रविवार, 26 दिसंबर 2010

विश्व इतिहास का रुख बदलने वाला दशक



21वीं शताब्दी का पहला दशक पूरा होने जा रहा है। यों यह पूरा दशक ही निर्णायक घटनाओं से भरा रहा है, लेकिन इसका अंतिम वर्ष 2010 विशेष रूप से अनुप्रेरक व जागरूकता बढ़ाने वाला सिद्ध हुआ है। मंदी से जूझने के बहाने जहां इसने पौरूष की गहरी प्रेरणा दी है, वहीं विकीलीक्स जैसे खुलासों द्वारा विश्व समाज को अधिक विवेकशील बनाने का काम किया है। भारत को शायद विकीलीक्स से सर्वाधिक लाभ हुआ है और उससे भी ज्यादा लाभ अपने देशी रहस्योद्घाटनों से हुआ है। हम्माम में सब नंगे हैं, इसका यथार्थबोध शायद पहली बार एक साथ पूरे देश को हो सका है। हो सकता है अगला दशक इससे कुछ वाजिब सबक लेकर आगे बढ़े सके।

काल गणना और उनके नामकरण की पद्धतियां भी अजीब हैं। 21वीं शताब्दी के पहले दशक को यूरोपीय पद्धति में सन् 2000 के दशक की संज्ञा दी गयी। यह दशक 2009 में पूरा हो गया। इस तरह दूसरा दशक 2010 से शुरू हुआ, इसलिए 2010 को इस शताब्दी के दूसरे दशक का पहला साल कह सकते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि इस शताब्दी के पहले दशक का पहला साल यानी सन् 2000 तो पिछली शताब्दी की गणना में चला गया, इसलिए पहले दशक की व्याप्ति 20वीं और 21वीं दोनों शताब्दियों में हो गयी। इस दृष्टि से शुद्ध रूप से इस शताब्दी का पहला दशक यह 2010 से शुरू होने वाला दशक ही है। और यदि हम दशक के नामकरण के पचड़े में न पड़ें, तो बीत रहा यह वर्ष 2010 इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक (जो 2001 से प्रारंभ हुआ) का अंतिम वर्ष है और इसके बाद 2011 से दूसरे दशक का पहला वर्ष शुरू होने जा रहा है।

जो भी हो, लेकिन हम कह सकते हैं कि 2001 से शुरू होने वाला इस शताब्दी का पहला दशक पूरी दुनिया के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है। 2001 से 2010 तक का यह समय दुनिया की राजनीतिक, आर्थिक तथ रणनीतिक दिशा को बदलने वाला रहा है। और इसका अंतिम वर्ष 2010 पूरी दुनिया के लिए भले ही कुछ कम महत्वपूर्ण रहा हो, लेकिन भारत के लिए तो अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है।

2001 की सबसे महत्वपूर्ण घटना न्यूयार्क पर हुए आतंकवादी हमले की थी, जिसने इस शताब्दी को राजनीतिक व सामाजिक सोच-विचार के एक नये धरातल पर ही ला खड़ा किया। इसके साथ अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी आतंकवाद को पहली बार विश्व स्तर पर पहचाना गया और उसके खतरे से लड़ने के लिए पश्चिमी देशों में सबसे पहले अमेरिका ने कमर कसी। इस तरह 2001 विश्व इतिहास में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का एक उल्लेखनीय विभाजक बिंदु बन गया। लोग अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर 2001 के पूर्व व 2001 के बाद की बात कहकर चर्चा करने लगे।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया में कई क्षेत्रीय युद्ध हुए, जिनमें महाशक्तियों का समर्थन और उनकी सेनाएं भी शामिल थीं, लेकिन 11 सितंबर 2001 की इस घटना के बाद विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका सीधे युद्ध में उतरा। उसने वैश्विक इस्लामी आतंकवादी की रीढ़ तोड़ने के लिए पहले अफगानिस्तान और फिर इराक पर हमला किया। अफगानिस्तान में उसका युद्ध अभी भी जारी है। इस दशक के अंतिम वर्षों में अमेरिकी राजनीति में भी बदलाव आया। दशक के अंतिम वर्षों में फिर डेमोक्रेट्स का शासन आया और चमत्कार यह हुआ कि राष्ट्रपतीय चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के पूर्व तक लगभग अज्ञात एक अश्वेत नागरिक को पहली बार अमेरिका के श्वेत सदन (ह्वाइट हाउस) की गद्दी मिली। उनका ख्याल है कि 2010 के साथ युद्धों का अध्याय खत्म होगा और अमेरिकी सेनाएं 2011 के मध्य से अफगानिस्तान छोड़कर वापस लौटने लगेंगी। इराक से अमेरिका की अंतिम लड़ाकू ब्रिगेड 2010 में ही वापस हो चुकी है। कल्पना कर सकते हैं कि 2011 से शुरू होने वाला दशक शांति का दशक हो, लेकिन जीवन-जगत का यथार्थ कुछ सत्ताधारियों की इच्छाओं से ही नियंत्रित नहीं होता। इराक का युद्ध एक व्यक्ति के खिलाफ युद्ध था, इसलिए उसके मरने के साथ वह समाप्त हो गया, लेकिन अफगानिस्तान का युद्ध किसी एक व्यक्ति के खिलाफ नहीं, बल्कि एक प्रवृत्ति, एक विचारधारा और उसकी वैश्विक महत्वाकांक्षा के खिलाफ है। इसलिए यह उतनी आसानी से समाप्त होने वाला नहीं है, जितनी आसानी की कल्पना अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति कर रहे हैं।

खैर, अब यदि अकेले इस 2010 पर ध्यान केंद्रित करें, तो इस वर्ष की विश्व स्तर की सबसे बड़ी घटना है विकीलीक्स द्वारा किया गया अमेरिकी कूटनीति का पर्दाफाश। उसने अमेरिकी विदेश विभाग व रक्षा विभाग के कई लाख दस्तावेजों को गोपनीयता की अंधेरी कोठरी से निकालकर दुनिया की आंखों के सामने फैला दिया है। गत अप्रैल महीने में उसने सबसे पहले इराक युद्ध से संबंधित दस्तावेज अपने वेबसाइट पर प्रसारित किये। उसके बाद जुलाई में अफगान वार से संबंधित गोपनीय दस्तावेजों को उजागर किया। और इसके बाद तीसरे चरण में नवंबर में उसने एक साथ ढाई लाख से अधिक गोपनीय पत्राचार तथा अन्य दस्तावेज दुनिया में फैला दिये। इस पर्दाफाश से अमेरिका ही नहीं, तमाम दुनिया के लोग सकते में आ गये। पश्चिम के तमाम देश व राजनेता इतने घबड़ा गये कि वे विकीलीक्स के संस्थापक पत्रकार जुलियन असांजे को ‘साइबर आतंकवादी' बताने लगे और उस पर कार्रवाई का रास्ता ढूंढ़ने लगे, लेकिन अफसोस कि उन्हें कोई कानून ही नहीं मिला। नया कानून बनाएं, तो भी उसकी गिरफ्त में कम से कम असांजे तो आने वाला नहीं।

अब इसमें अमेरिका व अन्य देशों की भले ही भारी फजीहत हुई हो, लेकिन विकीलीक्स के इस खुलासे से भारत को भारी लाभ हुआ है, क्योंकि इससे सबसे बड़ी बात यह हुई है कि उसके पड़ोसी पाकिस्तान की सारी कलई खुल गयी है और उसके सारे राजनीतिक व सैनिक नेता चौराहे पर नंगे हो गये हैं। अमेरिकी दस्तावेजों ने पाकिस्तान ही नहीं, स्वयं अंकल सैम (अमेरिका) का कोट, पतलून, शर्ट सब उतार लिया। विकीलीक्स ने अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति से सारी पर्तों को इस तरह उघाड़ दिया है कि अग दशकों तक किसी राष्ट्रनेता के कूटनीतिक बयानों पर कोई भरोसा नहीं करेगा। इस दौरान भारत में तो पर्दाफाश की और अद्भुत घटनाएं हुईं। ऐसी घटनाएं, जिन्होंने विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, पत्रकारिता और कार्पोरेट जगत सबको नंगा करके रख दिया। कार्पोरेट लाबीस्ट नीरा राडिया 2010 की सबसे बड़ी शख्सियत के रूप में सामने आयी। ब्रिटिश पासपोर्ट रखने वाली भारतीय मूल की इस महिला की अद्भुत क्षमता से लोग चकित हैं। उद्योग व्यवसाय जगत में सत्ताधारियों से काम निकलवाने के लिए अपने एजेंट नियुक्त करना कोई नई बात नहीं, लेकिन वह एजेंट राडिया जैसी हैसियत पा ले, यह असंभव सी कहानी लगती है। देश की आम जनता को 1 लाख 76 हजार करोड़ का नुकसान पहुंचाने वाला 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला कल्पनातीत व्यापार लगता है। भले ही यह आंकड़ा कल्पित है, लेकिन यह बाजार भाव पर की गयी गणना के यथार्थ पर आधारित है। इसके समानांतर आर्थिक घोटाले का दूसरा कांड राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन से जुड़ा है, जिसके केंद्र में कांग्रेस के नेता और खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी हैं। उनके साथ भी किसके-किसके कितने तार जुड़े हैं, कहना कठिन है।

