गुरुवार, 26 मई 2011

पाकिस्तान अब चीन की गोद में


पाकिस्तान-चीन गठबंधन के नये युग की शुरुआत : यूसुफ रजा गिलानी के साथ वेन जियाबाओ

पाकिस्तान ने वर्ष 2011 को चीन के साथ मैत्री के वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा की है। चीन के साथ कूटनीतिक संबंध के 60 साल पूरे होने के अवसर पर इस घोषणा के साथ उसने 20 रुपये का एक स्मारक सिक्का भी जारी किया है। चीन के साथ पाकिस्तान की अंतरंगता कोई नई नहीं है, लेकिन गत 2 मई की एबटाबाद की घटना के बाद उसने खुल्लम-खुल्ला चीन को ही अपना प्रथम संरक्षक घोषिक कर दिया है और अमेरिकी ताप से बचने के लिए चीनी छतरी हासिल कर ली है। अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण धोखेबाज पाकिस्तान भी अमेरिका के लिए कम उपयोगी नहीं है, इसलिए अमेरिका उसका परित्याग तो नहीं करने जा रहा है, लेकिन उसके साथ आत्मीयता व भरोसे का वह संबंध टूट चुका है जो एक दशक पहले तक बना हुआ था, इसलिए पाकिस्तान ने फौरन वाशिंगटन का विकल्प बीजिंग में तलाश लिया और अपनी सुरक्षा उसके हवाले कर दी।

पाकिस्तान के कूटनीतिक कौशल का भी कोई जवाब नहीं। विश्व की दो प्रतिस्पर्धी महाशक्तियों अमेरिका और चीन का एक साथ जेसा दोहन वह कर रहा है वैसा किसी अन्य के लिए संभव नहीं है। पाकिस्तान का दोगलापन किसी से छिपा हो ऐसा नहीं है, लेकिन उसकी रणनीतिक उपयोगिता के सभी कायल हैं। 1947 में जब यह भारत से अलग हुआ था तो शायद ही किसी ने सोचा हो कि यह देश आगे चलकर दुनिया के लिए इतना महत्वपूर्ण हो जाएगा कि अमेरिका और चीन जेसी महाशक्तियां उसे अपने-अपने प्रभावक्षेत्र में रखने के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगे।

विश्व आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष में पाकिस्तान अमेरिका व अन्य पश्चिमी देशों को लगातार धोखा देता आ रहा है, लेकिन ये देश सब कुछ जानते हुए भी उसके लिए अपना खजाना खोले हुए हैं। केवल पिछले 10 वर्षों में अकेले अमेरिका उसे करीब 20 अरब डॉलर की सैनिक व असैनिक सहायता दे चुका है। आगे भी उसका न्यूनतम सहयोग पाने के लिए भी अमेरिका करीब डेढ़ अबर डॉलर प्रतिवर्ष देते रहने के लिए तैयार है। गत 2 मई को एबटाबाद में हुई अमेरिकी सैनिक कार्रवाई ने पाकिस्तान के चेहरे पर पड़ी धोखे की सारी नकाबों को एक साथ उखाड़ दिया। पाकिस्तान पूरी दुनिया के सामने ही नहीं अपने देश की आम जनता के बीच भी इस तरह नंगा हो गया कि उसे अपनी इज्जत ढकना मुश्किल हो गया। एक तरफ तो पूरी दुनिया यह जान गई कि पाकिस्तान के हुक्मरान विश्व आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में सहयोग के नाम पर दुनिया को खासतौर पर अमेरिका को अब तक धोखा देते आ रहे थे। अमेरिका अपने जिस दुश्मन की खोज के लिए पाकिस्तान के अरबों डॉलर की सहायता दे रहा था खुद पाकिस्तान ने ही उसे छिपा रखा था। दूसरी तरफ अमेरिका ने एकाएक हमला करके जिस तरह पाकिस्तानी सैनिक छावनी में उसकी नाक के नीचे अलकायदा नेता ओसामा बिन लादेन को मार डाला और उसका शव लेकर बाहर निकल गया उससे पाकिस्तानी सेना की भी नाक कट गई। अब या तो वह अमेरिकियों के साथ मिली थी या फिर वह घोर निकम्मी है। इस्लामी विश्व की सबसे ताकतवर सेना का दावा करने वाली पाकिस्तानी सेना को बाहरी सैनिक हमले की भनक तक नहीं लग सकी और हमलावर अपनी कार्रवाई करके बाहर निकल गया।

निश्चय ही 2 मई की इस घटना के बाद अमेरिका के साथ पाकिस्तान के संबंधों में गंभीर तनाव की स्थिति पैदा हो गई। अमेरिका के समक्ष पाकिस्तान के लिए इस सवाल का जवाब देना लगभग असंभव हो गया कि लादेन किस तरह पाकिस्तानी राजधानी के इतने पास एक विशाल भवन में इस तरह आराम से रह रहा था और उसे इसकी भनक तक क्यों नहीं थी? अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा पर इसके लिए दबाव पड़ना शुरू हो गया है कि ऐसे धोखेबाज देश के साथ संबंध तोड़ लिए जाए और उसे दी जाने वाली विराट सहायता बंद कर दी जाए। स्वयं उनकी पार्टी के पांच सिनेटरों ने पत्र लिखकर कहा है कि पाकिस्तान को दी जाने वाली सहायता बंद की जाए या उसमें भारी कटौती की जाए। यद्यपि अमेरिकी सरकार अभी भी सहायता जारी रखने का रास्ता बनाए हुए है। उसका कहना है कि अभी तक हमारे पास इस बात का पक्का सबूत नहीं है कि पाकिस्तान के शीर्ष नेताओं को इस बात की जानकारी दी थी कि लादेन राजधानी के निकट ही इस तरह गुप्त रूप से रह रहा है। लेकिन एबटाबाद की घटना के बाद पाकिस्तान के नेताओं के समक्ष अच्छी तरह स्पष्ट हो गया कि अमेरिका के साथ् अब उसके स्वाभाविक संबंध बने नहीं रह सकते। अब जो भी संबंध होंगे वे परस्पर स्वार्थ साधन पर निर्भर होंगे। उनमें न कोई आत्मीयता होगी न विश्वास 2 मई की घटना इस बात का प्रमाण है कि अमेरिका को पाकिस्तान का न कोई भरोसा रह गया है न विश्वास/सहायता अभी जारी रह सकती है, लेकिन उसके भी भविष्य के बारे में आश्वस्त नहीं रहा जा सकता, इसलिए पाकिस्तान ने फौरन अमेरिका के प्रतिद्वन्द्वी चीन का दामन जा पकड़ा। चीन तो ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में ही था। उसने दिल खोलकर उसका स्वागत किया और अपना सुरक्षा कवच पहनाकर उसे निर्भय रहने का वरदान भी दे दिया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी की चीन यात्रा पूर्व निर्धारित थी। लेकिन 2 मई की घटना ने इस यात्रा को एक ऐतिहासिक परिवर्तन की यात्रा बना दिया। चीन और पाकिस्तान वस्तुतः दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंधों की 60वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। दोनों ही इस अवसर का स्मरणीय बनाने में लगे थे। वे आर्थिक और राजनीतिक संबंधों को और प्रगाढ़ बनाने की तैयारी में थे। जैसे इस अवसर पर चीन ने अपने सबसे बड़े बैंक आई.सी.बी.सी. (इंडस्ट्रियल एंड कमर्शियल बैंक ऑफ चाइना) की दो शाखाएं पाकिस्तान में खोलीं जिनका राष्ट्रपति जरदारी ने शुक्रवार को उद्घाटन किया। पाकिस्तान ने इस अवसर पर 20 रुपये का विशेष स्मारक सिक्का जारी किया। दोनों देशों ने 2 वर्ष के भीतर वर्तमान 9 अरब डॉलर के वार्षिक व्यापार को 15 अरब डॉलर तक पहुंचाने का संकल्प लिया। मगर 2 मई की घटना ने इन बातों को पीछे छोड़कर दोनों देशों के बीच के रणनीतिक संबंधों को सबसे आगे ला दिया। गिलानी की 4 दिन की चीन यात्रा के दौरान सैनिक महत्व के कइ्र रणनीतिक फैसलों पर हस्ताक्षर हुए। सबसे बड़ा समझौता तो यही रहा कि चीन ने 50 बहुउद्देश्यीय लड़ाकू सैनिक विमान जे. एफ-17 थंडरजेट फौरन पाकिस्तान भेजने का फैसला लिया। पहले ये विमान एक वर्ष की अवधि में दिये जाने वाले थे, लेकिन अब अगले महीने तक ये सभी विमान पाकिस्तान पहुंच जाएंगे। कहने को यह विमान पाकिस्तान व चीन ने संयुक्त रूप से विकसित किया है, लेकिन यह चीन द्वारा विकसित आधुनिक विमान है जो पाकिस्तान के पुराने हो रहे लड़ाकू डॉलर के हैं। चीन अगामी 14 अगस्त को पाकिस्तान के लिए एक संचार उपग्रह भी अंतरिक्ष में छोड़ने जा रहा है। 2 वर्ष पूर्व 2009 में चीन ने पाकिस्तानी नौ सेना के लिए 4 एफ-22 पी फ्रिगेट दिया था। आगे वह पाकिस्तान के लिए कुछ पनडुब्बियां तैयार कर रहा है। गिलानी के साथ बातचीत करते हुए चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने पाकिस्तान की सेना को पूरी तरह सक्षम बनाने का आश्वासन दिया है। ऐसी खबरें पहले से मिल रही हैं कि चीन पाकिस्तान को सीमित क्षमता वाले परमाणु अस्त्र निर्माण की तकनीक दे रहा है। पाकिस्तान इस समय रिकार्ड तेजी के साथ अपने परमाणु अस्त्रों का भंडार बढ़ाने में लगा है। एक आकलन के अनुसार वह इस समय दुनिया में सर्वाधिक तीव्र गति से अपने परमाणु भंडार बढ़ा रहा है। चीन ने उसे जो दो नये रियेक्टर दिये हैं उनसे उसकी अस्त्र निर्माण क्षमता और बढ़ने वाली है। इस मामले में चिंता की बात यह है कि पाकिस्तान के परमाणु शस्त्र निर्माण कार्यक्रम पर अंकुश लगाने की कोई व्यवस्था नहीं है। उसके ज्यादातर परमाणु शस्त्र यूरेनियम आधारित है। यूरेनियम उसके यहां स्वयं उपलब्ध है और उसे अस्त्र निर्माण स्तर की शुद्धता प्रदान करने वाला संयत्र भी उसके पास है। इसलिए वह तेजी से ऐसा संवर्धित यूरेनियम भंडार बनाने में लगा है जिसका हथियार में इस्तेमाल हो सकता है। फिर भी यूरेनियम की मात्रा सीमित है। लेकिन चीन जो चौथा रियेक्टर स्थापित कर रहा है उससे पाकिस्तान प्लूटोनियम निर्माण में भी सक्षम हो जएगा इसलिए वह और तेजी से अपने परमाणु अस्त्रों की संख्या बढ़ा सकता है।

खबर है कि चीन ने अमेरिका को साफ चेतावनी दी है कि वह पाकिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने से दूर रहे। ‘द न्यूज डेली‘ में प्रकाशित एक खबर के अनुसार चीन ने अमेरिका से कहा है कि यदि पाकिस्तान पर कोई हमला किया जाता है तो उसे चीन पर हुआ हमला माना जाएगा। ‘द न्यूज डेली‘ ने कूटनीतिक सूत्रों के हवाले से बताया है कि यह चेतावनी गत सप्ताह वाशिंगटन में चीन-अमेरिका रणनीतिक व आर्थिक मामलों पर हुई बातचीत के दौरान चीनी विदेश मंत्री द्वारा दी गई। चीन ने यों खुले आम अमेरिका से कहा है कि वह पाकिस्तान की संप्रभुता एवं एकता का सम्मान करे। चीनी प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को पूरा आश्वासन दिया है कि चीन पाकिस्तान की रक्षा व सहायता के लिए कुछ भी करने से पीछे नहीं हटेगा। उन्होंने पूरा भरोसा दिलाया है कि अमेरिका पाकिस्तान की संप्रभुता को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता।

