रविवार, 16 जनवरी 2011

सलमान तासीर की हत्या से उठे सवाल


इस 4 जनवरी को पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर (65) की हत्या कर दी गयी। हत्यारा उनका अंगरक्षक था। यह कोई नई बात नहीं थी। यहां भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या भी उनके अंगरक्षक ने कर दी थी। नई बात इसके बाद की है। पाकिस्तान में जहां हत्यारे के समर्थन में लगभग पूरा देश खड़ा है, वहीं हत्या के शिकार तासीर के प्रति संवेदना व्यक्त करते भी लोग डर रहे हैं। एक अदना सिपाही मलिक मुमताज हुसैन कादरी पलक झपकते पूरे राष्ट्र् का ‘हीरो’ बन गया और एक गर्वनर को जनाजे की नमाज व कफन की दुआ के लिए एक आलिम या मुल्ला का मिलना मुश्किल पड़ गया। आखिर क्यों ?


पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर (65) की दिन दहाड़े उनके अपने ही अंगरक्षक द्वारा की गयी हत्या कोई सामान्य हत्या नहीं है, यह वास्तव में कट्टरपंथी इस्लाम की युद्धवाहिनी का शंखनाद है। चार जनवरी 2011 की दोपहर इस्लामाबाद के उच्चवर्गीय इलाके कोहसार बाजार में तासीर जब एक रेस्त्रां से निकलकर अपनी गाड़ी में बैठ रहे थे, तभी उनके एक अंगरक्षक मलिक मुमताज हुसैन कादरी (26) ने पीछे से उनके बदन में ताबड़तोड़ 24 गोलियां उतार दीं और फिर अपनी असाल्ट राइफल नीचे फेंककर अपने दोनों हाथ उपर उठा दिये। यह विजेता की भी मुद्रा थी और समर्पण की भी। साथियों ने उसे जिंदा गिरफ्तार कर लिया और अदालत में पेश किया। अदालत पहुंचने पर वहां उपस्थित वकीलों ने चिल्लाकर कहा ’वह देखो, शेर आ गया‘ और उसके उपर गुलाब की पंखुड़ियों की वर्षा की। वहां उपस्थित भीड़ उसकी पीठ थपथपाने और गाल चूमने के लिए बेताब थी। अदालत तत्काल उसके विरुद्ध कोई आरोप नहीं तय कर सकी। उसने सरेआम घोषणा की कि ‘मुझे गर्व है कि मैंने एक ईशनिंदक (ब्लेसफेमस) को मार डाला।' उसने यह भी कहा कि ‘मैं पैगंबर का गुलाम हूं और पैगंबर की निंदा करने वाले (ब्लेसफेमस) की सजा केवल मौत है।' जब उसे वापस ले जाने के लिए पुलिस की गाड़ी सामने आयी, तो ‘अल्लाहो अकबर' का नारा लगाते हुए वह स्वतः गाड़ी में जा बैठा। उसके गले में भीड़ द्वारा डाली गयी लाल गुलाब की माला झलक रही थी और वह शायद बहिस्त के सपनों में खोया हुआ था। आसपास की भीड़ उसके कारनामों से निहाल थी। कुछ लोग यह भी नारा लगा रहे थे कि इसके लिए मौत की सजा भी मिले तो कुबूल है। उध्र गोलियों से छलनी हुआ तासीर का शव जब लाहौर पहुंचा, तो वहां शव को दफनाए जाते समय की नमाज या प्रार्थना के लिए मुल्ला, मौलवी, उलेमा उपलब्ध नहीं था। शहर की सभी मस्जिदों के उलेमाओं, इमामों व अन्य धार्मिक नेताओं ने तय किया था कि कोई भी इस 'ईश निंदक' के जनाजे में शामिल नहीं होगा और न कोई उसके लिए अंतिम प्रार्थना ही करेगा। ऐतिहासिक बादशाही मस्जिद के मौलाना पहले तो तैयार हो गये थे, किंतु बाद में उन्होंने भी इनकार कर दिया और कहा कि इस समय वह खाली नहीं हैं और उन्हें बाहर जाना है। अंत में इस धार्मिक रस्म के लिए पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पी.पी.पी.) की उलेमा शाखा के प्रधान उलेमा अफजल चिश्ती मजबूरी में सामने आये और यह अंतिम रस्म पूरी की।

