गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

क्या 'हिन्दू शब्द भारत के लिए समस्या नहीं बन गया है?

आज हम 'हिन्दू शब्द की कितनी ही उदात्त व्याख्या क्यों न कर लें, लेकिन व्यवहार में यह एक संकीर्ण धार्मिक समुदाय का प्रतीक बन गया है। राजनीति में हिन्दू राष्ट्रवाद पूरी तरह पराजित हो चुका है। सामाजिक स्तर पर भी यह भारत के अनेक धार्मिक समुदायों में से केवल एक रह गया है। कहने को इसे दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय माना जाताहै, लेकिन वास्तव में कहीं इसकी ठोस पहचान नहीं रह गयी है। सर्वोच्च न्यायालय तक की राय में हिन्दू, हिन्दुत्व या हिन्दू धर्म की कोई परिभाषा नहीं हो सकती, लेकिन हमारे संविधान में यह एक रिलीजन के रूप में दर्ज है। रिलीजन के रूप में परिभाषित होने के कारण भारत जैसा परम्परा से ही सेकुलर राष्ट्र उसके साथ अपनी पहचान नहीं जोडऩा चाहता। सवाल है तो फिर हम विदेशियों द्वारा दिये गये इस शब्द को क्यों अपने गले में लटकाए हुए हैं ? हम क्यों नहीं इसे तोड़कर फेंक देते और भारत व भारती की अपनी पुरानी पहचान वापस ले आते।


हिन्दू धर्म को सामान्यतया दुनिया का सबसे पुराना धर्म कहा जाता है। यह भी कहा जाता है कि दुनिया में ईसाई व इस्लाम के बाद हिन्दू धर्म को मानने वालों की संख्या सबसे अधिक है। लेकिन क्या वास्तव में हिन्दू धर्म नाम का कोई धर्म है? दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर रहे डॉ. डी.एन. डबरा का कहना है कि 'हिन्दू धर्म दुनिया का सबसे नया धर्म है। हो सकता है कि कुछ धर्म इससे भी नये हों, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि हिन्दू धर्म दुनिया के नवीनतम धर्मों में से एक है। यह एक ऐसा धर्म है, जिसे अंग्रेजों ने पैदा किया। डी.एन. डबरा साहब की यह बात बहुत हद तक सही है, क्योंकि 19वीं श्ताब्दी के पहले 'हिन्दू शब्द कभी भी धर्म के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ। यद्यपि यह शब्द 12वीं, 13वीं शताब्दी में भारत आ चुका था, लेकिन 19वीं शताब्दी के पहले तक यह भारत भूमि के निवासियों का द्योतक था। इस शब्द का व्यापक प्रयोग दिल्ली में सल्तनत काल की शुरुआत से शुरू होता है, लेकिन यह केवल बाहर से आये मुसलमानों से भिन्न देशी निवासियों की पहचान के लिए प्रयुक्त होता था। कश्मीरी तथा दक्षिण भारत के साहित्य में यह १३२३ ई. से मिलने लगता है। 14वीं शताब्दी के विजयनगर के शासकों को 'हिन्दूराय सुरतरण यानी 'हिन्दू राजाओं में सर्वश्रेष्ठ कहा गया है, लेकिन यहां हिन्दू राजा से आशय देशी राजा था। उनका मुकाबला बीजापुर के सुल्तान से रहता था। सुल्तान का अर्थ था विदेशी मुस्लिम राजा। 17वीं शताब्दी की तेलुगु रचना 'रायवचकमु' में विदेशी मुस्लिम शासकों को क्रूर व अन्यायी बताते हुए निंदा की गयी है। 1455ई. में कवि पद्मनाभ ने जालेर के चौहानों की प्रशस्ति में एक ग्रंथ लिखा 'कन्हदड़े प्रबंध', इसमें राजा को हिन्दू कहकर प्रशंसा की गयी है, लेकिन यह प्रशंसा देशी राजा के लिए है, हिन्दू धर्मानुयायी के लिए नहीं। महाराण प्रताप के प्रशस्तिकारों ने उस समय उन्हें 'हिन्दू कुल कमल दिवाकर कहा है, किन्तु यहां भी यह हिन्दू, भारतीयता का पर्याय है। शिवाजी के शासन को 'हिन्दवी स्वराज्य'कहा जाता था किन्तुलेकिन उसका अर्थ भी 'स्वदेशी शासन' था, कोई हिन्दू धर्म का शासन नहीं।
डी.एन. डबरा साहब ने ही बताया है कि अंग्रेजों ने भारत में जब मतगणना की शुरुआत की, तो उनके सामने इस देश की जनसंख्या के वर्गीकरण की समस्या आयी। यहां असंख्य जाति व समुदाय थे। धार्मिक संप्रदायों की भी कमी न थी। तो जनगणना अधिकारियों ने सारे गैर मुस्लिम समुदायों का एक वर्ग बना दिया और उसे हिन्दू नाम दे दिया। यह मुस्लिमों द्वारा पहले से तय की गयी विभाजन लाइन को आगे बढ़ाने जैसा था, लेकिन यहां भी धर्मांतरित मुसलमानों को लेकर एक समस्या थी। उनके लिए 'हिन्दू-मोहम्मडन (मुस्लिम हिन्दू) शब्द का प्रयोग किया गया। यह प्रयोग करीब 1911 की जनगणना तक चला।
धीरे-धीरे यह शब्द भारतीय हिन्दुओं के लिए रूढ़ हो गया और यहां के मूल निवासी भारतीयों ने अपने इस नये नाम को स्वीकार भी कर लिया। अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ देश में जो राष्ट्रीय आंदोलन तथा समाज सुधार आंदोलन शुरू हुए, उन्होंने भी इस हिन्दू शब्द को अंगीकार कर लिया। अंग्रेजों ने वास्तव में इस देश को अत्यंत पिछड़ा सिद्ध करने के लिए अपने ज्ञान, विज्ञान व सामाजिक, राजनीतिक व दार्शनिक चिंतन की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए एक व्यापक अभियान चलाया। इसके मुकाबले में भारतीय राष्ट्रवादियों ने प्राचीन भारतीय साहित्य दर्शन व चिंतन को आगे लाने का प्रयत्न शुरू किया और उसे हिन्दू धर्म, दर्शन, अध्यात्म आदि की संज्ञा दी। इस बीच तमाम यूरोपीय विद्वानों ने भारत के प्राचीन वैदिक व संस्कृत साहित्य-वेद, उपनिषद, पुराण, महाकाव्य आदि के अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किये। उन्होंने भारत की सारी पुरानी उपासनाओं, यज्ञों, आदि को हिन्दू धर्म की संज्ञा दे दी। भारतीय चिंतकों ने अपने देश की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए पश्चिम के धर्मों ईसाई व इस्लाम के मुकाबले भारतीय यानी हिन्दुओं के धर्म चिंतन की श्रेष्ठता का गुणगान शुरू किया। इस तरह सारी भारतीय चिंतन धारा को हिन्दू धर्म दर्शन की संज्ञा मिल गयी।
अंग्रेजों को वास्तव में इससे कोई लेना-देना नहीं था क़ि भारतीय यानी हिन्दू चिंतन कितना श्रेष्ठ है। उन्हें तो केवल इसमें रुचि थी कि इसे धर्म के रूप में कैसे इस्लाम के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है। हिन्दू श्रेष्ठता के अहंकार में हिंदू (भारतीय) चिंतक भी उस जाल में फंसते गये। प्रारंभिक 20वीं शताब्दी में पहले भारतीय सुधारक राजा राममोहन राय थे, जो इस जाल में फंसे। फिर तो आगे श्रृंखला बढ़ती ही गयी। आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती किसी अंग्रेजी शिक्षा की देन नहीं थे, लेकिन अंग्रेजो द्वारा स्थापित हिन्दूवाद के जाल के वह भी शिकार हुए। उन्होंने ईसाई व मुस्लिम धर्मों की तरह ही तथाकथित हिन्दू धर्म की कड़ी निंदा की और वेद को केंद्र में रखकर आर्यसमाज के रूप में एक नये हिन्दूवाद की स्थापना की। विवेकानंद व महर्षि अरविंद जैसे महापुरुष भी उससे मुक्त नहीं रह सके। विवेकानंद की शिक्षा-दीक्षा अंग्रेजी में हुई थी। वे पश्चिमी चिंतन व विचारों से अच्छी तरह परिचित थे। रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आने के बाद उनके अंदर भारतीय राष्ट्रवाद की ज्योति जगी। उन्होंने वास्वत में आधुनिक काल में हिन्दू अध्यात्म की आधारशिला रखने का काम किया। उन्होंने वेदांत दर्शन व गीता दर्शन के कर्मवाद के साथ योग को भी शामिल करके एक व्यावहारिक वेदांत (प्रैक्टिकल वेदांत) की शिक्षा दी । 11 सिंतबर 1893 को शिकागो में उनका उड़बोधन वास्तव में हिन्दू धर्म संवलित राष्ट्रवाद की स्थापना का उदघोष था। उन्होंने पाश्चात्य भौतिकवादी दर्शन के मुकाबले भारत के आध्यात्मिक एवं सर्वसमावेशी दर्शन को हिन्दू धर्म-दर्शन के रूप में स्थापित करने का प्रयत्न किया। सर्वधर्म समभाव की अवधारणा सबसे पहले उन्होंने ही दुनिया के सामने प्रस्तुत की, जिसे महात्मा गांधी व राधाकृष्णन ने भी अपनाया और आगे बढ़ाया।
यह सब भारतीय राष्ट्रवादी या नवजागरणवादी कर रहे थे, लेकिन उधर अंग्रेज महाप्रभु अपनी नीतियां चल रहे थे। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में कलकत्ता विश्वविद्यालय में इतिहास के दो विभाग शुरू किये गये। एक प्राचीन भारतीय इतिहास के लिए और दूसरा इस्लामी इतिहास के लिए। प्राचीन भारतीय इतिहास हिन्दू युग कहा गया और उसके बाद मध्यकालीन इतिहास को मुस्लिम युग। इससे एक हिन्दू इतिहास दृष्टि बनी और एक मुस्लिम इतिहास दृष्टि । इसने बाद के स्वातंत्र्य आंदोलन को भी प्रभावित किया।
भारत के क्रांतिकारी आंदोलन की शुरुआत करने वालों में पहला नाम श्यामजी कृष्ण वर्मा का आता है, जो मूलत: आर्य समाज के अनुयायी थे। 1905 में उन्होंने लंदन में 'इंडिया हाउस' की स्थापना की। कहा जाता है कि इस 'इंडिया हाउस' की स्थापना के प्रेरणास्रोत विनायक दामोदर सावरकर थे। वही सावरकर जिन्होंने पहली बार हिन्दू राष्ट्रवाद को परिभाषित करने की कोशिश की और बाद में 1915 में भारत में 'अखिल भारतीय हिन्दू महासभा'के नाम से पहली राजनीतिक पार्टी की स्थापना की। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने 'इंडियन सोसियोलाजी' नाम से एक पत्रिका शुरू की थी और वह सशस्त्र संघर्ष के द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति की कल्पना कर रहे थे। इस देश में हिन्दू या हिन्दुत्व को राजनीति का आधार बनाने का पहला प्रयोग सावरकर ने ही किया। लेकिन उनका यह प्रयास मुस्लिम राजनीति की प्रतिक्रिया स्वरूप सामने आया, अन्यथा उनका भी धर्म से कोई वास्ता नहीं था, उनकी चिंता राष्ट्र की थी।
आज इस देश् में सच कहें तो मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा दोनों की राजनीति विफल हो चुकी है, लेकिन यह विडंबना ही है कि देश की राजनीति अभी भी हिन्दू-मुस्लिम विवादों में उलझी है। इसका एकमात्र कारण है कि 'हिन्दू' नाम का एक मिथ्या धर्म खड़ा कर दिया गया। अब तक हिन्दू या हिन्दुत्व की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं हो सकी है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में भी कह दिया गया है कि इसकी कोई ठोस परिभाषा नहीं हो सकती। फिर भी हमारे संविधन में हिन्दू एक उसी तरह के धर्म के रूप में अंकित है, जैसे इस्लाम और ईसाइयत। सर्वोच्च न्यायालय सहित सभी चिंतक व सिद्धांतकार कहते हैं कि यह अनेक धर्र्मों की सम्मिलित परंपरा है, एक जीवनशैली है, तो फिर इसे इस्लाम, ईसाई आदि के समकक्ष एक धर्म (रिलीजन) की तरह क्यों परिगणित किया जाता है ।
अनेक विचारक मानते हैं कि यह 'हिन्दू 'शब्द ही सारी समस्या की जड़ है। यदि इस शब्द से मुक्ति मिल जाए, तो अनेक समस्याओं का त्वरित समाधान हो जाए। हिन्दूवादी इस कल्पना से भी आहत हो सकते हैं। आज हिन्दू नाम छोड़ दें, तो भारत की धार्मिक व सांस्कृतिक पहचान क्या रह जाएगी? हम अपने इतिहास को किस नाम से याद करेंगे ?
