रविवार, 28 नवंबर 2010

सरकार व मीडिया, दोनों विश्वसनीयता के संकट में




2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला कांड को लेकर गत दो हफ्तों से संसद का कामकाज ठप है। विपक्ष की मांग है कि इसकी जांच के लिए संयुक्त संसदीय जांच समिति (जे.पी.सी.) का गठन किया जाए, लेकिन सरकार अड़ी है कि चाहे जो हो जाए, वह जे.पी.सी. का गठन नहीं करेगी। विपक्ष का कहना है कि उसे किसी सरकारी जांच संस्था पर विश्वास नहीं है, क्योंकि वे सबकी सब अपनी निष्पक्षता व विश्वसनीयता खो चुकी हैं। इसलिए वे इस पर अड़े हैं कि जब तक जे.पी.सी. का गठन नहीं होता, वे संसद नहीं चलने देंगे। इसके साथ ही एक फोन टेप भी सामने आया है, जिसने मीडिया के तमाम शीर्षस्थ नामों को विश्वसनीयता के संकट में डाल दिया है। इस टेप ने मीडिया पर प्रायः लगने वाले आरोपों को सही साबित किया है। अब किससे अपेक्षा की जाए, जो देश को इस सर्वग्रासी संकट से उबार सके।


केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार इस बात पर अड़ी हुई है कि वह 2-जी स्पेक्ट्रम मामले की जांच के लिए ’संसदीय जांच समिति’ (जे.पी.सी.) का गठन नहीं करेगी। सवाल है आखिर क्यों ? यदि सरकार का दामन साफ है और जो कुछ हुआ है, वह सब नियमानुसार ही हुआ है, तो सरकार को जे.पी.सी. स्तर की जांच कराने में क्यों आपत्ति है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सी.ए.जी.) की गत 16 नवंबर को संसद में पेश की गयी रिपोर्ट के अनुसार 2-जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस के वितरण में बरती गयी अनियमितताओं के कारण भारत सरकार को 1 लाख 76 हजार करोड़ का नुकसार हुआ है। यह भारत की जनता का नुकसार है, इसलिए भारत की आम जनता को यह जानने का पूरा हक है कि इस नुकसान का जिम्मेदार कौन है और जो अनियमितता बरती गयी है, उसका लाभ किसने उठाया है। इसलिए यह सरकार का प्राथमिक दायित्व बनता है कि जिस स्तर से भी संभव हो, इस मामले की पूरी जांच कराये और उसकी विश्वसनीय रिपोर्ट देश की जनता के सामने पेश करे।

वास्तव में मूल समस्या सरकार की अपनी विश्वसनीयता की है। देश की जनता का उसकी अपनी एजेंसियों पर से भरोसा उठ गया है। इसलिए जब वह सी.बी.आई. (केंद्रीय जांच ब्यूरो), इ.डी. (इंफोर्समेंट डाइरेक्टरेट या प्रवर्तन निदेशालय) या संसद की पी.ए.सी. (पब्लिक एकाउंट कमेटी या लोक लेखा समिति) से इस मामले की जांच कराने की बात करती है, तो उस पर किसी को भरोसा नहीं होता कि ये संस्थाएं ईमानदारी से जांच कर सकती हैं। सी.बी.आई. को सुप्रीम कोर्ट पहले ही फटकार लगा चुकी है कि वह सही जांच करने के बजाए व्यर्थ की झाड़ियां पीट रही है। सुप्रीम कोर्ट ने उससे पूछा है कि उसने तत्कालीन दूर संचार मंत्री ए. राजा तथा उनके विभाग के सचिव से अब तक कोई पूछताछ क्यों नहीं की। वह कहती है कि उसे इससे संबंधित दस्तावेजों के 82 हजार पृष्ठ खंगालने हैं। घोटाले से सीधे जुड़े लोगों को छोड़कर व्यर्थ के दस्तावेजों में सर खपाने का सीधा अर्थ मामले पर लीपापोती करना ही हो सकता है। प्रवर्तन निदेशालय भी वित्त मंत्रालय के अंतर्गत राजस्व विभाग से संबंधित संस्था है, जो विदेशी मुद्रा मामलों की छानबीन करती है। वैसे वह आर्थिक गुप्तचर एजेंसी के तौर पर भी काम करती है और उसके दायित्वों में आर्थिक कानूनों को लागू करवाना तथा आर्थिक अपराधों से लड़ना भी है, लेकिन उसके अब तक के इतिहास से जाहिर है कि उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है और सी.बी.आई. की तरह वह भी सरकार के हाथ का एक औजार मात्र है।

एक केंद्रीय निगरानी आयुक्त (सी.वी.सी.) का भी पद है, जिसका काम सरकारी स्तर के भ्रष्टाचारों की जांच करना और उसे रोकना है। लेकिन इस पर जिस तरह की नियुक्तियां की जा रही हैं, उससे इस पद की विश्वसनीयता भी समाप्त हो गयी है। अभी सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं सरकार के सामने यह सवाल खड़ा किया कि उसने ऐसे व्यक्ति को सी.वी.सी. के पद पर कैसे नियुक्त किया, जिस पर स्वयं भ्रष्टाचार का आरोप है। सरकार ने पिछले दिनों पी.जे. थॉमस को सी.वी.सी. नियुक्त किया, जिन पर 90 के दशक का पाम ऑयल घोटाले का एक केस चल रहा है और जिसमें उनके खिलाफ आरोप पत्र (चार्जशीट) भी दाखिल हो चुकी है। वह उस दौरान दूरसंचार विभाग में सचिव भी थे, जब 2-जी स्पेक्ट्रम का घोटाला हुआ था। अब ऐसा व्यक्ति क्या भ्रष्टाचार की निगरानी करेगा और फिर उस सरकार को कैसे विश्वसनीय माना जाए, जो ऐसे महत्वपूर्ण पद पर इस तरह के व्यक्ति को नियुक्त करती है। जाहिर है 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए केंद्र सरकार की कोई एजेंसी जे.पी.सी. का विकल्प नहीं बर सकती। पूर्ण अधिकार प्राप्त जे.पी.सी. घोटाले से संबंधित सभी रिकार्डों व अन्य दस्तावेजों को मंगा सकती है। वह प्रधानमंत्री सहित किसी भी मंत्री को तलब कर सकती है। वह मामले के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की भी जांच कर सकती है। जैसे कि वह सरकार की दूरसंचार नीति (टेलीकॉम पॉलिसी)तथा गत करीब डेढ़ दशक के सारे कार्यकलापों की जांच पड़ताल कर सकती है। जैसा कांग्रेस व डी.एम.के. नेताओं का कहना है कि 2008 में दूरसंचार मंत्री ए. राजा ने लाइसेंस वितरण का जो काम किया, वह पिछली सरकार यानी अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एन.डी.ए. सरकार की नीतियों के अनुसार ही किया, तो जे.पी.सी. इसकी जांच भी कर सकती है। वह 1994 में बनी सरकार की दूरसंचार नीति की खामिों तथा उसके बाद उसके उपयोग- दुरुपयोग को भी देख सकती है। सच यह है कि जे.पी.सी. ईमानदारी के साथ काम करे और अपने लिए उचित स्टाफ की नियुक्ति करे, तो वह दूध का दूध और पानी का पानी अलग कर सकती है। यदि वह प्रतिदिन बैठक करके इस काम को निपटाना चाहे, तो दो महीने में वह 2-जी स्पेक्ट्रम का सारा कच्चा चिट्ठा देश के सामने पेश कर सकती है। लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं है।

केंद्रीय संसदीय कार्यमंत्री पवन बंसल का कहना है कि विपक्ष का लक्ष्य 2-जी स्पेक्ट्रम का भ्रष्टाचार उजागर करना नहीं है, बल्कि वह इस मामले में प्रधानमंत्री को घसीटना चाहती है। उसका लक्ष्य राजनीतिक है, इसलिए हम राजनीतिक स्तर पर उसका मुकाबला करेंगे। प्रधानमंत्री के उच्च पद को इस मामले में घसीटने की हम किसी कीमत पर अनुमति नहीं दे सकते। बंसल का यह भी कहना है कि अब तक 4 बार जे.पी.सी. का गठन हो चुका है, लेकिन एक ‘स्टाक स्कैम’ को छोड़कर किसी भी मामले में एकमत निर्णय नहीं आ सका। हमेशा उसका विभाजित निर्णय आया, इसलिए उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। वस्तुतः बंसल की इस बात में पूरी सच्चाई नहीं है। लोगों को पता है कि बोफोर्स तोप घोटाले को लेकर गठित की गयी जे.पी.सी. का लक्ष्य ही पूरे मामले की लीपापोती करना था, इसी कारण विपक्षी सदस्यों ने उसका बहिष्कार भी किया था, फिर भी जे.पी.सी. का गठन पूरी तरह व्यर्थ नहीं गया था। उसमें प्रस्तुत किये गये दस्तावेजों से कई ऐसे तथ्य सामने आए, जिनके आधार पर ’द हिन्दू’ जैसे अखबार ने अपने स्तर पर आगे जांच बढ़ाई थी। हर्षद मेहता कांड में भी यह उपयोगी सिद्ध हुई थी। और फिर यदि यह विफल रही है, तो इसके लिए सरकार ही दोषी रही है, क्योंकि उसने समिति का पूरा सहयोग नहीं किया। बंसल द्वारा यह तर्क देने का भी कोई औचित्य नहीं है कि 2001 के तहलका मामले में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने जे.पी.सी. जांच की मांग नहीं स्वीकार की थी। भाजपा की सरकार ने कोई मांग नहीं मानी थी, इसलिए कांग्रेस की सरकार भी उस तरह की मांग को स्वीकार नहीं करेगी, यह नितांत बचकाना तर्क है। फिर 2-जी का यह मामला 2001 के तहलका मामले से कहीं अधिक गंभीर है। इसमें केवल एक मंत्री के स्तर पर हुए भ्रष्टाचार का मामला ही नहीं है, बल्कि देश के हुए 1760 अरब के भारी नुकसान का भी मामला है, जिसकी सहज ही अनदेखी नहीं की जा सकती।

