रविवार, 27 मार्च 2011

कब तक सहते रहेंगे इस राजनीतिक विद्रूपता को !


लोकसभा में 22 जुलाई 2008 का वह दृश्य, जब सरकार पर विश्वासमत हासिल करने के लिए सांसदों की खरीद का आरोप लग रहा था और भाजपा के सदस्य सदन में नोटों का बंडल उछाल रहे थे।

सत्ता की राजनीति का वास्तविक चेहरा कभी बहुत सुहावना नहीं रहा करता। कुटिलता की रेखाएं और फरेबों के दाग हमेश उसे कुरूप बनाए रखते रहे हैं। लेकिन भारत की लोकतांत्रिक राजनीति के पिछले 5-6 दशकों में यह चेहरा इतना वीभत्स हो गया है कि उससे सीधे-सज्जन लोगों को डर लगने लगा है। सत्ता का खेल ढिठाई, निर्लज्जता और क्रूरता के जिस स्तर पर पहुंच गया है, उसे देखकर आश्चर्य होता है कि मनुष्यता ने हजारों वर्षों के राजनीतिक विकास में क्या यही अर्जित किया है। सब कुछ इतना असह्य हो चला है कि सभ्यता और शालीनता का जीवन चाहने वालों को उसकी तरफ पीठ करके भी जीना मुश्किल हो गया है।


राजनीति को किसी ने वेश्या कहा है, तो किसी ने राक्षसी शक्तियों की क्रीड़ास्थली। वहां नैतिकता, न्यायप्रियता, सदाचार तथा सत्य आदि केवल मुखौटों का काम करते हैं। जब कभी ये मुखौटे खिसकते हैं या कोई दुर्घर्ष इन्हें नोच लेता है, तो असली चेहरा झलक उठता है। वह इतना दागदार व वीभत्स होता है कि उससे नजर मिलाना भी कठिन होता है, लेकिन अफसोस यह है कि इस राजनीति के बिना किसी देश या समाज का काम भी नहीं चल सकता। राजनीति अनिवार्य है, राजनीतिक व्यवस्था भी अनिवार्य है। इस अनिवार्यता और उसके यथार्थ को देखते हुए ही उसे लगातार बदलते रहने पर जोर दिया जाता है। लेकिन बदलने के लिए यदि कोई विकल्प ही न हो तो ? तो क्या किया जाए ? अपने देश भारत में कुछ ऐसी ही स्थिति पैदा हो गयी है। पार्टियों का विकल्प तो है, लेकिन कोई चारित्रिक विकल्प नहीं है। चरित्र लगभग सबका एक जैसा है।

विकीलीक्स खुलासों का इन दिनों भारतीय अध्याय खुला हुआ है। देश के एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ‘द हिन्दू' में प्रतिदिन कुछ न कुछ ऐसा आ रहा है, जिससे तमाम राजनीतिक मुखौटे दरक रहे हैं। इन दस्तावेजी खुलासों को झूठा, मनगढ़ंत या जाली बताने का कोई आधार नहीं है, इसलिए तमाम राजनेता इसे नजरंदाज करने की सलाह दे रहे हैं। स्वयं अपने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह यह कहते हैं कि इन दस्तावेजों की सत्यता की चूंकि कोई जांच नहीं हो सकती, किसी तरह के भिन्न स्रोतों से पुष्टि नहीं हो सकती, संबंधित देश से कोई पूछताछ नहीं हो सकती, इसलिए इस पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए। उन्होंने चेतावनी भी दी कि यदि इस तरह दूतावासों के ‘डिप्लोमेटिक केबिलों' को गंभीरता से लिया जाता रहा, तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। किसी देश का कोई राजनयिक इस तरह कोई उल्टी-सीधी खतरनाक बात केबिल में भेजकर फिर उसे स्वयं जानबूझकर लीक कर दे, तो उससे भयंकर स्थिति पैदा हो सकती है। प्रधानमंत्री जी यह बात भारत स्थित अमेरिकी दूतावास द्वारा भेजे गये उस केबिल के संदर्भ में कह रहे थे, जिसमें अमेरिकी राजनयिक ने लिखा था कि कांग्रेस का एक पूर्व मंत्री सतीश शर्मा के घर पर उनके एक सहायक नचिकेता कपूर ने उन्हें दो बक्से दिखाये, जिसमें 60-70 करोड़ रुपये के करेंसी नोट रखे थे। उन्हें दिखाते हुए उसने बताया कि ये रुपये संसद में विश्वास मत हासिल करने के लिए सांसदों का समर्थन हासिल करने के लिए इकट्ठा किया गया है। विकीलीक्स के इस खुलासे पर सफाई देते हुए सतीश शर्मा ने नचिकेता कपूर को जानने तक से इनकार कर दिया था, जबकि नचिकेता ने स्वयं बताया कि वह सतीश शर्मा के घ्र आया जाया करते थे। उनके घर कई देशों के राजदूतों का भी आना-जाना रहता था। अमेरिकी राजदूत भी आया करते थे। बस उसने केवल नोटों भरे बक्से की बात से इनकार किया था।

प्रधानमंत्री ने इन दस्तावेजों की प्रमाणिकता पर भी संदेह उठाया था, लेकिन इस पर विकीलीक्स के संस्थापक संपादक जूलियन असांजे ने सीधे उन पर आरोप लगाया था कि डॉ. मनमोहन सिंह जनता को गुमराह कर रहे हैं। विकीलीक्स पर जारी दस्तावेज प्रामाणिक हैं, इसकी पुष्टि एक अन्य पूर्व अमेरिकी राजदूत ने भी की है। जूलियन का कहना है कि दस्तावेजों में दिये गये तथ्यों की प्रामाणिकता के बारे में वह कुछ नहीं कह सकते, किंतु उन दस्तावेजों की प्रामाणिकता के बारे में कोई संदेह नहीं हो सकता। यदि वे अप्रमाण्कि होते, तो अमेरिका ने स्वयं आगे बढ़कर जूलियन के दावों का खंडन कर सकता था। प्रधानमंत्री का यह कहना भी सही नहीं माना जा सकता कि ऐसे ‘पत्राचारों‘ को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। वास्तव में डिप्लोमेटिक केबिल दूतावासों तथा संबंधित देश के बीच होने वाले पत्राचारों के छोटे अंश होते हैं, लेकिन महत्वपूर्ण होते हैं। इनमें दूतावास के जिम्मेदार अधिकारी केवल महत्वपूर्ण व जरूरी सूचनाएं ही भेजते हैं। इसमें तथ्यों के अलावा उनका अपना मत (आब्जर्वेशन) भी रहता है। इनमें व्यक्त उनके मतों को तो नजरंदाज किया जा सकता है, किंतु उनके द्वारा दिये गये तथ्यों को नहीं। क्योंकि इसका कोई कारण नहीं कि कोई राजदूत अपने देश को गलत तथ्य भेजे या गलत जानकारी दे। कौन ऐसा राजनयिक होगा, जो गलत जानकारी देकर अपने कैरियर के साथ् खिलवाड़ करेगा। उसे अपने पत्राचारों के लिए गोपनीयता का कवच इसीलिए प्रदान किया जाता है कि वह निर्भय होकर उस देश के बारे में तथ्यपरक ब्यौरा अपने देश को भेजे।

वर्ष 2004 से 2006 तक भारत के विदेश सचिव रहे श्याम सरन ने भी एक साक्षात्कार में विकीलीक्स की सामग्री को अधूरी चुनी हुई (सेलेक्टिव) अवश्य बताया है, लेकिन उसकी प्रामाणिकता पर कोई संदेह नहीं व्यक्त किया है। उन्होंने ‘आउट लुक‘ के साथ बातचीत में बताया कि दूतावासों से सूचनाएं भेजने वाला जिसे महत्वपूर्ण मानता है, उसे ही केबिल द्वारा भेजता है। यह एक या डेढ़ पेज का संक्षिप्त विवरण होता है, जिसमें प्रायः महत्वपूर्ण सारांक्षों को ही शामिल किया जाता है। ज्यादातर पत्राचार ई-मेल या खुले फैक्स पर चलता है, किंतु गोपनीय संदेशों के लिए ‘केबिल‘ का इस्तेमाल किया जाता है। यद्यपि उन्होंने यह भी बताया कि अमेरिका के साथ विभिन्न देशों के संपर्क की अतिगोपनीय सूचनाएं विकीलीक्स के हाथ् नहीं लगी हैं। सरकार से सरकार के बीच के गोपनीय आदान-प्रदान अतिगोपनीय की श्रेणी में आते हैं। चूंकि वे उजागर नहीं हुए हैं, इसलिए अमेरिका के साथ विभिन्न देशों के कूटनीतिक संबंधों को कोई गहरी क्षति नहीं पहुंची है। फिर भी विकीलीक्स जितना कुछ उजागर किया है, उतने से इस देश के तमाम राजनेताओं के मुखौटे तो जरूर उखड़ गये हैं। वे सत्ता पक्ष के हो या विपक्ष के, उनका राजनीतिक दोमुंहापन सप्रमाण सामने आ गया है।

कांग्रेस के दक्षिण के राजनेता उत्तर के बारे में क्या सोचते हैं, यह गृहमंत्री पी. चिदंबरम के वक्तव्य में सामने आया। गत शुक्रवार को उनके वक्तव्य को लेकर लोकसभा में भारी हंगामा हुआ। उत्तर भारतीय राजनीतिक दलों के नेताओं ने उनसे तत्काल इस्तीफा देने की मांग की। विकीलीक्स के एक केबिल के अनुसार चिदंबरम ने अमेरिकी राजदूत टिमोथी रोमर से कहा कि यदि इस देश में केवल दक्षिण व पश्चिम भारत ही होते, तो देश की कहीं अधिक प्रगति हुई होती। देश के शेष हिस्से (यानी उत्तर व पूर्वी भारत) के लोग इसे पीछे धकेल रहे हैं। समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव तथा राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव ने इस टिप्पणी पर गहरी आपत्ति की और इसे राष्ट्रीय एकता के खिलाफ बताया। यह मसला जब चिदंबरम के सामने लाया गया, तो उन्होंने इसका कोई खंडन नहीं किया और न यह कहा कि उन्होंने ऐसी कोई टिप्पणी नहीं की और टिमोथी रोमन ने उन्हें गलत उद्धृत किया है, बल्कि यह कहा कि ऐसे केबिलों को कोई महत्व न दें और यदि आप इस पर उनका बयान चाहते हैं, तो वह इसकी निंदा करते हैं।