आश्चर्य की बात है कि स्वयं सलमान तासीर की पार्टी के लोग सहमे-सहमे हैं। उनमें से कोई भी खुलकर इस हत्या की निंदा नहीं कर रहा है। कहीं से इस अतिवाद को कोई चुनौती नहीं है। टी.वी. ऐंकर तथा अखबारों के स्तंभ लेखक भी तासीर की हत्या को एक त्रासदी तो कह रहे हैं, लेकिन उसमें से कोई उनके विचारों के साथ खड़ा होने के लिए तैयार नहीं है। यही टिप्पणीकार साफ शब्दों में कह चुके हैं कि ब्लासफेमी कानून का विरोध करके तासीर ने अपने को रेखा के उस तरफ खड़ा कर दिया है, जहां मौत तय है।

सलमान तासीर का अपराध यह है कि वह पाकिस्तान के ‘ब्लासफेमी-लॉ' (ईश निंदा विरोधी कानून) के खिलाफ थे और इसमें संशोध्न कराना चाहते थे। गत 20 नवंबर को अपनी पत्नी व बेटी के साथ आशिया बीबी (45) नामक उस ईसाई महिला से मिलने के लिए लाहौर के शेखूपुरा जेल में गये तथा उसे आश्वासन दिया कि वह उसे माफी दिलवाने का प्रयास करेंगे। यद्यपि सलमान तासीर के विचारों का विरोध पहले से ही था, लेकिन इस घटना के बाद विरोध बढ़ गया। उनके घर के आस-पास आये दिन विरोध प्रदर्शन होने लगे। मजहबी पार्टियों ने देशभर में उने खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिया। कई जगह उनके पुतले जलाये गये। 26 दिसंबर को उन्होंने अपने ‘ट्विटर‘ पर लिखा कि ‘ब्लासफेमी-लॉ‘ का विरोध करना गलत है या सही, इसका फैसला संसद में होना चाहिए न कि सड़क पर। इसके बाद 31 दिसंबर के अपने ‘ट्विटर‘ पर उन्होंने लिखा कि मेरे उपर अत्यधिक दबाव है, लेकिन मैं अपने विचार बदल नहीं सकता। हो सकता है मैं अंतिम व्यक्ति होउं, लेकिन मैं अपना विरोध जारी रखूंगा और इसके बाद 4 जनवरी को दिन दहाड़े दोपहर में उनके अपने ही अंगरक्षक ने उनकी हत्या कर दी। हत्यारा गर्वोन्नत गाजी की तरह पुलिस के घेरे में अदालत पहुंचा। वहां सबसे पहले पहुंचने वाली ‘आफ न्यूज' चैनेल की डाइरेक्टर नसीम जहरा से उसने कहा ‘मैं प्राफेट का गुलाम हूं और ब्लासफेमी की सजा मौत से कम कुछ हो ही नहीं सकती।'

सलमान तासीर मई 2008 में जब राज्यपाल बने, तो उन्होंने सबसे पहले घोषित किया कि पंजाब का वसंत उत्सव फिर शुरू किया जाएगा। वसंत के अवसर पर पतंगबाजी का उत्सव पूरे पंजाब में अत्यंत लोकप्रिय था, जो विभाजन के बाद भी बंद नहीं हुआ, लेकिन धार्मिक कट्टरवाद के कारण सरकार ने इस पर रोक लगा दी थी। तासीर ने इसे फिर शुरू कराया, लेकिन धार्मिक विरोध व अदालत के आदेश से इस पर पुनः प्रतिबंध लग गया।

