रविवार, 30 जनवरी 2011

मध्य पूर्व के अरब देशों में फैली विद्रोह की आग

मिस्र के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक का
पोस्टर फाड़ते हुए प्रदर्शनकारी
मध्य पूर्व (मिडिल ईस्ट) के देशों में इन दिनों अमेरिका समर्थित तानाशाहियों के खिलाफ भड़की विद्रोह की इस आग ने ट्यूनीशिया के बाद अब मिस्र, जार्डन, यमन अलजीरिया आदि को भी अपनी चपेट में ले लिया है। सउदी अरबिया भी जल्दी ही इसके घेरे में आने वाला है। अमेरिका हक्का-बक्का है। उसे समझ में नहीं आ रहा है कि इस स्थिति से कैसे निपटा जाए। अभी करीब दो सप्ताह पूर्व ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति ने भागकर सउदी अरब में शरण ली। मिस्र के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक तो जमे हैं, लेकिन उनके बेटे अपनी बहू व बेटी के साथ लंदन भाग गये हैं। यमन के राष्ट्रपति भी भागने की तैयारी में हैं। लेबनान की सत्ता पर ईरान समर्थित हिजबुल्ला ने पहले ही कब्जा जमा लिया है। कहने को यह आंदोलन निरंकुश तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र की आकांक्षा से प्रेरित है, लेकिन वास्तविकता यह है कि इसका पूरा नेतृत्व कट्टरपंथी इस्लामी ताकतों के हाथों में आ गया है।



मध्य पूर्व के अरब देशों में तहलका मचा है। ट्यूनीशिया के तानाशाह राष्ट्रपति के खिलाफ भड़के विराट आंदोलन की सफलता ने खाड़ी के कई देशों में आंदोलन की आग लगा दी है। सबसे सीधा और भारी असर पड़ोसी देश मिस्र पर पड़ा है। यों जार्डन, यमन तथा अल्जीरिया में भी सरकार विरोधी प्रदर्शन तेज हो गये हैं। इस पूरे आंदोलन की सर्वाधिक रोचक और उल्लेखनीय बात यह है कि इन सारे आंदोलनों का अकेला सूत्रधार है एक टी.वी. न्यूज चैनल अल-जजीरा। इस चैनल ने पूरी अरबी दुनिया को एक सूत्र में बांध दिया है। ट्यूनीशिया की क्रांति को सफल बनाने में एकमात्र भूमिका इस चैनल की है। इसने विद्रोह को न केवल भड़काया, बल्कि उसे दिशा भी दी। 1996 में कतर के अमीर शेख हमद बिन खलीफा अल थानी द्वारा स्थापित इस चैनल ने गत 15 वर्षों में अमेरिका समर्थित अरब देशों के खिलाफ वातावरण बनाने में असाधारण भूमिका अदा की है। उसने न केवल अरबों का दुख दर्द बांटा, बल्कि उनके राजनीतिक संकट में साथ भी दिया और इसके साथ ही पूरे अरब जगत में एक कोने से दूसरे कोने तक साझा संघर्ष की भूमिका भी तैयार की। जार्ज वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में मध्य-पूर्व (मिडिल ईस्ट) के अध्येता एक प्रोफेसर मार्क लिंच के अनुसार अल जजीरा के बिना यह सब नहीं हो सकता था।

ट्यूनीशिया में भड़के विद्रोह के परिणामस्वरूप वहां के तानाशाह राष्ट्रपति जिन-एल-आबिदीन बेन अली सबसे करीब 2 सप्ताह पूर्व गत 14 जनवरी को अपना माल मत्ता समेटकर वहां से भाग निकले और सउदी अरबिया में आकर शरण ली। ट्यूनीशिया के प्रधानमंत्री किसी तरह स्थिति को संभालने की कोशिश में लगे हैं। उन्होंने देश में लोकतंत्र स्थापित करने का आश्वासन दिया है। पुरानी सरकार के अधिकांश मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया है। प्रधानमंत्री ने जनता को विश्वास दिलाया है कि उनकी वर्तमान सरकार केवल एक अस्थाई सरकार है, जिसका लक्ष्य देश में यथाशीघ्र चुनाव कराकर सत्ता निर्वाचित प्रतिनिधियों के हवाले कर देना है। यद्यपि देश में आंदोलन अभी भी पूरी तरह थमा नहीं है, लेकिन आंदोलनकारी नेता अपनी सफलता से प्रसन्न हैं और इस बात से आश्वस्त हैं कि अब देश में लोकतंत्र का आना तय है। जिने एल आबिदीन बेन अली ने 1987 में ट्यूनीशिया की सत्ता संभाली थी। तब से वह अमेरिकी समर्थन से अपनी सरकार चलाते आ रहे थे।

ट्यूनीशिया के बाद अब यमन के राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला सलेह भी देश छोड़कर भागने की तैयारी में हैं। सलेह 1978 में भारी अशांति के बीच उत्तरी यमन के राष्ट्रपति बने थे। उनके पहले के दो राष्ट्रपतियों का शासन उनकी हत्या के साथ समाप्त हुआ था। सलेह ने भी अपनी सरकार में अपने परिवारीजनों को ही भर रखा है। इधर वह अपने बेटे अहमद को अपना राजनीतिक उत्तराधिकार सौंपने वाले थे, लेकिन तभी ट्यूनीशिया का असर यहां भी पड़ गया। उग्र आंदोलन के बीच सलेह ने घोषणा की है कि उनका अपने बेटे को राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने का कोई इरादा नहीं है। उन्होंने यह विश्वास दिलाने की कोशिश की है कि वह देश में राजनीतिक सुधारों के लिए तैयार हैं। लेकिन राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार आंदोलनकारी शायद ही इससे संतुष्ट हों। वे सलेह के शासन का अंत चाहते हैं। इसलिए सलेह को भी शायद ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति का ही रास्ता अपनाना पड़े।

ट्यूनीशिया के विद्रोहियों की सफलता का मिस्र पर एकाएक जिस तरह का प्रभव पड़ा है, उसकी तो कल्पना करना भी कठिन था। मिस्र के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक की सरकार चकित है। यद्यपि वह स्वयं आंदालनकारियों का मुकाबला करने के लिए टिके हैं, लेकिन उनके बेटे अपनी बहू व बेटी को लेकर ब्रिटेन भाग गये हैं। कहा जा रहा है कि वह अपने साथ करीब एक सौ सूटकेस ले गये हैं। आंदोलनकारी मांग कर रहे हैं कि देश में 30 वर्षों से लगा आपातकाल समाप्त किया जाए, राष्ट्रपति का कार्यकाल दो बार से अधिक न हो तथा देश के आंतरिक मामलों के मंत्री हबीब अल अदली को तत्काल पद से हटाया जाए, लेकिन राष्ट्रपति मुबारक अभी आंदोलनकारियों की कोई बात सुनने के बजाए उन्हें दमन के हथियार से शांत करना चाहते हैं। उनके इस रवैये के खिलाफ बीते शुक्रवार को राजधानी काहिरा सहित देश के तमाम शहरों में व्यापक प्रदर्शन हुए। अलेक्जेंड्रिया व सुरेज जैसे तटवर्ती श्हरों से लेकर देश के भीतरी इलाकों के प्राय सभी प्रमुख शहरों में लोग सड़कों पर उतर आये। राजधानी काहिरा में लोग प्रसिद्ध अल अजहर मस्जिद तथा राष्ट्रपति भवन के पास इकट्ठे हो गये। दोपहर की नमाज के बाद तमाम लोग मस्जिदों से निकलकर सीधे सड़क पर आ गये। पुलिस ने उन्हें तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस के गोले छोड़े, लाठीचार्ज किया तथा रबर बुलेट्स का भी प्रयोग किया। भीड़ ने भी जमकर पथराव किया। काहिरा में आंदोलन का यह चौथा दिन था। इस दिन आंदोलन सर्वाधिक उग्र था। इसका एक बड़ा कारण शायद यह था कि मिस्र के सुधारवादी नेता नोबेल शांति पुरस्कार विजेता, संयुक्त राष्ट्र संघ की अंतर्राष्ट्रीय परमाणु निगरानी संस्था आई.ए.इ.ए. के पूर्व अध्यक्ष मुहम्मद अल बरदेई भी इस आंदोलन में भाग लेने के लिए जिनीवा से काहिरा पहुंच गये। खबर है कि होस्नी मुबारक सरकार ने अल बरदेई को नजरबंद कर लिया है।

82 वर्षीय होस्नी मुबारक ने सरकार में बदलाव का आश्वासन अवश्य दिया है, लेकिन राष्ट्रपति पद छोड़ने से साफ इनकार कर दिया है। उन्होंने देश में इंटरनेट सेवाएं रोक दी हैं, जिससे फेसबुक व ट्विटर का इस्तेमाल रुक गया है। एस.एम.एस. सेवा भी बंद कर दी कये है। यहां यह उल्लेखनीय है कि अरब जगत के इस आंदोलन में अल जजीरा के टी.वी. प्रसारणों के अलावा ट्विटर, फेस बुक व एस.एम.एस. सेवाओं का भारी योगदान रहा है।ट्यूनीशिया के पुलिस अत्याचारों की सचित्र खबरें फेस बुक व एस.एम.एस. द्वारा ही अल जजीरा तक पहुंची और प्रसारित हुई। स्वयं आंदोलनकारी भी परस्पर संपर्क तथा विद्रोही गतिविधियों व पुलिस कार्रवाईयों के प्रसार के लिए इन सेवाओं का जमकर इस्तेमाल कर रहे थे। आधुनिक संचार तकनीक का राजनीतिक बदलाव के लिए छिड़े आंदोलन में इस्तेमाल का यह अनूठा प्रयोग था। खबर है कि शुक्रवार तक 4 दिन के इस आंदोलन में अब तक 8 लोग मारे गये हैं और करीब 1000 लोग गिरफ्तार किये गये हैं।