विकीलीक्स द्वारा उजागर दस्तावेजों ने देश की परमाणु नीति और अमेरिका के साथ हुए परमाणु समझौते के संदर्भ में भाजपा के दोहरेपन को भी उजागर कर दिया है। एक केबिल के अनुसार पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अमेरिकी राजनयिक के साथ बातचीत में कहा कि उनकी पार्टी केवल आंतरिक राजनीतिक जरूरतों को देखते हुए अमेरिका के साथ परमाणु समझौते का विरोध कर रही है, अन्यथा वह उसकी समर्थक है। यह सही भी है कि भाजपा ने भी उस समय वामपंथी पार्टियों की तरह परमाणु समझौते के मुद्दे को सरकार गिराने का हथियार बना लिया था।

विकीलीक्स ने भाजपा के हिन्दुत्व की भी पोल खोल दी है। एक केबिल के अनुसार भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली ने अमेरिकी राजनयिक राबर्ट ब्लैक के साथ् बातचीत में बताया कि भाजपा का हिन्दू राष्ट्रवाद मात्र एक अवसरवादी राजनीतिक मुद्दा है। उन्होंने यह भी बताया कि पार्टी को उत्तर पूर्व क्षेत्र में इसका फायदा मिला है, क्योंकि बंगलादेशी घुसपैठिये मुसलमानों की बढ़ती संख्या के कारण वहां हिन्दू राष्ट्रवाद का नारा कारगर हुआ है, किंतु दिल्ली में इसका कोई असर नहीं है। ब्लैक ने इस तथ्यात्मक विवरण के साथ उसमें यह अपनी टिप्पण्ी भी लिखी है कि जेटली के पास ऐसा कुछ नहीं है, जो हिन्दुत्व के आधार पर ऋभाजपा को सक्रिय कर सके।

ये थोड़े से तथ्य हैं, जो इस देश के राजनेताओं का चरित्र उजागर करते हैं। 2008 में सरकार के लिए आवश्यक विश्वास मत अर्जित करने के लिए धन का सहारा लिया गया, जिस पर संसद में हुई चर्चा का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने केवल तथ्यों पर लीपापोती का काम किया। उन्होंने ध्यान बंटाने के लिए विपक्षी मोर्चे एन.डी.ए. के नेता लालकृष्ण आडवाणी पर अनर्गल टिप्पणी करते हुए कहा कि वह प्रधानमंत्री पद पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं, इसलिए जबसे मैं प्रधानमंत्री बना हूं, वह इसे पचा नहीं पा रहे हैं। आडवाणी तो अब तक कभी प्रधानमंत्री बने ही नहीं, तो उनका जन्मसिद्ध अधिकार कहां से आ गया। वह पहले प्रधानमंत्री रहे होते और मनमोहन जी ने उनसे छीन लिया होता, तो यह टिप्पणी चल सकती थी कि वह अपना प्रधानमंत्री पद पाने के लिए बेचैन हैं, इसलिए उनकी सरकार गिराना चाहते हैं। आडवाणी जी भी बेचारे क्या जवाब देते। वह चुपचाप सुनते रहे। जब परमाणु नीति पर वह स्वयं चुपचाप सुनते रहे। जब परमाणु नीति पर वह स्वयं दोहरी बात कर चुके थे और उनकी अपनी पार्टी के ही वरिष्ठ नेता यह आरोप लगाते रहे हैं कि वह प्रधानमंत्री पद पाने के लिए बेचैन हैं, तो प्रधानमंत्री की टिप्पणियां चुपचाप सुनते रहने के अलावा उनके पास चारा ही क्या था।

चौतरफा भ्रष्टाचारों के आरोप से घिरी सरकार भी चलती जा रही है और वह विपक्षी को चुनौती भी देरही है कि अभी कम से कम साढ़े तीन वर्ष तक इंतजार करें, तो ेवल इसलिए के देश के पास कोई विश्वसनीय राजनीतिक विकल्प नहीं है। संसद में जो विपक्ष दिखायी देता है, वह और लिजलिजा तथा बिना रीढ़ का है। उसके पास चरित्र बल होता, तो अब तक देश में मध्यावधि चुनाव की नौबत आ जाती। कॉमनवेल्थ् खेल घोटाले से लेकर 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, इसरो घोटाला, राडिया टेप कांड, सी.वी.सी. के पद पर भ्रष्ट अधिकारी की नियुक्ति से लेकर विकीलीक्स के खुलासों तक इतना सब हो जाने के बाद देश में कोई आंदोलन नहीं। समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि जिंदा कौमें 5 साल का इंतजार नहीं कर सकतीं। यदि सत्ता नाकारा है, तो वे उसे बदलने के लिए बीच में ही कमर कस लेती हैं। सत्ता परिवर्तन की कौन कहे, देश के भीतर नेता बदलने के लिए भी कोई जोर नहीं है। शायद किसी भी पार्टी को सत्ता तंत्र से भ्रष्टाचार मिटाने में कोई गंभीर रुचि नहीं है, उनकी रुचि केवल इतने में है कि भ्रष्टाचार के आरोपों से सत्ताधारी जनता में बदनाम हों, जिससे उनकी जगह उन्हें सत्ता में आने का अवसर मिल जाए। व्यवस्था सुधार में इसलिए रुचि नहीं है कि यदि व्यवस्था सुधर जाएगी, तो उनका भी अवसर समाप्त हो जायेगा।

विकीलीक्स के खुलासे भी जल्दी ही इतिहास की वस्तु बन जाएंगे और राजनीति चाहे अमेरिका की हो या भारत की, शायद वैसी ही आगे भी चलती जाएगी। लेकिन भ्रष्टाचार और दोहरेपन के खुलासों से इतना तो अवश्य हो गया है कि राजनीति के बारे में यह संदेह नहीं रह जायेगा कि यह कोई कुलांगना सी हो सकती है या यहां कोई देवता भी क्रीड़ा कर सकता है। यह वेश्या की नृत्यशाला ही है और यहां राक्षसी शक्तियां ही क्रीड़ा करती हैं, यह एक स्थापित तथ्य की तरह स्वीकृत हो जायेगा। लोग यह मान लेंगे कि सत्यता, सदाचार और न्याय की बात करने वाले दुधमुंहे बालकों को इसकी तरफ भूलकर भी रुख नहीं करना चाहिए। क्या ऐसे में कोई क्रांति चेतना जगेगी, जो इस व्यवस्था को ही तोड़ डाले, जिससे डरकर सत्य, न्याय और सदाचार कोने में जाकर दुबक जाते हों।

27/03/2011



रविवार, 13 मार्च 2011

अरब में उठी क्रांति से सिहर रहा चीन

लोकतंत्र की देवी : ‘चीनी सेंट्रल एकेडमी ऑफ फाइन आर्ट‘
छात्रों ने 1989 के आंदोलन के दौरान यह प्रतिमा बनायी
और थियानमेन चौक पर स्थापित की ।

चीनी सरकार अरब देशों के साथ अपने व्यापारिक संबंध तो बढ़ाना चाहती है, लेकिन वह नहीं चाहती की वहां से उठी ‘चमेली क्रांति' (जस्मिन रिवोल्यूशन) का कोई गंध प्रवाह उसकी धरती तक पहुंचे। चीन आज दुनिया की सबसे बड़ी उभरती शक्ति है। सैन्य बल और अर्थ बल में केवल अमेरिका उससे आगे है, लेकिन जल्दी ही शायद चीन उसे भी पछाड़ दे। चीन आज दुनिया की किसी भी शक्ति का मुकाबला कर सकता है, लेकिन डरता है तो केवल एक चीज से- वह है लोकतंत्र। लोकतंत्र का नाम सुनते ही वह कांप उठता है। यही इस ‘जस्मिन रिवोल्यूशन' को लेकर हो रहा है। चीन का पूरा शासन तंत्र इसका प्रभाव दूर रखने के प्रयास में लग गया है। उच्चस्तरीय बैठकें हो रही हैं। रणनीतियां बन रही हैं। लेकिन सवाल है चीन कब तक बचा पाएगा अपने को इस क्रांतिकारी हवा से।
इस महीने के पहले हफ्ते में ‘इंडियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित एक आलेख में क्लाइडे आर्पी ने नेपोलियन बोनापार्ट के इस कथन को उद्धृत किया है कि ‘चीन जब जागेगा, तो दुनिया कांप उठेगी' (ह्वेन चाइना अवेक्स, द वर्ल्ड विल ट्रेम्बल), लेकिन आज जब अरब जगत जाग उठा है, तो चीन कांपने लगा है। ट्यूनीशिया में पैदा हुई ‘चमेली क्रांति' (जस्मिन रिवोल्यूशन) ने चीनी ड्रैगन को विचलित कर दिया है। चीन- जिससे सचमुच दुनिया दहशत में है- दुनिया की किसी भी ताकत का मुकाबला कर सकता है, लेकिन लोकतंत्र का नाम सुनते ही डर जाता है। उसे सर्वाधिक डर अपनी युवा पीढ़ी से है, जो लोकतंत्र के लिए कब क्या कर बैठे, कुछ ठिकाना नहीं। उसे 1989 का थियानमेन चौक का नजारा भूला नहीं है, जब लाखों युवा छात्र लोकतंत्र की मांग को लेकर वहां उमड़ पड़े थे। उस समय के चीनी शासकों (राष्ट्रपति देंग शियाओपिंग तथा प्रधानमंत्री लीपेंग) ने इतनी क्रूरता के साथ उनका दमन किया था कि अब तक उस तरह का दुस्साहस करने की किसी को हिम्मत नहीं पड़ी, मगर अब ट्यूनीशिया में उगी चमेली की खुशबू एक बार फिर चीनी युवाओं को क्रांति की राह पकड़ने के लिए प्रेरित कर रही है।