यद्यपि अमेरिका ने इन सारी चेतावनियों और आश्वासनों की कोई परवाह न करते हुए यह साफ कहा है कि अलकायदा के किसी व्यक्ति को पकड़ने के लिए अमेरिका कहीं भी हमला कर सकता है। अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने सी.बी.एस. न्यूज चैनल पर एक साक्षात्कार के दौरान कहा कि हम पहले ही यह स्पष्ट कर चुके हैं कि यदि अलकायदा के किसी व्यक्ति के बारे में कोई गुप्त जानकारी मिलती है तो या तो वह देश उसे पकड़े नहीं तो हम उसे पकड़ लेंगे। हिलेरी ने वस्तुतः बिना नाम लिए पाक प्रधानमंत्री द्वारा बीजिंग में की गई टिप्पणी का खंडन किया है। गिलानी ने वहां पहुंचने पर कहा था कि अमेरिका ने आश्वासन दिया है कि भविष्य में पाक में कोई एकपक्षीय कार्रवाई नहीं होगी। अगर उच्च प्राथमिकता वाले किसी लक्षित व्यक्ति का पता चलता है या कोई नई सूचना प्राप्त होती है तो उसे साझा किया जाएगा और उस पर संयुक्त कार्रवाई होगी। हिलेरी के वक्तव्य में निश्चय ही ऐसी कोई बात नहीं है। जाहिर है गिलानी न दुनिया के सामने अपनी नाक बचाने के लिए अमेरिका के बारे में वहां एक झूठा वक्तव्य दिया। यद्यपि यह सही है कि अमेरिका और पाकिस्तान दोनों ही अपने आपसी संबंधों को टूटने से बचाने की कोशिश में भी लगे हैं, लेकिन उनके संबंध टूटने के कगार पर जा पहुंचे हैं यह भी जगजाहिर हो चुका है।

पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की सरकार ने 2 मई की घटना के बाद अमेरिकी आर्थिक मदद से शुरू की जाने वाली 6 योजनाओं के लिए हुए करार को रद्द कर दिया है। इन करारों के अंतर्गत पंजाब की स्वास्थ्य शिक्षा सफाई से जुड़ी उपर्युक्त परियोजनाओं के लिए अगले 3 वर्षों में 20 अलब रुपये की सहायता मिलने वाली थी। पंजाब प्रांत पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रांत है और वहां पर पाकिस्तान मुस्लिम लीग /नवाज गुट/ की सरकार है। उसने सारी अमेरिकी सहायता का बहिष्कार करने का निर्णय लिया है। पाकिस्तान लम्बे अरसे से अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की इस्लामाबाद यात्रा की प्रतीक्षा कर रहा है, किन्तु नई परिस्थितियों में निकट भविष्या में न केवल ओबामा की यात्रा की कोई संभावना है, बल्कि विदेशमंत्री हिलेरी की यात्रा का कार्यक्रम भी खटाई में पड़ गया है। उपर्युक्त साक्षात्कार में उन्होंने साफ कहा कि उनकी पाकिस्तान यात्रा एबटाबाद से जुड़े प्रश्नों पर पाकिस्तान द्वारा दिये जाने वाले जवाबों पर निर्भर है। पाकिस्तान अब तक कोई भी जवाब देने से बचता रहा है। शायद चीन से गठबंधन मजबूत करने के बाद अब वह कोई जवाब देने की स्थिति में हो।

यद्यपि अभी भी यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि पाकिस्तान व अमेरिका के संबंध अब टूटने ही वाले है अथवा चीन पाकिस्तान के लिए अमेरिका के साथ सीधे मैदान में उतर सकता है। फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि पाकिस्तान का जो भरोसा कभी वाशिंगटन के साथ जुड़ा था वह अब बीजिंग के साथ जुड़ गया है। वैसे वाशिंगटन स्थित एक पाकिस्तानी बुद्धिजीवी शुजा नवाज का कहना है कि वाशिंगटन के साथ इस्लामाबाद के रिश्ते अभी भी इतने नहीं बिगड़े हैं जितना बाहर से लग रहा है। अगर रिश्ता इतना ही बिगड़ गया होता तो पाकिस्तानी सरकार चमन और खैवर में अफगानिस्तान के लिए जाने वाली अमेरिकी सप्लाई को रोक देते। शुजा नवाज वाशिंगटन में ‘अटलांटिक कौंसिल‘ नामक एक संस्था की दक्षिण एशिया इकाई के अध्यक्ष हैं। उनके अनुसार अमेरिका और पाकिस्तान के बीच मियां-बीवी जैसे संबंध हैं जिसमें झगड़े तो अक्सर होते हैं, लेकिन अभी तलाक की नौबत नहीं आई है। शुजा नवाज की बात किसी हद तक सही है, लेकिन मियां-बीवी के बीच का यह मामला अब केवल आपसी झगड़े तक नहीं रह गया है। मियां से बेजार हुई बीवी अब जार के साथ खुले आम रिश्ता जोड़ने में लगी है। शायद घरेलू मामलों में इतने पर तलाक की नौबत आ सकती हे, लेकिन राजनीति में तो चालाक मियां, बेवफा बीवी को भी तब तक तलाक नहीं देता जब तक उसकी उपयोगिता बनी रहती है।

पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति ने उसकी कीमत बढ़ा रखी है। अमेरिका को अफगानिस्तान में अपनी कार्रवाई पूरी करने के लिए पाकिस्तान की अनिवार्य आवश्यकता है। इसी तरह चीन को सरल मार्ग से खाड़ी क्षेत्र तथा यूरोप पहुंचने के लिए पाकिस्तान की आवश्यकता है। पाकिस्तान की जरूरत तो भारत को भी है क्योंकि पश्चिम और मध्य एशिया का सरल मार्ग पाकिस्तान होकर ही जाता है। लेकिन भारत के साथ तो उसका ‘अहि-नकुल‘ (सांप-नेवले का) संबंध है जो शायद ही कभी सुधर सके इसलिए भारत तो पाकिस्तान का उपयोग करने की स्थिति में नहीं है, परंतु चीन और अमेरिका दोनों के लिए पाकिस्तान की उपयोगिता बनी हुई है। यह उपयोगिता तत्व ही ऐसा है कि पाकिस्तान सारा भरोसा व विश्वास खोने के बावजूद अमेरिका से संबंध बनाए रख सकता है। लेकिन चीन-पाकिस्तान संबंधों की प्रगाढ़ता ने भारत की चिंता अवश्य बढ़ा दी है।

इस समग्र परिप्रेक्ष्य में अगर देखें तो एबटाबाद की घटना ने पाकिस्तान को चीन की तरफ सरकने को मजबूर कर दिया है वहीं अमेरिका और भारत के लिए भी अब केवल एक ही विकल्प छोड़ा है कि वे परस्पर अपने रणनीतिक संबंध और मजबूत करें। आज की दुनिया साफ-साफ दो हिस्सों में बंटती नजर आ रही है। एक तरफ लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाले देश हैं तो दूसरी तरफ इस्लामी व कम्युनिस्ट तानाशाही वाले देश। कम्युनिस्ट तानाशाही का फिलहाल एक ही केन्द्र रह गया है वह है चीन वहां कम्युनिस्ट भले न रह गया हो लेकिन उसके नाम की तानाशाही अवश्य विद्यमान है। और अब तानाशाही के साथ इस्लामी तानाशाहियों के गठजोड़ की श्रृंखला बननी शुरू हो गई है। लोकतांत्रिक विश्व के लिए भविष्य की सबसे गंभीर चुनौती इसी श्रृंखला की तरफ से आने वाली है। इसलिए उसके मुकाबले के लिए आवश्यक है कि लोकतांत्रिक देश अपने आपसी संबंध व सहयोग के सूत्र और मजबूत करें। क्या भारत और अमेरिका के राजनीतिक चिंतक व रणनीतिकार इस दिशा में कुछ कर सकेंगे या कोई संयुक्त कदम आगे बढ़ा सकेंगे।



शनिवार, 21 मई 2011

अयोध्या विवाद केवल जमीन का विवाद नहीं


सभी खुश हैं सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर: उसने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को ‘अजीब‘ और ‘चकित‘ करने वाला बताया। क्या वह आगे कोई युक्तिसंगत फैसला दे सकेगा ?
अयोध्या विवाद केवल जमीन के किसी एक टुकड़े के मालिकाना हक का विवाद नहीं है। सच कहें तो यह हिन्दुओं मुसलमानों के बीच का कोई मजहबी विवाद भी नहीं है। और यह ऐसा विवाद भी नहीं है जो 1949, 1984 या 1992 में पैदा हुआ हो। यह 1528 का विवाद है जब एक विदेशी आक्रांता ने- जो संयोग से एक कट्टर मुस्लिम भी था- इस देश की सांस्कृतिक अस्मिता व अभिमान को कुचलने के लिए उसके सबसे बड़े प्रतीक को ध्वस्त करके उसकी जगह अपनी विजेता शक्ति का प्रतीक कायम किया। भारतीयों को अपनी पराजय याद रहे इसलिए उसके प्रतीक स्थल के उत्कीर्ण स्तंभों को भी उसने अपने निर्माण के दरवाजोंपर लगवाया। अब वह प्रतीक भी ध्वस्त हो गया, लेकिन विवाद अभी भी कायम है। क्या इस देश की सर्वोच्च अदालत इतिहास की रोशनी में इस विवाद का कोई न्यायसंगत निपटारा कर सकेगी ?

अयोध्या विवाद का असली मुद्दा न तो किसी जमीन के एक टुकड़े पर अधिकार का मुद्दा है और न यह कि वहां राम पैदा हुए थे या नहीं अथवा वहां स्थित मंदिर को किसने तोड़ा या किसने वहां मस्जिद बनवाई, बल्कि केवल यह हे कि क्या विवादित स्थल पर मूलतः मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण कराया गया। यह कोई ऐरा-गैरा मंदिर नहीं था और न यह किसी ऐरी-गैरी जगह पर था। यह वह जगह है जिसे पूरे ऐतिहासिक परम्परा अयोध्या के रूप में स्वीकार करती है और यहां उस व्यक्ति का मंदिर या स्मारक भवन था जो पूरी भारतीय संस्कृति व परम्परा का केन्द्रीय प्रतीक है। यहां मंदिर का निर्माण जहां मानवीय आदर्श और न्याय की प्रतीक है। यहां मंदिर का निर्माण जहां मानवीय आदर्श और न्याय की प्रतीक स्थापना के लिए किया गया था वहीं मस्जिद का निर्माण उस प्रतीक को ध्वस्त करके भारतीयों को अपमानित करने के लिए किया गया। यहां मस्जिद का निर्माण किसी धार्मिक आस्था की अभिव्यक्ति के लिए नहीं किया गया। यदि ऐसा होता तो उसमें मंदिर के अवशेष उत्कीर्ण स्तंभ न लगाये जाते। मस्जिद के भीतर ही नहीं उसके बाहरी द्वार में भी पुराने मंदिर के दो प्रतिमा युक्त स्तम्भ लगाये गये जहां मस्जिद में जाने वाले अपने जूते उतारते थे। ऐसा कार्य किसी धार्मिक विश्वास वाला व्यक्ति नहीं कर सकता। इस तरह का कार्य ऐसा कोई विजेता ही कर सकता है जो इस मस्जिद के रूप में मंदिर की ताकत पर मस्जिद की जीत का राजनीतिक स्मारक खड़ा करना चाहता था। यही कारण है कि इसके निर्माण के काल से ही इसका विरोध भी चलता आ रहा है। क्या इसकी ऐतिहासिकता सिद्ध करने के लिए इतना प्रमाण काफी नहीं है कि पिछले करीब पांच सौ वर्षों से एक पूरा राष्ट्रीय समुदाय इस स्थल को वापस पाने के लिए संघर्ष करता आ रहा है। एक छोटी सी जगह के लिए इतने लंबे संघर्ष की दुनिया में कोई दूसरी मिसाल नहीं है।