सलमान तासीर शुरू से ही अत्यंत प्रगतिशील विचारों के थे। शायद उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि इसका सबसे बड़ा कारण थी। अविभाजित भारत में शिमला में पैदा हुए (31 मई 1944) सलमान तासीर के पिता डॉ. मुहम्मदीन तासीर शायद इंग्लैंड से अंग्रेजी साहित्य में पी.एच.डी. करने वाले पहले भारतीय थे। मां क्रिस्टोबे (बाद का नाम बिलकीस तासीर) एक ब्रिटिश ईसाई महिला थी। वह फैज अहमद फैज की अंग्रेजी पत्नी अलियास फैज की बहन थीं। वह आधुनिक पश्चिमी विचारों के बीच पहले बढ़े और व्यवसाय की दृष्टि से भी आधुनिक विश्व के साथ जुड़े रहे। भुट्टो परिवार से उनकी गहरी निकटता थी। इसीलिए जब पी.पी.पी. दुबारा सत्ता में आयी, तो आसिफ अली जरदारी ने उन्हें पंजाब प्रांत का राज्यपाल बनाया।

तासीर इस ब्लासफेमी कानून का विरोध करने के पहले संविधान की वह धारा हटवाना चाहते थे, जिसके अंतर्गत अहमदिया समुदाय को गैरमुस्लिम की सूची में डाला गया था। लेकिन इसमें भी वह कट्टरपंथियों के विरोध के कारण सफल नहीं हुए। ब्लासफेमी कानून के खिलाफ आवाज उठाने में उनका साथ केवल एक महिला संसद सदस्या शेरी रहमान ने दिया। संसद में उपर्युक्त कानून में संशोधन का विधेयक इस शेरी रहमान के द्वारा ही पेश किया गया है। लेकिन इस विधेयक के पेश किये जाने के बाद से ही शेरी रहमान सार्वजनिक नजरों से गायब हो गयीं हैं। कट्टरपंथी उनके भी पीछे पड़ गये हैं। उनके मित्रों ने सलाह दी है कि वह देश छोड़कर चली जाएं। लेकिन वह अभी बाहर जाने के लिए तैयार नहीं हैं।

पाकिस्तान में ब्लासफेमी कानून यद्यपि बहुत पहले से है, लेकिन राष्ट्रपति जियाउल हक ने इस्लाम के नाम पर देश में एकता कायम करने के लिए संविधान में इसे विशेष दर्जा दिलाया था और इसमें मौत की सजा पक्की की थी। सलमान तासीर उस समय भी इसके खिलाफ थे और इसके लिए जियाउल हक सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया था। लेकिन मानना पड़ेगा कि तासीर अपने विचारों के प्रति पूरी तरह दृढ़ थे और उसी के लिए अंततः शहीद हो गये।

पाकिस्तान का यह ब्लासफेमी या ईशनिंदा कानून भी अजीब है। इसमें केवल आरोप लगा देना भर ही काफी है। उसके लिए न किसी प्रमाण की जरूरत है और न उस पर कोई बहस हो सकती है। आशिया बीबी को इस कानून के अंतर्गत मौत की सजा तो सुना दी गयी, लेकिन अदालत ने यह तक नहीं पूछा कि आखिर ईशनिंदा के तौर पर उसने कहा क्या ? क्योंकि यदि कोई उसके कथन को दुहराता, तो वह स्वयं ब्लासफेमी का दोषी हो जाता। इसलिए अदालत ने किसी से पूछा नहीं कि उसने क्या निंदा की। ऐसी खबर है कि आशिया बीबी की कुछ बकरियां पड़ोसी मुस्लिमों की जमीन में चली गयी थीं। इस पर उन मुस्लिम औरतों से उसकी कुछ कहासुनी हो गयी। बस उन औरतों ने उस पर पैगंबर मुहम्मद की निंदा का आरोप लगा दिया और अदालत ने उसे मौत की सजा सुना दी, क्योंकि इस कानून के अंतर्गत इस्लाम या पैगंबर मुहम्मद की निंदा की सजा इससे कम कुछ हो ही नहीं सकती।

