित हो गया था, जब वह श्रीनगर में स्कूली शिक्षा प्राप्त कर रहा था। आगे चलकर छात्र नेता के तौर पर भी उसने असाधारण प्रसिद्धि प्राप्त की। छात्र नेता प्रतिनिधि के तौर पर उसने जाने कितने अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भाग लिया।

ऐसा समझा जाता है कि उसे अमेरिका में स्थापित करने का काम आई.एस.आई. ने ही किया। उसकी प्रतिभा तथा गतिशीलता को देखकर पाकिस्तान ने उसे अपना प्रोपेगेंडा का का हथियार बनाया। अनुमानतः पिछले 3 दशकों से वह पाकिस्तान की कश्मीर योजना को कार्यान्वित करने में लगा है। मीडिया में विभिन्न स्रोतों से जो खबरें आ रही हैं, उनके अनुसार उसके सारे कार्यक्रमों की योजना आई.एस.आई. द्वारा तैयार की जाती है। सम्मेलनों में किसे बुलाया जायेगा, भाषणों में क्या बोला जायेगा तथा निष्कर्ष के रूप में क्या प्रसारित किया जायेगा, यह सब आई.एस.आई. के लोगों द्वारा तय किया जाता है। फाई सिर्फ उसके एक शक्तिशाली मुखौटे की तरह सामने रहता है।

फाई ने 2003 से 2007 तक वाशिंगटन डीसी के ‘कैपिटल हिल‘ /अमेरिकी सत्ता केंद्र जैसे दिल्ली का रायसीना हिल्स है/ पांच अंतर्राष्ट्रीय कश्मीर शांति सम्मेलनों का आयोजन किया और 2004 तथा 2005 में ऐसे ही दो आयोजन न्यूयार्क में किये। सितंबर 2006 में उसने जिनिवा /स्विट्जरलैंड/ स्थित संयुक्त राष्ट्र संघ मुख्यालय में ‘कश्मीरियों के आत्म निर्णय के अधिकार‘ के प्रश्न पर एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया। वह गत तीन दशकों से कश्मीरी अलगाववाद का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय चेहरा बना हुआ है। एक रिपोर्ट के अनुसार इस अवधि में उसने इस विषय पर व्याख्यान देते हुए दुनिया के करीब 40 देशों का दौरा किया। इस दौरान वह धुआंधार लेखन भी करता रहा। उसके आलेख न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, द वाशिंगटन टाइम्स, शिकागो ट्रिब्यून, वाला स्ट्रीट जर्नल, फाइनान्शियल टाइम्स, प्लेन डॉलर, बाल्टिमोर सन तथा अमेरिका व दुनिया भर के ऐसे जर्ननों में छपते रहे, जो विदेश नीति पर ज्यादातर आलेख प्रकाशित करते हैं।

खैर, फाई जो कुछ कर रहा है, वह कश्मीरी मुस्लिम अलगाववादियों तथा पाकिस्तान के लिए कर रहा है। जो कुछ कर रहा है, पूरी ईमानदारी से कर रहा है, लेकिन ये हमारे देश के तथाकथित प्रगतिशील, वामबुद्धिजीवी क्या कर रहे हैं।

फाई प्रति वर्ष कम से कम 2 करोड़ रुपये सेमीनारों और जनसंपर्क पर खर्च करता है। अमेरिकी स्रोतों के अनुसार ही उसने पिछले राष्ट्रपति चुनावों में उम्मीदवारों को 20 करोड़ रुपये की रिश्वत दी। एफ.बी.आई. की रिपोर्ट में सिनेट और कांग्रेस के उन सदस्यों के बारे में भी काफी खुलासा किया गया है। यद्यपि अमेरिकी कानून के अनुसार चुनावों के लिए न तो किसी से धन लेना अपराध है और न किसी के लिए लॉबींग करना ही किसी अपराध की श्रेणी में आता है, लेकिन किसी विदेशी संस्था या सरकार से गुप्त रूप से धन लेकर लॉबींग करना अवश्य अपराध है। यह अपराध भी बहुत गंभीर नहीं है, इसमें केवल 5 साल तक की कैद की सजा हो सकती है, लेकिन यह मामला निश्चय ही बहुत गंभीर है, खास तौर पर अमेरिका और भारत के लिए ।