मूल विवाद अब से 483 वर्ष पूर्व /1528 ई/ का है जब एक मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण कराया गया। दूसरे शब्दों में विवाद का मूल 1528 की घटना में है न कि 1949 /जब मस्जिद के गुम्बद तले कुछ लोगों ने मूर्ति स्थापित कर दी/ या 1992 /जब एक भारी भीड़ ने मस्जिद का ढांचा ध्वस्त कर दिया/ की घटना में। फैसला वस्तुतः 1528 की घटना का होना है न कि 1949 या 1992 की घटना का। 1949 और 1992 की घटनाएं 1528 की घटना से उत्पन्न हुए शताब्दियों के संघर्ष के बीच घटी तमाम घटनाओं के बीच की मात्र दो घटनाएं है क्योंकि विवाद अभी भी समाप्त नहीं हुआ है। आज की भारतीय अदालतें या आज का कानून 1528 के मसले का समाधान कर सकता है या नहीं यह अलग बात है, लेकिन न्याय की आकांक्षा या उसके लिए चलने वाला संघर्ष कुछ किताबों या न्याय का चोंगा पहने व्यक्तियों का मोहताज नहीं होता। उसके लिए इसका भी कोइ्र अर्थ नहीं है कि उसका संघर्ष कितना पुराना है और इस अवधि में कितनी तरह की कैसी-कैसी सरकारें गुजर चुकी हैं। किसी समाज के सांस्कृतिक इतिहास को उसके राजनीतिक ढांचों द्वारा खंडित नहीं किया जा सकता। आज के स्वतंत्र भारत का न्यायालय /भले ही वह अंग्रेजी परम्परा पर आधारित है/ का न्यायाधिपति /न्यायाधीश/ उस अंग्रेजी न्यायाधिकारी की तरह केवल यह कह कर न्याय करने के अपने कर्तव्य से मुख नहीं मोड़ सकता कि मूल घटना बहुत पुरानी हो गई है जिसने 1885 में निर्माही अखाड़ा के महंत रघुबरदास की याचिका पर फैसला देते हुए लिखा थ, ‘कल मैं सभी पक्षों की उपस्थिति में विवादित स्थल का मुआयना करने गया। मैंने देखा कि सम्राट बाबर द्वारा बनवाई गई मस्जिद अयोध्या के एक किनारे पर स्थित है... यह अत्यंत दुर्भाग्य का विषय है कि मस्जिद का निर्माण उस भूमि पर किया गया जो हिन्दुओं के लिए विशेष रूप से /स्पेसियली/ पवित्र मानी जाती रही है, लेकिन चूंकि यह घटना अबसे 356 वर्ष पूर्व घटी थी इसलिए इसको लेकर व्यक्त असंतोष को स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसके लिए बहुत देर हो चुकी है।‘ यह फैसला फैजाबाद /जिसके अंतर्गत अयोध्या आता है/ के जिलाजज कर्नल एफ.ई.ए. चामिएर ने 18 मार्च 1886 को लिखा था।

यहां उल्लेखनीय है कि महंत रघुबरदास ने अंग्रेज जिला जज से विवादित स्थल पर कोई फैसला नहीं मांगा था, बल्कि उन्होंने बाबरी मस्जिद के बाहर स्थित उस चबूतरे पर एक मंदिर बनाने की अनुमति मांगी थी जो भगवान राम की पूजा-अर्चना के लिए उन्हें मिला था, लेकिन उस पर किसी निर्माण कार्य की अनुमति नहीं थी। उस चबूतरे पर केवल एक फूस का झोपड़ा था जिसमें मूर्ति स्थापित थी और इस झोपड़े को भी तीन फिट से अधिक उंचा बनाने की अनुमति नहीं थी। पुजारी इसमें केवल बैठ सकता था और इसके भीतर किसी गुफा की तरह रेंगकर जाता था। यह स्थिति स्वतंत्र भारत में भी 1992 तक तब तक बनी रही जब तक कि मस्जिद का पूरा परिसर ही ध्वस्त नहीं कर दिया गया। स्वतंत्र भारत में केवल इतना फर्क पड़ा था कि फूस के उपर टिन की चादर भी लग गई थी जिससे वर्षा का पानी नीचे न आ सके। इसके पहले भारी वर्षा के समय निश्चय ही राम लला की प्रतिमा छप्पर से टपकती बंूदों से नहाती रही होगी। चबूतरे का यह मंदिर, मस्जिद के भीतर प्रतिमा स्थापन के बाद भी बना रहा और निर्मोही अखाड़ा की ओर से यहां पूजा-अर्चा हुआ करती थी। रघुबरदास केवल यह चाहते थे कि उनके राम भी ठीक से एक मंदिर में स्थापित हो सकें। उस समय उनकी योजना कोई विशाल मंदिर बनाने की नहीं, बल्कि उसी चबूतरे पर एक छोटा मंदिर बनाने की थी, किन्तु उसकी भी अनुमति उन्हें नहीं मिली। इसके बाद प्रतीक्षा की जाने लगी स्वतंत्रता प्राप्ति की, क्योंकि तब तक कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी और स्वतंत्रता की आकांक्षा जोर पकड़ने लगी थी। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी जब आकांक्षा पूरी नहीं हुई। शांतिपूर्ण आन्दोलन भी विफल हो गया तो 1949 के दिसंबर महीने में कुछ लोगों ने 22/23 तारीख की मध्यरात्रि में मस्जिद के भीतर बालक राम /राम लला/ की मूर्ति स्थापित कर दी। इसके बाद भी वर्ष पर वर्ष और दशक पर दशक बीतते गये, राज्य और केन्द्र की सरकारें ही नहीं अदालतें भी, पांच शताब्दियों से प्रतीक्षित न्याय की आकांक्षा को बहलाती रहीं। जिसका परिणाम 6 दिसंबर 1992 की घटना थी। अफसोस की बात यह हे कि अदालतों और राजनीतिक दलों तथा उनकी सरकारों ने अब तक अपना रवैया नहीं बदला है। देश का मीडिया भी इसे एक राजनीतिक खेल का मुद्दा बनाये हुए है।

अभी पिछले सप्ताह सोमवार को देश के सर्वोच्च न्यायालय ने श्रीराम जन्मभूमि/बाबरी मस्जिद के विवाद में दायर ’टाइटिल सूट’ (मिल्कियत निर्धारित करने के मुकदमें) पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के 30 सितम्बर 2010 के फैसले को स्थगित करके उस फैसले को बेहद ’अजीब‘ और ‘चकित‘ करने वाला बताया तथा कहा कि इस फैसले द्वारा हाई कोर्ट ने इस मसले को एक नया ही आयाम दे दिया है। उसने एक ऐसा फैसला दिया है जिसकी मांग किसी पार्टी ने नहीं की थी। इसमें तीन मुख्य पार्टियां थी जिन्होंने विवादित स्थल पर अपने-अपने अधिकार का दावा किया था, लेकिन किसी ने इसके टुकड़े करने की मांग नहीं की थी। सुप्रीम कोर्ट के दो जजों-आफताब आलम तथा आर.एम. लोढा- की पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट ने याचकों को बिल्कुल नई राहत दी है, ऐसी राहत जिसे कोइ्र नहीं चाहता था। रोचक यह है कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का सभी पक्षों ने स्वागत किया है। आमतौर पर लोगों का मानना है कि सुप्रीमकोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया है। और अब इस मामले में बिल्कुल नये सिरे से सुनवाई शुरू होगी। तकनीकी दृष्टि से सुप्रीम कोर्ट ने भले हाईकोर्ट के फैसले पर केवल ‘स्टे‘ दिया है, किन्तु उसने उसके फैसले पर जैसी टिप्पणी की है उससे जाहिर है कि सर्वोच्च अदालत को उसका फैसला कतई स्वीकार नहीं है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट की सुनवाई पीठ के तीनों जज- जस्टिस एस. यू. खान, जस्टिस सुधीर अग्रवाल तथा जस्टिस डी.वी. शर्मा- एक मुद्दे पर तो पूरी तरह सहमत थे कि विवादित भूमि परम्परया भगवान श्रीराम की जन्मभूमि है, इसलिए इसके केन्द्रीय स्थल पर रामलला की प्रतिमा बनी रहेगी, लेकिन अन्य मामलों में उनमें सहमति नहीं है। परस्पर भिन्न राय रहने के कारण तीनों ने ही संयुक्त फैसले के साथ-साथ अपनी अलग-अलग टिप्पणियां लिखी हैं। मंदिर के स्थल पर मस्जिद का निर्माण हुआ इसे तो तीनों मानते हैं, लेकिन बाबर या उसके सिपहसालार ने मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण कराया यह बात एस.यू. खान नहीं मानते। उनके अनुसार मस्जिद उस स्थल पर अवश्य बनी जहां पहले मंदिर था, लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि मस्जिद निर्माता ने ही मंदिर को तोड़वाया। इस मत भिन्नता से मूल फैसले में कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था, क्योंकि तीनों जजों ने इतना तो मान ही लिया कि विवादित स्थल मूलतः राम की जन्मभूमि था, वहां पर पहले मंदिर था जहां बाद में मस्जिद का निर्माण हुआ। अब इस प्रश्न पर मतभेद से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था कि मंदिर को किसने तोड़वाया। हिन्दुओं का भी संघर्ष मस्जिद तोड़ने के लिए बाबर को कानूनन दोषी करवाना नहीं, बल्कि यह सिद्ध करवाना था कि विवादित स्थल राम की जन्मभूमि है और उस स्थल पर मस्जिद बनाए जाने के पहले मंदिर था। फैसले का इतना हिस्सा हिन्दुओं के पक्ष में था जिसके लिए फैसला आने पर देश भर में हिन्दू समुदाय द्वारा खुशियां मनाई गईं। मगर मुस्लिम पक्ष को यह फैसला स्वीकार नहीं था, क्योंकि उसका आरोप था कि अदालत ने यह फैसला करने में कानून नहीं, बल्कि परम्परा व विश्वास (फेथ) का सहारा लिया है, लेकिन कोर्ट ने इसके बाद विवादित भूमि के बारे बंटवारे का जो फैसला किया वह ऐसा था जो किसी को स्वीकार्य नहीं था। यह फैसला एक के मुकाबले दो के बहुमत से दिया गया। न्यायाधीश डी.वी. शर्मा ने अपने फैसले में सारी विवादित भूमि हिन्दू समुदाय के हवाले किये जाने को कहा। जब सर्व सम्मति से या एक राय से यह फैसला हो गया कि विवादित भूमि राम जन्मभूमि है और वहां मस्जिद निर्माण के पूर्व मंदिर था तो फिर भूमि के बंटवारे का कोई सवाल नहीं है, अब सारी भूमि ‘रामलला‘ के पैरोकार को दे दी जानी चाहिए। किन्तु बाकी दो न्यायाधीशों एस.यू. खान और सुधीर अग्रवाल ने विवादित भूमि (2.77 एकड़) को तीन हिस्से में बांटने का निर्देश दिया। केन्द्रीय भाग- जहां रामलला की प्रतिमा विराजमान है- उनके पैरोकार हिन्दूपक्ष को मंदिर निर्माण के लिए दे दी जाए। बाकी हिस्से में से राम चबूतरा तथा सीता रसोई का हिस्सा निर्मोही अखाड़े को दे दिया जाए और शेष बचे हिस्से को सुन्नी वक्फबोर्ड को दे दिया जाए। तीनों को जमीन के बराबर-बराबर हिस्से दिये जाए। यदि प्रथम दो को हिस्सा देने के बाद सुन्नी वक्फबोर्ड की जमीन कम पड़े तो उसे सरकार द्वारा अधिकृत भूमि से लेकर पूरा कर दिया जाए।

