शनिवार, 21 मई 2011

अयोध्या विवाद केवल जमीन का विवाद नहीं


सभी खुश हैं सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर: उसने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को ‘अजीब‘ और ‘चकित‘ करने वाला बताया। क्या वह आगे कोई युक्तिसंगत फैसला दे सकेगा ?
अयोध्या विवाद केवल जमीन के किसी एक टुकड़े के मालिकाना हक का विवाद नहीं है। सच कहें तो यह हिन्दुओं मुसलमानों के बीच का कोई मजहबी विवाद भी नहीं है। और यह ऐसा विवाद भी नहीं है जो 1949, 1984 या 1992 में पैदा हुआ हो। यह 1528 का विवाद है जब एक विदेशी आक्रांता ने- जो संयोग से एक कट्टर मुस्लिम भी था- इस देश की सांस्कृतिक अस्मिता व अभिमान को कुचलने के लिए उसके सबसे बड़े प्रतीक को ध्वस्त करके उसकी जगह अपनी विजेता शक्ति का प्रतीक कायम किया। भारतीयों को अपनी पराजय याद रहे इसलिए उसके प्रतीक स्थल के उत्कीर्ण स्तंभों को भी उसने अपने निर्माण के दरवाजोंपर लगवाया। अब वह प्रतीक भी ध्वस्त हो गया, लेकिन विवाद अभी भी कायम है। क्या इस देश की सर्वोच्च अदालत इतिहास की रोशनी में इस विवाद का कोई न्यायसंगत निपटारा कर सकेगी ?

अयोध्या विवाद का असली मुद्दा न तो किसी जमीन के एक टुकड़े पर अधिकार का मुद्दा है और न यह कि वहां राम पैदा हुए थे या नहीं अथवा वहां स्थित मंदिर को किसने तोड़ा या किसने वहां मस्जिद बनवाई, बल्कि केवल यह हे कि क्या विवादित स्थल पर मूलतः मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण कराया गया। यह कोई ऐरा-गैरा मंदिर नहीं था और न यह किसी ऐरी-गैरी जगह पर था। यह वह जगह है जिसे पूरे ऐतिहासिक परम्परा अयोध्या के रूप में स्वीकार करती है और यहां उस व्यक्ति का मंदिर या स्मारक भवन था जो पूरी भारतीय संस्कृति व परम्परा का केन्द्रीय प्रतीक है। यहां मंदिर का निर्माण जहां मानवीय आदर्श और न्याय की प्रतीक है। यहां मंदिर का निर्माण जहां मानवीय आदर्श और न्याय की प्रतीक स्थापना के लिए किया गया था वहीं मस्जिद का निर्माण उस प्रतीक को ध्वस्त करके भारतीयों को अपमानित करने के लिए किया गया। यहां मस्जिद का निर्माण किसी धार्मिक आस्था की अभिव्यक्ति के लिए नहीं किया गया। यदि ऐसा होता तो उसमें मंदिर के अवशेष उत्कीर्ण स्तंभ न लगाये जाते। मस्जिद के भीतर ही नहीं उसके बाहरी द्वार में भी पुराने मंदिर के दो प्रतिमा युक्त स्तम्भ लगाये गये जहां मस्जिद में जाने वाले अपने जूते उतारते थे। ऐसा कार्य किसी धार्मिक विश्वास वाला व्यक्ति नहीं कर सकता। इस तरह का कार्य ऐसा कोई विजेता ही कर सकता है जो इस मस्जिद के रूप में मंदिर की ताकत पर मस्जिद की जीत का राजनीतिक स्मारक खड़ा करना चाहता था। यही कारण है कि इसके निर्माण के काल से ही इसका विरोध भी चलता आ रहा है। क्या इसकी ऐतिहासिकता सिद्ध करने के लिए इतना प्रमाण काफी नहीं है कि पिछले करीब पांच सौ वर्षों से एक पूरा राष्ट्रीय समुदाय इस स्थल को वापस पाने के लिए संघर्ष करता आ रहा है। एक छोटी सी जगह के लिए इतने लंबे संघर्ष की दुनिया में कोई दूसरी मिसाल नहीं है।