अमेरिका में किसी राजनीतिक नेता का चुनावों के लिए धन लेना भले ही अपराध न हो, लेकिन वह राजनेता धन लेने के बाद धन प्रदाता के प्रभाव में भी न आता हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह अमेरिकी लोकतंत्र के लिए किसी कलंक से कम नहीं कि उसके सिनेटरन या कांग्रेस के सदस्य धन लेकर किसी दूसरे देश के लिए अपने देश की राजनीति को प्रभावित करने का काम कर रहे हों। अमेरिकी इतिहास में शायद यह पहला ऐसा वाकया हो, जब वहां के सांसदों को रिश्वत दिये जाने का मामला न्यायालय तक पहुंचा हो।

पाकिस्तानी सरकार तथा कश्मीरी अलगाववादियों के लिए भी यह एक बड़ा झटका है। फाई यद्यपि पाकिस्तानी नागरिक नहीं है, लेकिन उसकी गिरफ्तारी पाकिस्तान के लिए डेविड हेडली तथा तहव्वुर राणा की गिरफ्तारी से भी बड़ा आघात है। अमेरिकी सरकार ने पहले तो केवल यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया था कि फाई उसका नागरिक नहीं है, लेकिन बाद में उसने इसे पाकिस्तान की छवि खराब करने वाली कार्रवाई बताया और डॉ. फाई की कश्मीर तथा पाकिस्तान के लिए की गयी सेवाओं के लिए सराहना की। यहां भारत में तो फाई से संबंध रखने वाले ज्यादातर बुद्धिजीवियों को सांप सूंघ गया है, लेकिन कश्मीरी उग्रवादी सड़कों पर उतर आये हैं। हुर्रियत कांफ्रेंस के उग्रवादी धड़े के नेता सैयद अली शाह गिलानी ने इसे भारत की साजिश बताया है। उनका कहना है कि दुनिया में कश्मीर की आवाज को कमजोर करने के लिए उसने फाई की गिरफ्तारी करायी है।

एफ.बी.आई. ने वस्तुतः डॉ. गुलाम नबी फाई सहित अमेरिकी मुस्लिमों पर पाकिस्तान के एजेंट के तौर पर काम करने का आरोप लगाया है। इनमें से फाई की तो गिरफ्तारी हो गयी है, लेकिन दूसरा एजेंट जहीर अहमद अभी नहीं पकड़ा जा सका है। खबर है कि वह पाकिस्तान भाग गया है, जहां का वह मूलतः रहने वाला है। फाई के खिलाफ गत शुक्रवार को सुनवाई होनी थी, लेकिन अब वह आगामी मंगलवार के लिए टाल दी गयी है। अदालत उस पर क्या कार्रवाई करती है और फाई की अन्य अमेरिकी संस्थाओं का क्या होता है, यह दीगर बात है, किंतु अपने देश के संदर्भ में मुख्य सवाल यह है कि क्या यहां के अपने बुद्धिजीवियों के खिलाफ भी कोई कार्रवाई हो सकती है, जो आई.एस.आई. के एजेंटों के इशरे पर कश्मीरी अलगाववादियों के पक्ष में पाकिस्तानी राग अलापते आ रहे हैं।

रविवार, 10 जुलाई 2011

देश के समक्ष नेतृत्वहीनता का संकट



विफल सिद्ध हुई जोड़ी: सोनिया गांधी और डॉ. मनमोहन सिंह

सच कहा जाए, तो यह देश का समय घोर नेतृत्वहीनता के संकट से गुजर रहा है। सोनिया-मनमोहन की जोड़ी पूरी तरह विफल हो चुकी है। क्योंकि दोनों में नेतृत्व शक्ति का अभाव है और दोनों ही अपनी-अपनी जगह मुखौटों की भूमिका निभा रहे हैं। दोनों की अधिकतम कोशिश केवल यथास्थिति को बनाए रखने की है, क्योंकि दोनों में से कोई भी किसी तरह का खतरा नहीं उठाना चाहता। यही कारण है कि प्रशासनिक कार्यों में भी न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है और संविधानेतर शक्तियां विधायी कार्यों में हस्तक्षेप के लिए जनासमर्थन हासिल कर रही है।