और 2010 की इससे भी अधिक चौंकाने वाली घटना तो न्यायपालिका से जुड़ी है। पता चला कि किसी राजनेता को बचाने या केंद्र सरकार की मदद करने में भारत के मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हैं। क्या कोई विश्वास कर सकता है कि भारत की सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश जो इस समय राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष है, वह झूठ बोल सकता है। लेकिन यह झूठ मीडिया में सबके सामने आया। शायद इस बात पर भी विश्वास करना कठिन होगा कि एक सरकारी अफसर जिस पर खुद भ्रष्टाचार का मुकदमा चल रहा हो और चार्जशीट दाखिल की जा चुकी हो, उसे भ्रष्टाचार पर निगरानी करने वाली देश की सर्वोच्च संस्था का शिखर पुरुष यानी सी.वी.सी. (चीफ विजिलेंस कमिश्नर या मुख्य सतर्कता आयुक्त) नियुक्त किया जा सकता है। लेकिन भारत में ऐसा हुआ और व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय की आलोचना, फटकार के बाद भी अपने पद पर कायम है।

हम्माम में सब नंगे की कहावत तो बहुतों ने सुनी होगी, लेकिन शायद ही किसी को सत्ता के हम्माम में घुसे तमाम लोगों को एक साथ नंगा देखने का अवसर मिला हो, लेकिन भारत में 2010 के इस वर्ष में हर एक को यह देखने का अवसर मिल गया है। सत्ताधीशों के साथ संत और मठाधीशों के चारित्रिक पतन की कहानियां इसी वर्ष में प्रमुखता से उजागर हुई हैं। इसलिए निश्चय ही इस वर्ष 2010 का भारत की आम जनता पर बहुत बड़ा एहसान है, क्योंकि उसने प्रायः पूरी दुनिया का नग्न यथार्थ ब्योरेवार सप्रमाण उसके सामने प्रस्तुत कर दिया है। यों यदि पिछले एक दशक पर मनुष्यता के दूसरे कोण से दृष्टिपात करें- जिसमें राजनीति, कूटनीति के दृश्य ओझल रहें तथा युद्ध और सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाएं भी दरकिनार की जा सके, तो कई रोचक और सुखकर उपलब्धियां भी दिखायी पड़ेंगी। इस अवधि में वैज्ञानिकों ने कृत्रिम रूप से जीवित कोषिका बनाने में सफलता प्राप्त की, चांद पर पानी का भंडार खोज निकाला, मंगल पर खोजी यान उतारा और अपनी आकाशगंगा के परे दूसरी आकाशगंगा में पृथ्वी से मिलता-जुलता एक ग्रह भी ढूंढ़ निकाला। वास्तुविदों ने दुबई में ’बुर्ज खलीफा' जैसी एक चमत्कारी संरचना खड़ी कर दी (जनवरी 2010), जो धरती पर मानवनिर्मित सबसे उंची (828 मीटर यानी 2717 फिट) वस्तु है। और यह भी रोचक है कि इसके विभिन्न अंशों को खरीदने वालों में भारतीयों की संख्या सबसे बड़ी है। यानी इसके बड़े भाग पर भारतीयों का कब्जा है। इसके पहले इसी दशक की (2004) सबसे उंची अट्टालिका ’ताईपेई 101’ (509.2 मीटर) थी। खेलों में 2008 के बीजिंग ओलंपिक का आयोजन भी किसी चमत्कार से कम नहीं था। इस अवधि में पहले कृत्रिम हृदय का प्रत्यारोपण हुआ, तो कृत्रिम किडनी के निर्माण में सफलता प्राप्त हुई। कृत्रिम गर्भाशय निर्माण का काम बस पूरा ही होने वाला है।

विभीषिकाओं में सर्वाधिक गंभीर विभिषिका विश्व व्यापी आर्थिक मंदी रही, जिससे उबरने का संघर्ष अभी भी चल रहा है, लेकिन इसने दुनिया के तमाम धन्नासेठ देशों की जड़ता को तोड़ा है। आने वाला दशक इससे लाभान्वित ही होगा।

दुनिया सतत आशावाद पर टिकी है। और यदि उसके सामने से राजनीति और कूटनीति के भ्रम के पर्दे दूर हो जाएं, तो यथार्थ से जूझने का उसका साहस और बढ़ जाता है। वैश्विक स्तर पर 'विकीलीक्स’, भारत में 'राडिया टेप’ आदि से उजागर हुए तथ्य शायद विश्व मानव समाज को अधिक विवेकशील बनाने में सहायक होगा। भारत भी निश्चय ही इनसे लाभन्वित ही होगा। आज की युवा पीढ़ी यदि इनसे सबक लेगी, तो अगले दशक को आकार देने वाली उसकी भूमिका निश्चय ही अधिक सशक्त और साहसपूर्ण होगी, जिसका लाभ पूरे विश्व समाज को प्राप्त होगा। शताब्दी के इस पहले दशक ने नये युग की भूमिका निर्धारित कर दी है। लेकिन युग के कर्णधारों को अपना रास्ता तो खुद ही बनाना पड़ेगा।

26/12/2010

रविवार, 19 दिसंबर 2010

वेन जियाबाओ की व्यापारिक यात्रा


चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ भी तमाम अन्य व्यापारिक महाशक्तियों की पंक्ति में गत बुधवार को दिल्ली आ गये। उन्होंने मैत्री और सहयोग की बड़ी-बड़ी बातें की, लेकिन वे सारी बातें खोखली थीं। उन्होंने भारत की किसी चिंता की कोई परवाह नहीं की। उनकी नजर एकटक भारत के विशाल बाजार पर टिकी रही। और व्यापारी देश भी अपना व्यापार बढ़ाने आए, लेकिन उन्होंने भारतीय चिंताओं के साथ भी साझेदारी व सहयोग की बात की, लेकिन चीन के प्रधानमंत्री केवल व्यापारीक लाभ के लिए यहां आए। उनकी असली दोस्ती पाकिस्तान के साथ है, इसलिए उन्हें पाकिस्तानी हितों की अधिक परवाह है। जियाबाओ की इस यात्रा के बाद यह सच्चाई और दृढ़ हो गयी है कि चीन कभी भारत का विश्वसनीय मित्र नहीं हो सकता और पाकिस्तान मित्र नहीं हो सकता और पाकिस्तान के साथ उसका गठजोड़ हमेशा भारत के लिए खतरा बना रहेगा।

वर्ष 2010 का अंतिम महिना यों पूरी दुनिया के लिए बहुत महत्वपूर्ण कहा जाएगा, लेकिन भारत के लिए यह विशेष रूप से बहुत महत्वपूर्ण बन गया है। विकीलीक्स के खुलासों को दरकिनार रखें, तो भी देश के आंतरिक रहस्योद्घाटन ने एक तरफ सामान्यजनों को दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर किया है, तो दूसरी तरफ देश की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा यों छलांग लगाती दिखायी दी कि दुनिया की तीन महाशक्तियों के शासनाध्यक्ष अकेले इसी एक महीने में भारत की यात्रा पूरी कर रहे हैं। यदि पिछले महीने यानी नवंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा तथा उसके पहले गत जुलाई में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून की यात्रा को भी शामिल कर लें, तो इस वर्ष के अंतिम 6 महीनों में विश्व की पांच महाशक्तियां एक के बाद एक भारत की परिक्रमा करती नजर आ रही हैं। इस महीने की शुरुआत में फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी अपनी सेलेब्रिटी पत्नी कार्ला ब्रुनी के साथ पधारे। उसके बाद गत बुधवार को चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ तीन दिन की यात्रा पर दिल्ली पहुंचे। अब 21 दिसंबर को रूस के राष्ट्रपति दिमित्रि मेदवेदेव दो दिन की यात्रा पर यहां पहुंचने वाले हैं।

यह रोचक है कि इन सभी महाशक्तियों के शासनाध्यक्ष मुख्यतः व्यापारिक एजेंडा लेकर भारत आ रहे हैं। अब तक आ चुके चार देश भारत के साथ करीब 40 अरब डॉलर का व्यापारिक सौदा करके जा चुके हैं। रूस के राष्ट्रपति यहां पहुंचेंगे तो उनके साथ भी कुछ 10-15 अरब डॉलर का करार हो जाएगा। चीन के प्रधानमंत्री ने करीब 16 अरब डॉलर का सौदा किया। सरकोजी का सौदा भी 13 अरब डॉलर का था। ओबामा का सौदा भी 10 अरब डॉलर के करीब था। सबसे कम 1 अरब डॉलर का सौदा ब्रिटेन के साथ हुआ। यहां यह उल्लेखनीय है कि चीन के प्रधानमंत्री ने तो स्वयं भारत के प्रधानमंत्री के सामने यह प्रस्ताव रखा कि वह भारत आना चाहते हैं। हनोई में हुए पूर्व एशियाई देशों के शिखर सम्मेलन के दौरान जब वेन जियाबाओ की डॉ. मनमोहन सिंह के साथ अलब से मुलाकात हुई, तो जियाबाओ ने भारत यात्रा की इच्छा व्यक्त की। प्रस्ताव बिल्कुल असंभावित था, लेकिन हमारे सज्जन प्रधानमंत्री भला कैसे इनकार करते, उन्होंने सोत्साह उनके प्रस्ताव का स्वागत किया। और वह शायद अब तक सबसे बड़ा प्रतिनिधिमंडल (400 सदस्यों का) लेकर दिल्ली पधारे। यद्यपि उनके पहले फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी भी 300 सदस्यों का दल लेकर आये थे, लेकिन प्रधानमंत्री जियाबाओ ने तो रिकार्ड ही तोड़ दिया।