यह समस्या देखने-सुनने में निश्चय ही गंभीर लगती है, लेकिन उतनी गंभीर नहीं है, जितनी प्रतीत होती है। यदि हममें इतना साहस हो कि हम विदेशियों द्वारा दिया गया अपनी जातीय व धार्मिक पहचान का लबादा उतार सकें, तो समस्या आसान हो जाएगी। 'हिन्दू' शब्द के परित्याग से हमारे वेद, उपनिषद, पुराण, महाकाव्य आदि तो हमसे नहीं छिन जाएंगे, लेकिन हमारी भेदभावपूर्ण संकीर्ण पहचान अवश्य दूर हो जाएगी। इसके बाद हमें धर्म (रिलीजन) के परे रहकर राजनीति करना आसान हो जाएगा।
आज 'हिन्दू' शब्द को लेकर मूल समस्या राजनीति की पैदा हो गयी है। हिन्दू पालिटी या हिन्दू राजनीति तब चल सकती थी, जब मुस्लिम विदेशी थे। आज जब मुस्लिम विदेशी नहीं रहे, भले ही उनकी धार्मिक आस्था के केंद्र देश की सीमाओं के बाहर हैं, तो फिर हिन्दू राजनीति कैसे चल सकती है या हिन्दू राष्ट्र कैसे कायम हो सकता है। इसी तरह हम इस देश में मुस्लिम राजनीति भी नहीं चलने दे सकते और न इस्लामी राष्ट्र कायम करने की कल्पना को चरितार्थ होने दे सकते हैं। यह तभी हो सकता है, जब राजनीति से रिलीजन की पहचान पूरी तरह समाप्त हो जाए। देश जब तक इस अल्पसंख्यक बहुसंख्यकवाद से बाहर नहीं निकलता, तब तक देश में न तो स्वस्थ राजनीति चल सकती है और न सामाजिक शांति कायम हो सकती है।
इसका सबसे अच्छा तरीका है कि हम अपनी पुरानी ऐतिहासिक व सेकुलर पहचानको वापस लाएं। हमने अपने देश को 'भारत' नाम दिया था। भा -रत अर्थात् ' प्रकाश में रत' यानी ज्ञान की आराधना में रत। भारत की संस्कृति 'भारती' की संज्ञा सहज ही प्राप्त कर सकती है। इस भारत के संपूर्ण निवासियों के संपर्क की भाषा को भी 'भारती' की संज्ञा दे सकते हैं। यदि हम 'भारती' को भारतीय संस्कृति मान लें, तो यहां की सारी चिंतन परंपराएं उसमें शामिल हो जाएंगी, उसमें अच्छी भी होंगी, बुरी भी होंगी। समाज अपने विवेक से बुरी परंपराओं का दमन व श्रेष्ठ का उत्थान कर सकता है। यह संस्कृति अंध-आस्था के बजाए विवेक पर केंद्रित होगी। उसकी अपनी आस्था विवेक, गतिशीलता, न्याय तथा सार्वभौम सुख व आनंद में निहित होगी।
इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि भारतीय धर्म संस्कृति के लिए 'हिन्दू' शब्द के उदय के पूर्ण अंग्रेजी में 'इंडियन पगान' शब्द का इस्तेमाल किया जाता था। वस्तुत: ईसाई विद्वान ईसाई धर्म के बाहर के सारे अन्य धर्मों में विश्वासों के लिए 'पगान' शब्द का इस्तेमाल करते थे। इसका आशय था पिछड़ा, नीच, गर्हित, जंगली, निंदनीय विश्वास एवं आस्थाएं। इनको समाप्त करके उनके स्थान पर ईसाई धर्म की स्थापना करना वे अपना कर्तव्य समझते थे। यह नया शब्द 'हिन्दू' मिल जाने के बाद भी भारत के धर्मों के आस्थाओं के प्रति उनकी सामान्य अवधारणा बदली नहीं है।
साम्राज्यवादी गुलामी की जंजीरों से मुक्त होने वाला भारत पहला सबसे बड़ा देश था। तीसरी दुनिया के तमाम देश उसके बाद मुक्त हुए। भारत को चाहिए था कि वह अन्य सभी नवमुक्त देशों को एक नई राह दिखाता, लेकिन जो देश स्वयं अपने लिए कोई राह नहीं ढूंढ़ सका, वह दूसरों को क्या राह दिखाता है। इसलिए जब कोई यह कहता है कि 15 अगस्त 1947 को केवल सत्ता हस्तांतरण का कार्य पूरा हुआ था, देश को स्वतंत्रता नहीं मिली थी, तो चाहकर भी इसका खंडन करना मुश्किल होता है। हमने एक कठपुतले की तरह वह सब स्वीकार कर लिया, जो अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने हमारे ऊपर थोपा था।
हमें उन्होंने अपनी पसंद का एक नाम ही नहीं दिया, बल्कि हमारे देशा का भूगोल, भाषा, राजनीति, शासन, शिक्षा व चिंतनशैली भी इस तरह निर्धारित कर दी कि हम उसे शिरोधार्य कर अभी भी गर्व का अनुभव करते चले जा रहे हैं। अंग्रेजों के इस अद्भुत सामर्थ्य की निश्चय ही दाद देनी पड़ेगी कि भारतीयता के एकांत आग्रही राजनीतिक दल व राजनेता भी उनके ही बनाए हिन्दुत्व के खांचे में बैठकर अपनी राष्ट्रीयता की लड़ाई लड़ रहे हैं।
आज की हिन्दू अवधारणा यह बन गयी है कि वेदों में, कर्मवाद में, पुनर्जन्म में अवतारवाद में मूर्तिपूजा में विशवास करे वह हिन्दू है। इसके साथ यह भी जोड़ दिया जाता है कि वह उदार, सहिष्णु तथा करुणामूर्ति। इन सारी विशेषताओं में बंधा हिन्दू इनका प्रतिकार भी नहीं कर सकता। सर्वधर्म-समभाव की धारणा ने गलत तथा अतार्किक व अवैज्ञानिक सिद्धांतों के विरोध से भी उसे रोक दिया है।
अपने देश में वेदों व ईश्वर को प्रमाण मानने की कोई सर्वमान्य परंपरा कभी नहीं रही। ईश्वर हमेशा विवाद का विषय रहा। पारंपरिक दर्शन की 6 शाखाओं में से केवल एक ईश्वर व वेद को प्रमाण मानती है। ये दर्शन व विज्ञान की बातें मुक्त चिंतन के क्षेत्र की बातें हैं, जिसमें कोई अंतिम वाक्य कभी नहीं कहा जा सकता। भारत उन्मुक्त चिंतन का क्षेत्र रहा है। यहां राजनीति धार्मिक विश्वासों से संचालित नहीं होती थी, न किसी धार्मिक विश्वास विशेष वाले को राजनीति में कोई विशेष स्थान प्राप्त था। राजनीति प्राकृतिक न्याय से संचालित होती थी।
आजकल हिन्दू धर्म को सनातन धर्म कहने की परंपरा चल पड़ी है। लेकिन सनातन धर्म तो नैतिकता व सदाचार के वे नियम हैं, जो सार्वभौम हैं, वे किसी धर्म विशेष की पहचान नहीं है, लेकिन प्राय: सभी धर्म उनका समर्थन करते हैं। इस शब्द 'सनातन धर्म' का पहला प्रयोग संभवत: बौद्धों ने किया है। वे सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, आदि को सनातन धर्म (एष धम्मो सनंतनो) कहते हैं। इसके विरुद्ध कुछ भी हो, उसे धर्म नहीं कहा जाता। लेकिन दुनिया के तमाम धर्म यहीं तक सीमित नहीं रहते। वे इसमें व्यापार व राजनीति को भी शामिल कर लेते हैं। दिक्कतें वहां पैदा होती हैं जब हम धर्म के नाम पर न्याय का पथ छोड़कर दूसरों पर आधिपत्य कायम करने की कोशिश में लग जाते हैं। आज दुनिया में इस्लामी आतंकवाद इसी मजहबी राजनीति या साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का परिणाम है। भारतीय चिंतन परंपरा में जो कुछ गर्व करने लायक है, वह रिलीजन नहीं सामाजिक चिंतन है। रिलीजन तो यहां का भी दुनिया के अन्य रिलीजनों से कुछ भिन्न नहीं है, लेकिन यहां के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व आध्यात्मिक चिंतन अवश्य ऐसा है, जैसा दुनिया में और कहीं उपलब्ध नहीं है। पश्चिम जिस भौतिकवाद, विज्ञानवाद व मानववाद तक 16वीं शताब्दी में पहुंचा, वहां तक भारत अब से ढाई हजार साल से पहले ही पहुंच चुका था। पश्चिम में मनुष्य को केंद्र में रखकर सोचने की प्रवृत्ति मध्यकाल में शुरू हुई, जबकि भारत में आदिम चिंतनकाल से यही प्रवृत्ति चली आ रही है। यहां मध्यकाल में अवश्य कुछ संप्रदायों में ईश्वर को प्राप्त करना मनुष्य का लक्ष्य बन गया अन्यथा सभी चिंतनधाराएं मानव हित ही नहीं प्राणिमात्र के हित के बारे में ही सोचती रहीं।
वास्तव में आज सबसे बड़ी जरूरत है मिथ्या अवधाराणाओं से बाहर निकलने और भारत की मूल पहचान को पुन: आत्मसात करने की। हमें मानववादी, न्यायवादी, विज्ञानवादी समाज और राजनीति की स्थापना का प्रयास करना चाहिए और जो भी शक्ति इसके विरुद्ध आती हो, उसका खडग़हस्त होकर विरोध करना चाहिए। इसमें किसी तरह के मजहबी साम्राज्यवाद को कोई जगह नहीं मिल सकती। लेकिन यदि आज हम वास्तव में भारत के विश्वमानव वाद को दुनिया में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, तो हमें उस दायरे से बाहर निकलना होगा, जो हमें संकीर्णता में कैद करता है। हमने आज हिन्दू की व्याख्या को चाहे जितना उदात्त, महान या सार्वभौम क्यों न बना दिया हो, लेकिन वह तमाम अन्य धर्मों व समुदायों से हमें अलग करने के लिए दिया गया नाम है। हम इस नाम से दुनिया के अन्य धर्मों या समुदायों को अपने साथ नहीं जोड़ सकते। हमारे अवसरवादी समझौते हो सकते हैं, लेकिन हम उन्हें आत्मसात नहीं कर सकते। यदि हमको सभी को आत्मसात करना है, तो हमें अपना दायरा बढ़ाना होगा। संयोग से हमारे अपने ही प्राचीन सामाजिक व राजनीतिक चिंतन का दायरा इतना बड़ा है, जिसमें दुनिया के सारे दर्शन, चिंतन, विचारधाराएं न केवल शामिल हो सकती हैं, बल्कि विकास भी कर सकती हैं, शर्त केवल यही है कि वे न्याय, विवेक व वैयक्तिक मानवीय स्वतंत्रता के विरुद्ध न हों। इसका एक ही चारा है कि हम फिर से भारत व भारती को अपनाएं और अपनी सोच को पुन: सार्वभौम मानववाद से जोड़ें। 28-6-2009

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

क्षेत्रवादी राजनीति में फंसा आंध्र प्रदेश

केंद्र सरकार ने पृथक तेलंगाना राज्य के निर्माण की घोषणा तो कर दी, लेकिन यह घोषणा होते ही राज्य की राजनीति में क्षेत्रीयता का ऐसा ज्वार उठ खड़ा हुआ कि 48 घंटे के भीतर ही प्रधानमंत्री को घोषणा करनी पड़ी कि जल्दबाजी में कुछ नहीं किया जाएगा और आगे का कदम सबकी सहमति से उठाया जाएगा। लेकिन इससे कोई भी आश्वस्त नहीं है, हां इससे यह आशंका जरूर उठ खड़ी हुई है कि सरकार घोषणा करके भी अपना अगला कदम अनिश्चितकाल के लिए टाल सकती है। राज्य का हर हिस्सा आंदोलित है, लेकिन केंद्रीय नेता कूटनीतिक शब्दावली से इस आंदोलन की आग को शांत करना चाहते हैं। चिंता की बात यह है कि इस समय राज्य में क्षेत्रीयता की राजनीति दलीय राजनीति के ऊपर हावी हो गयी है। लोग पार्टी का दायरा तोड़कर क्षेत्रीयता के दायरे में संगठित हो रहे हैं।


तेलंगाना के भाग्य का निर्णय प्राय: केन्द्र सरकार के हाथों ही होता आया है, चाहे वह उसकी इच्छाओं के विरुद्ध रहा हो, या समर्थन में। 1956 में तेलंगाना क्षेत्र (पूर्व निजाम स्टेट) को आंध्र में शामिल करने का निर्णय भी केन्द्र सरकार ने ही लिया था और आज 2009 में उसे अलग करने का निर्णय भी केन्द्र सरकार ने ही लिया है। तब भी केन्द्र में कांग्रेस की ही सरकार थी और आज भी उसी की सरकार है। तब कांग्रेस के सर्वोच्च नेता व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू थे तो आज भी केन्द्रीय सत्ता की मुख्यनियंता उनकी दौहित्रवधू सोनिया गांधी है।