वर्ष 2004 में जब कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी को चुनाव में पछाड़कर देश की सत्ता अपने हाथ में ली थी और उसके नेतृत्व के लिए दो नेताओं की जोड़ी सामने आयी थी, तो राजनीतिक पंडितों ने इसे एक नई राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था की शुरुआत कहा था और माना था कि इससे देश को एक सक्षम और गतिशील राजनीतिक व्यवस्था प्राप्त होगी। यह प्रयोग अगले आम चुनावों के बाद भी जारी रहा, लेकिन अब लग रहा है कि यह प्रयोग पूरी तरह विफल हो गया है और देश पूरी तरह राजनीतिक नेतृत्वहीनता की स्थिति में पहुंच गया है। कम से कम पिछले एक वर्ष से तो यही लग रहा है कि देश का कोई नेता है ही नहीं और केवल एक कार्यवाहक व्यवस्था काम कर रही है, जिसका एकमात्र लक्ष्य किसी तरह यथास्थिति को बनाए रखना है, जिससे उसकी सत्ता बनी रहे और कोई दूसरा उसकी जगह न लेने पाए।

निर्णयहीनता और यथास्थिति की ऐसी स्थिति देश में शायद पहले कभी नहीं पैदा हुई थी। मई 2004 में कांग्रेस ने सोनिया गांधी के नेतृत्व में अप्रत्याशित विजयश्री हासिल की थी। उसे लोकसभा में पूर्ण बहुमत तो नहीं मिला था, लेकिन उसने भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन को पीछे छोड़ दिया था। सोनिया गांधी देश की सबसे शक्तिशाली नेता के रूप में उभरकर सामने आयी थीं। प्रधानमंत्री पद की वह वास्तविक हकदार थीं, लेकिन उनका विदेशी मूल का होना शायद उनके मार्ग का अवरोधक बना। यह अवरोध एक नई व्यवस्था के जन्म का कारण बना। सोनिया गांधी के सामने अपने विकल्प के चयन का प्रश्न था। कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेताओं की एक लंबी कतार थी। लेकिन सोनिया ने उन सबको पीछे छोड़कर डॉ. मनमोहन सिंह जैसे एक अराजनीतिक व्यक्ति को अपने विकल्प के रूप में प्रधानमंत्री पद के लिए चुना। यह एक असाधारण निर्ण था। मनमोहन सिंह अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के न केवल एक अर्थशास्त्री थे, बल्कि उनका एक लंबा एकादमिक व प्रशासनिक अनुभव था। उन्हें राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था व समाज की अच्छी जानकारी थी। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर पद का अनुभव था। देश में उनके हस्ताक्षर की मुद्राएं चल रही थीं। यही नहीं देश में नये आर्थिक सुधारों को लागू करने का प्रथम श्रेय भी उन्हें प्राप्त था। नेहरूकालीन बंद अर्थव्यवस्था को खुली अर्थव्यवस्था और ग्लोबलाइजेश्न की नई अवधारणा को देश में लाने का श्रेय उन्हें ही दिया जाता है। प्रधानमंत्री पद के लिए उनके चयन से देश का राजनीतिक समुदाय जहां चकित था, वहीं देश का आम आदमी हर्षविभोर था। पहली बार उसे एक ऐसा प्रधानमंत्री मिल रहा था, जो राजनीतिक पृष्ठभूमि से नहीं आया था। जो ईमानदारी की प्रतिमूर्ति और दुग्धधवल छवि का स्वामी था। इतना पढ़ा-लिखा प्रधानमंत्री देश को पहले कभी नहीं मिला था। देश की अर्थव्यवस्था को पतन के गर्त से निकालने से आक्रांत देश को लगा कि अब उसकी सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा।