वास्तव में जियाबाओ का इस समय एक ही एजेंडा है अपने व्यापार का विस्तार। वह देख रहे हैं कि मंदी के कारण यूरोप और अमेरिका के बाजार में कुछ गिरावट आयी है, तो उसकी कमी वह भारतीय बाजार में अपनी उपस्थिति बढ़ाकर करना चाहते हैं। चीन से व्यापार बढ़ाने में भारत की भी रुचि है, लेकिन चीन भारतीय बाजार का एकतरफा फायदा उठाना चाहता है। वह अपने राजनीतिक रूख में बिना कोई नरमी लाए आर्थिक संबंधों को विस्तार देना चाहते हैं, क्योंकि वह जानते हैं कि इस विस्तार से भारत से अधिक उनका अपना लाभ है। इसीलिए उन्होंने द्विपक्षीय व्यापार को 2015 तक बढ़ाकर 100 अरब डॉलर करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। जियाबाओ को भारतीय मीडिया से बहुत शिकायत है। वह चाहते थे कि अपनी दिल्ली यात्रा में उन्होंने मैत्री और सहयोग के जो खोखले नारे लगाये, उनको मीडिया अपनी सुर्खियां बनाता, लेकिन मीडिया ने उनके यथार्थ को पेश किया। जियाबाओ ने दिल्ली पहुंचने पर कहा कि वह भारत के साथ दोस्ती बढ़ाने की यात्रा पर आए हैं। उन्होंने यह भी कहा कि भारत और चीन प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि साझीदार हैं। इसके पहले भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह यह कह चुके थे कि दुनिया में भारत और चीन दोनों के विकास के लिए पर्याप्त खाली क्षेत्र उपलब्ध है। मतलब यह कि इनमें से किसी को अपने विकास के लिए दूसरेको धक्का देने की जरूरत नहीं है। जियाबाओ ने भी यहां इस बात को दोहराया, साथ ही यह भी कहा कि दोनों के बीच सहयोग के लिए असीमित क्षेत्र हैं। यानी बिना एक दूसरे की राह में रोड़ा बने वे अपना विकास ही नहीं कर सकते, बल्कि एक दूसरे को विकास में सहयोग कर सकते हैं और साथ-साथ मिलकर भी विकास के पथ पर आगे बढ़ सकते हैंे। उन्होंने यहां अपने दीर्घकालिक आपसी संबंधों की भी चर्चा की। लेकिन उनके प्रदर्शित आचरण ने उनके सारे शब्दों का खोखलापन उजागर कर दिया।

जियाबाओ ने अपनी इस यात्रा में भारत की किसी भी चिंता का कोई समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास नहीं किया। पंचशील की बातें तो की, लेकिन किसी शील के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन नहीं किया। भारत का चीन के साथ सीमा विवाद तो दोनों देशों के बीच अड़ी सबसे बड़ी समस्या तो है ही, इसके साथ् चीन ने कुछ और भी खटकने वाली समस्याएं खड़ी कर रखी हैं। पाक अधिकृत कश्मीर की विकास योजनाओं में चीन की बढ़ती भागीदारी भारत के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है। इधर पिछले कुछ वर्षों से चीन ने कश्मीरी नागरिकों को चीन जाने के लिए अलग से कागज पर वीजा देने की परंपरा शुरू कर रखी है। भारत की बार-बार आपत्ति के बावजूद उसने इसे अभी बंद नहीं किया है। पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद को चीन का लगातार समर्थन भी भारत की गंभीर चिंता का विषय है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन ने पाकिस्तानी आतंकवादी नेता के विरुद्ध प्रतिबंध लगाने की कार्रवाई को अपने वीटो अधिकार से रोका। अरुणाचल प्रदेश को लेकर उसकी आपत्तियां अब तक बनी है। उसने उसकी आपत्तियां अब तक बनी है। उसने अरुणाचल प्रदेश में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की यात्रा का भी विरोध किया था। भारत की चीन से लगी प्रायः पूरी करीब 3500 किलोमीटर की सीमा पर चीन सैनिक महत्व की तैयारियां भी खटकती रही हैं। भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है, जिसके लिए उसे इस संस्था के पांचों स्थाई सदस्य देशों का समर्थन चाहिए। बाकी चार देश तो इसकी खुली घोषणा कर चुके हैं कि वे भारत को सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य के रूप में देखना चाहते हैं, लेकिन चीन अभी भी अपना विरोधी रूख अपनाए हुए है।

अपनी दिल्ली यात्रा में जियाबाओ ने भारत की किसी एक भी चिंता के समाधान में कोई रुचि नहीं दिखायी। भारत को भी कोई बहुत आशा नहीं थी, लेकिन इतनी संभावना तो अवश्य मानी जा रही थी कि वह कम से कम कश्मीर के 'स्टेपल वीजा' के बारे में तो कोई घोषणा अवश्य करेंगे। उनकी यात्रा के कुछ दिन पहले से भारत स्थित चीनी दूतावास ने कश्मीरियों के लिए ‘स्टेपल वीजा' (कागज पर अलग से लिखकर दिया गया वीजा, जो पासपोर्ट के साथ नत्थी कर दिया जाता है) देना बंद कर दिया था। मीडिया की खबरों के अनुसार उसने दो-तीन वीजा मुहर लगाकर भी दिया। इससे ऐसा लगा कि चीन शायद भारत की इस खलिश को दूर करना चाहता है और जियाबाओ की इस यात्रा के दौरान शायद अंतिम रूप से यह ‘स्टेपल वीजा' हमेशा के लिए बंद कर दिया जाए।

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जियाबाओ साहब ने बड़ी गंभीर मुद्रा में केवल यह कहा कि वह कश्मीरियों के लिए ‘स्टेपल विजा' पर भारत की चिंता से अवगत हैं। उनके अधिकारी इस पर विचार करेंगे। आखिर वह इस पर पहले से विचार करके क्यों नहीं आये। सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता के बारे में भी उन्होंने केवल इतना कहा कि इस बारे में वह भारत की आकांक्षा से अवगत हैं। वह चाहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की भूमिका बढ़े। लेकिन इसके आगे कुछ भी कहना उचित नहीं समझा। पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद को रोके जाने पर भी उन्होंने कुछ नहीं कहा।

भारत ने वैज्ञानिक, तकनीकी, सांस्कृतिक व शैक्षिक सहयोग के कई समझौतों पर चीन के साथ हस्ताक्षर किये। मंच पर उसने भी जियाबाओ के सहयोग और मैत्री के स्वर में स्वर मिलाया। लेकिन इस बार भारतीय नेताओं ने पर्दे के पीछे भी बातचीत में अपना सख्त रुख बनाए रखा। इसीलिए यह शायद भारत चीन संबंधों के इतिहास में पहली बार हुआ है कि दोनों देशों के शीर्ष नेताओं के बाद जारी संयुक्त विज्ञप्ति में इस बार एकीकृत चीन के समर्थन का कोई वाक्य शामिल नहीं किया गया है (एकीकृत मतलब चीन के साथ तिब्बत व ताइवान की एकता का समर्थन)। भारत ने पहली बार चीन के समक्ष तिब्बत और कश्मीर के मसले को समान स्तर पर रखने की कोशिश की। उसने बता दिया कि यदि चीन कश्मीर को भारत का स्थाई व अविभाज्य अंग मानने के लिए तैयार नहीं है, तो भारत क्यों तिब्बत के चीन के साथ एकीकरण का राग अलापता रहे।

भारत के साथ सीमा विवाद के बारे में तो उनका कहना था कि इसके पीछे दीर्घकालिक ऐतिहासिक परंपरा का कारक है, लेकिन कश्मीर के बारे में उनके पास कोई शब्द नहीं था कि वे क्यों उसे भारत का अंग मानने के लिए तैयार नहीं है। कश्मीरी नागरिकों को अलग से वीजा देने का साफ अर्थ है कि चीन उसे भारत का अंग नहीं मानता। यह भी कोई छिपी बात नहीं है कि ऐसा वह पाकिस्तान के कहने पर उसके साथ मैत्री प्रदर्शन के लिए कर रहा है।