पूरे अबर जगत में भड़के इस आंदोलन से अमेरिका हक्का-बक्का है। उसे समझ में नहीं आ रहा है कि वह क्या करे। पूरे अरब जगत में उसकी समर्थित सरकारें खतरे में हैं। लेबनान में अभी अमेरिका समर्थक सरकार गिर गयी है और हिजबुल्ला ताकतों ने वहां नया प्रधानमंत्री चुन लिया है। ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति देश छोड़कर भाग गये हैं। गाजा पट्टी में भी हमास की ताकत और लोकप्रियता बढ़ रही है। वहां अमेरिका समर्थित फिलिस्तीनी नेता महमूद अब्बास दिनों दिन कमजोर होते जा रहे हैं। अभी विकीलीक्स द्वारा किये गये रहस्योद्घाटनों ने उनकी हालत और खराब कर दी है। विकीलीक्स के खुलासों से जाहिर हो गया है कि अब्बास की इजरायल के साथ भी सांठगांठ है। अब्बास का कार्यकाल 2009 में ही समाप्त हो चुका है, लेकिन वह अमेरिकी समर्थन के बल पर वहां टिके हैं, नहीं तो हमास नेता उन्हें कब का पदच्युत कर चुके होते। इराक में भी ईरान समर्थक शक्तियां बढ़ रही हैं। अभ्ी इराकी नेता मक्तदा अल सद्र लंबे समय तक ईरान में रहकर लौटे, तो बगदाद में उनका किसी ‘हीरो' की तरह स्वागत किया गया। सच तो यह है कि इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन की सरकार को ध्वस्त करके अमेरिका ने इराक को बाकायदे ट्रे में सजाकर ईरान के हवाले कर दिया है। अब ईरान का एकमात्र काम है बगदाद में अपनी स्थिति को मजबूत करना।

इस क्षेत्र की राजनीति पर नजर रखने वालों की दृष्टि में आज की स्थिति के लिए मुख्य रूप से स्वयं अमेरिका दोषी है। अरब क्षेत्र में अमेरिकी कूटनीति जड़ हो गयी है। उसकी शीत युद्धकाल की नीतियां ही वहां अभी भी लागू हैं। 30-40 साल पहले की दृष्टि से उसकी नीति सही थी, लेकिन आज वह अप्रासंगिक हो गयी हैं। इस क्षेत्र में उस समय के ताकतवर नेता अब कमजोर हो चले हैं, किंतु अमेरिका अभी भी उन पर भरोसा किये हुए है। उसने इस क्षेत्र में उभरती लोकतांत्रित भावनाओं को हमेशा दबाने की कोशिश की, क्योंकि उसे खतरा है कि यदि वर्तमान परिवारों को हटाया गया और लोकतंत्र का अवसर दिया गया, तो इस पूरे इलाके पर इस्लामी ताकतों का वर्चस्व हो जाएगा। उसकी यह आशंका गलत नहीं है, फिर भी उसे इस्लामी व लोकतांत्रिक भावनाओं व शक्तियों में फर्क करने का प्रयत्न करना चाहिए था। आज वह जितना पैसा तानाशाहों के संरक्षण पर खर्च कर रहा है, उतना यदि लोकतांत्रिक शक्तियों पर खर्च करता, तो इस्लामी ताकतों को भी सर उठाने का मौका न मिलता। शाही परिवारों की बेशर्म अय्याशी तथा क्रूर अत्याचारों से इस्लामी ताकतों को इसका मौका मिल गया है कि वे लोकतांत्रिक ताकतों का भी नेतृत्व अपने हाथ में ले लें।

मिस्र में भी यही हो रहा है। ‘इस्लामिक ब्रदर हुड' नामक संगठन मिस्र में सबसे बड़ा मजहबी जन संगठन है। इसकी अब तक लोकतांत्रिक आंदोलनों में कोई रुचि नहीं थी, क्योंकि वह लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी इस्लाम विरोधी मानता है, लेकिन मिस्र के ताजा आंदोलन में वह भी कूद पड़ा है। उसकी सोच अब बदल गयी है। उसने समझ लिया है कि होस्नी मुबारक की तानाशाही तो पहले खत्म हो, उसके बाद लोकतंत्र को अपने पक्ष में मोड़ना तो बेहद आसान हो जाएगा। अमेरिका भी अब जाकर चेता है। लंबी चुप्पी के बाद राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा के प्रवक्ता राबर्ट गिब्स ने मिस्र सरकार को चेतावनी दी है कि वह आंदोलनकारियों की सुधारवादी मांगों की ओर ध्यान दे, नहीं तो अमेरिका उसे दी जाने वाली 1.5 अरब डॉलर की वार्षिक सहायता बंद कर सकता है। गिब्स के इस वक्तव्य से जाहिर है कि अमेरिका को अब यह लग रहा है कि राष्ट्रपति होस्नी मुबारक यदि अपने हठ पर अड़े रहे, तो उनका सत्ता में टिक पाना मुश्किल होगा। अमेरिका की निश्चय ही मिस्र में लोकतांत्रिक शासन की स्थापना में कोई रुचि नहीं है, इसलिए वह चाहता है कि किसी तरह कुछ बदलाव के साथ वर्तमान सरकार या वर्तमान शासन व्यवस्था बनी रहे। इसके लिए जरूरी हो तो होस्नी मुबारक अपनी जगह किसी और को राष्ट्रपति पद पर ले आएं। वर्तमान स्थिति में अब उनके लिए अपने बेटों को सत्ता में स्थापित करना तो मुश्किल हो गया है, फिर भी वे अपने किसी विश्वस्त को आगे ला सकते हैं। हो सकता है कि अमेरिका की धमकी काम करे और जनाब मुबारक स्वेच्छया गद्दी छोड़ना स्वीकार कर लें, लेकिन यदि वह स्वयं राष्ट्रपति बने रहने पर अड़े रहे, तो निश्चय ही घाटे में रहेंगे।

मध्य पूर्व में वास्तविक लड़ाई इस समय अमेरिका और ईरान के बीच केंद्रित हो गयी है। परंपरा से इस पूरे इलाके पर अमेरिका का वर्चस्व कायम था। मिस्र, सउदी अरब, यमन, कुवैत, नाइजीरिया, ट्यूनीशिया, संयुक्त अरब अमीरात, पाकिस्तान अफगानिस्तान व इराक भी अमेरिकी प्रभाव क्षेत्र में आते थे। कभी (इस्लामी क्रांति के पूर्व) ईरान भी अमेरिकी गिरोह में ही आता था। लेकिन अब ईरान की तरफ से उसे गहरी चुनौती मिल रही है। अल जजीरा का संस्थापक कतर का अमीर शेख हमद बिन खलीफा अलथानी का यह चैनल शुरू करने का मूल लक्ष्य इस्लामी जगत की एकता कायम करना था, लेकिन उसने अपना प्रारंभिक लक्ष्य अरब एकता को बनाया। उसने अमेरिका के खिलाफ अरबी चेतना को जगाने का काम किया। अब यदि अमेरिका और ईरान के मुकाबले की दृष्टि से ही देखें, तो पता चलेगा कि ईरानी वर्चस्व बढ़ रहा है तथा अमेरिका के पांव तले की जमीन सिमट रही है। अभी तक अमेरिकी राजनीतिक सोच है कि सुन्नी अरब संसार शिया ईरान के खिलाफ हमेशा उसके साथ रहेगा, लेकिन ‘इस्लामी अंतर्राष्ट्रीयतावाद' अथवा ‘इस्लामी भ्रातृत्व' भावना ईरान के नेतृत्व में संगठित होने की तरफ अग्रसर हैं।

पूरे अरब क्षेत्र में लगभग एक साथ भड़क उठे इस आंदोलन पर सर्वाधिक खुशी ईरान में ही मनायी जा रही है। ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद के अनुसार इस समय अरब जगत में जो कुछ हो रहा है, वह वैसा ही है, जैसा कि करीब तीन दशक पूर्व ईरान में हुआ था। ईरान में 1979 में भड़की इस्लामी क्रांति में अमेरिका समर्थित शाह मोहम्मद रजा पहलवी की सरकार उड़ गयी थी। धार्मिक नेता अयातोल्लाह खोमेनी ने शाह के खिलाफ जो क्रांति का बिगुल फूंका था, उसकी ही अनुगूंज अब विश्व में फैल रही है। ईरान की नजर में यह इस्लामी क्रांति ही है, जो इस्लाम विरोधी सरकारों को निगलने के लिए उठ खड़ी हुई है। अहमदीनेजाद के अनुसार कोई अमेरिकी योजना इसे रोकने में सफल नहीं होगी।

अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने अपने एक वक्तव्य में कहा है कि लोकतांत्रिक मूल्यों के हक में अमेरिका मिस्री जनता के साथ है। उन्होंने सरकार से अपील की है कि मानवाधिकारों का ख्याल रखे तथा हिंसा व बल प्रयोग न करे। साथ ही प्रदर्शनकारियों से कहा है कि वे अपनी बात सरकार तक शांतिपूर्ण ढंग से पहुंचाएं। राष्ट्रपति होस्नी मुबारक ने राष्ट्र के नाम अपने एक संदेश में अपनी वर्तमान सरकार को भंग करने तथा रविवार को नई सरकार के गठन की घोषणा की है। उन्होंने कहा है कि देश में सारे सामाजिक, लोकतांत्रिक तथा आर्थिक सुधार लागू किये जायेंगे, लेकिन उन्होंने स्वयं अपना इस्तीफा देने से इनकार कर दिया है। मगर प्रदर्शनकारी उनके आश्वासनों से संतुष्ट नहीं हैं, वे उनका इस्तीफा चाहते हैं। शनिवार को प्रदर्शनकारियों ने सेना और पुलिस के किसी भी बल प्रयोग की परवाह न करके फिर राजधानी में जबर्दस्त प्रदर्शन किया। मुबारक ने लगभग पूरे देश में कर्फ्यू लगा दिया है। राजधानी की सड़कों पर सेना की गाड़ियां और टैंक घूम रहे हैं, लेकिन लोग उनसे तनिक भी आतंकित नहीं हैं। उन्होंने शनिवार की सुबह सत्तारूढ़ पार्टी के काहिरा स्थित मुख्यालय को आग के हवाले कर दिया। खबर है कि आंदोलन में ‘इस्लामी ब्रदर हुड‘ के शामिल हो जाने से उसकी शक्ति बढ़ गयी है और अब आंदोलनकारी मुबारक के इस्तीफे से कम किसी बात पर शांत होने के लिए तैयार नहीं हैं। जाहिर है कि अमेरिकी नीति यहां सफल होती नहीं नजर आ रही है। अब यदि यहां आंदोलनकारी होस्नी मुबारक का इस्तीफा लेने में सफल हो गये, तो इसके बाद सउदी अरबिया ऐसे ही आंदोलन का निशाना बनने वाला है। सउदी अरबिया में यदि विद्रोह का झंडा खड़ा हुआ, तो यह अमेरिका के लिए मध्य पूर्व की सबसे बड़ी चुनौती होगी।