इस बंटवारे का कतई कोई औचित्य नहीं था, लेकिन अदालत ने शायद तीनों पक्षों को संतुष्ट करने के लिए इस तरह का निर्णय लिया। एस.यू.खान ने तो खास तौर पर मुस्लिम समुदाय से अपील की थी, कि वह कौम के व्यापक हित में यह फैसला स्वीकार कर लें । अदालत की कोशिश में निश्चय ही अपने स्तर की ईमानदारी थी, लेकिन समझदारी का अभाव था। अदालत यह कल्पना नहीं कर सकी कि इस तरह के बंटवारे का फैसला किसी को स्वीकार्य नहीं हो सकता।

यह फैसला निश्चय ही अव्यावहारिक था। जमीनी स्तर पर इसका कार्यान्वयन हो ही नहीं सकता था। इसलिए इसके खिलाफ तो सभी पार्टियों को सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जाना ही था। अब सवाल है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय केवल इस बंटवारे वाले मामले की पुनर्समीक्षा करेगा या पूरे मामले की नये सिरे से सुनवाई करेगा। सामान्य राय तो यही हो सकती है कि सर्वोच्च न्यायालय को हाईकोर्ट के फैसले के पूर्ण सहमति वाले हिस्से को कतई नहीं छेड़ना चाहिए। उसे केवल इस औचित्यहीन बंटवारे पर अपनी अंतिम राय देनी चाहिए। लेकिन निश्चय ही मुस्लिम पक्ष पूरे मामले की नए सिरे से सुनवाई करने पर जोर देगा।

अब इस मामले की कानूनी स्थिति पर थोड़ा विचार कर लिया जाए। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनउ बेंच के सामने जो मामला पेश किया गया उसे ‘टाइटिल सूट‘ की संज्ञा दी गई। इसके अंतर्गत यह फैसला किया जाना होता है कि विवादित सम्पत्ति या भूमि का वास्तविक मालिक कौन है। सुन्नी वक्फबोर्ड उस भूसम्पत्ति का अपने को मालिक बताता है, क्योंकि उसकी राय में मस्जिद मकबरे या कब्रस्तान की सारी जमीन व भवनों का मालिक वही है। निर्मोही अखाड़े की दावेदारी इस बात को लेकर है कि राम चबूतरा व सीता रसोई क्षेत्र पर उसका ही पिछले डेढ़ सौ साल से कब्जा रहा है और चबूतरे पर स्थित मंदिर की सेवा-पूजा का कार्य उसका अस्तित्व रहने तक वही करता आया है। ‘राम लला‘ की तरफ से ‘टाइटिल सूट‘ दायर करने वाले का सीधा तर्क था कि उस स्थल पर विराजमान मंदिर का देवता ही उस संपदा का मालिक है। भारतीय कानून में मंदिरों में स्थापित प्रतिमा को एक व्यक्ति के तौर पर स्वामित्व का अधिकार प्राप्त है।

अब ईमानदारी से कहा जाए तो यह तीनों ही दावेदारियां गलत हैं। यह विवाद मंदिर मस्जिद का हो सकता है, लेकिन यह हिन्दू-मुस्लिम का धार्मिक (मजहबी)  विवाद नहीं है। यह मंदिर विरोधियों या मस्जिद विरोधियों की लड़ाई भी नहीं, बल्कि एक खास स्थान को लेकर शुद्ध सांस्कृतिक व राजनीतिक लड़ाई है। यह विजेता और विजित के अधिकार व सम्मान की लड़ाई है। बाबर के समय से ही जो लड़ाई चली आ रही हैवह जमीन का मालिकाना हक पाने की लड़ाई नहीं है। 1885 में महंत रघुबरदास ने भी मस्जिद परिसर के भीतर की जमीन पाने के लिए याचिका नहीं दायर की थी। 1950 में गोपाल सिंह विशारद ने तो याचिका दायर की थी वह भी मस्जिद में स्थापित ‘रामलला‘ की पूजा का अधिकार पाने के लिए थी। हां, बाद में निर्मोही हखाड़ा व सुन्नी वक्फबोर्ड ने मालिकाना हक का सूट अवश्य दायर किया। ‘रामलला‘ की तरफ से दायर किया गया इस मामले का अंतिम सूट भी मालिकाना हक का था। लेकिन ये मालिकाना हक 1528 के विवाद के आधार पर नहीं तय हो सकते। क्योंकि 1528 में या उसके बाद यह जमीन किसके अधिकार में थी यह तय कर पाना लगभग असंभव है। आज तो यह भी तय करना कठिन है कि बाबर शिया था या सुन्नी। अगर यही तय नहीं तो कैसे कहा जा सकता है कि इस पर सुन्नी वक्फ बोर्ड का अधिकार है या शिया बोर्ड का। मस्जिद परिसर में जब कभी एक चबूतरे पर हिन्दुओं को राम की पूजा का अधिकार दिया गया तो यह केवल पूजा का अधिकार था उस पर किसी का मालिकाना हक नहीं तय हुआ था। निर्मोही हखाड़ा यदि एक शताब्दी से अधिक समय तक वहां पूजा अर्चा का संचालन करता रहा तो वह किसी मालिकाना हक के तहत नहीं, बल्कि सम्पूर्ण हिन्दू समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में उसने आगे बढ़ कर यह दायित्व संभाला है।

कहने का आशय यह है कि राम जन्मभूमि के विवादित परिसर पर किसी व्यक्ति, संगठन का मालिकाना हक निर्धारित नहीं किया जा सकता। न इस आधार पर कोई निर्विवाद फैसला किया जा सकता है। इसे हिन्दू पक्ष व मुस्लिम पक्ष में बांटकर भी कोई समाधान नहीं ढूंढ़ा जा सकता। क्योंकि इस देश में न कोई हिन्दू संगठन ऐसा है जिसे सम्पूर्ण हिन्दू समुदाय का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार प्राप्त हो और न कोई ऐसा मुस्लिम संगठन है जो सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधित्व का दावा कर सके। इसलिए विवादित परिसर का अधिकार किसी एक पक्ष या दूसरे पक्ष को सौंपने का कोई औचित्य नहीं है।

यहां यह सवाल उठाया जा सकता है कि तब फिर कोर्ट क्या करे? जवाब कठिन नहीं है। कोर्ट को केवल यह फैसला करना चाहिए कि विवादित स्थल पर मस्जिद निर्माण के पहले मंदिर था या नहीं । यदि वहां मंदिर होने का दावा पुष्ट हो जाता है और यह तय हो जाता है कि हिन्दुओं के विश्वास के अनुसार राम जन्मभूमि के स्थल पर बने मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण किया गया तो उस स्थल पर मस्जिद की पुनर्स्थापना के अधिकार का दावा खारिज हो जाता है। फैसला केवल यह होना चाहिए कि वह स्थल मंदिर समर्थकों का है या मस्जिद समर्थकों का। कोर्ट को इसके आगे कोई फैसला न करके सरकार को यह निर्देश देना चाहिए कि वह मंदिर परिषद की विवादित व अधिग्रहीत भूमि को चाहे अपने कब्जे में रखकर वह सोमनाथ की तरह श्रीराम मंदिर का निर्माण कराए अथवा उसे किसी उचित संस्था के हवाले कर दे। अथवा कोई नई संस्था का गठन करके उसे उसके हवाले कर दे। कोर्ट का काम जमीन बांटना नहीं, बल्कि यह फैसला करना है कि विवादित स्थल पर हिन्दुओं का दावा सही है या मुस्लिमों का। इसके बाद यदि जमीन पर अधिकार का भी कोई दावा सामने आता है तो वह एक ही समुदाय के बीच होगा। चाहे हिन्दुओं के या चाहे मुसलमानों के। उस समय इस मसले का निपटारा भी अपेक्षाकृत आसान होगा।

लेकिन भय यही है कि न तो कोर्ट इस तरह मामले को सुलझाएगा और न राजनीतिक व साम्प्रदायिक संगठन उसे इस तरह सुलझाने देंगे। अन्यथ सुप्रीमकोर्ट का मामला बहुत आसान है। वह हाईकोर्ट के मंदिर संबंधी फैसले की पुष्टि करके उसके भूमि बंटवारे संबंधी आदेश को निरस्त कर दे। वह पूरी भूमि अभी भी सरकार के कब्जे में है इसलिए उसे यह अधिकार दे दे कि वह जैसे चाहे उस भूमि का उपयोग करे। अब सवाल है क्या ऐसा हो सकेगा ?



मंगलवार, 10 मई 2011

लादेन के बाद भी कुछ नहीं बदलेगा

लादेन की हत्या पर भड़का आक्रोश : अमेरिकी झंडा जलाते हुए पाकिस्तानी

कुख्यात अंतर्राष्ट्रीय जिहादी नेता ओसामा बिन लादेन मार डाला गया। करीब 10 वर्षों की लंबी तलाश के बाद अमेरिकी सेना ने उसका ठिकाना ढूंढ़़ निकाला और केवल 40 मिनट की कार्रवाई में उसकी क्रूर कथा का अंत कर दिया। इस पर अमेरिका में जश्न मनाया गया। राष्ट्रपति ओबामा की लोकप्रियता का घटता ग्राफ एकाएक बढ़ गया। क्योंकि अमेरिका ने 11 सितंबर 2001 को न्यूयार्क व वाशिंगटन पर हुए हमले का बदला ले लिया। लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए कि अब अंतर्राष्ट्रीय जिहादी आतंकवाद का खतरा मिट गया। इससे पाक-अमेरिकी संबंधों में भी कोई बदलाव नहीं आने जा रहा है। इससे केवल इतना हुआ है कि पाकिस्तान सरकार के झूठ का सारा मुलम्मा झड़ गया है। वह चौराहे पर नंगा हो गया है। अब इसके बाद भी यदि कोई उसके चरित्र को न पहचान सके तो या तो उसे अंधा कहा जाएगा या वज्रमूर्ख।

कहने को पाकिस्तान भी भारी किरकिरी हुई है। एक रात के अंधेरे में, उसकी राजधानी की नाक के नीचे अमेरिकी सेना का एक कमांडो दस्ता आ धमका और मात्र 40 मिनट में अपनी कार्रवाई करके निकल गया, लेकिन उसकी परमाणु शक्ति सम्पन्न सेना को इसकी भनक भी नहीं लग पाई। कार्रवाई भी ऐसी कि जिसने पाकिस्तानी नेताओं को सरे बाजार नंगा खड़ा कर दिया। एक रहस्य जिसे उसने करीब 10 वर्षों से अपने कलेजे से लगाकर छिपा रखा था, न केवल दुनिया के सामने उजागर हो गया, बल्कि उसका खात्मा भी हो गया। लेकिन इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाल लिया जाना चाहिए कि इस घटना से पाकिस्तान कुछ बहुत ज्यादा शर्मिंदा होगा और अपना रास्ता या तौर-तरीका बदलने की कोई कोशिश करेगा। किरकिरी जरूर हुई, लेकिन बस थोड़ी देर की। दो-चार दिन में ही वह फिर अपनी पुरानी स्थिति में लौट आया है।