चमेली (जसमिन) एक बेहद कोमल और मीठी गंध वाला पुष्प है। बेला, जूही, चमेली, मोगरा जैसे इसके अनेक नाम और किस्में हैं, लेकिन गंध कमोबेश एक सी मादक है। इसलिए अफ्रीका के पश्चिमोत्तर तट से लेकर यदि चीन सागर तक इसका प्रभाव दिखायी दे रहा है, तो कोई आश्चर्य नहीं। गंध की दृष्टि से यह शायद दुनिया का सर्वाधिक लोकप्रिय पुष्प है और उसमें भी अरब और एशियायी क्षेत्र में तो विशेषकर। उपनिवेशवादी युग की समाप्ति के बाद यद्यपि एशिया और अफ्रीका में लोकतंत्र की तेज हवा चली, लेकिन लोकतंत्र की खुशबू से अरबी और चीनी क्षेत्र दोनों वंचित रहे। अरब क्षेत्र में उपनिवेश युग की अवशिष्ट राजशाही ने कब्जा जमा लिया, तो चीन में कम्युनिस्ट तानाशाही आ धमकी। अरब जगत में शाही परिवारों ने अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए लोकतंत्र को फटकने नहीं दिया, तो चीनी कम्युनिस्ट हुक्मरानों ने दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बनने की महत्वाकांक्षावश अपने को खुली लोकतांत्रिक व्यवस्था से दूर रखा। खुला लोकतंत्र तीव्र आर्थिक व सैनिक विकास में हमेशा बाधक रहा है। चीन में लोकतंत्र होता, तो वह आज जिस स्थिति में पहुंच गया है, वहां कतई नहीं पहुंच सकता था।

सैन्य शक्ति में वह परिमाण के पैमाने पर भ्ले ही अमेरिका के बाद नं. दो पर हो, लेकिन अब ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहां चीन अमेरिका की बराबरी करने की स्थिति में न पहुंचा गया हो। अभी पिछली जनवरी में उसने स्टील्थ फाइटर जेट जे-20 का परीक्षण किया। अभी तक इस तरह का सैनिक विमान केवल अमेरिका के पास था। लाकहीड कंपनी द्वारा निर्मित एफ-22 रैप्टर। इस क्षेत्र में चीन की इस प्रगति से स्वयं अमेरिका भी चकित है। नौसेना के क्षेत्र में चीन के पास विमान वाहक पोत अवश्य एक ही है, लेकिन यह उसकी दरिद्रता नहीं, उसकी रणनीति का परिचायक है। चीन ने अपनी आक्रामक क्षमता पनडुब्बियों तथा मिसाइलों में केंद्रित कर रखी है। अंतरिक्ष युद्ध तकनीक में भी उसने अमेरिका की लगभग बराबरी कर ली है। चीन सैन्य शक्ति में अपनी प्रतिष्ठा के प्रति कितना महत्वाकांक्षी है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वह अपना सैन्य व्यय लगातार बढ़ाने में लगा है। चालू वर्ष 2011 में उसने अपने रक्षा व्यय में करीब 12.7 प्रतिशत की वृद्धि की है। नेशनल पीपुल्स कांग्रेस के एक प्रवक्ता के अनुसार 2011 का चीनी सैन्य बजट 600 अरब युआन (98.4 अरब डॉलर) से भी अधिक है।

आर्थिक प्रगति में उसकी विश्वव्यापी ख्याति है ही। दुनिया में सर्वाधिक तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था पूरी दुनिया को अपना बाजार बनाने में लगी है। अभी इस नई शताब्दी के शुरुआत में उसने अरब जगत से अपना संबंध बढ़ाने के लिए दुबई के निकट रेगिस्तान में ‘ड्रैगन मार्ट' नाम का एक विशाल व्यापार केंद्र स्थापित किया। रेगिस्तान में स्थित प्रमुख राजमार्ग के किनारे 1.2 किलोमीटर लंबाई में स्थित ‘ड्रैगन मार्ट' का उद्घाटन 2004 में हुआ। यह ‘मार्ट' अरब जगत में एक तरह से चीन की एक व्यापारिक चौकी है। यहां संगमरमर की पट्टिकाओं से लेकर बालों की चोटी तक और सूखी मछली से लेकर मिकी माउस टेलीफोन तक सब कुछ उपलब्ध है- और पश्चिम के या स्वयं खाड़ी क्षेत्र के बाजारों से कहीं अधिक सस्ता। इस मार्ट में 3950 थोक व फुटकर दुकानें हैं। यूनाइटेड अरब अमीरात से ‘मुक्त व्यापार समझौते' (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट) करने वाला शायद यह पहला देश है। ताजा आंकड़ों के अनुसार करीब 2 लाख चीनी एमिरेट्स में हैं और चीन की करीब 3000 कंपनियां वहां काम कर रही हैं। अरब जगत के साथ चीन का गैर तेल व्यापार भी 60 अरब डॉलर से उपर पहंुच चुका है।

अब यदि अरब जगत से इस तरह का आर्थिक संबंध विकसित हो रहा है, तो वहां की कुछ-कुछ राजनीतिक व सामाजिक हवा भी चीन पहुंचेगी। लेकिन पश्चिम से आने वाली इस राजनीतिक हवा से चीन बेचैन है।

चमेली पुष्प क्रांति की हवा ट्यूनीशिया से उठकर मिस्र होते हुए जब पूरे अरब विश्व में फैल गयी, तो उसका कुछ-कुछ झोंका चीन में महसूस किया जाने लगा। चीनी ‘सोशल ऐक्टिविस्ट' भी उससे प्रेरित हुए। उन्होंने भी इंटरनेट की मदद लेकर चीन के करीब एक दर्जन बड़े शहरों में रैली का आह्वान किया। इसकी खबर मिलते ही चीनी शासन आतंकित हो गया। इतना आतंकित कि पहली रैली की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति हू जिंताओ ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो की बैठक बुलायी। सरकारी संवाद समिति शिन्हुआ की रिपोर्ट के अनुसार इस बैठक में स्थाई समिति के सभी 9 सदस्य तो उपस्थित थे ही, उनके अलावा सभी प्रांतों के प्रशासन प्रमुख, सभी मंत्रालयों के मुखिया तथा वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों को भी आमंत्रित किया गया था। यद्यपि इस बैठक का सरकारी तौर पर घोषित एजेंडा ‘चीन की विदेश नीति को व्यवस्थित करना' था, लेकिन मुख्या विषय था कि कैसे चीन को पश्चिम एशिया जैसी अशांति का शिकार होने से बचाया जाए। ‘द स्ट्रेट्स टाइम' की रिपोर्ट के अनुसार इस बैठक में राष्ट्रपति हू ने कहा कि हमें देश में सामाजिक प्रबंधन को इस तरह मजबूत करना चाहिए, जिससे कि सी.सी.पी. (चीनी कम्युनिस्ट पार्टी) की सत्ता अक्षुण बनी रहे। राष्ट्रपति ने ‘सामाजिक प्रबंधन' (सोशल मैनेजमेंट) का आशय स्पष्ट करते हुए बताया कि इसका मतलब यह है कि हम समाज की सेवा और उसका नियंत्रण साथ-साथ करें। उसके असंतोष को दूर करें और उसे सरकार के निर्धारित मार्ग से विचलित होने से भी रोकें। ‘मैनेजिंग द पीपुल ऐज वेल ऐज सर्विंग देम' की यह नई अवधारणा वास्तव में लोगों को सरकार के साथ जोड़े रखने का उपाय है। इसके अंतर्गत मुख्य कार्य है उन तत्वों को प्रोत्साहन देना, जिससे सत्ता के सिद्धांतों के साथ समाज का सामंजस्य बढ़े तथा खटकने वाली बातों को दूर रखा जा सके।

उपर से नरम लेकिन भीतर से कठोर इस सामाजिक रणनीति को अपनाने का यह निर्देश इसलिए दिया जा रहा है कि फिर थियानमेन चौक जैसी स्थिति न पैदा होने पाए। आज के चीन की स्थिति 1989 के मुकाबले बहुत बदल चुकी है। आज की नई पीढ़ी का दमन उस तरह नहीं किया जा सकता, जिस तरह उस समय के प्रशासन ने किया था। आज उस तरह के दमन के बाद चीन शांत नहीं रह सकेगा, उसके कोने-कोने में आग लग जायेगी। जिस पर नियंत्रण प्राप्त करना चीनी सेना के लिए भी कठिन होगा। यों उपर से देखने पर चीन काफी शांत नजर आता है। तीव्र आर्थिक विकास की चकाचौंध के पीछे उसका सामाजिक असंतोष छिपा रह जाता है। लेकिन चीनी मीडिया की अपनी ही रिपोर्टों पर यदि नजर डालें, तो पता चलेगा कि पिछले एक-दो वर्षों में चीन में सामाजिक अशांति लगातार बढ़ने की ओर है। वर्ष 2009 के मुकाबले यदि 2010 की तुलना करें, तो पता चलेगा कि अशांति की बड़ी घटनाओं में 20 प्रतिशत की वृद्धि हुई। शंघाई के जियाओ टोंग विश्वविद्यालय ने चीन में सामाजिक अशांति पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसकी चीनी संकट प्रबंधन की वार्षिक रिपोर्ट से भी पुष्टि होती है। इन रिपोर्टों के अनुसार चीन की मुख्य भूमि (मिडिल किंगडम) में औसतन हर पांच दिन पर कहीं न कहीं सामाजिक अशांति (सोशल अनरेस्ट) की बड़ी घटना हो रही है। यह अशांति चीन के सभी 29 प्रांतों तथा शहरों (90 प्रतिशत से अधिक) फैली हुई है। हेनान, बीजिंग व गुआंगहो प्रांतों में यद्यपि सर्वाधिक ऐसी घटनाएं हो रही हैं, लेकिन कोई भी प्रांत पूरी तरह शांत या इससे अछूता नहीं है। इन घटनाओं की गंभीरता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इनमें से 43 प्रतिशत घटनाएं ऐसी रही हैं, जिनका समाधान करने में स्थानीय अधिकारी असफल रहे और उनमें केंद्रीय शासन को हस्तक्षेप करना पड़ा। भला हो इंटरनेट और उस पर आने वाले प्राइवेट ब्लॉग्स का कि चीनी अधिकारियों के छिपाने के बावजूद इनमें से करीब 67 प्रतिशत की जानकारी सार्वजनिक हो जाती हैं। 2009 में जहां 60 ऐसी बड़ी घटनाएं हुई, वहीं 2010 में बढ़कर यह संख्या 72 हो गयी। अब इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी क्यों अरबी क्रांति के प्रति इतनी सशंक हो उठी है।