पाकिस्तान चीन का रणनीतिक मित्र है। उसके साथ चीन के घनिष्ठ कूटनीतिक तथा आर्थिक संबंध हैं। पाकिस्तान का परमाणु व मिसाइल विकास कार्यक्रम चीन की ही देन है। वेन जियाबाओ भारत की तीन दिन की यात्रा के बाद सीधे पाकिस्तान गये। चीनी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा कार्यक्रम को जब अंतिम रूप दिया जा रहा था, तो भारत की तरफ से अनुरोध किया गया कि वह अपनी इस यात्रा को पाकिस्तान के साथ नत्थी न करें, किंतु उन्होंने इसे मानने से इनकार कर दिया। दुनिया के तमाम बड़े देशों ने दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान के बीच संतुलन की रणनीति छोड़ दी है। लेकिन चीन अभी यह नीति बनाए हुए है। पाकिस्तान पहुंचकर जियाबाओ ने वहां के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के साथ बातचीत की। गिलानी की तरफ से घोषणा की गयी कि चीन उसका सबसे अच्छा, सबसे घनिष्ठ तथा सबसे अधिक विश्वसनीय मित्र है। पाकिस्तान यद्यपि अभी भी सर्वाधिक अमेरिका पर निर्भर है। अमेरिकी सहायता न मिले, तो पाकिस्तान की सारी व्यवस्था चरमरा जाए, लेकिन अमेरिका, पाकिस्तान का अब भरोसे का मित्र नहीं रह गया। विकीलीक्स द्वारा जारी किये गये दस्तावेजों ने तो अंतिम रूप से यह प्रमाणित कर दिया है कि अमेरिका और पाकिस्तान की दोस्ती केवल स्वार्थ की दोस्ती रह गयी है। दोनों में से किसी को किसी पर कोई भरोसा नहीं है। इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका के वैश्विक संघर्ष में पाकिस्तान मजबूरीवश शामिल है, जबकि चीन के साथ उसका पूरा भरोसे का रिश्ता है। इसीलिए तो इस्लामाबाद में जियाबाओ ने चहकते हुए कहा कि ‘चीन-पाक अच्छे पड़ोसी, अच्छे मित्र, अच्छे साझीदार तथा अच्छे भाई हैं।' प्रधानमंत्री गिलानी के साथ वार्ता के उपरांत जारी संयुक्त वक्तव्य में चीन ने घोषणा की है कि पाकिस्तान के साथ मिलकर वह क्षेत्रीय शांति व स्थिरता के लिए काम करेगा। इस घोषणा का सीधा अर्थ है कि दक्षिण एशियायी मामलों में चीन हमेशा पाकिस्तान का साथ देगा और उसके हितों की रक्षा करेगा। दोनों देशों ने वर्ष 2011 को ‘चीन-पाक मैत्री वर्ष' के रूप में मनाने का निर्णय लिया है।

यह केवल संयोग नहीं है कि जिस दिन चीनी प्रधानमंत्री दिल्ली पहुंचे, उसी दिन अरुणाचल प्रदेश की सीमा से सटे चीनी गांव तक उस पहाड़ी सुरंग का काम पूरा हुआ, जो भारत की सीमा से लगे इस क्षेत्र को सड़क मार्ग से तिब्बत व चीन के मुख्य शहरों को जोड़ती है। चीन भारत के दोनों ओर स्थित पूर्वी व पश्चिमी समुद्रों तक अपने रेल व सड़क राजमार्ग तक पहुंचना चाहता है। इस तरह भारतीय भूखंड तो उसकी दो बांहों के बीच आ जाएगा। एक बांह पाकिस्तान से होकर पश्चिम समुद्र तक पहुंच रही है, तो दूसरी बंगलादेश व म्यामांर से होकर पूर्वी समुद्र तक। कभी कालिदास ने नगाधिराज हिमालय की स्तुति करते हुए कहा था कि भारत वर्ष के उत्तर में स्थित दिक्देवता सदृश यह महान पर्वत जिसकी श्रृंखलाएं पूर्वी व पश्चिमी समुद्र का सपर्श करती हैं, पृथ्वी के मानदंड के समान स्थित है। यह उत्तर में स्थित भारत के रक्षाप्रहरी की स्तुति थी, लेकिन चीन ने उसे निरादृत करके अपनी वे भुजाएं फैला दी हैं, जो आतंकवाद व तानाशाही का समर्थन करती हैं तथा लोकतंत्र का खून करती हैं और उसकी आवाज को जेल की कोठरियों में बंद रखती हैं। कहावत है कि जिसकी रक्षा करता है। हमने हिमालय की रक्षा नहीं की, हमने तिब्बत की रक्षा नहीं की, तो अब हमारी उत्तरी सीमाओं की रक्षा कैसे हो सकती है।

आज का भारत निश्चय ही 1962 का भारत नहीं है। आज के हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने थोड़ी ही सही, लेकिन कुछ दृढ़ता दिखायी है। उसने चीन को उसी के सिक्के में जवाब देने की कोशिश की है। लेकिन यह जवाब तब पूरा होगा, जब वह तिब्बत के प्रति वैसा ही व्यवहार शुरू करे, जैसा चीन कश्मीर के प्रति कर रहा है। लेकिन इसके लिए हमें अपना सैन्य मनोबल इजरायल की तरह विकसित करना होगा, क्योंकि तभी हम अपने में वह शक्ति जुटा सकेंगे, जो उस जाल को तोड़ सके, जिसे चीन, भारत के चारों तरफ बुन रहा है। पाक-चीन गठजोड़ भारत के लिए बेहद खतरनाक है, जिससे हमें सदैव सावधान रहना पड़ेगा।
 
19/12/2010

रविवार, 12 दिसंबर 2010

लोकतंत्र व तानाशाही के संघर्षों 
के बीच नोबेल शांति पुरस्कार



वर्ष 2010 का नोबेल शांति पुरस्कार चीन के विद्रोही नेता लियू जियाओबो को दिये जाने का चीन की एकदलीय कम्युनिस्ट सरकार ने तीव्र विरोध किया है। जियाओबो चीन की जेल में 11 वर्ष की कैद की सजा काट रहे हैं। सरकार ने उनकी पत्नी को भी नजरबंद कर रखा है। चीन सरकार का कहना है कि जियाओबो को नोबेल पुरस्कार देना पश्चिमी देशों का चीन की राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था पर हमला है। चीन ने पूरी दुनिया के देशों, खासतौर पर विकासशील देशों से अपील की थी कि वे ओसलो के समारोह का बहिष्कार करें। नार्वे स्थित करीब 65 देशों के मिशन प्रतिनिधियों में से 16 ने चीन के पक्ष में समारोह का बहिष्कार किया। इनमें ज्यादातर कम्युनिस्ट व इस्लामी देश हैं। तो क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि दुनिया के देशों के बीच भविष्य की विभाजन रेखा (या संघर्ष रेखा) लोकतंत्र और किसी भी तरह की तानाशाही के बीच होगी और लोकतंत्र विरोधी तानाशाही देशों का नेतृत्व चीन करेगा ?


नोबेल शांति पुरस्कार इस बार लोकतंत्र बनाम एकदलीय तानाशाही के संघर्ष का प्रतीक बन गया है। 74 वर्षों बाद पहली बार ऐसी स्थिति पैदा हुई कि 10 दिसंबर को ओसलो में आयोजित पुरस्कार समारोह में पुरस्कार विजेता की कुर्सी खाली रही। अब से 74 वर्ष पूर्व 1936 में ऐसी स्थिति पैदा हुई थी, जब नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किये जाने के लिए आयोजित समारोह में न पुरस्कार गृहीता पहुंच सका था और न कोई उसका प्रतिनिधि। परिणाम यह हुआ कि पुरस्कार उस कुर्सी को ही समर्पित कर दिया गया, जो उसके गृहीता के लिए रखी गयी थी। इस बार भी ऐसा हुआ कि नार्वे की नोबेल कमेटी की अध्यक्ष थार्बजोरेन जागलैंड ने पुरस्कार प्रदान किये जाने से संबंधित अपने संक्षिप्त भाषण के बाद पुरस्कार राशि, गोल्ड मेडल तथा प्रशस्ति पत्र अपने बगल में स्थित उस कुर्सी पर ही रख दिया, जो पुरस्कार गृहीता या उसके प्रतिनिधि के लिए रखी गयी थी। 1936 में जर्मन शांतिवादी कार्ल वोन ओशीत्जकी को नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा हुई थी, लेकिन उस समय के जर्मन तानाशाह हिटलर ने उन्हें पुरस्कार लेने के लिए नहीं जाने दिया था।

पुरस्कार गृहीता लियू जियाओबो चीन की जेल में कैद हैं। वह चीनी कम्युनिस्ट अधिनायकवाद के विरुद्ध आवाज उठाने के आरोप में 11 वर्ष के कारावास की सजा काट रहे हैं। जेल की कोठरी से भेजे गये अपने संदेश में उन्होंने इस पुरस्कार को 1989 में बीजिंग के ‘थ्यानमेन चौक' पर लोकतंत्र समर्थक रैली में पुलिस की गोली से मारे गये शहीदों की आत्माओं को समर्पित किया है। चीन ने पुरस्कार ग्रहण करने के लिए उन्हें तो नहीं ही छोड़ा, उनकी पत्नी को भी ओसलो जाने की इजाजत नहीं दी। जबसे लियू को यह पुरस्कार देने की घोषणा हुई है, उनकी घर पर चीनी पुलिस का गहरा पहरा है, जिससे वह किसी से मिल न सकें। उनका फोन संपर्क भी काट दिया गया है, जिससे वह किसी से बात भी न कर सकें।