ऐसी खबर है कि सरकार की तरफ से इस मामले में विपक्ष को मनाने की एक और कोशिश की जाने वाली है, जिससे इस हफ्ते संसद की बैठक का अवरोध दूर हो सके, लेकिन इसमें भी इतना तो तय है कि सरकार जे.पी.सी. के गठन के लिए तैयार नहीं होगी। वह संसद की विशेषाधिकार समिति (प्रिविलेज कमेटी) या नैतिकता समिति (एथिक्स कमेटी) द्वारा जांच कराने की बात कर रही है, लेकिन विपक्ष शायद ही उसके इस तरह के झांसे में आए। संसद की निष्क्रियता के लिए विपक्ष को नैतिक रूप से जिम्मेदार ठहराने के लिए कांग्रेस की तरफ से एक और कदम उठाने का प्रयास किया गया है। ’काम नहीं तो वेतन नहीं‘ के सिद्धांत पर कांग्रेस पार्टी के करीब 80 सांसदों ने घोषणा की है कि जिन तारीखों में संसद की बैठकें नहीं चल सकी हैं, उन तारीखों का दैनिक भत्ता वे नहीं लेंगे। उनका यह आरोप है कि विपक्षी नेता संसद का बहिष्कार नहीं करके संसद भवन में आकर हस्ताक्षर केवल इसलिए कर रहे हैं कि उनके 2000 रुपये दैनिक भत्ते का नुकसान न हो। सांसदों के लिए 2000 रुपये का यह दैनिक भत्ता कितना महत्वपूर्ण हो सकता है, इसका कोई भी अनुमान लगा सकता है, किंतु उन्हें इस लोभ की राजनीति में लपेटने की कोश्श् िकी जा रही है, किंतु विपक्षी इससे तनिक भी प्रभावित नहीं हैं।

इधर इस 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर एक और मामला आकाश् में धूमकेतु की तरह आ टपका है। यह है नीरा राडिया का टेप कांड। इस टेप के लपेटे में देश के कई शीर्ष व्यवसायी व राजनेता ही नहीं, कई शीर्ष पत्रकार भी आ गये हैं। कौन है यह नीरा राडिया? अभी कुछ दिन पहले तक देश के आम लोगों को इसकी भनक तक नहीं थी, लेकिन नीरा राडिया का टेप एक अलग शिगूफा बनकर खड़ा हो गया है।

नीरा राडिया केनिया में जन्मीं एक ब्रिटिश नागरिक हैं, जिसने भारत में आकर अपनी एक पब्लिक रिलेशन कंपनी कायम की है। यह कंपनी देश के करीब 50 शीर्ष औद्योगिक घरानों के लिए काम करती रही है, जिसमें टाटा उद्योग समूह व रिलायंस जैसी कंपनियां शामिल हैं। 2008-2009 में गृह मंत्रालय के निर्देश पर आयकर विभाग ने 300 दिनों तक नीरा राडिया का फोन टेप किया। इसमें 5851 फोन कॉल शामिल हैं। सी.बी.आई. ने सरकार की तरफ से यह फोन टेप भी सुप्रीम कोर्ट में पेश किया है। यद्यपि यह टेप सार्वजनिक रूप से जारी नहीं किया गया है, लेकिन दो पत्रिकाओं ’ओेपेन’ और ’आउट लुक’ ने अपनी वेबसाइटों पर इसे डाल दिया, जिससे ये सार्वजनिक हो गयी। अब शायद इन पत्रिकाओं ने भी इन्हें अपनी वेबसाइटों से हटा लिया है, लेकिन इनके द्वारा जो हंगामा खड़ा होना था, वह खड़ा हो चुका है।

इस टेप में राडिया की टाटा ग्रुप के चेयरमैन रतन टाटा, रिलायंस समूह के चेयरमैन मुकेश अंबानी सहित तमाम उद्यमियों के अलावा ए. राजा (डी.एम.के. नेता व पूर्व दूरसंचार मंत्री), कनीमोझी (राज्यसभा सदस्य व डी.एम.के. नेता करुणानिधि की पुत्री) जैसे नेताओं और बरखा दत्त (एन.डी.टी.वी. की ग्र्रुप एडिटर), वीर संघवी (हिन्दुस्तान टाइम्स के एडिटोरियल एडवाइजरी के डाइरेक्टर), प्रभू चावला (इंडिया टुडे के ग्रुप एडिटर), राजदीप सरदेसाई (सी.एन.एन. आई.बी.एन. के कर्ताधर्ता), एम.के. वेणु (वरिष्ठ बिजनेस जर्नलिस्ट) आदि शामिल हैं। सी.बी.आई. ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि उसे करीब 82 हजार दस्तावेजों के साथ् इस राडिया टेप का भी अध्ययन विश्लेषण करना है, इसलिए उसकी जांच में समय लग सकता है, फिर भी मार्च 2011 तक वह अपनी जांच पूरी कर लेगी।

ये जो फोन टेप किये गये हैं, उनकी बातचीत से यह लगता है कि राडिया बड़े बिजनेस हाउसेस के लिए काम करती थी तथा राजनेताओं को भी मदद पहुंचाती थी और इसमें शीर्ष पत्रकारों की भी मदद लेती थी। इन वार्ताओं से ये शीर्ष पत्रकारगण पत्रकार कम सत्ता के दलाल अधिक लगते हैं। उनकी बातें पत्रकारिता कर्म से या व्यापक जनहित से जुड़ी हुई नहीं हैं। शायद यही कारण है कि उन्हें सार्वजनिक होने से रोकने के सारे उपाय किये गये हैं।

टाटा ग्रुप के चेयरमैन रतन टाटा ने एन.डी.टी.वी. पर शेखर गुप्ता के साथ बातचीत में इस टेप पर अपनी गहरी आपत्ति व्यक्त की है और इसे चरित्र हनन का प्रयास बताया है। रतन टाटा का कहना है कि इस टेप को ’स्मोक स्क्रीन‘ की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, जिससे कि 2-जी स्पेक्ट्रम के बारे में हुए वास्तविक भ्रष्टाचार को छिपाया जा सके। उनका सुझाव है कि सरकार को एक आडीटर की नियुक्ति करके इस पूरे मामले की जांच करायी जानी चाहिए और बेसिर पैर के आधारहीन आरोप नहीं लगाने चाहिए। उनका कहना है कि बारी के बाहर किये गये आवंटन (आउट ऑफ टर्न एलोकेशन) तथा कुछ लोगों द्वारा स्पेक्ट्रम की जमाखोरी (होर्डिंग ऑफ स्पेक्ट्रम) और इस जैसी अन्य बातों की पूरी जांच करायी जानी चाहिए।

ए. राजा ने जनवरी 2008 में 9 कंपनियों को 122 टेलीकॉम लाइसेंस जारी किये। इन 9 कंपनियों को 2-जी स्पेक्ट्रम वाले जो लाइसेंस दिये गये वे 2001 में तय की गयी कीमत के आधार पर दिये गये, लेकिन इसमें वितरण नियमों का भी पालन नहीं किया गया। दूरसंचार विभाग की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत हुए सालीसिटर जनरल ने कोर्ट के सामने इस तरह का शपथ पत्र (एफिडेविट) पेश किया, जिसमें कहा गया था कि दूरसंचार विभाग ने जो कुछ किया, उसकी प्रधानमंत्री कार्यालय को न केवल जानकारी थी, बल्कि उसे उसका पूरा समर्थन भी प्राप्त था। केंद्र सरकार के लिए यह शपथ पत्र गले की फांस बन गया है, क्योंकि इसने दूरसंचार की करतूतों में प्रधानमंत्री कार्यालय को भी शामिल कर लिया है।

कांग्रेस पार्टी प्रधानमंत्री की छवि पर कोई आंच नहीं आने देना चाहती, इसलिए वह ऐसी किसी संस्था को 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए नियुक्त नहीं करना चाहती, जो प्रधानमंत्री या उनके कार्यालय को भी अपने दायरे में खींच सके। इसमें दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री व्यक्तिगत रूप से नितांत बेदाग व उज्ज्वल चरित्र के व्यक्ति हैं, लेकिन वे जिस सरकार के मुखिया हैं, वह उनकी तरह स्वच्छ नहीं है, बल्कि उनकी स्वच्छता को अपनी चादर बनाए हुए है। हो सकता है कि प्रधानमंत्री जी की प्राथमिक निष्ठा अपनी पार्टी के प्रति हो, लेकिन प्रधानमंत्री के तौर पर देश के प्रति उनकी बड़ी जवाबदेही बनती है। आज की स्थिति में पूरी सरकार की विश्वसनीयता दांव लगी है। प्रधानमंत्री जी को सरकार के साथ स्वयं अपनी विश्वसनीयता बहाल करने के लिए ऐसा कुछ करना चाहिए, जिस पर देश की आम जनता विश्वास कर सके।

उधर, राडिया टेप का मामला यद्यपि 2-जी स्पेक्ट्रम के साथ ही उछला है, किंतु उनकी अलग से जांच पड़ताल की जानी चाहिए। यह भी पता चलना चाहिए कि एक ब्रिटिश नागरिक इस देश में आकर 10 वर्ष के भीतर इतनी ताकतवर कैसे हो गयी कि उसने शीर्ष उद्यमियों, शीर्ष पत्रकारों और सत्ता के शक्तिशाली केंद्रों के बीच ऐसी घुसपैठ बना ली कि वह मंत्रियों की नियुक्ति तक में लॉबींग करने वाली बन गयी। बताया जाता है कि वह सिंगापुर एयरलाइंस को भारत की विमानन सेवा में स्थान दिलाने के लिए 1990 के दशक में भारत आयी और उसने रतन टाटा तथा तत्कालीन नागरिक उड्डयन मंत्री से संपर्क किया। टाटा ने सिंगापुर एयर लाइंस के साथ मिलकर भारत में निजी विमान कंपनी शुरू करने की कोशिश की। इसे भारत में विदेशी पूंजी निवेश की मंजूरी भी मिल गयी, लेकिन एयर लाइंस को अनुमति नहीं मिल सकी। यहां सिंगापुर एयर लाइन का काम तो नहीं हो पाया, लेकिन राडिया का अनंत कुमार जैसे राजनेता व रतन टाटा जैसे शीर्ष उद्यमी के साथ संपर्क रंग लाया। रतन टाटा तो उससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उसे टाटा ग्रुप के कार्पोरेट कम्युनिकेशन के लिए नियुक्त कर लिया। राडिया ने 2001 में ‘वैष्णवी कार्पोरेट कम्युनिकेशंस‘ के नाम से एक पब्लिक रिलेशन फर्म की स्थापना की। पहले काफी दिनों तक यह कंपनी केवल टाटा ग्रुप के लिए काम करती थी, जिससे बहुत लोगों को भ्रम था कि यह कंपनी भी टाटा समूह की अपनी ही कंपनी है। राडिया ने धीरे-धीरे अपना संपर्क विस्तार किया। मुकेश अंबानी भी उनसे बहुत प्रभावित हुए। और अब तो उनके पास 50 से अधिक कंपनियां हैं। और उनके साथ घनिष्ठ संपर्क रखने वालों में ट्राई के पूर्व चेयरमैन प्रदीप बैजल, आर्थिक मामलों में पूर्व केंद्रीय सचिव सी.एम. वासुदेव, डी.आई.पी.पी. के पूर्व सचिव अजय दुआ, ट्राई के पूर्व सदस्य डी.पी.एस. सेठ जैसे लोगों के नाम गिनाये जाते हैं। अभी जो उनका फोन टेप सामने आया है, उसमें मीडिया जगत के 85 शीर्ष लोगों के नाम हैं। उनका मीडिया मैनेजमेंट का व्यवसाय अब करीब डेढ़ सौ करोड़ वार्षिक से उपर पहुंच चुका है।