केन्द्र सरकार ने उस समय तेलंगाना क्षेत्र के लोगों की सहमति प्राप्त किये बिना (या यों कहें कि उनकी आशंकाओं और विरोधों के बावजूद) इस क्षेत्र को आंध्र प्रदेश का अंग बना दिया था । आज करीब 55 वर्षों बाद उसने फिर बिना किसी से पूछे इस प्रदेश को आंध्र से अलग करने का निर्णय लिया है। यह बात अलग है कि इस तरह उसने मात्र अपनी गलती सुधारी है। विलय के समय उसने तेलंगाना वालों से उनकी सहमति नहीं ली तो आज अलग करते समय उसने आंध्र के लोगों से उनकी सलाह नहीं ली। तो इसमें नया क्या हो गया? बल्कि उस समय तो पंडित नेहरू की सरकार ने फजल अली के नेतृत्व में गठित राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट की अवहेलना करके तेलंगाना को आंध्र में शामिल करने का निर्णय लिया था। फजल अली ने तो अपनी रिपोर्ट में साफ लिखा था कि तेलंगाना के लोग आंध्र में मिलने के लिए तैयार नहीं हैं। उनको बहुत सी आशंकाएं हैं। इसलिए उसे अभी आंध्र में शामिल नहीं किया जा सकता। फिर भी उन्होंने विलय का रास्ता खुला छोड़ा था और सलाह दी थी कि 1961 के चुनाव में तेलंगाना विधानसभा के गठन के बाद यदि सदन के दो तिहाई विधायक अपने राज्य का विलय आंध्र में करने का निर्णय लें तो ऐसा हो सकता है, लेकिन केंद्र सरकार ने आयोग की रिपोर्ट को दरकिनार करके एक तरह से जबर्दस्ती तेलंगाना के क्षेत्र को आंध्र प्रदेश का अंग बना लिया। क्षुब्ध तेलंगानावासियों को संतुष्टï करने के लिए एक सभ्य समद्ब्राौता (जेटिलमेंस एग्रीमेंट) तैयार किया गया, जिसमें तेलंगाना क्षेत्र को अलग राज्य जैसी ही सुविधाएं व अधिकार देने का वचन दिया गया, जिसका कभी पालन नहीं हुआ। इसके विपरीत आज का निर्णय तो राज्य की प्राय: सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों की आम राय के अनुसार लिया गया है। यह बात दूसरी है कि निर्णय के बाद ये सारी पार्टियां अपनी राय से पलट गयीं हैं।
वास्तव में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब मद्रास प्रांत का विभाजन हुआ और आंध्रा अलग हुआ, तभी से आंध्र प्रदेश के ताकतवर नेताओं की नजर तेलंगाना क्षेत्र और निजाम की राजधानी हैदराबाद व उसकी संपत्ति पर लगी हुई थी । वे अपने राज्य का आकार भी बढ़ाना चाहते थे जिससे कि उनकी ताकत और बढ़ जाए। आज भी मूल द्ब्रागड़ा हैदराबाद शहर को लेकर है, जो पहले निजाम की और आज आंध्र प्रदेश की राजधानी है। तेलंगाना को अलग करने के केन्द्र सरकार के निर्णय का विरोध करते हुए आंध्र प्रदेश के नेतागण कह रहे हैं कि उनकी वहां जो संपत्तियां हैं, जो वहां निवेश किया गया है, उसे वे कैसे छोड़ सकते हैं। उन्हें शायद इसका स्मरण नहीं कि जिस समय तेलंगाना का आंध्र प्रदेश में विलय किया गया था उस समय पूरा तेलंगाना क्षेत्र शिक्षा व विकास की दृष्टिï से पिछड़ा अवश्य था, लेकिन उसका कुल राजस्व (सरकारी आमदनी) आंध्र के राजस्व से कहीं अधिक था। निजाम की अकूत संपदा भी विलय के साथ आंध्र के नेताओं के ही हाथ लगी। तेलंगाना की खनिज व जल संपदा आंध्र क्षेत्र के अधिक काम आई, जिससे उनकी समृद्धि बढ़ी। फिर आज यदि तेलंगाना के वंचित लोगों के हित में 1956 का फैसला उलटा जा रहा है तो इससे उनका दर्द इतना क्यों बढ़ गया है।
फिर ऐसा भी तो नहीं कि तेलंगाना अलग राज्य बन जाएगा तो यहां से आंध्र या रायलसीमा के लोग निकाल बाहर किये जाएंगे। विभाजन का आधार क्षेत्रीय है कोई जातीय तो नहीं। यदि निजाम के राज्य में यहां देश के तमाम राज्यों से आए लाखों लोग रह सकते हैं, उद्योग व्यवसाय कर सकते हैं, संपत्तियां खरीद सकते हैं तो आंध्र या रायलसीमा के लोग यहां यह सब क्यों नहीं कर सकते। हां उन इलाकों के भूमाफियाओं, बिल्डरों व बड़े ठेकेदारों का नुकसान अवश्य हो सकता है, लेकिन मुट्ठी भर ऐसे लोगों की रक्षा के लिए करोड़ों तेलंगानावासियों को कोई बंधक बनाकर तो नहीं रख जा सकता।
राज्य के विभाजन के विरुद्ध एक तर्क और दिया जा रहा है कि इस विभाजन से भाषायी एकता टूटेगी। भाषा आधारित राज्यों का गठन इसलिए किया गया था कि एक भाषाभाषी समुदाय एक राज्य क्षेत्र में रहें। अब यदि तेलुगु भाषा के आधार पर गठित एक राज्य को तोड़कर दो तेलुगु भाषी राज्य बनाए जाते हैं तो यह राज्यों के पुनर्गठन की मूल अवधारणा के विरुद्ध कार्य होगा। वस्तुत: यह कोई तर्क नहीं, बल्कि एक मिथ्या तर्काभास है। वास्तव में भाषा आधारित राज्य का गठन किया जाना ही एक बहुत बड़ी राजनीतिक व सामाजिक भूल थी। आज के जमाने में कोई क्षेत्र, राज्य या देश एक भाषा-भाषी नहीं हो सकता। वह किसी एक पारंपरिक संस्कृति का अनुयायी भी नहीं हो सकता। उद्योग, व्यवसाय तथा सेवाओं के लिये प्राय: हर क्षेत्र के लोग अन्य क्षेत्रों में आते-जाते तथा बसते रहे हैं और आते-जाते तथा बसते रहेंगे। यह भाषायी राजनीतिक अस्मिता भी यूरोपीय महाप्रभुओं की देन है जिसके कारण हम आज इतने विभाजित व संकीर्ण मानसिकता वाले हो गये हैं। इसलिए एक भाषा के एक से अधिक राज्यों का होना कोई निन्दनीय बात नहीं।
यह बात सही है कि पृथक तेलंगाना राज्य बनना अभी भी आसान नहीं है। तेलंगाना के लोग यदि यह समद्ब्राते हों कि अब उन्हें कुछ नहीं करना है, अब तो जो कुछ करना है वह केन्द्र सरकार को ही करना है। उसने वायदा किया है तो उसे पूरा करने की जिम्मेदारी भी उसी की है। अपना काम तो केवल जश्न मनाना रह गया है। तो यह उनकी भारी भूल होगी। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि केन्द्र सरकार की तरफ से बुधवार की मध्यरात्रि जो घोषणा की गई थी उसका मूल उद्देश्य अलग तेलंगाना राज्य बनाना नहीं, बल्कि तेलंगाना राष्ट्र समिति के अध्यक्ष के. चन्द्रशेखर राव के आमरण अनशन से भड़के छात्र आंदोलन को शांत करना था। यद्यपि अभी भी यह अटकलें लगाई जा रही हैं कि केन्द्र ने आखिर कैसे एक मध्यरात्रि को इतने बड़े निर्णय की घोषण कर दी। आखिर उस पर क्या दबाव था। राज्य की राजनीतिक स्थिति की केन्द्र को जानकारी न हो ऐसी बात भी नहीं। केन्द्रीय नेता यह अच्छी तरह जानते हैं कि तेलंगाना के प्रश्न पर राज्य की तमाम पार्टियां जो भी बोलती रही हैं वह सच नहीं है। पृथक तेलंगाना राज्य के समर्थन में दिये गये सारे बयान मिथ्या थे, जो तेलंगाना क्षेत्र के लोगों का समर्थन प्राप्त करने के राजनीतिक उद्देश्य से दिये गये थे। सभी जानते थे कि तेलंगाना के बारे में केन्द्र सरकार जल्दी कोई फैसला नहीं लेने वाली इसलिए तेलंगाना क्षेत्र को क्यों अकेले टी.आर.एस. की झोली में जाने दिया जाए। क्यों न उसके प्रति बराबर की सहानुभूति जताकर उसका समर्थन अपने लिये भी जुटा लिया जाए।
कांग्रेस ने इसीलिए इस तरह का बयान दिया कि वह तेलंगाना के विरुद्ध नहीं है, लेकिन फैसला केन्द्र सरकार को या पार्टी हाईकमान को करना है। वह इसके लिए तैयार हो जाए तो उन्हें यानी राज्य के नेताओं को कोई आपत्ति नहीं। इसे देखते हुए तेलुगु देशम पार्टी ने भी पृथक तेलंगाना के समर्थन की घोषणा कर दी। और इन दोनों की प्रतिस्पर्धा में आई मेगास्टार चिरंजीवी की पार्टी प्रजा राज्यम भी भला क्यों पीछे रहती, उसने भी तेलंगाना राज्य के समर्थन की घोषणा कर दी। राज्य कांग्रेस को यह रणनीति अपनाने की सलाह केन्द्र के नेताओं ने ही दी थी इसलिए राज्य के नेतागण आश्वस्त थे कि तेलंगाना क्षेत्र के लोग कितना भी हाथ पांव मारे, लेकिन केन्द्र कोई निर्णय लेने वाला नहीं। किन्तु चन्द्रशेखर राव के अनशन के कारण भड़के छात्र आंदोलन ने मामला एकाएक गड़बड़ कर दिया।
चन्द्रशेखर राव के लिए भी अपनी डूबती राजनीति को बचाने के लिए कुछ करना आवश्यक हो गया था। लोकसभा, विधानसभा व अभी हाल में सम्पन्न व्रहत्तर हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में अपनी गिरती साख से वह बेचैन हो गये और फिर से अपनी लोकप्रियता बढ़ाने व जनसमर्थन समेटने के लिए उन्होंने आमरण अनशन की घोषणा कर दी। सरकार ने यह योजना विफल करने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया। सरकार को इसका कतई भरोसा नहीं था कि राव का अनशन दो चार दिन भी चल सकेगा। वह कोई महात्मा गांधी या पोट्टी श्रीरामुलु तो हैं नहीं। वह अच्छी जिंदगी व खान-पान के अभ्यस्त हैं। मरना वह कतई चाहेंगे नहीं इएलिए यह अनशन चल ही नहीं सकता। हुआ भी ऐसा ही। अगले ही दिन उनकी जूस पीकर अनशन तोडऩे की तस्वीर मीडिया में फैल गई। इससे आंदोलनकारी छात्र और भड़क गये। उन्होंने राव को धोखेबाज व नाटकबाज करार देते हुए उनका पुतला फूंकना शुरू कर दिया। ऐसी स्थिति में उनके लिए पुन: अनशन जारी रखने की घोषणा करना अनिवार्य हो गया। अन्यथा तेलंगाना की पूरी राजनीति ही उनके हाथ से निकल जाती। डॉक्टर उन्हें शिरामाध्यम से पोषण पहुंचा रहे थे। ऊपर से पानी वह ले ही रहे थे। इससे उनके प्राणों के लिए कोई तात्कालिक खतरा नहीं था, फिर भी उनके रोगजर्जर शरीर (वह बीपी व शुगर के मरीज हैं साथ ही अत्यधिक मद्यसेवन से उनका लिवर भी काफी खराब हो चुका है) को देखते हुए कोई भी इस दृष्टिï से आशंका मुक्त नहीं था। अनशन जब 10 दिनों तक लगातार जारी रहा और अनशन तोड़वाने की राज्य सरकार की सारी कोशिशें विफल हो गयीं, तो सत्तारुढ़ पार्टी के केंद्रीय नेताओं को चिंता होने लगी। प्राय: पूरे तेलंंगाना क्षेत्र में गांव-गांव तक भड़क उठे तेलंगाना आंदोलन के दृश्य लगातार टी.वी. पर देखे जा रहे थे।
कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेताओं को दिल्ली में जो खबरें मिल रही थीं उसके अनुसार इस आंदोलन को इतना उग्र रूप देने में अपनी ही पार्टी के उन लोगों का बड़ा हाथ था, जो वर्तमान रोशैया सरकार को अस्थिर करना चाहते हैं। उन्हें यह भी आशंका थी कि नक्सली संगठन भी इस आंदोलन में कूद सकते हैं। 10 दिसंबर को 'विधानसभा चलो के आह्वान को लेकर भारी अंदेशा था। इसमें कुछ भी हो सकता है। साथ में यह भय भी था कि कहीं इस बीच चंद्रशेखर राव की जान को कुछ हो गया तो स्थिति एकदम काबू से बाहर हो जाएगी। रोशैया विरोधी ताकतों का खेल सफल न होने पाए इसके लिए भारी जल्दबाजी में 10 दिसंबर की सुबह होने के बहुत पहले मध्यरात्रि में ही तेलंगाना को अलग राज्य बनाने की मांग स्वीकार कर ली गयी। केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने मीडिया के सामने आकर संक्षिप्त सा बयान दिया कि पृथक तेलंगाना राज्य के निर्माण की प्रक्रिया शीघ्र ही शुरू की जाएगी। इसके लिए राज्य विधानसभा में एक प्रस्ताव पेश किया जाएगा। इसलिए अब चंद्रशेखर राव को अपना अनशन तोड़ देना चाहिए और छात्रों को भी अपना आंदोलन वापस ले लेना चाहिए। सरकार के पास इस तरह के एकतरफा निर्णय की घोषणा के लिए पर्याप्त राजनीतिक आधार भी था, क्योंकि अभी कुछ दिन पहले ही मुख्यमंत्री रोशैया द्वारा बुलायी गयी सर्वदलीय बैठक में प्राय: सभी प्रमुख पार्टियों ने पृथक तेलंगाना का समर्थन किया था। अब केंद्र को और कोई सहमति जुटाने की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए उसने फटाफट तेलंगाना राज्य निर्माण की प्रक्रिया शुरू करने की घोषणा कर दी।