सच्चाई यह है कि मध्य पूर्व के तथाकथित सेकुलर व अमेरिका समर्थित सरकारों के विरुद्ध भड़की यह आग आसानी से रुकने वाली नहीं है। बीच में कुछ विराम की स्थिति आ भी जाए, तो यह फिर भड़केगी। क्या होगा इसका अंतिम परिणाम ? कहना कठिन है। लेकिन इतना तो तय है कि अमेरिका को अब अपनी मध्य पूर्व नीति बदलनी पड़ेगी, नहीं तो यह पूरा इलाका न केवल उसके काबू से बाहर बल्कि इस्लामी कट्टरपंथियों के कब्जे में चला जायेगा। लड़ाई लोकतंत्र की है, लेकिन उसकी परिणति पूरे क्षेत्र के कट्टर इस्लामीकरण में होने जा रही है।

30/01/2011


रविवार, 23 जनवरी 2011

नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरुज्जीवन
                                                         गौरवशाली नालंदा के अवशेष

ईसा की 12वीं शताब्दी के अंत में बर्बर तुर्क आक्रांता बख्तियार खां खिलजी द्वारा ध्वस्त किये गये दुनिया के प्रथम आवासीय विश्वविद्यालय ‘नालंदा विश्वविद्यालय' को पुनरुज्जीवित करने का प्रयत्न हो रहा है। भारत सरकार ने ‘नालंदा अंतर्राष्ट्रीय वि.वि. विधेयक-2010' पारित कर दिया है। चीन ने इसके लिए एक अरब अमेरिकी डॉलर अनुदान देने की घोषणा की है। इस महत्वाकांक्षी योजना के लिए प्रख्यात अर्थशास्त्री, नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन को ‘अंतरिम गवर्निंग बोर्ड' का अध्यक्ष बनाया गया है। वह इस नवकल्पित विश्वविद्यालय को प्राचीन नालंदा वि.वि. जैसा ही गौरवशाली अंतर्राष्ट्रीय शैक्षिक संस्थान बनाना चाहते हैं। आशा की जानी चाहिए कि यह वि.वि. प्राचीन नालंदा की गौरव गरिमा को और आगे बढ़ाएगा।


ज्ञात इतिहास में दुनिया का पहला आवासीय विश्वविद्यालय-नालंदा विश्वविद्यालय-12वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में तुर्क हमलावर बख्तियार खां खिलजी द्वारा जलाकर राख कर दिया गया था। उसके करीब 10 हजार छात्रों व 2000 अध्यापकों में से अधिकांश मौत के घाट उतार दिये गये थे। विश्वविद्यालय के 9 मंजिले तीन पुस्तकालय भवन (रत्न सागर, रत्नोदधि तथा रत्नरंजक) महीनों धू-धू कर जलते रहे। पुस्तकें जलाकर बख्तियार खां की फौजों का खाना पकता रहा। बचे-खुचे छात्रों व अध्यापकों ने फिर से अध्ययन-अध्यापन शुरू करने का प्रयास किया, लेकिन बख्तियार के सैनिकों ने पहुंचकर उन्हें भी मार डाला। फारसी इतिहासकार मिन्हाज शिरानी ने अपनी पुस्तक ‘तबक्कत नासिरी' में इस ध्वंस का बड़ा मार्मिक व जीवंत वर्णन किया है। उसने लिखा है कि बख्तियार खिलजी तुर्क ने तलवार के बल पर इस्लाम की स्थापना के अपने अभियान में शिक्षा के इस महान केंद्र पर हमला किया। उसने भारी मारकाट व लूट के बाद पूरे विश्वविद्यालय में आग लगा दी, जिससे वहां कुछ भी बचने न पाए। इस तरह सम्राट गुप्तों के शासनकाल में शकादित्य कुमार गुप्त द्वारा 427ई. में स्थापित प्राचीन विश्व का यह महान विश्वविद्यालय 1197 में पूरी तरह धूलिसात हो गया। शताब्दियों तक पूरा क्षेत्र वीरान पड़ा रहा। 20वीं शताब्दी के पुरातात्विक उत्खननों में मिले अवशेषों से इसकी कहानी फिर जीवित हुई। और प्रसन्नता की बात है कि 21वीं शताब्दी में इस ऐतिहासिक स्थल पर नालंदा पुनः जीवित होने जा रहा है- ‘नालंदा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय' के रूप में। ‘नालंदा यूनिवर्सिटी बिल-2010' भारतीय संसद में पारित हो चुका है, अब आगे का कार्य है इसका निर्माण।

नालंदा के महान विश्वविद्यालय को पुनरुज्जीवित करने की कल्पना तो बहुत दिनों से की जा रही थी, किंतु 2006 में भारत, सिंगापुर, चीन तथा जापान ने मिलकर इस स्वप्न को साकार करने का संकल्प लिया। धीरे-धीरे बात आगे बढ़ी। इसके लिए एक अंतरिम गवर्निंग बोर्ड (इंटरिम गवर्निंग बोर्ड ऑफ नालंदा यूनिवर्सिटी) का गठन किया गया, जिसके अध्यक्ष हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र तथा दर्शन के प्रोफेसर, प्रख्यात अर्थशास्त्री एवं नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन बनाये गये। अभी चेन्नई के निकट कटंकुलाथुर स्थित एस.आर.एम. विश्वविद्यालय में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय साइंस कांग्रेस में बोलते हुए अमर्त्य सेन ने इस विश्वविद्यालय के भूतकालीन स्वरूप और इसके भ्विष्य की संकल्पना पर विधिवत प्रकाश डाला। उन्होंने गर्वपूर्वक बताया कि यह दुनिया का प्रथम अंतर्राष्ट्रीय आवासीय विश्वविद्यालय था। पश्चिम के सारे प्राचीन विश्वविद्यालय इसकी स्थापना के चार-पांच सौ साल बाद कहीं जन्म ले सके। नालंदा एकमात्र ऐसा विश्वविद्यालय था, जहां प्राचीनकाल में चीन का कोई शिक्षार्थी उच्च शिक्षा के लिए चीन से बाहर के किसी विश्वविद्यालय में गया। उन्होंने चीनी इतिहासकारों झुआंग जैंग तथा यो जिंग का हवाला देते हुए बताया कि नालंदा में धर्म-दर्शन के अतिरिक्त जन स्वास्थ्य, मेडिसिन, आर्किटेक्चर, स्कल्पचर (वास्तु शास्त्र एवं मूर्तिशास्त्र), व्याकरण, ज्योतिष, न्याय (तर्क शास्त्र) आदि की शिक्षा दी जाती है। बौद्ध स्रोतों से पता चलता है कि उस समय देश में देश से बाहर भी जो कोई भी विद्या थी उसका अध्ययन-अध्यापन इस विश्वविद्यालय में होता रहा। इसे बाकायदे राजनीतिक संरक्षण व सहायता प्राप्त थी। उस समय धार्मिक भेदभाव जैसी कोई चीज नहीं थी। हिन्दू-बौद्ध-जैन आदि की कोई सामाजिक व राजनीतिक विभाजक रेखाएं नहीं खिंची हुई थीं। कुमार गुप्त के काल से लेकर पाल वंश के शासकों ने समान रूप से इस प्रतिष्ठित शिक्षा केंद्र की सहायता की और संरक्षण किया। इसके प्रबंधन व पठन-पाठन में उनका कोई हस्तक्षेप नहीं था। चीनी, फारसी तथा अन्य इतिहासकारों के वर्णनों के अनुसार यहां चीन, कोरिया, जापान, थाईलैंड, यूनान, फारस तथा तुर्की के भी छात्र उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए आते थे। भारत के तत्कालीन बौद्धिक केंद्रों में नालंदा का स्थान सर्वोच्च था। इसीलिए मुस्लिम हमलावरों की नजर में यह शुरू से खटक रहा था। उन्हें अपने मजहबी व राजनीतिक वर्चस्व कायम करने में ये शिक्षा केंद्र सर्वाधिक बाधक थे। इसीलिए मुस्लिम हमलावरों ने तो चुन-चुनकर ऐसे शिक्षा केंद्रों को ध्वस्त किया। पालों के शासनकाल में बिहार और बंगाल के क्षेत्र में पांच महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय थे, जिन्हें मुस्लिम हमलावरों ने ध्वस्त किया। नालंदा के अलावा विक्रमशिला, सोमपुरा, ओदंतपुरा तथा जग्गदला चार अन्य विश्वविद्यालय व विहार थे। इनमें से विक्रमशिला और ओदंतपुरा बंगलादेश की सीमा में चले गये हैं। ये पांचों विहार व विश्वविद्यालय एक ही केंद्रीय नियंत्रण में चलते थे, किंतु विदेशी आक्रांताओं ने सबको ध्वस्त कर दिया।

खैर, अब 8 शताब्दियों के बाद ही सही, किंतु नालंदा का भाग्य करवट ले रहा है। चीन के भारत स्थित राजदूत झांग यान ने अभी बिहार की अपनी यात्रा के दौरान 20 जनवरी को पटना में घोषणा की कि उनकी सरकार नालंदा विश्वविद्यालय के लिए एक अरब डॉलर (करीब 45 अरब रुपये) का अनुदान देगी। जापान व सिंगापुर भी एक बड़ी रकम इसके लिए घोषित करने वाले हैं। आस्ट्रेलिया की सरकार ने अभी पिछले दिनों हनोई (वियेतनाम) में हुए पूर्व एशियायी देशों में शिखर सम्मेलन में घोषणा की कि नालंदा विश्वविद्याालय में पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण (इकोलॉजी एंड इन्वायरमेंट) के अध्ययन के एक ‘आस्ट्रेलियायी चेयर' की स्थापना करेगा। बिहार के एक अप्रवासी नागरिक केलिफोर्निया स्थित, फिल्म निर्माता रवि वर्मा (मूलतः बिहार के कटिहार जिले के निवासी) पिछले दिनों हॉलीवुड की एक 15 सदस्यीय टीम लेकर नालंदा पहुंचे। वह चीनी यात्री ह्वेनत्सांग की यात्रा पर एक वृत्त चित्र (डाक्यूमेंटरी) बना रहे हैं। इस डाक्यूमेंटरी का शीर्षक है ‘हृदयसूत्रम‘। ‘हृदयसूत्रम‘ बौद्ध संग्रह गंथ ‘महाप्रत्ता पारमिता सूत्र‘ का ही एक अंग है। इस सूत्र गंथ को देखने के बाद ही ह्वेनत्सांग के मन में यह उत्कट आकांक्षा पैदा हुई थी कि वह भारत आकर नालंदा में विस्तृत ज्ञानार्जन करें। ह्वेनत्सांग ने भारत में कुल 17 वर्ष बिताये, जिसमें से 12 वर्ष नालंदा में अध्ययन करते हुए बीते। रवि वर्मा की यह ‘डाक्यूमेंटरी' बिहार को आधुनिक विश्व पटल पर रखने का काम करेगी।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी नालंदा के पुनरुज्जीवन के इस प्रयास से बहुत अधिक उत्साहित हैं। उनका कहना है कि बिहार हमेशा भारत की मुख्य धारा में रहा है। राजनीति, धर्म, दर्शन, कला, उद्योग, व्यापार, टेक्नोलॉजी, कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें प्राचीन काल के भारत में बिहार का अग्रणी स्थान न रहा हो। उनका सपना है कि नवकल्पित नालंदा विश्वविद्यालय बिहार के प्राचीन गौरव और उसके उज्ज्वल व समृद्ध भविष्य को जोड़ने का काम करेगा। नीतीश को उम्मीद है कि 2020 तक नया नालंदा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय अपना रूपाकार ग्रहण कर लेगा।