खबर है कि प्रवर्तन निदेशालय (इंफोर्समेंट डाइरेक्टरेट) राडिया से पूछताछ कर रहा है। किंतु इतना स्पष्ट है कि प्रवर्तन निदेशालय की पूछताछ से उनके पूरे संपर्क जाल व कारनामें सामने नहीं आ पाएंगे। इसलिए विपक्षी नेता यदि यह मांग कर रहे हैं कि 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले के साथ-साथ राडिया मामले में भी जे.पी.सी. की परिधि में लाया जाए, तो कोई गलत नहीं है।

सरकार यदि प्रधानमंत्री की छवि रक्षा करना चाहती है, तो वह यह काम उन्हें किसी भी जांच दायरे से बाहर रखकर नहीं कर सकती। 2-जी स्पेक्ट्रम कांड की जांच के लिए किसी भी कीमत पर जे.पी.सी. का गठन न होने देने की हठ करके सरकार अपनी विश्वसनीयता को और संदिग्ध ही बना रही है। इसी तरह देश के शीर्ष पत्रकार राडिया टेप को आम आदमी की नजरों से दूर करके अपनी विश्वसनीयता नष्ट कर रहे हैं। अगर ये शीर्ष पत्रकार यह समझते हैं कि राडिया के साथ उनकी बातचीत उनके मीडिया व्यवसाय के अंतर्गत थी, तो उन्हें स्वयं अक्षरशः उसे आम जनता के सामने पेश करना चाहिए और उसे स्वयं निर्णय लेने देना चाहिए कि वह बातचीत कैसी थी। यदि ऐसा नहीं किया गया, तो लोकतंत्र का यह तथाकथित चौथा स्तंभ भी अपनी विश्वसनीयता खो देगा और इसकी भी गिनती सत्ता के दलाल वर्ग में की जाने लगेगी।

 
28/11/2010

सोमवार, 22 नवंबर 2010

‘काजर की कोठरी‘ में डॉ. मनमोहन सिंह



प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की निजी छवि की स्वच्छता पर किसी को संदेह नहीं है, उनके कट्टर आलोचकों को भी नहीं, लेकिन यदि वह अपनी स्वच्छ छवि के पीछे चलने वाले काले कारनामों की लगातार अनदेखी करते रहेंगे, तो उसकी कालिख भी उन पर लगेगी जरूर। यदि वह अपनी सरकार में चलने वाले भ्रष्टाचार के वीभत्स खुले नृत्य को रोकने में असमर्थ रहते हैं, तो उन्हें कम से कम इतना आरोप तो झेलना ही पड़ेगा कि वह एक कायर और कमजोर प्रधानमंत्री हैं। इसलिए यदि वह इन आरोपों से मुक्त होना चाहते हैं, तो उन्हें कुछ कठोर निर्णयों के लिए कमर कसना पड़ेगा। लेकिन ऐसा लगता है कि ऐसी अपेक्षा करना भी उनके साथ ज्यादती करना है।



कहावत है कि ‘काजर की कोठरी में कितने हू सयानो जाय, काजर की रेख एक लगि है पै लगि है‘। राजनीतिक सत्ता ऐसी ही ‘काजर की कोठरी‘ है, जिसमें बेदाग रह पाना सचमुच ही बहुत कठिन है, या यों कहें कि असंभव है। अपने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की ऐसी ही स्थिति है। वह स्वयं कितने ही ईमानदार क्यों न हों या उनकी छवि कितनी ही निर्मल क्यों न हो, लेकिन प्रधानमंत्री पद पर रहकर बेईमानी को संरक्षण देने या भ्रष्टाचार को अपनी उज्ज्वल छवि के पीछे ढकने के आरोप से तो वह नहीं बच सकते। कम से कम इतना करना तो उनकी राजनीतिक पद की अपरिहार्यता है। फिर साझेदारी की सरकार चलाने के लिए तो यह और भी आवश्यक हो जाता है कि सहयोगियों के भ्रष्टाचार व कदाचार की तरफ से आंखें बंद रखी जाएं, नहीं तो सरकार को बनाये रखना भी कठिन हो जाएगा।

यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि डॉ. मनमोहन सिंह केवल प्रधानमंत्री हैं, इस देश के नेता नहीं । वह योग्य हैं, वाक्पटु हैं, मिलनसार हैं, राष्ट्र हितैषी हैं और सबसे बड़ी बात कि राजनीतिक सत्ता के शिखर पर रहते हुुए भी ईमानदार और अहंकार मुक्त हैं। वे अपने विचारों व सिद्धांतों के प्रति अडिग हैं, लेकिन राजनीतिक निर्णयों के लिए वह पूरी तरह पराश्रित हैं। वहां उनका कोई निजी आग्रह नहीं है, कोई निजी सिद्धांत नहीं है। पार्टी नेतृत्व अंततः जो निर्णय ले लेता है, उसे वह शिरोधार्य कर लेते हैं और उसे पूरा करने के लिए चल पड़ते हैं। विपरीत स्थितियों व निजी टिप्पणियों से वह आहत अवश्य होते हैं, लेकिन पार्टी के लिए वह सब कुछ बर्दाश्त कर लेते हैं। इस मामले में वह स्थिति प्रज्ञता की प्रतिमूर्ति है। पार्टी एक बार उनके पीछे एकजुट हो जाती है, तो वह फिर आगे बढ़कर मोर्चा संभाल लेते हैं।

प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह देश की अपेक्षाओं पर भले ही खरे न उतर रहे हों, लेकिन पार्टी की अपेक्षाओं पर वह सदैव खरे उतरे हैं। उन्होंने निजी मान-अपमान से प्रभावित होकर पलायन का रास्ता कभी नहीं चुना। और जहां तक अराजनीतिक क्षेत्रों में निभायी जाने वाली भूमिका का सवाल है, वहां उन्होंने सदैव देशहित को ही सर्वोच्च रखा है और उसके लिए ही काम किया है। देश की आंतरिक नीतियों में बदलाव का मामला हो या विदेश नीति में संशोधन का, उन्होंने विशुद्ध देशहित को ही अपने फैसले की कसौटी बनाया। हां, पाकिस्तान के मामले में वह जरूर बार-बार कमजोरी के शिकार हुए हैं, लेकिन उसके लिए भी उनकी पार्टी का आंतरिक दबाव ही अधिक जिम्मेदार रहा है।

इधर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह 2-जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस बंटवारे के मामले में सीध्े आरोपों के निशाने पर आए हैं। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. सिंह के कटघरे में खड़ा किया है। उन पर आरोप है कि उन्होंने अपने दूरसंचार विभाग में चल रहे भरी भ्रष्टाचार की तरफ से अपनी आंखें बंद रखी, जिससे देश को 1,760 अरब रुपये (करीब 40 अरब डॉलर) का नुकसान हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें निर्देश किया कि वह अपनी इस निष्क्रियता व चुप्पी पर लिखित बयान अदालत में पेश करें। गणपति सिंह सिंघवी तथा ए.के. गांगुली की द्विसदस्यीय न्यायिक पीठ ने गत गुरुवार को कहा कि केंद्र सरकार का कोई अधिकारी दो दिन के भी प्रधानमंत्री की तरफ से शपथ पत्र के साथ यह बयान पेश करे कि इस भ्रष्टाचार की तरफ ध्यान आकृष्ट किये जाने पर भी वह क्यों चुप्पी साधे रहे और यदि कोई कार्रवाई की, तो वह क्या थी।

डॉ. सिंह ऐसे कठोर निर्देश पर निश्चय ही विचलित हुए होंगे, लेकिन जब पूरी पार्टी और सरकार उनके बचाव के लिए उठ खड़ी हुई, तो उन्होंने भी चुनौती का सामना करने के लिए कमर कस ली। शनिवार को अदालत में पेश किये गये 11 पृष्ठ के हलफनामे में उन्होंने इस आरोप से पूरी तरह इनकार किया है कि उन्होंने इस मामले में किसी तरह की कोई निष्क्रियता बरती है। प्रधानमंत्री कार्यालय (पी.एम.ओ.) की डाइरेक्टर वी. विद्यावती द्वारा फाइल किये गये बयान पर अदालत का क्या रुख सामने आता है, यह तो आगामी मंगलवार को सामने आएगा, जब अदालत आगे सुनवाई करेगी, लेकिन इससे इतना तो जाहिर ही है कि प्रधानमंत्री किसी पलायन के मूड में नहीं हैं और वह स्थिति का मुकाबला करने के लिए तैयार हैं।

प्रधानमंत्री ने सर्वोच्च न्यायालय में अपना पक्ष प्रस्तुत करने वाला वकील बदल दिया है। पहले सालिसिटर जनरल गोपाल सुब्रह््मण्यम भारतीय संघ तथा प्रधानमंत्री की तरफ से अदालत में पेश हो रहे थे, लेकिन अब उनकी जगह पर एटार्नी जनरल गुलाम ई. वाहनवर्ती को नियुक्त किया गया है। गोपाल सुब्रह््मण्यम अब दूरसंचार विभाग (डी.ओ.टी.) की तरफ से प्रस्तुत होंगे। केंद्रीय जांच ब्यूरो (सी.बी.आई.) की तरफ से पेश होने के लिए एक अन्य लॉ ऑफिसर को नियुक्त किया गया है।