यह घोषणा निश्चय ही सभी के लिए चौंकाने वाली थी। टीआरएस के लोगों को भी इतनी जल्दी ऐसी घोषणा की आशा नहीं थी। घोषणा होते ही टीआरएस सहित तेलंगाना क्षेत्र के सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता-सांसद, विधायक आदि नाच उठे और आंध्र व रायलसीमा के नेतागण अवाक रह गये। लेकिन स्तब्धता जल्दी ही टूटी और उन्होंने घोषणा का विरोध करना शुरू कर दिया। स्वयं कांग्रेस पार्टी के अपने विधायकों व सांसदों ने विरोध का द्ब्रांडा बुलंद कर दिया और केंद्र पर आरोप लगाना शुरू कर दिया कि उसने बिना राज्य के विभिन्न अंचलों के लोगों की राय लिए एकतरफा तौर पर यह फैसला ले लिया है, जो उन्हें मान्य नहीं है। वे यह भी भूल गये कि अभी तक वे स्वयं ही तो कह रहे थे कि वे तेलंगाना के खिलाफ नहीं हैं और इस बारे में पार्टी हाईकमान यानी सोनिया गांधी जो भी निर्णय लेंगी, वह उन्हें मान्य होगा। अब जब सोनिया गांधी ने निर्णय ले लिया और उसकी घोषणा हो गयी, तो फिर क्यों वे इसका विरोध कर रहे हैं। इस पर इन क्षेत्रों के कांग्रेसी नेताओं का कहना है कि उन्हें क्या पता था कि वह वास्तव में कोई इस तरह का फैसला ले लेने वाली हैं। उन्हें तो पार्टी के राजनीतिक हित के लिए केवल ऐसी बात कहते रहने के लिए कहा गया था।
घोषणा के बाद 10 तारीख की सुबह होते-होते इस मसले पर सारी पार्टी लाइन टूट गयी। राजनीति ने नितांत क्षेत्रीय रूप ग्रहण कर लिया। तेलंगाना क्षेत्र के सारे नेता एक साथ और आंध्र तथा रायलसीमा के सारे नेता एक साथ। एक वर्ग जश्न मनाने में लगा है, तो दूसरा विरोध करने में। आंध्र व रायलसीमा क्षेत्र के विधायकों का इस्तीफे देने का तांता लग गया। ताजा खबरों के अनुसार इन दोनों क्षेत्रों के कुल 175 विधायकों में से अब तक करीब 135विधायक व 5 सांसद इस्तीफ दे चुके हैं। इन सबकी मांग है कि 9-10 की मध्यरात्रि को की गयी घोषणा वापस ली जाए और आंध्र को वर्तमान 'समेक्य आंध्र के रूप में बनाये रखा जाए। राज्य दका प्राय: हर वर्ग क्षेत्रीय आधार पर बंट गया है। उनके बीच की राजनीतिक विभाजक रेखा क्षीण हो गई है और क्षेत्रीयता की रेखा गरही हो गई है। राजधानी हैदराबाद में तो इसको बिल्कुल साफ-साफ देखा जा सकता है। राज्यकर्मचारी हों, अफसर हों, पुलिस हों, शिक्षक हों, छात्र हों, वकील हों या व्यवसायी प्राय: सबके बीच क्षेत्रीयता की विभाजक रेखा खिंच गई है। हाईकोर्ट के वकीलों में तो 11 दिसंबर की सुबह बाकायदे भिडंत हो गई। आंध्र व रायलसीमा के वकीलों ने अदालत परिसर में 'समेक्य आंध्र का नारा लगाते हुए प्रदर्शन किया और मांग की कि हाई कोर्ट की सारी अदालतें बंद की जाएं। इस पर तेलंगाना के वकीलों ने विरोध किया। फिर 'जय तेलंगाना व 'जय समेक्य आंध्र की मुकाबले की नारेबाजी शुरू हो गई। अदालतें अपने आप ठप हो गयीं। इसी दौरान पता चला कि वकीलों के ही एक समूह ने राजठाकरे की 'महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की तर्ज पर 'एक तेलंगाना नव निर्माण सेना का गठन कर लिया है। उनका कहना है कि अब तक हमने बहुत नरमी बरती, लेकिन अब हम भी कठोर रुख अपनाएंगे।
अब केन्द्र सरकार इस दूसरी आग को ठंडा करने की कोशिश में है। वह पृथक तेलंगाना की घोषणा अब वापस तो ले नहीं सकती इसलिए आंध्र व रायलसीमा क्षेत्र को शांत करने का एक ही उपाय है कि नये राज्य निर्माण के मसले को अनिश्चितकाल के लिए अधर में लटका दिया जाए। गृहमंत्री की घोषणा के 48 घंटे के अंदर ही यह घोषणा हो गई कि अलग तेलंगाना राज्य के निर्माण का प्रस्ताव राज्य विधानसभा के चालू सत्र में पेश नहीं किया जाएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी रायलसीमा व आंध्र क्षेत्र के सांसदों को आश्वस्त किया कि नये राज्य निर्माण् के लिए कोई जल्दबाजी नहीं की जाएगी। सबकी राय से सबके हितों का ध्यान रखते हुए ही आगे कोई कदम बढ़ाया जाएगा। कांग्रेस के एक वरिष्ठï नेता ने इससे एक कदम और आगे बढ़कर यह कहा कि 'हम लोग आम राजनीतिक सहमति के आधार पर तेलंगाना राज्य निर्माण के पक्ष में थे। लेकिन ऐसे निर्णय एकतरफा नहीं लिये जा सकते। हमने जब निर्णय लिया तो राज्य की प्राय: सभी प्रमुख पार्टियां एकमत थीं, लेकिन अब जबकि टीडीपी पीछे हट गई है तो राजनीतिक सहमति कहां है? इसलिए अभी हम मामले को टाल देना चाहते हैं।निश्चय ही कांग्रेस अब मसले को टालने के मूड में हैं। लेकिन अब राज्य में क्षेत्रीयता की जो आग भड़क उठी है वह आसानी से शांत होने वाली नहीं। आंध्र व रायलसीमा के आंदोलनकारी चाहते हैं कि गृहमंत्री दुबारा बयान दें तभी स्थिति सामान्य हो सकती है। उनका सीधा आरोप है कि वर्तमान अशांति के लिए गृहमंत्री दुबारा बयान दें तभी स्थिति सामान्य हो सकती है। उनका सीधा आरोप है कि वर्तमान अशांति के लिए गृहमंत्री चिदंबरम सीधे जिम्मेदार हैं। उनके गृह सचिव जी.के. पिल्लइ ने शुक्रवार को एक बयान देकर और आग में घी डाल दिया। उन्होंने कहा कि पृथक तेलंगाना राज्य के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और हैदराबाद इस नये राज्य की राजधानी होगी। रोचक है कि जिस समय प्रधानमंत्री क्षुब्ध सांसदों को यह समझा रहे थे कि जल्दबाजी में कुछ नहीं किया जाएगा (नथिंग विल बी डन इन हेस्ट) उसी समय गृहसचिव का बयान था कि प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और राजधानी का मसला भी तय हो चुका है। बाद में यद्यपि वह अपने बयान में पलट गये और कहा कि अभी राजधानी के बारे में कोई फैसला नहीं हुआ है। उन्होंने यह बात केवल इस समद्ब्रा के आधार पर कह दी थी कि यदि तेलंगाना राज्य बनेगा तो हैदराबाद स्वाभाविक रूप से उसकी राजधानी बनेगा। अब भले ही वह अपने बयान से पलट गये हों, लेकिन उनके कथन से इतना तो स्पष्टï हो ही गया है कि दिल्ली में बैठे ब्यूरोक्रेट्स की नजर में हैदराबाद ही तेलंगाना की स्वाभाविक राजधानी है।
राज्य की राजनीति में क्षेत्रीयता को लेकर एक अजीब उथल-पुथल मची है। चतुर्दिक ऊहापोह व्याप्त है। रायलसीमा और आंध्र की पहली मांग यही है कि राज्य का विभाजन न हो लेकिन यदि केन्द्र इस पर आमादा है तो आगे की क्या रणनीति हो सकती है, इस पर भी विचार किया जा रहा है। रायलसीमा व आंध्र के लोगों का, विभाजन की स्थिति में पहला दबाव यह है कि हैदराबाद को तेलंगाना को न दिया जाए। उसे केन्द्र शासित क्षेत्र बना दिया जाए। यदि ऐसा हो जाए तो शहर हैदराबाद से जुड़े उनके सारे हित सुरक्षित रह सकते हैं। लेकिन तेलंगाना के लोग क्या इसे स्वीकार करेंगे? तो अगला विकल्प क्या हो सकता है। रायलसीमा के लोगों की मांग है कि उस स्थिति में उन्हें भी अलग राज्य का दर्जा दिया जाए और नेल्लूर तथा प्रकाशम जिले को उनके साथ जोड़ा जाए। राज्य में इस समय 22 जिले हैं जिनमें से 9 तेलंगाना क्षेत्र में आते हैं, 4 रायलसीमा में और शेष आंध्र क्षेत्र में। मद्रास प्रांत से जब आंध्र को अलग किया गया था तो कर्नूल उसकी राजधानी बनी थी, जो रायलसीमा क्षेत्र में है। लेकिन तेलंगाना के साथ विलय के बाद यह राजधानी उनसे छिन गई और हैदराबाद नई राजधानी बन गई। अब रायलसीमा के लोग तिरुपति को अपनी राजधानी बना सकते हैं, लेकिन उन्हें पृथक राज्य बनने के लिए आंध्र क्षेत्र का नेल्लूर और प्रकाशम जिला जरूर चाहिए। उधर आंध्र क्षेत्र में भी इसकी बहस शुरू हो गई है कि यदि राज्य का विभाजन हो ही गया तो उनकी राजधानी कहां स्थापित होगी।
खैर, यह सारा मुद्दा और विवाद तो अभी लम्बे समय तक चलता रहेगा, परंतु गृहमंत्री की पृथक तेलंगाना राज्य बनाने की घोषणा से देश के अन्य क्षेत्रीय आंदोलनों में भी नई जान आ गई है। लेकिन सवाल है इस विभाजन की श्रृंखला का अंत कहां है। यह दावा मिथ्या है कि छोटे राज्य प्रशाशन की दृष्टि से सुविधाजनक होते हैं या इससे उनके विकास की गति तेज होती है। फिर भी यदि लगातार विभाजन की मांगें उठ रही हैं, तो उनके उठने के दो मुख्य कारण हैं। एक तो क्षेत्रीय नेताओं की बढ़ती महत्वाकांक्षा दूसरी सत्ता के वर्चस्वधारी लोगों द्वारा किसी क्षेत्र विशेष की उपेक्षा या उसका शोषण। जाहिर है कि राजनीतिक व्यवस्था में आंतरिक लोकतंत्र तथा न्याय का अभाव इस तरह की मांगों को भड़काने के मुख्य कारण है। इसलिए राजनीतिक व्यवस्था में इस विभाजन प्रक्रिया को यदि रोकना है तो राजनीतिक व्यवस्था या दलों के बीच आंतरिक लोकतंत्र तथा प्रशासन में सम्यक न्याय की स्थापना करनी होगी। यदि यह नहीं होगा तो ये विभाजन की श्रृंखला और नीचे तक फैलती ही जाएंगी। आंध्र प्रदेश में भी यदि तेलंगाना के साथ न्याय किया गया होता और 'जेंटिलमेन एग्रीमेंट को ईमानदारी से लागू किया गया होता तो आज विभाजन की यह नौबत न आती। परंतु अब बात जहां तक बढ़ चुकी है, उसमें इस राज्य के विभाजन को अनंतकाल के लिए नहीं टाला जा सकता। आज नहीं तो कल, विभाजन के दौर से इसे गुजरना ही पड़ेगा फिर भले इसके एक के दो टुकड़े हों या तीन।

रविवार, 6 दिसंबर 2009

ओबामा की अफगान नीति सफल होने वाली नहीं

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अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने अफगानिस्तान व पाकिस्तान के जेहादी गढ़ों को ध्वस्त करने के लिए अब से डेढ़ साल का समय निर्धारित किया है। इस काम को पूरा करके अमेरिकी सेनाएं जुलाई 2011 से वापसी का रुख कर लेंगी। ऐसा लगता है कि अफगानिस्तान से अधिक उन्हें 2012 के राष्टï्रपति चुनाव की चिंता सता रही है, तभी वह चाहते हैं कि उसके पहले ही अफ गानिस्तान का लक्ष्य पूरा कर लिया जाए और सेना घर वापसी शुरू कर दे, लेकिन सवाल है क्या उनका यह महत्वाकांक्षी सपना पूरा हो सकेगा?