शेरी रहमान इस हत्याकांड से निश्चय ही बहुत आहत हैं। उनकी अपनी सुरक्षा तो खतरे में है ही, लेकिन वह अपने बचाव से अधिक पाकिस्तान के बचाव के लिए चिंतित हैं। उनका कहना है कि ‘सवाल यहां व्यक्तिगत सुरक्षा का नहीं है, बल्कि मुख्य समस्या यह है कि पाकिस्तान का पूरा अस्तित्व ही खतरे में है। कट्टरपंथियों के बढ़ते प्रभाव के आगे देश में आर्थिक व राजनीतिक सुधारों का भी कोई अवसर नहीं रह गया है। पाकिस्तान संसद (राष्ट्रीय असेंबली) की अध्यक्ष फहमीदा मिर्जा शेरी ने अपने खिलाफ लोगों के गुस्से को कम करने के लिहाज से कहा है कि उन्होंने सदन में जो विधेयक पेश किया है, वह ब्लासफेमी कानून को बदलने के लिए नहीं, बल्कि उस पर चर्चा करने के लिए किया है। लेकिन उनकी इस सफाई से कट्टरपंथी संतुष्ट नहीं हैं।

ब्रिटिश दैनिक गार्जियन की एक रिपोर्ट के अनुसार शेरी के समर्थक उसकी सुरक्षा के लिए चिंतित हैं। शेरी ने अब तक न तो देश छोड़ा है और न उसने पुलिस से सुरक्षा के लिए कोई मांग की है। शायद अब पुलिस की सुरक्षा मांगने का कोई अर्थ ही न रह गया हो। लोकिन चिंता यह है कि वह कब तक अपने को बचा सकेंगी। जब मजहबी कट्टरपन की भावना इतनी बढ़ चली हो कि पुलिस का शीर्ष कमांडो दस्ता भी जिहादी घुसपैठ से मुक्त न हो, मजहबी संगठनों की कौन कहे, जब अदालत में वकीलों का समुदाय आतंकवादी हत्यारे का सम्मान करने में लग गया हो, जहां अदालत के लिए एक गवर्नर की हत्या करने वाले के लिए अपराध तय करना कठिन हो रहा हो, तो उस देश में क्या हो सकता है। जहां मुल्ला-मौलवियों की कोई जमात, उग्रवादी नारे लगाती कोई भीड़, कोई अदालत या कोई आपका अंगरक्षक ही आपको मौत के घाट पहुंचा सकता हो, तो वहां नागरिक सुरक्षा का भी क्या अर्थ हो सकता है। यहां यह उल्लेखनीयच है कि पाकिस्तान की धार्मिक पार्टियों ने तासीर की हत्या की निंदा करने से भी इनकार कर दिया है, जिसका मतलब है कि जो हुआ वह ठीक हुआ। तासीर थे ही मौत के हकदार, उन्हें मार दिया गया, तो ठीक ही हुआ। कुछ संगठनों ने तो उन्हें ‘लिबरल इक्स्ट्रीमिस्ट' (उदार अतिवादी) की भी संज्ञा दे डाली है। क्या मतलब है इसका ? स्पष्ट है कि जिहादी अतिवादियों की नजर में उदार लोकतंत्रवादी भी अतिवादी है। पाकिस्तान में कट्टरपन कोई नई बात नहीं है। मजहबी कट्टरपन तो उसकी घुट्टी में मिला हुआ है। जिसकी पैदाईश ही मजहबी कट्टरपन और हिंसा के बीच से हुई हो, वहां कट्टरपन न हो तो इसी पर आश्चर्य होगा, लेकिन आज कठिनाई यह है कि इस कट्टरपन के खिलाफ वहां कोई नेतृत्व नहीं रह गया है। जो थोड़ी बहुत विरोध की आवाज है भी, वह मिमियाती सी प्रतीत होती है। राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी शोक व्यक्त करने के लिए तासीर के घर अवश्य गये, क्योंकि न केवल तासीर के साथ उनकी राजनीतिक घनिष्ठता थी, बल्कि उनका पारिवारिक संबंध भी था, लेकिन सामान्यतया लोग उनके घर संवेदना व्यक्त करने जाते भी डर रहे हैं।