इसके साथ ही प्रधानमंत्री ने स्वयं भी पहली बार इस मामले में मीडिया के सामने अपनी जुबान खोली है। शनिवार को उन्होंने अपने बचाव में वायदा किया कि 2-जी स्पेक्ट्रम बंटवारे में जो कोई भी दोषी पाया जाएगा, उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। भ्रष्टाचार के इस गंभीर मामले को लेकर करीब 2 हफ्ते से संसद में कोई कामकाज नहीं हो पा रहा है, लेकिन इस शनिवार को पहली बार प्रधानमंत्री जी सामने आए और सभी राजनीतिक दलों से विनती की कि वे संसद को चलने दें। संसद में वह किसी भी मुद््दे पर चर्चा कराने के लिए तैयार हैं, इसलिए विपक्ष को उनका सहयोग करना चाहिए।

विपक्ष वास्तव में अपनी इस बात पर अड़ा है कि केंद्रीय सरकार के स्तर पर भ्रष्टाचार के बड़े मामलों की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया जाए। उसका यही कहना है कि सरकार जब तक संयुक्त संसदीय जांच समिति (जे.पी.सी.) के गठन की मांग स्वीकार नहीं करती, तब तक वे संसद को चलने नहीं देंगे। मगर सरकार किसी भी कीमत पर जे.पी.सी. का गठनह करने के लिए तैयार नहीं है। दोनों अपनी-अपनी जिद पर अड़े हैं, इसलिए संसदीय कार्रवाई ठप्प है। विपक्ष अभी भी प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य से संतुष्ट नहीं है कि 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में यदि किसी ने कुछ गलत किया है, तो उसे माफ नहीं किया जाएगा। लेकिन प्रधानमंत्री लगता है इस मामले के प्रारंभिक आघात से उतर गये हैं। उनका कहना है कि इस तरह के संकट तो आते रहते हैं, लेकिन प्रायः हर बार वह संकट को सफलता के एक अवसर में बदलने में सफल हुए हैं। उन्होंने बातों को हल्का करते हुए यहां तक कहा कि कभी-कभी तो लगता है कि वह हाईस्कूल के कोई छात्र हैं, जिसे एक के बाद एक हमेशा कोई न कोई टेस्ट देते रहना पड़ता है। उनका संकेत साफ था कि जिस तरह वे पिछले सारे ’टेस्ट’ पास करते आए हैं, इस टेस्ट को भी पास कर लेंगे।

लेकिन गंभीरता से यदि सोचा जाए, तो यहां मसला कोई टेस्ट पास करने का नहीं है। मुद्दा केवल यह नहीं है कि प्रधानमंत्री अपने उपर लगे निष्क्रियता के आरोप से मुक्त हो जाते हैं या नहीं। कानून के धुरंध्र तकनीकी दृष्टि से उन्हें सारे संकटों के पार ले जा सकते हैं, मगर यही सच्चाई फिर भी अपनी जगह बनी रह जाएगी कि केंद्र सरकार के दूरसंचार मंत्री ए.राजा सारे नियम कानून तथा सलाह-मशविरों को ताक पर रखकर मनमानी करते रहे और देश का एक ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ प्रधानमंत्री इसे चुपचाप बिना विचलित हुए देखता रहा। क्या प्रधानमंत्री सरकार चलाने वाले कोई यंत्र मानव हैं, जिनका काम केवल हर हालत में सरकार को बचाव रख्ना है भ्रष्टाचार व कदाचार के प्रति कोई संवेदनात्मक हलचल नहीं अनुभव करते।

जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी ने 2008 में ही 2-जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस बंटवारे में हो रहे भ्रष्टाचार को सूंघ लिया था। उन्होंने इसके बारे में प्रमाणों के साथ प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। एक नहीं, दो नहीं, पांच पत्र, जिसमें हर एक में कुछ नये प्रमाण दिये गये, लेकिन उन्हें किसी पत्र का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। पत्र की प्राप्ति स्वीकृति भेजना कोई जवाब नहीं होता। आखिर प्रधानमंत्री ने यह रवैया क्यों अपनाया। सुब्रह्मण्यम स्वामी ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर यही तो कहा था कि दूरसंचार मंत्री ए. राजा 2-जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस वितरण में भ्रष्ट तरीके अपना रहे हैं, इसलिए उन्हें उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की अनुमति दी जाए। प्रधानमंत्री ही इस तरह की अनुमति देने के अधिकारी हैं, इसलिए उनके पास पत्र लिखा गया। उन्हें इसका अधिकार है कि वह अनुमति दें या कारणों को अपर्याप्त बताकर अनुमति न दें। वे उस पत्र में दिये गये प्रमाणों के आधार पर स्वयं अपनी तरफ से मामले की जांच करा सकते हैं या एकतरफा कानूनी कार्रवाई भी शुरू कर सकते थे। लेकिन उन्होंने न तो स्वयं कोई कार्रवाई की और न ही स्वामी को कोई जवाब दिया। अंततः सुब्रह्मण्यम स्वामी इस मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गये। सर्वोच्च न्यायालय के अपने ही एक पूर्व फैसले के अनुसार प्रधानमंत्री को यह अधिकार है कि वह ऐसे किसी आवेदन को निरस्त कर दें, लेकिन उस पर कुंडली मारकर बैठ जाने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। कानून के अनुसार 3 महीने के भीतर उन्हें अपना कोई न कोई फैसला दे ही देना चाहिए था। स्वामी ने अपना पहला पत्र नवंबर 2008 में लिखा था, लेकिन प्रधानमंत्री की तरफ से 11 महीने बाद तक कोई जवाब नहीं दिया गया। और 11 महीनों के बाद कार्मिक विभाग की तरफ से कोई जवाब भी गया, तो उसमें केवल यह बताया गया कि 2-जी मामले में चूंकि सी.बी.आई. जांच कर रही है, इसलिए उसके रिपोर्ट की प्रतीक्षा की जानी चाहिए। मंत्री के खिलाफ किसी कानूनी कार्रवाई की बात करना अभी ‘प्रिमेच्योर‘ (अपरिपक्व) है।

सुप्रीम कोर्ट में प्रधानमंत्री की तरफ से प्रस्तुत हुए सालिसिटर जनरल ने भी यही दलील दी कि सी.बी.आई. की रिपोर्ट आने के पहले प्रधानमंत्री कैसे अनुमति देने या न देने का फैसला कर सकते थे। इस पर न्यायालय का क्षुब्ध होना स्वाभाविक था, क्योंकि सुब्रह्मण्यम स्वामी ने जब पत्र लिखा था, तब तक 2-जी मामले में सी.बी.आई. में कोई एफ.आई.आर. दर्ज नहीं हुई थी। स्वामी ने पत्र नवंबर 2008 में लिखा था, जबकि सी.बी.आई. की एफ.आई.आर. अक्टूबर 2009 में दर्ज हुई थी।

नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (सी.ए.जी.) की रिपोर्ट के अनुसार (जो गत मंगलवार को संसद में पेश की गयी) 2-जी स्पेक्ट्रम के कुल आवंटित 127 लाइसेंसों में से 85 लाइसेंस उन कंपनियों को दिये गये, जिन्होंने तथ्यों को छिपाया, अधूरी जानकारी दी या जाली दस्तावेज पेश किये। संचार मंत्रालय ने न केवल 2001 की कीमतों पर 2008 में लाइसेंस का बंटवारा किया, बल्कि उन कंपनियों को इसका लाइसेंस दिया, जो इसकी योग्यता नहीं रखती थी। मंत्रालय ने न केवल वित्त विभाग व स्वयं प्रधानमंत्री कार्यालय के सुझावों को नजरंदाज किया, बल्कि अपने विभाग की ‘पहले आओ पहले पाओ‘ की परंपरा को भी बदल दिया।

टेलीकॉम रेगुलेटरी अथारिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) ने प्रारंभिक जांच पड़ताल के बाद 70 कंपनियों के लाइसेंस रद्द करने तथा 127 में से 122 पर जुर्माना लगाने की सिफारिश की है। लेकिन ऐसी खबर है कि अब सरकार के अनेक मंत्री व अधिकारी इन कंपनियों के बचाव की कोशिश में लग गये हैं।

इस तरह लाइसेंस वितरण का काम कोई चोरी छिपे नहीं हो सकता था, फिर यह तो कतई संभव नहीं कि इसकी भनक तक प्रधानमंत्री को न लग पायी हो। 2-जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस के मूल्य निर्धारण का काम कैबिनेट के एक मंत्रिसमूह को करना था, किंतु मंत्रिसमूह से लेकर यह अधिकार अकेले संचार मंत्रालय को दे दिया गया। यह काम तो कतई बिना प्रधानमंत्री की अनुमति के नहीं हो सकता था। फिर यह कैसे हुआ। प्रधानमंत्री ने ऐसा क्यों किया?