नालंदा यह शब्द ही बड़ा अनूठा है, जिसका अर्थ है निरंतर देते रहने वाला, यानी जिसका देना कभी नहीं रुकता (न+अलं+दा)। बौद्ध साहित्य से यह संकेत मिलता है कि यह एक प्राचीन समृद्ध नगर था, जहां बुद्ध और महावीर प्रायः आते-जाते रहते थे। पावापुरी जहां महावीर का निधन हुआ था, वह तो नालंदा में ही है। और उनका जन्म स्थल कुंडलपुर भी इसके निकट ही है। यहां श्रेष्ठि वर्ग की तरफ से सदैव ‘सदाव्रत' (निरंतर अन्नदान) चलता रहता था, यानी दिन रात भोजन दान किया जाता था। शायद इसीलिए इसे ‘नालंदा' नाम मिल गया होगा। व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के कारण ही शायद इस नालंदा शहर में शिक्षा के इस महान केंद्र की स्थापना के बारे में सोचा गया।

नालंदा को बौद्ध विश्वविद्यालय के रूप में जाना जाता है, लेकिन वहां कोई धार्मिक भेदभाव नहीं था। हिन्दू-बौद्ध विभेद अंग्रेज या यूरोपीय इतिहासकारों की देन है। वहां आचार्य मंजुश्रीमित्र के काल में जो विषय पढ़ाये जाते थे, उसमें सभी दर्शन तथा धार्मिक व धर्मनिरपेक्ष (सेकुलर) विषय शामिल थे, यहां तक कि वेद, योगशास्त्र, अध्यात्म आदि के साथ विदेशी दर्शन व साहित्य भी पढ़ाए जाते थे। नालंदा के अंतिम अध्यक्ष शाक्य श्रीभद्र 1204 में तिब्बत चले गये थे। शायद वहां के प्रसिद्ध अनुवादक ट्रोपू लोत्सवा के आमंत्रण पर। वहां उन्होंने मूल सर्वास्तिवादी परंपरा शुरू की। एक अन्य तिब्बती अनुवादक चाग लोत्सावा 1235 में जब नालंदा आए, तो उन्होंने उस लुटे पिटे विश्वविद्यालय को देखा, लेकिन उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उसके निकट एक बाग में नालंदा के एक 90 वर्षीय आचार्य राहुल श्रीभद्र 70 छात्रों की एक कक्षा को पढ़ा रहे थे। इसका अर्थ है कि नालंदा के एक दो या अधिक जो भी शिक्षक बच गये थे, उन्होंने अभी भी हिम्मत नहीं हारी थी। पाल राजवंश भी कमजोर हो गया था, लेकिन अंतिम राजा चगलराज के काल में 1400 ईसवीं तक वे किसी न किसी स्तर पर अध्ययन-अध्यापन की परंपरा जारी रखे थे। लेकिन उसके बाद नालंदा का वह प्रतीकात्मक स्वरूप भी समाप्त हो गया।

आशा की जानी चाहिए कि नालंदा के नाम से उसी स्थल पर स्थापित होने वाला यह विश्वविद्यालय धार्मिक व जातिवादी संघर्ष का अड्डा नहीं बनेगा। आज हिन्दू-बौद्ध, दलित-सवर्ण आदि की ऐसी विभेदक दीवारें खड़ी हो गयी हैं, जिससे देश के प्रायः सारे विश्वविद्यालयों के मानवीय या कला संकाय (जिनके अंतर्गत साहित्य, इतिहास, समाज शास्त्र, दर्शन व कला आदि विषय पढ़ाए जाते हैं) आक्रांत हैं।

आज के कई तथाकथित बौद्ध इतिहासकार बता रहे हैं नालंदा के पुस्तकालयों को खिलजी बख्तियार खां ने नहीं, बल्कि ईर्ष्यालु हिन्दुओं व जैनों ने जला दिया था। विज्ञान व तकनीकी विषयों के अध्ययन-अध्यापन में तो कोई समस्या नहीं है, लेकिन नालंदा के पुनरुज्जीवन की सार्थकता तो उस अध्ययन-अध्यापन में निहित है, जो इतिहास की धार्मिक रुढ़ियों को तोड़कर व्यापक मनुष्यता की स्थापना करने वाली हो। इस विश्वविद्यालय से जुड़े अमर्त्य सेन व डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जैसे विद्वानों से अपेक्षा यही है कि यह विश्वविद्यालय भी महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय जैसा रूप न ले ले।

23/01/2011


रविवार, 16 जनवरी 2011

श्रीनगर में तिरंगे को मिल रही चुनौती !



भारतीय जनता पार्टी ने आगामी 26 जनवरी गणतंत्र दिवस को जम्मू कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के लालचौक में तिरंगा फहराने का संकल्प लिया है। इसके जवाब में उस दिन वहां के अलगाववादी संगठनों ने कश्मीरियों को शांतिपूर्वक लालचौक की ओर कूच करने का आह्वान किया है। एक अलगाववादी नेता मोहम्मद यासीन मलिक ने चुनौती दी है उस दिन दुनिया देखेगी कि वहां किसका झंडा उंचा रहता है। उनकी यह चेतावनी भी है कि यदि भाजपा ने तिरंगा लहराने की कोशिश की तो कश्मीर में ही नहीं पूरे इस उपमहाद्वीप में आग लग जाएगी। राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भाजपा नेताओं से अपील की है कि वे तिरंगा फहराने का संकल्प वापस ले लें लेकिन इस पर सवाल किया जा रहा है कि वहां तिरंगा जलाने पर तो कोई रोक नहीं मगर उसे फहराने का इतना विरोध क्यों ?

 
भारतीय जनता पार्टी की युवा शाखा भारतीय जनता युवा मोर्चा ने 12 जनवरी को कोलकाता से ‘राष्ट्रीय एकता यात्रा' का प्रारंभ किया। यह यात्रा एक दर्जन से अधिक राज्यों से गुजरते हुए 26 जनवरी को जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के लाल चौक पहुंचकर वहां भारत का राष्ट्रीय तिरंगा फहराकर भारत की भौगोलिक एकता का जयघोष करेगी। इस यात्रा के जवाब में जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी संगठन जे.के.एल.एफ. (जम्मू-कश्मीर) के अध्यक्ष मोहम्मद यासीन मलिक ने कश्मीरियों का आह्वान किया है कि 26 जनवरी को वे शांतिपूर्वक लाल चौक की ओर कूच करें। मलिक का कहना है कि उस दिन दुनिया देखेगी कि लाल चौक पर किसका झंडा उंचा रहता है। कश्मीर की अन्य अलगाववादी पार्टियों ने मलिक के इस आह्वान का समर्थन किया है। हुर्रियत कांफ्रेंस के तथाकथित नरम गुट के कार्यकारिणी की बैठक में इसका विधिवत समर्थन किया गया। अध्यक्ष मीर वायज उमर फारुक की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में प्रो. अब्दुल गनी बट, बिलाल गनी लोन, मौलाना अब्दुल तारी आदि प्रायः सभी वरिष्ठ नेताओं ने भाग लिया।

यासीन मलिक का कहना है कि अपने युवा संगठन की कश्मीर चलो यात्रा को रवाना करते हुए भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडगरी ने कोलकाता में जो कुछ कहा है, वह जम्मू-कश्मीर जनता के साथ सीधे युद्ध की घोषणा है। जम्मू-कश्मीर एक विवादित क्षेत्र है, किसी की निजी जागीर नहीं। यहां की जमीन के लोग उसके वास्तविक मालिक हैं। भाजपा के लोग वोट बैंक की राजनीति मालिक हैं। भाजपा के लोग वोट बैंक की राजनीति कर रहे हैं, लेकिन वे यह नहीं समझ रहे हैं कि जो कुछ वे करने जा रहे हैं, उससे केवल कश्मीर नहीं यह पूरा उपमहाद्वीप जल उठेगा। भाजपा जब सत्ता में थी, तब उसने श्रीनगर में राष्ट्रीय ध्वज फहराने की कोई पहल नहीं की। 1992 के बाद से एक बार भी उसने यह नहीं सोचा, तो अब वह क्यों यहां झंडा फहराने का अभियान शुरू कर रही है।

जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भाजपा नेताओं से अपील की है कि वे लाल चौक पर तिरंगा फहराने का अपना कार्यक्रम वापस ले लें। 26 जनवरी पर राज्य के जिला मुख्यालयों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया ही जाता है, फिर लाल चौक पर उसे निजी तौर पर फहराने की जिद क्यों ? यह वास्तव में कश्मीरी युवकों को भड़काने वाला काम है। उन्होंने भाजपा की यह कहकर निंदा भी की कि जब तक देश में कहीं आग न लगी रहे, तब तक उसे संतोष नहीं होता। कश्मीर घाटी में लंबी अशांति के बाद शांति की स्थिति पैदा हुई है, तो भाजपा के लोग फिर वहां आग भड़काने की तैयारी कर रहे हैं। भाजपा नेताओं का कहना है कि लाला चौक पर भारतीय राष्ट्रीय ध्वज जलाने की छूट है, लेकिन उसे फहराया नहीं जा सकता। वहां पाकिस्तान के झंडे फहराये जा सकते हैं, भाजपा के नहीं। कश्मीर सरकार यदि वहां झंडा जलाने से नहीं रोक सकती, तो फिर वह वहां उसे फहराने से क्यों रोकना चाहती है। उमर इसके जवाब में कहते हैं कि जो नेश्नलिस्ट नहीं हैं, उनसे हमें क्यों आखिर अपनी तुलना करनी चाहिए।