नोबेल कमेटी के अध्यक्ष जागलैंड ने अपने भाषण में लियू जियाओबो की तुलना दक्षिण अफ्रीका के नेल्सन मंडेला से की, जो रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाने के लिए करीब 28 वर्षों तक जेल में रहे। उन्होंने जियाओबो को तत्काल जेल से रिहा करने की अपील की। इस अपील पर वहां सभागार में आयोजित करीब एक हजार आमंत्रित अतिथियों ने देर तक तालियां बजाकर अपना समर्थन व्यक्त किया। इसके पूर्व उन्होंने उस समय खड़े होकर देर तक तालियां बजायी, जब जागलैंड ने जियाओबो की अनुपस्थिति में उनके संघर्षों का स्मरण करते हुए यह विश्व विश्रुत पुरस्कार देने की घोषणा की। अपने प्रस्तुति भाषण में जागलैंड ने कहा कि 1.3 अरब जनसंख्या वाले देश चीन के कंधे पर पूरी मनुष्य जाति के भाग्य का भार है। इसलिए यदि वह सामाजिक बाजार अर्थव्यवस्था का विकास पूरे नागरिक अधिकारों से करता है, तो यह पूरी दुनिया के लिए हितकर होगा, नहीं तो यह खतरा है कि उस देश में भी सामाजिक और आर्थिक संकट पैदा हों, जिनका नकारात्मक प्रभाव हम सबको यानी पूरी दुनिया को भोगना पड़ेगा।

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने भी इस अवसर पर अपने वक्तव्य में कहा है कि लियू जियाओबो सार्वभौम मानवीय मूल्यों के प्रतीक हैं और इसके साथ ही चीन से अपील की कि वह जियाओबो को तत्काल रिहा कर दे।

लेकिन चीन इस सबसे बिल्कुल अप्रभावित है। उसने न केवल किसी चीनी नागरिक को इस समारोह में भाग लेने के लिए जाने की अनुमति नहीं दी, बल्कि उसने पुरस्कार प्रदान किये जाने वाले इस समारोह का चीनी मीडिया में प्रसार भी नहीं होने दिया। उसने सी.एन.एन. व बी.बी.सी. तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय चैनलों का प्रसारण बंद रखा, जब तक कि उन पर इस समारोह का प्रसारण हो रहा था। चीन में यों ही इन अंतर्राष्ट्रीय चैनलों की बहुत सीमित पहुंच है। ये केवल बड़े शहरों के होटलों या उन आवासीय क्षेत्रों तक सीमित हैं, जहां ज्यादातर विदेशी नागरिक रहते हैं।

लेकिन नोबेल शांति पुरस्कार दिये जाने की खबर से इन क्षेत्रों को भी वंचित रखा गया। चीन की दृष्टि में यह पूरा आयोजन राजनीतिक था और इसका लक्ष्य चीन की अपनी सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करना है। चीन उस समय से इसका विरोध कर रहा है, जिस समय नोबेल शांति पुरस्कारों के लिए चीन के इस विद्रोही प्रोफेसर व लेखक को चुने जाने की घोषणा की गयी। चीनी संवाद समिति सिन्हुआ ने लिखा है कि जियाओबो को शांति पुरस्कार के लिए चुनना वास्तव में पश्चिम का चीन की अपनी सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था पर हमला है। पश्चिमी देश वस्तुतः अपनी राजनीतिक व सामाजिक शैली चीन पर थोपना चाहते हैं, जिसे चीन कभी स्वीकार नहीं करेगा। नार्वे की नोबेल कमेटी ने चीन के एक सजायाफ्ता अपराधी को-जो जेल की सजा काट रहा है तथा जिसके उपर सत्ता के विरुद्ध विद्रोह भड़काने का आरोप है- शांति पुरस्कार के लिए चुनकर न केवल अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की मर्यादा का, बल्कि इस पुरस्कार के संस्थापक अल्फ्रेड नोबेल की घोषणा का भी उल्लंघन किया है। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का आधारभूत सिद्धांत है एक-दूसरे का सम्मान करना तथा एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना, किंतु नोबेल कमेटी ने इन सिद्धांतों का उल्लंघन किया है। 21 वर्ष पूर्व पश्चिमी देशों ने इसी नोबेल पुरस्कार कमेटी के माध्यम से दलाई लामा को शांति पुरस्कार के लिये चुना था। उस समय इन पश्चिमी देशों का सपना था कि चीन में उसकी वर्तमान राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध कोई आंधी उठेगी और चीन विखंडित हो जाएगा, उसकी वर्तमान व्यवस्था बिखर जायेगी। लेकिन उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ। चीन ज्यों का त्यों अपनी जगह खड़ा है और अपने सिद्धांतों के अनुसार विकास कर रहा है। सिन्हुआ के संपादक ने अपने हस्ताक्षरित आलेख में लिखा है कि नोबेल कमेटी की यह बात सरासर झूठी है कि वह ‘सार्वभौम मूल्यों' (यूनिवर्सल वैल्यूज) को यह सम्मान दे रहा है। उन्होंने इस संदर्भ में एक चीनी कहावत का उल्लेख किया कि ‘नदी के दोनों किनारों पर वनमानुस चीखते रहे, किंतु नौका हजार पर्वतों को पार करके आगे निकलती गयी।' चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता जियांग यू ने पश्चिमी देशों के इस हस्तक्षेप का तीव्र विरोध किया। उन्होंने भी दुनिया के देशों को उपदेश दिया कि उन्हें आपसी सद्भाव के अंतर्राष्ट्रीय नियमों का पालन करना चाहिए।

चीनी अधिकारियों ने कई स्तर पर यह प्रसारित करने की कोशिश की है कि जियाओबो वास्तव में चीन का विरोधी है, चीनी मूल्यों का विरोधी है और वह चीन व्यवस्था को नष्ट करना चाहता है। 20 वर्ष पूर्व इस व्यक्ति ने लिखा कि ‘हांगकांग जहां आज है वहां तक पहुंचने में उसे 100 वर्षों के औपनिवेशिक शासन की जरूरत पड़ी। लेकिन वर्तमान चीन को हांगकांग की स्थिति तक पहुंचने के लिए जरूर कम से कम 300 वर्षों के औपनिवेशिक शासन की जरूरत पड़ेगी। यह इतना बड़ा है कि मुझे तो संदेह है कि 300 वर्षों में भी कुछ हो पाएगा।'  उन्होंने यहांतक लिखा कि चीनी जनता नपुंसक है। वह शारीरिक ही नहीं, मानसिक तौर पर भी कायर व पुंसत्वहीन हो गयी है। जियाओबो ने चीनी राजसत्ता, राजनीतिक व्यवस्था तथा समाज के खिलाफ विद्रोह भड़काने के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाया। 21 वर्ष पूर्व थ्यानमेन चौक की विद्रोही रैली में भी उसने भाग लिया था। दिसंबर 2008 में उसने चीन की वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध एक घोषणा पत्र जारी किया। इसके उपरांत ही उस पर मुकदमा चलाया गया और चीनी गणतंत्र के संविधान के अनुच्छेद 105 के उल्लंघन के आरोप में उन्हें 11 वर्ष के कैद की सजा सुनायी गयी।

चीनी मीडिया में एक सर्वेक्षण् परिणामों को भी प्रसारित किया गया है, जिसके अनुसार देश के 77.1 प्रतिशत लोग जानते ही नहीं कि यह लियू जियाओबो कौन है और 95 प्रतिशत लोग मानते हैं कि पश्चिमी देश चीन पर यह दबाव डालने में लगे हैं कि वह उनकी पश्चिमी राजनीतिक शैली अपना ले, किंतु चीन ऐसे किसी दबाव के सामने झुकने वाला नहीं है। विश्व स्तर पर तमाम विकासशील देश इस मामले में उसके साथ हैं। दुनिया के करीब 100 से अधिक देशों तथा करीब इतने ही मीडिया संगठनों ने इस मामले में चीन के पक्ष का समर्थन किया है। कई बड़े अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने भी चीन के एक राष्ट्रद्रोही अपराधी को नोबेल पुरस्कार दिये जाने का विरोध किया है। नार्वे में स्थित दुनिया के करीब 65 स्थायी मिशन में से 20 ने ओसलो के इस समारोह का बहिष्कार किया है। इनमें से 4 तो अपना रुख बदलकर समारोह में शामिल हुए, लेकिन 16 ने चीन का साथ दिया। आश्चर्य है कि बहिष्कार करने वाले देशों में कई देश ऐसे हैं, जो अमेरिका के सीधे प्रभाव में समझे जाते हैं। बहिष्कार करने वाले देशों में मुख्य रूप से चीन के बाद रूस, पाकिस्तान, ईरान, इराक, मिस्र, अफगानिस्तान, तजाकिस्तान, सउदी अरब, क्यूबा, श्रीलंका, तंजानियां आदि देश शामिल हैं।