मूल विवाद अब से 483 वर्ष पूर्व /1528 ई/ का है जब एक मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण कराया गया। दूसरे शब्दों में विवाद का मूल 1528 की घटना में है न कि 1949 /जब मस्जिद के गुम्बद तले कुछ लोगों ने मूर्ति स्थापित कर दी/ या 1992 /जब एक भारी भीड़ ने मस्जिद का ढांचा ध्वस्त कर दिया/ की घटना में। फैसला वस्तुतः 1528 की घटना का होना है न कि 1949 या 1992 की घटना का। 1949 और 1992 की घटनाएं 1528 की घटना से उत्पन्न हुए शताब्दियों के संघर्ष के बीच घटी तमाम घटनाओं के बीच की मात्र दो घटनाएं है क्योंकि विवाद अभी भी समाप्त नहीं हुआ है। आज की भारतीय अदालतें या आज का कानून 1528 के मसले का समाधान कर सकता है या नहीं यह अलग बात है, लेकिन न्याय की आकांक्षा या उसके लिए चलने वाला संघर्ष कुछ किताबों या न्याय का चोंगा पहने व्यक्तियों का मोहताज नहीं होता। उसके लिए इसका भी कोइ्र अर्थ नहीं है कि उसका संघर्ष कितना पुराना है और इस अवधि में कितनी तरह की कैसी-कैसी सरकारें गुजर चुकी हैं। किसी समाज के सांस्कृतिक इतिहास को उसके राजनीतिक ढांचों द्वारा खंडित नहीं किया जा सकता। आज के स्वतंत्र भारत का न्यायालय /भले ही वह अंग्रेजी परम्परा पर आधारित है/ का न्यायाधिपति /न्यायाधीश/ उस अंग्रेजी न्यायाधिकारी की तरह केवल यह कह कर न्याय करने के अपने कर्तव्य से मुख नहीं मोड़ सकता कि मूल घटना बहुत पुरानी हो गई है जिसने 1885 में निर्माही अखाड़ा के महंत रघुबरदास की याचिका पर फैसला देते हुए लिखा थ, ‘कल मैं सभी पक्षों की उपस्थिति में विवादित स्थल का मुआयना करने गया। मैंने देखा कि सम्राट बाबर द्वारा बनवाई गई मस्जिद अयोध्या के एक किनारे पर स्थित है... यह अत्यंत दुर्भाग्य का विषय है कि मस्जिद का निर्माण उस भूमि पर किया गया जो हिन्दुओं के लिए विशेष रूप से /स्पेसियली/ पवित्र मानी जाती रही है, लेकिन चूंकि यह घटना अबसे 356 वर्ष पूर्व घटी थी इसलिए इसको लेकर व्यक्त असंतोष को स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसके लिए बहुत देर हो चुकी है।‘ यह फैसला फैजाबाद /जिसके अंतर्गत अयोध्या आता है/ के जिलाजज कर्नल एफ.ई.ए. चामिएर ने 18 मार्च 1886 को लिखा था।