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अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने बड़े लंबे चिंतन-मनन एवं विचार-विमर्श के बाद गत मंगलवार (1 दिसंबर 2009) की शाम अपनी नई पाक-अफगान नीति की घोषणा की। इस नीति को लेकर सभी चकित हैं । अमेरिकी दैनिक 'वाशिंगटन पोस्ट ने इसे ज्वार-भाटा नीति (सर्ज देन लीव पॉलिसी) कहा है। ओबामा ने घोषणा की है कि अफगानिस्तान में अलकायदा एवं तालिबान आतंकवादियों पर हमला तेज करने के लिए 30,000 और अमेरिकी सैनिक भेजे जाएंगे। उनके सहयोगी देश भी करीब 10 हजार अतिरिक्त सैनिक भेज सकते हैं। यह तो ठीक, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने यह भी घोषणा की है कि जुलाई 2011 से वहां से अमेरिकी सैनिकों की वापसी भी शुरू हो जाएगी। इस करीब डेढ़ साल के समय में उन्हें उम्मीद है कि पाकिस्तान व अफगानिस्तान सरकार के सहयोग से इन जिहादी आतंकवादियों के सभी सुरक्षित गढ़ ध्वस्त कर दिये जाएंगे तथा उन्हें अंतिम रूप से पराजित कर दिया जाएगा। इसके बाद उनके पास ऐसी कोई क्षमता नहीं रह जाएगी कि वे किसी सरकार का तख्ता पलटने की कोशिश कर सकें।
क्या कमाल की समयबद्ध योजना है। दुनिया के इतिहास में शायद ही किसी कमांडर ने किसी युद्ध के बारे में ऐसी सुनिश्चित घोषणा करने का साहस किया हो। आश्चर्य की बात है कि इस घोषणा में उस रणनीति का कोई जिक्र नहीं है, जिसके द्वारा इस युद्ध को निर्णायक अंत तक पहुंचा दिया जाएगा, बस एक तिथि है जिसके पहले सब कुछ हो जाएगा। निश्चय ही अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना को सुनिश्चित वापसी के लिए यह तिथि 2012 के राष्ट्रपतीय चुनाव को ध्यान में रखकर घोषित की गयी है। अमेरिकी जनता अफगानिस्तान में लम्बे सैनिक उलद्ब्रान को लेकर बेचैन है, इसलिए वह चाहती है कि अमेरिका वहां से जल्दी से जल्दी बाहर आ जाए। ओबामा साहब के सामने इस तरह दोहरी समस्या है, एक तो अमेरिकी जनता की चिन्ता को दूर करना, दूसरे अफगानिस्तान में अमेरिका के घोषित शत्रु अलकायदा व तालिबान के गढ़ को तोडऩा। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने 30 अरब डॉलर के अतिरिक्त धन की भी घोषणा कर दी है। लेकिन अहम सवाल है कि क्या ओबामा अपने इस घोषित लक्ष्य को पूरा कर पाएंगे।
युद्धनीति वह होती है, जिसकी घोषणा से शत्रु समूह में भय व चिंता फैल जाए, मगर ओबामा साहब की इस घोषणा से पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान में जश्न मनाया गया और शैंपेन की बोतलें खोली गयीं। अलकायदा और तालिबान नेता अभी तक तो यह रणनीति बना रहे थे कि अमेरिकी फौजों को कैसे वहां से भगाया जाए, लेकिन अब इस चिंता की जरूरत ही नहीं है। उन्हें तो अब जाना ही है, इसलिए यदि 18 महीने लडऩे के बजाए चुपचाप कहीं छिप के बैठ जाएं, तो भी शत्रु पराजित होकर भाग जाएगा। पाकिस्तान की सेना तो कब से उस दिन की प्रतीक्षा में है कि अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान छोड़कर वापस जाने की घोषणा करे। उनकी अमेरिका के साथ सहयोग की सबसे बड़ी रणनीति ही यही है कि आखिर कब तक अमेरिकी सैनिक यहां टिकेंगे। कब तक अमेरिकी जनता युद्ध के इस भारी खर्च को बर्दाश्त करेगी। एक न एक दिन तो उसे जाना ही होगा। तब तक केवल यह प्रयास करना है कि पाकिस्तान बचा रहे, उसकी सेना सुरक्षित रहे और उसके परमाणु अस्त्र उसके हाथ में बने रहें। यदि ये तीन बने रहे, तो अफगानिस्तान तो एक दिन उसके कब्जे में आएगा ही।
पाकिस्तान और उसके गुर्गे तालिबान इसी रणनीति के तहत अमेरिका के साथ भारत को भी वहां से भगाना चाहते हैं। क्योंकि भारत यदि वहां बना रहा, तो वह पाकिस्तान का सारा खेल बिगाड़ देगा। इसीलिए पाकिस्तान, अफगानिस्तान में ऐसी सरकार चाहता है, जो पाकिस्तान परस्त हो और भारत को एक पल वहां न ठहरने दे। तालिबान नेता पूर्व राष्ट्रपति मुल्ला उमर को उसने इसीलिए सुरक्षित बचाकर रखा है कि अमेरिका के जाने के बाद एक बार फिर वह उमर को अफगान राष्ट्रपति की गद्दी पर बैठा सके। उसे उमर से बेहतर कोई दूसरा अफगान नेता नहीं मिल सकता, जो अफगानिस्तान को पाकिस्तान के विस्तार के रूप में बदल सके। पाकिस्तानी सूत्रों का यदि भरोसा करें, तो पाकिस्तानी सेना लादेन का सौदा कर सकती है। यानी अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी सुनिश्चित करने के लिए लादेन को अमेरिका के हवाले कर सकती है, किन्तु उमर को किसी भी स्थिति में अमेरिकियों के हाथ नहीं लगने देगी। अब तक यह देखा जा रहा है कि पाकिस्तान ने अलकायदा व तालिबान के दूसरी पंक्ति के बहुत से नेताओं को गिरफ्तार कर रखा है। बहुत अमेरिकी दबाव बढ़ता है, तो उनमें से किसी को उनके हवाले करके अपनी सफ लता दर्ज करा देता है।
अमेरिका की समस्या है कि उसकी गुप्तचर एजेंसी सी.आई.ए. की मुजाहिदीनों के बीच कोई घुसपैठ नहीं है। इसलिए मुजाहिदीनों के बारे में किसी भी सूचना के लिए वह पाकिस्तानी सैन्य गुप्तचर संगठन आई.एस.आई. (इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस) पर निर्भर है। आई.एस.आई. जो उन्हें बता दे, वही उनकी जानकारी। और आई.एस.आई. को इसमें कोई दिक्कत नहीं है, क्योंकि तालिबान के हर कदम की जानकारी उसे रहती है। और ऐसा हो भी क्यों न, तालिबान फौज का गठन करने वाली आईएसआई ही है। सी.आई.ए. किसी सूचना के लिए आईएसआई से जोर जबर्दस्ती तो कर नहीं सकती, इसलिए वह आईएसआई का उपयोग कर सके, इसके बजाए आईएसआई ही उसका उपयोग करती है।
किसी उपद्रवग्रस्त क्षेत्र में व्यवस्था स्थापित करने के लिए जब सेना भेजी जाती है, तो उसका लक्ष्य होता है पहले तो इलाके को उपद्रवियों से खाली कराना, फिर उस खाली हुए इलाके पर अपना नियंत्रण मजबूत करना और उसके बाद उसका निर्माण करना, जिससे शंतिपूर्ण शक्तियां वहां विकसित हो सकें। किन्तु ओबामा की पाक अफगान नीति में इसका घोर अभाव है। ओबामा साहब का कहना है कि पाक-अफगान सीमा अलकायदा की हिंसक कार्रवाइयों का केन्द्र है। पहले उसका गढ़ केवल अफगानिस्तान की सीमा में था, किन्तु अब वह पाकिस्तान की सीमा में भी आ गया है, इसलिए उसके खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान को शामिल करना अनिवार्य हो गया है। इसीलिए इस नीति को पाक-अफगान नीति का नाम दिया गया है। वास्तव में अलकायदा के कारण पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों देशों की सरकारें तथा जनता खतरे में है। मुजाहिदीन पाकिस्तान के परमाणु केन्द्रों पर अब से पहले तीन बार हमला कर चुके हैं। लादेन खुलेआम यह कह चुका है कि वह परमाणु हथियार हासिल करने की कोशिश में है। यदि इनका यह गढ़ तोड़ा न गया, तो ये परमाणु हथियार भी हासिल कर लेंगे और उसका इस्तेमाल करने में भी कतई नहीं संकोच करेंगे। ओबामा ने यह याद दिलाने की कोशिश की कि यह केवल अमेरिका की लड़ाई नहीं है। इसे यह भी नहीं समद्ब्राा जाना चाहिए कि यहां 'नाटो (उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) की युद्ध क्षमता दावे पर लगी है। वास्तव में यह लड़ाई प्राय: पूरी दुनिया की है और इसके साथ नाटो के सभी सदस्य देशों की सुरक्षा भी दांव पर लगी है। इसलिए उनके देश ने यह संकल्प लिया है कि वह अलकायदा को अफगानिस्तान व पाकिस्तान दोनों ही क्षेत्रों में तोड़ देगा और अंतिम पराजय के गर्त में डाल देगा। उन्होंने कहा कि हम अफगानिस्तान में आतंकवाद के कैंसर को हमेशा के लिए समाप्त करने के लिए आये थे, लेकिन इस कैंसर की जड़ें अब पड़ोस के पाकिस्तानी क्षेत्र में भी फैल गयी है। इसलिए हमें ऐसी रणनीति अपनानी है, जो दोनों तरफ कारगर हो।
ओबामा के इन संकल्पों की तालिबान नेताओं द्वारा खिल्ली उड़ायी गयी है। अफगान तालिबान के एक संगठन 'इस्लामिक एमिरेट्स के द्वारा 'पश्तो में जारी एक वक्तव्य में कहा गया है कि राष्ट्रपति ओबामा आर्थिक संकट से ग्रस्त अमेरिकी जनता की इच्छा तथा मांगों की अनदेखी करके अफगानिस्तान में अपनी जोर आजमाइश करना चाहते हैं। इसी तरह शिराजुद्दीन हक्कानी उर्फ खलीफा (जिसका सुराग देने वाले के लिए 50 लाख डॉलर के इनाम की घोषणा की गयी है) ने भी ओबामा का मजाक उड़ाया है। खलीफा का हक्कानी नेटवर्क अफगानिस्तान का सबसे ताकतवर संगठन है, जिसकी स्थापना शिराजुद्दीन के पिता मौलवी जलालुद्दीन हक्कानी ने की थी।
अफगान तालिबानों का कहना है कि अफगानिस्तान ने कभी किसी बाहरी फौज को बर्दाश्त नहीं किया है। उसने रूसियों को यहां से लड़कर भगा दिया, लेकिन अमेरिकी तो बिना लड़े ही भागने के लिए तैयार हैं। ओबामा की इस नीति के समर्थक भी यह स्वीकार करते हैं कि अमेरिका और यूरोप के एक लाख सैनिक यदि अफगानों का अब तक कुछ नहीं बिगाड़ पाए, तो 30 हजार और अमेरिकी सैनिक भी वहां पहुंचकर क्या कर लेंगे। नयी कुमक पहुंचने के बाद अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या एक लाख हो जाएगी और यूरोपीय सैनिकों को मिलकर यह संख्या करीब डेढ़ लाख हो जाएगी, लेकिन किसी को यह उम्मीद नहीं है कि ये डेढ़ लाख सैनिक वहां कोई चमत्कार कर सकेंगे।
ओबामा की नीति समर्थक यह भी मानते हैं कि अफगानिस्तान में तालिबानों का युद्ध केवल मजहबी या जिहादी ही नहीं है, यह अफगानिस्तान की मुक्ति का भी युद्ध है। यदि ओबामा साहब अमेरिकी सेना को वापस बुला लेंगे, तो इससे तालिबान का आजादी का मुद्दा खत्म हो जाएगा और उनके आतंकी हमलों का कारण समाप्त हो जाएगा। यह बात सही है, लेकिन सवाल है अमेरिका अब अफगानिस्तान को खाली कर देगा, तो क्या फिर वही स्थिति नहीं पैदा हो जाएगी, जब रूसी सेनाएं चली गयीं थीं। तब क्या तालिबान करजई को उसी तरह सरेआम फांसी पर नहीं लटका देंगे, जिस तरह उन्होंने तत्कालीन शासक मोहम्मद नजीबुल्लाह को सरेआम लटका दिया था।