पोलित ब्यूरो की बैठक में लंबी चर्चा के बाद तय किया गया कि पहले तो इंटरनेट पर सूचनाओं के प्रसारण पर नियंत्रण कायम किया जाए और जन अभिमत को निर्देशित करने या उसकी दिशा बदलने का काम किया जाए। राष्ट्रपति हू ने पश्चिम एशिया की स्थिति पर सारी चर्चाओं, बहसों तथा टिप्पणियों पर रोक लगाने को कहा। निर्णय लिया गया कि सारी स्वतंत्र रिर्पोटों को रोका जाए तथा ‘ब्लॉग्स', ‘माइक्रो ब्लॉग्स' तथा चर्चा मंचों (डिस्कशन फोरम) पर भी छन्नक (फिल्टर) लगाने की व्यवस्था की जाए। चीन में बाहर से आए विस्थापितों, प्रवासियों तथा अस्थाई रूप से आने-जाने वालों पर नजर रखने का निर्णय लिया गया। अगले ही दिन से मीडिया पर इन निर्णयों का प्रभाव दिखायी देने लगा। आंदोलन-प्रदर्शन की छोटी सी सूचना पर भी प्रशासन की सख्ती से साफ जाहिर था कि चीनी शासन इसको उगते ही कुचल देने के लिए तैयार है। ‘सिडनी मार्निंग हेरल्ड' की एक रिपोर्ट के अनुसार इंटरनेट पर जब यह सूचना प्रसारित हुई कि पूरे चीन में साप्ताहिक रैलियों का आयोजन किया जाए, तो बीजिंग के एक रैली स्थल पर चीनी पुलिस का जबर्दस्त दस्ता आ धमका और वह विदेशी मीडिया के लोगों को धक्के देकर वहां से हटाने लगा। कई को तो कुछ देर के लिए हिरासत में भी ले लिया गया। 21 फरवरी के ‘पीपुल्स डेली' के अनुसार चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो की सर्वशक्तिमान स्थाई समिति के एक सदस्य बू बंगुओ ने साफ कहा है कि हम चीन में बहुदलीय राजनीतिक प्रणाली लागू नहीं कर सकते। देश में कई निर्देशक सिद्धांत एक साथ नहीं चल सकते। हम संघवाद (फेडरलिज्म) तथा संपत्ति के निजीकरण पश्चिमी प्रणाली भी नहीं स्वीकार कर सकते। राष्ट्रीय तथा सार्वजनिक सुरक्षा के प्रभारी एक अन्य सदस्य ने भी पोलित ब्यूरो के निर्णयों की पुष्टि करते हुए बताया कि देश में एक त्वरित सूचना प्रणाली विकसित की जाएगी तथा समाज के विभिन्न स्तरों तथा वर्गों का एक ‘डाटाबेस‘ तैयार किया जायेगा। त्वरित सूचना प्रणाली द्वारा छोटे से छोटे असंतोष तथा विरोध की सूचना प्रशासन को पहुंच जाएगी, जो तत्काल उसके निराकरण की व्यवस्था करेगा। चीनी अधिकारियों की इस चिंता तथा उनकी युद्धस्तरीय तैयार से इसका साफ संकेत मिलता है कि लोकतंत्र के विचार से वे कितने चिंतित व भयभीत हैं, लेकिन यह सवाल अब चीन और चीन से बाहर भी हर जगह उठने लगा है कि आखिर चीन कब तक लोकतंत्र की हवा को अपनी सीमाओं के बाहर रोककर रख सकेगा। अरबी क्षेत्र में उठी क्रांति की आंधी के पीछे मुख्य रूप से नये इलेक्ट्रानिक युग का युवा समुदाय हैै। यह युवा समुदाय अब प्रायः पूरे विश्व में मुखर हो रहा है। चीन भी इस युवा-विश्व से बाहर नहीं है। इस युवा वर्ग के साथ ही वह इलेक्ट्रानिक संचार तकनीक भी विकसित हुई है, जिसने सूचना तंत्र पर राज्य के एकाधिकार को ध्वस्त कर दिया है। इस सूचना प्रवाह को रोक कर कोई भी देश या कोई भी राजनीतिक विचारधारा समूह अपने एकाधिकार की रक्षा नहीं कर सकता। चीन भी नहीं कर सकता। हू जिंताओ तात्कालिक स्तर पर भले ही इस युवा क्रांति को रोकने में सफल हो जाएं, लेकिन वे अधिक समय तक उसे रोके नहीं रख सकते। वह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा कसी गयी लौह श्रृंखलाओं को कभी भी तोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर सकती है। चीनी अधिकारी अभी भी इस क्रांति का बीज वपन करने के लिए अमेरिका को दोषी ठहरा रहे हैं, किंतु इस आरोप का खोखलापन पहले ही प्रकट हो चुका है, क्योंकि अरब जगत में सबसे पहले भड़की यह क्रांति अमेरिका के हित में तो कतई नहीं है। स्वयं अमेरिका भी इससे चिंतित है। ऐसा लगता है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का भी अंतिम समय अब निकट है। स्वयं उसका दमनचक्र इस समय को और नजदीक ला देगा।

13/03/2011

मंगलवार, 8 मार्च 2011

फिर पतंजलि आश्रम से उठी एक राजनीतिक क्रांति

राजनीतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध ऐलाने जंग : बाबा रामदेव

अब से करीब 2 हजार साल पहले भी महर्षि पतंजलि के आश्रम से क्रांति की एक ज्वाला उठी थी, जिसने देश में व्याप्त क्लैव्य और निराशा के विरुद्ध शौर्य और दीप्ति का नव संचार किया था। आज फिर पतंजलि योग पीठ से एक नव्य क्रांति ने जन्म लिया है, जिसने भ्रष्टाचार, अपसंस्कृति तथा राजनीतिक कदाचार के विरुद्ध देशव्यापी आंदोलन का रूप ले लिया है। उस ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी की क्रांति के कर्णधार थे सेनापति पुष्यमित्र शुंग, तो इस नवयुग की क्रांति के संवाहक है योग गुरु बाबा रामदेव, जिन्होंने गत 27 फरवरी की दिल्ली में आयोजित अपनी पहली रैली में बेईमानी की राजनीति के खिलाफ बाकायदे जंग का एलान कर दिया है।

गोनर्दीय महर्षि पतंजलि ने अपने समय में योग-दर्शन और व्याकरण शास्त्र का ही कीर्ति ध्वज नहीं स्थापित किया था, उन्होंने एक विराट राजनीतिक व सांस्कृतिक क्रांति भी की थी। उन्होंने क्लीव हो चले भारत वर्ष में चेतना व स्वाभिमान का मत्र भी फूंका था। अब यदि उनसे अनुप्राणित कोई व्यक्ति योग साधना के प्रचार के साथ देश में राजनीतिक व सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए भी निकल पड़ा हो, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।

ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी का वह काल इस देश में घोर निराशा का काल था, जब महान सम्राट अशोक के वंशज भी घोर विलासी, कायर और भ्रष्ट हो गये थे। देश का स्वाभिमान नष्ट हो चला था। विदेशी यवन हमलावरों ने पूरे मध्य देश को रौंद डाला था। बौद्ध मठाधीश अपने वर्चस्व के लिए विदेशियों को आमंत्रित करने में संकोच नहीं कर रहे थे। ऐसे में महर्षि पतंजलि ने ही परिवर्तन का बीड़ा उठाया था। शायद महाभाषण लिखने में भी उनका मन नहीं लग रहा था। उनका हृदय देश की दुरावस्था पर रोदन कर रहा था। तभी तो वह व्याकरण के नियमों का उदाहरण देते हुए भी देश की समकालीन स्थिति को ही रेखांकित कर रहे थे। महाभाष्य में अनद्यतन भूत (एडजसेंट पास्ट) का उदाहरण देते हुए महर्षि लिखते हैं ‘अरुणद यवनः साकेतम् अरुणद यवनः माध्यनिकाम‘। यवनों ने साकेत को रौंद डाला है, मध्य देश को रौंद डाला है। अशोक के वंशज मगधराज वृहद्र था का सेनापति पुष्यमत्रि शुंग पतंजलि के शिष्यों में था। व्रहद्रथ ’अहिंसा परमोधर्मः' का जप करने वाला एक कायर शासक था, जो परंपरा से प्राप्त राज्यश्री का उपभोग कर रहा था। देश किस विपत्ति से आक्रांत है, इसकी तरफ से आंख बंद किये हुए था। उसकी सेना मात्र शोभा की वस्तु बनकर रह गयी थी। सैनिक भी देश की दुरावस्था से चिंतित थे, लेकिन राज्यादेश के बिना वे क्या कर सकते थे। पतंजलि के आश्रम में भी चिंता थी, क्योंकि बाहरी आक्रमणों से देश की संस्कृति के लिए भी खतरा उत्पन्न हो गया था। सवाल किसी राज्य की रक्षा का नहीं, भरतीय अस्मिता की रक्षा का था। पतंजलि की दृष्टि में केवल पुष्यमित्र ही इस संकट का समाधान कर सकते थे। उन्होंने दायित्व शिरोधार्य किया और ईसा पूर्व 185 में सैनय स्कंधावार में परेड का निरीक्षण करते समय पूरे सैन्य बल के सामने पुष्यमित्र ने राजा वृहद्रथ का वध करके सत्ता शक्ति अपने हाथ में ले ली। सेना ने सेनापति पुष्यमित्र शुंग की जय जयकार की। आज की भाषा में इसे पतंजलि के आश्रम में हुए षड्यंत्र के परिणामस्वरूप मगध में हुआ सैनिक तख्ता पलट कहा जाएगा, लेकिन उस समय देश की सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा का यह एकमात्र उपाय था। इस कांड के पीछे पुष्यमित्र का कोई सत्ता लोभ नहीं था, यह इसी बात से प्रमाणित है कि उसने जीवन भर राजा की उपाधि धारण नहीं की। वह राज्य पर नियंत्रण के बाद भी सेनापति ही बना रहा और अपनी पहचान ‘सेनापति पुष्यमित्र शुंग‘ के रूप में ही बनाए रखी।