लाहौर में तासीर की अंत्येष्टि के समय पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेताओं की तो मौजूदगी रहनी ही थी, लेकिन अन्य राजनीतिक पार्टियों ने अपनी दूरी बनाए रखी। नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग का कोई नेता इसमें शामिल नहीं हुआ। शायद उन पर उन मजहबी संगठनों की धमकी का असर था कि जो तासीर की अंत्येष्टि में भाग लेगा या उनके प्रति सहानुभूति व्यक्त करेगा, वह भी अपनी मौत को आमंत्रित करेगा। इस भय से पी.पी.पी. भी पूरी तरह मुक्त नहीं थी। इसका बड़ा प्रभाव यही है कि पार्टी कार्यकर्ताओं ने तासीर की मौत पर टायर आदि जलाकर अपना विरोध प्रदर्शन अवश्य किया तथा पारंपरिक नारे भी लगाये, लेकिन पार्टी नेताओं ने तासीर की हत्या के लिए सीधे कट्टरपंथियों को दोषी ठहराने के बजाए इसे एक षड्यंत्र का हिस्सा बताया और कहा कि हमें पता लगाना है कि कहीं यह पाकिस्तान को अस्थिर करने की कोशिश का हिस्सा तो नहीं है।

टी.वी. पर अपने अंतिम साक्षात्कार में पहली जनवरी को तासीर ने कहा कि ‘आशिया बीबी का समर्थन करना उनका निजी निर्णय था... मैं अपनी पत्नी और बेटी के साथ उससे मिलने गया था। इसमें कुछ लोगों ने मेरा समर्थन किया, कुछ ने विरोध... लेकिन यदि मैं खुद होउंगा, तो फिर कौन खड़ा?‘ जाहिर है उनके साथ खड़े होने वालों वालों की संख्या उनकी अपनी नजर में भी नगूय थी। बहुतों के लिए यह एक चकित करने वाली बात है कि पाकिस्तानी मीडिया पर भी दिनों दिन कट्टरपंथी तत्वों का आधिपत्य होता जा रहा है। पहले जो लोग तटस्थ व उदारपंथी समझे जाते थे, वे भी अतिवादियों के रंग में रंगते जा रहे हैं। पाकिस्तान की प्रमुख महिला पत्रकारों में गिनी जाने वाली मेहेर बुखारी ने गत दिसंबर में तासीर से बातचीत करते हुए उनसे पूछा कि ‘क्या वह आशिया बेगम जैसी एक ईसाई औरत की बात उठाकर पश्चिमपंथी एजेंडे (प्रोवेस्टर्न एजेंडा) का अनुसरण नहीं कर रहे हैं।' यह वही मेहेर बुखारी हैं, जिन्हें कभी अमेरिकी दूतावास की पार्टी में शामिल होने के कारण ‘सी.आई.ए. का एजेंट‘ कहा गया था।

वास्तव में तासीर की हत्या तथा उसके बाद की घटनाओं के साथ एक बड़ा सवाल आ खड़ा हुआ है। यह सवाल केवल पाकिस्तान के समक्ष ही नहीं या केवल दक्षिण् एशिया के समक्ष ही नहीं, बल्कि पूरी मनुष्यता के सामने आ खड़ा हुआ है। सवाल है क्या दुनिया में ईश निरपेक्ष लोगों को जीने का हक है या नहीं ? और यदि है तो उस हक की रक्षा के लिए कौन आगे आएगा?