अमेरिका का अफगानिस्तान युद्ध उसके वियतनाम व इराक युद्धों से भिन्न है। वियतनाम में उसकी केवल सैन्य प्रतिष्ठा दांव पर थी और सवाल कम्युनिज्म को हराने का था। उत्तर वियतनाम की लड़ाई केवल स्वतंत्रता की लड़ाई थी। वस्तुत: वे अमेरिका से नहीं लड़ रहे थे, बल्कि अमेरिका उनसे लड़ रहा था। इसलिए वहां से बाहर निकल आने से अमेरिकी हितों को कोई खास क्षति नहीं पहुंचने वाली थी। वियतनाम युद्ध में कोई पड़ोसी देशों की सुरक्षा भी दांव पर नहीं थी। इराक युद्ध में अमेरिका का तेल लोभ हो सकता था, लेकिन असली मसला सद्दाम को सजा देना था, जो खुलेआम अमेरिका जैसी महाशक्ति को मुहचिढ़ाया करता था। सद्दाम मारा गया, बस अमेरिका का काम खत्म हुआ। लेकिन अफगानिस्तान ऐसा नहीं है। अफगानिस्तान में अमेरिका का कोई लोभ नहीं है। उसकी लड़ाई अब किसी व्यक्ति तक सीमित नहीं है। यह आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई है, जिसकी जड़ें केवल पाकिस्तान तक नहीं, जाने कितने और देशों तक फैली हुई हैं। यहां केवल लादेन या उमर की मौत तक भी लड़ाई सीमित नहीं है। यह जिहाद के खिलाफ या यों कहें कि अरबी इस्लामी साम्राज्यवाद के विरुद्ध युद्ध है। अमेरिका यहां से भागकर अपनी रक्षा नहीं कर सकता। तालिबान व अलकायदा को बिना अंतिम पराजय के गर्त में पहुंचाए वह वहां से हटा, तो दुनिया के किसी कोने में उसके हित सुरक्षित नहीं रह सकते। फिर इस युद्ध में जैसा कि राष्ट्रपति ओबामा ने स्वयं कहा है कि केवल अमेरिका की सुरक्षा या केवल उसके अपने हित ही दांव पर नहीं है, बल्कि उसके सारे सहयोगियों की सुरक्षा दांव पर है। और सच कहें कि यदि अफगानिस्तान में तालिबान विजयी हुए, तो तमाम लोकतांत्रिक शक्तियों पर उनका दबाव बढ़ जाएगा।
इससे जिहादी मनोबल किस तरह बढ़ेगा, इसकी कल्पना करना भी कठिन है। यह एक खुला तथ्य है कि इन्हीं मुजाहिदीनों ने दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी महाशक्ति सोवियत संघ को पराजित किया था और उसकी सेनाओं को अफगानिस्तान छोडऩे पर मजबूर कर दिया था। अब यदि ये अमेरिका जैसी महाशक्ति को भी भगाने में सफल हो जाते हैं, तो फिर ये स्वत: दिग्विजयी बन जाएंगे। इस बात को बार-बार दोहराने का आज कोई अर्थ नहीं रह गया है कि तालिबान की यह फौज अमेरिका की मदद से ही तैयार हुई थी, क्योंकि शीतयुद्ध काल के सारे समीकरण अब उलट-पुलट हो चुके हैं। अब इस इक्कीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी समस्या है कि जिहादी ताकतों से लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा कैसे की जाए।
सच कहा जाए, तो अफगानिस्तान में अमेरिका का कोई निजी हित दांव पर नहीं है, बल्कि उससे अधिक भारत का हित वहां दांव पर लगा हुआ है। जो युद्ध अभी अफगानिस्तान में लड़ा जा रहा है, वह वहां नहीं लड़ा गया, तो उसकी युद्धभूमि भारत बनेगा। क्योंकि तालिबान या जिहादियों के सीधे निशाने पर भारत है। लोगों को शायद ख्याल हो कि अफगानिस्तान में जब तालिबान नेता मुल्ला उमर की सरकार कायम हो गयी थी, तो तमाम तालिबान लड़ाके कश्मीर में भारतीय सीमा के निकट इकट्ठा होने लगे थे। अफगानिस्तान में अमेरिकी हमला शुरू हो जाने के कारण वे फिर यहां से अफगानिस्तान लौटे, अन्यथा उनका लक्ष्य कश्मीर के लिए भारत सरकार के खिलाफ जिहादी संघर्ष तेज करना था। अभी भारत अफगानिस्तान में उसके पुनर्निर्माण के कार्य में लगा है। वह मध्य एशिया से अफगानिस्तान होकर ईरान तक सड़क निर्माण में लगा है। शिक्षा, चिकित्सा तथा उद्योग धंधों के लिए ढांचा तैयार करने की महती जिम्मेदारी वह अपने ऊपर लिए है। इस कार्य से बहुत से उन अफगानों का भी दिल जीत रहा है, जो वहां अमेरिका की उपस्थिति से खफा हैं। लेकिन यह सब पाकिस्तान को फूटी आंखों नहीं सुहा रहा है। इसलिए अब यह भारत की जिम्मेदारी है कि वह अमेरिका को समझाये कि वह अफगानिस्तान से निकलने की जल्दबाजी न करे। उसे अपने देश की जनता को यह समझाना चाहिए कि वह अफगानिस्तान में किस तरह की लड़ाई लड़ रहा है। अभी तो वहां पुलिस, फौज या सुरक्षा का काम अमेरिका संभाले है और निर्माण का कार्य भारत। लेकिन जिस क्षण अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान को खाली किया, उसके अगले ही क्षण भारत का निर्माण कार्य भी ठप्प हो जाएगा, क्योंकि तालिबान उसे चलने नहीं देंगे। भारत वहां पर अफगानिस्तान की सरकारी फौज तैयार करने में लगा है। उसे प्रशिक्षण देने की पूरी जिम्मेदारी भारत पर है, लेकिन डेढ़ साल में वह ऐसी कोई फौज तैयार कर देगा, जो अमेरिकी फौज की जगह ले सके और तालिबान का मुकाबला कर सके। यह प्राय: असंभव ही है। तो क्या अमेरिका अफगानिस्तान को अराजगता के जंगल में छोड़कर चला जाएगा।
ऐसा कहा जा रहा है कि सेना की वापसी की घोषणा केवल अमेरिकी जनता के संतोष के लिए की गयी है, यथार्थ में ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है। सेना की वापसी का कार्यक्रम तालिबान और अलकायदा के सारे गढ़ों को नेस्तनाबूद कर दिये जाने पर निर्भर है। यदि वे बने रहते हैं, तो फिर अमेरिकी सेना कैसे वापस हो सकेगी। ओबामा ने अपना लक्ष्य पूरा करने के लिए पाकिस्तान व अफगानिस्तान दोनों देशों की सरकारों पर दबाव बढ़ाया है। उसने पाकिस्तान को यह चेतावनी भी दी है कि यदि वह तालिबान के सुरक्षित गढ़ों को भेदने का काम ईमानदारी से नहीं किया, तो वह स्वयं इस काम को अपने हाथ में लेगा और मानवरहित द्रोण विमानों के हमले का दायरा बढ़ जाएगा।
यहां ध्यान देने की बात है कि द्रोण विमान जंगल तथा पहाड़ी इलाकों में ही हमले कर रहे हैं। वे शहरी क्षेत्रों पर हमले नहीं कर सकते, क्योंकि उस स्थिति में बड़ी संख्या में निर्दोष नागरिक मारे जाएंगे और यह कोई जरूरी नहीं कि अलकायदा व तालिबान के मुखिया अब तक जंगल व पहाड़ों में ही पड़े हों। जैसी कि खबर है कि क्वैटा के पास एक पूरा कस्बा तालिबान द्वारा खरीद लिया गया है। पाकिस्तानी सेना स्वयं उसकी रखवाली कर रही है।
ओबामा साहब पाकिस्तान के प्रति अधिक उदार है। हो सकता है कि यह उदारता भी रणनीतिक हो, फिर भी जैसी कठोर भाषा उन्होंने अफगान सरकार के लिए इस्तेमाल की है, वैसी पाकिस्तान के लिए नहीं। उन्होंने अफगान राष्ट्रपति हामिद करजयी से साफ कह दिया है कि अब और 'ब्लैंक चेक` नहीं। यानी अब खुद कमर कसो और परिणाम दिखाओ। जबकि उन्होंने पाकिस्तान को अपना रणनीतिक साझीदार बनाने का प्रलोभन दिया है।
पता नहीं ओबामा साहब इस बात को समझ पाते हैं या नहीं, और यदि नहीं समझ पाते तो यह उनकी सबसे बड़ी भूल है कि पूरा पाकिस्तान ही जिहादी आतंकवाद का गढ़ है। अफगानिस्तान तो उसी का विस्तार है। पाकिस्तान वस्तुत: इस्लामी जिहाद का प्रतीक है, क्योंकि इसका जन्म ही जिहादी हिंसा से हुआ है। यदि अलकायदा और तालिबान को पराजित करना है, तो उन्हें पाकिस्तान को पराजित करना होगा।
पाकिस्तान की जड़ सींचते हुए अफगानिस्तान की शाखाएं काटने से अंतर्राष्ट्रीय जिहादी आन्दोलन पराजित होने वाला नहीं है। जुलाई 2011 तक कैसी स्थिति बनेगी, कहना कठिन है, लेकिन भारत को उसके संभावित परिणामों की तैयारी अभी से शुरू कर देनी चाहिए।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट और अयोध्या का सच

6 दिसंबर 1992 को तथाकथित बाबरी मस्जिद के ध्वंस के कारणों, परिस्थितियों तथा जिम्मेदारियों का पता लगाने के लिए गठित लिब्रहान जांच आयोग की रिपोर्ट सबके सामने आ चुकी है। लेकिन सवाल है कि क्या यही कुल सच है, अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का, और उसके ध्वंस के कारणों का। क्या यह सच नहीं है कि 6 दिसंबर की यह घटना शताब्दियों की प्रशासनिक और न्यायिक विफलता का परिणाम थी। देश की यह समस्या तो तब की है,जब संघ, भाजपा व विहिप की पैदाइश भी नहीं हुई थी। यह तो आज की राजनीति है कि इसे 22 दिसंबर 1949 या 6 दिसंबर 1992 की घटनाओं में सीमित कर दिया गया है। वस्तुत: यह समस्या 1528 की है, जो अब तक चली आ रही है। आखिर इसके समाधान की कब तक और प्रतीक्षा करनी होगी।


तथाकथित बाबरी मस्जिद का ढांचा ढहाए जाने के कारणों की जांच के लिए गठित एक सदस्यीय लिब्रहान जांच आयोग ने करीब साढ़े छ: करोड़ रुपये खर्च करके 16 वर्ष 6 महीने 14 दिन बाद अपनी रिपोर्ट गत 30 जून 2009 को सरकार को सौंपी। करीब 1024 पृष्ठ की इस विशाल रिपोर्ट में केवल एक व्यक्ति को छोड़कर और सभी को दोषी ठहरा दिया गया। व्यक्तिगत रूप से 68 लोगों को दोषी करार दिया गया है, किन्तु किसी के खिलाफ किसी दंडात्मक कार्रवाई की सिफारिश नहीं है। केंद्र सरकार ने चुपचाप इस रिपोर्ट को दबाकर रख था। विपक्ष की भी इसमें कोई खास रुचि नहीं थी, इसलिए किसी ने भी इसे संसद के पटल पर रखने के लिए जोर नहीं दिया। सरकार के पास यों भी ऐसी रिपोर्ट पेश करने के लिए कम से कम 6 महीने का समय था, इसलिए वह भी दिसंबर तक तो निश्चिन्त ही थी। लेकिन एक दिन सुबह (23 नवंबर 2009) एक अंग्रेजी दैनिक ने रिपोर्ट लीक कर दी। यह रिपोर्ट किसके द्वारा लीक करायी गयी, यह अब तक रहस्य बना हुआ है। विपक्ष का आरोप है कि सरकार ने इसे खुद लीक कराया, लेकिन यह बात विश्वसनीय नहीं लगती, क्योंकि उसे लीक कराने की क्या जरूरत थी, वह इसे सीधे सदन में पेश कर सकती थी। उसने इससे अब तक सदन में पेश नहीं किया था, तो शायद इसीलिए कि वह खुद भी इस पर चर्चा या बहस से बचना चाहती थी। सरकारी सूत्रों की माने, तो वह इसे संसद के वर्तमान सत्र के अंतिम दो दिन में पेश करना चाहती थी, मगर रिपोर्ट लीक हो जाने से उसे मजबूरन अगले दिन यानी 24 नवंबर को उसे सदन में पेश करना पड़ा।
सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश मोहिन्दर सिंह लिब्रहान के नेतृत्व में यह जांच आयोग मस्जिद ढहने की घटना (6 दिसंबर 1992) के मात्र 10 दिन बाद 16 दिसंबर को गठित किया गया था। कांग्रेसी नेतृत्व की तत्कालीन केंद्र सरकार के प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने इसके गठन की घोषणा की थी। आयोग को यह पता लगाना था कि मस्जिद किन परिस्थितियों में ढहायी गयी और कौन इसके जिम्मेदार हैं। लिब्रहान साहब ने अपने नियोक्ता का पूरा ध्यान रखा। उन्होंने प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव को हर तरह के आरोप व दोष से मुक्त कर दिया है, बाकी भारतीय जनता पार्टी व संघ परिवार के नीचे से ऊपर तक सारे नेताओं को दोषी करार दिया है। उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह उनके केंद्रीय निशाने पर हैं, बाकी प्रशासन व पुलिस किसी को माफ नहीं किया है। भविष्य में ऐसी कोई घटना फिर न दोहरायी जाए इसके लिए जस्टिस लिब्रहान ने 65 सिफारिशें की हैं। इनमें कई ऐसी सिफारिशें हैं, जिन पर सरकार को सौ बार विचार करना पड़ेगा। जैसे सांप्रदायिकता व जातिवाद से पुलिस व अफसरशाही यानी प्रशासन को दूर रखने की उनकी सिफारिश सरकार की आरक्षण योजना को ध्वस्त कर सकती है। उनकी यह भी सिफारिश है कि जो लोग लाभ के पदों पर कार्यरत हैं, उन्हें धार्मिक संगठनों, चैरिटी व ट्रस्टों का सदस्य बनने की अनुमति न दी जाए। यही नहीं वह यह भी चाहते हैं कि यदि धार्मिक कार्ड इस्तेमाल करके कोई पार्टी चुनाव जीतकर आती है, तो उसे सत्ता संभालने से रोकने के उपाय किये जाएं।