चीन इस पुरस्कार की घोषणा होने के बाद से ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस अभियान में लग गया था कि ज्यादा से ज्यादा देश इस समारोह का बहिष्कार करें। उसका भारत पर भी काफी दबाव था कि वह इस समारोह में भाग न ले। चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाओबो करीब 300 सदस्यों के विशाल प्रतिनिधि मंडल (जिनमें ज्यादातर व्यावसायिक कंपनियों के प्रतिनिधि तथा अधिकारी हैं) के साथ् इसी सप्ताह भारत आने वाले हैं। इसलिए भारत के सामने काफी उहापोह की स्थिति थी, लेकिन अंततः उसने लोकतंत्र की आवाज के पक्ष में खड़ा होने का निर्णय लिया और नार्वे स्थित अपने प्रतिनिधि को समारोह में भाग लेने का निर्देश दिया। इससे चीन का क्षुब्ध होना स्वाभाविक है, लेकिन वह प्रसन्न होकर भी कहां कोई भारत का हित करने वाला है। यदि प्रधानमंत्री जियाओबो अपने लंबे चौड़े प्रतिनिधिमंडल के साथ् यहां आ रहे हैं, तो इसमें उनका अपना स्वार्थ अधिक है। चीनी शासन भारत के साथ अपना व्यापार बढ़ाना चाहता है और अपनी कंपनियों के लिए विशेष राहत की भी दरकार रखता है। भारत-चीन का व्यापार बढ़ जरूर रहा है, लेकिन व्यापार संतुलन अभी भी चीन के पक्ष में है। यानी भारत से चीन को निर्यात कम है, उसके मुकाबले आयात कहीं ज्यादा। व्यापार वृद्धि से भारत का व्यापार घाटा और बढ़ेगा ही, कम नहीं होगा। इसलिए इस क्षेत्र में भी भारत को चीन से सतर्क रहने की जरूरत है।

चीन के किसी विद्रोही नेता को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुने जाने का चीन के बाद सर्वाधिक मुखर विरोध रूस की तरफ से किया गया है। रूस के प्रधानमंत्री ब्लादिमिर पुतिन ने तो अगला नोबेल शांति पुरस्कार विकीलीक्स के संस्थापक व संपादक जुलियन असांजे को दिये जाने की मांग की है। उन्होंने ब्रिटेन में असांजे की गिरफ्तारी का विरोध किया है। उन्होंने सवाल उठाया है कि आखिर क्यों असांजे जेल में हैं ? क्या यह लोकतंत्र है। यह तो वैसा ही है जैसे ‘पतीली केतली को कहे कि तुम काले हो।' उनका पश्चिमी लोकतंत्रों पर परोक्ष व्यंग्य था कि वे चीन में तो लोकतांत्रिक मूल्यों के विकास के लिए वहां के विद्रोही नेता को नोबेल शांति पुरस्कार देते हैं, लेकिन यहां सच्चाई को साहसपूर्वक उजागर करने वाले एक पत्रकार को फर्जी आरोपों में गिरफ्तार करके जेल में डाल रहे हैं।

अब यदि इस सारे प्रकरण को भारत के संदर्भ में देखा जाए, तो भारत के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि वह अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों के साथ खड़ा हो। भारत के प्रायः सारे पड़ोसी देश पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, नेपाल, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, सउदी अरब, मिस्र तथा संयुक्त अरब अमीरात आदि चीन के साथ खड़े हैं। चीन, भारत के कट्टर विरोधी पाकिस्तान का कट्टर समर्थक है। वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान के कहने पर आंतकवादी नेताओं की सुरक्षा के लिए तैयार रहता है। खाड़ी क्षेत्र के प्रायः सारे मुस्लिम देश पाकिस्तान के साथ मिलकर चीन के साथ हैं। मध्य एशियायी देश भी अंतर्राष्ट्रीय मामलों में चीन के अधिक नजदीक हैं।

तो यदि लियू जियाओबो के बहाने विश्व की राजनीतिक स्थिति पर नजर डालें, तो खुले लोकतंत्र के विरोधी सारे देश चीन के साथ हैं। इस्लामी देशों ने भी चीन के साथ सहज मैत्री शायद केवल इसलिए विकसित की है कि चीन का भी लोकतंत्र का कोई आग्रह नहीं है। इस्लामी तानाशाही व कम्युनिस्ट तानाशाही में कोई चारित्रगत फर्क नहीं है। इसलिए उनके बीच सहज मैत्री स्थापित हो सकती है। भारत में यह गौर करने लायक बात है कि पाकिस्तान नहीं अफगानिस्तान ने भी चीन के समर्थन में ओसलो के समारोह का बहिष्कार किया है।

दुनिया के तमाम देशों के बीच आपसी द्विपक्षीय संबंध जैसे भी रहें, लेकिन एक बात तो बहुत स्पष्ट है कि दुनिया दो तरह की शासन व सामाजिक व्यवस्थाओं में विभाजित होती नजर आ रही है। एक तरफ लोकतंत्र है, दूसरी तरफ तानाशाही। यह तानाशाही चाहे मजहबी हो, सामाजिक हो या सैनिक, वे सभी एकजुट हैं। इसलिए भविष्य का राजनीतिक संघर्ष विभिन्न संस्कृतियों या मजहबों के बीच हो न हो, लेकिन लोकतंत्र व तानाशाही के बीच का संघर्ष अवश्यम्भावी है। भविष्य की सांस्कृतिक खेमेबंदी का आधार भी शायद यह लोकतंत्र के समर्थन या विरोध की भावना ही बने। यह हटिंगटन की भविष्यवाणी (जिन्होंने संस्कृतियों के बीच अगले अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों की कल्पना की थी) का ही संभवतः नया रूप होगा।





रविवार, 5 दिसंबर 2010

क्या विकीलीक्स ने कोई अपराध किया है !



‘विकीलीक्स‘ नामक वेबसाइट ने अमेरिकी गोपनीय दस्तावेजों के करीब ढाई लाख पृ ष्ठ एक साथ प्रकाशित करके अमेरिकी सरकार और उसकी दोमंुही कूटनीति को सरे बाजार नंगा कर दिया है। इससे अमेरिका ही नहीं, दुनिया के वे सारे देश खफा हैं, जिनकी ढकी छुपी सच्चाई उजागर हो गयी है। इस वेबसाइट को बंद कराने तथ इसके संस्थापक पत्रकार जुलियन असांजे को पकड़ने का विश्वव्यापी अभियान शुरू हो गया है। एक पूरी महाशक्ति और उसके संगीसाथी एक व्यक्ति के पीछे पड़ गये हैं। इधर अपने देश में ‘नीरा राडिया टेप' को लेकर हंगामा खड़ा है। राडिया टेप के प्रकाशन को भी निजी गोपनीयता तथ पत्रकारिता व्यवसाय की मर्यादा का उल्लंघन बताया जा रहा है। सवाल है कि क्या ‘विकीलीक्स' के संचालक तथा ‘राडिया टेप' के प्रकाशक अपराधी हैं या इन्होंने जनहित का ऐसा काम किया है, जिसकी प्रशंसा होनी चाहिए।
मीडिया के गोपनीय दस्तावेजों, पत्राचारों तथा वार्तालापों के उजागर होने को लेकर इस समय प्रायः पूरी दुनिया में तहलका मचा हुआ है। यह तहलका मचाने वाले हैं 40 वर्षीय आस्ट्रेलियायी पत्रकार, प्रकाशक तथा ‘विकीलीक्स' एवं ‘व्हिशिल ब्लोअर' नामक वेबसाइटों के संस्थापक जुलियन असांजे। इसी समय भारत में एक और गोपनीयता का मामला भड़का हुआ है, जिसने कई राजनेताओं व उद्यमियों के साथ कई शीर्ष पत्रकारों को भी कटघरे में खड़ा कर रखा है। ‘नीरा राडिया टेपकांड' के नाम से चर्चित इस मसले ने देश में पत्रकारिता की व्यावसायिक सीमाओं व उसके कर्तव्यों तथा लोगों के गोपनीयता के अधिकार को लेकर एक नई बहस खड़ी कर रखी है।

लोकतंत्र में सूचना के अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथ गोपनीयता के सरकारी व वैयक्तिक अधिकारों को लेकर नई सदी में शुरू हुई यह बिल्कुल नई बहस है। अमेरिका जो अभिव्यक्ति स्वतंत्रता व सूचना के अधिकार का अब तक सबसे बड़ा प्रवक्ता था, वह विकीलीक्स द्वारा लीक किये गये दस्तावेजों से सर्वाधिक बौखलाया हुआ है। अमेरिकी विदेश मंत्री हिले क्लिंटन ने इसे दुनिया पर हमला करार दिया है। असांजे की इस करतूत से अमेरिका को सर्वाधिक शर्मिंदगी उठानी पड़ रही है। उसका दोहरा चेहरा पूरी दुनिया के सामने उजागर हो गया है। शर्मिंदगी के कारण् हिलेरी को पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी तथा अर्जेंटीना की राष्ट्रपति क्रिस्टीना किर्सकर से माफी मांगनी पड़ी है।