यहां उल्लेखनीय है कि महंत रघुबरदास ने अंग्रेज जिला जज से विवादित स्थल पर कोई फैसला नहीं मांगा था, बल्कि उन्होंने बाबरी मस्जिद के बाहर स्थित उस चबूतरे पर एक मंदिर बनाने की अनुमति मांगी थी जो भगवान राम की पूजा-अर्चना के लिए उन्हें मिला था, लेकिन उस पर किसी निर्माण कार्य की अनुमति नहीं थी। उस चबूतरे पर केवल एक फूस का झोपड़ा था जिसमें मूर्ति स्थापित थी और इस झोपड़े को भी तीन फिट से अधिक उंचा बनाने की अनुमति नहीं थी। पुजारी इसमें केवल बैठ सकता था और इसके भीतर किसी गुफा की तरह रेंगकर जाता था। यह स्थिति स्वतंत्र भारत में भी 1992 तक तब तक बनी रही जब तक कि मस्जिद का पूरा परिसर ही ध्वस्त नहीं कर दिया गया। स्वतंत्र भारत में केवल इतना फर्क पड़ा था कि फूस के उपर टिन की चादर भी लग गई थी जिससे वर्षा का पानी नीचे न आ सके। इसके पहले भारी वर्षा के समय निश्चय ही राम लला की प्रतिमा छप्पर से टपकती बंूदों से नहाती रही होगी। चबूतरे का यह मंदिर, मस्जिद के भीतर प्रतिमा स्थापन के बाद भी बना रहा और निर्मोही अखाड़ा की ओर से यहां पूजा-अर्चा हुआ करती थी। रघुबरदास केवल यह चाहते थे कि उनके राम भी ठीक से एक मंदिर में स्थापित हो सकें। उस समय उनकी योजना कोई विशाल मंदिर बनाने की नहीं, बल्कि उसी चबूतरे पर एक छोटा मंदिर बनाने की थी, किन्तु उसकी भी अनुमति उन्हें नहीं मिली। इसके बाद प्रतीक्षा की जाने लगी स्वतंत्रता प्राप्ति की, क्योंकि तब तक कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी और स्वतंत्रता की आकांक्षा जोर पकड़ने लगी थी। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी जब आकांक्षा पूरी नहीं हुई। शांतिपूर्ण आन्दोलन भी विफल हो गया तो 1949 के दिसंबर महीने में कुछ लोगों ने 22/23 तारीख की मध्यरात्रि में मस्जिद के भीतर बालक राम /राम लला/ की मूर्ति स्थापित कर दी। इसके बाद भी वर्ष पर वर्ष और दशक पर दशक बीतते गये, राज्य और केन्द्र की सरकारें ही नहीं अदालतें भी, पांच शताब्दियों से प्रतीक्षित न्याय की आकांक्षा को बहलाती रहीं। जिसका परिणाम 6 दिसंबर 1992 की घटना थी। अफसोस की बात यह हे कि अदालतों और राजनीतिक दलों तथा उनकी सरकारों ने अब तक अपना रवैया नहीं बदला है। देश का मीडिया भी इसे एक राजनीतिक खेल का मुद्दा बनाये हुए है।