आयोग ने अपनी रिपोर्ट में भाजपा, संघ परिवार एवं कल्याण सिंह की सरकार पर पूरा गुस्सा निकाला है। इसमें उन्होंने किसी को माफ नहीं किया है। हां थोड़ा वर्गीकरण अवश्य किया है, जैसे कि कल्याण सिंह, उमा भारती, गोविंदाचार्य आदि को 'रेडिकल्स में गिना है, तो भाजपा के तीन शीर्ष नेताओं अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी एवं मुरली मनोहर जोशी को छद्म उदारवादी (श्यूडो माडरेट) यानी ऐसा व्यक्ति बताया है, जो सिर्फ देखने सुनने में उदारवादी है या यों कहें कि उन्होंने उदारवाद का चोला पहन रखा है, वैसे हैं वे भी 'रेडिकल ही। उनका यह भी कहना है कि बाबरी मस्जिद को योजनाबद्ध ढंग से गिराया गया। इसे गिराने की सोची-समझी साजिश थी। यह कोई आकस्मिक आक्रोश या उत्तेजना का परिणाम नहीं था। यह साजिश वास्तव में किसने रची और किसने इसे कार्यान्वित किया, यह ठीक-ठीक जानकारी लिब्रहान के पास नहीं है। लेकिन उन्होंने भाजपा व संघ परिवार के शीर्ष नेताओं तक को इसके लिए इसलिए जिम्मेदार ठहराया कि ऐसा हो ही नहीं सकता कि उन्हें इसकी जानकारी न रही हो। सच्चाई यह है कि इसके बारे में लिब्रहान साहब ऐसी कोई जानकारी खोजकर नहीं ला सके, जो नई हो या जिसके बारे में आम जनता को पहले से कोई जानकारी न हो।
मोटे तौर पर यह सभी जानते हैं कि जिन्होंने बाबरी मस्जिद के खिलाफ आंदोलन छेड़ा, यह नारा दिया कि 'मंदिर वहीं बनाएंगे यानी उसी जगह पर, जिस जगह पर वह मस्जिद खड़ी है, वहीं नये मंदिर का निर्माण करेंगे, जिन्होंने कार सेवा शुरू की तथा जिन्होंने मंदिर निर्माण के लिए देशभर से शिलाएं एकत्रित की, अयोध्या में मंदिर निर्माण कार्यशाला खोली, वे ही मस्जिद ढहाने के भी जिम्मेदार हैं। यदि वे इस घटना के बाद प्रतिवर्ष उस दिन देशभर में शौर्यदिवस मनाते हैं, तो वे इस बात की ही पुष्टि करते हैं कि वे इसके जिम्मेदार हैं। इसलिए यदि लिब्रहान साहब अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर नीचे तक भाजपा व संघ परिवार को इसका स्थूलतया दोषी मानते हैं, तो कुछ भी गलत नहीं करते। विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष अशोक सिंघल भी यह मानते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी भी राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के अंग थे। इसके लिए लखनऊ में वह गिरफ्तार भी हुए थे। लेकिन यहां सवाल है कि क्या यही पता लगाने के लिए उन्होंने करीब 17 वर्षों का लंबा समय लिया।
अपनी इस रिपोर्ट में उन्होंने केवल एक बात सही कही है, जो आम आदमी की अवधारणा के खिलाफ है और उसे चकित करने वाली है। वह है इस मामले में प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव को पूरी तरह दोषमुक्त करार दे देना। इसमें दो राय नहीं कि बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने में उनकी कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं थी, लेकिन उनकी मूक स्वीकृति अवश्य थी। क्योंकि इतना तय है कि यदि वह न चाहते, तो मस्जिद का ढांचा नहीं गिर सकता था। सच कहा जाए, तो उन्होंने बड़ी चतुराई से बाबरी मस्जिद को अपनी राजनीति का मुहरा बना लिया था। वास्तव में उन्होंने इस मंदिर आंदोलन के खिलाफ भाजपा को ही इस्तेमाल करने की चाल चली। इस चाल में उन्हें अपने दोनों हाथों में राजनीतिक लाभ के लड्ïडू नजर आ रहे थे और आत्मिक तृप्ति का अलग से लाभ मिलने की भी संभावना थी।
उन्होंने उत्तर प्रदेश राज्य की भाजपा सरकार के कंधे पर मस्जिद रक्षा का भार स्थापित किया। संवैधानिक नियमों में बंधी सरकार यह नहीं कह सकती थी कि वह मस्जिद के ढांचे की सुरक्षा नहीं कर सकती। इसलिए उसने राष्टï्रीय एकता परिषद की बैठक में भी यह वचन दिया और अदालत को भी इसका आश्वासन दिया। लेकिन इसके साथ ही वह राम मंदिर आंदोलन व कारसेवा को भी रोकने में असमर्थ थी, क्योंकि जिस राम मंदिर आंदोलन की लहरों ने उसे सत्ता तक पहुंचाया था, वह अब उसी ज्वार को रोकने का साधन कैसे बन सकती थी। उसे इन लहरों के साथ बहना ही था। नरसिंह राव साहब ने कल्याण सिंह को हर तरह की मदद का आश्वासन दिया। यह भी कहा कि जितनी केंद्रीय पुलिस की जरूरत हो, वह देने के लिए तैयार हैं। लेकिन मस्जिद की रखवाली उन्हें ही करनी पड़ेगी। राव साहब की यह चाल भाजपा की सरकार के लिए एक शिकंजा थी। ऐसा नहीं हो सकता कि मस्जिद को ढहाने की कोई साजिश हो और उसकी भनक केंद्र को बिल्कुल न हो। लेकिन राव साहब जानते थे कि बिना कठोर बल प्रयोग, यानी बिना रक्तपात के अब इसे रोका नहीं जा सकता। कल्याण सिंह यदि मस्जिद को बचाने का वचन निभाएंगे, तो उन्हें कारसेवकों पर लाठी डंडे ही नहीं गोली भी चलानी पड़ेगी। और यदि वे यह नहीं करेंगे, तो मस्जिद का ढहना तय है। राव साहब की दृष्टिï में ये दोनों स्थितियां उनकी पार्टी के हित में थीं। यदि कल्याण सिंह गोली चलवाएंगे, तो मस्जिद भले बच जाए, लेकिन भाजपा का पूरा जनाधार ध्वस्त हो जाएगा और यदि उन्होंने कुछ न किया और मस्जिद गिरने दी, तो फिर केंद्र सरकार हरकत में आएगी और मस्जिद के साथ भाजपा की सरकारों को ध्वस्त करके वहां के शासन अपने हाथ में ले लेगी।
इसमें दो राय नहीं कि राव साहब यदि चाहते तो मस्जिद का बाल भी बांका नहीं हो सकता था। वह विवादित परिसद को केंद्र के अधिकार में लेकर उसके चारों तरफ अर्धसैनिक बलों का पहरा लगवा सकते थे। यह काम बिना राज्य सरकार को बर्खास्त किये भी हो सकता था, लेकिन उस स्थिति में कांग्रेस को देशव्यापी हिन्दू आक्रोश का सामना करना पड़ता, जिसका निश्चय ही उसे भारी राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ता। इसलिए उन्होंने एक तीर से तीन शिकार करने की कोशिश की और बदनामी द्ब्रोलकर भी न केवल भाजपा को धूलिसात किया, बल्कि कांग्रेस पार्टी का भी बचाव किया। यह बात दूसरी है कि उनकी इस राजनीति से देश का मुस्लिम समुदाय बिदक गया और उन्हें भी बाबरी मस्जिद ध्वंस के लिए कल्याण सिंह से कम जिम्मेदार नहीं माना। किन्तु लिब्रहान साहब ने नरसिंह राव को इस मामले में पूरी तरह निर्दोष करार दिया है। उनका तर्क है कि चूंकि उनके पास उत्तर प्रदेश के राज्यपाल की तरफ से कोई रिपोर्ट नहीं थी, इसलिए उनके हाथ-पांव बंधे थे, क्योंकि इस तरह की रिपोर्ट के बिना वह कोई कार्रवाई नहीं कर सकते थे। अब यह बात अलग है कि कोई भी व्यक्ति इसे अत्यंत बचकाना तर्क ही कहेगा। प्रधानमंत्री राज्यपाल से जैसी चाहते वैसी रिपोर्ट मंगवा सकते थे। फैजाबाद (जिसके अंतर्गत अयोध्या आता है) से प्रकाशित हिंदी दैनिक के संपादक शीतला सिंह ने अपने लेखों में लिखा है कि 6 दिसंबर के दिन वह लगातार प्रधानमंत्री कार्यालय से संपर्क में थे। अयोध्या की मिनट-मिनट की खबर वहां पहुंच रही थी, फिर भी प्रधानमंत्री कार्यालय तब तक हरकत में नहीं आया, जब तक कि मस्जिद पूरी तरह भूमिसात नहीं हो गयी। केंद्रीय सुरक्षा बल तथा केंद्र से भेजी गयी 'रैपिड एक्शन फोर्स की बटालियनें दो दिन पहले से घटना स्थल से मात्र 8 कि.मी. दूरी पर तैनात थीं। मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का इस्तीफा दिन के साढ़े तीन बजे ही पहुंच गया था, लेकिन उन्हें बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लागू करने की कार्रवाई रात 8.30 पर हुई। शीतला सिंह की रिपोर्ट पर यदि विश््वास करें, तो मस्जिद ढहने के बाद उस विवादित स्थल पर अस्थाई राम मंदिर के निर्माण की सारी कार्रवाई राष्टï्रपति शासनकाल में और केंद्रीय बलों के घेरे में हुई।
कोई भी जांच आयोग या न्यायालय अपना फैसला कानूनों के तकनीकी दायरे के भीतर साक्ष्यों के आधार पर देता है। इसमें उसकी मानवीय सीमाएं भी होती हैं। फिर ऐसे जांच आयोगों के गठन वस्तुत: राजनीतिक आधार पर होते हैं और बहुधा उनका निश्चित राजनीतिक लक्ष्य भी होता है। लिब्रहान आयोग भी इसका अपवाद नहीं। इसके आधार पर किसी व्यक्ति के खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं होनी है, लेकिन सरकार को राजनीतिक कार्रवाइयां करने का प्रचुर अवसर दिया गया है।
अब यदि पूरे प्रकरण पर तटस्थ ढंग से विचार करें, तो देखेंगे कि राममंदिर का यह आंदोलन छेडऩे वाला भले ही कोई एक पार्टी, एक संगठन या एक सांगठनिक परिवार रहा हो या भले ही इसका लाभ किसी एक पार्टी ने उठाया हो, लेकिन सच्चाई यह है कि इसमें लोग पार्टियों की सीमा तोड़कर शामिल हुए थे। सांस्कृतिक दृष्टिï से देश का हर संवेदनशील नागरिक इस आंदोलन के साथ था। राजनीतिक दृङ्क्षष्टï से जो भाजपा के विरोधी थे, वे भी अंतर्मन से इस मुद्दे पर उसके साथ थे। मस्जिद ढहने पर केवल संघियों व भाजपाइयों ने ही नहीं कांग्रेसियों व कम्युनिस्टों में से भी तमाम लोगों ने हर्ष मनाया था। वे बयान कुछ और देते थे, लेकिन भावनात्मक स्तर पर वे इसे ढहाने वालों के साथ थे। उन्हें अफसोस था तो केवल यह कि इसे ढहाने वाले सीधे सामने आकर यह क्यों नहीं कहते कि हां हमने ढहाया है। भाजपा को या आडवाणी को इसकी सजा नहीं मिली है कि वे मंदिर नहीं बनवा सके। उन्हें सजा मिली है कि वे उनमें यह साहस नहीं है कि वे कह सकें कि उन्हें इसकी प्रसन्नता है, क्योंकि वे चाहते थे कि यह ढह जाए। यहां के नेताओं का दोहरापन यहां की राजनीति का सबसे बड़ा रोगा है। वे चाहते कुछ हैं, करते कुछ हैं और कहते कुछ और हैं। आखिर वे साहसपूर्वक संसद में व जनता के बीच यह क्यों नहीं कहते कि राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद का विवाद कोई 1992 या 1949 का नहीं, बल्कि 1528 का है।
राम जन्मभूमि स्थल पर मंदिर की लड़ाई न तो संघ परिवार ने शुरू की है और न भारतीय जनता पार्टी ने। इन्होंने तो केवल इसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की है। इसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश कांग्रेस ने भी की, लेकिन उसने ऐसे साहस का प्रदर्शन नहीं किया कि वह भाजपा व संघ को इस मामले में पीछे छोड़ सके। राजीव गांधी ने जब अयोध्या में मस्जिद के मुख्य द्वार के सामने बमुश्किल 20 गज की दूरी पर मंदिर का शिलान्यास कराया तथा चुनाव प्रचार की अपनी शुरुआत अयोध्या से 'रामराज्य लाने के नारे के साथ की, तो उनका लक्ष्य स्पष्टï था, किन्तु कांग्रेस का इतिहास हमेश मुस्लिमों की तरफ झुका रहा है। लेकिन इससे इतना तो प्रमाणित होता ही है कि कांग्रेस का बहुसंख्यक कार्यकर्ता वर्ग मंदिर के पक्ष में था और वह चाहता था कि राम मंदिर निर्माण का लाभ विपक्ष के खाते में जाने के बजाए कांग्रेस के खातेे में आए।