उमर अब्दुल्ला की बात सही है। राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर निश्चय ही उनकी पहली चिंता यही होनी चाहिए कि राज्य में शांति रहे, कानून व्यवस्था बनी रहे और लोगों के दैनंदिन जीवन में कोई बाधा न पड़े, किंतु कश्मीर की यही चिंता देखते-देखते तो यहां तक आ पहुंची है कि अब कश्मीर के अलगाववादी नेता यह कहने लगे हैं कि भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर के बारे में उन्हें एक पार्टी के तौर पर नहीं, कश्मीर के मालिक (मास्टर) के तौर पर शामिल किया जाए। यह प्रस्ताव जे.के.एल.एफ. के नेता यासीन मलिक व हुर्रियत कांफ्रेंस के अध्यक्ष मीर वायज उमर फारुक दोनों ने की है। अगले महीने भूटान में ‘सार्क' (दक्षिण एशियायी क्षेत्रीय सहयोग संगठन) के विदेश मंत्रियों की बैठक के दौरान भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्री अलग से भी मिलने वाले हैं। उनकी बातचीत में कश्मीर का मुद्दा भी उठेगा ही, क्योंकि यह हो ही नहीं सकता कि पाकिस्तान कश्मीर का मुद्दा न उठाए। अंतर्राष्ट्रीय बैठकों के अवसर पर तो वह कश्मीर का राग छोड़े बिना मानता ही नहीं।

यहां यह उल्लेखनीय है कि कश्मीर की समस्या न तो भारत-पाकिस्तान की समस्या रह गयी है और न कश्मीरियों की भौगोलिक क्षेत्रीयता की। वह इस्लाम की समस्या बन गयी है। इसीलिए अब कश्मीर समस्या को देश की मुस्लिम समस्या से जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वह पहले से भारतीय उपमहाद्वीप की मुस्लिम समस्या के रूप में पहचाना जाता रहा है। बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम देशों में इसकी शिकायत की जाती रही है कि भारत का आम मुसलमान कश्मीर के मसले के साथ अपने को क्यों नहीं जोड़ता। इसी उद्देश्य से हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं सैयद अली शह गिलानी व मीर वायज उमर फारुक तथा जे.के.एल.एफ. के यासीन मलिक ने देश के विभिन्न अंचलों में सेमीनार व गोष्ठियों के बहाने कश्मीर के सवाल को भारत के आम मुसलमानों के बीच ले जाने की योजना बनायी, जिसके अंतर्गत दिल्ली, कोलकाता, चंडीगढ़ तथा जम्मू आदि में सेमीनार के आयोजन किये गये। मुस्लिम संस्थाओं विशेषकर मुस्लिम शैक्षिक संस्थाओं में इसे लेकर गोष्ठियों की श्रृंखला चलाने के कार्यक्रम बनाये जा रहे हैं।

अभी जामिया मिलिया इस्लामिया में आयोजित कश्मीर संबंधी एक सिम्पोजियम (वे फार्वर्ड इन कश्मीर)  में केंद्रीय गृहसचिव जी.के. पिल्लै को आमंत्रित किया गया। पिल्लै ने वहां बताया कि कश्मीर समस्या के समाधान का रास्ता सुझाने के लिए नियुक्त वार्ताकारों की त्रिसदस्यीय टीम से कहा गया है कि वह आगामी अप्रैल तक अपनी रिपोर्ट सौंप दे। इस बीच सरकार वहां तनाव के कारणों को दूर करने का प्रयास कर रही है। पिल्लै ने बताया कि सरकार कश्मीर से 25 प्रतिशत सुरक्षा बलों को हटाने जा रही है। शहरी इलाकों में बने बंकर भी हटाये जा रहे हैं। जैसी कि खबरें हैं केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त वार्ताकार अपनी तरफ से कुछ ऐसी सलाह देना चाहते हैं, जिससे कश्मीरी स्वायत्तता के लिए संघर्ष करने वालों को कुछ संतोष मिल सके। वहां सत्तारूढ़ नेशनल कांफ्रेंस के नेता यह मानते हैं कि भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर रियासत के साथ किये गये समझौते का सम्मान नहीं किया और उसकी स्वायत्तता को क्रमशः क्षीण करने का प्रयास किया, इसीलिए यह समस्या पैदा हुई। तो यदि राज्य की पहले वाली स्थिति बहाल हो जाए, तो समस्या बहुत कुछ सुलझ सकती है। लेकिन यह एक कठोर सच है कि यदि आज वह पुरानी स्थिति बहाल भी कर दी जाए, तो वह वहीं रुकने वाली नहीं है। अफसोस की बात यही है कि कश्मीर समस्या का समाधान ढूंढ़ने वाले लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि यह किसी क्षेत्रीय स्वाभिमान या सांस्कृतिक गौरव रक्षा की लड़ाई नहीं है, यह शुद्ध रूप से मजहबी अलगाववाद की लड़ाई है, जिसका लक्ष्य है भारत को कमजोर करना और उससे पाकिस्तान के विखंडन का बदला लेना। इसके अतिरिक्त अब यह लड़ाई केवल किन्हीं दो देशों व जातियों की नहीं, बल्कि लोकतंत्र अथवा उदार मानववाद बनाम मजहबी तानाशाही और कट्टरपंथी अधिनायकवाद की हो गयी है। कश्मीर के अलगाववाद की लड़ाई लड़ने वाले वे जिहादी संगठन हैं, जिनसे पूरी मानवता को खतरा है। इसलिए कश्मीरी अलगाववाद के खिलाफ संघर्ष का संकल्प वास्तव में केवल भारत की राष्ट्रीय या भौगोलिक अखंडता का संघर्ष नहीं, बल्कि मनुष्यता के आधुनिक मूल्यों की रक्षा का संकल्प है, जिसके लिए कोई समझौता किया ही नहीं जा सकता।

लेकिन इस लड़ाई के लिए भारतीय जनता पार्टी को भी संयम से काम लेना चाहिए। एक झंडा लहराने से यह लड़ाई पूरी होने वाली नहीं है। इसके लिए बड़ी और बेहतर संगठित तैयारी की जरूरत है। अच्छा हो कि इस यात्रा को जम्मू में प्रस्तावित रैली के साथ समाप्त कर दिया जाए और अनावश्यक टकराव को आमंत्रित न किया जाए। वास्तव में सच तो यही है कि कश्मीर की लड़ाई को भाजपा ने भी भुला दिया था। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जो नारा दिया था कि ‘एक देश में दो प्रधान, दो निशान व दो विधान नहीं चलेगा नहीं चलेगा' उसका उसने स्वयं परित्याग कर दिया था। भाजपा को यदि वास्तव में कश्मीर की लड़ाई गंभीरता से लड़नी है, तो उसे पहले धारा 370 को हटाने के पक्ष में राष्ट्रीय स्तर पर वातावरण तैयार करना चाहिए। उसे केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त वार्ताकारों की रिपोर्ट की भी प्रतीक्षा कर लेनी चाहिए। उसकी युवा शाखा भरतीय जनता युवा मोर्चा केनये अध्यक्ष अनुराग सिंह ठाकुर पार्टी में तथा देश में अपनी कुछ धमक कायम करना चाहते हैं, किंतु उन्हें भी इतना तो समझ ही लेना चाहिए कि कश्मीर की लड़ाई एक दीर्घकालिक लड़ाई है, इसे अल्पकालिक राजनीतिक लाभ का साधन बनाने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए।

16/01/2011
सलमान तासीर की हत्या से उठे सवाल


इस 4 जनवरी को पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर (65) की हत्या कर दी गयी। हत्यारा उनका अंगरक्षक था। यह कोई नई बात नहीं थी। यहां भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या भी उनके अंगरक्षक ने कर दी थी। नई बात इसके बाद की है। पाकिस्तान में जहां हत्यारे के समर्थन में लगभग पूरा देश खड़ा है, वहीं हत्या के शिकार तासीर के प्रति संवेदना व्यक्त करते भी लोग डर रहे हैं। एक अदना सिपाही मलिक मुमताज हुसैन कादरी पलक झपकते पूरे राष्ट्र् का ‘हीरो’ बन गया और एक गर्वनर को जनाजे की नमाज व कफन की दुआ के लिए एक आलिम या मुल्ला का मिलना मुश्किल पड़ गया। आखिर क्यों ?


पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर (65) की दिन दहाड़े उनके अपने ही अंगरक्षक द्वारा की गयी हत्या कोई सामान्य हत्या नहीं है, यह वास्तव में कट्टरपंथी इस्लाम की युद्धवाहिनी का शंखनाद है। चार जनवरी 2011 की दोपहर इस्लामाबाद के उच्चवर्गीय इलाके कोहसार बाजार में तासीर जब एक रेस्त्रां से निकलकर अपनी गाड़ी में बैठ रहे थे, तभी उनके एक अंगरक्षक मलिक मुमताज हुसैन कादरी (26) ने पीछे से उनके बदन में ताबड़तोड़ 24 गोलियां उतार दीं और फिर अपनी असाल्ट राइफल नीचे फेंककर अपने दोनों हाथ उपर उठा दिये। यह विजेता की भी मुद्रा थी और समर्पण की भी। साथियों ने उसे जिंदा गिरफ्तार कर लिया और अदालत में पेश किया। अदालत पहुंचने पर वहां उपस्थित वकीलों ने चिल्लाकर कहा ’वह देखो, शेर आ गया‘ और उसके उपर गुलाब की पंखुड़ियों की वर्षा की। वहां उपस्थित भीड़ उसकी पीठ थपथपाने और गाल चूमने के लिए बेताब थी। अदालत तत्काल उसके विरुद्ध कोई आरोप नहीं तय कर सकी। उसने सरेआम घोषणा की कि ‘मुझे गर्व है कि मैंने एक ईशनिंदक (ब्लेसफेमस) को मार डाला।' उसने यह भी कहा कि ‘मैं पैगंबर का गुलाम हूं और पैगंबर की निंदा करने वाले (ब्लेसफेमस) की सजा केवल मौत है।' जब उसे वापस ले जाने के लिए पुलिस की गाड़ी सामने आयी, तो ‘अल्लाहो अकबर' का नारा लगाते हुए वह स्वतः गाड़ी में जा बैठा। उसके गले में भीड़ द्वारा डाली गयी लाल गुलाब की माला झलक रही थी और वह शायद बहिस्त के सपनों में खोया हुआ था। आसपास की भीड़ उसके कारनामों से निहाल थी। कुछ लोग यह भी नारा लगा रहे थे कि इसके लिए मौत की सजा भी मिले तो कुबूल है। उध्र गोलियों से छलनी हुआ तासीर का शव जब लाहौर पहुंचा, तो वहां शव को दफनाए जाते समय की नमाज या प्रार्थना के लिए मुल्ला, मौलवी, उलेमा उपलब्ध नहीं था। शहर की सभी मस्जिदों के उलेमाओं, इमामों व अन्य धार्मिक नेताओं ने तय किया था कि कोई भी इस 'ईश निंदक' के जनाजे में शामिल नहीं होगा और न कोई उसके लिए अंतिम प्रार्थना ही करेगा। ऐतिहासिक बादशाही मस्जिद के मौलाना पहले तो तैयार हो गये थे, किंतु बाद में उन्होंने भी इनकार कर दिया और कहा कि इस समय वह खाली नहीं हैं और उन्हें बाहर जाना है। अंत में इस धार्मिक रस्म के लिए पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पी.पी.पी.) की उलेमा शाखा के प्रधान उलेमा अफजल चिश्ती मजबूरी में सामने आये और यह अंतिम रस्म पूरी की।