अमेरिका अब असांजे की वेबसाइट बंद कराने पर लगा हुआ है, लेकिन असांजे कहीं न कहीं से अभी भी अपनी वेबसाइट को जिंदा रखे हुए हैं। अमेरिकी डोमेन सेवा ने अमेरिकी सरकार के दबाव में गत शुक्रवार को अपनी ‘डोमेन नेम‘ प्रणाली से ‘विकीलीक्स डॉट ओआरजी' का नाम हटा दिया। असांजे ने इसके बाद ‘अमेजन सर्वर' से संपर्क किया, लेकिन उसने राजनीतिक दबाव के कारण उनका अनुरोध अस्वीकार कर दिया। असांजे ने इसके बाद एक और अमेरिकी डोमेन सेवा केलीफोर्निया स्थित ‘एवरीडन्स‘ की सेवा ली। उसने पहले तो स्वीकार कर लिया, लेकिन बाद में उसने भी असांजे की वेबसाइट को अपने सर्वर से हटा दिया। उसका कहना था कि इस वेबसाइट के चलते उस पर इतने ‘हैकर‘ हमले हो रहे थे कि उसके अन्य 5 लाख ग्राहकों के लिए खतरा पैदा हो गया था। अंततः स्विट्जरलैंड की एक डोमेन सेवा ने उसे अपने सर्वर में जगह दी और उस पर विकीलीक्स डॉट सीएच के नाम से साइट शुरू हुई। अब खबर है कि उसे भी बंद कर दिया गया है।

वास्तव में अमेरिका ने पूरे देश में अपने दूतावासों तथा अन्य एजेंसियों को इस कार्य पर लगा दिया है कि विकीलीक्स कहीं से कुछ लीक न करा पाए।

अमेरिकी गृह सुरक्षा से संबद्ध सिनेट कमेटी (सिनेट कमेटी आन होम लैंड सिक्योरिटी) के अध्यक्ष सिनेटर जो, लीवरमैन ने इसकी कमान संभाल रखी है। जुलियन असांजे कहां है, इसका कुछ पता नहीं है। अमेरिकी एजेंसियां उसकी तलाश में हैं। एक खबर के अनुसार वह ब्रिटेन के किसी गुप्त स्थान पर छिपा हुआ है, लेकिन नेट पर वह अपनी उपस्थिति बनाए हुए है। उसने अपने ट्विटर पर अमेरिकी राजनीतिक दबाववश अपनी वेबसाइट को हटाने वाली डोमेन सेवाओं की खिल्ली उड़ाई है। मुख्यतः किताबें बेचने का धंधा करने वाली अमेजन को तो उसने कहा है कि यदि वह अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की मदद नहीं कर सकती, तो उसे किताबें बेचने का धंधा बंद कर देना चाहिए।

आश्चर्य की बात है कि दुनिया का कोई देश फिलहाल असांजे या उनकी वेबसाइट के साथ नहीं है। ऐसे में स्विट्जरलैंड में ‘इंटरनेट स्वतंत्रता तथा पारदर्शिता’ (इंटरनेट फ्रीडम एंड टं्रासपैरेंसी) के लिए काम करने वाली संस्था ‘स्विस पाइरेट्स पार्टी‘ उनकी मदद के लिए सामने आयी, लेकिन वह भी दूर तक साथ् नहीं दे सकी। एक खबर के अनुसार इसी संस्था के द्वारा असांजे को ‘विकीलीक्स डॉट सीएच‘ के पते से अपनी वेबसाइट चलाने की सुविधा मिली थी। इसकी स्थापना 2009 में हुई थी। इसके संस्थापक डेनिस सिमोनेट के अनुसार विकीलीक्स के लिए यह नया पता 6 महीने पहले ही रजिस्टर कर लिया गया था। अब इस स्विस पते के भी सेवा से बाहर हो जाने के बाद विकीलीक्स का क्या होगा पता नहीं। यद्यपि यह तय है कि असांजे कहीं न कहीं से किसी न किसी माध्यम से इसे जारी रखने का प्रयत्न करेगा, क्योंकि अभी उसके पास काफी ‘गोपनीय‘ मसाला बचा हुआ है। लेकिन अमेरिकी सरकार के साथ उसका यह गुरिल्ला युद्ध कब तक चल पाएगा और खासकर उस स्थिति में जब दुनिया की प्रायः सभी सरकारें इस मामले में अमेरिकी प्रशासन के साथ हों। अमेरिका इस समय एक तरफ दुनिया भर के देशों के साथ अपने कूटनीतिक संबंधों को संभालने में लगा है, क्योंकि विकीलीक्स द्वारा एक साथ करीब ढाई लाख गोपनीय दस्तावेजों के सार्वजनिक कर दिये जाने से उसकी स्थिति काफी शर्मनाक बन गयी है, दूसरी तरफ वह अपने गोपनीय दस्तावेजों की सुरक्षा तथा उस तक लोगों की पहुंच को सीमित करने में लगा है। अमेरिकी सिनेट ने अभी एक प्रस्ताव पारित करके अमेरिकी फौज और खुफिया सेवा में काम करने वाले मुखबिरों के नाम छापने को गैरकानूनी बना दिया है। उसने अपने यूरोपीय मित्र देशों से भी कहा है कि वे असांजे की वेबसाइटों को रोकें तथा अपने गोपनीय दस्तावेजों की सुरक्षा को मजबूत करें। विकीलीक्स के इस खुलासे के प्रथम शिकार जर्मनी के विदेशमंत्री गुइडो वेस्टरवेले के एक सहायक (उनके चीफ ऑफ स्टाफ) हुए हैं, जिन्हें सूचना लीक करने के आरोप में बर्खास्त कर दिया गया है। विकीलीक्स पर आयी कुछ सूचनाओं के लिए माना गया कि उसके बाहर जाने के लिए उपर्युक्त अधिकारी ही जिम्मेदार है। इधर, फ्रांस की सरकार ने कहा है कि वह विकीलीक्स को फ्रांस के सर्वर से ‘ब्लॉक‘ करने के रास्ते तलाश कर रही है। फ्रांस के उद्योग मंत्री एरिक बेसान ने अपने मंत्रालय के अधिकारियों को पत्र लिखकर कहा है कि विकीलीक्स फिलहाल फ्रांस की कंपनी ‘ओ.वी.एच.' के सहारे काम कर रही है। बेसान ने लिखा है कि ‘उन्हें फ्रांस के जरिए ऐसी साइट चलाना कतई कबूल नहीं है, जो कूटनीतिक रिश्ते की गोपनीय बातों को सार्वजनिक करके लोगों की जान को खतरे में डाल रही है। इसलिए आप लोग तुरंत हमें ऐसा तरीका सुझाएं, जिससे कि इस इंटरनेट साइट की फ्रांस में ‘होस्टिंग' तत्काल समाप्त की जा सके।'

वास्तव में विकीलीक्स के खुलासे से अमेरिका के पाकिस्तान, खाड़ी के कुछ देशों, यूरोपीय देशों, रूसी नेताओं आदि के साथ संबंध बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। यद्यपि द्विपक्षीय स्तर पर सभी एक-दूसरे का हाल जानते हैं, लेकिन कोई स्पष्ट प्रमाण न होने से खतरनाक बातें भी संदेह के पर्दे में छिपी रहती हैं, किंतु दस्तावेजी प्रमाणों के सामने आ जाने के बाद सारी सच्चाई जानते हुए भी परस्पर आंखें मिलाना कठिन हो जाता है। सच कहें तो विकीलीक्स ने अब तक एक भी ऐसा दस्तावेज उजागर नहीं किया है, जो वास्तव में चौंकाने वाला हो, लेकिन दस्तावेजों का प्रमाण सार्वजनिक कर देना अपने आपमें एक बहुत बड़ा धमाका है।

यदि भारत के संदर्भ में बात करें, तो ऐसा कुछ भी अब तक सामने नहीं आया है, जिससे भारत को शर्मिंदगी उठानी पड़े, बल्कि पाकिस्तान के बारे में जो भारी खुलासा हुआ है, उससे भारत को कूटनीतिक लाभ ही हुआ है। भारत के संबद्ध अब तक एक ही दस्तावेज विकीलीक्स पर आया है, जो पाकिस्तान-अफगानिस्तान के लिए नियुक्त अमेरिका के विशेष दूत रिचर्ड होलब्रुक तथा भारत की विदेश सचिव निरूपमा राव के बीच बातचीत से संबद्ध है। इससे भारत की प्रतिष्ठा ही बढ़ी है कि वह कितना सिद्धांत निष्ठ है तथा अफगानिस्तान व पाकिस्तान के बारे में उसका दृष्टिकोण कितना रचनात्मक है। हां आगे कुछ यदि भारतीय नेताओं व उनके सिद्धांतों व नीतियों तथा देश की राजनीतिक स्थिति के मूल्यांकन संबंधी कोई दस्तावेज सामने आता है, तो बात दीगर है।