कहा जाता है कि प्रधानमंत्री तथा डी.एम.के. नेता करुणानिधि के बीच इस तरह का एक समझौता हुआ था कि दूरसंचार का मंत्रालय उनके आदमी को मिलेगा और उसके कामकाज में प्रधानमंत्री या किसी अन्य मंत्रालय का कोई हस्तक्षेप नहीं रहेगा। यह सबको पता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह डी.एम.के. के टी.आर. बालू व ए.राजा को अपने मंत्रिमंडल में लेने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन सरकार बनाने के लिए डीएमके के साथ समझौता करना आवश्यक था और उस समझौते के लिए ये शर्तें माननी पड़ी। निश्चय ही यह समझौता अकेले मनमोहन सिंह के स्तर पर नहीं हुआ होगा, लेकिन उसकी प्रत्यक्ष जिम्मेदारी तो मनमोहन सिंह पर ही आएगी। उनसे ही यह पूछा जाएगा कि उन्होंने अपने एक मंत्री को ऐसी खुली छूट क्यों दी, जिससे कि देश को 1 लाख 76 हजार करोड़ का नुकसान हुआ, जो भारत के कुल घरेलू उत्पाद का करीब 3 प्रतिशत है।

मसला यहां प्रधानमंत्री के अपने चरित्र या छवि का नहीं है, मसला यह है कि यदि उनकी ओट में अरबों खरबों का भ्रष्टाचार हो रहा है, तो क्या उसका दोष उन पर नहीं आता ? क्या यह उनकी जिम्मेदारी नहीं कि वह अपनी पार्टी से अधिक अपने देश को प्राथमिकता दें ? लेकिन इस सबके बावजूद अब फिर उनसे ही यह अपेक्षा है कि वह सत्ता को यथासंभव स्वच्छता प्रधान करने की कोशिश करें, क्योंकि दुर्भाग्यवश देश में इस समय न कांग्रेस का कोई विकल्प है, न मनमोहन सिंह का। भ्रष्टाचार, अनैतिकता व सार्वजनिक संपदा की लूट की प्रवृत्ति ने देश के प्रायः सभी राजनीतिक दलों को चारों तरफ से लपेट रखा है। कुछ राज्य सरकारों को छोड़ दें, तो राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी की हालत तो और बादतर है। प्रधानमंत्री ने यदि डॉ. स्वामी को जवाब नहीं दिया, तो यह कोई उनकी निजी अयोग्यता नहीं, बल्कि उनकी राजनीतिक मजबूरी का प्रमाण है। राजा के भ्रष्टाचार पर अब जो लीपापोती की जा रही है, वह और बड़ा अपराध है, लेकिन यह भी देश के राजनीतिक चरित्र का एक हिस्सा बन गया है, जिससे निजात दिलाना शायद सर्वोच्च न्यायालय की क्षमता के भी बाहर है।

21/11/2010




































ओबामा की इस यात्रा से भारत को क्या मिला ?




अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा अपनी पहली यात्रा में सारे भारतवासियों का दिल जीतने में अवश्य सफल रहे, लेकिन उनके जाने के बाद राजनीतिक समीक्षक अब यह हिसाब-किताब लगाने में लगे हैं कि उनकी इस यात्रा से ठोस रूप में भारत को क्या मिला ? वह बोले तो इतना कुछ, जितने की आशा भी नहीं थी। उन्होंने भारत को उभरती हुई नहीं, उभर चुकी शक्ति बताया। उनके अनुसार भारत के साथ अमेरिका की मैत्री 21वीं शताब्दी की दुनिया का दिशा निर्धारण करने वाली होगी। उन्होंने वक्तव्य का समापन ‘जय हिन्द‘ के नारे के साथ किया। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर गहरी दृष्टि रखने वालों की नजर में उन्होंने तारीफें तो बहुत की, लेकिन वे यहां से ले ज्यादा गये, दे गये कम।





अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा निश्चय ही एक व्यापारी की तरह भारत की यात्रा पर आए। उन्हें बढ़ती बेरोजगारी और आर्थिक मंदी से जूझते हुए अपने देश के लिए भारत की सहायता की जरूरत थी। उनके साथ आया अमेरिकी कंपनियों का करीब 250 प्रतिनिधियों का दल उनकी यात्रा के लक्ष्य का परिचायक था। लेकिन ओबामा ने भारत के साथ केवल व्यापार ही नहीं किया, उन्होंने उसके साथ एक स्थाई मैत्री और सहयोग के संबंधों का विश्वास भी दिलाया।

ओबामा ने शायद अमेरिकी राष्ट्रपति की कुर्सी पर आने के बाद अपने अनुभवों से सीखा कि उसकी भ्विष्य की वैश्विक राजनीति के लिए भारत की दोस्ती आवश्यक है। उन्होंने अपनी इस यात्रा के दौरान अविश्वास के उस कुहासे को छांटने में पूरी सफलता हासिल की, जो उनके सत्ता में आने के बाद भारत और अमेरिका के बीच फैल गयी थी। यह समझा जा रहा था कि पिछले राष्ट्रपति जार्ज बुश भारत के जितने नजदीक आ गये थे, ओबामा शायद न आ पाएं। सत्ता में आने के बाद उनके व्यवहार से भी यही संदेश मिला कि भारत के साथ संबंध विस्तार उनकी पहली प्राथमिकता नहीं हैं। उन्होंने अपनी चीन यात्रा के दौरान चीनी नेताओं के साथ जो संयुक्त घोषणा-पत्र जारी किया, उससे भी भारत को निराशा हुई। उस घोषणा-पत्र में ओबामा ने चीन को दक्षिण् एशियायी मामलों में शांति की निगरानी का काम सौंपने की बात की थी। भारत ने इस पर अपना विरोध भी दर्ज कराया था। जिस पर यद्यपि चीन और अमेरिका दोनों की तरफ से सफाई दी गयी थी, लेकिन भारत उससे संतुष्ट नहीं था और संदेह का वातावरण फैल चुका था। चीन ने कहा था कि दक्षिण एशिया के मामले में हस्तक्षेप करने में उसकी कोई रुचि नहीं है। अमेरिका ने भी स्पष्ट किया था कि यह वक्तव्य दक्षिण एशिया में भारत की भूमिका को सीमित करने का कोई प्रयास नहीं है।

फिर अफगानिस्तान का मामला आया। पाकिस्तान की पहल पर अफगान समस्या के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जो अंतर्राष्ट्रीय बैठक लंदन में बुलायी गयी, उसमें भारत को कोई महत्व नहीं दिया गया, जबकि अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत अमेरिका के बाद सबसे बड़ी भूमिका निभा रहा है और उसने उसे एक अरब डॉलर की सहायता मंजूर कर रखी है, जो उस समय तक किसी भी अन्य देश को दी जाने वाली भारत की सबसे बड़ी सहायता राशि थी। पाकिस्तान अफगानिस्तान में भारत की उपस्थिति नहीं चाहता, इसलिए वह ओबामा प्रशासन को शायद यह समझाने में सफल हो गया था कि यदि वह अफगानिस्तान समस्या का शीघ्र समाधान चाहते हैं, तो भारत को उससे दूर रखें। अमेरिका ने भारत को दूर रखा। लंदन की बैठक में शामिल तमाम देशों के प्रतिनिधियों की बैठक में भारत के विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा को तीसरी पंक्ति में स्थान दिया गया था। इस सबसे भारत की खिन्नता बढ़ी थी। लेकिन इस यात्रा में ओबामा ने इस सारी खिन्नता को धो दिया।

कहा जाता है कि भारत की एक सबसे बड़ी कमजोरी है कि यह अपने वास्तविक लाभ के बजाए अपनी प्रतिष्ठा या छवि की अधिक चिंता करता है। यह सम्मान के दो शब्दों से ही गदगद हो जाता है। दुनिया के अन्य देश अपने राष्ट्रीय हितों को अधिक तरजीह देते हैं, जबकि हम अपनी छवि व मूल्यों के लिए परेशान होते हैं। देश के स्वतंत्र होते ही पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर पर हमला कर दिया, लेकिन हमलावरों को खदेड़ती भारतीय सेना को अपने प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने बीच में ही रोक दिया। उन्होंने राष्ट्रीय हितों की परवाह करने के बजाए एक शांतिप्रिय युद्धविरोधी छवि की अधिक परवाह की। नेहरू ने मान लिया कि जब अंतर्राष्ट्रीय विवादों को निपटाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्था मौजूद है, तो लड़ाई करके दुश्मन को भगाने की क्या जरूरत। संयुक्त राष्ट्र कहेगा और पाकिस्तान अपनी सेनाएं वापस ले लेगा, फिर काहे की लड़ाई। उन्होंने एक बार भी शायद यह नहीं सोचा कि संयुक्त राष्ट्र संघ का यह अंतर्राष्ट्रीय मंच कुटिल राजनीति का अड्डा है और उसकी कार्यकारिणी यानी सुरक्षा परिषद में बैठे स्थाई सदस्यता वाले देश भारत और पाकिस्तान को हमेशा के लिए उलझा कर रख देंगे।

आज भी हम अपनी असुरक्षित सीमाओं की सुरक्षा व्यवस्था मजबूत करने और विकसित हथियार तथा नवीनतम टेक्नोलॉजी हासिल करने की बजाए सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता प्राप्त करने के लिए अधिक लालायित हैं। आज की दुनिया में क्या मिल जाएगा उस स्थाई सदस्यता से। उससे भी कहीं ज्यादा जरूरी है कि भारत को परमाणु शस्त्र संपन्न देशों के क्लब की औपचारिक सदस्यता उपलब्ध करायी जाए। लेकिन भारत की सबसे बड़ी आकांक्षा है कि उसे दुनिया के सबसे बड़े देशों की पंक्ति में जगह मिले। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता मिलते ही औपचारिक स्तर पर भारत भी अमेरिका, चीन व रूस की बराबरी वाला देश बन जाएगा। यदि यह हो जाए, तो शायद पांच देशों वाले परमाणु क्लब का सदस्य वह अपने आप मान लिया जाएगा।

अमेरिका अब तक इस मामले में भारत को झांसा देता आ रहा था। पिछले राष्ट्रपति जार्ज बुश भी भारत को अभी सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता दिलाने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने अपने शासनकाल में अकेले केवल जापान का नाम स्थाई सदस्यता के लिए प्रस्तावित किया था। ओबामा से भी इसकी उम्मीद नहीं थी। ओबामा की भारत यात्रा के पहले स्पष्ट रूप से यह कहा गया था कि इससे भारत को कुछ अधिक उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। ओबामा के मुंबई पहुंचने तक भारत को यह आशा नहीं थी कि वह यहां सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता की कोई बात करेंगे। लेकिन गत सोमवार को संसद को संबोधित करते हुए जब उन्होंने इसकी घोषणा की, तो संसद भवन का केंद्रीय कक्ष देर तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा। प्रधानमंत्री की मूंछों के नीचे फैली मुस्कान देखने लायक थी।

कहा जा रहा है कि इस घोषणा मात्र से भारत को सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता नहीं मिलने वाली है। अमेरिका को यह घोषणा करने में कुछ खर्च नहीं करना था, यदि भारत इतने से ही खुश हो रहा था, तो ओबामा इसमें क्यों कंजूसी करते। इतने भर से यदि वह बिल क्लिंटन व जार्ज बुश की तरह ही या उनसे भी कहीं अधिक भारत के प्रिय बन जाते हैं, तो इसमें हर्ज क्या है। बल्कि इसके बहाने उन्होंने भारत पर और जिम्मेदारी लाद दी है कि वह आने वाले वर्षों में यह प्रमाणित करे कि वह इस ओहदे के लायक है। भारत इस बार सुरक्षा परिषद के अस्थाई सदस्यों में दो वर्ष के लिए चुना गया है। अब इन दो वर्षों यानी 2011 व 2012 में उसके आचरण व फैसलों पर सबकी नजर रहेगी।