नई स्थिति के प्रशंसक व्याख्याकारों ने कहा कि पहली बार देश का राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व दो अलग-अलग हाथों में रहेगा। राजनीतिक दायित्व पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के हाथों में रहने के कारण प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के पास देश के प्रशासन को संभालने के लिए अधिक समय रहेगा। वे सुधार और निर्माण कार्यों को अधिक बेहतर ढंग से कर सकेंगे। सरकार का मुखिया यदि कर्मठ और ईमानदार रहेगा, तो वह कर्मठता और ईमानदारी पूरे प्रशासन में आएगी। शासनतंत्र में उपर से नीचे तक व्याप्त भ्रष्टाचार मिटेगा और एक स्वच्छ कार्यशैली जन्म लेगी।

समय बीतता गया, लेकिन जैसी अपेक्षा की गयी, वैसा कुछ नहीं हुआ। असंतोष खदबदाने लगा, लेकिन सरकार देश को यह समझाने में सफल रही कि वह क्या करे। उसके हाथ-पांव बंधे हैं। वह उन तमाम पार्टियों की जकड़न में है, जिसके समर्थन पर वह टिकी है। नेतृत्व की योग्यता व उसके संकल्प में कोई कमी नहीं है, लेकिन गठबंधन की व्यावहारिक राजनीति रास्ते में रोड़ा बनी हुई है। नेतृत्व को कुछ नया करने का मौका ही नहीं मिल रहा है। उस समय सरकार वाम मोर्चे के समर्थन पर निर्भर थी। वाम मोर्चे के इन नेताओं की कारगुजारी सबके सामने थी। वे सरकार को अपनी उंगलियों पर नचाना चाहते थे।

वामपंथियों के कारण सरकार को एक अच्छा बहाना मिल गया कि उनके कारण वह न तो आर्थिक सुधारों का अपना कार्यक्रम लागू कर पा रही है और न प्रशासनिक कार्य संस्कृति व श्रमनीति में कोई बदलाव ला पा रही है। अमेरिका के साथ किये गये परमाणु समझौते ने भी सरकार का काफी कीमती समय बर्बाद किया। इसके कारण सरकार को अपनी अस्तित्व रक्षा की कठिन लड़ाई लड़नी पड़ी। आम आदमी की निराशा के जवाब में प्रधानमंत्री का जवाब था कि उनके हाथ में कोई जादू की छड़ी तो नहीं है कि पलक झपकते सब कुछ सुधर जाए। उसने उनका यह तर्क स्वीकार भ्ी कर लिया, क्योंकि उसे उनकी ईमानदारी और कार्यक्षमता में अभी भ्ी विश्वास था। कांग्रेस ने अपना अगला आम चुनाव डॉ. मनमोहन सिंह को ही आगे करके लड़ा। इसका उसे लाभ भी हुआ। पूर्ण बहुमत तो नहीं मिल सका, लेकिन वामपंथियों की बैसाखी से तो निजात मिल गयी। अन्य सहयोगी दलों में भी ऐसा कोई नहीं रहा, जो कोई सैद्धांतिक अवरोध पैदा कर सके। आशा की गयी कि सरकार अपने इस दूसरे कार्यकाल में जरूर कोई चमत्कार करेगी। दुनिया उस आर्थिक मंदी के दौर से भी बाहर हो गयी थी, जिसका सामना सोनिया-मनमोहन की पहली सरकार को करना पड़ा था।