इस पहली मई रविवार की रात अमेरिकी नौ सैनिक कमांडो ने 4 हेलीकाप्टरों में राजधानी इस्लामाबाद से मात्र 60 कि. मी. उत्तर स्थित एबटाबाद के सैनिक छावनी क्षेत्र में पाकिस्तान की प्रतिष्ठित सैन्य अकादमी से बमुश्किल दो फर्लांग दूर एक मकान पर हमला किया। इस मकान में कुख्यात अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी जिहादी संगठन अलकायदा का संस्थापक ओसामा बिन लादेन छिपकर रह रहा था। अमेरिका पिछले 10 वषों से उसकी खोज में था, क्योंकि वह उसे 11 सितंबर 2001 में न्यूयार्क तथा वाशिंगटन में हुए हमले का मुख्य अपराधी मानता था। ओसामा के लिए ही अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया और वहां मुल्ला उमर के नेतृत्व में गठित तालिबान सरकार को पराजित कर हामिद करजइ्र के नेतृत्व में एक नई सरकार स्थापित की। यह युद्ध अभी भी चल रहा है और उसके करीब एक लाख सैनिक वहां फंसे हुए हैं। अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को ध्वस्त करने के बाद भी अमेरिका को ओसामा हासिल नहीं हो सका। पाकिस्तानल इस युद्ध में भी अमेरिका का साथ दे रहा था, लेकिन वह भीतर-भीतर तालिबान नेताओं से भी मिला हुआ था। पाकिस्तान ने न केवल लादेन व मुल्ला उमर को बल्कि अन्य तमाम अलकायदा व तालिबान नेताओं को बचा लिया और अपने देश की दुर्गम पहाड़ियों में छिपा दिया।

अमेरिका तब से लादेन की खोज के लिए पाकिस्तान की मनुहार करने में लगा है। उसने पाकिस्तान को मुंहमांगी दौलत व हथियार उपलब्ध कराया। गत 10 वर्षों में वह पाकिसतान को करीब 20 अरब डॉलर की सहायता दे चुका है। लेकिन पाकिस्तान अब तक उसे चकमा देता ही आ रहा है। उसने अरबों डॉलर पाने के लिए अलकायदा के कुछ बड़े नेताओं को पकड़कर अमेरिका के हवाले अवश्य किया, लेकिन लादेन को छिपाए रखा। उदाहरण के लिए उसने अलकायदा के एक शीर्ष कमांडर खालिद शेख मोहम्मद को- जिसे 9/11 के हमले का मुख्य सूत्रधार माना जाता है, जल्दी ही अमेरिका के हवाले कर दिया। अफगानिस्तान में स्थित अलकायदा व तालिबान के नेताओं को चूंकि पाकिस्तान ने ही अमेरिकी सेना के चंगुल में जाने से बचाया व छिपाया था, इसलिए उसकी सेना व उसके गुप्तचर संगठन के अफसरों को उन सारे लोगों के बारे में पूरी जानकारी थी, लेकिन पाकिस्तानी अधिकारी अमेरिका के समक्ष लगातार यह नाटक करते रहे कि वे उनकी खोज में लगे हैं। अमेरिका यदि उन्हें हथियारों और धन की पूरी सहायता करे तो वे उन्हें खोज निकाल सकते हैं।

अमेरिका ने पहले तो पाकिस्तानी अधिकारियों पर पूरा विश्वास किया, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें यह संदेह होने लगा कि पाकिस्तानी दोहरा खेल खेल रहे हैं इसलिए उसने अपने गुप्तचर तंत्र को तेज किया और अफगानिस्तान से लगे पाकिस्तान के उन इलाकों पर अपने मानव रहित ‘ड्रोन’ विमानों के हमले तेज किये। लादेन के बचाव में पाकिस्तानी अधिकारियों ने ऐसी खबरें उड़ाना शुरू कर दिया कि बीमार लादेन की मौत हो चुकी है, लेकिन अमेरिका ने इन खबरों पर विश्वास नहीं किया व पाकिस्तान को भी उसकी खोज के अभियान पर लगाए रखा और स्वयं अपनी कोशिश भी जारी रखी। अंत में उसके गुप्तचर सूत्रों ने जब पक्के तौर पर यह पता लगा लिया कि लादेन उत्तरी वजीरिस्तान की बीहड़ पहाड़ियों में नहीं, बल्कि पाकिस्तानी सैन्य आकदमी के साये तले एक विशाल भवन में छिपा हुआ है तो उसने अपनी स्वतंत्र कार्रवाई की योजना बनाई और गत रविवार को उसने ओसामा को तो मार गिराया। पाकिस्तान सरकार इस अमेरिकी कार्रवाई से हतप्रभ थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इस पर अब वह क्या करे या क्या बोले। उसके नेताओं के तहत-तरह के परस्पर विरोधी बयान आ रहे थे। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने घोषणा की कि पाकिस्तान सरकार के सहयोग से उन्होंने यह कार्रवाई सम्पन्न की। उनका यह एक कूटनीतिक बयान था जिससे कोई यह आरोप न लगाए कि अमेरिकी सेना ने पाकिस्तानी प्रभुसत्ता का उल्लंघन करके उसके भीतरी इलाके में कोई गुप्त हमला किया। पाकिस्तान इस दुविधा में था कि वह इस बयान का समर्थन करे या विरोध। पहले तो उसने एक बार इसका श्रेय स्वयं लेने की कोशिश की। असल में न वे यह खुलकर कह पा रहे थे कि अमेरिका का सहयोग करके उन्होंने ही लादेन को मरवाया और न यह कि उनकी बिना जानकारी के अमेरिकी सैनिक भीतर आ गये और लादेन को मार कर उसकी लाश भी लेकर निकल गये। पहली स्थिति में उसे तीव्र आंतरिक विरोध का भय था और दूसरी स्थिति में यह स्वीकार करना था कि पाकिस्तानी सेना निहायत निकम्मी है कि चार-चार विदेशी हेलीकाप्टर उसकी राजधानी के पास तक आकर कार्रवाई करके निकल गये और उसे पता तक नहीं चला। मगर तीव्र आंतरिक विरोध को देखते हुए अंततः उसने दूसरा विकल्प स्वीकार किया। अमेरिकी सेना के आगे अपनी सेना की अक्षमता स्वीकार करना इसके मुकाबले आसान था कि ओसामा को मरवाने में उसका भी सहयोग था।

सैनिक उच्चाधिकारियों वे आईएसआई प्रमुख की बैठक के बाद उच्चस्तरीय राजनीतिक विचार-विमर्श में तय पाया गया कि राष्ट्रीय प्रभुसत्ता रक्षा की कसमें खाते हुए अमेरिका को चेतावनी देते हुए बयान जारी किये जाए जिससे लोगों का गुस्सा शांत करते हुए अपनी प्रतिष्ठा भी बचाई जाए। यद्यपि यह किसी के लिए विश्वास करना कठिन है कि ओसामा का एबटाबाद में रहना पाकिस्तान की सरकार को बिलकुल पता नहीं था फिर भी सरकार यही बताने में लगी है कि उसे इसकी कोई जानकारी नहीं है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति दोनों ने अपने बयानों में कहा है कि लादेन के जहां-जहां भी रहने का अनुमान था वहां उसे खोजा गया, लेकिन वह नहीं मिला।

अमेरिका को चेतावनी देने वाला बयान देने के लिए विदेश सचिव सलमान बशीर सामने आए। उन्होंने लगे हाथ भारत को भी धमकी दे डाली कि यदि उसने भी अमेरिका की तरह कोई कार्रवाई करने का दुस्साहस किया तो इस क्षेत्र में तबाही मच जाएगी। उन्होंने बिना नाम लिए भारत के सेनाध्यक्ष वी.के. सिंह तथा वायुसेना प्रमुख पी.वी. नाइक के वक्तव्यों की तरफ इशारा करते हुए कहा कि मैं अपने इस क्षेत्र में भी बड़ी-बड़ी डींगे सुन रहा हूं, लेकिन मैं आगाह करना चाहता हूं कि यदि ऐसा कोई दुस्साहस किया गया तो उसके अत्यंत गंभीर परिणाम होंगे। इन दोनों सेना नायकों ने अपने वक्तव्यों में कहा था कि भारत भी उस तरह की कार्रवाई करने में सक्षम है जैसा कि अमेरिका ने किया है।

यद्यपि हमारे सेना नायकों की टिप्पणी तकनीकी दृष्टि से सही हो सकती है, लेकिन सच्चाई यही है कि पाकिस्तान के भीतर अमेरिका की तरह की कार्रवाई करना हमारी क्षमता के बाहर है। पाकिस्तान की अमेरिका को दी गई चेतावनी सिर्फ एक नाटक है, जो वास्तव में अमेरिका को सुनाने के लिए नहीं, बल्कि पाकिस्तानी जनता को सुनाने के लिये किया गया है, जबकि भारत के प्रति उसका स्तर नितांत भिन्न किस्म का है। उसका लक्ष्य अपनी जनता को सुनाने के साथ-साथ भारत को भी वास्तविक धमकी देना है कि वह किसी तरह की गलत फहमी न पाले। भारत अमेरिका नहीं है। न सैन्य शक्ति में न धन शक्ति में। पाकिस्तान पर अमेरिका का जैसा दबाव है वैसा भरत का कभी नहीं हो सकता। अमेरिका से पाकिस्तान को लगातार अरबों डॉलर की सैनिक असैनिक सहायता मिल रही है। सच्चाई यह है कि पूरी पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था अमेरिकी सहायता पर टिकी है। अमेरिका व यूरोपीय देशों की सहायता न मिले तो पाकिस्तानी सेना को वेतन मिलना भी कठिन हो जाए। अमेरिका उससे अपनी सहायता का हाथ् खींच ले तो पाकिस्तान की पूरी रीढ़ चरमरा जाएगी। लेकिन पाकिस्तान की धोखाधड़ी तथा दोहरापन उजागर हो जाने के बाद भी अमेरिका उसे छोड़ नहीं सकता। वह जरूरत पड़ने पर उसके भीतर घ्ुसकर हमला भी करेगा मगर सहायता भी जारी रखेगा। उसी तरह पाकिस्तान भी चेतावनी जो भी दे, लेकिन वह अमेरिका से संबंध तोड़ने का साहस नहीं कर सकता।

सलमान बशीर की इस धमकी का अमेरिका पर रंच मात्र भी असर नहीं है कि एबटाबाद जैसी कोई कार्रवाई दुबारा हुई तो पाकिस्तान उसे बर्दाश्त नहीं करेगा। वह अपनी प्रभुसत्ता की हर कीमत पर रक्षा करेगा और यदि उसे भंग करने की कोशिश की गई तो उसके गंभीर परिणाम होंगे। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने साफ कहा है कि यदि जरूरत पड़ी तो आगे भी अमेरिका पाकिस्तान में ऐसी कार्रवाई कर सकता है। सलमान बशीर की चेतावनी के अगले ही दिन अमेरिकी ‘ड्रोन‘ विमानों ने उत्तरी वजीरिस्तान में हमले किये। जिसमें कई आतंकवादी मारे गये।

असल में केवल लादेन के मारे जाने से अमेरिका का काम पूरा नहीं हुआ है। लादेन उसके मुख्य निशाने पर था, तो केवल इसलिए कि वह 9/11 के हमलों के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार था। लादेन को मार कर उसने 9/11 का बदला ले लिया है, लेकिन आतंकवाद के विरुद्ध उसका अभियान अभी शेष है। लादेन के बाद अब अमेरिका की अगली खोज ‘मुल्ला उमर‘ की है। मुल्ला उमर कोई लादेन से कम खतरनाक नहीं है। अफगानिस्तान में तालिबान फौजों का मुखिया वही था। उसने ही काबुल में लादेन को भी शरण दे रखी थी। राष्ट्रपति के पद पर आसीन उमर ने लादेन की रक्षा के लिए अपनी नव अर्जित अफगानिस्तान की सत्ता की बाजी लगा दी थी। यह मुल्ला उमर भी कहीं पाकिस्तान में ही छिपा हुआ है। पाकिस्तानी सेना व आई.एस.आई. ने उसे भी संरक्षण दे रखा है। लादेन के आवास जैसी कोई व्यवस्था उसके लिए भी कहीं की गई होगी।