बात सही है। भारत भी इसे समझता है कि केवल ओबामा के कह देने मात्र से उसे सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता नहीं मिल जाएगी। उसके रास्ते में ढेरों अड़चनें हैं। वास्तव में सुरक्षा परिषद का कोई स्थाई सदस्य नहीं चाहता कि परिषद में ’वीटो’ का अधिकार रखने वाले सदस्यों की संख्या बढ़े। सुरक्षा परिषद में सुधार तथा उसकी सदस्य संख्या बढ़ाने का विचार पिछले 20 वर्षों से चल रहा है, लेकिन अब तक कोई फैसला नहीं हो पाया है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बने इस संगठन के ढांचे में अब तक केवल एक बार परिवर्तन हुआ है, जब सुरक्षा परिषद के अस्थाई सदस्यों की संख्या 6 से बढ़ाकर 10 कर दी गयी थी /इस समय इस परिषद में 15 सदस्य हैं, अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन ये 5 स्थाई और 10 अस्थाई सदस्य, जिनका प्रत्येक 2 वर्ष बाद चक्रीय ढंग से चयन किया जाता है/। फिलहाल भारत और जापान के अलावा दो और देश परिषद की स्थाई सदस्यता के प्रबल दावेदार हैं, ये हैं ब्राजील और जर्मनी। अमेरिका स्वयं इसमें सीमित वृद्धि चाहता है। जापान के अलावा अब वह तीसरी दुनिया के देशों से भरत का चयन कर चुका है। लेकिन अन्य देश् शायद इतने से संतुष्ट होने वाले नहीं। सबसे बड़ी समस्या चीन की है, जो न जापान को परिषद के स्थाई सदस्य के रूप में देखना चाहता है, न भारत को। एक बार वह भारत का समर्थन करने के लिए तैयार भी हो जाए, लेकिन जापान का समर्थन करने के लिए वह शायद ही कभी तैयार हो।

सुरक्षा परिषद के गठन में बदलाव या किसी भी तरह के संशोधन के लिए पहले तो महासभा के कुल 192 सदस्य देशों के दो तिहाई का समर्थन चाहिए, फिर उसे परिषद के पांचों स्थाई देशों का भी समर्थन चाहिए। इनमें से कोई भी यदि न चाहे, तो कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। इन पांच में चार देश- अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस व रूस अब भारत की स्थाई सदस्यता का समर्थन कर चुके हैं, लेकिन चीन का दृष्टिकोण अभी भी अनिश्चित है। उसकी अब तक की प्रकट राय है कि परिषद में दुनिया के छोटे देशों की आवाज को प्रमुखता मिलनी चाहिए। यह छोटे देशों की बात करना उसकी एक राजनीतिक चाल से अधिक कुछ नहीं है। यह कहकर वह एक तरफ अन्य बड़े या ताकतवर देशों का प्रवेश अवरुद्ध करना चाहता है, दूसरी तरफ वह छोटे देशों को प्रसन्न भी करना चाहता है, इससे छोटे देश यह समझ सकते हैं कि चीन उनका सबसे बड़ा हितैषी है।

वास्तव में इस संदर्भ में न्यूयार्क स्थित एशिया सोसायटी की अध्यक्ष विशाखा देसाई का यह कहना सही है कि संयुक्त सुरक्षा परिषद में सुधार के मामले में एक जड़ता की स्थिति व्याप्त है। इसे तोड़ने के लिए एक मजबूत नेतृत्व की जरूरत है, जो शायद अभी दुनिया के पास नहीं है, इसलिए यथास्थिति कायम है। ओबामा साहब भी अभी इस स्थिति में नहीं हैं कि इस जड़ता को तोड़ सकें। हां वह अगला राष्ट्रपतीय चुनाव भी यदि जीत लें, तो शायद इस स्थिति में पहुंच जाएं कि इस जड़ता को तोड़ सकें। सुरक्षा परिषद में सुधार का प्रारूप तैयार करने के लिए गठित समिति के अध्यक्ष अफगानिस्तान के राजदूत जहीर तानेन का कहना है कि इस सुधार के प्रश्न पर महासभा में दिये गये 30 भाषणों को सुनने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि शीघ्र कुछ भी नया नहीं होने जा रहा है। लगभ्ग इसी तरह के वक्तव्य संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थित अन्य देशें के राजदूतों के भी हैं।

जाहिर है कि ओबामा द्वारा की गयी समर्थन की घोषणा के बाद भी भारत को सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता नहीं मिलने जा रही है, फिर भी उनकी यह घोषणा बहुत महत्वपूर्ण है। कम से कम इससे अमेरिका और भरत के बीच फैली संदेह की धुंध तो साफ हो गयी है। दोनों देशों के बीच अविश्वास का फैला जाल तो नष्ट हो गया है। इससे निश्चय ही अमेरिका के प्रति भारत का भरोसा बढ़ा है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि ओबामा ने दोहरे उपयोग की टेक्नोलॉजी के निर्यात पर लगे प्रतिबंधों में भी ढील की घोषणा की है। यद्यपि अभी इस क्षेत्र के सारे अवरोध दूर नहीं हुए हैं, लेकिन यदि एक बार परस्पर विश्वास का वातावरण बन जाए, तो फिर सारे अवरोध् धीरे-धीरे अपने आप दूर होते जाते हैं। ओबामा ने भारत की इस यात्रा में 26 नवंबर के हमले के शिकार मुंबई के ताज होटल में सबसे पहले पहुंचकर दुनिया को स्पष्ट संदेश दिया है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में वह पूरी तरह भारत के साथ है। संसद को संबोधित करते हुए उन्होंने मुंबई के इस आतंकवादी हमले के संदर्भ में पाकिस्तान का नाम लेने से परहेज नहीं किया। भारत में तमाम लोगों को शिकायत है कि अमेरिका एक तरफ पाकिस्तान को अरबों डॉलर के ऐसे सैनिक उपकरण उपलब्ध कराता है, जिसे वह केवल भरत के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है, दूसरी तरफ वह भारत के साथ घनिष्ठ दोस्ती और भविष्य की साझेदारी की भी बात करता है, ऐसे लोगों को यह समझना चाहिए कि पाकिस्तान या अफगानिस्तान में अमेरिका जिहादी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है, वह वास्तव में भारत की ही लड़ाई है। पाकिस्तान व अफगानिस्तान के जिहादी संगठन यदि वहां न उलझे होते, तो वे भरत में कहर बरपा करते।

भरत की दो बड़ी समस्याएं हैं, एक इस्लामी आतंकवाद, दूसरे सीमाओं के चतुर्दिक की जा रही चीन की सैनिक घेराबंदी । इनसे निजात पाने के लिए भारत के पास अमेरिका के अलावा और कोई सहायक या दोस्त नहीं है। एशिया में या आस-पास जो भी देश भारत के संभावित दोस्त हो सकते हैं, वे सभी अमेरिकी खेमे के हैं, इसलिए भारत के लिए अमेरिकी दोस्ती अपरिहार्य है। कोई भी दोस्ती एकतरफा नहीं होती। दोस्तों के भी अपने-अपने हित होते हैं। एक दूसरे के हितों को पूरा करने वाले ही आपस में दोस्त हो सकते हैं। इसलिए भारत और अमेरिका दोनों को एक दूसरे के हितों की परवाह करनी चाहिए। चीन से निश्चय ही अमेरिका के गहरे आर्थिक हित जुड़े हैं, इसी तरह पाकिस्तान उसके लिए अत्यधिक रणनीतिक महत्व का देश है, इसलिए अमेरिका भारत से दोस्ती के लिए उनसे सीधी दुश्मनी तो नहीं कर सकता। आज की अत्यधिक जटिल अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में कोई भी संबंध बहुत सीधा नहीं होता, इसलिए हमें अपनी जरूरतों और अपने हितों के अनुसार ही किसी संबंध का मूल्यांकन करना चाहिए। हमें अमेरिका से आर्थिक नहीं, रणनीतिक सहायता चाहिए और ओबामा की इस यात्रा में हमें इस सहायता का पूरा और विश्वसनीय आश्वासन प्राप्त हुआ है, जिसका हमें स्वागत करना चाहिए।(17-11-2010)



शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

अभिव्यक्ति की आजादी और कश्मीरी आंदोलन का यथार्थ



अभिव्यक्ति की आजादी के आंदोलन की शुरुआत सामंती तानाशाही एवं मजहबी वर्चस्व का जाल तोड़ने के लिए हुई थी। किंतु कश्मीर का यह आंदोलन उलटी दिशा में जाने वाला आंदोलन है। यह लोकतांत्रिक आजादी से फिर मजहबी तानाशाही की तरफ ले जाने का अभियान है। यह केवल राजनीति का नहीं, मजहबी राजनीति का आंदोलन है। देश और दुनिया के मानवतावादी व लोकतांत्रिक स्वतंत्रतावादी शक्तियों को कश्मीर के इस यथार्थ को अच्छी तरह समझना चाहिए। वर्तमान आंदोलन कोई नया आंदोलन नहीं है, वह 1940 के दशक में छिड़े अलगाववादी हिंसक आंदोलन का ही एक अंग है, जो देश के विभाजन के बाद भी अभी तक पूरा नहीं हुआ है। अफसोस है कि आज के कई ख्यातिलब्ध बुद्धिजीवी, लेखक-लेखिकाएं अपने संकीर्ण स्वार्थवश ऐसे प्रतिगामी आंदोलनों का साथ दे रहे हैं और भारत पर उपनिवेशवादी होने का आरोप लगा रहे हैं।



जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री, नेशनल कांफ्रेंस के नेता व वर्तमान समय में केंद्रीय गैर पारंपरिक उर्जा मंत्री फारुख अब्दुल्ला यों तो कश्मीर के उसी राजनीतिक परिवार के सदस्य हैं, जिसने कश्मीर के भारत के साथ पूर्ण एकीकरण में सदैव बाधा डाली, फिर भी उन्होंने कश्मीर के बारे में उल-जलूल बयान देने वालों पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है और कहा है कि अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के नाम पर इस देश में लोगों को कुछ ज्यादा ही आजादी (टू मच फ्रीडम) मिली हुई, जिसे इस राष्ट्र् को नष्ट करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। अभिव्यक्ति स्वतंत्रता को आधुनिक लोकतंत्र के प्रमुख आधारों में गिना जाता है, लेकिन अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का अर्थ कुछ भी बोलने-लिखने-करने की स्वतंत्रता नहीं है।

लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की भी एक मर्यादा सीमा होती है। दुनिया के किसी भी देश में अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता -एब्सोल्यूड फ्रीडम- नहीं है। अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता तो किसी असभ्य आदिम समुदाय में ही हो सकती है, जब अभी परिवार और समाज की अवधारणा भी नहीं बन सकी थी, क्योंकि परिवार व समाज की अवधारणा बनते ही व्यक्ति के सामाजिक आचरण व अभिव्यक्ति की सीमाएं खड़ी हो गयी होंगी। सभ्यता एवं राजनीति के विकास तथा राष्ट्र्ीयता की अवधारणाओं ने इस सीमा को क्रमशः दृढ़तर करने का ही काम किया। आज दुनिया के किसी भी देश में अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है। निश्चय ही लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का अधिकार सीमित होता है, अब यदि स्वतंत्रता की अवधारणा ही सीमाओं में बंधी है, तो अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का अधिकार भी सीमित ही रहेगा।

अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के अधिकार व सीमाओं को समझने के लिए हमें यह समझना  पड़ेगा कि किन परिस्थितियों  में इनकी आवश्यकता अनुभव हुई तथा इनका उद्देश्य क्या था। पश्चिम में इसकी अवधारणा राजशाही या सामंती शासन व्यवस्था तथा चर्च के असीमित वर्चस्व के विरुद्ध उत्पन्न हुई। राजशाही में राजा के खिलाफ तंत्र आवाज उठाना, उसकी या उसके शासन तंत्र की आलोचना करना अपराध था। इसी तरह चर्च के निर्देर्शों के विरुद्ध जबान खोलना भी अपराध था, इसलिए पश्चिमी दुनिया में जब लोकतंत्र की हवा चली, तो उसके साथ अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के आंदोलन की लहर भी सामने आयी। इसका मूल लक्ष्य था कि किसी भी नागरिक को राजा व चर्च के आचरण, उसके सिद्धांतों, निर्देशों तथा शासनशैली की आलोचना करने तथा उसके प्रति अपने विचारों व सिद्धांतों को सामने रखने का अधिकार हो। मिल्टन का कहना था कि ‘हमें अन्य दूसरी सारी आजादियों के उपर अपनी अंतरात्मा या अपनी इच्छा के अनुसार जानने, बोलने तथा स्वतंत्रतापूर्वक तर्क करने का अधिकार दो।’ (गिव मी लिबर्टी टु नो, टु अटर एंड टु आर्गू फ्रीली एकार्डिंग टफ कंसाइंस एबव आॅल लिबर्टीज)। मिल्टन ने यह मार्मिक अपील तब की थी, जब फ्रांस में छपाई पर राष्ट्र्ीय स्तर पर नियंत्रण लगा हुआ था। लोगों को शायद ध्यान न हो कि छपाई मशीनों का पहला हमला चर्च के एकाधिकार पर ही हुआ था। छपाई मशीनों के कारण लोगों के मुक्त विचार आसानी से अन्य लोगों के बीच पहुंचने लगे। इससे तानाशाही राजतंत्र व चर्च का भयभीत होना स्वाभाविक था। 16वीं शताब्दी के मध्य फ्रांस की सरकार ने प्रेस पर कठोर प्रतिबंध लगा दिया। यहां तक कि 1546 में एक छापाखाना मालिक एतिनो डोलेट को खंभे में बांधकर जला दिया गया। प्रेस से सबसे बड़ा खतरा सामंती तानाशाही व धार्मिक अधिनायकवाद के विरुद्ध विद्रोह भड़कने का था। लेकिन दमन से अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का आंदोलन और भड़का। जॉन मिल्टन (1608-74) के बाद अंग्रेज दार्शनिक जॉन लाक (1632-1704) सामने आये। उनके मानव मुक्ति के विचारों ने व्यापक प्रभाव डाला। और फिर इस श्रंृखला में सामने आये जॉन स्टुअर्ट मिल -1806-1873-। उन्होंने व्यक्ति स्वातंत्र्य को राजनीतिक मान्यता दिलाने का अथक प्रयास किया। यह उनका ही प्रभाव था कि अमेरिकी संविधान में पहला संशोधन किया गया, जिसमें कहा गया कि ‘कांग्रेस ऐसा कोई कानून नहीं बनाएगी, जो अभिव्यक्ति स्वतंत्रता या प्रेस के अधिकारों को सीमित करे‘। जॉन मिल पश्चिम के दार्शनिकंों में शायद पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने भारतीय चिंतकों की तरह कहा कि सत्य स्थिर नहीं होता, वह युगानुरूप परिवर्तित होता रहता है (ट्र्ूथ इज नाट स्टेबल आर फिक्स्ड, बट इवाल्व्स विद टाइम)। यह कथन वास्तव में चर्च और बाइबिल के वर्चस्व पर सीधा हमला था। मिल ने तर्कों से यह सिद्ध किया कि ऐसा बहुत कुछ है, जिसे हम पहले सच समझते थे, लेकिन वे बाद में झूठे या गलत निकले। इसलिए पुराने विचारों को चुनौती देने वाले नये विचारों को आने से कभी नहीं रोका जाना चाहिए। उनका यह भी कहना था कि ‘गहरे पैठे निर्णीत विचारों’ (डीप स्लंब्र आॅफ अडिसाइडेड ओपीनियन) को रोकने के लिए खुली बहस का अवसर मिलना आवश्यक है।

यह अभिव्यक्ति स्वतंत्रता या प्रेस की आजादी के अग्रणी समर्थकों का जिक्र करने का आशय यह है कि अभिव्यक्ति स्वतंत्रता वैयक्तिक आजादी या मानवीय आजादी की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। और किसी शासन तंत्र को उस पर अंकुश लगाने का कोई अधिकार नहीं है। कम से कम लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो उसकी सुरक्षा हर हालत में होनी चाहिए। लेकिन कश्मीर के अलगाववादी आॅल पार्टी हुर्रियत कांफ्रे्रंस के नेता अली शााह गिलानी या उनकी समर्थक तथाकथित जनवादी लेखक-लेखिका वरवर राव, गौतम नवलरवा व अरुंधति राय आदि अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के उस अधिकार के हकदार नहीं है, क्योंकि ये न तो मनुष्य की वैयक्तिक स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे हैं और न मानवीय मूल्यों की रक्षा का ही कोई संघर्ष कर रहे हैं। ये एक लोकतांत्रिक देश को तोड़ने और उसकी शांतिपूर्ण व्यवस्था को भंग करने के अपने षड्यंत्र को आजादी और अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की रामनामी ओढ़ाने को प्रयत्न कर रहे हैं। भारत की केंद्रीय सरकार को भी अपनी वोट बैंक राजनीति के चलते कश्मीर की पूरी राजनीति को इस्लामी राजनीति के नजरिये से ही देखने की आदत पड़ चुकी है। पूर्व राजनयिक जी. पार्थसारथी ने अपने एक आलेख में लिखा है कि यह कैसी विडंबना है कि उस कश्मीर में आज आजादी के नारे गूंज रहे हैं, जो करीब 700 वर्षों तक मंगोलों, अफगानों, मुगलों, सिखों, डोगरा शासन की गुलामी में जीने के बाद भारत की आजादी के साथ आजादी की हवा में सांस लेते हुए अब अपनी इस आजादी को गुलामी की संज्ञा दे रहा है, क्योंकि वह कश्मीर में इस्लामी या शरियत का शासन कायम करना चाहता है। कश्मीरी इस्लामी नेता आज झूठ बोलने में पारंगत हो चुके हैं। आश्चर्य होता है, जब कश्मीर घाटी के वे लोग सेकुलर कश्मीरियत की बात करते हैं, जिन्होंेने पाकिस्तान प्रेरित की बात करते हैं, जिन्होंने पाकिस्तान प्रेरित जिहादियों की खुली मदद करके वहां से करीब 4 लाख कश्मीरी पंडितों को अपना घर बार छोड़कर भागने पर मजबूर कर दिया। आॅल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस के अपने घोषणा पत्र में साफ शब्दों में लिखा गया है कि उसका लक्ष्य ‘इस्लामी मूल्यों पर आधारित एक समाज रचना करना’ तथा ‘मुस्लिम बहुल राज्य’ की स्थापना करना है। हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी ने कभी इस बात को छिपाया भी नहीं कि वह कश्मीर में शरियत का शासन स्थापित करना चाहते हैं। पिछले माह दिल्ली में हुई सेमीनार में भी गिलानी ने यह स्पष्ट किया कि उनके आजाद कश्मीर में शरिया का शासन होगा, लेकिन उसमें गैर मुस्लिमों को अपने मजहब के हिसाब से जीवन जीने की आजादी होगी। उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया था कि अभी तो पूरे कश्मीर में मद्यनिषेध लागू है, लेकिन इस्लामी शासन वाले कश्मीर में उन सबको खुलकर शराब पीने की छूट होगी, जिनका मजहब इसकी इजाजत देता है।