लेकिन अफसोस इस दूसरी सरकार नेदोहरे नेतृत्व की विशेषता का सारा मुलम्मा उतार दिया। पता चला कि दोहरा नेतृत्व तो एक मरीचिका है। वास्तव में तो देश नेतृत्वविहीनता की स्थिति से गुजर रहा है। जो हैं वे कार्यवाहक हैं या मात्रा मुखौटे हैं, नेता तो कोई है ही नहीं। नेता तो वह होता है, जो अपनी जनता से लगातार संवाद करे, उसकी समस्याओं का मुकाबला करे और विवादास्पद मसलों पर भी फैसले लेने का खतरा मोल ले, किंतु नेतृत्व का यह गुण न तो सोनिया गांधी ने प्रदर्शित किया और न डॉ. मनमोहन सिंह ने। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री तो बन गये, लेकिन उन्होंने कभी अपने को नेता नहीं माना। वह अपने को कार्यवाहक या खड़ाउपूजक ही मानते रहे। उन्होंने कभी यह महसूस नहीं किया कि देश की कुछ राजनीतिक जवाबदेही उनके उपर भी है। वह इस अहसास से कभी बाहर नहीं निकल पाए कि देश का वास्तविक नेता तो कोई और है, वे तो केवल उसके द्वारा नियुक्त कार्यसंचालक मात्र हैं। वे केवल आदेश पालक हैं, निर्णयकर्ता नहीं। उनका काम केवल सरकार चलाना है, देश चलाना नहीं। देश चलाने वाला कोई और है।

दूसरी तरफ सोनिया गांधी ने भी कभी अपने को देश की नेता नहीं माना। भारत की नेता बनने की उनकी कभी कोई महत्वाकांक्षा भी नहीं रही। सत्ता प्रमुख बनने की आकांक्षा भले रही हो, लेकिन नेता बनने की नहीं। उनकी अधिकतम जिम्मेदारी कांग्रेस पार्टी तक सीमित है। उसकी भी नेता वह केवल इसलिए हैं कि वह नहीं रहेंगी, तो पार्टी के अपने अस्तित्व के लिए भी खतरा पैदा हो सकता है। सच कहें तो वह कांग्रेस पार्टी की एक मुखौटा भर हैं। यह एक भ्रम है कि पार्टी के सभी फैसले वे ही करती हैं। इस देश के प्रशासनिक ढांचे में जो स्थान राष्ट्रपति का है, कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे में लगभग वही स्थिति सोनिया गांधी की है। जैसे कैबिनेट के फैसले राष्ट्रपति की मुहर से जारी होते हैं, उसी तरह कांग्रेस के राजनीतिक फैसले सोनिया गांधी के नाम पर जारी होते हैं।

सोनिया स्वयं इस देश के नेतृत्व संभालने के प्रति शुरू से उदासीन रही हैं। सच कहा जाए, तो वह केवल अपने परिवार का धर्म निभा रही हैं। उनका अपने पुत्र के प्रति मोह हो सकता है। यह हो सकता है कि वह उसे इस देश के प्रधानमंत्री पद पर आसीन होते देखने का सपना पाल रही हों, लेकिन इस देश का राष्ट्रीय नेतृत्व संभालने की महत्वाकांक्षा शायद ही कभी उनके मन में पैदा हुई हो। यदि ऐसा होता, तो राष्ट्रीय मसलों पर वह कभी इस तरह उदासीन न रहती, जैसी कि वह प्रायः नजर आती हैं। इसका कारण केवल यह नहीं है कि वह विदेशी मूल की हैं, बल्कि इसका असली कारण यह है कि वह स्वाभाविक नेता नहीं है। नेता होने का दायित्व उन पर थोप दिया गया है। इस पद का अपना ग्लैमर तो है ही, जो उन्हें अच्छा भी लगता होगा, लेकिन यह उनके स्वाभाविक व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं है। वह बस पार्टी के हित में अपने परिवार का पारंपरिक दायित्व निभए जा रही हैं। उनकी विशेषता यही है कि वह पार्टी के प्रतीकात्मक नेतृत्व की भूमिका बखूबी निभा रही हैं। जो फैसले प्रणव मुखर्जी, अहमद पटेल, चिदंबरम, कपिल सिब्बल व ए.के. एंटनी, दिग्विजय सिंह, जर्नादन द्विवेदी, वीरप्पा मोइली, गुलाम नबी आजाद आदि करते हैं, वे उस पर मुहर लगा देती हैैं। उनकी एक ही चिंता रहती है कि पार्टी को कैसे भी कोई नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए और उनकी अपनी छवि पर कोई छींटा नहीं पड़ना चाहिए।