अमेरिका को उमर के बाद अन्य अलकायदा व तालिबान नेताओं को भी खोज निकालना है जो पाकिस्तान में शरण लिए हुए हैं। निश्चय ही पाकिस्तानी अधिकारियों से उनका पता ठिकाना उगलवाना मुश्किल होगा इसलिए पाकिस्तान चाहे या न चाहे लेकिन उसकी धरती पर अमेरिकी गुप्तचरों का जाल अपना काम जारी रखेगा। पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल परवेज अशरफ कयानी ने कहा है कि पाकिस्तान स्थित अमेरिकी सैनिकों को गुप्तचरों की संख्या कम की जाएगी। इस पर अमेरिका ने बड़ी सख्त टिप्पणी की है और कहा है कि पाकिस्तान में अमेरिकी सैनिक अधिकारी रहें या न रहें यह पाकिस्तान को तय करना है अमेरिका को नहीं। इसके बाद अब पाकिस्तानी अधिकारियों की बोलती बंद है। पाकिस्तान के लिए फिलहाल यह नामुमकिन है कि वह अमेरिका को पूरी तरह अपने यहां से निकाल बाहर करे।

जाहिर है, सब कुछ के बावजूद अमेरिका के साथ पाकिस्तान के संबंध पहले की तरह चलते रहें। जैसे पाकिस्तान कुछ भी करे फिर भी अमेरिका उसे नहीं छोड़ सकता उसी तरह अमेरिका कुछ भी करे पाकिस्तान उसे नहीं छोड़ सकता। इसलिए लादेन के पाकिस्तान के भीतर मारे जाने से भी अमेरिका व पाक संबंधों में कोई बदलाव आने वाला नहीं है।

अब यदि भारत के संदर्भ में इस घटना को देखें तो भी यथास्थिति में बदलाव का कहीं कोई संकेत नहीं है। शायद वर्तमान राजनीतिक स्थिति में कोई बदलाव हो भी नहीं सकता। भरत सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि लादेन की मौत से दोनों देशों के बीच शुरू हुई वार्ता श्रृंखला पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। भरतीय नेताओं ने सलमान बशीर की धमकी को भी नजरंअदाज कर दिया है। पाकिस्तान की किसी भी सरकार की आधारभूमि यदि डगमगाती नजर आती है तो वह भारत को धमकी देने का फार्मूला आजमाने लगती है, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि भारत के लिए अब सुरक्षा के खतरे और बढ़ गये हैं। पाकिस्तान की सरकार अपनी आंतरिक स्थिति संभालने के लिए अब अपने जिहादी संगठनों को और छूट देगी।

भारत के पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं है कि वह अपनी आंतरिक व बाह्य सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करे। यहां के लोगों को यह सच्चाई स्वीकार करनी चाहिए कि भारत अमेरिका की तरह की कोई जवाबी कार्रवाई करने की स्थिति में नहीं है। अमेरिका की 26/11 के जिम्मेदार जिहादियों से बदला लेने के लिए उस तरह की कार्रवाई की अनुमति नहीं दे सकता जैसा 9/11 का बदला लेने के लिए उसने खुद की है। वह भारत को संयम बरतने की सलाह देगा और भारत उसे मानने के लिए मजबूर होगा, क्योंकि उसके पास और कोई वैकल्पिक कार्रवाई करने का साहस नहीं है।

यहां के रणनीतिकार अभी भी इस तरह की टिप्पणी करते हैं कि पाकिस्तान दाउद जैसे अपराधियों को भारत के हवाले करने के आग्रह का जवाब इसलिए नहीं देता कि दोनों देशों के बीच ‘परस्पर कानूनी सहयोग संधि' (म्युचुअल लीगल असिस्टेंट ट्रीटी) पर हस्ताक्षर नहीं हुए हैं। ऐसे भोले लोगों को कौन बताए कि यदि इस संधि पर हस्ताक्षर हुए होते तो क्या पाकिस्तान मुम्बई बम धमाकों के दोषी दाउद को भारत के हवाले कर देता या 26/11 के मुम्बई हमले के जिम्मेदार हाफिज मुहम्मद सईद पर भारत को कानूनी कार्रवाई की अनुमति दे देता।

आश्चर्य है कि अभी भी यहां लोग इस सच्चाई को नहीं समझ पा रहे हैं कि इस्लामी आतंकवाद पाकिस्तान की सरकारी युद्ध नीति का हिस्सा है। पाकिस्तानी जिहादी संगठन पाकिस्तानी रक्ष तंत्र यानी उसकी सेना के ही एक अंग हैं। आई.एस.आई. के पूर्व प्रमुख लेफ्टीनेंट जनरल असद दुर्रानी ने आतंकवाद को एक तरह की युद्ध तकनीक कहा था। वह राज्य (यानी सरकार) का एक नीतिगत हथियार है। फिर यह कैसे संभव है कि पाकिस्तान सरकार अपने ही रक्षातंत्र के खिलाफ भारत को किसी तरह का सहयोग दे। पाकिस्तान में विविध जिहादी संगठनों का निर्माण ही तब किया गया था जब पाकिस्तानी सेना भारत के खिलाफ किसी तरह की सफलता प्राप्त करने में विफल हो गई थी। इसका लक्ष्य ही यह था कि इनके इस्तेमाल द्वारा भारत को निरंतर आहत करके कमजोर किया जाए। भारत, पाकिस्तान की इस युद्ध तकनीक का मुकाबला करने की अब तक कोई युक्ति नहीं खोज पाया है।

भारत के विरुद्ध इस्तेमाल के लिए तैयार की गई इस जिहादी सेना में संयोगवश अलकायदा और तालिबान की दो शक्तियां और शामिल हो गई। अलकायदा का गठन मूलतः अमेरिका को सबक सिखाने के लिए किया गया था और तालिबान का गठन अफगानिस्तान से रूसी फौजों को भगाने के लिए। तालिबान का गठन भी पाकिस्तान में हुआ और संयोगवश अलकायदा का मुखिया भी वहीं शरण लेने आ गया। इस तरह सारी आतंकवादी शक्तियां अब पाकिस्तान में एकत्र हो गई हैं। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में चूंकि भारत-अमेरिका के निकट आ गया है इसलिए सारी आतंकवादी शक्तियां संयुक्त रूप से भारत और अमेरिका के खिलाफ हो गई है।

लश्करे तैयबा का गठन मूलतः केवल भारत के खिलाफ कार्रवाई के लिए हुआ था, लेकिन अब वह भी अलकायदा की तरह का वैश्विक रूप धारण कर रहा है। अब लश्करे तैयबा भारत के साथ् ही आस्ट्रेलिया, यू.एस. व यूरोप पर भी हमले की योजना बना रहा है। इधर के महीनों में उसके जो लोग गिरफ्तार हुए हैं उनसे इसकी पूरी कहानी सामने आ रही है। पड़ताल में कई ऐसे नये तथ्य सामने आए हैं। हेडली के साथ आई.एस.आई. और लश्कर के गठजोड़ का तो अब पूरा प्रमाण मिल चुका है। आई.एस.आई. अफसर रिटायर्ड मेजर अब्दुल रहमान हेडली के साथ मिलकर काम कर रहे थे। इनका संबंध इलियास कश्मीरी नाम के उस आतंकवादी के साथ भी है जो अलकायदा से जुड़ा है और ब्रिगेड 313 के प्रमुख के रूप में जाना जाता है। बताया जाता है इलिया कश्मीरी भी भारत पर हमले की फिराक में था। आशय यह कि पाकिस्तान में केन्द्रित हुई आतंकवादियों की फौज से सर्वाधिक खतरा भारत को है। अमेरिका तो इनसे काफी दूर है, भारत तो बगल में ही है। अमेरिका में कोई कार्रवाई करना मुश्किल भी है, लेकिन भारत में तो यह काफी आसान है। इसलिए अब भारत को अधिक सतर्क हो जाना चाहिए।

8/05/2011


बुधवार, 4 मई 2011

विफलता की ओर बढ़ रहा अपना संसदीय लोकतंत्र

संसद की प्रतिष्ठित लोकलेखा समिति दो फाड़ ! सत्तारूढ गठबंधन के सदस्यों ने अध्यक्ष डॉ. मुरली मनोहर जोशी (दाएं) की अनुपस्थिति में नियमों को तोड़कर कांग्रेस के सैफुद्दीन को अध्यक्ष बना लिया और जोशी द्वारा तैयार रिपोर्ट के प्रारूप को एक प्रस्ताव पारित करके रद्द कर दिया।

संसदीय समितियों को संसद का ही लघुरूप माना जाता है। इनमें भी लोक लेखा समिति (पी.ए.सी.) संसद की सबसे पुरानी और प्रतिष्ठित समिति है। लेकिन बीते गुरुवार को इस समिति की बैठक में जो कुछ हुआ, वह अप्रत्याशित ही नहीं, अकल्पनीय और अभूतपूर्व था। यदि सत्तारूढ़ दल के सदस्य अपनी सरकार और अपने दलों के बचाव में इस तरह संसदीय परंपराओं को कुचलने का प्रयास करेंगे, तो संसदीय लोकतंत्र की भला कैसे रक्षा हो सकेगी। संसद भ्ले ही सत्तापक्ष व विपक्ष में विभाजित रहती हो, लेकिन लोकतंत्र में यह पूरी संसद का दायित्व होता है कि वह सरकार की निगरानी करे और उसे मनमानी करने से रोके। यह काम अकेले विपक्ष का नहीं है, क्योंकि वह निगरानी भले कर ले, लेकिन वह सरकार को मनमानी करने से रोक नहीं सकता। इसके लिए पूरे सदन का सहयोग चाहिए। लेकिन वर्ममान स्थ्तिि में भारतीय संसद में सत्तारूढ़ दल या मोर्चे के सदस्य खुलेआम सरकार की मनमानी की रक्षा करना ही अपना संसदीय दायित्व समझने लगे हैं। ऐसे में भला संसद अपने वैधानिक दायित्व का कैसे निर्वाह कर सकेगी ?


भ्रष्टाचार इस देश की राजनीति में अब से पहले कभी राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दा नहीं बन सका था। ऐसा नहीं कि अब से पहले यहां भ्रष्टाचार नहीं था, लेकिन राजनीति ने उसके साथ ऐसा तालमेल बैठा लिया था कि राष्ट्रीय क्या उसे कभी क्षेत्रीय मुद्दा बनने का भी अवसर नहीं मिला। गांधी जी शायद पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने इस देश में संसदीय राजनीति शुरू होते ही भ्रष्टाचार का मसला उठाया था, किंतु राजनेताओं ने उसकी ऐसी अनदेखी की कि वह एक ऐतिहासिक उल्लेख भर बन कर रह गया। वह बेचारे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपनी मृत्यु से तीन दिन पहले तक इसकी गुहार लगाते रहे, लेकिन किसी ने उनकी नहीं सुनी। उस आम जनता ने भी नहीं, जिसके लिए वह गुहार लगा रहे थे। वह शायद अपने में ही मस्त थी, फिर गांधी की आवाज हउसके कानों तक पहुंचने भी तो नहीं पायी होगी। नवगठित राष्ट्र की नई लोकतांत्रिक सरकार ने तो भ्रष्टाचार को ऐसी मौन स्वीकृति दे दी, मानों भ्रष्टाचार के बिना राजनीति चल ही नहीं सकती।