जाहिर है गिलानी जम्मू-कश्मीर के लिए किस तरह की आजादी चाहते हैं। वह आजादी के नाम पर जम्मू-कश्मीर को इस्लामी शरिया की गुलामी में जकड़ना चाहते हैं और आजादी एवं अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की अलंबरदार बनी अरुंधति जैसी लेखिका और जनमुक्ति आंदोलन के सूत्रधार कहे जाने वाले वरवर राव जैसे लेखक उनके स्वर में स्वर मिलाते हुए उनके बगलगीर बने हुए हैं। कश्मीर की आजादी की मांग करने वाले हुर्रियत नेता पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की आजादी की बात कभी नहीं करते। अभी आप कह सकते हैं कि पाकिस्तान ने खुद इस इलाके को आजाद कश्मीर का नाम दे रखा है। लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि उस इलाके का केवल नाम आजाद है। और फिर मान लें कश्मीर का वह हिस्सा आजाद है, परंतु गिलगिल और बल्टिस्तान के बारे में उनकी क्या राय है, यह उन्होंने कभी नहीं बताया। पश्चिमोत्तर कश्मीर का वह इलाका तो सीधे इस्लामाबाद के शासन में है। फिर जम्मू-कश्मीर के उस 20 प्रतिशत हिस्से के बारे में उनका क्या कहना है, जो चीन के कब्जे में है। कुछ इलाके पर चीन ने सीधे कब्जा कर लिया है और कराकोरेम का कुछ इलाका पाकिस्तान ने उसे उपहार में दे दिया है। पाकिस्तान का आजाद कश्मीर कितना आजाद है, इसका पता हमें स्पष्ट रूप से पाक अधिकृत कश्मीर के उस संविधान से मिल सकता है, जो 1974 में बना था। इसमें साफ लिखा हुआ है कि ‘पाक अधिकृत कश्मीर का संविधान ऐसे किसी भी राजनीतिक गतिविधि का निषेध करता है, जो इस सिद्धांत के विरुद्ध है कि जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा है।’ अभी कुछ वर्ष पूर्व यूरोपीय संसद ने (24 मई 2007 को) को एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें कहा गया था कि गिलगिल-बाल्टिस्तान में तो किसी भी तरह का लोकतंत्र उपलब्ध नहीं है और तथाकथित आजाद कश्मीर में भी किसी को किसी तरह की राजनीतिक आजादी नहीं है। यहां देश भर के लोगों को शायद यह न पता हो कि आॅल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस में शामिल प्रायः सभी बड़े घटक दलों का किसी न किसी आतंकवादी या जिहादी संगठन से संबंध है। मीर वायज उमर फारुख उदारवादी हुर्रियत नेता समझे जाते हैं, किंतु उन्हें उल उमर मुजाहिदीन जैसे जिहादी संगठन का समर्थन प्राप्त है। सैयद अली शाह गिलानी, हिजबुल मुजाहिदीन के कंधे पर सवार हैं, यह प्रायः सबको पता है। पाकिस्तान के सैनिक मुख्यालय रावलपिंडी में बैठे सैनिक अफसर हुर्रियत कांफ्रेंस का संचालन करते हैं। पाकिस्तान में सत्ता के समीकरण बदलते हैं, तो कश्मीरी संगठनों का ढांचा बदल जाता है। पाकिस्तान के राष्ट्र्पति परवेज मुशर्रफ की सैयद अली शाह गिलानी के नेता काजी हुसैन अहमद से तनातनी शुरू हो गयी थी, तो उन्होंने मीरवायज उमर फारुक को हुर्रियत का नेता बनवा दिया। इस पर गिलानी ने अलग होकर अपना अलग गुट खड़ा कर लिया। मुशर्रफ के हटते ही मीरवायज का असर कम हो गया। अब पाक सेनाध्यक्ष का जमाते इस्लामी के नेताओं से फिर संंबंध अच्छा हो गया, तो कश्मीर में गिलानी सर्वशक्तिमान हो गये। भारत सरकार द्वारा कश्मीर समस्रूा का समाधान खेजने के लिए नियुक्त वार्ताकार कश्मीर में जिन लोगों से बातचीत कर रहे हैं, उनमें से कोई भी कश्मीर की राजनीति में कोई महत्व नहीं रखता। हुर्रियत का कोई नेता उनसे बातचीत के लिए तैयार ही नहीं है, लेकिन यदि वे तैयार भी होते, तो उनसे बातचीत का कोई अर्थ नहीं था, क्योंकि वे सबकी सब कठपुतलियां हैं, जिनका सूत्रधार कहीं इस्लामाबाद व रावलपिंडी में बैठा हैै।

भारतीय संविधान के अंतर्गत चुनाव लड़कर सत्ता हासिल करने वाली कश्मीरी पार्टियां भी भारत या भारत के संविधान के प्रति ईमानदार नहीं है। फारुख अब्दुल्ला आज यह भले ही कह रहे हों कि भारत मे बोलने की आजादी कुछ अधिक ही मिली हुई है, लेकिन इस बात से शायद ही कोई इनकार करे कि उनके पिता शेख अब्दुल्ला ने ही कश्मीर को इस्लामी राज्य बनाने का सपना देखा था और आज उनके बेटे उमर अब्दुल्ला भी धड़ल्ले से कह रहे हैं कि कश्मीर ने भारत से कुछ शर्तों के साथ जुड़ना स्वीकार किया था, उसका कभी भारत के साथ विलय नहीं हुआ था। आज वे यह कह रहे हैं कि कश्मीर को 1953 के पूर्व की स्थिति चाहिए। आखिर क्यों ?

असल में जबसे कश्मीर घाटी में अब्दुल्ला परिवार की नेशनल कांफ्रंेस पार्टी की प्रतिद्वंद्वी पार्टी के रूप में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी -पी.डी.पी.- सामने आयी, तबसे उन दोनों ने अलगाववादी कश्मीरियों का समर्थन पाने के लिए पाकिस्तान समर्थित कश्मीरी नेताओं का स्वर अलापना शुरू कर दिया है। अब 1953 के पूर्व की स्थिति बहाल करने की बात दोनों करने लगे हैं। अरुंधति राय तो खैर उसके भी कई कदम आगे की बातें करने लगी हैं, लेकिन यदि 1953 के पूर्व की स्थिति बहाल कर दी जाए, तो उसका अर्थ होगा देश के किसी हिस्से का कोई व्यक्ति यदि जम्मू-कश्मीर जाना चाहेगा, तो उसे वहां का परमिट लेना पड़ेगा। सुप्रीमकोर्ट, चुनाव आयोग तथा आडीटर व कंट्र्ोलर जनरल का जम्मू-कश्मीर पर कोई प्रभाव नहीं रह जाएगा। यही नहीं, तब देश के अन्य भागों से आने वाले मान पर जम्मू-कश्मीर की सरकार टैक्स लगा सकेगी।

ये सब तो वे बातें हैं, जिसे किसी हद तक स्वीकार करने लिए हमारे देश की सरकार भी तैयार है। जनमत के भारी विरोध का डर न हो, तो इसे अब तक लागू कर दिया गया होता। लेकिन सरकार की नरमी का फायदा उठाकर अब कश्मीर अलगाववादी नेता पूर्ण स्वतंत्रता की मांग कर रहे हैं। यह सभी जानते हैं कि कश्मीर स्वतंत्र नहीं रह सकता। स्वतंत्रता की बात करना तो विश्व जनमत का समर्थन प्राप्त करने का एक बहाना है। भारत से आजादी मिले, फिर तो वे पाकिस्तान के साथ मिलने के लिए यों ही स्वतंत्र हो जाएंगे और ऐसा न भी हो तो पाकिस्तानी सेना एक दिन में उसे पाकिस्तान का हिस्सा बना देगी और अमेरिका और चीन जैसे देश उसका समर्थन भी कर देंगे।

वास्तव में इस देश को तथा दुनिया को कश्मीर आंदोलन के मूल चरित्र को समझने की जरूरत है। यह वास्तव में इस्लामी विस्तारवाद की लड़ाई है। यह 1947 में भारत के विभाजन की लड़ाई का अवशिष्टांश् है। यह न कश्मीरियत की लड़ाई है, न कश्मीर की आजादी की, यह इस्लामी सम्राज्यवाद की लड़ाई है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर की 45 प्रतिश्त से अधिक आबादी कश्मीरी नहीं है, जिसमें डोगरा, पंजाबी, पहाड़ी, गुज्जर, बकरवाल, बौद्ध, शिया आदि शामिल हैं। जम्मू और लद्दाख के लोग कतई जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग नहीं होने देना चाहते। घाटी के भी 4 लाख हिन्दू पंडित बाहर न भगा दिये गये होते, तो पूरी घाटी को भी अलगाववादी नहीं कहा जा सकता था। फिर वह कौनसा कश्मीरी वर्ग है, जो भारत से आजादी चाहता है। वह है वहाबी आंदोलन से प्रभावित सुन्नी मुसलमानों का वह समुदाय, जिसने अपनी निष्ठा पाकिस्तान के हाथ बेंच रखी है। उनकी आजादी की आवाज वस्तुतः पूरे जम्मू-कश्मीर को शरिया का गुलाम बनाने की आवाज है। ऐसी आजादी के नारे को अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की आजादी के पवित्र वस्त्र से नहीं ढका जा सकता। अरुंंधति राय गुलामी की आवाज का समर्थन कर रही है। वह अपने मामूली स्वार्थों के लिए पूरे जम्मू-कश्मीर की आजादी को पाकिस्तानी सैनिक व मजहबी तानाशाही का गुलाम बनाने वाली आवाज के साथ अपनी आवाज मिला रही हैं।

भारत सरकार ने अरुंधति राय के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई न करने का निर्णय लेकर यों बुद्धिमानी का निर्णय किया है, लेकिन उसकी पूरी कश्मीर नीति बेहद कमजोर और कायरतापूर्ण है। उसे साफ घोषणा करनी चाहिए कि कश्मीर को इस्लामी साम्राज्य की मजहबी तानाशाही की गोद में नहीं जाने दिया जा सकता। इस मोर्चे पर अब देश के आम नागरिकों तथा बुद्धिजीवियों को आगे आने की जरूरत है। उन्हें आजादी लोकतंत्र व मानवाधिकारों की ओर लेकर इन सबकी सामूहिक हत्या करने वालों के षडयंत्र का पर्दाफाश करना चाहिए। कश्मीर को लेकर देश ही नहीं, पूरी दुनिया में चल रहे कुप्रचार के जाल को तोड़ने की जरूरत है। और इससे भी ज्यादा जरूरी है अरुंधति राय जैसी निहित स्वार्थी बुद्धिजीवियों की बौद्धिक जालसाजियों का पर्दाफाश करना।

अभिव्यक्ति स्वतंत्रता मानवीय स्वतंत्रता के उद्घोष  का आंदोलन है। यह आंदोलन है सामंती तानाशाही व मजहब की गुलामी से मुक्ति का। लेकिन यदि कोई आंदोलन किसी एक भू क्षेत्र की पूरी जनसंख्या को पुनः मजहबी गुलामी के दौर में ले जाना चाहता हो, तो मनुष्यता का तकाजा है कि उसका जी जान से विरोध किया जाए और वैयक्तिक आजादी व विचारों की वास्तविक आजादी के लिए हर  तरह के संघर्ष एवं बलिदान का संकल्या लिया जाए। (7.11.2010)