आश्चर्य की बात है कि स्वयं सलमान तासीर की पार्टी के लोग सहमे-सहमे हैं। उनमें से कोई भी खुलकर इस हत्या की निंदा नहीं कर रहा है। कहीं से इस अतिवाद को कोई चुनौती नहीं है। टी.वी. ऐंकर तथा अखबारों के स्तंभ लेखक भी तासीर की हत्या को एक त्रासदी तो कह रहे हैं, लेकिन उसमें से कोई उनके विचारों के साथ खड़ा होने के लिए तैयार नहीं है। यही टिप्पणीकार साफ शब्दों में कह चुके हैं कि ब्लासफेमी कानून का विरोध करके तासीर ने अपने को रेखा के उस तरफ खड़ा कर दिया है, जहां मौत तय है।

सलमान तासीर का अपराध यह है कि वह पाकिस्तान के ‘ब्लासफेमी-लॉ' (ईश निंदा विरोधी कानून) के खिलाफ थे और इसमें संशोध्न कराना चाहते थे। गत 20 नवंबर को अपनी पत्नी व बेटी के साथ आशिया बीबी (45) नामक उस ईसाई महिला से मिलने के लिए लाहौर के शेखूपुरा जेल में गये तथा उसे आश्वासन दिया कि वह उसे माफी दिलवाने का प्रयास करेंगे। यद्यपि सलमान तासीर के विचारों का विरोध पहले से ही था, लेकिन इस घटना के बाद विरोध बढ़ गया। उनके घर के आस-पास आये दिन विरोध प्रदर्शन होने लगे। मजहबी पार्टियों ने देशभर में उने खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिया। कई जगह उनके पुतले जलाये गये। 26 दिसंबर को उन्होंने अपने ‘ट्विटर‘ पर लिखा कि ‘ब्लासफेमी-लॉ‘ का विरोध करना गलत है या सही, इसका फैसला संसद में होना चाहिए न कि सड़क पर। इसके बाद 31 दिसंबर के अपने ‘ट्विटर‘ पर उन्होंने लिखा कि मेरे उपर अत्यधिक दबाव है, लेकिन मैं अपने विचार बदल नहीं सकता। हो सकता है मैं अंतिम व्यक्ति होउं, लेकिन मैं अपना विरोध जारी रखूंगा और इसके बाद 4 जनवरी को दिन दहाड़े दोपहर में उनके अपने ही अंगरक्षक ने उनकी हत्या कर दी। हत्यारा गर्वोन्नत गाजी की तरह पुलिस के घेरे में अदालत पहुंचा। वहां सबसे पहले पहुंचने वाली ‘आफ न्यूज' चैनेल की डाइरेक्टर नसीम जहरा से उसने कहा ‘मैं प्राफेट का गुलाम हूं और ब्लासफेमी की सजा मौत से कम कुछ हो ही नहीं सकती।'

सलमान तासीर मई 2008 में जब राज्यपाल बने, तो उन्होंने सबसे पहले घोषित किया कि पंजाब का वसंत उत्सव फिर शुरू किया जाएगा। वसंत के अवसर पर पतंगबाजी का उत्सव पूरे पंजाब में अत्यंत लोकप्रिय था, जो विभाजन के बाद भी बंद नहीं हुआ, लेकिन धार्मिक कट्टरवाद के कारण सरकार ने इस पर रोक लगा दी थी। तासीर ने इसे फिर शुरू कराया, लेकिन धार्मिक विरोध व अदालत के आदेश से इस पर पुनः प्रतिबंध लग गया।

सलमान तासीर शुरू से ही अत्यंत प्रगतिशील विचारों के थे। शायद उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि इसका सबसे बड़ा कारण थी। अविभाजित भारत में शिमला में पैदा हुए (31 मई 1944) सलमान तासीर के पिता डॉ. मुहम्मदीन तासीर शायद इंग्लैंड से अंग्रेजी साहित्य में पी.एच.डी. करने वाले पहले भारतीय थे। मां क्रिस्टोबे (बाद का नाम बिलकीस तासीर) एक ब्रिटिश ईसाई महिला थी। वह फैज अहमद फैज की अंग्रेजी पत्नी अलियास फैज की बहन थीं। वह आधुनिक पश्चिमी विचारों के बीच पहले बढ़े और व्यवसाय की दृष्टि से भी आधुनिक विश्व के साथ जुड़े रहे। भुट्टो परिवार से उनकी गहरी निकटता थी। इसीलिए जब पी.पी.पी. दुबारा सत्ता में आयी, तो आसिफ अली जरदारी ने उन्हें पंजाब प्रांत का राज्यपाल बनाया।

तासीर इस ब्लासफेमी कानून का विरोध करने के पहले संविधान की वह धारा हटवाना चाहते थे, जिसके अंतर्गत अहमदिया समुदाय को गैरमुस्लिम की सूची में डाला गया था। लेकिन इसमें भी वह कट्टरपंथियों के विरोध के कारण सफल नहीं हुए। ब्लासफेमी कानून के खिलाफ आवाज उठाने में उनका साथ केवल एक महिला संसद सदस्या शेरी रहमान ने दिया। संसद में उपर्युक्त कानून में संशोधन का विधेयक इस शेरी रहमान के द्वारा ही पेश किया गया है। लेकिन इस विधेयक के पेश किये जाने के बाद से ही शेरी रहमान सार्वजनिक नजरों से गायब हो गयीं हैं। कट्टरपंथी उनके भी पीछे पड़ गये हैं। उनके मित्रों ने सलाह दी है कि वह देश छोड़कर चली जाएं। लेकिन वह अभी बाहर जाने के लिए तैयार नहीं हैं।

पाकिस्तान में ब्लासफेमी कानून यद्यपि बहुत पहले से है, लेकिन राष्ट्रपति जियाउल हक ने इस्लाम के नाम पर देश में एकता कायम करने के लिए संविधान में इसे विशेष दर्जा दिलाया था और इसमें मौत की सजा पक्की की थी। सलमान तासीर उस समय भी इसके खिलाफ थे और इसके लिए जियाउल हक सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया था। लेकिन मानना पड़ेगा कि तासीर अपने विचारों के प्रति पूरी तरह दृढ़ थे और उसी के लिए अंततः शहीद हो गये।

पाकिस्तान का यह ब्लासफेमी या ईशनिंदा कानून भी अजीब है। इसमें केवल आरोप लगा देना भर ही काफी है। उसके लिए न किसी प्रमाण की जरूरत है और न उस पर कोई बहस हो सकती है। आशिया बीबी को इस कानून के अंतर्गत मौत की सजा तो सुना दी गयी, लेकिन अदालत ने यह तक नहीं पूछा कि आखिर ईशनिंदा के तौर पर उसने कहा क्या ? क्योंकि यदि कोई उसके कथन को दुहराता, तो वह स्वयं ब्लासफेमी का दोषी हो जाता। इसलिए अदालत ने किसी से पूछा नहीं कि उसने क्या निंदा की। ऐसी खबर है कि आशिया बीबी की कुछ बकरियां पड़ोसी मुस्लिमों की जमीन में चली गयी थीं। इस पर उन मुस्लिम औरतों से उसकी कुछ कहासुनी हो गयी। बस उन औरतों ने उस पर पैगंबर मुहम्मद की निंदा का आरोप लगा दिया और अदालत ने उसे मौत की सजा सुना दी, क्योंकि इस कानून के अंतर्गत इस्लाम या पैगंबर मुहम्मद की निंदा की सजा इससे कम कुछ हो ही नहीं सकती।

शेरी रहमान इस हत्याकांड से निश्चय ही बहुत आहत हैं। उनकी अपनी सुरक्षा तो खतरे में है ही, लेकिन वह अपने बचाव से अधिक पाकिस्तान के बचाव के लिए चिंतित हैं। उनका कहना है कि ‘सवाल यहां व्यक्तिगत सुरक्षा का नहीं है, बल्कि मुख्य समस्या यह है कि पाकिस्तान का पूरा अस्तित्व ही खतरे में है। कट्टरपंथियों के बढ़ते प्रभाव के आगे देश में आर्थिक व राजनीतिक सुधारों का भी कोई अवसर नहीं रह गया है। पाकिस्तान संसद (राष्ट्रीय असेंबली) की अध्यक्ष फहमीदा मिर्जा शेरी ने अपने खिलाफ लोगों के गुस्से को कम करने के लिहाज से कहा है कि उन्होंने सदन में जो विधेयक पेश किया है, वह ब्लासफेमी कानून को बदलने के लिए नहीं, बल्कि उस पर चर्चा करने के लिए किया है। लेकिन उनकी इस सफाई से कट्टरपंथी संतुष्ट नहीं हैं।