1937 में देश में पहली बार ‘गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट-1935‘ के अंतर्गत प्रांतीय असेंबलियों के चुनाव हुए थे, जिनमें से 6 प्रांतों में कांग्रेस जीत गयी थी। इस चुनाव में पहली बार कांग्रेस के नेताओं की ‘आचार भ्रष्टता' प्रत्यक्ष सामने आयी। गांधीजी बहुत दुःखी हुए। उनकी टिप्पणी थी कि ‘कांग्रेस में जिस तरह का भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया है, उसे देख्ते हुए उसके साथ चलने के बजाए मैं इस सीमा तक जा सकता हूं कि उसे अच्छे से दफन कर दूं' (आई वुड गो टू लेंथ ऑफ गिविंग द होल कांग्रेस ए डिसेंट बरियल, रादर दैन पुट अप विद द करप्शन दैट इज रैम्पेंट)। यह उनका मई 1939 का कथन है। इसके बाद अभी देश स्वतंत्र ही हुआ था। मुश्किल से 4 महीने बीते थे, जब गांधी ने अपने ही लोगों के बीच कहा था कि ‘मुझे बहुत ही विश्वसनीय स्रोतों से पता चला है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है' (आई हैव इट वेरी ट्रस्टवर्दी सोर्सेज दैट करप्शन इज इंक्रीजिंग इन अवर कंट्री)। और अपनी मृत्यु के ठीक तीन दिन पहले उनका कहना था, ‘यह (भ्रष्टाचार) पहले से और बदतर स्थिति में पहुंच गया है। इससे दूर रहने की बात तो वास्तव में खत्म हो गयी है' (इट हैज नाउ बिकम वर्स दैन बिफोर। रिस्ट्रेंट फ्राम इट प्रैक्टिकली गॉन)।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन में हुए चुनावों के बाद जब वहां नई सरकार आयी और उसने भारत को स्वतंत्रता देना स्वीकार कर लिया और देश में पं. नेहरू के नेतृत्व में एक कार्यवाहक सरकार बन गयी, महत्मा गांधी इस देश् की राजनीतिक मुख्य धारा से जानबूझकर दूर कर दिये गये। इसकी पीड़ा यदा कदा उनके शब्दों में व्यक्त हुई है। देश की नई सत्ता को अब गांधी की और उनके मूल्यों व सिद्धांतों की कोई आवश्यकता नहीं रह गयी थी। अब पार्टी और सरकार के भीतरी मामलों की जानकारी गांधी को अपने ‘विश्वस्त' सूत्रों से ही मिला करती थी। तत्कालीन मीडिया में प्रकाशित ऐसी खबरों की कमी नहीं है, जिनसे जाहिर होता है कि स्वतंत्रता का अधिकार मिलते ही इस देश के राजनेता राष्ट्रीय संपदा की लूट पर मानो टूट पड़े। देश के लिए जान की बाजी लगाने वाले अधिकांश सेनानी हाशिये में चले गये। गांधी के संयम सादगी में विश्वास करने वाले भी केवल वे लोग ही सत्ता के कृपा पात्र थे, जो उस समय के नये नेतृत्व के साथ राग में राग मिलाने वाले थे। आज यदि विकीलीक्स के संपादक जुलियन असांजे यह प्रमाणित करते हैं कि विदेशी बैंकों के गुप्त खातों में सर्वाधिक धन ीारतीयों का जमा है, तो इस पर कोई आश्चर्य नहीं होता, क्योंकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्रीय संपज्ञि की जैसी लूट इस देश में मची और जिस स्तर पर उसकी अनदेखी की गयी, वैसा शायद ही दुनिया के कुछ नवस्वतंत्र देशों में हुआ हो। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने तो मानो इस तरफ से अपनी आंखें ही बंद कर ली थी। उन्होंने तब तक अपने किसी भ्रष्ट सहयोगी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की, जब तक कि वह इसके लिए मजबूर न हो गये हों। उन्होंने इस राष्ट्र को प्रभावित करने वाले विदेशी धन के आगमन पर भी कोई रोक नहीं लगाया, बल्कि उसे प्रोत्साहन दिया। उन्होंने ईसाई मिशनरियों के लिए आने वाले विदेशी धन तथ इस देश के वामपंथी नेताओं को कम्युनिस्ट देशों से मिलने वाले धन और सुविधाओं पर कोई नियंत्रण नहीं लगाया। नियंत्रण तो क्या उन्होंने निगरानी की भी कोई व्यवस्था नहीं की। नेहरू को इसके बदले में उनकी जय जयकार करने वालों की ऐसी भारी भीड़ मिल गयी, जिसकी जनता में अपनी छवि बड़े सिद्धांतवादियों की थी।

अभी पिछले दिनों न्यू इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने आलेख में इसके सलाहकार संपादक योगेश वाजपेयी ने नेहरू युग के भ्रष्टाचार को रेखांकित करने वाली कुछ रिपोर्टों को उद्धृत किया है, जिनमें उस युग की एक झलक मिल सकती है। अभी देश में लोकतांत्रिक भारत का नया संविधान लागू हुए एक वर्ष ही बीता था, जब ए.डी. गोखाला कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था (1) नेहरू मंत्रिमंडल के कई सदस्य (क्वाइट ए फ्यू) भ्रष्ट हैं और इसकी जानकारी सभी को है। (2) सरकार ने अपनी सीमा से बाहर जाकर भी इन मंत्रियों का बचाव किया। वास्तव में ऐसे दस्तावेजी साक्ष्य है कि वह राजनीतिक भ्रष्टाचार को न्यायिक समीक्षा अथवा संस्थागत निगरानी की सीमा से परे मानते थे। 1963 में जब गैर कम्युनिस्ट विपक्ष ने पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरो के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर राष्ट्रपति को एक ज्ञापन दिया, तो उन्होंने इस ज्ञापन पर लिखा कि ‘इस प्रकार यह सवाल उठता है कि क्या मात्र कुछ तथ्यात्मक प्रश्नों पर सर्वोच्च न्यायालय की विपरीत टिप्पणी के आधार पर किसी मुख्यमंत्री को इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। मंत्रीगण सामूहिक रूप से विधायिका के प्रति जिम्मेदार होते हैं। इसलिए यह मामला ऐसा है, जो विधायिका का विषय है। इसलिए नियमानुसार किसी मंत्री को हटाने का सवाल तब तक नहीं पैदा होता, जब तक कि विधायिका बहुमत के साथ इसके लिए प्रस्ताव न पारित करे।' अब इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि नेहरू किस हद तक न्याय या न्यायपालिका का सम्मान करते थे और किस सीमा तक राजनीतिक भ्रष्टाचार के संरक्षक थे। नेहरू युग के कांग्रेस शासन पर 1964 में जारी संथानम कमेटी की रिपोर्ट की द्रष्टव्य है, इसमें कहा गया है कि ‘ऐसी व्यापक धारणा है कि ईमानदारी की विफलता मंत्रियों में कोई असामान्य बात नहीं है, जो लोग पिछले 16 वर्षों से सत्ता में थे, उन्होंने नितांत अवैध रूप से अपने को समृद्ध किया है और भाई-भतीजावाद अपनाकर अपने बेटे-बेटियों और संबंधियों को उंचे पदों पर नियुक्त किया है और अन्य सुविधाओं का भंडार एकत्र किया है, जिसे किसी भी तरह सार्वजनिक जीवन की शुद्धता के पैमाने पर सही नहीं ठहराया जा सकता।

नेहरू युग अपने भारतीय राजनीतिक इतिहास का सबसे पवित्र युग समझा जाता है, उसकी यह हालत है और उसके बाद की कहानी तो जगजाहिर है। उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने तो भ्रष्टाचार को एक संस्थागत वैधता प्रदान कर दी। वह इसे एक ‘अंतर्राष्ट्रीय फेनामना' मानती थीं, इसलिए इसकी चिंता करने या उस पर अंकुश लगाने की वह कोई आवश्यकता नहीं समझती थीं। उनके बेटे राजीव गांधी ने यह तो कहा कि जनहिहत की योजनाओं के लिए केंद्र सरकार को एक रुपये जारी करती है, तो उसका केवल 16 पैसा आम जनता तक पहुंचता है, लेकिन उन्होंने भी इसे बदलने की कोई आवश्यकता नहीं समझी। उन्होंने मान लिया कि राजनीति व्यवस्था ऐसे ही चलती है, इसलिए उसे ज्यों का त्यों चलने दिया। तबसे कितने ‘स्कैम‘ हो चुके, किसी में किसी राजनेता को अब तक कभी कोई सजा नहीं हुई। सजा की तो बात क्या, उनका रहस्य अब तक ठीक-ठीक उजागर नहीं हो सका। नागर वाला कांड, फेयर फैक्स घोटाला, एच.बी.जे. पाइप लाइन घटाला, एच.बी. डब्लू, पनडुब्बी घोटाला, बोफोर्स घोटाला और न जाने कौन कौनसा और घोटाला। किस किस का नाम याद रखा जाए। किसी का भी तो प्रामाणिक तौर पर अब तक कुछ भी पता नहीं चला।

सच कहा जाए तो गांधी जी के बाद पिछले 61 वर्षों में किसी ने भ्रष्टाचार के मसले को गंभीरता से नहीं उठाया। जिसने उठाया भी उसने अपने राजनीतिक हित में इसका हथियार की तरह इस्तेमाल किया। उसका लक्ष्य राजनीतिक भ्रष्टाचार को मिटाना या कम करना नहीं थ, बल्कि उसका इस्तेमाल करके स्वयं राजनीतिक सत्ता हथियाना या अपने लिए यथेष्ट भ्रष्टाचार का अवसर व अधिकार प्राप्त करना था। शायद पहली बार यह दूरसंचार का ऐसा घोटाला सामने आया, जिसने पूरे देश को इस तरह विद्वेलित कर दिया कि भ्रष्टाचार एक राष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दे के रूप में खड़ा हो गया। शायद इसके साथ जुड़ी रकम की विशालता ने तमाम तटस्थ लोगों को भी इसकी तरफ अपनी गर्दन मोड़ने के लिए विवश कर दिया। और इसके बाद ताबड़तोड़ एक के बाद एक घोटालों का पर्दाफाश शायद इसके आकार को और बढ़ाता गया। फिर गांधी की परंपरा में आ खड़े हुए एक गांधीवादी अन्ना हजारे का उदय। गांधीजी ने स्वयं कांग्रेस के भ्रष्टाचार पर चिंता तो व्यक्त की थी, लेकिन उन्होंने भी उसे मिटाने का कोई अभियान नहीं चलाया था। इसलिए कम से कम इस मामले में अन्ना हजारे गांधी जी से एक कदम आगे बढ़े और उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक युद्ध की घोषणा की। स्वतंत्र भारत में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने वाले वह पहले व्यक्ति हैं, जिनकी कोई अपनी राजनीति महत्वाकांक्षा नहीं है और जो इसका अपने हित में किसी राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। उन्होंने अपने निशाने पर किसी पार्टी या सरकार के बजाए सीधे भ्रष्टाचार को रखा है। वातावरण के तेवर को देखते हुए मुख्य विपक्षी दलों -भाजपा एवं वामदलों- ने भी इस मुद्दे को राष्ट्रीय आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। भले ही उसने अपने राजनीतिक हित में इसे इतना तूल दिया, लेकिन किसी अच्छे कार्य को केवल इसलिए कम करके नहीं आंका जा सकता कि इसमें कार्य करने वाले का अपना नीजि हित भी शामिल था।

रोचक यह है कि इस देश के बहुत से राजनेता व बुद्धिजीवी अभी भी भ्रष्टाचार को विकास का अनिवार्य अंग मानते हैं। मीडिया में ऐसे बहुत से तर्क उछाले जा रहे हैं कि पश्चिम के उन औद्योगिक देशों में भी अब से सौ साल पहले ऐसा ही भ्रष्टाचार व्याप्त था। भारत भी उसी प्रक्रिया से गुजर रहा है, इसलिए राजनीतिक व सार्वजनिक भ्रष्टाचार की बहुत परवाह करने की जरूरत नहीं है। ये लोग शायद यह स्थापित करना चाहते हैं कि जब तक पूरा देश समृद्ध नहीं हो जाता, तब तक राजनेताओं, अफसरों और उच्च व्यवसायियों को हर तरह के भ्रष्टाचार की छूट दे दी जानी चाहिए। ये नेहरू के ही उस तर्क का समर्थन करते दिखते हैं कि जब तक विधायिका सभा विधिवत प्रस्ताव पारित करके किसी राजनेता को भ्रष्टाचार का दोषी करार देकर उसको हटाने या उसके खिलाफ किसी कार्रवाई की संस्तुति नहीं करती, तब तक उसे अपने पद पर बने रहने और अपना मनमाना आचरण करने का पूरा अधिकार है। कोई न्यायपालिका, कोई बाहरी संस्था या कोई जनसंगठन उसके खिलाफ उंगली नहीं उठा सकता।