अभी पिछले सप्ताह सोमवार को देश के सर्वोच्च न्यायालय ने श्रीराम जन्मभूमि/बाबरी मस्जिद के विवाद में दायर ’टाइटिल सूट’ (मिल्कियत निर्धारित करने के मुकदमें) पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के 30 सितम्बर 2010 के फैसले को स्थगित करके उस फैसले को बेहद ’अजीब‘ और ‘चकित‘ करने वाला बताया तथा कहा कि इस फैसले द्वारा हाई कोर्ट ने इस मसले को एक नया ही आयाम दे दिया है। उसने एक ऐसा फैसला दिया है जिसकी मांग किसी पार्टी ने नहीं की थी। इसमें तीन मुख्य पार्टियां थी जिन्होंने विवादित स्थल पर अपने-अपने अधिकार का दावा किया था, लेकिन किसी ने इसके टुकड़े करने की मांग नहीं की थी। सुप्रीम कोर्ट के दो जजों-आफताब आलम तथा आर.एम. लोढा- की पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट ने याचकों को बिल्कुल नई राहत दी है, ऐसी राहत जिसे कोइ्र नहीं चाहता था। रोचक यह है कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का सभी पक्षों ने स्वागत किया है। आमतौर पर लोगों का मानना है कि सुप्रीमकोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया है। और अब इस मामले में बिल्कुल नये सिरे से सुनवाई शुरू होगी। तकनीकी दृष्टि से सुप्रीम कोर्ट ने भले हाईकोर्ट के फैसले पर केवल ‘स्टे‘ दिया है, किन्तु उसने उसके फैसले पर जैसी टिप्पणी की है उससे जाहिर है कि सर्वोच्च अदालत को उसका फैसला कतई स्वीकार नहीं है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट की सुनवाई पीठ के तीनों जज- जस्टिस एस. यू. खान, जस्टिस सुधीर अग्रवाल तथा जस्टिस डी.वी. शर्मा- एक मुद्दे पर तो पूरी तरह सहमत थे कि विवादित भूमि परम्परया भगवान श्रीराम की जन्मभूमि है, इसलिए इसके केन्द्रीय स्थल पर रामलला की प्रतिमा बनी रहेगी, लेकिन अन्य मामलों में उनमें सहमति नहीं है। परस्पर भिन्न राय रहने के कारण तीनों ने ही संयुक्त फैसले के साथ-साथ अपनी अलग-अलग टिप्पणियां लिखी हैं। मंदिर के स्थल पर मस्जिद का निर्माण हुआ इसे तो तीनों मानते हैं, लेकिन बाबर या उसके सिपहसालार ने मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण कराया यह बात एस.यू. खान नहीं मानते। उनके अनुसार मस्जिद उस स्थल पर अवश्य बनी जहां पहले मंदिर था, लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि मस्जिद निर्माता ने ही मंदिर को तोड़वाया। इस मत भिन्नता से मूल फैसले में कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था, क्योंकि तीनों जजों ने इतना तो मान ही लिया कि विवादित स्थल मूलतः राम की जन्मभूमि था, वहां पर पहले मंदिर था जहां बाद में मस्जिद का निर्माण हुआ। अब इस प्रश्न पर मतभेद से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था कि मंदिर को किसने तोड़वाया। हिन्दुओं का भी संघर्ष मस्जिद तोड़ने के लिए बाबर को कानूनन दोषी करवाना नहीं, बल्कि यह सिद्ध करवाना था कि विवादित स्थल राम की जन्मभूमि है और उस स्थल पर मस्जिद बनाए जाने के पहले मंदिर था। फैसले का इतना हिस्सा हिन्दुओं के पक्ष में था जिसके लिए फैसला आने पर देश भर में हिन्दू समुदाय द्वारा खुशियां मनाई गईं। मगर मुस्लिम पक्ष को यह फैसला स्वीकार नहीं था, क्योंकि उसका आरोप था कि अदालत ने यह फैसला करने में कानून नहीं, बल्कि परम्परा व विश्वास (फेथ) का सहारा लिया है, लेकिन कोर्ट ने इसके बाद विवादित भूमि के बारे बंटवारे का जो फैसला किया वह ऐसा था जो किसी को स्वीकार्य नहीं था। यह फैसला एक के मुकाबले दो के बहुमत से दिया गया। न्यायाधीश डी.वी. शर्मा ने अपने फैसले में सारी विवादित भूमि हिन्दू समुदाय के हवाले किये जाने को कहा। जब सर्व सम्मति से या एक राय से यह फैसला हो गया कि विवादित भूमि राम जन्मभूमि है और वहां मस्जिद निर्माण के पूर्व मंदिर था तो फिर भूमि के बंटवारे का कोई सवाल नहीं है, अब सारी भूमि ‘रामलला‘ के पैरोकार को दे दी जानी चाहिए। किन्तु बाकी दो न्यायाधीशों एस.यू. खान और सुधीर अग्रवाल ने विवादित भूमि (2.77 एकड़) को तीन हिस्से में बांटने का निर्देश दिया। केन्द्रीय भाग- जहां रामलला की प्रतिमा विराजमान है- उनके पैरोकार हिन्दूपक्ष को मंदिर निर्माण के लिए दे दी जाए। बाकी हिस्से में से राम चबूतरा तथा सीता रसोई का हिस्सा निर्मोही अखाड़े को दे दिया जाए और शेष बचे हिस्से को सुन्नी वक्फबोर्ड को दे दिया जाए। तीनों को जमीन के बराबर-बराबर हिस्से दिये जाए। यदि प्रथम दो को हिस्सा देने के बाद सुन्नी वक्फबोर्ड की जमीन कम पड़े तो उसे सरकार द्वारा अधिकृत भूमि से लेकर पूरा कर दिया जाए।

इस बंटवारे का कतई कोई औचित्य नहीं था, लेकिन अदालत ने शायद तीनों पक्षों को संतुष्ट करने के लिए इस तरह का निर्णय लिया। एस.यू.खान ने तो खास तौर पर मुस्लिम समुदाय से अपील की थी, कि वह कौम के व्यापक हित में यह फैसला स्वीकार कर लें । अदालत की कोशिश में निश्चय ही अपने स्तर की ईमानदारी थी, लेकिन समझदारी का अभाव था। अदालत यह कल्पना नहीं कर सकी कि इस तरह के बंटवारे का फैसला किसी को स्वीकार्य नहीं हो सकता।