ब्रिटिश दैनिक गार्जियन की एक रिपोर्ट के अनुसार शेरी के समर्थक उसकी सुरक्षा के लिए चिंतित हैं। शेरी ने अब तक न तो देश छोड़ा है और न उसने पुलिस से सुरक्षा के लिए कोई मांग की है। शायद अब पुलिस की सुरक्षा मांगने का कोई अर्थ ही न रह गया हो। लोकिन चिंता यह है कि वह कब तक अपने को बचा सकेंगी। जब मजहबी कट्टरपन की भावना इतनी बढ़ चली हो कि पुलिस का शीर्ष कमांडो दस्ता भी जिहादी घुसपैठ से मुक्त न हो, मजहबी संगठनों की कौन कहे, जब अदालत में वकीलों का समुदाय आतंकवादी हत्यारे का सम्मान करने में लग गया हो, जहां अदालत के लिए एक गवर्नर की हत्या करने वाले के लिए अपराध तय करना कठिन हो रहा हो, तो उस देश में क्या हो सकता है। जहां मुल्ला-मौलवियों की कोई जमात, उग्रवादी नारे लगाती कोई भीड़, कोई अदालत या कोई आपका अंगरक्षक ही आपको मौत के घाट पहुंचा सकता हो, तो वहां नागरिक सुरक्षा का भी क्या अर्थ हो सकता है। यहां यह उल्लेखनीयच है कि पाकिस्तान की धार्मिक पार्टियों ने तासीर की हत्या की निंदा करने से भी इनकार कर दिया है, जिसका मतलब है कि जो हुआ वह ठीक हुआ। तासीर थे ही मौत के हकदार, उन्हें मार दिया गया, तो ठीक ही हुआ। कुछ संगठनों ने तो उन्हें ‘लिबरल इक्स्ट्रीमिस्ट' (उदार अतिवादी) की भी संज्ञा दे डाली है। क्या मतलब है इसका ? स्पष्ट है कि जिहादी अतिवादियों की नजर में उदार लोकतंत्रवादी भी अतिवादी है। पाकिस्तान में कट्टरपन कोई नई बात नहीं है। मजहबी कट्टरपन तो उसकी घुट्टी में मिला हुआ है। जिसकी पैदाईश ही मजहबी कट्टरपन और हिंसा के बीच से हुई हो, वहां कट्टरपन न हो तो इसी पर आश्चर्य होगा, लेकिन आज कठिनाई यह है कि इस कट्टरपन के खिलाफ वहां कोई नेतृत्व नहीं रह गया है। जो थोड़ी बहुत विरोध की आवाज है भी, वह मिमियाती सी प्रतीत होती है। राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी शोक व्यक्त करने के लिए तासीर के घर अवश्य गये, क्योंकि न केवल तासीर के साथ उनकी राजनीतिक घनिष्ठता थी, बल्कि उनका पारिवारिक संबंध भी था, लेकिन सामान्यतया लोग उनके घर संवेदना व्यक्त करने जाते भी डर रहे हैं।

लाहौर में तासीर की अंत्येष्टि के समय पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेताओं की तो मौजूदगी रहनी ही थी, लेकिन अन्य राजनीतिक पार्टियों ने अपनी दूरी बनाए रखी। नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग का कोई नेता इसमें शामिल नहीं हुआ। शायद उन पर उन मजहबी संगठनों की धमकी का असर था कि जो तासीर की अंत्येष्टि में भाग लेगा या उनके प्रति सहानुभूति व्यक्त करेगा, वह भी अपनी मौत को आमंत्रित करेगा। इस भय से पी.पी.पी. भी पूरी तरह मुक्त नहीं थी। इसका बड़ा प्रभाव यही है कि पार्टी कार्यकर्ताओं ने तासीर की मौत पर टायर आदि जलाकर अपना विरोध प्रदर्शन अवश्य किया तथा पारंपरिक नारे भी लगाये, लेकिन पार्टी नेताओं ने तासीर की हत्या के लिए सीधे कट्टरपंथियों को दोषी ठहराने के बजाए इसे एक षड्यंत्र का हिस्सा बताया और कहा कि हमें पता लगाना है कि कहीं यह पाकिस्तान को अस्थिर करने की कोशिश का हिस्सा तो नहीं है।

टी.वी. पर अपने अंतिम साक्षात्कार में पहली जनवरी को तासीर ने कहा कि ‘आशिया बीबी का समर्थन करना उनका निजी निर्णय था... मैं अपनी पत्नी और बेटी के साथ उससे मिलने गया था। इसमें कुछ लोगों ने मेरा समर्थन किया, कुछ ने विरोध... लेकिन यदि मैं खुद होउंगा, तो फिर कौन खड़ा?‘ जाहिर है उनके साथ खड़े होने वालों वालों की संख्या उनकी अपनी नजर में भी नगूय थी। बहुतों के लिए यह एक चकित करने वाली बात है कि पाकिस्तानी मीडिया पर भी दिनों दिन कट्टरपंथी तत्वों का आधिपत्य होता जा रहा है। पहले जो लोग तटस्थ व उदारपंथी समझे जाते थे, वे भी अतिवादियों के रंग में रंगते जा रहे हैं। पाकिस्तान की प्रमुख महिला पत्रकारों में गिनी जाने वाली मेहेर बुखारी ने गत दिसंबर में तासीर से बातचीत करते हुए उनसे पूछा कि ‘क्या वह आशिया बेगम जैसी एक ईसाई औरत की बात उठाकर पश्चिमपंथी एजेंडे (प्रोवेस्टर्न एजेंडा) का अनुसरण नहीं कर रहे हैं।' यह वही मेहेर बुखारी हैं, जिन्हें कभी अमेरिकी दूतावास की पार्टी में शामिल होने के कारण ‘सी.आई.ए. का एजेंट‘ कहा गया था।

वास्तव में तासीर की हत्या तथा उसके बाद की घटनाओं के साथ एक बड़ा सवाल आ खड़ा हुआ है। यह सवाल केवल पाकिस्तान के समक्ष ही नहीं या केवल दक्षिण् एशिया के समक्ष ही नहीं, बल्कि पूरी मनुष्यता के सामने आ खड़ा हुआ है। सवाल है क्या दुनिया में ईश निरपेक्ष लोगों को जीने का हक है या नहीं ? और यदि है तो उस हक की रक्षा के लिए कौन आगे आएगा?

‘ब्लासफेमी लॉ‘ का जन्म 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश उपनिवेश्वादी शासनकाल में हुआ था, लेकिन उसे राज सत्ता का हथियार पहली बार पाकिस्तान में जियाउल हक की सरकार ने बनाया। अमेरिका पाकिस्तान में अनेक सुधारों के लिए दबाव डालता रहता है, लेकिन इसे बदलने के लिए उसने कभी दबाव नहीं डाला। समझा जाता था कि शिक्षा के विस्तार तथा आर्थिक विकास के साथ् इस तरह की अंधी रुढ़ियां समाप्त हो जाएंगी, लेकिन देखा जा रजा है कि यह बढ़ती जा रही है और तथाकथित उदारवादी शक्तियां अपने निहित स्वार्थवश उसके समक्ष आत्मसमर्पण भी करती जा रही हैं। पाकिस्तान में तासीर की जगह लेने वाला कोई राजनेता सामने आ सकेगा, इसकी आशा तो कम ही है, यहां भारत में रहते हुए भी चिंता यह फैल रही है कि क्या यहां भी वे शक्तियां निरंतर कमजोर नहीं पड़ती जा रही हैं, जो मजहबी कट्टरवाद के मुकाबले खड़ी हो सकती थीं।

पाकिस्तान में कुछ वर्ष पूर्व एक सर्वे हुआ था, जिसमें केवल 35 प्रतिशत लोगों ने जिहादी कट्टरपन का समर्थन किया था। शेष 65 प्रतिशत उसके समर्थक नहीं थे, लेकिन उसके खिलाफ भी आवाज उठाने के लिए तैयार नहीं थे। इन चुप रहने वालों ने ही मलिक मुमताज हुसैन कादरी जैसों का साहस बढ़ा दिया है। इस तरह की प्रवृत्ति यहां भारत में भी बढ़ती दिखायी दे रही है। सरकारें ही नहीं, व्यापक राष्ट्रीय समाज भी हिंसक अलगाववादियों के आगे घुटने टेकता नजर आ रहा है। गणतंत्र दिवस पर श्रीनगर के लाल चौक पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा नहीं लहराया जा सकता, क्योंकि इससे शांति भंग हो सकती है। अलगवावादी कश्मीरी भड़क सकते हैं। विश्वव्यापी इस्लामी आतंकवाद से क्षुब्ध कुछ साध्ुओं ने बम का जवाब बम से देने के उत्साह में दो-चार विस्फोट कर दिये, तो उसे लेकर हिन्दू आतंवाद का नारा उछाल दिया गया, लेकिन व्यापक शांतिप्रिय समाज चुप है। ब्रिटिश स्तंभकार डिक्लैन वाल्श के शब्दों में क्या इस चुप्पी से मौत नहीं जन्म ले रही है। उन्होंने अपने एक लेख में लिखा था ‘साइलेंस किल्स' (चुप्पी मारती है)। सच है कि यह समय शांति मंत्र जपने का नहीं, बल्कि प्रतिकार की आवाज बुलंद करने का है। मुमताज कादरी जैसों के नारों का जवाब कायर चुप्पियों व नपुंसक शांति पाठों से नहीं दिया जा सकता।

9/01/2011


रविवार, 2 जनवरी 2011

क्या 2011 कुछ बेहतर वर्ष होगा ?


प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने नव वर्ष के प्रारंभ की पूर्व संध्या पर अपने कुछ संकल्पों की घोषणा की है। इसमें सबसे बड़ा संकल्प है देश की शासन प्रक्रिया को शुद्ध करना और देशवासियों को एक स्वच्छ और कारगर प्रशासन देना। इसके साथ ही उन्होंने मुद्रास्फीति रोकने यानी महंगाई पर काबू पाने तथा राष्ट्रीय सुरक्ष को सुनिश्चित करने का भी संकल्प लिया है। सवाल है कि क्या वह इन संकल्पों को पूरा करने में सक्षम हैं ? देश के वह पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जिनके हाथ में देश का न तो राजनीतिक नेतृत्व है, न राजनीतिक फैसले लेने का कोई अधिकार। वह कार्यपालिका के प्रधान अवश्य हैं, लेकिन कार्यपालिका पर असली नियंत्रण तो राजनीतिक नेतृत्व का होता है, फिर वह अपने संकल्पों को कैसे पूरा कर पाएंगे।


प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने नव वर्ष 2011 की पूर्व संध्या पर कहा कि उनका नये साल का संकल्प है कि देश की शासन व्यवस्था को स्वच्छ बनाना। इसके लिए वह अपना प्रयास दोगुना कर देंगे। यद्यपि उन्होंने अपने संकल्प में कई और बातों को भी शामिल किया, जैसे कि मुद्रास्फीति को रोकना तथा राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करना आदि, लेकिन इनमें सर्वोपरि स्थान प्रशासन को स्वच्छ बनाने के कार्य (क्लीन द गवर्नेंस) को दिया है।