उधर पाकिस्तान व अमेरिका के बीच संबंधों के तो इतने दस्तावेज उजागर हुए हैं कि दोनों ही देश सरे बाजार नंगे हो गये हैं। विकीलीक्स ने पाकिस्तान में अमेरिका की पूर्व राजदूत अन्ने डब्लू पैटर्सन के तमाम उन पत्रों को प्रकाशित किया है, जिसमें उसने पाकिस्तान की राजनीति और उसके नेताओं की सोच का कच्चा चिट्ठा पेश किया है। असांजे ने पैटर्सन को पाकिस्तान की सच्चाई उजागर करने वाली सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजनयिक के रूप में पेश किया है। पैटर्सन ने अपने पत्रों में अमेरिकी सरकार को साफ लिखा है कि किसी भी प्रकार की सैनिक व आर्थिक सहायता देकर पाकिस्तान को अफगान तालिबानों के विरुद्ध नहीं खड़ा किया जा सकता। तालिबान वास्तव में पाकिस्तान के अपने रक्षा कवच हैं, जिनसे वह कभी अपने संबंध नहीं तोड़ सकता। अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान संगठन भी वहां पाकिस्तान के हितों की रक्षा कर रहे हैं। वे वहां भारत का वर्चस्व रोकने के सबसे बड़े हथियार हैं। उन्होंने इस बात का भी खुलासा किया है कि पाकिस्तान क्यों ओसामा बिन लादेन तक अमेरिका को नहीं पहुंचने देता। उनके अनुसार पाकिस्तान डरता है कि यदि ओसामा हाथ लग गया, तो फिर अमेरिका पाकिस्तान को छोड़ सकता है। इस सबके बावजूद अमेरिका पाकिस्तान को अरबों डॉलर की सैनिक व असैनिक सहायता दिये जा रहा है। इसकी व्याख्या में पैटर्सन ने लिखा है कि पाकिस्तान यह अच्छी तरह जानता है कि अमेरिका उसे नहीं छोड़ सकता। वह पाकिस्तान सरकार व सेना की मजबूरियों को भी समझता है। वह जानता है कि आम पाकिस्तानी भावना के खिलाफ उसे बहुत अधिक नहीं दबाया जा सकता। दूसरी तरफ अमेरिका यह भी समझता है कि पाकिस्तान उसकी सहायता के बिना जिंदा नहीं रह सकता।

मोटे तौर पर यह बात सभी जानते हैं कि पाकिस्तान की राजनीति तथा सेना में अमेरिका का गहरा दखल है, लेकिन अब विकीलीक्स पर जारी दस्तावेजों से यह प्रमाण मिल रहा है कि पाकिस्तान में सेनाध्यक्ष या इसकी गुप्तचर संस्था आई.एस.आई. प्रमुख की नियुक्ति अमेरिकी स्वीकृति से होती है। एक दस्तावेज के अनुसार पाकिस्तान में फिलहाल विपक्ष के नेता पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने उस समय अमेरिकी सरकार के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया, जब सेनाध्यक्ष के पद पर कयानी की नियुक्ति हुई। इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान के मामले में अमेरिका की कितनी गहरी पैठ है। पाक स्थित अमेरिकी दूतावास से अमेरिकी सरकार के बीच हुए पत्राचार से ही यह पता चलता है कि पाक राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को यह खतरा था कि वहां सैनिक विद्रोह हो सकता है और उनकी हत्या भी की जा सकती थी। इसके लिए उन्होंने पहले से ही प्रबंध कर लिया था। उन्होंने अपने बेटे बिलावल को कहा था कि यदि उनकी हत्या हो जाए, तो वह राष्ट्रपति पद के लिए उनकी बहन फरयाल तालपुर का नाम प्रस्तावित करें।

विकीलीक्स के दस्तावेजों से खाड़ी के देशों का अंतर्द्वंद्व भी उजागर होता है। जैसे सउदी अरब तथा मिस्र आदि देश इजरायल के विरुद्ध फलस्तीन का समर्थन करते हैं तथा अमेरिका के विरुद्ध ईरान के साथ भी खड़े नजर आते हैं, लेकिन वास्तव में ईरानी परमाणु बम से वे सर्वाधिक डरे हैं और इस बात के समर्थक हैं कि अमेरिका या इजरायल ईरानी परमाणु ठिकानों पर हमला करके उन्हें नष्ट कर दें।

ऐसी और भी असंख्य बातें। अब सवाल है कि क्या इन दस्तावेजों को उजागर करके जुलियन असांजे ने कोई अपराध किया है, जिसकी उन्हें सजा मिलनी चाहिए या उन्होंने व्यापक मानवता के हित में भारी खतरा उठाकर एक जनहितैषी पत्रकार की भूमिका निभायी है। निश्चय ही असांजे ने किसी निजी स्वार्थ अथवा किसी देश या संगठन के हित में यह कार्य नहीं किया है। शायद ही कोई इस बात का विरोध करे कि लोकतंत्र का विकास शासन सत्ता की बढ़ती पारदर्शिता में ही निहीत है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक संबंधों में भी यदि पारदर्शिता रखी जाए, तो बहुत सारे संकटों से यों ही बचा जा सकता है। धोखे या छल पर टिकी कूटनीति से मनुष्यता का कोई भला नहीं हो सकता। इसलिए यदि ईमानदारी से कुबूल करें, तो जुलियन असांजे ने अमेरिकी कूटनीति का मुखौटा उतार कर विश्व राजनय का बहुत बड़ा उपकार किया है। उसने गोपनीयता की सीमा तथा क्षेत्र को नये ढंग से परिभाषित करने की आवश्यकता भी रेखांकित की है।

इध्र अपने देश के नीरा राडिया कांड ने भी देश की कलुषित हो चली पत्रकारिता के परिमार्जन की एक शुरुआत की है। यद्यपि नीरा राडिया के फोन स्वयं सरकार द्वारा टेप कराये गये थे, लेकिन देश की दो पत्रिकाओं ने उसे प्रकाशित करने का जो साहस दिखाया, वह प्रशंसनीय है। जिसे लेकर अब देश के भीतर फिर पत्रकारिता के आदर्शोंं और उसकी व्यावसायिक सीमाओं के बारे में एक खुली बहस शुरू हुई है। अब यह भी बात उठ रही है कि बड़े पत्रकारों का संपादकों को भी अपनी संपत्ति की घोषणा करनी चाहिए। भारत के एडिटर्स गिल्ड की बीते सप्ताह हुई बैठक में पत्रकारिता की आचार संहिता को लेकर साहसपूर्ण बहस की शुरुआत हुई। गिल्ड के अध्यक्ष राजदीप सरदेसाई ने यद्यपि निजी गोपनीयता का आदर करना पत्रकारिता के व्यावसायिक आदर्श का हिस्सा बताया और कहा कि राडिया फोन टेप को प्रकाशित करना पत्रकारिता की व्यावसायिक मर्यादा के अनुरूप नहीं है, लेकिन उसी बैठक में उपस्थित अन्य कई संपादकों ने सरदेसाई का खुला विरोध किया और कहा कि किसी तरह के राजनीतिक व आर्थिक कदाचार को उजागर करना पत्रकारिता के व्यावसायिक आदर्शों के प्रतिकूल नहीं, बल्कि उसका मूल आधार है। इस बैठक में ऐसे प्रश्न भी उठाये गये कि कई पत्रकार अपना निजी चैनल शुरू कर लेते हैं, आखिर इसके लिए उनके पास इतना पैसा कहां से आ जाता है। प्रहारों से घिरे सरदेसाई को कहना पड़ा कि एडिटर्स गिल्ड की आगामी 24 दिसंबर को होने वाली बैठक में संपादकों की अपनी संपत्ति की घोषणा करने के बारे में विचार किया जा सकता है।

यह सच्चाई है कि आज भारत की ही नहीं, प्रायः दुनिया भर की पत्रकारिता सूचना और मनोरंजन उद्योग में बदल गयी है और सत्ताधारियों तथा उद्योग व्यवसाय जगत से उसका चोली-दामन का साथ हो गया है। शीर्ष पत्रकार, शीर्ष व्यवसायी और शीर्ष राजनेता तीनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे बन गये हैं। उनमें से बिरला ही कोई सिरफिरा जुलियन असांजे जैसा निकल आता है, जो अपनी जान की बाजी लगाकर भी सत्य को उजागर करने का भार स्वतः अपने कंधे पर उठा लेता है। होना तो यह चाहिए था कि असांजे को 2010 का ’वर्ष पुरुष' (मैन ऑफ द इयर) घोषित किया जाता, लेकिन यह न भी हो तो भी वर्ष 2010 के साथ विकीलीक्स और जुलियन असांजे का संबंध इस तरह स्थापित हो गया है कि इसे सरकारी गोपनीयता कानून की ओट में चलती कपटी और दोगली राजनीति व कूटनीति के विरुद्ध विश्वव्यापी आंदोलन की एक शुरुआत के रूप में सदैव याद किया जाएगा।


5/12/2010