बहुत से लोगों को शायद यह न पता हो कि तथाकथित बाबरी मस्जिद एक दिन भी विवादमुक्त नहीं रही। 1528 में वहां स्थित मंदिर को ढहाने के बाद (अब इसके पुरातात्विक साक्ष्य भी प्राप्त हो चुके हैं), जब मस्जिद का निर्माण शुरू हुआ, तभी से स्थानीय लोगों ने उसका विरोध शुरू कर दिया था। आज भले उन संघर्षों का कोई क्रमबद्ध-दस्तावेजी प्रामाणिक इतिहास न उपलब्ध् हो, लेकिन लोककथाओं में वह इतिहास जीवित है और पारिस्थितिक साक्ष्य उसकी पुष्टि करते हैं। अब तक बहुत बार यह सारी कहानी दुहरायी जा चुकी है, लेकिन याद ताजा करने के लिए इनका संक्षिप्त उल्लेख किया जा सकता है।
कहा जाता है कि इस विवादित स्थल के लिए लगातार चल रहे खूनी संघर्ष को टालने के लिए बादशाह अकबर ने मस्जिद परिसर के भीतर ही हिन्दुओं को एक चबूतरे पर राम की पूजा करने की अनुमति दे दी। पूरी दुनिया के इतिहास में यह अनूठा उदाहरण है, जब मस्जिद परिसर में मूर्ति पूजा की अनुमति मिली हो। यह हिन्दुओं को शांत करने का एक अस्थाई उपाय था, लनेकिन यह अस्वाभाविक व्यवस्था थी। इस्लाम जो मूर्ति पूजा का कट्टर विरोधी है, उसके साथ यह व्यवस्था शांतिपूर्वक तो नहीं चल सकती थी, फिर भी यह व्यवस्था लगातार ब्रिटिश काल तक चलती रही। कम से कम ब्रिटिश दस्तावेजों में इसका रिकार्ड है। 1905 के 'फैजाबाद के गजेटियर के अनुसार 1855 तक हिन्दू तथा मुस्लिम एक ही भवन (यहां मस्जिद नाम का उल्लेख नहीं है, लेकिन भवन से आशय बाबरी मस्जिद ही है) में अपनी-अपनी पूजा किया करते थे, लेकिन विद्रोह (1857) के बाद मस्जिद के आंगन में मुख्य भवन के सामने एक दीवाल खड़ी कर दी गयी, जिसके भीतर हिन्दुओं को आने से रोक दिया गया। वे (हिन्दू) इस दीवाल के बाहर एक चबूतरे पर अपनी पूजा किया करते थे। 1857 से 1949 तक यही व्यवस्था चलती रही, लेकिन बीच में हिन्दू चुप नहीं बैठे रहे। 1883 में रघुबर दास नाम से एक साधु ने उस चबूतरे पर एक मंदिर बनाने का प्रयास किया, क्योंकि चबूतरे पर भी किसी स्थाई निर्माण का निषेध था। हिन्दू केवल एक घास-फूस की झोपड़ी -वह भी बमुश्किल तीन फिट ऊंची- रखकर पूजा किया करते थे। उन्होंने (रघुबर दास) डिप्टी कमिश्नर के यहां दरखास्त दी, लेकिन 19 जनवरी 1885 को डिप्टी कमिश्नर ने उनकी याचना रद्द कर दी। फिर जिला जज के यहां दरखास्त दी। उन्होंने भी मौका मुआयना करने के बाद मंदिर की अनुमति देने से इंकार कर दिया। उस समय जिला जज थे जे.इ.ए. चांबियार। उन्होंने 17 मार्च 1886 के अपने फैसले में कहा कि चबूतरे पर मंदिर बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। फिर 25 मई 1886 को अवध प्रांत के जुडिशियल कमिश्नर डब्लू यंग की अदालत में अपील की गयी। वह अपील भी खारिज हो गयी।
कानूनी तौर पर यद्यपि हिन्दुओं की कोई याचिका स्वीकार नहीं की गयी, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उनका कोई दावा ही नहीं बनता था। बाबा रघुबर दास की याचिका रद्द करते हुए जिला जज ने अपने फैसले में एक अत्यंत महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी, 'मैंने देखा कि सम्राट बाबर द्वारा बनवायी गयी मस्जिद अयोध्या नगर के किनारे स्थित है... यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि यह मस्जिद ऐसी जगह पर बनायी गयी है, जो हिन्दुओं के लिए अत्यंत पवित्र एवं महत्वपूर्ण है, लेकिन चूंकि यह घटना 358 साल पहले की है, इसलिए इसके लिए बहुत देर हो चुकी है कि पीडि़त पक्ष की शिकायत दूर करके कोई राहत दी जा सके। ऐसे में जो कुछ किया जा सकता है, वह केवल यही है कि दोनों पक्षों के बीच यथास्थिति बनाए रखी जाए। ऐसे मामले में -जैसा की यह है- कोई नया कदम उठाने से लाभ के बजाए हानि अधिक हो सकती है और व्यवस्था बिगड़ सकती है।
जब कोई कानूनी प्रयास सफल नहीं हुआ, तो लोगों ने कानून का दरवाजा खटखटाने से तौबा कर लिया। तब तक कांग्रेस का गठन हो गया था। लोगों ने आजादी के आंदोलन की ओर ध्यान देना शुरू किया। यह माना गया कि अब देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद ही हिन्दुओं को राम जन्मभूमि पर अपना अधिकार मिल सकेगा। इस बीच अयोध्या में एक-दो दंगे हुए। दंगे प्राय: रामनवमी के अवसर पर हुए, जब संयोग से बकरीद भी उसी समय पड़ी और अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर ने मुसलमानों को गाय की कुरबानी करने की अनुमति दे दी। ऐसा एक दंगा 1912 में हुआ, लेकिन वह जल्दी नियंत्रित हो गया। 1934 में एक बड़ा दंगा हो गया, जिसमें हिन्दुओं ने बाबरी मस्जिद पर भी हमला कर दिया और उसके एक गुम्बद को ढहा दिया। अंग्रेज सरकार ने हमलावरों पर कड़ी कार्रवाई की और पूरी अयोध्या पर दंडात्मक कर (प्यूनिटिव टैक्स) लगा दिया। इससे एकत्रित धन से गुम्बर की मरम्मत करायी गयी।
इसके बाद अयोध्या के लोग देश की स्वतंत्रता की प्रतीक्षा करने लगे। 15 अगस्त 1947 को देश के विभाजन के साथ स्वतंत्रता भी हासिल हुई। मुसलमानों का अलग पाकिस्तान बन गया। अब इन्हें लगा कि अब तो राम जन्मभूमि परिसर पर उनका अधिकार हो ही जाएगा, लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ, तो बेचैन अयोध्यावासियों ने इसके लिए सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया। उन्होंने पूरी अयोध्या में अखंड रामचरितमानस का पाठ शुरू किया। वह महीनों चलता रहा, फिर भी प्रशासन नहीं चता तो रामचरण दास नाम के एक साधु ने बम से मस्जिद को उड़ा देने की योजना बनायी। लेकिन बम बनाते समय ही विस्फोट हो गया और वे अंधे हो गये। योजना विफल हो गयी। फिर कुछ उत्साही साधुओं ने 22 दिसंबर 1949 की मध्यरात्रि में मस्जिद में घुसकर वहां बालरूप राम की मूर्ति स्थापित कर दी और उस मस्जिद के भवन को ही मंदिर बना दिया।
यह खबर आग की तरह शहर में फैल गयी। सूचना प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू तक पहुंची। उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत को आदेश दिया मूर्तियां तत्काल हटा दी जाएं। पंत जी ने राज्य के मुख्य सचिव भगवान सहाय और आई.जी. पुलिस (उस समय आई.जी. ही प्रदेश की पुलिस का सर्वोच्च अफसर हुआ करता था), वी.एन. लाहिड़ी को निर्देश दिया। उन्होंने फैजाबाद के डिप्टी कमिश्नर के.के. नैयर को यह फरमान सुनाया कि पंडित नेहरू तथा पं. पंत का आदेश है कि मूर्तियां फौरन हटा दी जाएं, मगर के.के. नैयर ने आदेश मानने से इंकार कर दिया और जवाब भेजा कि इस समय पूरी अयोध्या आंदोलित है और यदि ऐसे समय में मूर्तियां हटाने की कोशिश की गयी, तो भारी खून-खराबा हो सकता है। तो इसके विकल्प स्वरूप परिसर को पुलिस घेरे में ले लिया गया और यथास्थिति बनाये रखने का निर्देश दिया गया। 16 जनवरी 1950 को अयोध्या केएक नागरिक गोपाल सिंह विशारद ने सिविल जज के पास याचिका दी कि उन्हें वहां निर्बाध पूजा व दर्शन का अधिकार दिया जाए। ऐसी ही एक याचिका रामचंद परमहंस द्वारा दायर की गयी। तबसे इन मुकदमों का दूसरा दौर शुरू हुआ।
विश्व हिन्दू परिषद ने तो 1984 में इस मसले में हाथ डाला। यहां उसकी पृष्ठभूमि देना संभव नहीं है, लेकिन यह सच्चाई है कि इसके पहले विश्व हिन्दू परिषद, भाजपा या संघ का इस माले में कोई संबंध नहीं था। सारी लड़ाई स्थानीय लोग ही लड़ रहे थे।
इधर की दोनों पक्षों की स्थिति से सभी वाकिफ हैं, लेकिन एक तथ्य बहुत कम चर्चा में आ पाता है, वह यह है कि बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद हाईकोर्ट के आदेश पर उस जमीन का पुरातात्विक उत्खनन भी हो चुका है, जिस पर उपर्युक्त मस्जिद खड़ी थी। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ए.एस.आई.) विभाग द्वारा कराये गये इस उत्खनन में यह असंदिग्ध रूप से प्रमाणित हो चुका है कि वहां पर ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी का बना एक भव्य मंदिर खड़ा था, जिसे तोड़कर यह मस्जिद बनी थी। यही नहीं, उपुर्यक्त मंदिर की सतह के नीचे भी एक फर्श मिली है, जिससे यह संकेत मिलता है कि इस मंदिर के पहले भी वहां कोई मंदिर था, जिसके कालक्रम में ढह जाने के कारण गहड़वाल नरेश गोविंदचंद्र ने इस मंदिर का निर्माण कराया था, लेकिन मुस्लिम पक्ष इस पुरातात्विक प्रमाण को भी मानने के लिए तैयार नहीं है।
अब इस पृष्ठभूमि में 6 दिसंबर 1992 की घटना पर विचार करें। लिब्रहान साहब कहते हैं कि पुलिस और सुरक्षा बल के जवान हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। लोग मस्जिद ढहाते रहे। प्रशासनिक व पुलिस अधिकारी सब कल्याण सिंह के षडï्ïयंत्र में शामिल थे। जैसा कि शीतला सिंह ने लिखा है, यह सच है कि राम जन्मस्थल पर मस्जिद ढहने के बाद जो अस्थाई मंदिर बना, वह राष्ट्रपति शासन काल में यानी नरसिंह राव साहब के शासन में और केंद्रीय सुरक्षा बलों के घेरे में उनकी देख-रेख में हुआ है। सुरक्षा बल या प्रशासन में शामिल होने मात्र से कोई व्यक्ति एकाएक अपने पूरे इतिहास व संस्कृति से अपने को अलग नहीं कर सकता। शताब्दियों का अपमान धोने का यदि अवसर मिले, तो कौन संवेदनशील चेतन व्यक्ति चूकना चाहेगा।
जब न्याय के दरवाजे बंद हो जाएं, तो किसी व्यक्ति या समुदाय के पास कानून हाथ में लेने या हिंसा पर उतारू होने के अलावा और रास्ता ही क्या बचता है। 1528 से लेकर 1992 तक की अनवरत प्रतीक्षा फिर भी न्याय के मंदिरों और प्रशासन के शीर्ष मंचों से कोई फैसला नहीं, कोई न्याय नहीं। कैसी विडंबना कि अकबर का फैसला ही आगे भी जारी रख गया। न अंग्रेजों ने बदला, न स्वतंत्र भारत की सरकार ने। देश हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर बट गया। पाकिस्तान अलग हो गया। फिर भी राम जन्मभूमि पर हिन्दुओं को अधिकार नहीं मिल सका। ऐसे में इस देश से किस प्रतिक्रिया की आशा की जा रही थी। लिब्रहान साहब कोई भी रिपोर्ट दें, लेकिन इस देश के इतिहास, संस्कृति तथा राष्ट्रीय चेतना से जुड़े हर व्यक्ति के लिए इस मस्जिद के ढहाए जाने की जिम्मेदारी बाबर से लेकर 1992 तक की देश की सारी राष्ट्रीय सरकारों और न्यायालयों के ऊपर जाती है। आहत समुदाय आखिर कब तक सरकारों और न्यायालयों की प्रतीक्षा करे। अफसोस की बात यह है कि इसका श्रेय उन कायर संगठनों और नेताओं को दिया जा रहा है, जिनमें यह स्वीकार करने का साहस नहीं है कि उन्होंने यह किया। जो इस पर अफसोस व्यक्त कर रहे हैं, इन्हें माफ कर दिया जाना चाहिए। असल में कभी-कभी लगता है कि आज के युग में न्याय भी राजनीति का गुलाम हो गया है या शायद राजकीय न्याय, हमेशा ही राजनीति का गुलाम रहा है। कम से कम राम जन्मभूमि व बाबरी मस्जिद प्रकरण से तो यही प्रमाणित होता है।