अब सवाल है कि क्या यह उनके लिए संभव है ? या यह केवल एक राजनीतिक लफ्फाजी मात्र है। प्रधानमंत्री इस समय चारों तरफ से भ्रष्टाचार व कुशासन के आरोपों से घिरे हुए हैं। प्रायः सरकार की सारी जांच संस्थाएं घोटालों और प्र्रशासनिक अनियमितताओं की जांच में लगी हैं। 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की मांग को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष अभी भी गुत्थम गुत्था हैं। प्रधानमंत्री की विपक्ष की जे.पी.सी. की मांग को अप्रासंगिक बनाने की चाल विफल हो गयी है। उन्होंने संसद की लोक लेखा समिति (पी.ए.सी.) को पत्र लिखकर कहा था कि यद्यपि ऐसी कोई परंपरा नहीं है, फिर भी यदि पी.ए.सी. जरूरत समझे तो वह सवालों का जवाब देने के लिए उसके समक्ष उपस्थित होने के लिए तैयार हैं। पी.ए.सी. के अध्यक्ष भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी हैं। प्रधानमंत्री ने शायद सोचा था कि भाजपा के कमोबेश उपेक्षित किंतु महत्वाकांक्षी नेता जोशी जी प्रधानमंत्री को सवाल-जवाब के लिए अपने समक्ष बुलाने का लोभ संवरण नहीं कर पाएंगे और यदि उन्होंने प्रधानमंत्री को बुलाकर पूछताछ कर ली, तो फिर विपक्ष की जे.पी.सी. गठित करने की मांग अपने आप ढीली पड़ जायेगी। यद्यपि जोशी जी ने प्रधानमंत्री के इस पत्र पर अभी अपना कोई निर्णय नहीं लिया है, लेकिन यह अवश्य कहा है कि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच जे.पी.सी. द्वारा ही की जानी चाहिए। वे खुद भी इसके समर्थक हैं। और बहुत से लोगों की तरह उनकी भी यह राय है कि ‘जे.पी.सी.' व ’पी.ए.सी.' दोनों समांतर संस्थाएं हैं, इसलिए दोनों एक साथ काम कर सकती हैं। उनमें कोई टकराव जैसी स्थिति नहीं है। जहां तक पी.ए.सी. के सामने प्रधानमंत्री के पेश होने की बात है, तो जोशी जी यह जानते हैं कि पी.ए.सी. को प्रधानमंत्री तो क्या किसी मंत्री को भी अपने समक्ष पेश होने के लिए बुलाने का अधिकार नहीं है। फिर भी वर्तमान स्थिति में मामला विशिष्ट है, क्योंकि समिति के समक्ष पेश् होने का प्रस्ताव स्वयं प्रधानमंत्री की तरफ से आया है। इसलिए जोशी ने कहा है कि वे इस मामले में कानून के विशेषज्ञों से राय लेंगे और उसके बाद ही अपना फैसला करेंगे। लेकिन बहुत संभव है कि वह प्रधानमंत्री का प्रस्ताव अस्वीकार कर दें। कारण बहुत स्पष्ट है। एक तो उनकी अपनी पार्टी ही यह नहीं चाहती कि वह प्रधानमंत्री को अपने समक्ष बुलाएं। दूसरे प्रधानमंत्री के प्रस्ताव मात्र से उसे ऐसा कोई अधिकार नहीं मिल जाता कि वह प्रधानमंत्री या किसी भी और मंत्री को बुला सकते हैं। सरकार की तरफ से भी यह कहा गया है कि प्रधानमंत्री केवल एक बार पी.ए.सी. के सामने उपस्थित होंगे। यह आगे के लिए न तो कोई नजीर बनेगा, न भविष्य के लिए पी.ए.सी. के अधिकारों में ऐसा कोई इजाफा ही होगा कि वह प्रधानमंत्री को बुला सके। जाहिर है कि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करने की मांग और विरोध का रगड़ा 2011 में भी जारी रहेगा और बहुत संभव है कि संसद का बजट अधिवेशन भी इसके आघात से प्रभावित हो। भ्रष्टाचार के अन्य मसले भी इस साल सरकार को मथते रहेंगे।

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने उपर्युक्त वक्तव्य में यद्यपि बहुत जोर देकर कहा है कि मैं अपने सभी नागरिकों को आश्वस्त करना चाहता हूं कि हम देश को स्वच्छ प्रशासन देने के लिए अपना प्रयास दोगुना कर देंगे, लेकिन किसी को रत्ती भर भी भरोसा नहीं है कि वह ऐसा कुछ कर सकते हैं। क्योंकि यह कड़वी सच्चाई है कि प्रधानमंत्री होते हुए देश का राजनीतिक नेतृत्व उनके हाथ में नहीं है, इसीलिए वह अपने पदानुकूल राजनीतिक अधिकारों से भी वंचित हैं । कार्यपालिका के प्रधान के नाते उनके पास जो प्रशासनिक अधिकार हैं, वे राजनीति नियंत्रित हैं, इसलिए उनके ऐसे आश्वासनों व वायदों का कोई अर्थ नहीं है। उनका इस तरह का बयान केवल एक राजनीतिक कर्मकांड की पूर्ति करता है, जो नये वर्ष के अवसर पर किया जाना आवश्यक था। देश की जनता इस समय सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार की विराटता से सचमुच विचलित है। उसका वर्तमान शैली के शासनतंत्र व लोकतंत्र में विश्वास उठता नजर आ रहा है। ऐसे में बेचारे प्रधानमंत्री और कह भी क्या सकते थे।

प्रधानमंत्री ने मुद्रास्फीति व महंगाई रोकने का भी वायदा किया है, लेकिन यह भी उनके वश में नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत बढ़ रही है, तो अपने देश में भी पेट्रोल-डीजल लगातार महंगा होता जा रहा है। 10-15 रुपये किलो की प्याज अब सस्ती होकर भी 35 रुपये किलो बिक रही है। देश के सांसद दुखी हैं कि संसद भवन की कैंटीन में मिलने वाला उनका नाश्ता खाना भी महंगा हो गया है। वहां 1 रुपये कप मिलने वाली चाय केवल 2 रुपये हो गयी है, डेढ़ रुपये प्लेट का वड़ा सांभर 2 रुपये का हो गया है, मसाला डोसा 4 रुपये से बढ़कर 6 रुपये का हो गया है, खीर का 5 रुपया का कटोरा 8 रुपये का और 24 रुपये प्लेट की चिकन करी 37 रुपये की हो गयी है। अब वे सांसद जिनकी तनख्वाह अभी हाल में तीन गुना से भी ज्यादा बढ़ायी गयी है, वे खाने नाश्ते के इस न्यूनतम वृद्धि से भी दुखी हैं, लेकिन उन्हें देश की आम जनता की तकलीफों की चिंता नहीं है। अब यदि संसद भवन की कैंटीन के दरें बढ़ रही हैं, तो देश में उपर चढ़ रही महंगाई भला कैसे नियंत्रित हो पाएगी, लेकिन प्रधानमंत्री के आश्वासन से इस देश की परमविश्वासी आम जनता शायद एक बार फिर मान ले कि अपना अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री कुछ चमत्कारी करके कीमतें नीचे ला सकता है।

अब दक्षिण एशिया, यानी भरतीय क्षेत्र में यदि शांति सुरक्षा की बातें करें, तो वह भारत-पाक संबंधों और इस्लामी आतंकवादियों की कृपा कर निर्भर है। 2011 में भारत-पाक संबंधों में कोई बदलाव आ सकता है, इसकी दूर दूर तक कोई कल्पना नहीं की जा सकती। जाहिर है इस क्षेत्र की शांति-सुरक्षा भारत-पाकिस्तान के राजनीतिक एजेंडे में डूबी है, जिसमें इस वर्ष तो क्या अगले कई वर्षों में कोई सकारात्मक बदलाव आने वाला नहीं है। क्षेत्रीय स्तर पर शांति सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती नक्सलियों की ओर से है, तो यहां अपने आंध्र प्रदेश में पृथक तेलंगाना का मसला शांति व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अवश्य एक महत्वपूर्ण बात भारत के पक्ष में हुई है, जिसकी तरफ सामान्यतया लोगों का ध्यान कम जा रहा है, वह है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता का। करीब दो दशकों बाद भारत पुनः सुरक्षा परिषद में पहुंचा है। यद्यपि उसकी स्थाई सदस्यता की मांग अभी तमाम पचड़ों में फंसी है, लेकिन कम से कम 2 वर्ष के लिए उसे इस विश्व संस्था की अस्थाई सदस्यता अवश्य प्राप्त हो गयी है और पहली जनवरी से उसका कार्यकाल शुरू हो गया है। अस्थाई ही सही, लेकिन इस बार की भारत की सदस्यता की खास बात है कि उसके साथ जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील भी उसी स्तर पर सुरक्षा परिषद में पहुंचे हैं। इस तरह का ग्रुप चार के चारों सदस्य (भारत, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका) व 'ब्रिक-कंट्रीज' के (ब्राजील, रूस, भारत और चीन) के नाम से गठित चार देशों का संगठन भी सुरक्षा परिषद का अंग बन गया है। जाहिर है भारत की इस बार की सदस्यता काफी महत्वपूणर्् है और अपने दो साल के कार्यकाल में भी वह वहां पर अपनी एक अमिट छाप छोड़ सकता है।

कुल मिलाकर 2011 भारत के लिए 2010 से कुछ बहुत अधिक भिन्न होने वाला नहीं है। इस वर्ष होने जा रहे राज्य विधानसभाओं के चुनाव अवश्य देश की राजनीति को थोड़ा बहुत प्रभावित कर सकते हैं। हां, आर्थिक क्षेत्र काफी सकारात्मक संभावनाएं समेटे हुए है। अमेरिका व यूरोपीय देशों में मंदी की स्थिति घटने के कारण देश के भीतर रोजगार और विदेशों के लिए निर्यात बढ़ने की पूरी संभावनाएं हैं। आई.टी. क्षेत्र में करीब डेढ़ करोड़ नई नौकरियां पैदा होने की संभावना है। महंगाई तो रहेगी, लेकिन विकास दर भी 8 से 9 प्रतिशत की ओर गतिमार रहेगी। फिर भी भविष्य का बहुत कुछ हमारे राजनेताओं के चरित्र व फैसलों पर निर्भर करता है। हमें आशा करनी चाहिए कि वे 2010 के खुलासों से कुछ सबक लेंगे और 2011 को एक बेहतर वर्ष बनाने का प्रयास करेंगे।

02/01/2011