क्या यह संसदीय लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले सभी ईमानदार लोगों की आंखें खोलवाने के लिए काफी नहीं है कि आज तक इस देश की संसदीय व्यवस्था ने किसी सत्ताधारी राजनेता को उसके भ्रष्टाचार के लिए दंडित नहीं किया है। इस देश की संसदीय व्यवस्था का पूरा इतिहास तो यही बताता है कि उसने सदैव भ्रष्टाचार को संरक्षण और भ्रष्टाचारियों को पदोन्नति प्रदान की है। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का यथासंभव जो भी काम हो सका है, उसका श्रेय न्यायपालिका तथा गैरविधायी संस्थाओं को ही जाता है। वर्ष 2010-11 का यह ताजा समय ही इस बात का गवाह है कि सरकार ने स्वयं भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो भी कदम उठाया है, वह न्यायपालिका तथा विधायिका के बाहर के जन दबाव के कारण उसे उठाना पड़ा है। उसने अंत तक भरसक भ्रष्टाचारियों को बचाने की कोशिश की है। जहां अदालत का दबाव नहीं रहा है, वहां उसने जनदबाव की भी अपेक्षा की है। एक ज्वलंत उदाहरण सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालाकृष्णन का है, उनका भ्रष्टाचार जगजाहिर हो चुका है, फिर भी वह देश के मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद पर विराजमान हैं। न वह स्वयं इस्तीफा दे रहे हैं, न सत्ता में बैठे लोग उन्हें इस्तीफा देने के लिए कह रहे हैं।

आशय यह कि इस देश की संसदीय व्यवस्था न केवल राजनीतिक भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में विफल रही है, बल्कि उसने भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों को पूर्ण संरक्षण प्रदान करने का काम किया है। उसने कानून की आंखों में धूल झोंकने या उसे पंगु करने में भी कोई संकोच नहीं किया है। बोफोर्स मामले में बठित संसद की संयुक्त समिति ने न्याय की मदद करने या भ्रष्टाचार को उजागर करने के बजाए उसे ढकने में अपनी शक्ति का उपयोग किया। उसने दिल्ली में स्थित बोफोर्स के एजेंट विन चड्ढा को पूछताछ के नाम पर संसद भवन में बुलाया, लेकिन कोई पूछताछ करने के बजाए उसे वहीं से विदेश रवाना कर दिया, जिससे कि वह न्यायालय या यहां की विधि रक्षक संस्थाओं को उपलब्ध न हो सके।

परंपरा यही चलती आ रही है। कार्यपालिका यानी सरकार ने संसद को अपने कब्जे में ले लिया है। दल-बदल विरोधी कानून (एंटी डिफेक्शन एक्ट) इसमें उसका मददगार है। ताजा मसला 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच का है। देश के नियंत्रण व महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट के अनुसार इस घोटाले के कारण देश को 1 लाख 76 हजार करोड़ का नुकसान हुआ है। ‘कैग' की यह रिपोर्ट जबसे समीक्षा के लिए संसद की लोक लेखा समिति (पी.ए.सी.) के पास आ गयी है, तभी से हंगामा मचा है। सरकार ने पहले तो इस रिपोर्ट को ही झुठलाने की कोशिश की, लेकिन जब उसकी जांच संस्था सी.बी.आई. ने ही स्वीकार किया कि ‘कैग' की रिपोर्ट जितना बता रही हे, उतना तो नहीं, लेकिन करीब 45 हजार करोड़ का नुकसान तो अवश्य हुआ है, तब कपिल सिब्बल जेसे उन मंत्रियों की जबान पर कुछ लगाम लगा, जो बता रहे थे कि ‘कैग‘ की रिपोर्ट पूरी तरह झूठी है। 2-जी मामले में सरकार को एक पैसे का नुकसान नहीं हुआ है। विपक्ष ने सारे मामले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जे.पी.सी.) गठित करने की मांग की, लेकिन सरकार जे.पी.सी. न बनाने पर अड़ी रही। इस खींचतान में संसद का शरदकालीन अधिवेशन बिना कोई कामकाज किये खत्म हो गया। सरकार का दबाव था कि जब पी.ए.सी. मामले की जांच कर रही है, तो जे.पी.सी. की क्या जरूरत। 2-जी के साथ अन्य कई घोटालों के मामले एक साथ सामने आ जाने के कारण खतरे में पड़ी सरकार ने अपनी छवि बचाने के लिए जे.पी.सी. का गठन स्वीकार कर लिया। शायद सरकार को बाद में यह समझ में आया कि पी.ए.सी. के बजाए जे.पी.सी. उसके अधिक हित में हो सकती है। इसलिए वह पी.ए.सी. पर हल्ला बोलने लगी। जिस पी.ए.सी. के सामने स्वयं प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह उपस्थित होने के लिए तैयार थे, उसी पर बाद में पक्षपातपूर्ण राजनीति का आरोप जड़ा जाने लगा। उस पर इसके लिए दबाव डाला जाने लगा कि वह 2-जी स्पेक्ट्रम मामले की पूरी जांच अब जे.पी.सी. के हवाले कर दे। खैर, उसकी यह कोशिश न सफल होनी थी, न हुई। पी.ए.सी. अध्यक्ष डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने अपनी रिपोर्ट का प्रारूप तैयार कर लिया । संसदीय सचिवालय ने इसकी प्रतियां सभी 21 सदस्यों को उपलब्ध करायी। जोशी ने इस पर अंतिम विचार के लिए गत गुरुवार को पी.ए.सी. की बैठक आमंत्रित की। इस पी.ए.सी. का कार्यकाल 30 अप्रैल को पूरा होना था, इसलिए उसके पहले इसे अंतिम रूप दे देना था।

डॉ. जोशी को इसके लिए बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने यथासंभव पूरी तरह निष्पक्ष होकर अपनी रिपोर्ट तैयार की है। उन्होंने अपनी सारी टिप्पणियों के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय तथा अन्य मंत्रालयों की फाइलों तथा उनमें लिखी गयी टिप्पणियों को आधार बनाया है। वह जानते थे कि उनकी टिप्पणियों पर हमला करने के लिए पूरा सत्ता प्रतिष्ठान और सत्तारूढ़ राजनेताओं की पूरी फौज टूट पड़ेगी। इसलिए उन्होंने पूरी सावधानी बरती। लेकिन सत्ता प्रतिष्ठान इतना भी कैसे बर्दाश्त करता, इसलिए पहले तो इसकी ही आलोचना शुरू हुई कि पी.ए.सी. की रिपोर्ट लीक कैसे हुई। डॉ. जोशी पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने ही इसे लीक किया। यह भी आरोप लगा कि यह प्रारूप ‘आउटसोर्स' किया गया, यानी इसे पी.ए.सी. या डॉ. जोशी ने स्वयं नहीं तैयार किया, बल्कि इसे बाहर किसी से तैयार कराकर जारी किया गया।

सरकार के स्तर पर पूरी रणनीति बनी कि इसे किसी तरह फेल किया जाए, इसलिए जब गुरुवार को पी.ए.सी. की अंतिम बैठक के लिए उसके सदस्य एकत्र हुए, तो बैठक शुरू होने के पहले ही हंगामा शुरू हो गया। सत्ता पक्ष के लोगों ने 11 लोगों के हस्ताक्षर से एक प्रस्ताव पेश किया, जिसमें रिपोर्ट का प्रारूप रद्द करने की बात की गयी थी। 21 सदस्यीय समिति में 11 सदस्यों के बहुमत से आये इस प्रस्ताव की शायद डॉ. जोशी को आशा नहीं थी। शायद उनका ख्याल था कि समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी के सदस्य सरकारी पक्ष के साथ नहीं जाएंगे, लेकिन उनका अनुमार गलत निकला और अंतिम क्षण में उनके दोनों सदस्य (दोनों के एक-एक) सत्ता पक्ष के साथ जुड़ गये। हंगामें के बीच डॉ. जोशी बैठक स्थगित करके बाहर निकल गये। उसके बाद सत्ता पक्ष के सदस्यों ने फिर से एकत्र होकर अपनी बैठक शुरू की। उन्होंने कांफ्रेंस के राज्यसभा सदस्य सैफुद्दीन सोज को पी.ए.सी. का अध्यक्ष चुनकर कार्यवाही आगे बढ़ायी और एक प्रस्ताव स्वीकार करके जोशी की रिपोर्ट के प्रारूप को रद्द कर दिया।

यह शुद्ध रूप से संसद और संसदीय परंपरा का अपमान था। किसी भी संसदीय समिति को संसद का ही लघु रूप माना जाता है और फिर पी.ए.सी. संसद की सबसे पुरानी और सबसे सम्मानित समिति है, उसका इस तरह मखौल बनाना कतई शोभनीय नहीं था। पी.ए.सी. का गठन लोकसभाध्यक्ष द्वारा किया जाता है। उसके अध्यक्ष की नियुक्ति भी उसके द्वारा ही होती है। अध्यक्ष विपक्ष के किसी वरिष्ठ सदस्य हो, जिससे समिति के समीक्षा कार्य की गरिमा बनी रहे। लेकिन सत्तारूढ़ मोर्चे (यू.पी.ए.) के सदस्यों ने सत्तारूढ़ दल कांग्रेस के एक राज्यसभा सदस्य को अध्यक्ष बनाकर 11 के विरुद्ध शून्य मत से रिपोर्ट के प्रारूप को रद्द करने की कार्रवाई की।

इस मामले में अंतिम फैसला तो लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को करना है, लेकिन परंपरा पर अगर ध्यान दें, तो डॉ. जोशी को अभी भी अपनी रिपोर्ट स्पीकर के समक्ष पेश करने का अधिकार है। 2004 में जब कांग्रेस विपक्ष में थी, तब पी.ए.सी. के अध्यक्ष बूटा सिंह ने ताबूत घोटाला मामले में अपनी रिपोर्ट बिना पी.ए.सी. बैठक में कोई चर्चा कराय सीधे अध्यक्ष को सौंप दी थी। पहले भी इस तरह के उदाहरण आ चुके हैं।

यहां सवाल यह नहीं है कि किसका अधिकार क्या है और स्पीकर मीरा कुमार अंततः क्या निर्णय लेती हैं। सवाल यह है कि क्या हमारी संसदीय व्यवस्था संसदीय लोकतंत्र के मूल्यों व सिद्धांतों का अनुपालन कर रही है। नेहरू के काल से लेकर आज तक का इतिहास इस बात का साक्षी है कि आम आदमी के लोकतंत्रिक अधिकारों तथा मूल्यों की रक्षा में कभी हमारी संसद ने कोई पहल नहीं की। वह केवल सत्ताधारियों के हितों का ही संरक्षण करती रही। सत्ता या कार्यपालिका की निगरानी करने या उस पर अंकुश लगाने का जो काम संसद को करना था, वह काम जब कभी संभव हुआ, तो सर्वोच्च न्यायालय ने अवश्य किया, लेकिन संसद हमेश सत्ताधारियों की बंधक बनी रही। क्या आज की स्थ्तिि में अब ऐसा समय नहीं आ गया है कि देश की संसदीय व्यवस्था तथा उसके संवैधानिक स्वरूप पर पुनर्विचार किया जाए, जिससे कार्यपालिका की मनमानी पर अंकुश लग सके। उच्च स्तरीय राजनीति भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए जन लोकपाल की नियुक्ति का प्रयास तो ठीक है, लेकिन यदि देश की संसदीय व्यवस्था दृढ़ नहीं की जा सकी, तो उसके विफल होते देर नहीं लगेगी। वास्तव में आज देश की पूरी संवैधानिक व राजनीतिक स्थिति की समीक्षा की जरूरत है। क्या निकट भविष्य में इसकी कोई पहल हो सकेगी ? देश को इसकी बड़ी ही बेसब्री से प्रतीक्षा है।