आज फिर पतंजलि आश्रम (योगपीठ) से एक भगवाधारी साधु निकला है। आज युग बदल चुका है, राजनीति व सत्ता का स्वरूप बदल चुका है, लेकिन संकट वही पुराना है- मूल्यों का संकट, अस्मिता का संकट। आज लोकतंत्र का युग है। लोकतंत्र में इस लोकतांत्रिक व्यवस्था का हर प्रबुद्ध नागरिक सैनिक है, इसलिए व्यवस्था परिवर्तन की बात इस नागर-सैन्य-स्कंधावार में ही की जाएगी। आज वृहद्रथ एक व्यक्ति नहीं, एक सहस्रानन समूह है। मूल्यनिष्ठ लोक शक्ति की संघटित उर्जा से ही इसका विनाश और आगे का पुननिर्माण संभव है। बाबा रामदेव नामधारी वह भगवाधारी साधु इसी उर्जा को जगाने का अभियान छेड़े हैं। परिणाम क्या होगा पता नहीं, लेकिन अभियान एक नये युग पथ का अनुसंधान करता है, इसमें दो राय नहीं।

बाबा रामदेव ने बीते रविवार 27 फरवरी को नई दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित अपनी पहली राजनीतिक रैली में (जिसमें करीब एक लाख लोग शामिल हुए) देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक जंग का एलान किया। उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू.पी.ए. सरकार को अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार करार दिया और कहा कि देश में 99 प्रतिशत भ्रष्टाचार की जिम्मेदार कांग्रेस ही है, जिसका देश में सर्वाधिक समय तक शासन रहा है। उन्होंने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को एक ईमानदार प्रधानमंत्री स्वीकार किया, लेकिन कहा कि वह नितांत भ्रष्ट नेताओं से घिरे हुए हैं। उन्होंने कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी पर सीधा प्रहार करते हुए कहा कि इस देश में केवल एक परिवार ने ही कोई त्याग बलिदान नहीं किया है, लेकिन देश की तमाम सरकारी योजनाएं उसी एक परिवार के नाम पर चलती हैं। महात्मा गांधी के नाम पर भी केवल एक योजना है। शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाषचंद्र बोस आदि के नाम से कोई योजना क्यों नहीं। भारत रत्न का हकदार इन शहीदों को क्यों नहीं माना गया। केंद्र सरकार तथा भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए बाबा ने एलान किया कि वह अपना भ्रष्टाचार विरोधी अभियान अहिंसा और शांति को अपनाते हुए चलाएंगे। यह अभियान किसी व्यक्ति के खिलाफ नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार, काला धन और भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ है। उनकी चेतावनी थी कि सरकार सुधर जाए, नहीं तो देश के एक करोड़ लोग दिल्ली आने के लिए तैयार हैं।

बाबा ने यह स्वीकार किया कि उन्हें मौत की धमकियां मिल रही हैं, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि बाबा को कोई मार नहीं सकता, क्योंकि वह स्वयं भ्रष्ट लोगों की मौत बनकर आया है। भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के द्वारा आयोजित बाबा की इस रैली, समाज चिंतक गोविंदाचार्य, वरिष्ठ वकील रामजेठ मलानी, स्वामी अग्निवेश, पूर्व आयकर आयुक्त विश्वबंधु गुप्ता, जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी, भाजपा सांसद व पत्रकार बलवीर पुंज, आई.टी.आई. एक्टिविस्ट अरविंद केजरीवाल, प्रख्यात समाजसेवी अन्ना हजारे, भागवत कथाकार विजय कौशलजी महाराज तथा चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह व राजगुरु के परिवार वाले लोग भी उपस्थित थे। विश्व बंधु गुप्ता ने रैली में बोलते हुए कहा कि विदेशों में काला धन जमा करने वाले जिन लोगों के नाम भारत सरकार को प्राप्त हुए हैं, उनमें बड़े उद्योगपतियों के ही नहीं, कई शीर्ष नेताओं के भी नाम हैं, इसी कारण सरकार उन नामों को सार्वजनिक करने से बच रही है। उन्होंने साफ कहा कि इन नेताओं में कांग्रेस के दो नेता केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री विलासराव देशमुख तथा सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल के नाम भी शामिल हैं। गुप्ता ने कहा कि गृहमंत्री पी. चिदंबरम विदेशी बैंक में दाउद कंपनी के करीबी हसन अली द्वारा एक लाख करोड़ रुपये जमा कराने के मुद्दे पर कार्रवाई करने वाले थे, लेकिन वे इसलिए चुप हो गये कि उनकी पार्टी के भी दो लोगों का नाम भी काला धन जमा करने वालों की सूची में उजागर हो गया।

बाबा ने इस दिन रैली के साथ-साथ राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाकिल तथा प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से मिलकर उन्हें भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्रवाई के लिए एक ज्ञापन सौंपने का कार्यक्रम भी रखा था। इसके लिए राष्ट्रपति की ओर से तो उन्हें समय मिल गया, लेकिन प्रधानमंत्री ने समय नहीं दिया। राष्ट्रपति को सौंपे गये ज्ञापन में 30 लाख लोगों के हस्ताक्षर के साथ मांग की गयी है कि भ्रष्टाचार के मुकाबले के लिए देश में कठोर कानून बनाये जाएं।

बाबा रामदेव का कांग्रेस के साथ सीधा द्वंद्व उनकी अरुणाचल प्रदेश की यात्रा के दौरान कांग्रेस सांसद निनांग एरिंग के साथ् हुए टकराव के बाद शुरू हो गया। बाबा अपनी भारत स्वाभिमान यात्रा कार्यक्रम के अंतर्गत पूरे देश का भ्रमण कर रहे हैं। इस यात्रा के दौरान आयोजित योग शिविरों में वह योग प्रशिक्षण व चरित्र निर्माण के उपदेश के साथ अपने राजनीतिक अभियान की भी बातें कर रहे हैं। इसी क्रम में वह अरुणाचल प्रदेश पहुंचे थे और पूर्वी सियांग जिले के पाशीघाट योग शिविर में बोल रहे थे। हर शिविर में वह योगाभ्यास के बाद देश को भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने तथ विदेशों में छिपाकर रखे गये 30 लाख करोड़ की संपत्ति भारत वापस लाने की बात करते हैं। उनका आरोप है कि विदेशी बैंकों के गुप्त खातों में देश के भ्रष्टाचारियों का 500 लाख करोड़ रुपया जमा है। वह सवाल करते हैं कि देश में स्विस बैंकों की 4 तथा इतालवी बैंकों की 8 शाखाएं खोलने की इजाजत क्यों दी गयी है। बाबा के प्रवचनों से क्षुब्ध ऐरिंग ने योग शिविर में ही आकर गालियां देनी शुरू कर दीं। उन्होंने बाबा को ‘ए ब्लडी इंडियन डॉग‘ कहा। यह केवल बाबा को गाली नहीं थी, बल्कि ‘इंडिया' (पांरपरिक भारत) को भी गाली थी। यह भारतीय परंपरा और संस्कृति को भी गाली थी। इस पर बाबा का तथा उनके समर्थकों का भड़कना स्वाभाविक था। इसके बाद बाबा ने कांग्रेस पर अपना हमला और तेज कर दिया। उन्होंने असम व नगालैंड आदि के शिविरों में और तीखे प्रहार किये। इस पर असम कांग्रेस के पार्टी प्रभारी महासचिव ठाकुर दिग्विजय सिंह मुकाबले के लिए सामने आए। उन्होंने बाबा पर जवाबी हल्ला बोला।

दिग्विजय सिंह ने कहा कि दूसरों पर काला धन इकट्ठा करने का आरोप लगाने के पहले बाबा स्वयं अपनी आमदनी और व्यवसाय का खुलासा करें। उनके पास 10 से भी कम वर्षों में उतनी संपत्ति कहां से आ गयी कि वह हरिद्वार में अपना विशाल आश्रम ही नहीं खड़ा कर लें, बल्कि यूरोप में एक पूरा द्वीप ही खरीद लें। बाबा ने इसका तीखा जवाब दिया। उनका कहना था कि उनके नाम न तो कोई बैंक खाता है, न एक इंच जमीन। जो कुछ है सब पतंजलि योगपीठ, दिव्य योग मंदिर तथा स्वाभिमान ट्रस्ट के नाम है। उन्होंने यह भी बताया कि योगपीठ और दिव्य योग मंदिर का कुल 1100 करोड़ का वार्षिक टर्न ओवर है, जिसका पैसे-पैसे का हिसाब है। उनके पास तो भी धन आया, वह लोगों द्वारा दिया गया दान है। वह हर वर्ष ऑडिट कराते हैं और सरकार जब चाहे उसकी जांच करा ले। इस पर दिग्विजय सिंह ने फिर अपना पैंतरा बदलते हुए कहा कि क्या वह यह बता सकते हैं कि उन्हें दान में काला धन नहीं दिया गया। क्या उस धन पर आयकर दिया गया है।