‘ब्लासफेमी लॉ‘ का जन्म 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश उपनिवेश्वादी शासनकाल में हुआ था, लेकिन उसे राज सत्ता का हथियार पहली बार पाकिस्तान में जियाउल हक की सरकार ने बनाया। अमेरिका पाकिस्तान में अनेक सुधारों के लिए दबाव डालता रहता है, लेकिन इसे बदलने के लिए उसने कभी दबाव नहीं डाला। समझा जाता था कि शिक्षा के विस्तार तथा आर्थिक विकास के साथ् इस तरह की अंधी रुढ़ियां समाप्त हो जाएंगी, लेकिन देखा जा रजा है कि यह बढ़ती जा रही है और तथाकथित उदारवादी शक्तियां अपने निहित स्वार्थवश उसके समक्ष आत्मसमर्पण भी करती जा रही हैं। पाकिस्तान में तासीर की जगह लेने वाला कोई राजनेता सामने आ सकेगा, इसकी आशा तो कम ही है, यहां भारत में रहते हुए भी चिंता यह फैल रही है कि क्या यहां भी वे शक्तियां निरंतर कमजोर नहीं पड़ती जा रही हैं, जो मजहबी कट्टरवाद के मुकाबले खड़ी हो सकती थीं।

पाकिस्तान में कुछ वर्ष पूर्व एक सर्वे हुआ था, जिसमें केवल 35 प्रतिशत लोगों ने जिहादी कट्टरपन का समर्थन किया था। शेष 65 प्रतिशत उसके समर्थक नहीं थे, लेकिन उसके खिलाफ भी आवाज उठाने के लिए तैयार नहीं थे। इन चुप रहने वालों ने ही मलिक मुमताज हुसैन कादरी जैसों का साहस बढ़ा दिया है। इस तरह की प्रवृत्ति यहां भारत में भी बढ़ती दिखायी दे रही है। सरकारें ही नहीं, व्यापक राष्ट्रीय समाज भी हिंसक अलगाववादियों के आगे घुटने टेकता नजर आ रहा है। गणतंत्र दिवस पर श्रीनगर के लाल चौक पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा नहीं लहराया जा सकता, क्योंकि इससे शांति भंग हो सकती है। अलगवावादी कश्मीरी भड़क सकते हैं। विश्वव्यापी इस्लामी आतंकवाद से क्षुब्ध कुछ साध्ुओं ने बम का जवाब बम से देने के उत्साह में दो-चार विस्फोट कर दिये, तो उसे लेकर हिन्दू आतंवाद का नारा उछाल दिया गया, लेकिन व्यापक शांतिप्रिय समाज चुप है। ब्रिटिश स्तंभकार डिक्लैन वाल्श के शब्दों में क्या इस चुप्पी से मौत नहीं जन्म ले रही है। उन्होंने अपने एक लेख में लिखा था ‘साइलेंस किल्स' (चुप्पी मारती है)। सच है कि यह समय शांति मंत्र जपने का नहीं, बल्कि प्रतिकार की आवाज बुलंद करने का है। मुमताज कादरी जैसों के नारों का जवाब कायर चुप्पियों व नपुंसक शांति पाठों से नहीं दिया जा सकता।

9/01/2011


1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

‘आश्चर्य की बात है कि स्वयं सलमान तासीर की पार्टी के लोग सहमे-सहमे हैं।’

अब वह कहावत सार्थक होती दिखाई दे रही है- घर को आग लगी घर के चिराग से :) जिस आतंकवाद को चिराग समझ कर उसकी लौ से दुनिया को जला रहे थे, अब उसी की लपेटें उन्हें सहनी पड़ेगी॥