यह फैसला निश्चय ही अव्यावहारिक था। जमीनी स्तर पर इसका कार्यान्वयन हो ही नहीं सकता था। इसलिए इसके खिलाफ तो सभी पार्टियों को सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जाना ही था। अब सवाल है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय केवल इस बंटवारे वाले मामले की पुनर्समीक्षा करेगा या पूरे मामले की नये सिरे से सुनवाई करेगा। सामान्य राय तो यही हो सकती है कि सर्वोच्च न्यायालय को हाईकोर्ट के फैसले के पूर्ण सहमति वाले हिस्से को कतई नहीं छेड़ना चाहिए। उसे केवल इस औचित्यहीन बंटवारे पर अपनी अंतिम राय देनी चाहिए। लेकिन निश्चय ही मुस्लिम पक्ष पूरे मामले की नए सिरे से सुनवाई करने पर जोर देगा।

अब इस मामले की कानूनी स्थिति पर थोड़ा विचार कर लिया जाए। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनउ बेंच के सामने जो मामला पेश किया गया उसे ‘टाइटिल सूट‘ की संज्ञा दी गई। इसके अंतर्गत यह फैसला किया जाना होता है कि विवादित सम्पत्ति या भूमि का वास्तविक मालिक कौन है। सुन्नी वक्फबोर्ड उस भूसम्पत्ति का अपने को मालिक बताता है, क्योंकि उसकी राय में मस्जिद मकबरे या कब्रस्तान की सारी जमीन व भवनों का मालिक वही है। निर्मोही अखाड़े की दावेदारी इस बात को लेकर है कि राम चबूतरा व सीता रसोई क्षेत्र पर उसका ही पिछले डेढ़ सौ साल से कब्जा रहा है और चबूतरे पर स्थित मंदिर की सेवा-पूजा का कार्य उसका अस्तित्व रहने तक वही करता आया है। ‘राम लला‘ की तरफ से ‘टाइटिल सूट‘ दायर करने वाले का सीधा तर्क था कि उस स्थल पर विराजमान मंदिर का देवता ही उस संपदा का मालिक है। भारतीय कानून में मंदिरों में स्थापित प्रतिमा को एक व्यक्ति के तौर पर स्वामित्व का अधिकार प्राप्त है।

अब ईमानदारी से कहा जाए तो यह तीनों ही दावेदारियां गलत हैं। यह विवाद मंदिर मस्जिद का हो सकता है, लेकिन यह हिन्दू-मुस्लिम का धार्मिक (मजहबी)  विवाद नहीं है। यह मंदिर विरोधियों या मस्जिद विरोधियों की लड़ाई भी नहीं, बल्कि एक खास स्थान को लेकर शुद्ध सांस्कृतिक व राजनीतिक लड़ाई है। यह विजेता और विजित के अधिकार व सम्मान की लड़ाई है। बाबर के समय से ही जो लड़ाई चली आ रही हैवह जमीन का मालिकाना हक पाने की लड़ाई नहीं है। 1885 में महंत रघुबरदास ने भी मस्जिद परिसर के भीतर की जमीन पाने के लिए याचिका नहीं दायर की थी। 1950 में गोपाल सिंह विशारद ने तो याचिका दायर की थी वह भी मस्जिद में स्थापित ‘रामलला‘ की पूजा का अधिकार पाने के लिए थी। हां, बाद में निर्मोही हखाड़ा व सुन्नी वक्फबोर्ड ने मालिकाना हक का सूट अवश्य दायर किया। ‘रामलला‘ की तरफ से दायर किया गया इस मामले का अंतिम सूट भी मालिकाना हक का था। लेकिन ये मालिकाना हक 1528 के विवाद के आधार पर नहीं तय हो सकते। क्योंकि 1528 में या उसके बाद यह जमीन किसके अधिकार में थी यह तय कर पाना लगभग असंभव है। आज तो यह भी तय करना कठिन है कि बाबर शिया था या सुन्नी। अगर यही तय नहीं तो कैसे कहा जा सकता है कि इस पर सुन्नी वक्फ बोर्ड का अधिकार है या शिया बोर्ड का। मस्जिद परिसर में जब कभी एक चबूतरे पर हिन्दुओं को राम की पूजा का अधिकार दिया गया तो यह केवल पूजा का अधिकार था उस पर किसी का मालिकाना हक नहीं तय हुआ था। निर्मोही हखाड़ा यदि एक शताब्दी से अधिक समय तक वहां पूजा अर्चा का संचालन करता रहा तो वह किसी मालिकाना हक के तहत नहीं, बल्कि सम्पूर्ण हिन्दू समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में उसने आगे बढ़ कर यह दायित्व संभाला है।