दिग्विजय सिंह की प्रेरणा से कांग्रेस की कुछ और इकाइयों ने बाबा पर हमला शुरू किया। पार्टी की अरुणाचल प्रदेश इकाई ने बाबा रामदेव से कहा कि वे अपनी ‘फंडिंग‘ का स्रोत बताएं। अरुणाचल प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता विशल पी. नाबान का आरोप था कि ाबा की यह यात्रा राजनीतिक योग का प्रचार मात्र बहाना है, उनका लक्ष्य राजनीतिक है। उत्तराखंड के कुछ कांग्रेसी विधायकों ने कहा कि बाबा को खुद अपनी संपत्तिायों की जांच का प्रस्ताव करना चाहिए, जिससे वह आरोपों से अपने को मुक्त कर सकें।

सवाल है कि कांग्रेस स्वयं क्यों नहीं बाबा की संपत्तियों की जांच कराने की कार्रवाई शुरू करती। कांग्रेस सत्ता में है। सत्ता की सारी मशीनरी उसके पास है। इसके लिए दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं को कोई बयान देने के बजाए सीधे सरकारी कार्रवाई शुरू कर देनी चाहिए। लेकिन सरकार शायद सीधी कार्रवाई से डरती है, क्योंकि यदि बाबा की संपत्तियों की जांच कार्रवाई शुरू की गयी, तो उसे देश की सैकड़ों अन्य संस्थाओं की जांच करानी पड़ेगी, जिनमें मुस्लिम व ईसाई संस्थाएं भी हैं। सरकार में यह साहस नहीं कि वह इन संस्थाओं की जांच करा सके, इसलिए वह बाबा की संस्था को भी छूते डरती है और केवल विरोधी प्रोपेगंडा करके बाबा की जबान पर अंकुश लगाना चाहती है।

इस पृष्ठभूमि में अपनी 27 फरवरी को दिल्ली रैली में बाबा बहुत खुलकर बोले। इस रैली में दिया गया उनका वक्तव्य निश्चय ही तिलमिला देने वाला था, लेकिन इसके जवाब में पार्टी के अधिकृत प्रवक्ताओं ने जो तर्क देना शुरू किया, वे इतने लचर हैं कि उन्हें किसी भी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता। दिल्ली रैली के बाद कांग्रेस के प्रवक्ता अभिषेक सिंघवी ने कहा कि ‘बाबा अध्यात्म से भटक कर सस्ती राजनीति करने लग गये हैं। भगवाधारी साधुओं को धर्म और राजनीति में घालमेल नहीं करना चाहिए। उन्हें समाज में अपनी प्रतिष्ठा का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। भगवाधारी लोग सोच-समझकर निर्ण लें कि उन्हें क्या बोलना चाहिए या क्या करना चाहिए, क्योंकि उसका समाज पर व्यापक असर पड़ता है।'

अभिषेक सिंघवी, भारतीय संस्कृति के एक पंडित पिता की संतान हैं, लेकिन शायद उन्हें उत्तराधिकार में वह संस्कृति बोध नहीं मिला है। भारतीय परंपरा में भगवा रंग संसार या समाज से पलायन का रंग नहीं, बल्कि उच्च संकल्पों का रंग है। यह अग्नि की तेजोमय लपटों से लिया गया है। भारतीय भगवा ध्वज भी अग्नि की उर्ध्वमुखी तिकोनी लपटों की अनुकृति है। इस देश में जब भी भ्रष्टाचार व अनाचार बढ़ा है, भगवाधारियों ने उसमें हस्तक्षेप किया है। भगवान व्यास, वशिष्ठ, विश्वामित्र, परधुराम जैसे पौराणिक काल के ही नहीं, आधुनिक काल के महर्षि पतंजलि विद्यारण्य स्वामी व समर्थ गुरु रामदास जैसे संतों ने राजनीतिक परिवर्तनों के लिए अपना पथ परिवर्तन किया। और लोकतंत्र में तो जिस किसी को वोट देने का अधिकार है, उसे राजनीति में हस्तक्षेप करने और अपनी भूमिका अदा करने का भी अधिकार है।

बाबा रामदेव किसी एकांतिक पारलौकिक साधना-उपासना वाले बाबा या सांप्रदायिक दीक्षा देने वाले बाबा नहीं है। वह किसी पारलौकिक सत्ता की कृपा या भ्य का भी उपदेश नहीं देते। इसलिए उनकी गणना अन्य सांप्रदायिक व दार्शनिक-धार्मिक गुरुओं में नहीं की जा सकती। वह शुद्ध लौकिक जीवन के उपदेष्टा है और लौकिक साधना से लौकिक-शारीरिक-मानसिक स्वाध्याय व समृद्धि की बातें करते हैं। बाबा ने योग साधना व स्वास्थ्य विज्ञान के प्रचार के साथ यदि अपना कोई औद्योगिक साम्राज्य खड़ा किया है, तो यह कोई संवैधानिक या कानूनी अपराध नहीं है। यदि इसमें कोई अपराध हो रहा हो, तो सरकार को उसकी जांच करानी चाहिए और देश के कानून के तहत सजा देनी चाहिए। बाबा यदि राजनीतिक सत्ता प्राप्ति की महत्वाकांक्षा पालते हों, तो यह भी कोई अपराध नहीं है। यदि यह अपराध है, तो देश के सारे राजनेता अपराधी हैं, क्योंकि वे तो सबके सब सत्ता की महत्वाकांक्षा वश ही राजनीति में हैं। और उस आकांक्षा को पूरा करने के लिए हर तरह के भ्रष्ट और अपराधिक तौर तरीके अपना रहे हैं। ऐसे में यदि बाबा रामदेव मूल्य आधारित किसी राजनीति का श्रीगणेश कर रहे हैं, तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए।

राजनीतिक भ्रष्टाचार सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता रहे, देश लुटता रहे, नागरिक अपनी विपन्नता पर रोते रहें और जिन्होंने भगवा धारण कर लिया हो, वे केवल पूजा पाठ, प्रवचन व आध्यात्मिक चिंतन में ही लगे रहे, वे राजनीति की तरफ आंख उठा कर न देखें, यह कोई स्वस्थ सलाह तो नहीं कही जा सकती। सच कहा जाए, तो देश जब संकट में हो तो साधु संतों को सबसे पहले उसकी रक्षा में आगे आना चाहिए और यदि न आएं, तो वे साधु-संत कहलाने के काबिल नहीं। अभी ‘आर्ट ऑफ लिविंग‘ के आचार्य श्री श्री रविशंकर ने भी बाबा रामदेव का समर्थन करते हुए काले धन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी आवाज उठायी है। उन्होंने कहा है कि यह दुर्भाग्य पूर्ण है कि सरकार उन लोगों को बचा रही है, जो काला धन छिपा रहे हैं। उन्होंने साफ कहा कि राजनीति मेरे जीवन का हिस्सा नहीं और कोई राजनीतिक पार्टी बनाने में भी मेरी रुचि नहीं, लेकिन हम सुधारकगण भ्रष्टाचार और सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष में पूरी तरह एक हैं। केवल सुधारकगण ही नहीं, आज इस देश, समाज व मनुष्यता के प्रति प्रेम व आस्था रखने वाला हर ईमानदार व प्रबुद्ध नागरिक बाबा के साथ है। आज यवनों ने नहीं, भ्रष्टाचार ने, अपसंस्कृति ने, बेईमानी ने, धोखाधड़ी ने इस पूरे देश को रौंद डाला है। महर्षि पतंजलि की राष्ट्र चेतना व धर्मचेतना (न्याय चेतना) एक बार फिर जागृत हो उठी है, माध्यम शायद सेनापति पुष्यमित्र शुंग की जगह इस बार रामदेव बन गये हैं। आशा की जानी चहिए कि अधिक कुछ नहीं, तो देश की राजनीति में एक चारित्रिक बदलाव लाने में तो अवश्य सफल होंगे।

6/03/2011



बुधवार, 2 मार्च 2011

किधर जा रहा है अरब जगत का यह आंदोलन ?

उत्तरी अफ्रीका से पश्चिम एशिया तक फैला  
अरबी संसार (पीले रंग से प्रदर्शित)
इस समय प्रायः पूरा अरब जगत आंदोलित है। दशकों से जमी तानाशाही के खिलाफ प्रायः पूरे अरब जगत की आम जनता उठ खड़ी हुई है। उसमें भी अग्रणी भूमिका युवा पीढ़ी की है। प्रायः हर देश में इस आंदोलन का नेतृत्व नई पीढ़ी के युवाओं के हाथ में है। वह अपनी सरकार खुद चुनने और पसंद न आए, तो उसे बदलने का अधिकार चाहती है। इसके लिए वह कोई भी कुर्बानी देने के लिए तैयार है। ज्यादातर देशों की तानाशाहियां अब भी अड़ी हैं, लेकिन उनका जाना अवश्यम्भवी है। लेकिन सवाल है उनकी जगह लेने के लिए आने वाले लोकतंत्र कैसा होगा ? उसका चरित्र क्या होगा ? क्या वास्तव में उसे लोकतंत्र कहा जा सकेगा?