इसका मतलब क्या हुआ ? यही न कि देश पूरी तरह नेतृत्वविहीन है। मामला आतंकवाद का हो, जातिवाद का हो, भ्रष्टाचार का हो, सांप्रदायिकता का हो, सीमा सुरक्षा का हो, किसी को इसकी चिंता नहीं है। विवाद अयोध्या का हो, कश्मीर का हो, तेलंगाना का हो, उत्तर पूर्व का हो, बस किसी तरह इनको टालते रहना ही सरकार का कर्तव्य बन गया है। जब सबके सब कार्यवाहक या दूसरी पंक्ति के नेता हों, तो फैसले कौन लेगा। दूसरी पंक्ति के नेता कभी कोई खतरा उठाने का साहस नहीं कर सकते। खतरे उठाने के फैसले केवल शीर्ष नेता ही कर सकते हैं और यदि शीर्ष नेतृत्व भी केवल कार्यवाहक मुखौटों का रूप ले चुका हो, चाहे वह पार्टी का मुखौटा हो या सरकार का, तो फिर भला कौन फैसले करेगा। ऐसे में न्यायालय या गैर राजनीतिक संस्थाएं केंद्रीय भूमिका में आ ही जायेंगी। यह सरकार और राजनीति की नेतृत्वहीनता का ही परिणाम है कि भ्रष्टाचार की जांच का मामला हो या काले धन का पता लगाने की समस्या, इससे निपटने के लिए न्यायालय को आगे आना पड़ता है। कर चोरी, भ्रष्टाचार व काले धन पर कानून बनवाने के लिए संविधानेतर शक्तियां आगे आती हैं और देश की आम जनता सरकार से अधिक उन पर भरोसा करने लगती हैं।

ऐसे में देश की इस समय पहली आवश्यकता है एक वास्तविक राजनीतिक नेतृत्व की। वह योग्य हो, अयोग्य हो, सक्षम हो या अक्षम हो, यह अलग बात है। पहले तो एक नेता चाहिए, जो इस देश को, इस देश के समाज को अपना मानता हो, जो इसके लिए ही जीने मरने में विश्वास रखता हो। कार्यवाहक नेताओं, मुखौटों और दूसरी पंक्ति के तिकड़मबाजों के सहारे यह देश नहीं चल सकता। यदि लोग यह समझते हों कि राहुल गांधी देश के नेता बन सकते हैं, तो उनको ही आगे लाना चाहिए। कम से कम वह सोनिया व मनमोहन सिंह से तो बेहतर नेता होंगे। वह गलतियां कर सकते हैं, मगर वह किसी के मुखौटे या कठपुतली तो नहीं होंगे, लेकिन इसके लिए स्वयं राहुल गांधी को आगे बढ़कर नेतृत्व की चुनौती को स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि यदि वह भी सुरक्षित सत्ता के अवसर की प्रतीक्षा में पड़े रहे, तो उन्हें भी उनकी पार्टी के तिकड़मी नेता एक मुखौटे में तब्दील करके रख देंगे।

यह मानना पड़ेगा कि भारतीय राजनीति और प्रशासन में सोनिया व मनमोहन सिंह की जोड़ी समय की कसौटी पर विफल साबित हुई है। प्रख्यात समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया राजनीतिक परिवर्तनों के लिए अगले आम चुनावों की प्रतीक्षा के संदर्भ में कहा करते थे कि किसी देश की जिंदा कौमें पांच वर्षों की प्रतीक्षा नहीं कर सकतीं। परिवर्तन की जरूरत हो, तो वह तुरंत होना चाहिए। इस देश को एक जीवंत एवं उर्जावान नेतृत्व की जरूरत है, थके हुए या उदासीन मुखौटों की नहीं। क्या निकट भविष्य में ऐसा कोई नेता सामने आ सकता है?

10/07/2011