कहने का आशय यह है कि राम जन्मभूमि के विवादित परिसर पर किसी व्यक्ति, संगठन का मालिकाना हक निर्धारित नहीं किया जा सकता। न इस आधार पर कोई निर्विवाद फैसला किया जा सकता है। इसे हिन्दू पक्ष व मुस्लिम पक्ष में बांटकर भी कोई समाधान नहीं ढूंढ़ा जा सकता। क्योंकि इस देश में न कोई हिन्दू संगठन ऐसा है जिसे सम्पूर्ण हिन्दू समुदाय का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार प्राप्त हो और न कोई ऐसा मुस्लिम संगठन है जो सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधित्व का दावा कर सके। इसलिए विवादित परिसर का अधिकार किसी एक पक्ष या दूसरे पक्ष को सौंपने का कोई औचित्य नहीं है।

यहां यह सवाल उठाया जा सकता है कि तब फिर कोर्ट क्या करे? जवाब कठिन नहीं है। कोर्ट को केवल यह फैसला करना चाहिए कि विवादित स्थल पर मस्जिद निर्माण के पहले मंदिर था या नहीं । यदि वहां मंदिर होने का दावा पुष्ट हो जाता है और यह तय हो जाता है कि हिन्दुओं के विश्वास के अनुसार राम जन्मभूमि के स्थल पर बने मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण किया गया तो उस स्थल पर मस्जिद की पुनर्स्थापना के अधिकार का दावा खारिज हो जाता है। फैसला केवल यह होना चाहिए कि वह स्थल मंदिर समर्थकों का है या मस्जिद समर्थकों का। कोर्ट को इसके आगे कोई फैसला न करके सरकार को यह निर्देश देना चाहिए कि वह मंदिर परिषद की विवादित व अधिग्रहीत भूमि को चाहे अपने कब्जे में रखकर वह सोमनाथ की तरह श्रीराम मंदिर का निर्माण कराए अथवा उसे किसी उचित संस्था के हवाले कर दे। अथवा कोई नई संस्था का गठन करके उसे उसके हवाले कर दे। कोर्ट का काम जमीन बांटना नहीं, बल्कि यह फैसला करना है कि विवादित स्थल पर हिन्दुओं का दावा सही है या मुस्लिमों का। इसके बाद यदि जमीन पर अधिकार का भी कोई दावा सामने आता है तो वह एक ही समुदाय के बीच होगा। चाहे हिन्दुओं के या चाहे मुसलमानों के। उस समय इस मसले का निपटारा भी अपेक्षाकृत आसान होगा।

लेकिन भय यही है कि न तो कोर्ट इस तरह मामले को सुलझाएगा और न राजनीतिक व साम्प्रदायिक संगठन उसे इस तरह सुलझाने देंगे। अन्यथ सुप्रीमकोर्ट का मामला बहुत आसान है। वह हाईकोर्ट के मंदिर संबंधी फैसले की पुष्टि करके उसके भूमि बंटवारे संबंधी आदेश को निरस्त कर दे। वह पूरी भूमि अभी भी सरकार के कब्जे में है इसलिए उसे यह अधिकार दे दे कि वह जैसे चाहे उस भूमि का उपयोग करे। अब सवाल है क्या ऐसा हो सकेगा ?



2 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

सही निर्णय तो ऐतिहासिक तथ्यों को देख कर किया जा सकता है और जो तथ्य चीख चीख कर कह रहे हैं कि यह तो राजा राम की राजधानी थी और उस काल में मज़िद का वजूद ही कैसे हो जब यह धर्म का वजूद ही नहीं था!!!!!!!!

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

ब्लॉगर चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी के तर्क से मैं सहमत हूं...