 
इन दिनों प्रायः पूरा अरबिस्तान यानी अरबी संसार (अरब वर्ल्ड) उत्तरी अफ्रीका से पश्चिमी एशिया तक- आंदोलित है। एकाएक वहां एक ऐसी युवा क्रांति भड़क उठी है कि शेखों, शाहों, अमीरों तथा तानाशाह राष्ट्रपतियों की गद्दियां डांवाडोल हो गयी हैं। ट्यूनीशिया और मिस्र जैसे दो ताकतवर देशों के राष्ट्रपतियों को इस आंदोलन के दबाव में देश छोड़कर भागना पड़ा है, बाकी में भी दबाव की हवा लागातार तेज होती जा रही है। लीबिया, यमन व बहरीन जैसे देशों में अब इस हवा ने आंधी का रूप धारण कर लिया है, लेकिन इन देशों के शासक ट्यूनीशिया या मिस्र का अनुकरण करने के लिए तैयार नहीं हैं। लीबिया के राष्ट्रपति कर्नल मुआम्मर अल गद्दाफी ने तो अपनी गद्दी बचाने के लिए क्रूर दमनचक्र चलाना शुरू कर दिया है। यद्यपि इसका विरोध पूरे अरब जगत में हो रहा है, अमेरिका भी चेतावनी दे रहा है, लेकिन गद्दाफी झुकने के लिए तैयार नहीं है। गद्दाफी अरब जगत के अनूठे नेता हैं। वह न तो अरबी शाही खानदान के प्रतिनिधि हैं, न किसी राजनीतिक बदलाव की देन। वह सैनिक तख्ता पलट करके सत्ता में आने वाले सैनिक अधिकारी हैं। इसीलिए उन्होंने अपने देश की सेना का संगठन ऐसा नहीं किया, जो कभी तख्ता पलट कर सके। उनकी नियमित सेना न तो ठीक से प्रशिक्षित है और न उसके पास अच्छे हथियार ही हैं। उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिए कई और तरह की सेनाएं बना रखी हैं, जो निजी तौर पर केवल उनके प्रति वफादार हों, देश के प्रति नहीं। इसलिए उनकी यह निजी सेना ही उनका बचाव करने और विद्रोहियों पर हमला करने में लगी है। इस निजी सेना के नियोजित हमलों के कारण् ही लीबिया में अब तक 400 से अधिक आंदोलनकारी मारे जा चुके हैं। यह बात अलग है कि ऐसे हमलों के बावजूद विद्रोह और उग्रतर होता जा रहा है तथा गद्दाफी स्वयं कमजोर पड़ते दिखायी दे रहे हैं। वे अपने हठवश कुछ दिन और टिके भले रह जाएं, लेकिन आगे अधिक समय तक सत्ता में बने रह पाना उनके लिए असंभव है। उनकी 42 वर्ष की सत्ता का अंत अब निकट ही है। अन्य देशों के शासक भी अपने को बचाने की कोशिश में लगे हैं, लेकिन कब तक बचाये रख सकेंगे, यह कहना कठिन है।

दो महाद्वीपों में फैले इस अरबी संसार में करीब 22 देश आते हैं, जिनकी कुल आबादी लगभग 36 करोड़ है। इन अरब देशों की पहचान किसी एक नस्ल या रेस से नहीं, बल्कि एक भाषा ‘अरबी‘ से है। दुनिया के कुल करीब डेढ़ अरब मुसलमानों में से चौथाई से भी कम अरबी भाषी हैं या अरब क्षेत्र के निवासी हैं, लेकिन इस्लाम धर्म /मजहब/ की भाषा या कुरान की भाषा अरबी होने के कारण प्रायः पूरे इस्लामी विश्व पर अरबों का वर्चस्व है। इनके बीच अरबी राष्ट्रवाद का उदय 19वीं शताब्दी में ओटोमान साम्राज्य के पतन के साथ शुरू हुआ। 1945 में अरब लीग का गठन हुआ, जिसका लक्ष्य अरबी हितों के सरंक्षण के लिए अरबी विश्व का एकीकरण था। इसके साथ ही ‘इस्लामी विश्व' (पैन-इस्लामिज्म) की आधुनिक अवधारणा ने जन्म लिया। इसके समानान्तर ही अरब जगत में वहाबी आंदोलन भी शुरू हुआ, जिसका विस्तार दक्षिण् एशिया यानी हिन्दुस्तान तक हुआ।

इस पूरे अरब जगत का मुख्य धर्म (मजहब) इस्लाम है, इसलिए अरबी शक्ति, इस्लामी शक्ति का पर्याय है। इस्लाम इनमें से कई अरब राष्ट्रों का घोषित धर्म है और उनकी कानून व्यवस्था में भी सुन्नी इस्लाम का वर्चस्व है। केवल इराक और बहरीन दो ऐसे देश हैं, जहां शिया मुसलमानों का बहुमत है। किन्तु अभी अमेरिकी हमले के समय तक इराक में शासन सुन्नियों का ही चल रहा था। बहरीन में भी सत्ता सुन्नियों के ही हाथ में है। लेबनान, यमन व कुवैत में भी शिया काफी बड़ी संख्या में हैं, लेकिन अल्पमत होने के कारण उनका राजनीति में कोई स्थान नहीं है। मिस्र, सीरिया, लेबनान, इराक, जार्डन, फिलिस्तीन व सूडान में थोड़े ईसाई भी निवास करते हैं। पहले थोड़े यहूदी भी इन क्षेत्रों में रहते थे, लेकिन इजरायल की स्थापना के बाद कुछ स्वयं भग कर वहां चले गये, तो कुछ को वहां से मारपीट कर भगा दिये गये।

ओटोमान साम्राज्य के पतन के बाद यह पूरा अरब क्षेत्र यूरोपीय देशों का उपनिवेश बन गया, किंतु द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब इस उपनिवेशवाद के पांव उखड़ने लगे, तो ये औपेनिवेशिक इकाइयां स्थानीय अभीरों या यूरोपीय साम्राज्यवाद के पिट्ठुओं के नेतृत्व में अलग-अलग राष्ट्रों के रूप में सामने आ गयीं। इनके अरबी साम्राज्यवाद (पैन अरबिज्म) के सपने ने भी 1980 के दशक में बदलकर इस्लामी साम्राज्यवाद (पैन इस्लामिज्म) का रूप ले लिया, लेकिन वह आगे नहीं बढ़ पाया, क्योंकि इनके शासकों ने अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए अमेरिका की शरण ले रखी थी। इस बीच पीढ़ियां बदलीं, लेकिन अमेरिका ने अपनी पुरानी नीति बदलने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। उसने यह नहीं देखा कि नई पीढ़ी में नया इस्लामी जोश आने के साथ-साथ अपने शासकों की संवेदनहीनता, ऐय्याशी व भ्रष्टाचार के विरुद्ध आक्रोश भी पनप रहा है।

कहने को वर्तमान आंदोलन ट्यूनिश के एक शिक्षित किंतु बेरोजगार नवयुवक की आत्महत्या पर फूट पड़े आक्रोश का विस्तार है, किंतु उक्त आत्महत्या तो एक बहाना थी। आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार थी। बस उसे एक चिंगारी की जरूरत थी और फिर आंदोलनों का एक श्रृंखलाबद्ध विस्फोट शुरू हो गया। दुनिया इस विराट आंदोलन के मूल कारण को नहीं समझ पा रही है। समझना कठिन भी है, क्योंकि इसके पीछे कोई एक अकेला कारण नहीं है। अनेक कारणों के सम्मिलित प्रभाव से यह विस्फोट संभव हुआ है। शासकों की दीर्घकालिक तानाशाही तो एक कारण है ही, लेकिन इसके साथ ही ‘पैन इस्लामिक' भावना का विस्तार, अमेरिका का धीरे-धीरे अरब जगत से अपना हाथ खींचना, संसार की नई टेक्नोलॉजी की उपलब्धता (एस.एम.एस., फेसबुक, सहित पूरा इंटरनेट का संचार तंत्र, जिस पर किसी सरकार का नियंत्रण नहीं है) तथा औद्योगिक विकास आदि की भी इसमें बड़ी भूमिका है।

पूरे आंदोलन में युवा शक्ति के निर्भीकतापूर्वक आगे रहने के कारण ही इस आंदोलन का चरित्र समझ पाना कठिन हो रहा है। इसे नेतृत्व देने में न कोई राजनीतिक नेता सामने है, न मजहबी नेता। जुलूसों में ‘अल्लाहो अकबर' (ईश्वर महान है) के नारे अवश्य लग रहे हैं, लेकिन युवाओं को संबोधित करने वाले कोई मुल्ला मौलवी नहीं हैं। भाषणों में कुरानों की आयतें नहीं, बल्कि ट्यूनीशिया के कवि द्वारा रचित ‘रईस लेबलेड‘ शीर्षक गीत की पंक्तियां गायी जा रही हैं (मि. राष्ट्रपति तुम्हारी जनता मर रही है/ लोग कचरा खा रहे हैं/ देखो क्या हो रहा है/ चारों तरफ दुख ही दुख है/ मि. प्रेसीडेंट/ मुझे बोलने में डर नहीं है/ यद्यपि जातना हूं कि इससे मैं मुसीबत में पड़ सकता हूं/ लेकिन मैं देखता हूं/ चारों तरफ अन्याय फैला हुआ है)। ट्यूनीशिया से बहरीन तक सारा विद्रोह स्वतः स्फूर्त लगता है। हर जगह युवा स्त्री-पुरुषों का समूह उसे नेतृत्व दे रहा है। वे सभी आंदोलन के विस्तार के लिए आधुनिक उपकरण इस्तेमाल कर रहे हैैं। वे आंदोलन के विस्तार के लिए इंटरनेट के ‘सोशल नेटवर्किंग साइट्स‘ तथा मोबाइल की एस.एम.एस. सुविधा का इस्तेमाल कर रहे हैं। और इन सारे युवक युवतियों की एक ही मांग है- अपना शासन चुनने या उसे बदलने का अधिकार, भ्रष्टाचार का अंत और रोजगार के अवसरों का विस्तार। इसका अर्थ है, उन सबकी मांग है लोकतंत्र। मीडिया के साथ संपर्क में प्रायः हर देश के आंदोलनकारी युवा वर्ग का कहना है कि हमें केवल इतना चाहिए कि हम जिसे नापसंद करते हैं, उसे बदल सकते हैं।

इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह पूरा आंदोलन लोकतंत्र का समर्थक है। दुनियाभर के लोकतंत्रवादी इससे प्रसन्न हो सकते हैं कि इस्लामी अरब जगत में भी लोकतंत्र की हवा फैल रही है। वहां यदि लोकतंत्र आ गया, तब फिर दुनिया संस्कृतियों के बीच युद्ध के भय से मुक्त हो जाएगी, इस्लामी आतंकवाद का अंत हो जाएगा और जगत पर चलने वाली अमेरिकी दादागिरी का भी अंत हो जाएगा।

लेकिन ऐसा नहीं है। यह लोकतंत्र की मांग इस्लामी राष्ट्रों के आंतरिक लोकतंत्र की मांग है, जिसमें कोई एक व्यक्ति या कोई शाही परिवार सेना के बल पर अपनी तानाशाही न चला सके। यह लोकतंत्र केवल अपनी मर्जी का नेता चुनने तक सीमित है। इस लोकतंत्र में मानवाधिकारों, आधुनिक न्याय प्रणाली, सांस्कृतिक सहिष्णुता, बहुसांस्कृतिक राजनीतिक व्यवस्था तथा मजहबी रुढ़ियों से मुक्ति का कोई अवसर नहीं है। जो आंदोलनकारी युवा इस समय सड़कों पर नारे लगा रहा है, वह किसी भी तरह संगठित नहीं है, न वैचारिक तौर पर, न राजनीतिक तौर पर। जाहिर है जब चुनाव होंगे, तो वर्तमान संगठित शक्तियां ही इसका लाभ उठाएंगी। असंगठित वर्ग स्वतः उन्हीं के बीच ध्रुवीकृत हो जाएगा। अभी प्रायः इन सारे देशों में सत्ता पाने की ताक में बैठी शक्ति इस्लामी राजनीति में विश्वास करने वाली है। जिस तरह पूरे अरब जगत में एक साथ यह आंदोलन उठ खड़ा हुआ है, उसके पीछे निश्चय ही कोई न कोई सूत्रधार हैं, अन्यथा स्वतः स्फूर्त आंदोलन इतना व्यापक कभी नहीं हो सकता। यदि प्रत्येक देश के आंदोलन पर गहरायी से दृष्टि डाली जाए, तो यह आसानी से पता चल जाएगा कि यह आंदोलन अपने परिणाम में कौनसा स्वरूप ग्रहण करने वाला है। उदाहरण के लिए फारस की खाड़ी के छोटे से देश बहरीन को ले सकते हैं। मुस्लिम देशों में यह शायद सर्वाधिक आधुनिक देश है। यहां खुलापन है, समृद्धि है, जीवन तथा शिक्षा का स्तर उंचा है। क्षेत्रीय बैंकिंग प्रणाली का गढ़ भी बहरीन ही है। बहरीन में चिकित्सा मुफ्त है या बहुत कम कीमत पर उपलब्ध है। बेरोजगारी 4 प्रतिशत से भी कम है। बहरीन में अब संसदीय राजशाही है। यद्यपि यहां गत 2 शताब्दियों से सुन्नी-अल खलीफा वंश् का शासन चला आ रहा है, लेकिन अब वह केवल प्रतीकात्मक रह गया है। वर्तमान शाह हमद ने एक दशक पूर्व जब शासन संभाला, तो उन्होंने महिलाओं को न केवल वोट देने, बल्कि राजनीतिक पद ग्रहण करने का भी अधिकार दिया। सवाल है कि फिर ऐसे देश में उस तरह का आंदोलन क्यों भड़क उठा, जैसा लीबिया व मिस्र में भड़क उठा था। लीबिया के लोग बहरीन में ही मारे गये हैं।

अब यदि हाल के दशकों की राजनीति को देखें, तो पता चलेगा कि बहरीन की समस्या लोकतंत्र से ही पैदा हो गयी है। बहरीन में राजनीतिक सुधारों की मांग 1990 से ही चल रही है, किंतु 1999 में जब शाह हमद ने अपने पिता के बाद सत्ता संभाली, तो उन्होंने अनेक लोकतांत्रिक सुधार किये। उन्होंने करीब 27 सालों से प्रतिबंधित संसद को बहाल किया, गिरफ्तार शिया नेताओं को रिहा किया (बहरीन में 70 प्रतिशत शिया आबादी है, लेकिन शासन सुन्नी राजवंश के हाथ में है) तथा संवैधानिक सुधार भी किये। इस सबका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि एक ताकतवर शिया राजनीतिक पार्टी ‘अल वफाक' का जन्म हुआ। 2006 में यह पार्टी संसद की 40 में से 18 सीटें जीतकर सबसे बड़ी इस्लामी पार्टी के रूप में सामने आयी। जबसे यह पार्टी सत्ता में आयी, तो इसने पहले तो बहरीन में रह रहे दक्षिण एशियायी लोगों के साथ भेदभाव शुरू किया। बहरीनी उन्हें परेशान करने लगे। देश में इस्लामी कट्टरपन लागू करने की प्रक्रिया शुरू हुई। यहां तक कि अल वफाक के एक नेता ने संसद से यह प्रस्ताव पारित कराने की कोशिश की कि बहरीनी एपार्टमेंट्स में खिड़कियां ऐसी बनायी जाएं, जिससे बाहर न देखा जा सके। अल वफाक चाहता है कि औरतों और परिवार की भूमिका के बारे में नियम बनाने का अधिकार मजहबी नेताओं को सौंपा जाए, क्योंकि ये मजहब से जुड़े मसले हैं। इसने सेकुलर महिला अधिकार आंदोलन के खिलाफ एक देशव्यापी अभियान की शुरुआत की। अभी 2009 में पार्टी ने उस कानून को अस्वीकार कर दिया, जिसमें लड़की के विवाह की न्यूनतम आयु 15 वर्ष निर्धारित की गयी थी। तर्क यह था कि यह कानून इस्लाम के खिलाफ है।

केवल बहरीन ही नहीं, अन्य देश भी इसके उदाहरण है कि लोकतंत्र को इन देशों में कट्टरपंथी इस्लामी ताकतों द्वारा एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। मिस्र में होस्नी मुबारक ने 2005 में बहुदलीय चुनावों की शुरुआत की। इसका परिणाम हुआ कि मिस्री संसद में ‘मुस्लिम ब्रदरहुड' पार्टी की सदस्य संख्या शून्य से बढ़कर 88 पर पहुंच गयी और वह देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन गयी। अन्य सुधारवादी संगठनों को उसकी आधी सीटें ही मिल पायीं। बहरीन में लोकतंत्र लागू होने पर वास्तविक सुधारवादी पार्टियां जैसे पुरानी बाथ पार्टी, पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी, मुकाबले में पिछड़ गयीं और अल वफाक सबसे आगे निकल गयी, क्योंकि यह शिया मजहब की पार्टी थी, जिसकी जनसंख्या वहां करीब 70 प्रतिशत है। लेबनान व गाजा पट्टी में हुए लोकतांत्रिक चुनावों के परिणाम इससे भिन्न नहीं हैं। आज के समय गाजा पट्टी में हमाज जैसी कट्टरपंथी संगठन का बहुमत है, तो लेबनान में हिजबुल्ला का, जो कट्टरपंथी शिया संगठन है। अभी ट्यूनीशिया का उदाहरण भी सामने आ गया है। वहां अभी गत 20 फरवरी को लोग यह देखकर चकित रह गये कि राष्ट्रपति आबेदीन बेन अली के भाग जाने के बाद भी आंदोलन शांत नहीं हुआ है और हमलावर भीड़ को नियंत्रित करने के लिए सेना के हेलीकॉप्टर व सुरक्षा बलों को आमंत्रित करना पड़ा। न्यूयार्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसारयह भीड़ राजधानी ट्यूनिस के वेश्यालयों पर हमला करने जा रही थी। भीड़ ‘अल्लाहो अकबर' का नारा लगाते हुए यह नारा भी लगा रही थी कि इस्लाम में वेश्यालयों के लिए कोई जगह नहीं है। ट्यूनीशिया भी अरब जगत का एक आधुनिक शहर है, जहां बहुविवाह पर रोक है, गर्भपात को कानूनी मान्यता है, औरतें समुद्र तट पर बिकनी पहनकर घूमती हैं तथा सुपर मार्केट में शराब खुले आम बिकती है। अब यहां जब भी चुनाव होंगे, तो तय है कि कोई कट्टरपंथी इस्लामी पार्टी ही सत्ता में आएगी।

ये मामूली उदाहरण हैं। प्रायः पूरे अरब जगत में कट्टरपंथी शक्तियां ही आंदोलनों को बढ़ावा देने में लगी हैं। वहां युवाओं में तानाशाही के प्रति आक्रोश अवश्य है, लेकिन वह आक्रोश इसलिए अधिक है कि ये तानाशाह इस्लामी राजनीति के आगे आने में बाधक हैं और अमेरिका के हाथ की कठपुतली बने हुए हैं, जो मुस्लिम देशों पर हमला कर रहा है। अरब देशों के शासनाध्यक्षों के अमेरिका परस्त होने के कारण ही अब इस्लामी जगत का नेतृत्व उनके हाथ से खिसककर ईरान के हाथ में आ रहा है। इस्लामी कट्टरपंथी जमातों में अब शियाओं का वर्चस्व बढ़ रहा है। इसलिए जाहिर है अरब जगत में उठ रही लोकतंत्र की मांग मात्र से अरबी राजनीति का चरित्र नहीं बदलने जा रहा है। बल्कि इससे सहिष्णु, बहुसंस्कृतिवादी तथा मानवीय वैयक्तिक स्वतंत्रता व न्याय के समर्थक आधुनिक लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा ही खड़ा होने वाला है। केवल चुनाव प्रणाली का लागू हो जाना ही लोकतंत्र नहीं है। जहां न्याय, सहिष्णुता, समानता तथा वैयक्तिक व वैचारिक स्वतंत्रता उपलब्ध हो, वह राजशाही अच्छी है, लेकिन यदि इन सबका निषेध हो, तो उस लोकतंत्र का किसी भी तरह स्वागत नहीं किया जा सकता।

27/03/11